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संगीत सोम, साक्षी महाराज के बाद अब ओवैसी को ‘आईएस’ की धमकी

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TwoCircles.net News Desk

ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (मजलिस) के नेता व सांसद असदुद्दीन ओवैसी को कथित तौर पर ट्वीटर के ज़रिए आईएस ने धमकी दी है.

ओवैसी के ट्विटर वॉल पर कथित तौर पर लिखा गया कि -‘यदि आप सच्चाई नहीं जानते हैं, तो आपके लिए यह बेहतर होगा कि आप आईएस पर अपना मुंह बंद ही रखें. संगठन जल्द ही भारत पर आक्रमण करेगा. हालांकि, ट्वीट को हटा दिया गया है.’

Asaduddin Owaisi

इस पर प्रतिक्रिया देते हुए ओवैसी ने पत्रकारों से कहा, यदि कोई हमें ट्विटर पर कहता है कि हम भारत पर आक्रमण करेंगे. तो हम इसका जवाब देंगे. भारत हमारी मातृभूमि है.

उन्होंने कहा कि आईएस का इस्लाम से कोई लेना देना नहीं है, क्योंकि यह मुसलमानों सहित अन्य के खिलाफ़ हिंसा में शामिल है.

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कथित धमकियों को हास्यास्पद क़रार देते हुए ओवैसी ने कहा, हम नहीं जानते कि यह व्यक्ति दुनिया के किस कोने में बैठा हुआ है. लेकिन एमआईएम उनके खिलाफ़ है, जो भारत के खिलाफ़ हैं. उनकी पार्टी पिछले तीन साल से आईएस के खिलाफ़ बोल रही है. उन्होंने कहा, देश में कई विद्वानों ने आतंकी संगठन के खिलाफ़ बोला है. इसके कार्यों की निंदा की है. उन्होंने कहा कि वह ऐसी धमकियों से नहीं डरते.

Owaisi Tweet

ओवैसी ने कहा, यह एक ऐसी विचारधारा है, जिसे ख़त्म करने की ज़रूरत है. यह विचारधारा शत्रुता पर आधारित है. दुनिया भर के मुसलमान उसके खिलाफ़ हैं. देश के कई बड़े विद्वान उसके खिलाफ़ फ़तवा जारी कर चुके हैं.

इसके पूर्व उत्तर प्रदेश में भाजपा विधायक संगीत सोम और सांसद साक्षी महाराज ने भी दावा किया था कि उन्हें आईएस से धमकी मिली थी.


‘बिहारी’ जो ऑक्सफोर्ड को किशनगंज ले आए...

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By Afroz Alam Sahil, TwoCircles.net,

उन्हें ज़िन्दगी में मौक़े मिले, जो उन्हें लंदन तक ले गए. लेकिन लंदन उन्हें बांध नहीं सका और अब वो उन्हीं मौक़ों को अपने साथ लेकर किशनगंज लौट आए हैं, ताकि यहां की नई नस्ल इन मौक़ों का फ़ायदा उठा सके.

यह मौक़ा क्या है? अगर तफ़हीमुर रहमान के शब्दों में कहें तो ‘बेहतर बुनियादी शिक्षा’, जो बच्चों को मशीन के बजाए एक बेहतर इंसान बनाए...


Tafheem

30 साल के तफ़हीम बिहार के किशनगंज में पले-बढ़ें. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से 12वीं तक पढ़ाई की. फिर दिल्ली आ गए. दिल्ली में जामिया मिल्लिया इस्लामिया से इतिहास विषय में बैचलर की डिग्री हासिल की. तफ़हीम की ख्वाहिश मास कम्यूनिकेशन करने की थी. उन्होंने जामिया में इंट्रेस टेस्ट भी पास कर लिया था, लेकिन तफ़हीम के मुताबिक़ कैम्पस की पॉलिटिक्स में एक्टिव रहने के जुर्म में जामिया ने उनके साथ ज़्यादती की. उन्हें जामिया छोड़ना पड़ा.


Oxford School

जामिया से निकलने के बाद तफ़हीम लंदन गए और वहां के Buckinghamshire University से एमबीए की डिग्री हासिल की. पढ़ाई ख़त्म होने के बाद लंदन में ही रहकर ब्रिटिश गैस कम्पनी में 2 लाख से अधिक की तन्ख्वाह पर नौकरी की.

तफ़हीम बताते हैं कि –‘लंदन में भी हम अलीगढ़ वाले आपस में मिलते थे. अक्सर हम यह बात करते थे कि हम इतना पढ़-लिख कर अपने देश, समाज और शहर के लिए क्या कर रहे हैं.’

बस यही सोच मुझे मेरे देश बल्कि मेरे सरज़मीन पर खींच लाई. दिल्ली में अपने कई क़रीबी दोस्तों से बातचीत की. हमारे दोस्त नजमुल होदा, जो उस समय जामिया से एम.फिल करके रिसर्च स्कॉलर थे, से खास बातचीत हुई. हमने उन्हें बताया –‘लेक्चरर-प्रोफेसर कोई भी बन सकता है, लेकिन बच्चों का टीचर बनना मुश्किल है.’

फिर वो भी किशनगंज आने को तैयार हो गए. एक और दोस्त मोहतसिम रज़ा, जो दिल्ली यूनिवर्सिटी के हिन्दू कॉलेज से पढ़कर मेडिकल-इंजीनियरिंग की तैयारी कराने वाले एक बड़े कोचिंग में पढ़ाते थे, किशनगंज लौट आने को तैयार हो गए.

अब हम तीनों दोस्त वहां के कई दोस्तों के साथ मिलकर ‘दिशा फाउन्डेशन’ नामक एक ट्रस्ट बनाया. इसी फाउन्डेशन के तहत मोहतसिम ने एक कोचिंग सेन्टर की स्थापना की. लोगों में बेदारी के लिए कई कार्यक्रम किए. कई सेमिनार-सिम्पोज़ियम आयोजित किए. कई ड्रामें किए.


Mohtasim, Nazmul Huda, Tafhim and his team

एक नाटक इस बात को लेकर किया कि गांव के सरकारी स्कूलों में जाने वाले बच्चों के मां-बाप को उनके पढ़ाई से अधिक स्कूल से मिलने वाले पैसे, पोशाक व खिचड़ी पर ध्यान होता है. इसके नाम पर वो टीचरों से भी लड़ जाते हैं. लेकिन क्या कभी यह सोचा कि बच्चों को क्या पढ़ाया जा रहा है. हमने अपने नाटक के ज़रिए उन्हें संदेश दिया कि कभी बच्चों के पढ़ाई को लेकर भी टीचर से झगड़ा कीजिए.

फिर हमने सोचा कि किशनगंज में एएमयू का सेन्टर तो खुल गया. लेकिन किशनगंज के कितने बच्चे यहां दाखिला ले पाएंगे. शायद यह संख्या ज़ीरो हो.

उधर मोहतसिम रज़ा ने भी महसूस किया कि यहां सिर्फ़ पैसा कमाया जा सकता है, बच्चों को कुछ दिया नहीं जा सकता. यही बच्चे जैसे-तैसे पास होकर प्राईवेट ‘दुकानों’ से इंजीनियरिंग करेंगे और फिर परिवार व देश को नुक़सान पहुंचाएंगे. बस यहीं हमने तीनों ने सोचा कि सबसे पहले ये सारा काम छोड़कर हमें बच्चों के प्राईमरी शिक्षा पर ध्यान देना चाहिए. बस फिर क्या था. हमने 2015 के शुरू में ही ‘ऑक्सफोर्ड इंटरनेशनल स्कूल’ की बुनियाद रख दी.

‘ऑक्सफोर्ड इंटरनेशनल स्कूल’ अभी सिर्फ़ पांचवी क्लास तक है, जिसमें 120 बच्चे अंग्रेज़ी मीडियम में शिक्षा हासिल कर रहे हैं. स्कूल का अपना एक हॉस्टल भी है, जिसमें तकरीबन 80 बच्चे हैं. इस स्कूल में एससी/एसटी बच्चों के फीस में 25 फीसदी की छूट है. वहीं यतीम बच्चों की फीस पूरी तरह से माफ है.

मोहतसिम बताते हैं कि –‘हमारा ध्यान अधिक इस बात पर है कि हमारे शहर के गरीब व यतीम बच्चे हर हाल में पढ़े. स्कूल शायद सबको मुफ़्त शिक्षा नहीं दे सकता. इसके लिए हम लोगों ने ‘फ्रेंड्स ऑफ स्कूल’ नामक एक ग्रुप बनाया है, जिसके सदस्य अलग-अलग बच्चों के पूरे साल की फीस अदा करते हैं.’

जामिया में गोल्ड मेडलिस्ट रहे नजमुल होदा बताते हैं कि –‘हमलोग मुस्लिम समाज को सामने रखकर सोचते ज़रूर हैं, लेकिन हमारा विज़न यहीं तक महदूद नहीं है. क्योंकि हमलोग एक ग्लोबल सोसाइटी में रह रहे हैं. हमारा मज़हब भी सबको साथ लेकर चलने की बात करता है. सच पूछे तो बाबरी मस्जिद विध्वंस के समय या बाद में जो नस्ल पैदा हुई है, वो रोने-गाने से आगे बढ़कर कुछ देखना चाहती है.’

होदा बताते हैं कि –‘हम अपने बच्चों को अच्छा इंसान बनाना चाहते हैं. क्योंकि अगर वो अच्छा इंसान बन गए तो वो फिर आगे अच्छा डॉक्टर या अच्छा इंजीनियर भी ज़रूर बनेंगे.’

वो बताते हैं कि –‘हमारी वर्तमान शिक्षा बच्चों को मशीन बनाना चाहती है, लेकिन हम चाहते हैं कि हमारे बच्चों में खुद भी सोच सकने की सलाहियत हो.’

