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‘अगर अभी भी मीडिया ट्रायल चल रहा है तो यह देश की न्याय प्रणाली में दखल है’ –उमर खालिद के पिता

Afroz Alam Sahil, TwoCircles.net

नई दिल्ली :दिल्ली की एक कोर्ट ने ‘देशद्रोह’ के मामले में गिरफ्तार किए गए जेएनयू छात्र उमर खालिद और अनिर्बान भटटाचार्य की पुलिस हिरासत दो दिन के लिए बढ़ा दी है. अब पुलिस दोनों छात्रों से दो दिन और पूछताछ कर सकेगी.

इस बीच TwoCircles.netने उमर खालिद के पिता डॉ. क़ासिम रसूल इलियास से एक ख़ास बातचीत की और जानने की कोशिश की अब वो क्या सोचते हैं?

TwoCircles.netसे इस ख़ास बातचीत में डॉ. क़ासिम रसूल इलियास ने अभी भी मीडिया के रोल पर नाराज़ नज़र आए. उनका स्पष्ट तौर पर कहना है कि –‘मामला अदालत में जा चुका है. तो अब अदालत को ही इसका फैसला करने देना चाहिए. मीडिया को फैसला करने का कोई हक़ नहीं है. अगर अभी भी मीडिया ट्रायल चल रहा है तो यह देश की न्याय प्रणाली में दखल है.’

वो बताते हैं कि –‘अदालत में दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा. हमें अदालत के फैसले का इंतज़ार है.’

उमर ख़ालिद से मुलाक़ात के संबंध में वो बताते हैं कि वो शनिवार को सुबह अपने बेटे से मिले हैं. उसे कुछ कपड़ों की ज़रूरत थी, वो उसे ही लेकर गए थे.

वो बताते हैं कि उमर खालिद बिल्कुल ठीक है और पुलिस लगातार उससे व उसके साथियों से पूछताछ कर रही है. कल कन्हैया को भी साथ बिठाकर पूछताछ की गई है.

कन्हैया कुमार के पीटने के स्टिंग व खुद कन्हैया का वीडियो आने के संबंध में डॉ. इलियास बताते हैं कि -‘ये जो वकील हज़रात हैं, उनका काम लोगों के हक़ूक़ की हिफ़ाज़त करना है. उन्हें कहीं से यह सर्टिफिकेट नहीं मिल गया है कि वो लोगों के जान-माल, इज़्ज़त-आबरू पर हमला करें. सुप्रीम कोर्ट ने इनके हरकतों का नोटिस ले लिया है. जांच-पड़ताल चल रही है.’

उधर पुलिस ने दावा किया है कि उमर, अनिर्बान और कन्हैया कुमार को एक साथ बिठाकर उनसे पूछताछ करने के बाद कार्यक्रम में मौजूद कुछ बाहरी तत्वों सहित 22 लोगों की पहचान हो सकी है. उमर और अनिर्बान को इससे पहले 24 फरवरी को तीन दिन की पुलिस हिरासत में भेजा गया था. उन्होंने पुलिस के सामने आत्मसमर्पण किया था .

इससे पहले, दिल्ली हाई कोर्ट ने आदेश दिया था कि कन्हैया के साथ-साथ उमर और अनिर्बान की रिमांड कार्यवाही के दौरान गोपनीयता बरती जाए. कोर्ट ने पुलिस को यह हिदायत भी दी थी कि किसी भी आरोपी छात्र को एक खरोंच तक नहीं आनी चाहिए और कोई हंगामा नहीं होना चाहिए.


‘मुसलमान औरतें कभी पीछे नहीं रहीं, चाहे वो असहयोग आंदोलन हो या भारत छोड़ो आंदोलन’

Fahmina Hussain, TwoCircles.net

सच्चर कमिटी रिपोर्ट के मुताबिक़ ग्रामीण इलाकों में मुस्लिम आबादी के 62.2 प्रतिशत के पास कोई ज़मीन नहीं है, जबकि इसका राष्ट्रीय औसत 43 प्रतिशत है. यहां तक कि शहरी इलाकों में 60 प्रतिशत मुस्लिम स्कूलों का मुंह नहीं देख पाते हैं. ग्रामीण इलाकों में गरीबी रेखा से नीचे के 94.9 प्रतिशत मुस्लिम परिवारों को मुफ्त राशन नहीं मिलता है.

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Muslim Women Convention

महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा मुस्लिम महिलाओं की शैक्षणिक प्रगति की योजना तैयार करने के उद्देश्य से बनाई गई एक रिपोर्ट में बताया गया है कि मुस्लिम लड़कियों का उच्च शिक्षा से दूर रहने के सबसे सामान्य कारण उनकी युवावस्था, महिला टीचर की कमी, लड़कियों के लिए अलग स्कूल न होना, परदा प्रथा, धर्मनिरपेक्ष शिक्षा का विरोध, जल्दी शादी होना और समाज का विरोधी और दकियानूसी रवैया है. यानी मुस्लिम औरतों के हक़ तथा तालीम की राह का इतिहास बड़ा पेचीदा है.

इन ही सारी बातों को रखते हुए ‘बेबाक कलेक्टिव’ द्वारा आयोजित ‘मुसलमान औरतों की आवाज़: सड़क से संसद तक’ विषय पर दो दिवसीय सम्मेलन के आख़िरी दिन इन मुद्दों पर चर्चा हुई. भारत के 14 राज्यों से आई महिलाओं ने जहां इस आयोजन में अपने उपस्तिथि दर्ज कराई, वहीं समाज में औरतों की हक़ और अधिकारों पर गहराई से चर्चा की गई.

इस दो दिवसीय सम्मेलन के आख़िरी दिन हमने ऐसी कई महिलाओं से बात की जो अपने अधिकार को पाने की लड़ाई लड़ रही हैं और साथ ही ऐसी कई औरतें जो मुस्लिम और मज़लूम औरतों की आवाज़ बन रही हैं.

जुलेखा बानो बताती है वो सालो पहले अपने पति से अलग हो गई थी, क्यूंकि उनके पति कोई काम नहीं करते थे, ना ही उनको कभी घर से निकलने देते थे. छोटे-छोटे चार बच्चों को पालना जब मुहाल हो गया, तब उन्होंने अपने दम पर ‘खुला’ लेकर अपने बच्चों को जहां पाला-पोसा, वहीं नारी-शक्ति नामक संस्था से भी जुडी. अपनी संस्था के द्वारा कोई ऐसी औरतों के अधिकार के लिए लड़ी, जो घरेलु हिंसा की शिकार रहीं.

रुकैया खातुन बताती हैं कि इस्लाम में लड़की की पसंद की शादी का पूरा अधिकार दिया गया है, लेकिन हमारे समाज के कुछ ठेकेदारों को ये पसंद नहीं है, जिसके लिए कहीं पसंद की शादी पर फ़तवा जारी किया जाता है तो कहीं खाप पंचायत जैसे समूह के लोग सर क़लम करने से भी बाज नहीं आते हैं.

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Muslim Women Convention

ज़या जो कि लॉ की प्रोफेसर हैं, उनका कहना है कि मुसलमान औरतें कभी पीछे नहीं रहीं, चाहे वो खिलाफ़त आंदोलन हो या असहयोग आंदोलन या फिर भारत छोड़ो आंदोलन… मुसलमान महिलाओं की इन सभी में काफी बड़ी हिस्सेदारी रही है.

तब्बसुम जो कि पेशे से टीचर हैं, बताती हैं कि शादी से पहले वो घर के आस-पास की ग़रीब लड़कियों को क़ुरआन पढ़ाती थीं, लेकिन अब वो तालीम के साथ-साथ उन्हें सिलाई-कढ़ाई और खाना बनाने की भी तालीम देती हैं. ताकि मुस्लिम लड़कियां अपने आपको घरेलु ज़िंदगी को भी सही तरीके से अपनी ज़िम्मेदारी को निभा सकें.

जाहिदा जो कि सोशल वर्कर हैं, कहती हैं कि मानवाधिकार का सवाल आज नया है, परंतु इतिहास में यह पहले से मौजूद रहा. हम वहीं औरतें हैं, जो अपनी निगरानी में महल तामीर कराती हैं, बाग लगवाती हैं, नहरे निकलवाती हैं, मस्जिदें और मदरसे, मुसाफिर-खाने और कुतुब खाने (पुस्तकालय) बनवाती हैं. आज लड़कियां हर चीज़ में आगे हैं, लेकिन ये भी सच है कि आज भी हमारे समाज में ऐसी कितनी ही औरतें हैं जो घर की चार-दिवारी में अपनी ज़िंदगी बिताने को बेबस हैं.

स्पष्ट रहे कि मुसलमानों के खिलाफ़ बढ़ते द्वेष के कारण औरतों को समुदाय की इज़्ज़त का प्रतीक बना दिया जाता है और खुद मुस्लिम परिवार और समाज उन पर हर तरह की रोक-टोक लगाता है. इन कड़वी गोलियों को खुद औरतों की सुरक्षा की नाम पर निगलवाने की कोशिश करती है. ऐसे में मुसलमान औरतों की शिक्षा, उनके आनेजाने और नौकरी तक पर रोक लग जाती है. लेकिन अब हर तरफ़ से बात साफ़ है कि देश के हालातों पर ध्यान देना होगा. जो इस दो दिवसीय सम्मेलन में बहस का सबसे अहम मुद्दा रहा.

यह 'एक्शन'मुज़फ्फ़रनगर में होता, तो मुरथल न होता!

Dr. Nadeem Zafar Jilani for TwoCircles.net

मुरथल

चीखें तो नरोदा-पाटिया,
मुज़फ्फरनगर से भी आई थीं,
मगर तुम्हें सुनाई नहीं दीं शायद,
कि वहाँ सरे आम लुटने वाली,
बेबस, मजबूर औरतें,
बहन, बहु, बेटियां नहीं,

मुसलमान थीं!

और उनको नोचने वाले
उकसाए गए,
आवारा कुत्ते,

धर्म का काम कर रहे थे!

तो लो अब कुत्ते शेर हो गए हैं!

सरेआम घसीटी जाने वाली औरतें
अब ज़रूरी नहीं कि मुसलमान ही हों,
अबकि चीखें,
बेटियों, बहनों और माओं की हैं,
दिलों को छेदती हैं,
बेचैन करती हैं,
अदालतों को,

मगर देर हो गयी शायद,
कि कुत्ते शेर हो गए हैं!

यह 'स्वतः संज्ञान'एक्शन
मुज़फ्फरनगर में होता
तो मुरथल न होता!

सावधान! ‘देशद्रोही’ अब ‘देशभक्त’ बन गए हैं!

TwoCircles.net News Desk

नई दिल्ली :‘यदि क़ानून की सम्प्रभुता बनायी नहीं रखी गई तो इंसाफ़ का कोई मतलब नहीं होगा. जब इंसाफ़ कमज़ोर होगा, तब डर और बेचैनी का वातावरण पैदा होगा और इसका मक़सद डराना है, लेकिन हमें डरने की बिल्कुल ज़रूरत नहीं है. हमारे संविधान में मानवाधिकारों के 30 बिन्दुओं में से 28 बिन्दुओं को शामिल किया गया है और यह सब बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर के प्रयासों से ही सम्भव हो सका है.’

उपरोक्त विचारों को रविवार नई दिल्ली के मालवंकर हॉल में ऑल इंडिया मिल्ली काउंसिल की ओर से ‘शान्ति एवं न्याय की मांग और हमारी जि़म्मेदारियां’ विषय पर आयोजित राष्ट्रीय सम्मेलन में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ए. एम. अहमदी ने किया.

उन्होंने कहा कि संविधान की धारा-32 हमें मानवाधिकार के संरक्षण की गारंटी देता है.

आगे उन्होंने कहा कि जिन लोगों ने ब्रिटिश सरकार का समर्थन किया था, आज वही लोग देश के हालात को बिगाड़ रहे हैं. इसलिए हमें एकजूट होकर हालात का मुकाबला करना चाहिए.

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All India Milli Council

सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश ने कहा कि आज कुछ लोग संसद के अन्दर और बाहर भड़काऊ बयान देकर वातावरण को ख़राब कर रहे हैं. इससे पूरे देश में घबराहट और बेचैनी पैदा हो रही है.

उन्होंने कहा कि इन सबकी बुनियाद 1932 में ही रख दी गई थी जब वीर सावरकर ने ऐसे भारत की धारणा पेश की जिसमें मुसलमानों और ईसाइयों के लिए कोई जगह नहीं है. आज उन लोगों को सन्देह की दृष्टि से देखा जा रहा है, जिन लोगों ने भारत में ही रहने का फैसला किया. ऐसी ताकतें जिनका स्वाधीनता की लड़ाई में कोई भूमिका नहीं रही, वे राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ा रही हैं.

उन्होंने ऑल इंडिया मिल्ली काउंसिल से कहा कि वे सिर्फ भारत तक ही सीमित न रहे, बल्कि विश्व में जहां कहीं भी आतंकवाद के नाम पर हिंसा फैलाई जा रही है, वहां का भी गहन अध्ययन करना चाहिए.

उन्होंने कहा कि कुछ लोगों ने हमारे बीच दीवारें खड़ी कर दी हैं. अब ज़रूरत उन्हें तोड़ने की है. इस अवसर पर उन्होंने यह भी कहा कि सरकार की शराब को बढ़ावा देने वाली नीति नई पीढ़ी को बर्बाद कर रही है.

प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता शीतलवाड़ ने वर्तमान परिस्थिति की समीक्षा करते हुए कहा कि यह बहुत मुश्किल भरे दिन हैं. हमें भय के वातावरण से निकल कर देश में एकता कायम करते हुए साम्प्रदायिक ताकतों से लड़ना होगा.

इस सन्दर्भ में उन्होंने आरएसएस की शिक्षा शाखा के अहम सदस्य दीनानाथ बत्रा की किताब का हवाला दिया, जिसे गुजरात सरकार द्वारा वहां के स्कूलों के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है. इसमें मशहूर स्वंतत्रता सेनानी व सियासी राजनेता खान अब्दुल गफ़्फार ख़ान को पाठ्यक्रम से हटा दिया गया है.

उन्होंने कहा कि आज हमारे युवा उठ खड़े हुए हैं और अब ‘‘संविधान बचाओ’’ का नारा दिया जाना चाहिए.

उन्होंने कहा कि सत्ता पर काबिज़ शासक वर्ग ऐसा है, जिसका संविधान में बिल्कुल विश्वास नहीं है और वो लोकतांत्रिक लड़ाई को कुचलने के लिए पुलिस का इस्तेमाल करता है. आज ज़रूरत बड़े पैमाने पर सभी उदारवादी सोच के लोगों को एकजूट करने की ज़रूरत है.

इस्लामिक फिक़ह एकेडमी के महासचिव मौलाना खालिद सैफुल्लाह रहमानी ने कहा कि आज हमें जालिम के हाथ को रोकने की ज़रूरत है.

एकता पर ज़ोर देते हुए उन्होंने कहा कि इसमें उन सभी लोगों का शामिल होना ज़रूरी है चाहे वो किसी भी धर्म अथवा पंथ के ही क्यों न हो.

ईसाई नेता फादर एम.टी. थॉमस ने कहा कि हर भारतीय नागरिक की यह जि़म्मेदारी है कि वो साम्प्रदायिक सौहार्द बनाए रखने में अपना योगदान दे और खून-पसीने से हासिल की गई आज़ादी को बनाए रखें.

जमीयत उलेमा हिन्द के सचिव मौलाना अब्दुल हमीद नौमानी ने कहा कि असल लड़ाई 90 फीसदी बनाम 10 फीसदी की है और राष्ट्रवाद को हिन्दू राष्ट्रवाद में तब्दील करने की कोशिश हो रही है, लेकिन यह चलने वाला नहीं है.

उन्होंने कहा कि जो लोग संघ और पुंजीवाद के खि़लाफ़ लड़ रहे हैं, वे जगरूक लोग हैं. वे वही ताक़तें हैं जिन्होंने 1100 साल पहले कोशिश की थी और अब उसी वर्ण व्यवस्था को लाने की कोशिश की जा रही है.

अंग्रेजी मैग्ज़ीन मिल्ली गज़ट के सम्पादक डॉ. ज़फ़रूल इस्लाम खान ने कहा कि आज के जैसे हालात इससे पहले कभी नहीं थे और उनका मुकाबला सिर्फ मुसलमान ही नहीं, बल्कि देश के सभी धर्मों के लोगों को करना होगा.

उन्होंने आशा व्यक्त की कि पश्चिम बंगाल, असम, केरल और अन्य राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों में मतदाता अपनी समझदारी का परिचय देंगे.

सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता एम.एम. कश्यप ने कहा कि विकास के बजाय हमें कहीं और इस्तेमाल किया जा रहा है, जिसे समझने और अफ़वाहों से बचने की ज़रूरत है.

उत्तर प्रदेश के अतिरिक्त महाधिवक्ता ज़फरयाब जिलानी ने कहा कि वर्तमान हालात में मायूसी की ज़रूरत नहीं है और 2014 में जो ग़लती हुई है, इस साल और अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों में उसकी पुनरावृत्ति नहीं होगी.

सामाजिक कार्यकर्ता वी.वी. रावत ने कहा कि आज का युवा काफी क्रोधित है, क्योंकि शासक वर्ग बड़े-बड़े उद्योगपतियों द्वारा देश के संसाधनों पर कब्ज़ा कराना चाहता है.

ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस मुशावरत के अध्यक्ष नवेद हामिद ने कहा कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार ने यह इशारा दे दिया है कि युवा वर्ग वर्तमान सरकार से बहुत नाराज़ है.

उन्होंने कहा कि जिन तीन चैनलों ने जेएनयू से सम्बन्धित सीडी से छेड़छाड़ किया है, उनके खि़लाफ एफआईआर दर्ज कर क़ानूनी कार्यवाही की जाए.

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All India Milli Council

इसके अलावा इस सम्मेलन में ऑल इंडिया मिल्ली काउंसिल महासचिव डॉ. मंज़ूर आलम, जमीयत अहले हदीस के सचिव शीश तैमी, इमारते शरिया बिहार, उड़ीसा एवं झारखण्ड के नाजि़म मौलाना अनीसुर रहमान कासमी, जत्थेदार दर्शन सिंह, मौलाना मुस्तफा रिफाई जिलानी, सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता अरूण कुमार मांझी, स्वामी सर्वानन्द सरस्वती महाराज, यासीन अली उस्मानी, वेलफेयर पार्टी ऑफ इंडिया के अध्यक्ष डॉ. क़ासिम रसूल इलियास सहित देश के विभिन्न भागों से आए प्रतिनिधियों ने भी अपने विचार व्यक्त किए. सम्मेलन के समापन पर 12 सूत्री प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित किया गया.

आम बजट : ‘अब मोदी जी, सर्टिफाइड ‘जुमलेबाज़’ बन गये हैं!’

TwoCircles.net News Desk

पटना :बिहार विधानसभा चुनाव के पूर्व प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बिहार के लिए न जाने कितने वादे किए थे, लेकिन आज के केन्द्रीय बजट में बिहार को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ किया गया है.

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर सर्टिफाइड ‘जुमलेबाज़’ का आरोप लगाते हुए जनता दल यूनाईटेड के प्रदेश प्रवक्ता नवल ने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर कहा है कि –‘केन्द्रीय बजट बिहार की आशाओं पर वज्रपात जैसा है. न विशेष राज्य के दर्जे का जिक्र, न ही एक लाख पच्चीस हजार करोड़ के उस पैकेज का जिक्र जिसकी घोषणा बिहार में आकर मोदी जी ने बड़े ही जोश-खरोश के साथ की थी.’

नवल शर्मा ने कहा कि ऊर्जा क्षेत्र की कई लंबित परियोजनायें, बीआरजीएफ़ के तहत सहायता, 14वें वित्त आयोग से होने वाले नुक़सान की भरपाई समेत बिहार की सारी आशायें धूल-धूसरित हो गई. ऐसे में अब अगर नरेन्द्र मोदी गंगा में घुस कर भी बिहार के लिए कोई घोषणा करेंगे तो कोई बिहारवासी उन पर भरोसा नहीं करेगा. इस बजट के बाद मोदी जी बिहार-वासियों की निगाह में सर्टिफाइड जुमलेबाज बन गये हैं.

हैदराबाद में 600 लोगों के इलाज के साथ शुरू हुआ IMRC का स्वास्थ्य जागरूकता अभियान

TwoCircles.net Staff Reporter

हैदराबाद:भारत के कोनों-कोनों तक पहुंचकर राहत कार्य करने वाली अमरीका संस्था इन्डियन मुस्लिम रिलीफ एंड चैरीटीज़ यानी IMRC के सातवें सालाना स्वास्थ्य जागरूकता अभियान के दूसरे अध्याय के तहत हैदराबाद के हसन नगर मोहल्ले में स्वास्थ्य शिविर का आयोजन किया.

महज़ एक दिन के अन्दर हैदराबाद के हसन नगर के इलाके में IMRC ने कम से कम 600 गरीब और ज़रूरतमंद लोगों का इलाज किया.

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IMRC

IMRC की इस अभियान की शुरुआत साल 2010 में शुरू हुई थी. तब से आजतक छः बार इस अभियान के दम पर IMRC ने भारत के गाँवों, बस्तियों और शहरों में घूम-घूमकर ज़रूरतमंदों को स्वास्थ्य सेवा और सम्बंधित शिक्षा दी है.

अभियान की ख़ास बात है कि लोगों और क्षेत्र के लोकल डॉक्टरों को स्वास्थ्य सेवाओं की बारीक और मौलिक जानकारी भी दी जाती है. इसके साथ ही लोगों को हेल्थ केयर की मौलिक जानकारी से रूबरू कराया जाता है. बीते साल हैदराबाद, बीजापुर और बांगरपेट में मिलाकर लगभग दस हजार मरीजों को स्वास्थ्य सेवाएं दी गयी थीं.

55 साला फरहत सुल्ताना इस स्वास्थ्य शिविर में एक आम जांच के वास्ते पहुंची थीं. जांच में उन्हें डायबिटीज़ का पता चला. उन्होंने बातचीत में कहा, ‘यहाँ मैं अपने कमर और जोड़ों के दर्द की शिकायत लेकर पहुंची थी. लेकिन देखने के बाद डॉक्टरों ने कुछ ज़रूरी जांच करवाए और फिर मुझे बताया कि मुझे डायबिटीज़ है. मैं यहां नहीं आती तो मुझे कभी पता ही नहीं चलता कि मैं एक रोग के साथ जी रही हूं.’

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IMRC

इस मुहिम में IMRC के सहयोगी संगठन सहायता ट्रस्ट के सईद अब्दुल नजीब ने बातचीत में बताया, ‘इस शिविर का उद्देश्य हैदराबाद के गरीब तबकों को ज़रूरी स्वास्थ्य सेवा और जानकारी मुहैया कराना था. हैदराबाद में डायबिटीज़ के मरीज़ काफी संख्या में है और इनमें से अधिकाँश गरीब तबके के होने के कारण इलाज का लाभ नहीं उठा पाते हैं. ऐसे लोगों की सेवा में हम मुफ्त जांच, मुफ्त दवाईयां और मुफ्त डॉक्टरी चेकअप – वह भी अमरीका के डॉक्टरों के द्वारा – मुहैया करा रहे हैं.’

आईएमआरसी की इस मुहिम से पिछले छः वर्षों से जुड़े हुए वृद्धावस्था रोग विशेषज्ञ डॉ. इरफान मोइन बताते हैं, ‘हैदराबाद के स्वास्थ्य शिविर में हमने पाया कि यहाँ के अधिकतर बाशिंदे खून की कमी से ग्रसित हैं. विटामिन, आयरन की कमी भी एक समस्या है. लोगों में हाई ब्लडप्रेशर और डायबीटीज़ की समस्या देखने को मिल रही है. लेकिन परेशानी की बात है कि धन और संसाधनों की कमी के कारण ये लोग रोग ला इलाज करने के बजाय उसके साथ जीने के लिए मजबूर हैं. उनके लिए ऐसे फ्री शिविर वरदान की तरह हैं.’

हैदराबाद के कुछेक और इलाकों में आज इस शिविर के समापन के बाद केरल के कई इलाकों में इस अभियान के अंतिम सत्र का आयोजन ३ से ६ मार्च तक किया जाएगा.

अल्पसंख्यकों के उम्मीदों पर भारी पड़ा मोदी का बजट

Afroz Alam Sahil, TwoCircles.net

मोदी सरकार ने कभी बड़े ज़ोर-शोर से ‘सबका साथ –सबका विकास’ के नारे को प्रचारित किया था. सरकार का यह दावा था कि बजट के ज़रिए अल्पसंख्यक तबक़े की तमाम ज़रूरतों को वो न सिर्फ़ पूरा करेगी, बल्कि अल्पसंख्यकों का उत्थान कर उन्हें भी ‘मेनस्ट्रीम’ के साथ लाकर खड़ा कर देगी. मगर इस बार का भी बजट अल्पसंख्यकों के उम्मीद पर खड़ा उतारता दिखाई नहीं देता है.

स्पष्ट रहे कि इस बार के बजट में मोदी सरकार ने अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय का कुल बजट 3827 करोड़ प्रस्तावित किया है, जबकि पिछले वित्तीय वर्ष में इस मंत्रालय का बजट 3736 करोड़ का था. यानी इस बार के बजट में सिर्फ़ 91 करोड़ का इज़ाफ़ा किया गया है.

इस प्रकार यदि इस बार के बजट का आंकलन किया जाए तो ताज़ा बजट में न तो अल्पसंख्यकों के बेहतरी लिए अलग से किसी विशेष फंड का इंतज़ाम किया गया है और न ही पहले से चल रही स्कीमों में कोई क्रांतिकारी बदलाव किए गए हैं.

बल्कि ताज़ा बजट के आवंटन में अल्पसंख्यकों के उत्थान के लिए कुछ महत्वपूर्ण स्कीमों के बजट पहले से कम भी कर दिए गए हैं. उदाहरण के तौर पर एमएसडीपी (Multi-Sectoral Development Programme) का प्रस्तावित बजट इस बार कम होता नज़र आ रहा है.

पिछले वित्तीय साल यानी 2015-16 में इस स्कीम के लिए 1251.64 करोड़ का बजट रखा गया था. लेकिन इस साल इस एमएसडीपी स्कीम के लिए प्रस्तावित बजट को घटाकर 1125 करोड़ कर दिया गया है.

स्पष्ट रहे कि एमएसडीपी स्कीम अल्पसंख्यक मंत्रालय का सबसे महत्वपूर्ण स्कीम माना जाता है, जिसे यूपीए सरकार ने 2008-09 में 90 अल्पसंख्यक बहुल जिलों में शुरू किया गया था. इस स्कीम का मक़सद अल्पसंख्यकों के सामाजिक-आर्थिक अवसंरचना का सृजन करते हुए तथा आधारभूत सुविधाएं उपलब्ध कराते हुए अल्पसंख्यक बहुल जिलों की विकास सम्बन्धी कमियों को दूर करना था.

इसी तरह से राज्यों के वक़्फ़ बोर्ड को मज़बूत करने के लिए पिछले साल 6.70 करोड़ का बजट रखा गया था, लेकिन इस बार ये सरकार के प्रस्तावित बजट में नदारद है.

इसी प्रकार पिछले साल मौलाना आज़ाद मेडिकल एड स्कीम की शुरूआत की गई थी, जिसे सरकार ने ‘सेहत स्कीम’ का नाम दिया था. लेकिन इस बार के प्रस्तावित बजट में यह स्कीम गायब नज़र आ रही है.

इतना ही नहीं, सरकार ने सबसे अधिक निशाना अल्पसंख्यक छात्रों पर साधा है. शैक्षिक रूप से पिछड़े अल्पसंख्यक छात्रों के स्कॉलरशिप पर जमकर कैंची चलाई गई है.

अल्पसंख्यक छात्रों के लिए सबसे महत्वपूर्ण स्कॉलरशिप यानी प्री-मैट्रिक मैट्रिक स्कॉलरशिप का बजट साल 2015-16 में 1040.10 करोड़ रखा गया था, लेकिन इस बार के प्रस्तावित बजट में इसे 931 करोड़ कर दिया गया है.

यही कहानी पोस्ट-मैट्रिक स्कॉलरशिप की भी है. पिछले साल यानी 2015-16 में इस स्कॉलरशिप के लिए 580.10 करोड़ का बजट प्रस्तावित किया गया था, लेकिन इस बार इसे घटाकर 550 करोड़ कर दिया गया है.

हालांकि मौलाना आज़ाद नेशनल फेलोशिप का बजट पिछले साल के मुक़ाबले थोड़ा बढ़ा हुआ नज़र आता है. साल 2015-16 में मौलाना आज़ाद नेशनल फेलोशिप का बजट 49.83 करोड़ रखा गया था, लेकिन इस बार के प्रस्तावित बजट में इसे 80 करोड़ कर दिया गया है.

इस तरह सरकार के इस बजट से उन लोगों को बेहद निराशा हुई है, जिन्होंने ‘सबका साथ –सबका विकास’ जैसे नारों व वादों पर ऐतबार करके अपने मुस्तक़बिल के बदलने के ख़्वाब संजो लिए थे.