तफ़हीम का कहना है कि –‘हम सबको मानना पड़ेगा कि इस देश का मुसलमान शैक्षिक, आर्थिक, सामाजिक के साथ-साथ सांस्कृतिक व नैतिक आधार पर भी काफी पिछड़ा हुआ है. हमें समस्या को पहले पहचानना होगा. फिर उस समस्या के समाधान के लिए खुद ही आगे आना होगा. कोई दूसरा आकर हमारे समस्याओं का समाधान नहीं करेगा.’

वहीं मोहतसिम कहते हैं कि –‘हमारे युवा Excellence (श्रेष्ठता) के लिए काम शुरू करें. श्रेष्ठा में कमी की वजह से हम अधिकतर सरकारी नौकरियों से बाहर हैं. इसलिए ज़रूरी है कि सबसे पहले हम अपने बुनियादी तालीम पर ध्यान दें.’

हमारी युवा पीढ़ी खासकर मुसलमान नौजवानों को आप क्या संदेश देना चाहेंगे?

तो इस सवाल के जवाब में तफ़हीम बोलते हैं –‘जब तक आप दूसरों की आदर नहीं करोगे, तो दूसरा भी आपका आदर नहीं करेगा. इसलिए हमें समाज में हर धर्म व विचारधारा के लोगों के साथ मिलकर चलना होगा. अगर हमारे आस-पास किसी भी पर ज़ुल्म हो रहा है तो हमें भी बोलना होगा. खासतौर पर हमें हमने आस-पास के गरीबों, दलितों व पिछड़ों के मदद के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए.’

वहीं नज़मुल होदा कहते हैं कि –‘कम्पलेन करना अब बंद कीजिए. आप जहां भी हों, उसे ईमानदारी से कीजिए. यही सबसे बड़ी देश-सेवा है.’

आगे वो बोलते हैं कि –‘ हमें यह संकीर्ण मानसिकता नहीं रखना चाहिए कि हमारा सब कुछ बहुत अच्छा और दूसरों का सब कुछ बहुत बुरा है. खैर, देश के साम्प्रदायिक ताक़तों के खिलाफ़ हमें खुलकर सामने आने की ज़रूरत है. ये साम्प्रदायिकता हमारे लोगों में हो सकता है.’

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मौक़ापरस्ती, पैसे और रसूख का खेल बना मुशावरत का चुनाव!

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अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

‘ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस-ए-मुशावरत’ के चुनाव में इस बार काफी हलचल रही. इस बार का चुनाव पिछले चुनाव से काफी अलग था. इसमें धन, बाहुबल से लेकर रसूख और जोड़-तोड़ का जमकर इस्तेमाल किया गया. नौकरशाहों की मदद ली गई. सत्ता की हनक और राजनीति के हर हथकंडे का जमकर प्रयोग किया गया.

दूसरी ओर एक अहम बात यह भी हुई कि इस तंज़ीम के नुमाइंदे इस तरह की हरकतों की सच्चाई को खुलेआम स्वीकार कर रहे हैं. उनके मुताबिक़ तंज़ीम के नाम पर यह सियासी खेल खुलकर खेला गया है और वे अब इसे दुरूस्त करने की पूरज़ोर कोशिश करेंगे.

All India Muslim Majlis-e-Mushawarat

दरअसल, पिछले दिनों ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस-ए-मुशावरत के सदर व मजलिस आमला के सदस्यों के चयन के लिए चुनाव हुआ था. इस चर्चित चुनाव अध्यक्ष पद के लिए मुसलमानों के तीन अहम नाम मैदान में थे. तीन लोगों के बीच कड़ी टक्कर में बाजी नवेद हामिद के हाथ लगी. वो पांच वोटों से यह चुनाव जीत गए.

इस चुनाव में साउथ एशियन कौंसिल फॉर माईनरिटीज़ के सचिव नवेद हामिद, रिटायर्ड आईपीएस मंज़ूर अहमद और पूर्व राज्यसभा सांसद मो. अदीब के बीच मुक़ाबला था.

ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस-ए-मशावरत के कुल 158 सदस्यों में से 147 यानी 93 फीसदी सदस्यों ने अपने वोट का इस्तेमाल किया. 3 वोट अवैध पाया गया. इन 144 वोटों में से 52 वोट नवेद हामिद को मिले. दूसरे नंबर पर रहे डॉ. मंज़ूर अहमद को 47 वोट तो तीसरे नंबर पर रहे मो. अदीब को 45 सदस्यों का वोट हासिल हुआ.

इस नतीजे के बाद पुराने परम्परा के मुताबिक़ आज इस तंज़ीम के नए अध्यक्ष नवेद हामिद को कार्यभार सौंपा गया. उन्होंने इस मौक़े पर स्पष्ट किया कि सभी को साथ लेकर चलना और मशावरत को अधिक सक्रिय बनाना मेरी प्राथमिकताओं में शामिल है. इस अवसर पर उन्होंने मुजतबा फारुख को तंज़ीम का महासचिव बनाए जाने की घोषणा भी की.

All India Muslim Majlis-e-Mushawarat

स्पष्ट रहे कि नवेद हामिद 2012 में भी अध्यक्ष पद के लिए चुनाव लड़ चुके हैं. लेकिन उस समय सिर्फ़ 2 वोटों से डॉ. ज़फ़रूल इस्लाम खान से वो चुनाव हार गए थे. अब जब वो चुनाव जीत गए हैं तो स्वाभाविक है कि दोनों के दिल में पुराना टीस ज़रूर उबाल मारेगा, जिसकी झलक आज मंच पर खुलेआम सबने देखा. आरोप-प्रत्यारोप का खेल जमकर चला. लोगों के दखल के बाद कहीं जाकर मामला शांत हुआ.

इस अवसर पर TwoCircles.net से बात करते हुए मुशावरत के वर्तमान अध्यक्ष नवेद हामिद ने कुछ बेहद उम्मीद भरे संकेत भी दिए. उनके मुताबिक़ तंज़ीम का चेहरा बदलने के क़वायद की सख्त ज़रूरत है. इसमें महिलाओं और युवाओं के साथ-साथ हर मुसलमानों के हर फिरक़े के लोगों को मुकम्मल जगह मुहय्या कराई जाएगी. साथ ही इस बात की भी क़वायद होगी कि तंज़ीम के कामकाज में साफ़गोई और ईमानदारी की पूरी गुंजाईश क़ायम रहे.

उन्होंने TwoCircles.net के साथ बात करते हुए बताया कि –‘एक बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी मुझे सौंपा गया है, जिसे मैं पूरी ईमानदारी के साथ निभाने की कोशिश करूंगा. जिस मक़सद के तहत आज से 51 साल पहले इस संगठन को बनाया गया था, उस मक़सद को अब ज़मीन पर उतारने की पूरी कोशिश करूंगा.’

दरअसल, 1964 में क़ायम ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस-ए-मुशावरत का क़द मुस्लिमों तंज़ीमों खासा बड़ा है. यह मुसलमानों के सात बड़े संगठनों की नुमाइंदगी करती है.

पिछले साल अगस्त महीने में हुए इस तंज़ीम के स्वर्ण जयंती समारोह में कभी उप-राष्ट्रपति हामिद अंसारी ने कहा था –‘सामाजिक शांति के लिए राजनीतिक दूरदर्शिता ज़रूरी है.’ लेकिन जिस तरह मशावरत का यह चुनाव मौक़ापरस्ती, पैसे और रसूख का खेल बना, उसे किसी भी हाल में सही नहीं ठहराया जा सकता. ऐसे में अगर ऐसी संस्था के भीतर इस तरह के तत्व अपनी जगह बनाने में कामयाब होते हैं तो यह मुस्लिम क़ौम के लिए बेहद चिंता का सबब है. चिंता इसलिए और भी बढ़ जाती है, क्योंकि मुसलमानों के नाम पर होने वाली राजनीति का सीधा सरोकार क़ौम के रहनुमाओं से ही होता जा रहा है.

All India Muslim Majlis-e-Mushawarat

तलाक –एक आम औरत की बिसात ही क्या...?

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Fahmina Hussain, TwoCircles.net

31 साल की यास्मीन से निकाह के समय तो तीन बार ‘क़बूल है’ ज़रूर पूछा गया था, लेकिन जब शौहर ने उसे तीन बार ‘तलाक़’ बोला तो उसमें उसकी मर्ज़ी नहीं शामिल थी, फिर भी मुफ़्ती साहब ने इस तलाक पर अपनी मुहर लगा दी.

बिहार के डेहरी ओन सोन में रहने वाली यास्मीन के तलाक़ को अब 10 साल हो गए हैं. यास्मीन बताती हैं, –‘मेरे शौहर पेंट का काम करते थे. छिटपूट लड़ाई तो हर घर में होती है, लेकिन एक दिन नशे में तीन बार तलाक़ बोला, हालांकि उस समय वो नशे में थे. लेकिन इसके बावजूद उसे तलाक मान लिया गया.’

‘उसके बाद से मैं अलग रहती हूं. अपने भाईयों के घर रहकर अमीर लोगों के घर जाकर झाड़ू-बर्तन का काम करती हूं…’ इतना बोलते ही उसकी आंखें नम हो जाती हैं. आंखों से आंसू छलक पड़ते हैं.

Muslim Women

यह कहानी सिर्फ यास्मीन की ही नहीं है. न जाने इस देश में ऐसी कितनी यास्मीन हैं. जिसे शादी के कुछ ही दिनों बाद तलाक जैसी सज़ा से गुज़ारना पड़ता है. न जाने कितनी ही ऐसी मिसालें हैं, जिसमें आज भी औरतें अपनी इस बदनुमा दाग़ के साथ अपनी ज़िन्दगी गुज़ार रही हैं.

तलाक... तलाक... तलाक... न जाने इस मुद्दे पर कितने ही पन्ने काले किए जा चुके हैं. न जाने कितनी बार बहस हो चुकी है. न जाने कितने बार शरीअत में बदलाव भी हो चुका है. लेकिन हर बार हम कई ऐसे पहलूओं को दरकिनार कर देते हैं, जो इन सबमें सबसे ज़रूरी होता है. उनमें से एक पहलू है –कभी हमने तलाक के बाद उस औरत के जिन्दगी में आए बदलाव पर ग़ौर व फ़िक्र नहीं किया.

गुलनाज़ बानो, जो कि पेशे से आंगनवाड़ी कार्यकर्त्ता हैं. उनकी तलाक को 4 साल हो चुके हैं. तलाक की वजह पूछने पर वो बताती हैं कि –‘सास और उनके बीच होने वाले झगड़े में उनके शौहर में गुस्से में तलाक कह दिया, उसी वक़्त उनके ससुर मौलवी साहब को ले आये और फिर हम अलग र दिए गयें.’

गुलनाज़ आगे बताती हैं कि –‘मेरी एक बेटी है. थोड़ी बड़ी हो चुकी है. स्कूल से लेकर हर जगह एक ‘सोशल-सिक्यूरिटी’ की ज़रूरत पड़ती है. हालांकि इस्लाम दूसरी शादी का अधिकार देता है, लेकिन क्या ज़रूरी है कि जिससे शादी करूं वो मेरी बेटी को अपना ले और आए दिन सौतेले पिता से रेप की ख़बरे पढ़कर दिल डर जाता है.’

ऐसी ही कहानी 21 साल के रुख्साना की भी है. शादी को 4 महीने होते ही तलाक हो गया. वजह पूछने पर बताती हैं कि –‘पहले दिन से ही शौहर को मैं पसंद नहीं थी. उन्हें गोरी बीवी चाहिए थी, लेकिन मेरा रंग थोड़ा कम है.’

फिर वो बताती हैं कि –‘लेकिन शौहर ने मेरा खूब इस्तेमाल किया. चार महीने के बाद पहली विदाई में घर आई. उसके बाद ससुराल से मुझे कोई लेने नहीं आया. मेरे घर वालों की तरफ़ से पूछने पर वहां से तलाक का पेपर आ गया. मेरे अब्बा ने केस फाइल किया है. मामला कोर्ट में चल रहा है. शायद मुझे वापस वो लोग दबाव में आकर रख भी लें या छोड़ दें, पर मेरी ज़िन्दगी पर तो सवाल लग रहे हैं?’ आगे वो यह बोलते हुए रो पड़ती है कि –‘आख़िर इन सब में मेरी क्या ग़लती है...?’

सासाराम की नशीमन खातुन, जो पेशे से टीचर हैं. उनका कहना है कि –‘समाज तलाकशुदा औरतों को बहुत गन्दी निगाह से देखता है. अगर क़ानूनी दांव-पेंच के बाद तलाक मिल भी जाए तो ज़िंदगी भर के ताने से गुज़रना पड़ता है कि लड़की ही की ग़लती होगी.’

रोहतास के अकोढ़ीगोला गांव की रहने वाली 30 साल की रिंकी यादव के पति ने भी उन्हें तलाक दे दिया है. इस तलाक़ में रिंकी की मर्ज़ी शामिल नहीं थी.

वो बताती हैं, –‘मेरे पति शराब पीकर मार-पीट करते थें, पर मैं बर्दाश्त करती रही. पर जब वो किसी और महिला से शादी करना चाहते थे, तब मुझे न चाहकर भी उन्हें तलाक़ देना पड़ा. अभी प्रक्रिया चल रही है, सासाराम कोर्ट में लगभग छह महीने हो गए हैं.’

आगे अपनी बातों में बताती हैं कि अब वो नौकरी की तलाश कर रही हैं, क्योंकि घर वाले बोझ बनने का ताना देते रहते हैं.
हालांकि एक सच यह भी है कि ग्रामीण क्षेत्रों में जागरूकता न होने की वजह से महिलाएं कानूनन तलाक़ नहीं ले पाती हैं और आपसी सहमति से वो अलग हो जाती हैं. ऐसे में इन महिलाओं को उनका पूरा हक़ नहीं मिल पाता.

सच तो यह है कि हिन्दू हो या मुस्लिम दोनों ही समुदाय में तलाक को लेकर आज भी हमारे मुल्क में औरतों की राय को ज्यादा तवज्जो नहीं दी जाती. हालांकि पाकिस्तान और बांग्लादेश सहित कई इस्लामी देशों में ट्रिपल तलाक प्रतिबंधित है, लेकिन भारत में अभी भी हालात अलग हैं. मुस्लिम पर्सनल लॉ अभी भी ट्रिपल तलाक की अनुमति देता है.

डेहरी ओन सोन के ईदगाह मस्जिद और मदरसे के आलिम मोहम्मद अलाऊ हाफ़िज़ (50) से तलाक के बारे में पूछने पर बताते हैं -‘अगर शौहर ने अपनी बीबी को तीन बार तलाक़ बोल दिया तो इस दुनिया का कोई क़ानून उसे नहीं बदल सकता. इस्लाम में तलाक़ देने का हक़ केवल मर्दों को है, औरतों को नहीं. इसलिए तो शौहर को मज़िज़े-खुदा का दर्ज़ा दिया गया है, अगर औरतें अपने पति से परेशान है तो वो काज़ी के पास इसकी शिकायत ज़रूर कर सकती हैं.’

वो आगे बताते हैं, –‘अगर शौहर तलाक़ देता है तो उसे बीवी के तीन महीने 13 दिन का खर्च और अगर बच्चा है तो उसका खर्च देना होता है. इसके साथ ही शौहर को मेहर, लड़की को मिलने वाला दहेज वापस करना होगा. अगर बीवी गर्भवती है तो जब तक बच्चा नहीं हो जाता पूरी देखभाल पति की जिम्मेदारी होगी.’

यदि आंकड़ों की बात करें कि एनसीआरबी के 2014 की रिपोर्ट बताती है –भारत में 20,417 महिला आत्महत्या के मामले थें, जिसमें 18 प्रतिशत लोगों ने तलाक़ के कारण आत्महत्या की.

विशेषज्ञों के अनुसार, तलाक़ की वजह से महिलाओं में तनाव की समस्या पैदा होती है और इसका असर लंबे समय तक रहता है.

इस तरह से देखा जाए तो महिलाएं चाहे कितनी भी आगे आ जाएं, निशाना उन्हीं को बनाया जाता है... यानी बात वहीं आकर रुकती है –एक आम औरत की बिसात ही क्या...???

‘बीएचयू को अंधविश्वासी और मूर्खों की फैक्ट्री बनाना चाहते हैं वीसी’

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TwoCircles.net News Desk

लखनऊ :उत्तरप्रदेश की सामाजिक संस्था रिहाई मंच ने मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित सामाजिक कार्यकर्ता और बीएचयू के गेस्ट फैकेल्टी संदीप पांडे को बीच सत्र में बीएचयू प्रशासन द्वारा हटा दिए जाने को प्रगतिशील मूल्यों के प्रति संघ परिवार पोषित असहिष्णुता का ताज़ा उदाहरण बताया है.

मंच ने इस पूरे प्रकरण पर बीएचयू प्रशासन पर संघ और भाजपा के स्वयंसेवक के बतौर काम करने का आरोप लगाते हुए इसे मोदी सरकार में एकेडमिक पतन की नजीर बताया है.

रिहाई मंच द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति में मंच के अध्यक्ष मोहम्मद शुऐब ने कहा है कि –‘संदीप पांडे जैसे प्रतिष्ठित गांधीवादी और तर्कवादी फैकेल्टी को हटाकर बीएचयू प्रशासन ने साफ़ कर दिया है कि वो किसी भी कीमत पर तार्किक और प्रगतिशील विचारों को पनपने नहीं देना चाहता. उसका मक़सद बीएचयू जैसी संस्थान से सिर्फ अंधविश्वासी, लम्पट, साम्प्रदायिक और मूर्ख खाकी निक्करधारी छात्रों की खेप पैदा करना है, जो संघ परिवार के देशविरोधी कार्यकलापों में आसानी से लग जाएं.’

रिहाई मंच नेता राजीव यादव ने कहा है कि संदीप पांडे को हटाने का निर्णय राजनीतिक है, जिसके तहत उन्हें नक्सली और राष्ट्र विरोधी गतिविधियों में लिप्त बताया गया है.

उन्होंने इसे अकादमिक स्वतंत्रता पर हमला बताते हुए विश्वविद्यालय के कुलाधिपति राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से हस्तक्षेप कर उनको पुनः बहाल कराने की मांग की है.

राजीव यादव ने कहा कि जब से मोदी सरकार सत्ता में आई है, संघ के समाज विरोधी विचारधारा के विरोधियों को शैक्षणिक संस्थानों से हटाकर उनकी जगह संघ और भाजपा कार्यकताओं को बैठाया जा रहा है.

उन्होंने कहा कि इसी रणनीति के तहत इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ मास कम्यूनिकेशन का डायरेक्टर के.वी. सुरेश को बना दिया गया है. जिनकी योग्यता महज़ इतनी है कि वे विवेकानंद फाउंडेशन के सदस्य हैं. जिसके सदस्यों में गुजरात के मुस्लिम विरोधी जनसंहार को आयोजित करने के आरोपी प्रशासनिक अधिकारी से लेकर नृपेंद्र मिश्रा जैसे घोषित सीआईए एजेंट जैसे लोग हैं.
राजीव यादव ने कहा कि विवेकानंद फाउंडेशन से जुड़े रहे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल के बेटे शौर्य डोभाल के निजी संगठन इंडिया फाउंडेशन भी देश की बौद्धिक पूंजी को भोथरा करने का अभियान चलाए हुए हैं.