TwoCircles.netके पास मोदी सरकार के पिछले बजट का पूरा लेखा-जोखा मौजूद है. पिछली बार सरकार ने जो योजनाएं शुरू की थी, उन योजनाओं को आगे बढ़ाने की बात थी, मगर यह दावे ज़मीन पर कहीं दिखाई नहीं देती.

हर बार बजट अल्पसंख्यकों के उत्थान के लिए पैसे आवंटित किए गए, लेकिन उन स्कीमों की त्रासदी यह है कि इनके खर्च न के बराबर ही हैं और सबकुछ कागज़ों पर ही नज़र आता है. यानी कुल मिलाकर अल्पसंख्यकों के लिए इस बार का बजट महज़ छलावा साबित हुआ है.

TwoCircles.netपिछले बजट और इस बजट के बीच जो फासला है और जो उम्मीदों के धाराशाई होने का सिलसिला है. उसका पूरा ब्योरा अपने पाठकों के लिए कल से पेश करना शुरू करेगा.

अंधेरे में लोकतंत्र का ‘चौथा स्तंभ’

Tanveer Jafri for TwoCircles.net

देश के स्वयंभू ‘लोकतंत्र के चौथे स्तंभ’ में एक भूचाल सा आया दिखाई दे रहा है. जिस मीडिया से आम जनता यह अपेक्षा रखती है कि वह उसके सामने समाचारों को निष्पक्षता के साथ पेश करेगा और किसी समाचार या घटना की निष्पक्ष प्रस्तुति के पश्चात यह निर्णय जनता के विवेक पर छोड़ देगा कि अमुक समाचार या कोई घटनाक्रम अपने-आप में कैसा है और कैसा नहीं? सकारात्मक है या नकारात्मक? परंतु ठीक इसके विपरीत आज टीवी चैनल्स में यह देखा जा रहा है कि वे निष्पक्ष समाचार देने के बजाए या किसी घटना की यथास्थिति रिपोर्टिंग करने के बजाए स्वयं एक पक्षकार की भूमिका निभाने लगे हैं.

कुछ टीवी चैनल्स के एंकर्स तो अपने कार्यक्रम की प्रस्तुति इस अंदाज़ में करने लगे हैं कि गोया वो कोई समाचार चैनल का स्टृडियो न होकर कोई अदालत बन गई हो. कई एंकर ऐसे भी देखे जा रहे हैं जो अपने अतिथियों के साथ ऐसी बदतमीज़ी व डांट-डपट से पेश आ रहे हैं गोया पत्रकार नहीं किसी थानेदार की भूमिका निभा रहे हों.

खासतौर पर देश में जब से संप्रदायिकतावादी शक्तियों तथा धर्म-निरपेक्षतावादी विचारधारा के मध्य व्यापक बहस गत् दो वर्षों से छिड़ी है और समय बीतने के साथ-साथ इसी बहस के बीच देश में सहिष्णुता व असहिष्णुता तथा राष्ट्रभक्ति व राष्ट्रद्रोह जैसे विषयों पर होने वाली व्यापक बहस एक खतरनाक दौर से गुज़र रही है. इसमें देश के टीवी चैनल्स भी अपने-अपने निर्धारित एजेंडे के साथ अपने-अपने एंकर्स को ढाल बनाकर कूद पड़े हैं और रिपोर्टिंग अथवा किसी कार्यक्रम की निष्पक्ष प्रस्तुति पर ध्यान देने के बजाए स्वयं कहीं पक्षकार तो कहीं न्यायाधीश बनते दिखाई दे रहे हैं.

यहां यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि कोई भी राष्ट्रीय टीवी चैनल चलाने के लिए सैकड़ों करोड़ रुपयों की आवश्यकता होती है. ज़ाहिर है इस धंधे में प्रतिदिन लाखों रुपयों का खर्च बैठता है. और निश्चित रूप से कोई न कोई व्यवसायी प्रवृति का व्यक्ति इन चैनल्स का स्वामी भी होता है. तो ज़ाहिर है किसी भी व्यवसायी को अपने कारोबार में पहली चिंता अपने व्यवसाय के मुनाफे की करनी होती है. और वह इस मुनाफे के लिए प्रत्येक संभव तिकड़मबाजि़यां अख्तियार करने की कोशिश करता है.

पंरतु कथित चौथे स्तंभ से जुड़े किसी भी व्यवसाय अर्थात समाचार पत्र-पत्रिका के प्रकाशन, न्यूज़ चैनल के संचालन अथवा रेडियो या एफएम के प्रसारण का मिज़ाज अन्य पेशों से काफी अलग है. देश और दुनिया की जनता मीडिया से सिर्फ और सिर्फ निष्पक्षता की उम्मीद करती है.

इसे मीडिया अथवा माध्यम का नाम इसीलिए दिया गया है ताकि वह जनता तथा सरकार, शासन, प्रशासन अथवा देश व दुनिया के किसी भी हालात की निष्पक्ष पड़ताल जनता के समक्ष पेश करने का एक सशक्त व भरोसेमंद माध्यम बने.

इसके अतिरिक्त कोई दूसरा माध्यम भी ऐसा नहीं है जो सूचना अथवा जानकारियों या किसी घटनाक्रम के ब्यौरे को लोगों के समक्ष प्रस्तुत कर सके. हालांकि सोशल मीडिया ने काफी हद तक गत कुछ वर्षों से इस क्षेत्र में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका भी अदा करनी शुरु की है. परंतु न तो इसका दायरा अभी इतना व्यापक है और न ही इसे अभी इतना विश्वसनीय समझा जा रहा है. अर्थात टीवी चैनल्स व प्रिंट मीडिया ही अभी भी आम लोगों के लिए जानकारी हासिल करने का मुख्य स्त्रोत बने हुए हैं.

इन हालात में यदि यही टीवी चैनल्स किसी राजनैतिक अथवा वैचारिक पूर्वाग्रह के चलते या अपनी व्यवसायकि प्रतिबद्धताओं के तहत पत्रकारिता के बजाए पक्षकार की भूमिका में आ जाएं और स्वयं यह फैसला देने लगें कि देश में सहिष्णुता बनी हुई है या असहिष्णुता बढ़ रही है अथवा अपने दर्शकों को यह बताने लगें कि यह बातें राष्ट्रद्रोह की श्रेणी में आती हैं और ऐसा करना या कहना राष्ट्रभक्ति का प्रमाण है, तो इस प्रकार की प्रस्तुति मीडिया के चरित्र तथा उसकी जि़म्मेदारियों को संदिग्ध कर देती हैं.

मीडिया का सबसे पहला कर्तव्य ही यही है कि वह निष्पक्षता का पूरा ध्यान रखे और किसी भी विषय पर निर्णय लेने का अधिकार जनता के विवेक पर ही छोड़ दे. परंतु आज की स्थिति में बेहद अफ़सोसनाक बात यह है कि जिस प्रकार समाज सांप्रदायिकतावादी सोच और धर्मनिरपेक्ष विचारधारा के मध्य विभाजित होता जा रहा है, मीडिया भी स्वयं को उससे अलग न रखते हुए खुद भी पक्षपात का शिकार होता प्रतीत हो रहा है.

इसके भी अनेक कारण हैं. मीडिया के पक्षकार अथवा न्यायधीश की भूमिका निभाने का एक कारण यह भी है कि कई टीवी चैनल्स के स्वामी, व्यवसायी होने के साथ-साथ किसी न किसी राजनैतिक दल से भी जुड़े हुए हैं. कुछ चैनल ऐसे हैं, जिन्होंने ब्लैकमेलिंग करने अर्थात किसी की ख़बर प्रसारित करने या किसी की नकारात्मक ख़बर को दबाने का धंधा अपना रखा है.

कई टीवी चैनल्स के मालिक ऐसे हैं, जिनपर कोई न कोई आपराधिक मुक़दमा भी चल रहा है. कई मशहूर टीवी एंकर्स सत्ता की दलाली करते बेनकाब हो चुके हैं तो यह भी सार्वजनिक हो चुका है कि मीडिया के लोग केंद्र में मंत्री बनाने अपने सगे-संबंधियों को विधानसभा अथवा लोकसभा का टिकट दिलाने जैसे काम भी करते रहते हैं.

यह बात भी कई बार मंज़र-ए-आम पर आ चुकी है कि अमुक-अमुक टीवी पत्रकार अपने पत्रकारिता जीवन के कुछ ही वर्षों में सैकड़ों करोड़ रुपये की संपत्ति का मालिक आखिर कैसे बन जाता है? यह ख़बरें भी आती रहती हैं कि किसी चैनल के मालिक द्वारा अपनी महिला एंकर के साथ उसके शारीरिक शोषण के प्रयास किए गए या उस पर मंत्रियों या उच्चाधिकारियों को ‘खुश’ करने के लिए दबाव बनाया गया.

पिछले दिनों इसी राष्ट्रद्रोह व राष्ट्रभक्ति के मध्य छिड़ी जंग के बीच यह समाचार भी आया कि कैसे एक पत्रकार ने अपने ही टीवी चैनल को सिर्फ इसलिए त्याग दिया कि उसे अपने चैनल की भूमिका पक्षपातपूर्ण तथा पूर्वाग्रही दिखाई दी. और इन सबसे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि ऐसे ही संदिग्ध, बदनाम तथा व्यवसायिक या दलाली की गतिविधियों में संलिप्त पत्रकारों को कहीं सम्मानित किया जा रहा है, तो कहीं उन्हें भारी-भरकम पुरस्कारों से नवाज़ा जा रहा है. और हद तो यह है कि इन्हीं में से कई पदमश्री जैसा सम्मान हासिल करने में भी सफल हो जाते हैं.

ऐसे में सवाल यह है कि आखिर आम जनता या दर्शक किस टीवी चैनल पर विश्वास करे और किसको अविश्वसनीय समझे? और खासतौर पर एैसे दौर में जबकि कंप्यूटर तकनीक और फोटोशॉप का इस्तेमाल करते हुए फोटो या ऑडियो अथवा वीडियो क्लिप्स के साथ छेड़छाड़ कर उसे ग़लत तरीके से जनता के सामने परोसने की कोशिश की जा रही हो.

ऐसे में यह विषय और भी ख़तरनाक हो जाता है. वास्तव में टीवी चैनल्स की स्थिति कुछ इस प्रकार की होती जा रही है, गोया झूठ के नगाड़े की आवाज़ में सच की आवाज़ तूती की आवाज़ की मानिंद दब कर रह गई हो. यानी अगर कोई ईमानदार और सच्चा पत्रकार अपने चैनल के स्वामी के ग़लत पक्षपातपूर्ण तथा अन्यायपूर्ण व भ्रष्ट फैसलों के प्रति अपना विरोध जताता है, तो ऐसा स्वामी उस पत्रकार को ही चैनल से बाहर का रास्ता दिखा देता है. और जो टीवी एंकर चीख-चिल्ला कर अपने आका की इच्छाओं के अनुरूप कार्यक्रम को प्रस्तुत कर रहा है और उसके चीखऩे-चिल्लाने, डपटने या न्यायधीश बनने की भूमिका से उसके चैनल की या किसी कार्यक्रम विशेष की टीआर पी में इज़ाफा हो रहा है, तो ऐसे पत्रकारों को उसके स्वमी सिर-आंखों पर बिठाते हैं और उसे उसकी मर्ज़ी का पैकेज तन्ख्वाह के रूप में पेश किया जाता है.

इतना ही नहीं, जब ऐसा कोई एंकर दर्शकों की नज़रों में सेलिब्रिटी बन जाता है तो राजनेता भी उसे किसी भी तरह से खुश करने में पीछे नहीं रहते. ज़ाहिर है ऐसे में दोनों ओर से एक-दूसरे पर रहमों करम का आदान-प्रदान भी किसी न किसी रूप में होता रहता है.

ऐसे हालात में जनता के लिए सख्त परीक्षा की घड़ी है. दर्शकों को चाहिए कि वे किसी भी समाचार या कार्यक्रम को पूरे धैर्य एवं विवेक के साथ देखें तथा प्रत्येक प्रस्तुति का सूक्ष्म अध्ययन करें. किसी एंकर के साथ भावनाओं में बहने की कोई आवश्यकता नहीं है. क्योंकि जिस प्रकार इस समय देश के तीनों स्तंभ लडख़ड़ा रहे हैं, उसी प्रकार दुर्भाग्यवश लोकतंत्र का यह स्वयंभू चौथा स्तंभ भी अंधेरे की ओर बढ़ता जा रहा है.


‘आम’ बजट में बिहार के साथ ‘ख़ास’ अन्याय !

TwoCircles.net News Desk

पटना :जदयू के बाद अब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने भी इस बार के बजट की निंदा की है.

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के बिहार राज्य सचिवमंडल के मुताबिक़ इस बजट में बिहार के साथ खासा अन्याय किया गया है. बजट में बिहार जैसे पिछड़े राज्यों को उठाकर सामान्य स्तर पर लाने का कोई विशेष प्रावधान नहीं किया गया है. विशेष राज्य का दर्जा देने की बात तो क्या, बिहार में कोई भी बड़ी परियोजना देने का प्रावधान नहीं किया गया है.

इस सचिव मंडल ने आज जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा कि –‘ग्रामीण क्षेत्रों और कृषि तथा सिंचाई पर आवंटन में बढ़ोतरी का ढि़ंढोरा पीटा जा रहा है. लेकिन उससे पता नहीं चलता कि कृषि पर निर्भर और देश के सबसे ज्यादा बाढ़ग्रस्त राज्य बिहार को क्या फायदा होगा? मिसाल के लिए, बिहार बाढ़ की समस्या के स्थायी निदान के लिए कोई प्रावधान नहीं है. गंडक प्रोजेक्ट दशकों से अधूरा पड़ा है. इसकी वजह से इस परियोजना के क्षेत्र में 7 लाख एकड़ जमीन जल जमाव के कारण बेकार हो गयी, जबकि इससे उत्तर बिहार के 24 जिलों में 28 लाख एकड़ की सिंचाई होनी थी, बाढ़ से छुटकारा मिलना था और पनबिजली भी बननी थी. बजट में बिहार की ऐसी किसी भी परियोजना के लिए कोई प्रावधान नहीं है.’

इस सचिवमंडल ने इस बार के बजट की निंदा करते हुए कहा कि –‘जो बजट इस बार पेश किया गया है, उसमें लफ्फाजी ज्यादा और आम आदमी के हित की बातें नगण्य हैं.’