उन्होंने कहा कि यह अपने आप में जांच का विषय है कि मोदी के अमरीका दौरे के दौरान मेडिसन स्कवायर पर भी शौर्य डोभाल की कम्पनी ही इवेंट मैनेज करते हैं और वही पिछले दो साल से देश की सुरक्षा पर डीजीपी स्तर के अधिकारियों के सम्मेलन को भी आयोजित करती है.

उन्होंने कहा कि संघ और विदेशी कारपोरेट पूंजी की बड़ी बड़ी लॉबियां भारतीय मेधा और बौद्धिक शक्ति को अपने अनुरूप ढालने का अभियान चला रही हैं और इसमें रोड़ा लगने वाले लोगों को जबरन हटा रही हैं.

वहीं इंसाफ़ अभियान के प्रदेश महासचिव और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र नेता दिनेश चौधरी ने कहा कि बीएचयू जैसे विश्वविद्यालय का यह दुर्भाग्य है कि उसे जी.सी. त्रिपाठी जैसा वाइस चांस्लर मिला है, जो इलाहाबाद विश्वविद्यालय के इकॉनोमिक्स विभाग के औसत से भी कम दर्जे के शिक्षक रहे हैं. जिन्हें उनके छात्र भी गम्भीरता से नहीं लेते थे.

उन्होंने कहा कि जीसी त्रिपाठी सिर्फ संघ के पुराने कार्यकर्ता होने की पात्रता के कारण कुलपति बनाए गए हैं.

बीता साल: साक्षर भारत के सपनों को तोड़ती मोदी सरकार

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शारिक़ अंसर,

मौजूदा केंद्र सरकार ने सत्ता में आने से पहले शिक्षा जैसे ज़रूरी मुद्दे पर कई सारे वादे किए थे. सत्ता में आने के बाद यह सारे वादे उदासीनता के पिटारे में बंद रहे. देश के एक अहम मंत्रालय की मुखिया स्मृति ईरानी खुद अपनी फर्जी डिग्री विवाद के चलते हमेशा सुर्ख़ियों में रहीं. सरकार पर शिक्षा बजट में कटौती, उच्च शिक्षा का बाज़ारीकरण, संस्थानों में दखलंदाजी, शोध छात्रों की स्कालरशिप और एक ही विचारधारा के लोगों के प्रभाव में काम करने और उनके अनुकूल फैसले लेने का आरोप लगते रहे.

दरअसल मोदी सरकार के कार्यकाल में शिक्षा के अहम सवाल या तो गायब हो गए या तो उन पर ध्यान नहीं दिया गया. शिक्षा बजट में ज़बरदस्त कटौती की गई जिससे प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा. नरेंद्र मोदी ने छात्रों के बीच अपने 'मन की बात'तो की लेकिन वे उनके बुनियादी प्रश्नों पर चुप्पी साध गए. कुल मिलाकर अभी तक शिक्षित और साक्षर भारत के स्वप्न को फलीभूत करने के लिए कोई भी ठोस कदम उठते हुए नहीं दिखे.

बिखरता बजट शिक्षा का
सत्र 2014-15 में शिक्षा का कुल बजट 82,771 करोड़ रूपए का था जिसे अगले सत्र 2015-16 में घटाकर 69,707 करोड़ कर दिया गया. यानी एक वित्तीय वर्ष में शिक्षा बजट में 13,064 करोड़ की कटौती कर दी गयी. यानी कुल बजट का क़रीब 16.5 प्रतिशत. करोड़ों छात्रों को देश की बुनियादी शिक्षा उपलब्ध कराने वाले सर्वशिक्षा अभियान में 2375 करोड़ की कटौती की गई. मिड डे मील योजना में भी करीब 4000 करोड़ की कटौती की गई. माध्यमिक शिक्षा में भी 85 करोड़ की कटौती की गई.देश की शिक्षा व्यवस्था की बुनियाद इन्ही प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के कन्धों पर टिकी हुई है लेकिन मोदी सरकार ने इस ढांचे को कमज़ोर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. आज़ादी के 67 साल बाद भी आज 60 लाख से ज़्यादा बच्चे स्कूल से वंचित हैं. हज़ारों की संख्या में शिक्षकों की कमी है. स्कूलों में बुनियादी चीज़ों का अभाव है.

शौचालय,पक्की छत, डेस्क बेंच, लैब और किताबों के बगैर हम गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की उम्मीद नहीं कर सकते. शिक्षा अधिकार अधिनियम - 2009 को लागू हुए 6 साल से अधिक हो चुके हैं लेकिन अब भी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है. सरकारी स्कूलों में करीब 6 लाख शिक्षकों के पद अब भी रिक्त हैं. उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, उड़ीसा, राजस्थान, मध्य प्रदेश आदि राज्यों की स्थिति अब भी दयनीय है लेकिन सरकारों के बदलने के बाद भी कोई बदलाव की उम्मीद करना बेमानी लगता है.

उच्च शिक्षा की गिरावट
मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया, स्टार्टअप इंडिया जैसी लुभावनी योजनाओं के बीच उच्च शिक्षा की हालत पर भी उदासीनता की झलक साफ़ दिखती है. उच्च शिक्षा में सरकार की असहयोगात्मक रवैया और व्यवसायीकरण की नीति का खामियाज़ा छात्रों को उठाना पड़ रहा है. पहले तो उच्च शिक्षा के बजट में 400 करोड़ रूपए की कमी की गई और फिर नॉननेट छात्रों की फेलोशिप को ही ख़त्म कर दिया गया. 20 अक्टूबर 2015 को जब UGC ने नॉननेट फेलोशिप को लेकर फैसला लिया था तो पैसों की कमी का ही रोना रोया गया था. आज तक़रीबन 35 हज़ार छात्र इस निर्णय से प्रभावित है, जिनके लिए आगे पढ़ाई जारी रखना बहुत मुश्किल हो गया है. आज हज़ारों छात्र इस निर्णय के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं. कॉलेज और लाइब्रेरियों में रहने की जगह छात्र अपनी मांगों को लेकर यूजीसी मुख्यालय के सामने सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. पिछले 70 दिनों से लगातार चल रहे #OccupyUGC आंदोलन के बाद शिक्षामंत्री स्मृति ईरानी ने एक कमिटी का गठन किया है लेकिन अब भी नॉननेट फेलोशिप की राशि में कटौती के निर्णय से हज़ारों छात्रों को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है. सरकार के इस उदासीन रवैये से इसका अंदाज़ लग जाता है कि वह उच्च शिक्षा को लेकर कितनी गंभीर है?

उच्च शिक्षा के केन्द्रीयकरण की नीति के तहत 'कॉमन यूनिवर्सिटी बिल'को जिस तेज़ी में सरकार लाने का प्रयास कर रही है, उससे शिक्षा जगत चिंतित है.

‘रंगदार’ शिक्षा नीतियां
नई शिक्षा नीति 2015 को लेकर किए जा रहे प्रयासों के बीच यह सवाल भी उभर रहे हैं कि इस शिक्षा नीति के बहाने मोदी सरकार शिक्षा का भगवाकरण का प्रयास तो नहीं करने वाली है? यह सवाल इसलिए भी उभर रहे हैं क्योंकि इससे पहले भी एनडीए सरकार के समय भी शिक्षा मंत्री रहे मुरली मनोहर जोशी ने शिक्षा के भगवाकरण का प्रयास किये थे लेकिन गठबंधन सरकार और लोगों के विरोध के कारण उनकी नीतियां ज्यादा सफल नहीं हो पायीं. दरअसल मोदी सरकार के अब तक के कार्यकाल का अगर विश्लेषण किया जाये तो इसमें कहीं 'सबका साथ सबका विकास'वाली बात नहीं दिखती बल्कि कारपोरेट घरानों और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नीतियों का अनुसरण ही दिखता है. शिक्षा नीतियों पर भाजपाशासित राज्यों का जो मनमाना रवैया रहा है, उससे नीतियों पर एक संदेहास्पद प्रश्न उठते हैं.

पिछले साल केंद्र सरकार ने शिक्षा नीति का फ्रेमवर्क तैयार करने के लिए बनारस में एक बैठक आयोजित की थी जिसमे संघ के शैक्षणिक विंग विद्या भारती, अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान जैसे संस्थान के 170 से ज़्यादा लोगों ने हिस्सा लिया था जिसमे नई शिक्षा नीति को लेकर विस्तृत चर्चा की गई थी. शिक्षा पर लम्बे समय से काम कर रहे संघ से जुड़े दीनानाथ बत्रा जैसे लोग अब नई शिक्षा नीति को लेकर सरकार पर दबाव बना रहे हैं. हालांकि मानव संसाधन विकास मंत्रालय हर क़दम बहुत फूंक-फूंक कर रख रही है ताकि कोई विवाद न हो सके और सरकार पर कोई उंगली न उठा सके. इसलिए इसको लेकर आम लोगों, संस्थानों, बुद्धिजीवी, स्कूल आदि से बड़े पैमाने में सुझाव मांगे जा रहे हैं. वेबसाइट से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार 31 अक्टूबर तक मंत्रालय को 29,109 सुझाव मिल चुके हैं साथ ही ग्राम स्तर, प्रखंड, जिला स्तर पर भी सैकड़ों बैठको का आयोजन किया जा चुका है.