भाकपा के सचिवमंडल के मुताबिक़ आम आदमी जिन समस्याओं से सबसे ज्यादा परेशान हैं, वे है कमरतोड़ महंगाई, भीषण बेरोज़गारी और असह्य गरीबी. लेकिन बजट में इन समस्याओं के समाधान का कोई रास्ता दिखाई नहीं देता. उल्टे सेवा कर, रेडीमेड कपड़े और कई अन्य चीजों पर अप्रत्यक्ष करों में बढ़ोतरी की गयी है, जिससे महंगाई और बढ़ेगी. यहां तक कि भविष्य निधि से कर्मियों द्वारा निकाले जाने वाली रक़म को भी आयकर के दायरे में घसीट लिया गया है. यह कारपोरेट घरानों की थैली भरने और आर्थिक संकट का बोझ आम आदमी पर डालने वाला बजट है.

भाकपा का कहना है कि –‘नरेन्द्र मोदी सरकार ने पिछले साल ही कारपोरेट घरानों के आयकर को 30 प्रतिशत से घटाकर 25 प्रतिशत करने की घोषणा की थी. इस साल के बजट में उसको लागू करने की प्रक्रिया शुरू की गयी है. जब कारपोरेट टैक्स 30 प्रतिशत था, तब कारपोरेट घराने 25 प्रतिशत से भी कम कर चुकाते थे. अब यह दर 25 प्रतिशत होगी, तब वे 20 प्रतिशत से भी कम चुकाएंगे. यह नरेन्द्र मोदी सरकार की ओर से कारपोरेट घरानों को दिया जानेवाला एक बड़ा तोहफा है. इससे सरकार के ख़जाने में जो घाटा होगा, उसकी भरपाई अप्रत्यक्ष करों के रूप में जनता पर करों का बोझ बढ़ाकर की जाएगी.’

वाह रे मोदी बजट! दलित-आदिवासियों का हक़ भी मार लिया!

Afroz Alam Sahil, TwoCircles.net

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भले ही अरूण जेटली द्वारा पेश किए गए बजट को गांव, गरीब और किसान समर्थक बजट बता रहे हों, लेकिन ‘राष्ट्रीय दलित मानवाधिकार अभियान’ इस बजट को दलित-आदिवासी विरोधी बजट मानती है.

बजट के भाषण में अरूण जेटली ने दलित-आदिवासी समुदाय में उद्यम को बढ़ावा देने हेतु 500 करोड़ के आवंटन की घोषणा की और कहा कि ‘स्टैंडअप इंडिया स्कीम’ के अंतर्गत दिए गए इस पैसे से करीब ढ़ाई लाख उद्यमियों को फायदा पहुंचेगा. लेकिन अगर बजट को गौर से देखा जाए तो यह साफ़ पता चलता है कि 500 करोड़ के आवंटन के एवज़ में दलित-आदिवासी समुदाय को मोदी सरकार ने फिर बेवकुफ बनाया है. क्योंकि जो फंड इन दलितों-आदिवासियों को मिलना चाहिए, उसमें सरकार बड़े चतुराई के साथ 50 फीसदी से अधिक की कटौति कर ली है.

स्पष्ट रहे कि वर्ष 2011-12 में जाधव समिति की सिफारिशों के बाद अनुसूचित जाति उप-योजना के बारे में सरकार ने 25 मंत्रालयों/ विभागों को अनुसूचित जाति व जनजाति के विकास के लिए उनके आबादी के अनुपात में वित्तीय आवंटन के सख्त निर्देश दिए थे.

लेकिन जब हम पिछले पांच साल यानी 2012-13 से 2016-17 तक के बजट के आंकड़ों का विश्लेषण करते हैं तो पता चलता है कि फंड आवंटन औसत रूप से लगभग 50 फीसदी कम किया जा रहा है.

राष्ट्रीय दलित मानवाधिकार अभियान के महासचिव एन. पॉल दिवाकर के मुताबिक़ –‘अनुसूचित जाति व जनजाति के लिए उनके आबादी के अनुरूप क़रीब 25 फीसदी बजट का आवंटन होना चाहिए, जिसका वादा बीजेपी नेतृत्व वाली मोदी सरकार ने भी किया था, लेकिन इस वर्ष यह आवंटन मात्र 11.42 फीसदी कर दिया गया है.’

दरअसल, अनुसूचित जाति उप-योजना में वित्त मंत्रालय ने 292 स्कीमों को रखा है. लेकिन राष्ट्रीय दलित मानवाधिकार अभियान का कहना है कि इसमें सिर्फ 9 फीसदी यानी 26 योजनाएं ही ऐसी हैं, जो सीधे-सीधे अनुसूचित जाति से संबंधित हैं. उसी प्रकार सरकार के 303 स्कीमों में सिर्फ 7 फीसदी यानी 22 योजनाएं ही अनुसूचित जनजाति से संबंधित हैं.

पॉल दिवाकर यह भी आरोप लगाते हैं कि इन योजनाओं के लिए भी जो फंड आवंटित होते हैं, उन पर कभी भी 50 फीसदी से अधिक खर्च नहीं किए जाते. और अधिकतर देखा गया है कि अनुसूचित जाति या जनजाति के नाम पर आवंटित यह फंड कहीं किसी दूसरे काम पर खर्च कर दिया जाता है, जिसका लाभ कभी भी प्रत्यक्ष रूप से दलितों-आदिवासियों को हासिल नहीं होता.

इस बजट में दलित-आदिवासी महिलाओं के साथ भी भेदभाव किया गया है. सिर्फ सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय एवं जनजाति मंत्रालय ने उनके लिए अपने विभाग में थोड़ा सा फंड आवंटित किया है. आंकड़ों को देखने से पता चलता है कि अनुसूचित जाति उप-योजना में सिर्फ एक फीसदी एवं जनजाति उप-योजना बजट का दो फिसदी ही दलित-आदिवासी महिलाओं के लिए आवंटित किया गया है.

पॉल दिवाकर कहते हैं कि –‘अनुसूचित जाति व जनजाति के लिए बनाए जाने वाली योजनाएं अक्सर सामान्य योजनाओं में वित्त आपुर्ति के लिए की जाती है, जिससे यह योजनाएं अनुसूचित जाति व जनजाति के लिए प्रासंगिक नहीं रह पाते हैं. इसलिए ज़रूरी है कि योजनाओं को बनाते समय समुदाय की भागीदारी अनिवार्य की जाए.’

वो कहते हैं कि –‘विभिन्न राज्यों व ज़िलों में वित्त आपुर्ति अभी भी ठीक नहीं है, जिसकी वजह से फंड का सदुपयोग नहीं हो पाता. इसलिए प्रशासनिक क्षमता को सक्षम बनाने की भी आवश्यकता है. इतना ही नहीं, योजनाओं का प्रचार-तंत्र इतना ख़राब है कि लक्षित समूह को इन योजनाओं का कभी पता ही नहीं चल पाता. सरकार को इस ओर भी ध्यान देने की ज़रूरत है.’

जी हाँ! मैं कन्हैया का बड़ा भाई हूं!

Nasiruddin Haider Khan for TwoCircles.net

एक टीवी कार्यक्रम में बड़ी पार्टी के प्रवक्ता की आवाज़ सुनाई देती है... आपके लिए उमर ख़ालिद और इशरत ही बेटा-बेटी हैं... फलां-फलां कुछ नहीं हैं. हालांकि उनकी जुबां से भी जो नाम निकले वे रोहित वेमूला, कन्हैया, आशुतोष या नागा जैसों के नहीं थे. वे जिनका नाम ले रहे थे, उनसे किसी को भी एतराज नहीं था. लेकिन वे महज़ इसलिए फलां-फलां नाम ले रहे थे, ताकि दो विचारों को नहीं, दो मज़हबी पहचान को आमने-सामने खड़ा कर दिया जाए. उन्होंने विमर्श को नाम के पहचान में मोड़ने की पूरी कोशिश की. मगर ऐसा हो नहीं पाया. दुआ है, ऐसा न हो पाए.

हां, ये सुनते हुए ज़रूर ख़्याल आया कि क्या अब सगा होना भी जुर्म के दायरे में आ गया है? वैसे, इसमें बुरा क्या है, अगर कुछ लोगों के लिए उमर खालिद बेटा जैसा है. वैसे बताऊं, कन्हैया मेरा सगा है. पिछले कई दिनों से मैं सोच रहा था कि आख़िर उसकी गिरफ्तारी से मैं क्यों परेशान हूं? क्यों मुझे लगता है कि वह जो कह रहा है या करता है, राष्ट्रद्रोह नहीं है. तब अहसास हुआ कि शायद यही सगापन है.

जी, मैं कन्हैया का बड़ा भाई हूं. पूरे होशोहवास और ज़िम्मेदारी के साथ यह कह रहा हूं. जी, मैं जानता हूं कि उस पर और उसके दोस्तों पर क्या इलज़ाम हैं. मैं यह भी जानता हूं कि इस इलज़ाम ने इनके लिए ढेरों ख़तरे पैदा कर दिए हैं. फिर भी मैं यह कहने की हिम्मतम जुटा रहा कि मैं कन्हैया का बड़ा भाई हूं.

जी, वह मेरी मां जाया भाई नहीं है. रिश्ते का भाई भी नहीं है. हां, मैं उसी राज्य का हूं, जिस राज्य का कन्हैया है. मैं उसी ज़िले में पैदा हुआ, जिस ज़िले में कन्हैया पैदा हुआ...

और हां, मैं भी उसी की तरह यक़ीन करता हूं कि भूख, नफ़रत, बेरोज़गारी, छूआछूत से आज़ादी मिलनी चाहिए. महिलाओं को बराबरी मिलनी चाहिए. मेरा भी यक़ीन है कि इससे बेहतर दुनिया मुमकिन है. कन्हैया को भी लगता है कि एक ऐसा समाज बनाया जा सकता है, जिसमें गैर-बरा‍बरियां नहीं होंगी.

मुझे भरोसा है कि वह भी भगत सिंह की इस बात में यक़ीन करता है कि ‘पिस्तौल और बम इंक़लाब नहीं लाते. बल्कि इंक़लाब की तलवार विचारों की सान पर तेज़ होती है... हम मनुष्य के जीवन को पवित्र समझते हैं. हम ऐसे उज्जवल भविष्य में विश्वास रखते हैं, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति पूर्ण शांति और स्वतंत्रता का उपभोग करेगा.’

मुझे यह भी भरोसा है कि उसे भगत सिंह की हैट वाली फोटो ही पसंद होगी. उनके लम्बे लेख, ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ को वह मेरी ही तरह, एक अहम दस्तावेज़ मानता होगा. यानी वह मेरा विचार जाया भाई है. हम दोनों की उम्र में लगभग दो दशकों का फ़र्क़ है. इसलिए वह मेरा छोटा भाई ही हो सकता है.

जब मैं कन्हैया को छोटा भाई कह रहा हूं तो उसमें रोहित वेमूला और उसके दोस्त भी शामिल हैं. और हां, मुमकिन है इनकी कई बातों से मैं सहमत न रहूं और यह भी तय है कि मेरी कई बातों से वे असहमत होंगे. असहमति के साथ सह-अस्तित्व ही तो लोकतंत्र की बुनियाद है. लेकिन असहमति का मतलब इन्हें सूली पर चढ़ा देना तो नहीं हो सकता?

हालांकि कन्हैया का क़द मुझसे कई गुना बड़ा है. उसने जो झेला, वह मैं नहीं झेल पाता. उसने जैसी बहादुरी दिखाई, शायद मैं नहीं दिखा पाता. इसे मंजूर करने में मुझे शर्मिंदगी नहीं है. इसलिए बस टुकुर-टुकुर देख रहा हूं.

कुछ लोग कह रहे हैं कि यूनिवर्सिटी में कर-दाताओं के पैसे पर मौज हो रही है. इनका इलज़ाम है कि रोहित और कन्हैया जैसे लड़के-लड़कियां उनके पैसे पर ‘राष्ट्र विरोधी’ काम में जुटे हैं. वैसे, ये सवाल कितने लोगों से लोग पूछ पाते हैं? कन्हैया और उसके दोस्त देश और देश के लोगों का क़र्ज़ ही चुकाने की बात करते हैं.

उन्हें इस बात का अहसास है कि उन जैसे लोग यहां बड़ी मशक्क़त से पहुंचे हैं. ऐसा मौक़ा सबको नहीं मिल पाता है. इसलिए उन्हें लगता है कि इस मुल्क का क़र्ज़ चुकाया जाए. हां, क़र्ज़ चुकाने का उनका तरीक़ा कुछ और है. वे चाहते हैं कि ऐसा मुल्क बनाया जाए, जहां सभी को पढ़ने का मौक़ा मिले. रोटी-कपड़ा और मकान मिले. हर भारतीय को इंसान समझा जाए. सब बिना डरे अपने ख्यालों को इज़हार कर सकें.

वे इस मुल्क की सूरत, सतरंगी बनाने का ख्वाब देखते हैं. वे संविधान में गारंटी की बराबरी के मूल्यों को हक़ीक़त बनाना चाहते हैं. वे लड़ते हुए पढ़ते हैं. पढ़ते हुए लड़ते हैं...

और देश महज़ नक़्शा तो नहीं है. देश, नक़्शे के अंदर रहने वाले सवा अरब लोगों से मिलकर है. वे कुछ लोगों की नहीं, बल्कि देश के तमाम आबादी के बारे में बात करते हैं. इससे बड़ी देशभक्ति क्या होगी? कन्हैया और उसके जैसे नौजवान लड़के-लड़कियां देश के आमजन से मोहब्बत करते हैं. इसलिए उनकी देशभक्ति कुछ लोगों को ‘राज’ से ‘द्रोह’ लगती है.

तब सवाल है कि कन्हैया को क्यों मुजरिम की तरह दबोच कर ले जाया गया? क्यों रोहित वेमूला को जान देनी पड़ी? इनकी यही खता है न कि वे अपने हिसाब से सोचते हैं. उन्हें इस दुनिया में कई चीजें गड़बड़ लगती हैं. ये नौजवान लड़के-लड़कियां, सिर्फ उनका विश्लेषण कर चुप नहीं रहना चाहते. वे बदलाव में शामिल होने की बात करते हैं.

सवाल है, इतिहास में क्या, यह काम कन्हैया और उसके साथी पहली बार कर रहे हैं? क्या समाज में बदलाव की सोच पहले नहीं पनपी है? राममोहन राय, ईश्वरा चंद्र विद्यासागर और ज्योतिबा फुले बदलाव के लिए समाज से टकराए, मगर इन सबके तरीक़े अलग थे.

महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, वल्लभ भाई पटेल, सुभाषचंद्र बोस, डॉ. भीमराव अम्बेडकर बदलाव के लिए ही लड़े, लेकिन इन सबकी सोच भी एक जैसी नहीं थी. जिस उम्र में हमारे घरों के पुरखे कुछ और कर रहे होंगे, तब 23 साल के भगत सिंह ने विचारों की सान को तेज़ करते हुए, जान न्योछावर कर दिया. उनके विचार और रास्ते बाकियों से अलग थे.

इसका यह भी तो मतलब है कि कन्हैया जैसे नौजवान जो कह रहे हैं, उसके बीज इन सारे बदलावों के विचार में छिपे हैं. उनके तरीकों से असहमति हो सकती है, पर उनकी नीयत पर शक नहीं किया जा सकता.

क्या हम कन्हैया और उनके दोस्तों को उसी पीड़ा से गुजारना चाहते हैं, जिस तकलीफ़ से उनके अग्रज गुजर चुके हैं? क्या हम उनकी आवाज़ को ‘राष्ट्रद्रोह’ का जामा पहना कर चुप करा देंगे? क्या उनके सवाल करने और जवाब तलाशने को ‘राज’ के खिलाफ़ ‘द्रोह’ क़रार दिया जाएगा? तो क्या इतिहास का पहिया अब पीछे घूमेगा?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. इस समय वे स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं. खासकर वे महिला से जुड़े मुद्दों पर लिखते रहे हैं.)

CRPF - आप आतंकियों के धर्म से ताल्लुक रखते हैं, लिहाज़ा आपको सूचना नहीं दी जा सकती है

TwoCircles.net Staff Reporter

इलाहाबाद:सूचना का अधिकार अधिनियम जब लोगों के हाथ में आया तो लोगों को लगा कि इससे समाज के सभी वर्गों को सूचना प्राप्त करने में सहूलियत होगी, साथ ही साथ लोगों का यह भी सोचना था कि सूचना प्राप्त करने की प्रक्रिया में उनके धर्म और उनकी जाति किसी प्रकार की बाधा नहीं बनेगी.

लेकिन इलाहाबाद से हाल में ही सामने आया मामला इस अधिनियम की पहुँच की कुछ और ही तस्वीर पेश करता है. पूर्वी उत्तर प्रदेश के मोहल्ले गाजीपुर के रहने वाले शम्स तबरेज़ ने जब अपनी नियुक्ति प्रक्रिया के सन्दर्भ में कुछ जानकारी मांगनी चाही तो इलाहाबाद सीआरपीएफ के जनसूचना अधिकारी डीके त्रिपाठी ने कहा कि चूंकि शम्स इस्लाम से ताल्लुक रखते हैं – जो आतंकियों का धर्म है – इसलिए सुरक्षा की दृष्टि से आपको सूचना नहीं दी जा रही है.

शम्स तबरेज़ ने सीआरपीएफ के भर्ती प्रक्रिया में हिस्सा लिया था. बकौल शम्स, सारे टेस्ट पास करने के बाद मेडिकल टेस्ट में वे सफल नहीं हो सके. शम्स इस परिणाम को लेकर संतुष्ट नहीं थे तो उन्होंने इसे लेकर इलाहाबाद सीआरपीएफ में एक आरटीआई दायर कर दी. उन्होंने मेडिकल जांच के रिपोर्ट की सत्यापित प्रति मांगी थी.

इस आरटीआई आवेदन के जवाब में उन्हें 4 फरवरी को इलाहाबाद सीआरपीएफ के ग्रुप ज़ोन के केन्द्रीय जनसूचना अधिकारी डीके त्रिपाठी की ओर से जवाब मिला, जिसकी बातें पढ़कर कोई भी चौंक सकता है.
जनसूचना अधिकारी डीके त्रिपाठी ने लिखा – आपको अवगत कराया जाता है कि आप मुस्लिम समुदाय से सम्बंधित हैं जो आतंकियों का धर्म है अतः जन सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 के सेक्शन 8(1)(क) के तहत सुरक्षा कारणों से सूचना/ दस्तावेज़ नहीं दिया जा सकता.

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इसके अलावा शम्स को यह मेडिकल जांच की प्रति उपलब्ध कराने से मना कर दिया गया, जबकि कानूनन शम्स तबरेज़ को यह अधिकार है कि वे जांच की प्रति हासिल करें. प्रश्न यह भी है कि शम्स का मुस्लिम होना क्यों इस देश की सुरक्षा के लिए ख़तरा है? और यह भी कि एक मेडिकल सर्टिफिकेट मुहैया कराया जाना क्यों देश की सुरक्षा के लिए ख़तरा है? इसके बाद इलाहाबाद सीआरपीएफ से जनसूचना विभाग से संपर्क साधने की कोशिश की गयी जो असफल रही.

सीआरपीएफ की इस हरकत से देश के सुरक्षा बलों में पारदर्शिता की सचाई सामने आ जाती है. हाशिमपुरा काण्ड के बाद से सीआरपीएफ़ पर अल्पसंख्यक विरोधी होने के आरोप लगाए जाते रहे हैं और शम्स तबरेज़ के साथ हुआ यह वाकया इस आरोप के सत्यापन का एक और अध्याय लगता है.

रोशन होने से पहले ही बुझने लगी अल्पसंख्यक मंत्रालय की ‘नई रोशनी’

Afroz Alam Sahil, TwoCircles.net

मोदी बजट आ चुका है. बड़े-बड़े ऐलान किए जा चुके हैं. पुरानी बोतल में नई शराब भरी जा चुकी है. अलग-अलग स्कीमों के लिए फंड्स का आवंटन किया जा चुका है. यानी बजट की तमाम रस्म-अदाएगी अब मुकम्मल हो चुकी है.

मगर सवाल वही है कि अल्पसंख्यकों के हक़ में चल रही स्कीमों का हश्र इस नए वित्तीय साल में क्या होगा? क्योंकि इससे पहले भी अल्पसंख्यकों के नाम पर चलने वाले स्कीमों पर जो फंड्स आवंटित किए गए, वो सिर्फ़ कागज़ों में ही दिखाई पड़ते हैं. हक़ीक़त में न तो वो फंड्स खर्च हुए हैं और न उससे अल्पसंख्यकों को कोई खास फायदा मिलता नज़र आ रहा है.

यह क़िस्सा साल दर साल चला आ रहा है. सवाल यह है कि जो फंड्स आवंटित किए जाते हैं. क्या वो उन स्कीमों पर खर्च भी होते हैं? और अगर होते हैं, तो उससे क्या तब्दीली होती है? और उस ‘तब्दीली’ में कितनी सच्चाई और कितना झूठ है? इसी हक़ीक़त और फसाने को लेकर TwoCircles.netएक सीरीज़ शुरू कर रही है.

आज की कहानी अल्पसंख्यक महिलाओं में लीडरशीप डेवलपमेंट को लेकर सरकार द्वारा शुरू किए गए ‘अल्पसंख्यक महिला नेतृत्व विकास स्कीम’ (Scheme for Leadership Development of Minority Women) की है, जिसे मोदी सरकार ने ‘नई रोशनी’ के नाम से प्रचारित किया.

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Nai Roshni

‘नई रोशनी’ को लेकर मोदी सरकार का दावा है कि ये अल्पसंख्यक महिलाओं की ज़िन्दगी में उम्मीद की नई किरण फैला रही है. लेकिन यह दावा कागज़ों पर ही नस्त-नाबूद होता या यूं कहें कि दम तोड़ता नज़र आ रहा है.

मोदी सरकार का दावा है कि इस ‘नई रोशनी’ स्कीम के तहत 2014-15 के दौरान 24 राज्यों में 71 हज़ार से अधिक अल्पसंख्यक महिलाओं को प्रशिक्षित किया गया है. वहीं वर्ष 2015-16 के दौरान मंत्रालय ने अक्टूबर तक 22,750 महिलाओं के प्रशिक्षण की मंजूरी दी है. इस संख्या में इज़ाफ़े के लिए वर्ष 2015-16 में मंत्रालय ने ऑनलाइन आवेदन प्रबंधन प्रणाली (ओएएमएस) की शुरूआत की है, ताकि प्रक्रिया पारदर्शी हो और बिना किसी विलम्ब के स्वीकृति प्रदान की जा सके.

लेकिन TwoCircles.netके पास मौजूद दस्तावेज़ बताते हैं कि वर्ष 2015-16 में इस स्कीम के तहत 15 करोड़ का बजट रखा गया, लेकिन जून 2015 तक सिर्फ 1.23 करोड़ ही आवंटित किया गया, जिसके खर्च हो जाने का दावा अल्पसंख्यक मंत्रालय कर रही है.

साल 2014-15 में 14 करोड़ का बजट आवंटित किया गया था और सरकार का दावा है कि 13.99 करोड़ रूपये खर्च कर दिया गया.

साल 2013-14 में इस स्कीम के तहत 15 करोड़ का बजट रखा गया था. जिसमें 14.74 करोड़ आवंटित किया गया और 11.95 करोड़ खर्च भी हुआ.

साल 2012-13 में इस स्कीम के लिए 15 करोड़ का बजट रखा गया, लेकिन जारी किए गया सिर्फ 12.80 करोड़ रूपये और इसमें से सिर्फ 10.45 करोड़ ही खर्च किया जा सका.

हालांकि इससे पहले की कहानी थोड़ी अलग है. साल 2011-12 में 15 करोड़ का बजट रखा गया लेकिन रिलीज़ सिर्फ़ 4 लाख ही किया गया. उसी तरह साल 2010-11 में भी 15 करोड़ का बजट रखा गया, जबकि रिलीज़ 5 करोड़ किया गया. यही नहीं, साल 2009-10 में यह बजट 8 करोड़ का था और 8 करोड़ रूपये रिलीज़ भी किया गया. पर जब खर्च की बात आती है तो शुन्य बटा सन्नाटा… सारा धन रखा का रखा ही रह गया. यही हाल साल 2010-11 और साल 2011-12 का भी रहा.

यह है कागज़ों की कहानी... जब हक़ीक़त के धरातल पर खर्च हुए इन आंकड़ों का जायज़ा लेते हैं तो मालूम पड़ता है कि इन अल्पसंख्यक महिलाओं के नेतृत्व विकास के नाम पर लाभ ऐसे संस्थान उठा रहे हैं, जिनका अल्पसंख्यकों के उत्थान से शायद ही कोई खास मतलब हो.

TwoCircles.netके पास साल 2014-15 में गैर-सरकारी संगठनों को दिए गए फंड्स व नाम की सूची भी मौजूद है. हैरानी की बात यह है कि इस सूची में दो-चार संस्थाओं को छोड़कर बाकी किसी भी संस्था का संबंध अल्पसंख्यक समुदाय से नहीं है.

इतना ही नहीं, ऑनलाईन ऐसी कई ख़बरें मौजूद हैं, जिसमें अल्पसंख्यक महिलाओं के ट्रेनिंग प्रोग्राम को सरस्वती वंदना से आरंभ किया गया. मेरठ के शोभित यूनिवर्सिटी की एक ख़बर नीचे देखी जा सकती है.

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Nai Roshni

इस संबंध में पटना की सामाजिक कार्यकर्ता शाईस्ता अली से बात करने पर वो बताती हैं कि ज़्यादातर राज्यों में मैंने खुद देखा है कि यह प्रोग्राम महज़ खानापूर्ति के लिए किया जा रहा है. बस कुछ महिलाओं को एकत्रित करके फोटो खिंचा लिया जाता है. इस तरह से यह ‘नई रोशनी’ एक दिखावा व सरकारी खानापूर्ति के सिवा कुछ नहीं है.

स्पष्ट रहे कि ‘अल्पसंख्यक महिला नेतृत्व विकास स्कीम’ शुरूआत सबसे पहले महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने 2007-08 में अल्पसंख्यक समुदाय की महिलाओं में नेतृत्व क्षमता के विकास, आजीविका एवं सशक्तिकरण के उद्देश्य से किया था. जनवरी 2010 में यह योजना अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय के अधीन चली गई. 2012-13 में इस स्कीम को ‘नई रोशनी’ का नाम दिया गया.

इस ‘नई रोशनी’ का असल मक़सद अल्पसंख्यक महिलाओं को ज्ञान, उपकरण और तकनीक से लैस करके उन्हें अधिकार सम्पन्न बनाना है. इस स्कीम का क्रियान्वयन गैर-सरकारी संगठनों, सिविल सोसायटी, न्यास के ज़रिए किया जा रहा है. इस स्कीम के तहत अल्पसंख्यक महिलाओं को एक सप्ताह का प्रशिक्षण दिया जाता है. यह प्रशिक्षण महिलाओं की शिक्षा, स्वास्थ्य एवं स्वच्छता, महिलाओं के क़ानूनी अधिकार, वित्तीय साक्षरता, डिजीटल साक्षरता, स्वच्छ भारत, जीवन कौशल और सामाजिक सरोकार से संबंधित विभिन्न क्षेत्रों में नेतृत्व करने के लिए सक्षम बनाने के लिए है, ताकि अल्पसंख्यक महिलाएं भी इस ई-युग में बाकियों के साथ क़दम से क़दम मिलाकर चल सकें.

लेकिन इन तमाम सरकारी दावों के बाद सच्चाई यही है कि इस स्कीम का फायदा फिलहाल अल्पसंख्यक महिलाओं को मिलता दिखाई नहीं दे रहा है. हालांकि इस स्कीम के तहत इस बार के भी बजट में 15 करोड़ का फंड आवंटित किया गया है.

हैरानी की बात यह है कि ‘नई रोशनी’ ही नहीं, बल्कि अल्पसंख्यकों के नाम पर शुरू किए गए दूसरे स्कीम भी इसी बीमारी से पीड़ित नज़र आ रही हैं. और इसका कोई हाल-फिलहाल इलाज नज़र नहीं आ रहा है.

सीआरपीएफ RTI मामला : मुश्किल में फंसे आरटीआई आवेदक शम्स तबरेज़

TwoCircles.net Staff Reporter

इलाहाबाद -सीआरपीएफ में नियुक्ति को लेकर दायर किए गए आरटीआई आवेदन के विवादास्पद जवाब का मामला और गहराता जा रहा है. इस मामले में सीआरपीएफ के जनसूचना अधिकारी का कथित जवाब खासा विवादित रहा. लेकिन अब इस मामले में नयी सचाई सामने आ रही है.

आरटीआई आवेदक शम्स तबरेज़ अब सीआरपीएफ के जवाब में तोड़मरोड़ करने के आरोप में फंस चुके हैं. सीआरपीएफ इलाहाबाद केंद्र के डीआईजी डीके त्रिपाठी की तहरीर पर शम्स तबरेज़ के खिलाफ़ थरवई थाने में मुक़दमा दर्ज किया गया है.

कल गुरुवार को गाजीपुर के उसिया गांव के निवासी शम्स तबरेज़ ने दिलदारनगर थाने में डीके त्रिपाठी के खिलाफ जब एफआईआर दर्ज कराने पहुंचे तो पुलिस अधिकारियों ने मुकदमा दर्ज करने से इनकार कर दिया. अधिकारियों ने शम्स से यह कहा कि वे या तो अधिकारियों से संपर्क करें या अदालत में मामला दर्ज कराएं.