स्वायत्ता का सवाल और संघ का एजेंडा
कयासों के मुताबिक़ आज मंत्रालय में संघ का हस्तक्षेप काफी बढ़ गया है. मानव संसाधन विकास मंत्रालय में संघ और अनुसांगिक इकाईयों की मैराथन बैठकों पर सब चिंतित हैं. शिक्षक संस्थानों में नियुक्ति से लेकर, पाठ्यक्रम और अन्य मुद्दों पर शिक्षा मंत्रालय केवल रबर स्टाम्प की तरह काम कर रहा है. आज अकादमिक स्वायत्ता और स्वतंत्रता खतरे में दिखाई पड़ रही है. सरकार और संघ मानो पूरक की तरह काम कर रहे हैं.

बीते साल जनवरी में व्यापक रूप से प्रतिष्ठित भौतिक वैज्ञानिक डॉ. संदीप त्रिवेदी को टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ फंडामेंटल रिसर्च का निदेशक नियुक्त किया गया. प्रधानमंत्री कार्यालय से त्यागपत्र का दबाव आने के कारण उन्हें पद छोड़ना पड़ा. आईआईटी दिल्ली के निदेशक रघुनाथ शिव गांवकर ने सरकार की बेवजह दखलंदाजी के कारण त्यागपत्र दे दिया. मार्च में भारत के शीर्षस्थ परमाणु वैज्ञानिक डॉ. अनिल काकोदर को आईआईटी मुंबई की गवर्निंग बॉडी से त्यागपत्र देना पड़ा. फ़रवरी में सरकार ने प्रख्यात लेखक सेतु माधवन को नेशनल बुक ट्रस्ट के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देने को कहा. उनकी जगह 'पाञ्चजन्य'के पूर्व सम्पादक बलदेव शर्मा को लाया गया. भारतीय इतिहास शोध परिषद में निदेशक के रूप में संघ के चहेते सुदर्शन राव की नियुक्ति संभवतः उनके हिन्दुत्ववादी नज़रिये की वजह से किया गया है. फिल्म एंड टेलीविज़न इंस्टिट्यूट में गजेन्द्र चौहान की नियुक्ति उनकी भाजपा से नज़दीकी के कारण की गयी जिसको लेकर छात्रों ने लम्बा विरोध प्रदर्शन किया.

न्यूयॉर्क टाइम्स रिव्यू में छपे एक लेख में अमर्त्य सेन ने वर्तमान मोदी सरकार के शिक्षा और शैक्षणिक संस्थानों के स्वायत्ता को लेकर कई गंभीर सवाल खड़े किये. उन्हें नालंदा अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के कुलाधिपति पद से हटने पर मज़बूर कर दिया गया क्योंकि उन्होंने मोदी की साम्प्रदायिक राजनीतिक नेतृत्व, उनके एजेंडे और गुजरात में उनकी भूमिका आदि पर सवाल खड़े किये थे.

यदि बीता साल खराब बीता तो यह नहीं कह सकते कि मौजूदा साल कुछ कुछ अच्छा होगा. इस साल की शुरुआत भी ऐसी ही गतिविधियों से हुई है. ताज़ा मामला है मैग्सेसे पुरस्कार प्राप्त संदीप पाण्डेय का, जिन्हें सरकार और संस्थानविरोधी गतिविधियों के आरोप में आईआईटी बीएचयू से निष्कासित कर दिया गया है.

ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है कि सत्ताधारी सरकार देश की शिक्षा और शिक्षण संस्थानों में सरकार की अकादमिक मामलों में दखल दे रही है. दखलंदाज़ी के मामले में पिछली कांग्रेस सरकार का रिकॉर्ड भी कोई खास अच्छा नहीं रहा है. मगर मौजूदा सरकार ने तो हस्तक्षेप को अभूतपूर्व ऊंचाइयों और राजनीतिक अतिरेक तक पहुंचा दिया है.

[शारिक़ नई दिल्ली में रहते हैं. पत्रकार हैं. उनसे shariqansar2@gmail.comपर संपर्क किया जा सकता है.]

मोदी सरकार नहीं चाहती कि AMU को मिले अल्पसंख्यक दर्जा

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Afroz Alam Sahil, TwoCircles.net

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) के चाहने वालों के लिए एक बुरी ख़बर है. केन्द्र में सरकार बदलने के साथ ही एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जा को लेकर केन्द्र सरकार का रवैया बदल गया है.

एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जा दिए जाने के मामले में अब केन्द्र सरकार ने कहा है कि वो हाईकोर्ट के उस फैसले को मानती है, जिसमें एएमयू को अल्पसंख्यक दर्जा देने से इंकार किया गया था.

साल 2005 में अलाहाबाद हाई कोर्ट ने एक याचिका पर सुनवाई करते हुए एएमयू को अल्पसंख्यक दर्जा देने से इंकार कर दिया था. तब एएमयू ने देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया था. उस समय केन्द्र की तत्कालीन यूपीए सरकार एएमयू के साथ खड़ी थी. लेकिन अब केन्द्र की मोदी सरकार उस सहयोग से पीछे हट गई है.

सोमवार को सुप्रीम कोर्ट में हुई सुनवाई के दौरान भारत सरकार की ओर से कहा गया कि सरकार की अब इस मामले में कोई दिलचस्पी नहीं है. सरकार हाईकोर्ट के फैसले का सम्मान करती है. यानी इसका स्पष्ट संकेत है कि मोदी सरकार की एएमयू को अल्पसंख्यक दर्जा दिलवाने में कोई दिलचस्पी नहीं है.

Zameeruddin Shah

इस पूरे मामले पर एएमयू के वाईस-चांसलर लेफ्टिनेंट जनरल ज़मीरउद्दीन शाह का कहना है कि –‘यूनिवर्सिटी का अल्पसंख्यक दर्जा यूनिवर्सिटी के लिए ज़िन्दगी और मौत का मामला है. यह भारतीय समाज में सामाजिक व आर्थिक रूप से पिछड़े हुए मुसलमानों के शिक्षा और तरक़्क़ी का सवाल है. सरकार ने भले ही अपना रूख पलट लिया है, लेकिन हम अदालत में अपने मक़सद के लिए मरते दम तक लड़ेंगे.’

स्पष्ट रहे कि 4 अक्टूबर 2005 को एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जा को ग़लत क़रार दिए जाने के बाद एएमयू, केंद्र सरकार और कुछ अन्य लोगों ने एक पुनर्विचार याचिका दायर की थी.

इस पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई करते हुए मुख्य न्यायाधीश ए.एन. रे और न्यायमूर्ति अशोक भूषण के दो सदस्यीय पीठ ने कहा कि जिस तरह मुसलमानों को 50 प्रतिशत आरक्षण दिया जा रहा है वह असंवैधानिक और ग़लत है.

जबकि केंद्र सरकार ने वर्ष 2004 में 25 फ़रवरी को एक अधिसूचना जारी करके एएमयू में मुसलमानों को 50 प्रतिशत आरक्षण देने का फ़ैसला किया था. केंद्र सरकार की इसी अधिसूचना के ख़िलाफ़ एक याचिका दायर की गई थी.

उल्लेखनीय है कि यह मामला पहले भी अदालत में आया था. अज़ीज़ बाशा का यह मामला 1968 में सर्वोच्च न्यायालय तक भी पहुंचा था. तब सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फ़ैसले में कहा था कि विश्वविद्यालय केंद्रीय विधायिका द्वारा स्थापित किया गया है और इसे अल्पसंख्यक विश्वविद्यालय का दर्जा नहीं दिया जा सकता.

लेकिन तब की सरकार ने इस फ़ैसले को प्रभावहीन करते हुए 1981 में संविधान संशोधन विधेयक लाकर एएमयू को मुस्लिम यूनिवर्सिटी का दर्जा दे दिया था.

लेकिन यह मामला यूं ही चलता रहा, लेकिन जब केंद्र सरकार ने 50 फ़ीसदी सीटें मुसलमानों के लिए आरक्षित करने की मांग की तो इसका विरोध शुरु हुआ और इसके ख़िलाफ़ याचिका दायर की गई. उस समय विरोध सबसे आगे बीजेपी व आरएसएस से जुड़ी अन्य संस्थाएं सबसे आगे थी.

इस मामले का दिलचस्प पहलू यह भी है कि केस सुप्रीम कोर्ट में जाने के बाद तत्कालीन यूपीए सरकार ने भी बहुत ज़्यादा दिलचस्पी नहीं लिया, बल्कि वो भी इस मामले को अपनी सियासत के ख़ातिर ज़िन्दा रखना चाहती थी. हालांकि अल्पसंख्यक दर्जा दिए जाने की मांग बराबर उठती रही. 2013 में जब राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने विभिन्न विषयों पर विचार करने के लिए संसद की संयुक्त बैठक बुलाई थी, तब भी यह मुद्दा संसद में भी उठा. उस समय बहुजन समाज पार्टी के सांसद शफीकुर रहमान बर्क ने यह मुद्दा उठाया था.

इस मामले की अब अगली सुनवाई 4 अप्रैल, 2016 को होनी है.

मोदी सरकार के ‘वार’ पर ‘पलटवार’ की तैयारी में AMU

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Afroz Alam Sahil, TwoCircles.net

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) के अल्पसंख्यक दर्जा के मामले में मोदी सरकार के ‘यू-टर्न’ के बाद एएमयू बिरादरी ने अपनी क़मर अब कस ली है. एएमयू के वाईस-चांसलर लेफ्टिनेंट जनरल ज़मीरूद्दीन शाह ने आज एएमयू कोर्ट के सभी सदस्यों, एक्जीक्यूटिव काउंसिल, अकादमिक काउंसिल समेत सभी कमिटियों व शैक्षणिक परिषद के सदस्यों और पदाधिकारियों की एक संयुक्त बैठक बुलाकर इस बारे में मज़बूत रणनीति तैयार करने की क़वायद शुरू कर दी है.

देश की न्यायपालिका में पूरा विश्वास जताते हुए प्रो वाईस-चांसलर ब्रिगेडियर एस. अहमद अली ने इस बैठक में कहा कि –‘एएमयू पहले से ही इस मामले में पर्याप्त तैयारी कर चुकी है. हमें उम्मीद है कि इस मामले की 4 अप्रैल की अगली सुनावई में हम अपने स्टैंड को पूरे आत्मविश्वास के साथ सुप्रीम कोर्ट के समक्ष रखेंगे.’

इस बैठक में उपस्थित सभी सदस्यों ने विश्वविद्यालय प्रशासन के साथ पूरी एकजुटता व्यक्त की और अल्पसंख्यक दर्जा के मामले के संबंध में उचित सुझाव दिए.

दूसरी तरफ़ एएमयू के छात्रों में भी सरकार के इस स्टैंड पर काफी रोष है. इनमें वो छात्र भी शामिल हैं, जो एएमयू के पूर्व छात्र हैं और जो मुल्क के अलग-अलग क्षेत्रों में उच्च पदों पर बैठे हैं.

एएमयू स्टूडेन्ट यूनियन के पूर्व अध्यक्ष व क़ानून के जानकार अब्दुल हफ़ीज़ गांधी कहते हैं कि –‘सरकार बदलने से सरकार का स्टैण्ड नहीं बदलना चाहिए. जब यूपीए ने एएमयू को अल्पसंख्यक संस्था माना है तो एनडीए सरकार को मानने में क्या समस्या है?’

वो आगे बताते हैं कि –‘एनडीए सरकार के इस स्टैण्ड से पता लगता है कि यह सरकार एक ख़ास संस्था व धर्म के कुछ कट्टर लोगों के तुष्टिकरण के काम कर रही है. लेकिन यह मामला धर्म का नहीं है, बल्कि इस देश के पिछड़े हुए अल्पसंख्यक तबक़े के शैक्षिक विकास का है. हम सब भूतपूर्व छात्र एएमयू के साथ हैं.

एएमयू लॉयर फोरम के पूर्व अध्यक्ष और छात्र संघ के पूर्व जनरल सेक्रेटी एडवोकेट असलम खान का कहना है कि –‘सरकार के इस स्टैण्ड के बाद यह लगता है कि उसने यह तय कर लिया है कि मुसलमानों के जो भी हक़ व अधिकार हैं, उसे समाप्त कर देना है.’

वो बताते हैं कि –‘यह पूर्ण रूप से सियासी क़दम है. 2017 चुनाव की तैयारी है. सरकार की दोगली पॉलिसी सामने आ चुकी है. ‘सबका साथ –सबका विकास’ का नारा महज़ एक ढोंग है.’

एएमयू के लॉ फैकल्टी से जुड़े प्रोफ़ेसर शकील सम्दानी पूरे विश्वास के साथ कहते हैं कि –‘सरकार का स्टैण्ड ग़लत है. उन्हें मूंह की खानी पड़ेगी. सुप्रीम कोर्ट एएमयू के साथ ज़रूर इंसाफ़ करेगा.’

वो आगे बताते हैं कि –‘टेक्निकल ग्राउंड पर भले ही इससे पहले की अदालत ने कह दिया हो कि एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है, लेकिन एएमयू का पूरा इतिहास उठाकर आप देख लीजिए. इसके क़ायम करने के मक़सद को उठाकर देख लीजिए. सबकुछ साफ़ हो जाएगा.’

ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस-ए-मुशावरत के अध्यक्ष नवेद हामिद ने मोदी सरकार के इस स्टैण्ड की निंदा की है और कहा है कि –‘सुप्रीम कोर्ट में अटॉर्नी जनरल का स्टैण्ड दर्शाता है कि वर्तमान केन्द्र सरकार देश के अल्पसंख्यकों के खिलाफ़ काम कर रही है. प्रधानमंत्री का दिया हुआ नारा ‘सबका साथ –सबका विकास’ एक खोखला वादा है.’

उन्होंने बताया है कि ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस-ए-मुशावरत जल्द ही क़ौम के रहनुमाओं और अन्य सम्मानित लोगों की बैठक बुलाकर एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जा को लेकर अपनी रणनीति तैयार करेगी.

एएमयू की ओर से सुप्रीम कोर्ट में सलाहकार सीनियर एडवोकेट पी.पी. राव कहते हैं कि –‘सरकार ने स्टैंड बदल लिया है. वो पिछले एफिडेविट को वापस लेना चाहती है, जिसमें उसने एएमयू को माइनॉरिटी इंस्टिट्यूशन कहा था.’

उन्होंने आगे बताया कि –‘इस मामले की सुनवाई तीन जजों की बेंच कर रही है. इसमें जस्टिस जे.एस. शेखर, जस्टिस एम.वाई. इकबाल और जस्टिस सी. नगप्पन के नाम शामिल हैं.’

वो बताते हैं कि सोमवार को सुनवाई के दौरान जस्टिस इकबाल में अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी से पूछा –‘क्या केन्द्र में सरकार बदलने की वजह से स्टैंड बदला जा रहा है?’ तो रोहतगी का जवाब था –‘पिछला स्टैंड गलत था.’

इस मामले पर सत्तासीन पार्टी का पक्ष जानने के लिए TwoCircles.net ने बीजेपी के कई प्रवक्ताओं से संबंध स्थापित करने की कोशिश की, लेकिन कहीं से कोई सफलता नहीं मिली.

स्पष्ट रहे कि 4 अक्टूबर 2005 को एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जा को ग़लत क़रार दिए जाने के बाद एएमयू, केंद्र सरकार और कुछ अन्य लोगों ने एक पुनर्विचार याचिका दायर की थी. इस पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई करते हुए मुख्य न्यायाधीश ए.एन. रे और न्यायमूर्ति अशोक भूषण के दो सदस्यीय पीठ ने कहा कि जिस तरह मुसलमानों को 50 प्रतिशत आरक्षण दिया जा रहा है वह असंवैधानिक और ग़लत है.

जबकि केंद्र सरकार ने वर्ष 2004 में 25 फ़रवरी को एक अधिसूचना जारी करके एएमयू में मुसलमानों को 50 प्रतिशत आरक्षण देने का फ़ैसला किया था. केंद्र सरकार की इसी अधिसूचना के ख़िलाफ़ एक याचिका दायर की गई थी.

उल्लेखनीय है कि यह मामला पहले भी अदालत में आया था. अज़ीज़ बाशा का यह मामला 1968 में सर्वोच्च न्यायालय तक भी पहुंचा था. तब सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फ़ैसले में कहा था कि विश्वविद्यालय केंद्रीय विधायिका द्वारा स्थापित किया गया है और इसे अल्पसंख्यक विश्वविद्यालय का दर्जा नहीं दिया जा सकता. लेकिन तब की सरकार ने इस फ़ैसले को प्रभावहीन करते हुए 1981 में संविधान संशोधन विधेयक लाकर एएमयू को मुस्लिम यूनिवर्सिटी का दर्जा दे दिया था.

लेकिन यह मामला यूं ही चलता रहा, लेकिन जब केंद्र सरकार ने 50 फ़ीसदी सीटें मुसलमानों के लिए आरक्षित करने की मांग की तो इसका विरोध शुरु हुआ और इसके ख़िलाफ़ याचिका दायर की गई. उस समय विरोध सबसे आगे बीजेपी व आरएसएस से जुड़ी अन्य संस्थाएं सबसे आगे थी.

इस मामले का दिलचस्प पहलू यह भी है कि केस सुप्रीम कोर्ट में जाने के बाद तत्कालीन यूपीए सरकार ने भी बहुत ज़्यादा दिलचस्पी नहीं लिया, बल्कि वो भी इस मामले को अपनी सियासत के ख़ातिर ज़िन्दा रखना चाहती थी. हालांकि अल्पसंख्यक दर्जा दिए जाने की मांग बराबर उठती रही. 2013 में जब राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने विभिन्न विषयों पर विचार करने के लिए संसद की संयुक्त बैठक बुलाई थी, तब भी यह मुद्दा संसद में भी उठा. उस समय बहुजन समाज पार्टी के सांसद शफीकुर रहमान बर्क ने यह मुद्दा उठाया था.

गौरतलब है कि इस देश में शैक्षिक संस्थानों को सियासत से दूर रखने की बात हमेशा ज़ोर-शोर से उठाई जाती रही है. मगर वर्तमान सरकार ने इस सोच की धज्जियां उड़ा दी हैं. शिक्षा के भगवाकरण के तमाम आरोपों के बीच एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जा पर सरकार का बदला हुआ रूख यह बताने की काफी है कि सरकार अल्पसंख्यकों के शैक्षिक विकास को लेकर गंभीर नहीं है.

दूसरी तरफ़ एएमयू वाईस-चांसलर के रूख से यह साफ़ है कि यह मामला ज़रूर तुल पकड़ेगा. इस बात की भी पूरी संभावना है कि आने वाले 2017 के यूपी चुनाव के मद्देनज़र सियासी पार्टियां इस पर जमकर सियासत करेंगी. मगर यहां सवाल उन लाखों मुस्लिम युवाओं के भविष्य का है, जो एएमयू को तालीम और मुस्तक़बिल दोनों के ही प्रमुख सेन्टर के तौर पर देखते आए हैं. यह सवाल आर्थिक रूप से पिछड़े उन मुस्लिम छात्रों के लिए है, जिनके लिए एएमयू में दाखिला किसी सपने से कम नहीं है. ऐसे में अगर एएमयू का अल्पसंख्यक दर्जा छिना तो 50 फ़ीसदी आरक्षण पर उनका हक़ ख़त्म हो जाएगा और ये उनके लिए किसी सदमे से कम नहीं है.