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सीआरपीएफ RTI मामला : मुश्किल में फंसे आरटीआई  आवेदक शम्स तबरेज़

शम्स धार्मिक भावनाएं आहत करने, साम्प्रदायिक द्वेष फैलाने, धार्मिक आधार पर भेदभाव करने और साक्ष्य मिटाने की शिकायत लेकर दिलदारनगर थाने पहुंचे तो थानाध्यक्ष शिवकुमार मिश्रा ने शम्स का शिकायती पत्र लौटाते हुए उन्हें किसी अधिवक्ता से संपर्क करने की सलाह दी. थानाध्यक्ष शिवकुमार मिश्रा ने बताया कि शम्स ने मानहानि का मुकदमा दर्ज कराने की भी मांग की थी.

जानकारी के लिए बता दें कि शम्स तबरेज़ ने 2010 में सीआरपीएफ की भर्ती प्रक्रिया में हिस्सा लिया था. बकौल शम्स, सारे टेस्ट पास करने के बाद मेडिकल टेस्ट में वे सफल नहीं हो सके. शम्स इस परिणाम को लेकर संतुष्ट नहीं थे तो उन्होंने इसे लेकर इलाहाबाद सीआरपीएफ में एक आरटीआई दायर कर दी. उन्होंने मेडिकल जांच के रिपोर्ट की सत्यापित प्रति मांगी थी.

इस आरटीआई आवेदन के जवाब में उन्हें 4 फरवरी को इलाहाबाद सीआरपीएफ के ग्रुप ज़ोन के केन्द्रीय जनसूचना अधिकारी डीके त्रिपाठी की ओर से जवाब मिला. इस जवाब की जो प्रति मीडिया को शम्स तबरेज़ द्वारा मुहैया कराई गयी उसमें डीके त्रिपाठी का जवाब पढ़कर कोई भी हैरान हो सकता है.

जनसूचना अधिकारी डीके त्रिपाठी ने लिखा – आपको अवगत कराया जाता है कि आप मुस्लिम समुदाय से सम्बंधित हैं जो आतंकियों का धर्म है अतः जन सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 के सेक्शन 8(1)(क) के तहत सुरक्षा कारणों से सूचना/ दस्तावेज़ नहीं दिया जा सकता.

जवाब में यह भी लिखा गया कि आरटीआई एक्ट 2005 के अध्याय 6 के सेक्शन 24(1) के तहत उनके विभाग को इस तरह की सूचनाएं सार्वजनिक करने से मुक्त रखा गया है.

जब यह पत्र सोशल मीडिया पर आया तो तमाम तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आयीं. मीडिया ने इस मामले को प्रमुखता से उठाना शुरू किया तो सीआरपीएफ ने मामले को संज्ञान में लेते हुए इस खबर का खंडन किया. सीआरपीएफ ने आधिकारिक पत्र में छेड़छाड़ कर उसे मीडिया में प्रसारित करने के आरोप में शम्स के खिलाफ थरवई थाने मुकदमा दर्ज करा दिया है.

इस मामले पर हमने शम्स से बात की तो उन्होंने कहा कि सीआरपीएफ साक्ष्यों और मूलपत्र के साथ खिलवाड़ कर रही है. शम्स ने कहा, 'आरटीआई का जवाब मुझे बंद लिफ़ाफ़े में मिला था और उस मैंने ठीक-ठीक वैसे ही शेयर कर दिया था. सीआरपीएफ अपनी साख बचाने के लिए ऐसा कर रही है.'

शम्स ने आगे कहा, 'लोग कह रहे हैं कि पब्लिसिटी पाने के लिए मैंने ऐसा किया. जबकि मैंने गृह मंत्रालय, अल्पसंख्यक विभाग और मानवाधिकार कमीशन को भी इस मामले की जानकारी दी है, सिर्फ सोशल मीडिया पर नहीं. लोग मेरे परिवार के बारे में तमाम किस्म की बातें कर रहे हैं कि मैं बहुत संपन्न परिवार से ताल्लुक रखता हूं लेकिन जानकारी के लिए बता दूं कि मेरे पिता चतुर्थ श्रेणी के राज्य कर्मचारी हैं. संसाधनों की कमी की वजह से मेरे भाई की पढ़ाई बीच में ही रुक गयी है. संसाधनों के अभाव के कारण मैं न्यायिक प्रक्रिया का खर्च उठाने में अक्षम हूं, फिर भी विचार चल रहा है.'

इस मामले में सीआरपीएफ ने भी एक पत्र जारी किया है, जो सीआरपीएफ का सच है. शम्स तबरेज़ का पत्र उनका अपना सच है. लेकिन मूल सच सामने आए इसके लिए न्यायालय की निगरानी के अधीन मुक्त जांच दरकार है.

इस मामले पर पढ़ें - CRPF - आप आतंकियों के धर्म से ताल्लुक रखते हैं, लिहाज़ा आपको सूचना नहीं दी जा सकती है

फतवे की राह पर भाजपा - कन्हैया की जीभ काटने पर पांच लाख का इनाम

TwoCircles.net Staff Reporter

बदायूं -हिन्दू मूल्यों की रहनुमा भारतीय जनता पार्टी अब फतवेबाज़ी पर उतर आई है. भाजपा की ओर से कन्हैया के खिलाफ फतवा इस बार भाजयुमो, बदायूं से हुआ है.

बदायूं के भारतीय जनता युवा मोर्चा के नेता कुलदीप वार्ष्णेय ने मीडिया से बात करते वक़्त कहा है कि जो भी व्यक्ति कन्हैया की जीभ काटेगा, उसे वे पांच लाख रुपये का इनाम देंगे.

मीडिया के कैमरे से मुखातब कुलदीप वार्ष्णेय ने कहा कि वे इस देश के जिम्मेदार नागरिक हैं और भाजपा के पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर कन्हैया के प्रहार से आहत हैं. उन्होंने यह भी कहा कि कन्हैया कुमार ने उनके देश के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी का अपमान किया है.

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फतवे की राह पर भाजपा - कन्हैया की जीभ काटने  पर पांच लाख का इनाम

लिहाज़ा, कुलदीप वार्ष्णेय ने कहा है कि वे यह ऐलान करते हैं कि जो भी व्यक्ति कन्हैया कुमार की जीभ काटता है वे उसे पांच लाख रूपए का इनाम देंगे.

TwoCircles.net से बातचीत में भाजपा के उत्तर प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी ने पहले तो पूरी तरह से इस मामले से अनभिज्ञता जताई. फिर खबर को चलाने वाले न्यूज़ चैनलों का नाम लेने पर उन्होंने कहा कि भारतीय जनता पार्टी इस तरह के किसी भी बयान का समर्थन नहीं करती है.

लाख्मीकांत वाजपेयी ने कहा, 'मानता हूं कि कुलदीप वार्ष्णेय हमारे कार्यकर्ता है लेकिन उन्होंने अतिउत्साह में यह बयान दिया होगा. भाजपा इस तरह के किसी भी बयान का खंडन करती है.'

कुलदीप वार्ष्णेय के खिलाफ कार्रवाई के जवाब में उन्होंने कहा कि कार्रवाई करने के पहले उन्हें खबर को पूरी तरह से देखना होगा.

कुलदीप वार्ष्णेय के इस बयान को देखकर दो बातें सामने आती हैं. पहली तो यह कि भाजपा की शीर्ष नेतृत्व का पार्टी कार्यकर्ताओं और नेताओं पर कोई नियंत्रण नहीं है, और दूसरी ज़ाहिर यह कि भाजपा के निशाने पर उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव हैं. हालांकि यह बताते चलें कि कुलदीप वार्ष्णेय कोई बेहद अनजाना नाम नहीं हैं. बदायूं के बाशिंदों के बीच कुलदीप लगातार धार्मिक तनाव फैलाने और धर्माधारित राजनीति करने के कार्य करते रहे हैं, जिसमें वे कई बार जेल की हवा भी खा चुके हैं.


अल्पसंख्यकों की ‘सेहत’ से खिलवाड़, सरकार ने ‘मौलाना आज़ाद मेडिकल एड स्कीम’ किया बंद!

Afroz Alam Sahil, TwoCircles.net

अल्पसंख्यकों की सेहत का ख़्याल रखने के लिए यूपीए सरकार ने जिस ‘मौलाना आज़ाद मेडिकल एड स्कीम’यानी ‘सेहत स्कीम’ को लांच किया था, मोदी सरकार में अब उसका हश्र सामने आ चुका है.

‘सेहत’ नाम की ये स्कीम अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय के कागज़ों में ज़रूर चमक रही है, मगर ज़मीन पर इसका नामो-निशान तक नहीं मिलता है. हद तो यह है कि इस स्कीम के मद में दिया गया पूरा का पूरा फंड मंत्रालय के तिजोरी में ही बंद रह गया. एक पाई भी जनता तक नहीं पहुंची. उस पर मोदी सरकार का करम देखिए कि इस बार उसने इस स्कीम को ही बंद कर दिया.

स्पष्ट रहे कि अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय के पूर्व मंत्री के. रहमान खान ने पूरे ताम-झाम के साथ अपनी सरकार के दौर में 4 मार्च 2014 को ‘मौलाना आज़ाद सेहत स्कीम’ लांच किया था. इस अवसर पर इस महत्वपूर्ण स्कीम के लिए 100 करोड़ के फंड के आवंटन का ऐलान भी किया गया था.

लेकिन TwoCircles.netके पास अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय से हासिल महत्वपूर्ण दस्तावेज़ बताते हैं कि जैसे ही केन्द्र में सरकार बदली, इस स्कीम को पूरी तरह से भुला दिया गया.

केन्द्र की मोदी सरकार ने सत्ता में आते ही इस स्कीम के बजट को पूरी तरह से कम कर दिया. साल 2014-15 में इस ‘सेहत स्कीम’ के लिए महज़ 2 करोड़ फंड के आवंटन का ऐलान किया गया, लेकिन जब उसे रिलीज़ करने की बात आई तो सिर्फ़ 1 लाख रूपये ही रिलीज़ किया गया, लेकिन सरकारी दस्तावेज़ बताते हैं कि यह एक लाख रूपया भी पूरे साल सरकारी तिजोरी में ही पड़ा रहा.

साल 2015-16 में इस सेहत स्कीम के लिए सिर्फ़ एक लाख रूपये का फंड आवंटित किया गया, लेकिन केन्द्र की मोदी सरकार इस रक़म का एक पाई भी खर्च नहीं कर पाई.

और अब इस नए बजट में इस स्कीम को सरकार ने पूरी तरह से ख़त्म कर दिया है. इस स्कीम के नाम पर इस बार के आम बजट में किसी भी फंड के आवंटन का ऐलान नहीं किया गया है.

गौरतलब रहे कि यह स्कीम अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय के अंतर्गत आने वाला ‘मौलाना आजाद एजुकेशन फाउंडेशन’ द्वारा संचालित किया जा रहा था. इस स्कीम का अहम मक़सद पोषित शिक्षण संस्थानों में पढ़ने वाले छात्रों के स्वास्थ्य सुधार के लिए आर्थिक मदद करना था. इसके तहत अल्पसंख्यक छात्रों के हेल्थ कार्ड बनाए जाने की योजना थी. साथ ही निजी/सरकारी अस्पताल एवं नर्सिंग होम्स के माध्यम से वर्ष में दो बार हेल्थ चेक-अप कैंप भी लगाया जाना था.

इतना ही नहीं, इस स्कीम के तहत गरीब अल्पसंख्यक छात्रों के गंभीर बीमारियों जैसे किडनी, लीवर, कैंसर, ब्रेन, घुटनों या स्पाईनल सर्जरी या फिर जिन्दगी को ख़तरे में डालने वाली बीमारियों से मुक्ति के लिए सरकारी या सरकार से अधिकृत अस्पतालों में इलाज के लिए आर्थिक मदद देने की भी योजना बनाई गई थी.

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अल्पसंख्यक छात्रों का स्कॉलरशिप भी संकट में!

Afroz Alam Sahil, TwoCircles.net

अल्पसंख्यक तबक़े से ताल्लुक़ रखने वाले छात्रों के तालीम का एक बड़ा सहारा उनको मिलने वाली स्कॉलरशिप होती है. और शायद सरकार का भी यही मक़सद रहा है कि अनुसूचित जाति-जनजाति और पिछड़ा वर्ग के साथ-साथ अल्पसंख्यक तबक़े के छात्र-छात्राओं को भी पढ़ाई के लिए छात्रवृत्ति मुहैया कराई जाए ताकि उनकी पढ़ाई में आने वाली आर्थिक परेशानी को दूर किया जा सके. और यह सच भी है कि देश के ऐसे हज़ारों अल्पसंख्यक छात्र सरकार के इसी स्कॉलरशिप के सहारे अपनी तालीम पूरी कर अपने पैरों पर खड़े हो सके हैं.

मगर इन दिनों ‘सबका साथ –सबका विकास’ का दावा करने वाली मोदी सरकार ने इस ‘सहारे’ पर भी चोट करना शुरू कर दिया है. मोदी सरकार के इस शासन में न सिर्फ़ अल्पसंख्यक छात्रों को स्कॉलरशिप बांटने की पूरी प्रक्रिया सवालों के घेरे में है, बल्कि अल्पसंख्यक बच्चों को मिलने वाले स्कॉलरशिप के बजट को भी इस नए वित्तीय वर्ष में घटा दिया गया है.

सरकार अल्पसंख्यक छात्रों के शैक्षिक बदहाली को दूर करने की नियत रखते हुए प्रमुख तौर पर तीन स्कॉलरशिप स्कीम इस देश में चला रही है. पहला प्री मैट्रिक स्कॉलरशिप, पोस्ट मैट्रिक स्कॉलरशिप और तीसरा मेरिट कम मिन्स स्कॉलरशिप... इन तीनों स्कॉलरशिप को लेकर अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय के दावे काफी ज़बरदस्त रहे हैं. सरकार का दावा है कि साल 2014-15 में पूरे भारत में 86 लाख प्री मैट्रिक और पोस्ट मैट्रिक स्कॉलरशिप बांटी गई हैं. लेकिन जिन हाथों को ये स्कॉलरशिप मिलनी चाहिए, जैसे ही TwoCircles.netउनसे बात करती है, सच की सारी परतें खुलकर सामने आ जाती हैं.

TwoCircles.netके पास मौजूद दस्तावेज़ बताते हैं कि इस बार के बजट में मोदी सरकार ने अल्पसंख्यक छात्रों के स्कॉलरशिप पर जमकर कैंची चलाई है.

अल्पसंख्यक छात्रों के लिए सबसे महत्वपूर्ण स्कॉलरशिप यानी प्री-मैट्रिक मैट्रिक स्कॉलरशिप का बजट साल 2015-16 में 1040.10 करोड़ रखा गया था, लेकिन इस बार के प्रस्तावित बजट में इसे 931 करोड़ कर दिया गया है.

यही कहानी पोस्ट-मैट्रिक स्कॉलरशिप की भी है. पिछले साल यानी 2015-16 में इस स्कॉलरशिप के लिए 580.10 करोड़ का बजट प्रस्तावित किया गया था, लेकिन इस बार इसे घटाकर 550 करोड़ कर दिया गया है.

यदि आंकड़ों की बात करें तो TwoCircles.netके पास मौजूद दस्तावेज़ बताते हैं कि साल 2015-16 में प्री-मैट्रिक मैट्रिक स्कॉलरशिप के लिए 1040.10 करोड़ का बजट रखा गया, लेकिन जून 2015 तक इसके नाम पर सिर्फ़ 0.02 करोड़ ही खर्च किया जा सका है.

साल 2014-15 की कहानी थोड़ी अलग है. सरकार अल्पसंख्यक छात्रों पर इस साल ज़्यादा मेहरबान रही. इस साल इस स्कॉलरशिप के लिए 1100 करोड़ का बजट रखा गया था, लेकिन रिलीज़ किया गया 1130 करोड़ और खर्च 1128.84 करोड़ कर दिया गया.

पोस्ट-मैट्रिक स्कॉलरशिप के लिए साल 2015-16 में 580.10 करोड़ का बजट रखा गया, लेकिन जून 2015 तक इसके नाम पर सिर्फ़ 0.01 करोड़ ही खर्च किया जा सका है.

साल 2014-15 में इस स्कॉलरशिप के लिए 598.50 का बजट रखा गया था और सारा धन-राशि रिलीज़ भी कर दिया गया और खर्च 501.32 करोड़ किया गया.

व्यावसायिक और तकनीकी पाठ्यक्रमों स्नातक और स्नातकोत्तर कोर्सेज के लिए योग्यता सह साधन छात्रवृत्ति योजना यानी मेरिट कम मिन्स स्कॉलरशिप के लिए साल 2015-16 में 335 करोड़ का बजट रखा गया, लेकिन जून 2015 तक इसके नाम पर सिर्फ़ 26.33 करोड़ ही खर्च किया जा सका है.

साल 2014-15 में सरकार इस स्कॉलरशिप के लिए कुछ ज़्यादा ही मेहरबान दिखी. इस स्कॉलरशिप के लिए 335 का बजट रखा गया था, लेकिन रिलीज़ 350 करोड़ कर दिया गया और खर्च उससे अधिक किया गया. इस साल इस स्कॉलरशिप पर 381.38 करोड़ खर्च किए गए.

अब यदि इन सरकारी आंकड़ों की बात छोड़ दिया जाए तो ज़मीनी हक़ीक़त यह बताते हैं कि साल 2014-15 के स्कॉलरशिप आज तक कई हज़ार छात्रों को नहीं मिल सका है. आलम तो यह है कि वित्तीय साल 2015-16 अब ख़त्म होने वाला है, लेकिन अब तक किसी भी छात्र को स्कॉलरशिप नहीं मिल सका है.

सामाजिक संस्था ‘मिशन तालीम’ के राष्ट्रीय सचिव एकरामुल हक़ बताते हैं कि सरकार की नियत कभी भी इस स्कॉलरशिप को लेकर साफ़ नहीं रही है. साल 2014-15 में हज़ारों ऐसी शिकायतें सामने आई हैं, जिसमें छात्रों के स्कॉलरशिप जान-बुझ कर डाकिया वापस लेकर चला गया, और फिर तमाम चक्कर लगाने के बाद भी उन छात्रों को आज तक कुछ भी नहीं मिल सका. 2015-16 की कहानी तो और भी भयावह है. अभी तक छात्रों की स्कॉलरशिप नहीं बंट सकी है.

कहानी यहीं ख़त्म नहीं होती. पिछले दो सालों में अनेक ऐसी ख़बरें मीडिया में आई हैं और खुद TwoCircles.netके इस संवाददाता से कई राज्यों के सैकड़ों छात्रों ने मिलकर शिकायत की है.

एक ख़बर के मुताबिक़ साल 2014-15 में कई राज्यों के प्राइवेट स्कूल में शिक्षा ग्रहण कर रहे बच्चों की प्री-मैट्रिक स्कॉलरशिप की राशि 5700 से घटाकर 1000 रुपये कर दी गई है. उन राज्यों के शिक्षा विभाग का कहना है कि केंद्र सरकार ने जो बजट जारी किया है, उसी हिसाब से स्कॉलरशिप बांटी जा रही है. जबकि योजना में सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले पहली से दसवीं तक के छात्रों को एक हजार रुपये तथा निजी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को 5700 रुपये छात्रवृत्ति दिए जाने का प्रावधान है.

वहीं हाल के एक ख़बर के मुताबिक़ राजस्थान में खाते में 3 माह से लेनदेन होने पर अल्पसंख्यक छात्रों की स्कॉलरशिप अटक सकती है. यानी इस साल उन्हीं विद्यार्थियों के बैंक अकाउंट में राशि आएगी जिनका बैंक अकाउंट में लेन देने हुए 90 दिन से अधिक समय नहीं हुआ हो.

अब सवाल यह है कि साल 2014-15 में सरकार अल्पसंख्यक छात्रों पर इतना मेहरबान क्यों दिखा? क्या सरकार की मंशा वाक़ई अल्पसंख्यक छात्रों की आर्थिक मदद करना था या कहानी कुछ और है?

जब हम इस सवाल को लेकर गंभीरता से विश्लेषण करते हैं तो पाते हैं कि सरकार की नियत अल्पसंख्यक छात्रों को दिए जाने वाले स्कॉलरशिप को लेकर कभी भी साफ़ नहीं रहा. ऐसे सैकड़ों ख़बरें पिछले सालों मीडिया में आई हैं, जिससे सरकार की मंशा को आसानी से समझा जा सकता है.

एक ख़बर के मुताबिक़ छत्तीसगढ़ के दुर्ग ज़िला शिक्षा विभाग में स्कॉलरशिप वितरण में एक करोड़ पांच लाख रुपए की गड़बड़ी का मामला सामने आया है. गड़बड़ी की पुष्टि इसलिए हो सकी क्योंकि इन रुपयों का विभाग के पास न कोई हिसाब है, न कोई रिकॉर्ड है और न ही कोई कैश बुक...

घोटाले का एक मामला उत्तर प्रदेश में भी देखने को मिल रहा है. यहां के सिर्फ़ बस्ती ज़िला में पिछले चार सालों में 2.50 करोड़ के गबन का मामला सामने आया है. यहां के ज़िला समाज कल्याण अधिकारी की शिकायत पर कोतवाली पुलिस ने 11 स्कूलों के मैनेजरों के खिलाफ़ स्कॉलरशिप हड़पने का केस दर्ज कराया है. इस एफ़आईआर के मुताबिक़ इन स्कूलों में बच्चों की फ़र्जी संख्या दिखाकर स्कॉलरशिप का पैसा हड़पा जा रहा था. मौके पर जाकर जांच करने पर स्कूलों में केवल 5 से 7 बच्चे ही नामांकित मिले, जबकि फाइलों में इनकी संख्या 250 दिखाकर स्कॉलरशिप ली जा रही थी.

ऐसे ही कई मामले उत्तर प्रदेश के दूसरों ज़िलों में भी सामने आए हैं. वाराणसी व मुरादाबाद का नाम यहां प्रमुखता से लिया जा सकता है.

राजस्थान में भी बीजेपी विधायक हबीबुर्रहमान ने सदन के भीतर और बाहर अल्पसंख्यक छात्रों के स्कॉलरशिप के नाम पर टोंक ज़िले में 4.25 करोड रुपए के घोटाले पर सवाल उठाए हैं. हबीबुर्रहमान ने यह भी आरोप लगाया है कि इस साल 30 फसदी बजट कम कर दिया गया है.

घोटाले का नाम आया है तो इसमें मध्य प्रदेश का नाम कैसे पीछे रह सकता है. इस प्रदेश के सिर्फ़ सागर ज़िले में पिछड़ा वर्ग एवं अल्पसंख्यक कल्याण विभाग की जांच में दोहरी स्कॉलरशिप के अब तक 2713 मामले सामने आ चुके हैं. शिक्षा विभाग के विशेषज्ञों की मानें तो शासन को इस दोहरी स्कॉलरशिप के मामले के ज़रिए क़रीब डेढ़ करोड़ का चूना लगाया गया है.

घोटालों की यह कहानी तो महज़ एक झलक है. ऐसे बेशुमार घोटालों के मामले लगातार हमारे सामने आते रहे हैं. TwoCircles.netजल्द ही इन तमाम घोटालों की परत दर परत खोलकर आपके सामने रखने कोशिश करेगा.

बहरहाल भविष्य में इन स्कॉलरशिप स्कीमों का हश्र क्या होने वाला है, इस बात का अंदाज़ा आप इस बात से ही लगा सकते हैं कि जब बीजेपी विपक्ष में थी तो इनके तमाम नेता इस स्कॉलरशिप स्कीम को तुष्टीकरण की संज्ञा देते हुए इसे भारत के संविधान के धर्मनिरपेक्षता के तत्व के ख़िलाफ़ मानते रहे हैं. खुद पीएम मोदी, जब गुजरात के सीएम थे तो इस स्कॉलरशिप स्कीम का विरोध किया था. अदालत के हस्तक्षेप के बाद उन्होंने अपने शासन के अंतिम सालों में अदालत के आदेश को मानते हुए मजबूरन अपने राज्य में लागू किया था.

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यह ख़बर 90 ज़िलों के अल्पसंख्यकों के लिए है

Afroz Alam Sahil, TwoCircles.net

केन्द्र में सरकार चाहे जिसकी भी हो, मगर कुछ स्कीमें ‘फ्लैगशिप’ स्कीमों के श्रेणी में आती हैं. उनके साथ कोई छेड़छाड़ नहीं किया जाता है, क्योंकि वे एक बड़े तबक़े के मुस्तक़बिल से जुड़ी होती है. ऐसी ही एक स्कीम ‘मल्टी सेक्टोरल डेवलपमेंट प्रोग्राम’ (एमएसडीपी) यानी बहुक्षेत्रीय विकास कार्यक्रम है.

दरअसल, यह स्कीम मुल्क के 90 ज़िलों में अल्पसंख्यकों के भविष्य को बेहतर बनाने की दिशा में की गई कोशिश का एक नतीजा है, मगर मोदी सरकार ने अब इस पर भी अपनी गाज़ गिरा दी है. न सिर्फ़ अब इसका बजट कम कर दिया गया, बल्कि स्कीम को क्रियांवित करने के लिए ज़रूरी संसाधनों पर भी चोट की गई है.

TwoCircles.netके पास मौजूद दस्तावेज़ बताते हैं कि ताज़ा बजट के आवंटन में अल्पसंख्यकों के उत्थान के लिए सबसे महत्वपूर्ण स्कीम एमएसडीपी का प्रस्तावित बजट इस बार कम कर दिया गया है.

पिछले वित्तीय साल यानी 2015-16 में इस स्कीम के लिए 1251.64 करोड़ का बजट रखा गया था. लेकिन इस साल इस एमएसडीपी स्कीम के लिए प्रस्तावित बजट को घटाकर 1125 करोड़ कर दिया गया है. हालांकि एमएसडीपी स्कीम अल्पसंख्यक मंत्रालय का सबसे महत्वपूर्ण स्कीम माना जाता है, जिसे यूपीए सरकार ने 2008-09 में 90 अल्पसंख्यक बहुल जिलों में शुरू किया गया था. इस स्कीम का मक़सद अल्पसंख्यकों के सामाजिक-आर्थिक अवसंरचना का सृजन करते हुए तथा आधारभूत सुविधाएं उपलब्ध कराते हुए अल्पसंख्यक बहुल जिलों की विकास सम्बन्धी कमियों को दूर करना था.

TwoCircles.netके पास मौजूद अल्पसंख्यक मंत्रालय के अहम दस्तावेज़ अल्पसंख्यक़ों के कल्याण के लिए शुरू की गई इस स्कीम की हकीक़त बयाँ कर रही है. सच तो यह है कि अल्पसंख्यक, खासकर मुसलमानों के कल्याण का दावा करने वाली यह महत्वपूर्ण स्कीम काग़जों में ही दम तोड़ रही हैं.

चयनित अल्पसंख्यक बहुल जिलों में अल्पसंख्यकों के लिए बहुक्षेत्रीय विकास कार्यक्रम (Multi Sectoral Development Programme for Minorities in selected of Minority Concentrated Districts) के लिए साल 2015-16 में 1251.64 करोड़ का बजट आवंटित किया गया, लेकिन जून 2015 तक उपलब्ध आंकड़ें बताते हैं कि इस स्कीम पर सिर्फ़ 161.42 करोड़ ही खर्च किया जा सका है.

साल 2014-15 में इस स्कीम के लिए 1250 करोड़ का बजट रखा गया, लेकिन रिलीज़ सिर्फ 770.94 करोड़ ही किया गया और 768.21 करोड़ रूपये खर्च भी किया गया.

साल 2013-14 में 1250 करोड़ का बजट रखा गया, लेकिन रिलीज़ हुआ सिर्फ 958.53 करोड़ और खर्च 953.48 बताया गया है, जबकि साल 2012-13 में इस स्कीम के लिए 999 करोड़ का बजट रखा गया, लेकिन रिलीज़ हुआ सिर्फ़ 649.56 करोड़ रूपये और खर्च 641.26 करोड़ रूपये किया गया.

इतना ही नहीं, आगे की कहानी और भी भयावह है. पिछड़े शहरों के रूप में पहचाने गए 251 में से 100 अल्पसंख्यक बहुल कस्बों/शहरों में शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए शुरू की गई योजना Scheme for promotion of education in 100 minority concentrate towns/cities out of 251 such town/cities identified as backward का हाल तो और भी बुरा है. इस स्कीम के लिए केन्द्र सरकार ने साल 2012-13 में 50 करोड़ का बजट रखा, लेकिन रिलीज़ सिर्फ 4 लाख रूपये ही किया गया लेकिन उदासीनता की हद यह रही कि इसमें से एक रुपया भी खर्च नहीं किया गया.

यही हाल एमसीबी/एमसीडी के अंतर्गत न आने वाले गांवों के लिए ग्राम विकास कार्यक्रम (Village Development Programme for Villages not covered by MCB/MCDs) का भी है. इस स्कीम के लिए भी केन्द्र सरकार ने साल 2012-13 में 50 करोड़ का बजट रखा, लेकिन रिलीज़ सिर्फ़ 4 लाख रूपये ही किया गया और इन चार लाख में से एक फूटी कौड़ी भी खर्च नहीं की गई.