AMU की जंग में कूदे अरविन्द केजरीवाल...

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Afroz Alam Sahil, TwoCircles.net

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) के अल्पसंख्यक दर्जा के मामले में मोदी सरकार के ‘यू-टर्न’ के बाद एएमयू का यह मामला अब लगातार बड़ा होता जा रहा है. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने भी एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जा के मामले में दखल देने की बात कही है.

अरविन्द केजरीवाल ने कहा है कि -‘एएमयू के अल्पसंख्यक किरदार की बहाली के लिए हर मुमकिन कोशिश करूंगा. ज़रूरत पड़ी तो अलीगढ़ भी जाउंगा.’

दिल्ली के सीएम का इस मुद्दे पर बात रखने का सीधा सा मतलब यह है कि केन्द्र और दिल्ली सरकार के बीच एक बार फिर से टकराव का रास्ता खुल रहा है. इस बार यह टकराव एएमयू के नाम पर होगा.

Delegation for AMU

दिल्ली के सीएम अरविन्द केजरीवाल के इस मामले में कूद पड़ने के बाद अब इस मामले में उम्मीद जताई जा रही है कि यूपी के मुख्यमंत्री अखिलेश यादल व उनके अन्य मंत्री भी जल्दी ही कोई न कोई बयान ज़रूर देंगे. ऐसे में एएमयू का यह मामला शिक्षा के क्षेत्र में सरकारी दखलअंदाज़ी को हाईलाईट करने और उसके रोकने का एक बेहतरीन नज़ीर बन सकता है.

दरअसल, केन्द्र सरकार की तरफ़ से सुप्रीम कोर्ट में एएमयू को अल्पसंख्यक दर्जा पर अपना स्टैंड बदलने के बाद फेडरेशन ऑफ जामिया नगर आरडब्ल्यूए व एएमयू ऑल्ड ब्वायज़ के दिल्ली यूनिट की एक टीम ने मंगलवार ओखला विधायक अमानतुल्लाह खान की क़यादत में अरविन्द केजरीवाल से मुलाक़ात की. इस मुलाक़ात में इस टीम ने एएमयू के पूरे मामले से रूबरू कराया और इस संबंध में एक मेमोरेंडम भी दिया.

इस मसले पर वहां ओखला विधायक अमानतुल्लाह ने भी अपने विचारों से सीएम केजरीवाल को रूबरू कराया. अमानतुल्लाह खान ने कहा कि –‘एएमयू मुसलमानों का इदारा है. बीजेपी सरकार जो कि संघ परिवार के हाथों में है, कभी नहीं चाहती कि इस इदारे को बढ़ने दिया जाए.’

उन्होंने अपनी बात रखते हुए कहा कि –‘एक तरफ़ तो मोदी सरकार ‘सबका साथ –सबका विकास’ की बात कर रही है, लेकिन दूसरी तरफ़ मुसलमानों को तालीम से दूर रखने के लिए क़ानूनी तौर से अल्पसंख्यक संस्थानों को कमज़ोर कर रही है.’

अमानतुल्लाह खान के इन विचारों के बाद अरविन्द केजरीवाल ने उनसे मिलने आए लोगों को यक़ीन दिलाया कि –‘हम इस सिलसिले में बात कर रहे हैं. मुझे अभी इस सिलसिले में पता चला है. हम अलीगढ़ भी जाएंगे और जो कुछ हो सकता है, हम करेंगे. हम इस मामले में पूरी तरह से आपके साथ हैं. इस सिलसिले में जल्दी एक मीटिंग करेंगे और उसके बाद दुबारा अगले हफ़्ते आप सबसे इस बारे में मुलाक़ात करेंगे.’

‘हम पूरी तरह से जामिया के साथ हैं’ –अरविन्द केजरीवाल

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Afroz Alam Sahil, TwoCircles.net

नई दिल्ली :जामिया मिल्लिया इस्लामिया की उम्मीदें एक बार फिर से जगी हैं. देश के सबसे प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थानों में एक जामिया के पास किसी मेडिकल कॉलेज का न होना हमेशा से एक ‘टीस’ की तरह रहा है.

इसी ‘टीस’ को अब ख़त्म करने सिलसिले में जामिया का एक डेलीगेशन ओखला विधायक अमानतुल्लाह खान के साथ मंगलवार को दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल से मुलाक़ात की और अपनी बातों पर रखा.

जिसके जवाब में अरविन्द केजरीवाल ने यह यक़ीन दिलाया कि –‘हम पूरी तरह से जामिया के साथ हैं और जहां जैसी ज़रूरत पड़ेगी, हम साथ रहेंगे.’

जामिया के इस डेलीगेशन में मुख्य तौर पर रजिस्ट्रार प्रो. शाहिद अशरफ़ और कंट्रोलर ऑफ एग्ज़ामिनेशन डॉ. अमीर आफ़ाक़ अहमद फ़ैज़ी शामिल थे.

ARVIND KEJRIWAL

दरअसल, जामिया पिछले कई सालों से अपने मेडिकल कॉलेज की स्थापना करना चाहती है. इसके लिए दिल्ली सरकार ने ज़मीन भी दे दी थी. इस ज़मीन के एवज़ में जामिया को तक़रीबन 26 करोड़ देने थे, जिसमें आधे से ज़्यादा रक़म जामिया दे भी चुकी है. लेकिन दिल्ली सरकार ने जो ज़मीन जामिया को मेडिकल कॉलेज के लिए दिया था, उस ज़मीन पर दिल्ली और यूपी सरकार का विवाद है. अभी यह मामला सुप्रीम कोर्ट में है.

ऐसे में जामिया तत्कालीन तौर पर किसी दूसरी जगह मेडिकल कॉलेज खोलना चाहती है, जिसके लिए इस डेलीगेशन ने अरविन्द केजरीवाल से मुलाक़ात की है. डेलीगेशन ने कहा कि जब दिल्ली सरकार के ज़मीन पर विवाद खत्म हो जाएगा तो कॉलेज को वापस शिफ्ट कर लिया जाएगा.

स्पष्ट रहे कि 2011 में दिल्ली सरकार ने जामिया के लिए 22 एकड़ ज़मीन अधिग्रहित की थी, लेकिन बाद में यूपी सरकार ने इस ज़मीन पर अपना दावा ठोंक दिया. 2014 में यूपी सरकार इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई.

इतना ही नहीं, यूपी सरकार ने दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग पर गंभीर आरोप भी लगाएं. प्रदेश सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि –‘एलजी नजीब जंग ने क़ानून को ताक पर रखकर विवादित ज़मीन जामिया को दे दी है, क्योंकि जंग जामिया के कुलपति थे और वह किसी भी सूरत में ज़मीन यूनिवर्सिटी को देना चाहते थे.’

यूपी सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दिए गए हलफ़नामा के मुताबिक़ 214 बीघा ज़मीन को लेकर उसका दिल्ली सरकार से विवाद है.

यूपी सरकार के मुताबिक़ यह ज़मीन यूपी के पास 1872 से है. यूपी सरकार का यह भी दावा है कि ज़मीन उसके सिंचाई विभाग की है, जबकि दिल्ली सरकार इसे नजूल की भूमि बता रही है. दिल्ली सरकार के मुताबिक़ दिल्ली के पास 1876 के समय से उस ज़मीन का मालिकाना हक़ है और इसके सबूत भी मौजूद हैं.

इस ज़मीन विवाद मामले में सुप्रीम कोर्ट यूपी और दिल्ली सरकार के रवैये पर नाराज़गी भी जता चुकी है. क्योंकि कोर्ट के निर्देशों के बावजूद दोनों सरकारों ने कोई हल नहीं निकाला.

हालांकि जामिया को दी गई 22 एकड़ ज़मीन को लेकर सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और यूपी के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के बीच बैठक भी हो चुकी है.

सुत्रों से हासिल जानकारी के मुताबिक़ यूपी सरकार ने जामिया के विस्तार के लिए भूमि देने पर सांकेतिक सहमति भी दे दी और तय हुआ कि दोनों राज्यों के अधिकारी मिलकर सर्वे करेंगे. लेकिन अब सर्वे पूरा नहीं हो सका है और मेडिकल कॉलेज का मामला अधर में लटका हुआ है.

उधर एमसीआई के प्रावधानों के मुताबिक़ मेडिकल कॉलेज के मान्यता के लिए कम से कम 300 बेड का एक हॉस्पीटल का होना ज़रूरी है. ऐसे में जामिया एक औपचारिक प्रस्ताव के साथ अस्पतालों से संपर्क करने से पहले इस संबंध में विभिन्न विकल्पों को खंगाल रहा है. जामिया के मुताबिक़ जब तक अपना हॉस्पीटल नहीं बन जाता, तब तक जामिया अपने पास के होली फैमली और एस्कार्ट जैसे अस्पतालों से भागीदारी पर काम करने के विकल्प पर विचार कर रहा है.

हालांकि जामिया का 100 बिस्तरों वाला अंसारी स्वास्थ्य केंद्र पहले से मौजूद है. इतना ही नहीं, जामिया में बायोकैमिस्ट्री, बायोफिजिक्स और फंडामेंटल साइंस के अलावा सेंटर फॉर डेंटिस्ट्री एंड फिजियोथैरिपी एंड रिहबिलिटेशन भी मौजूद है.

इसके अलावा दूसरी तरफ़ जामिया के इस डेलीगेशन के साथ अरविन्द केजरीवाल की इस मुद्दे पर भी बात हुई कि जामिया इलाक़े में स्कूल की कमी देखते हुए जामिया स्कूल के लिए ज़मीन दे, ताकि दिल्ली सरकार जामिया की ज़मीन पर स्कूल बनाए.