एमसीडी में जिला स्तरीय संस्थाओं को समर्थन (Support to district level institutions in MCDs) के लिए भी साल 2012-13 में केन्द्र सरकार ने 25 करोड़ का बजट रखा, लेकिन इसमें भी सिर्फ चार लाख ही रुपये रिलीज़ किया गया, जिसमें से एक पैसा भी खर्च नहीं किया गया. यानि इस योजना का लाभ एक भी व्यक्ति को नहीं पहुँचा.

इन तीनों स्कीमों में साल 2012-13 के बाद कोई फंड नहीं रखा गया. 2014-15 में जब केन्द्र में मोदी सरकार आई तो इस स्कीम पर उसकी नज़रे-इनायत हुई और इसे एमएसडीपी स्कीम में शामिल कर लिया गया, लेकिन एमएसडीपी का जो हाल है, जो आप उपर देख ही चुके हैं.

हालांकि सरकार का दावा है कि इस स्कीम के अंतर्गत 2014-15 में 80 स्कूलों, 86 छात्रावासों को उचित शौचालय सुविधा देने तथा अन्य स्कूलों में 39 शौचालय बनाने को मंजूरी दी गयी है. वहीं 2015-16 के दौरान 73 छात्रावासों में पर्याप्त शौचालय सुविधाएं तथा अन्य स्कूलों में 52 शौचालय तथा पेयजल सुविधाओं को स्वीकृति दी गयी है.

इससे पहले आठ जुलाई 2014 को राज्यसभा में एक प्रश्न का उत्तर देते हुए अल्पसंख्यक मामलों की मंत्री डॉ. नजमा हेपतुल्लाह ने बताया था कि अल्पसंख्यक मंत्रालय की ओर से एमएसडीपी के तहत देश भर में अल्पसंख्यकों की घनी आबादी वाले क्षेत्रों में 117 आईटीआई, 44 पॉलिटेक्निक, 645 छात्रावास, 1,092 स्कूल भवन और 20,656 अतिरिक्त कक्षाएं बनाने की स्वीकृति दी गई है, लेकिन जब हम इन्हें धरातल पर ढूढ़ते हैं तो यह सारे दावे व वादे सिर्फ़ कागज़ों व भाषणों में ही नज़र आते हैं, हक़ीक़त में कहीं कुछ काम खोजने से भी नहीं मिलता.

राजस्थान के सामाजिक कार्यकर्ता आसिफ़ अहमद के मुताबिक़ जो थोड़े-बहुत काम इस स्कीम के तहत हुए भी हैं, तो उन्हें जान-बुझकर ऐसे इलाक़े में कराया गया है, जहां अल्पसंख्यकों का नामो-निशान तक नहीं है.

इतना ही नहीं, कई राज्यों में इस स्कीम को लेकर कई घोटाले की भी ख़बर वक़्त बवक़्त आती रही है. जिन पर TwoCircles.netबाद में विस्तार से चर्चा करेगी.

लेकिन आज यहां चिंता का विषय यह है कि एक तरफ़ हमारी सरकार ‘सबका साथ –सबका विकास’ जैसे नारे पर चलने की क़समें खाती है, वहीं दूसरी तरफ़ एक ख़ास तबक़े के लिए चलाए जा रहे सबसे महत्वपूर्ण स्कीम पर कैंची चलाकर उसने इस स्कीम की जड़े हिलाने की कोशिश भी की है. इससे यह समझना साफ़ हो गया है कि भविष्य में सरकार का इरादा क्या है.

पहले तो बजट ही ऊँट के मुँह में जीरे के समान रखा गया. लेकिन यह जीरा भी ऊँट के मुँह में नहीं गया. इससे भी कड़वा सच यह है कि जो पैसा खर्च हुआ उसका भी बड़ा हिस्सा नेताओं और अफ़सरों की जेब में चला गया.

यह कितना अजीब है कि अल्पसंख्यकों के शैक्षिक, सामाजिक व आर्थिक उत्थान एवं कल्याण के लिए शुरु की गई तमाम सरकारी योजनाओं ने कागजों पर ही दम तोड़ दिया और हमारे नेताओं ने इनकी फातेहा तक नहीं पढ़ी.

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‘सीखो और कमाओ’ : न एक्सपर्ट ट्रेनिंग और न ही रोज़गार के मौक़े

Afroz Alam Sahil, TwoCircles.net

केन्द्र सरकार की ‘सीखो और कमाओ’ स्कीम ने बेरोज़गार अल्पसंख्यक युवाओं में खासी उम्मीदें जगाई थीं. इस स्कीम के भरोसे अल्पसंख्यक युवाओं ने अपने पैरों पर खड़े होने के सपने पाल लिए थे. स्कीम का मूलमंत्र अल्पसंख्यक युवाओं को प्रशिक्षण देकर स्वालंबी बनाना था. इसके लिए अच्छे-खासे फंड्स का इंतेज़ाम भी किया गया, मगर ये पूरी की पूरी योजना कागज़ों पर ही धाराशाई होती नज़र आ रही है. ज़मीन पर इसका क्रियान्वयन न के बराबर ही नज़र आता है.

आलम यह है कि जिन अल्पसंख्यक युवाओं ने इस स्कीम के साथ खुद को शामिल किया था, उन्हें न तो एक्सपर्ट ट्रेनिंग नसीब हो पाई और न ही रोज़गार के मौक़े ही हासिल हुए. कागज़ों में ट्रेनिंग हासिल किए हज़ारों युवा आज भी बेरोज़गार हैं. साथ ही सरकार से उनकी नाउम्मीदी भी बढ़ी है कि –यह सरकार उनके लिए कुछ नहीं कर सकती. उनके ‘अच्छे दिन’ कम से कम इस सरकार में तो आने वाले नहीं हैं...

स्पष्ट रहे कि इस स्कीम की शुरूआत यूपीए सरकार ने 23 सितम्बर 2013 को की थी. इस स्कीम का असल मक़सद अल्पसंख्यक समुदाय से जुड़े मौजूदा श्रमिकों, विद्यालय छोड़ चुके छात्र/छात्राओं में रोज़गार योग्यता को विकसित और उनके लिए रोज़गार को सुनिश्चित करना है.

TwoCircles.netको अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय से उपलब्ध आंकड़ें बताते हैं कि पहले साल यानी 2012-13 में इस स्कीम के लिए मात्र 20 करोड़ का बजट आवंटित किया गया, लेकिन रिलीज़ 5 लाख रूपये ही किया गया और यह रक़म भी सरकारी तिजोरी का शोभा बढ़ाता रहा.

साल 2013-14 में इस स्कीम के लिए 17 करोड़ का बजट रखा गया. 17 करोड़ रिलीज़ भी किया गया और 16.99 करोड़ रूपये खर्च भी हुए.

2014 में सत्ता में नरेन्द्र मोदी की सरकार आई. यह सरकार इस स्कीम को लेकर काफी सजग नज़र आई. इसके आते ही साल 2014-15 में इस स्कीम का बजट बढ़ाकर 35 करोड़ कर दिया गया. जब रिलीज़ करने की बारी आई तो सरकार और भी अधिक मेहरबान हुई और 46.23 करोड़ रूपया रिलीज़ किया गया. और खर्च भी दिल खोलकर किया गया. इस साल पूरे 46.21 करोड़ रूपये इस स्कीम पर खर्च हुए.

साल 2015-16 में इस स्कीम के लिए 67.45 करोड़ का बजट आवंटित किया गया था, लेकिन जून 2015 तक के उपलब्ध आंकड़ें बताते हैं कि इसमें सिर्फ़ 24.66 करोड़ ही खर्च किया गया. हालांकि वर्तमान बजट में सरकार ने इस स्कीम का बजट बढ़ाकर 210 करोड़ कर दिया है.

सरकार का दावा है कि इस स्कीम के तहत 2015-16 के लिए 1,13,000 लाभार्थियों को प्रशिक्षित करने का लक्ष्य है. इसके लिए बजट आवंटन 192.45 करोड़ रुपए (संशोधित आवंटन) का है. लेकिन वही सरकार यह बताती है कि दिसम्बर 2015 तक 20,980 प्रशिक्षुओं के प्रशिक्षण के लिए 34.34 करोड़ रुपए मंजूर किए गए हैं.

सरकारी आंकड़ें बताते हैं कि 2014-15 के दौरान 20,720 प्रशिक्षुओं के प्रशिक्षित किया गया. साथ ही अब तक पीआईए द्वारा 11919 प्रशिक्षित लोगों को विभिन्न क्षेत्रों में नौकरियां दिलवाईं हैं. यही नहीं, मंत्रालय ने अपने अंतर्गत काम करने वाले राष्ट्रीय अल्पसंख्यक विकास एवं आर्थिक निगम (एनएमडीएफसी) और मारुति सुजूकी इंडिया लिमिटेड के बीच एक समझौते पर हस्ताक्षर कराकर अल्पसंख्यकों के लिए ड्राइविंग प्रशिक्षण की व्यवस्था की, जिसके तहत दिल्ली, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक एवं उत्तर प्रदेश में 2,515 अल्पसंख्यक युवाओं को ड्राइविंग का प्रशिक्षण दिया गया.

लेकिन प्रशिक्षण हासिल करने वाले अब्दुल तालिब का कहना है कि इस प्रशिक्षण के नाम पर सिर्फ ठगने का काम किया जा रहा है. प्रशिक्षण के पहले दिन सिर्फ़ फोटो खिंचाकर प्रशिक्षण देने वाले गायब नज़र आएं. बीच-बीच में जैसे-तैसे खानापूर्ति करके आख़िर में सर्टिफिकेट थमा दिया गया. यानी इसका कोई लाभ मुझे नहीं मिला.

वैसे ही लखनऊ के शमशेर अली का कहना है कि मुझे ड्राईविंग पहले से आती थी. फिर भी मैंने प्रशिक्षण हासिल किया लेकिन आज तक सरकार की ओर से कहीं कोई नौकरी नहीं दिलाई गई.

तबरेज़ व अदनान की भी शिकायत है कि एक तो इस स्कीम के प्रशिक्षण कार्यक्रम में अल्पसंख्यक युवाओं से अधिक बहुसंख्यक समुदाय के युवा होते हैं और थोड़ा-बहुत जो प्लेसमेंट होता है, उसमें भी बहुसंख्यक तबक़े के युवाओं को ही तरजीह दी जाती है.

झारखंड के रांची से संबंध रखने वाले सामाजिक कार्यकर्ता हबीब अख्तर बताते हैं कि इस स्कीम का कोई फायदा झारखंड के मुस्लिम युवक या युवतियों को आज तक नहीं मिल पाया है. तीन साल गुज़र जाने के बाद भी झारखंड के अल्पसंख्यक बेरोज़गार युवकों को रोज़गार से जोड़ने की कोई क़वायद शुरू नहीं हो पाई है.

यानी इन युवकों की बात अगर सच माने तो केन्द्र सरकार की ‘सीखो और कमाओ’ नामक इस स्कीम पर पानी फिरता नज़र आ रहा है. स्कीम का मक़सद अल्पसंख्यक बेरोज़गार युवकों को प्रशिक्षण देकर अपने पैरों पर खड़ा करना था, मगर हक़ीक़त में न तो किसी एक्सपर्ट ट्रेनिंग का इंतेज़ाम है और न ही अवसरों की कोई सौगात. बड़ी उम्मीदों के साथ अल्पसंख्यक युवा इस स्कीम से आस लगाए बैठे थे, मगर समय बीतने के साथ उनकी आशाओं पर वज्रपात हो चुका है.

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पढ़िए गौहर रज़ा की वह ग़ज़ल, जिसके लिए जी न्यूज़ ने उन्हें देशद्रोही साबित कर दिया

TwoCircles.net Staff Reporter

नई दिल्ली:शायर गौहर रज़ा भी मुल्क में फ़ैली देशद्रोह की फिज़ा से अछूते नहीं रहे. हालांकि यह फिज़ा मुल्क में जितनी नहीं है, उतनी इंडिया न्यूज़, जी न्यूज़ और टाइम्स नाउ के प्राइम टाइम पर है. दिल्ली में आयोजित होने वाले शायरी के सालाना जलसे शंकर-शाद मुशायरे पर इस बार जी न्यूज़ की 'मेहरबानी'इनायत हुई है.

जी न्यूज़ ने पहले तो इस मुशायरे को 'अफज़ल प्रेमी गैंग'का मुशायरा करार दिया और फिर शायर गौहर रज़ा की ग़ज़ल के चंद शेर उठाकर उन्हें राष्ट्रविरोधी और देशद्रोही साबित कर दिया.

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पढ़िए गौहर रज़ा की वह ग़ज़ल, जिसके लिए जी न्यूज़  ने उन्हें देशद्रोही साबित कर दिया

Gauhar Raza

वैज्ञानिक और शायर गौहर रज़ा के खिलाफ की गयी इस कार्रवाई से दो बातें तो साफ़ हो जाती हैं. एक, जी न्यूज़ के पास सम्पादकीय विवेक कम से कमतर होता जा रहा है और दो, कविता और भाषा को समझने की गुंज़ाइश इस चैनल के पास से नदारद है.

और अब पढ़िए गौहर रज़ा की देशद्रोही गज़ल -

धर्म में लिपटी वतनपरस्ती क्या-क्या स्वांग रचाएगी
मसली कलियाँ, झुलसा गुलशन, ज़र्द ख़िज़ाँ दिखलाएगी

यूरोप जिस वहशत से अब भी सहमा-सहमा रहता है
खतरा है वह वहशत मेरे मुल्क में आग लगायेगी

जर्मन गैसकदों से अबतक खून की बदबू आती है
अंधी वतनपरस्ती हमको उस रस्ते ले जायेगी

अंधे कुएं में झूठ की नाव तेज़ चली थी मान लिया
लेकिन बाहर रौशन दुनियां तुम से सच बुलवायेगी

नफ़रत में जो पले बढ़े हैं, नफ़रत में जो खेले हैं
नफ़रत देखो आगे-आगे उनसे क्या करवायेगी

फनकारो से पूछ रहे हो क्यों लौटाए हैं सम्मान
पूछो, कितने चुप बैठे हैं, शर्म उन्हें कब आयेगी

यह मत खाओ, वह मत पहनो, इश्क़ तो बिलकुल करना मत
देशद्रोह की छाप तुम्हारे ऊपर भी लग जायेगी

यह मत भूलो अगली नस्लें रौशन शोला होती हैं
आग कुरेदोगे, चिंगारी दामन तक तो आएगी

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