विधायक अमानतुल्लाह खान के मुताबिक़ जामिया का यह डेलीगेशन इसके लिए राज़ी था. अमानतुल्लाह खान बताते हैं कि –‘जामिया नगर के इलाक़े में कोई अच्छा स्कूल नहीं है. ऐसे में यहां स्कूल का बनना बहुत ज़रूरी है. हम जामिया नगर में स्कूल की ज़रूरत ज़रूर पूरी करेंगे और जैसी जहां ज़रूरत होगी जामिया के साथ हैं.’

कमलेश की ज़मानत मंज़ूर, मुज़फ़्फ़नगर से लड़ेगा चुनाव!

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TwoCircles.net News Desk

लखनऊ :पैगंबर मोहम्मद के ख़िलाफ़ आपत्तिजनक टिप्पणी करने के आरोप में उत्तरप्रदेश के जेल में बंद हिन्दू महासभा के कार्यवाहक राष्ट्रीय अध्यक्ष कमलेश तिवारी की ज़मानत अर्ज़ी बुधवार को सत्र अदालत ने मंज़ूर कर ली है.

विशेष एडीजे नीलकंठ सहाय ने इन्हें 25 हज़ार की दो ज़मानतें व इतनी ही धनराशि का मुचलका दाखिल करने पर रिहा करने का आदेश दिया है.

हालांकि नेशनल सिक्युरिटी एक्ट (एनएसए) लगे होने की वजह से कमलेश तिवारी को फिलहाल जेल से रिहा नहीं किया जा सकता.

डीएम के संस्तुति के बाद पुलिस ने कमलेश तिवारी पर राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून के तहत कार्रवाई की थी, जिसमें 19 जनवरी को हाईकोर्ट में सुनवाई होनी है.

बताया जा रहा है कि इस ज़मानत के पीछे कमलेश तिवारी के पत्नी की काफी मेहनत है. पिछले दिनों कमलेश तिवारी की पत्नी ने गृहमंत्री राजनाथ सिंह को पत्र लिखकर उसको रिहा करने एवं उस पर लगाये गये रासुका को हटाने की मांग की थी.

एक टीवी चैनल से बातचीत में कमलेश तिवारी की पत्नी ने खुद बताया कि उसके अपील पर राजनाथ सिंह ने इस बारे में लिखित रूप में बात रखने को कहा था. कमलेश के मुताबिक़ गृहमंत्री की सलाह के आधार पर हमारे वकील ने राजनाथ सिंह को पत्र भेज दिया है.

स्पष्ट रहे कि कमलेश तिवारी ने आरएसएस को लेकर उत्तरप्रदेश के मंत्री आज़म खान के बयान के जवाब में पैग़म्बर मोहम्मद के खिलाफ़ आपत्तिजनक टिप्पणी की थी. इस टिप्पणी के बाद हुए व्यापक विरोध-प्रदर्शन के मद्देनज़र थाना नाका के प्रभारी निरीक्षक प्रदीप यादव ने एफ़आईआर दर्ज कराई. और तीन दिसंबर को उसे गिरफ्तार कर लिया गया. कमलेश के खिलाफ़ लोगों में बढ़ते आक्रोश को देखते हुए राज्य सरकार ने उस पर एनएसए लगा दिया था.

एक दूसरी ख़बर के मुताबिक़ हिन्दू महासभा कमलेश तिवारी को मुज़फ्फ़रनगर सदर सीट के उप-चुनाव में विधायक पद का चुनाव लड़ाने की तैयारी कर रहा है. इसकी पुष्टि हिन्दू महासभा के यूपी प्रवक्ता शिशिर चतुर्वेदी भी कर चुके हैं. चतुर्वेदी के मुताबिक़ –‘हमने इस देश को इस्लाम मुक्त बनाने का अभियान चलाया हुआ है. ऐसे में कमलेश का सदन पहुंचना ज़रूरी है. इसलिए हिंदू महासभा ने उन्हें मुज़फ्फरनगर सदर सीट से उपचुनाव लड़ाने का फैसला किया है.’

AMU के अल्पसंख्यक दर्जा के लिए सड़क पर उतरेगी कांग्रेस : रहमानी

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पटना :अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) के अल्पसंख्यक दर्जा के मसले पर केन्द्र के मोदी सरकार के ‘यू-टर्न’ के बाद अब पूरे देश में इस मसले पर सियासत अब धीरे-धीरे गर्म होना शुरू हो गया है.

आज पटना में बिहार प्रदेश कांग्रेस कमिटी अल्पसंख्यक विभाग के अध्यक्ष व प्रवक्ता मिन्नत रहमानी ने अपने एक प्रेस बयान में कहा कि सुप्रीम कोर्ट में केन्द्र सरकार के इस स्टैंड के ख़िलाफ़ पूरी कांग्रेस पार्टी सड़क पर उतरेगी.

मिन्नत रहमानी सरकार के इस क़दम को साज़िश बताते हुए कहा कि –‘भारतीय उपमहाद्वीप के अल्पसंख्यकों की भावनाओं का केंद्र एएमयू पर भाजपा का रुख हमेशा से सौतेलापन रहा है. जिस तरह यहां से बड़ी संख्या में मुसलमानों ने शिक्षा ग्रहण कर कई क्षेत्रों में विश्वपटल पर एक मिसाल क़ायम किया है, उसको समाप्त करने की साजिश केंद्र की मौजूदा सरकार रच रही है.’

आगे उन्होंने कहा कि –‘केंद्र सरकार द्वारा जिस तरह से माननीय सर्वोच्च न्यायलय से एएमयू का अल्पसंख्यक दर्जा समाप्त करने का आग्रह किया, इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि मौजूदा केंद्र सरकार अल्पसंख्यक विरोधी है.’

रहमानी के मुताबिक़ अल्पसंख्यकों के हित को ध्यान में रखते हुए तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार ने 1968 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को प्रभावहीन करते हुए 1981 में संविधान संसोधन विधेयक लाकर एएमयू को अल्पसंख्यक दर्जा दे दिया था. पुनः इलाहबाद उच्च न्यायलय में मामला पहुंचने के बावजूद मौजूदा यूपीए सरकार ने सच्चर कमिटी के रिपोर्ट को ध्यान में रखते हुए कि मुसलमानों की शैक्षणिक स्थिति अत्यधिक लचर है, मनमोहन सरकार ने 25 फ़रवरी 2004 को अधिसूचना जारी करके एएमयू में मुसलामानों को 50% आरक्षण देने का फैसला कर लिया था.

रहमानी का स्पष्ट तौर पर कहना है कि –‘यह संस्था भारतीय समाज में सामाजिक व आर्थिक रूप से पिछड़े हुए मुसलमानों के शिक्षा और तरक़्क़ी से जुड़ा हुआ है. इसलिए अगर मोदी सरकार अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अल्पसंख्यक दर्जे को ख़त्म करने की कोशिश किया तो उसे गंभीर परिणाम भुगतने होंगे.

TwoCircles.net से बात करते हुए रहमानी ने बताया कि -'हम पूरे देश में पढ़े-लिखे मुसलमानों को इसके लिए एकत्रित कर रहे हैं. अगर केन्द्र सरकार ने अपना स्टैंड नहीं बदला तो पूरी कांग्रेस पार्टी इसके लिए सड़क पर उतरेगी. इसके देश-व्यापी आन्दोलन चलाएगी. ज़रूरत पड़ी तो संसद का घेराव भी करेगी. इसकी शुरूआत हमने बिहार से कर दी है. जल्द ही पार्टी आलाकमान की ओर से भी इस सिलसिले में व्यापक आन्दोलन शुरू किया जाएगा.'

यह पूछने पर 2006 के बाद आपकी पार्टी ने क्या किया? तो इस सवाल पर रहमानी बताते हैं कि –‘केन्द्र में जब हमारी पार्टी की ही सरकार तो एएमयू को अल्पसंख्यक दर्जा मिला. बल्कि ज़रूरत पड़ी तो क़ानून में संसोधन भी किया. फिर अदालत के फैसले के खिलाफ़ एएमयू के साथ हर समय खड़ी रही. अब सुप्रीम कोर्ट तो सरकार के हाथ में थी नहीं, अगर होती तो उसी समय सुनवाई कराकर अलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को पलट देती.’

8 साल जेल में सड़ने के बाद देशद्रोह के आरोप से मुक्त हुए 5 मुसलमान

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TwoCircles.net Staff Reporter

लखनऊ :आज से 8 साल 7 महीने पहले जिन लोगों पर देशद्रोह का आरोप लगा था, वो इतने दिनों तक जेल में सड़ने के बाद आख़िरकार अब लखनऊ की एक स्पेशल कोर्ट ने इन्हें इस आरोप से मुक्त कर दिया है.

लखनऊ की सामाजिक संगठन रिहाई मंच ने स्पेशल कोर्ट के इस फैसले को सपा सरकार के मुंह पर तमाचा बताया है. साथ ही मंच ने देशद्रोह और यूएपीए को बेगुनाहों को फंसाने का पुलिसिया हथियार बताते हुए इसे ख़त्म करने की मांग की है.

गौरतलब है कि 12 अगस्त 2008 को लखनऊ कोर्ट परिसर में एडवोकेट मुहम्मद शुऐब को आतंकवाद का केस न लड़ने के लिए हिन्दुत्वादी जेहनियत वाले अधिवक्ताओं द्वारा मारने-पीटने के बाद मुहम्मद शुऐब व आतंकवाद के आरोप में क़ैद अजीर्जुरहमान, मो0 अली अकबर, नूर इस्लाम, नौशाद व शेख मुख्तार हुसैन के खिलाफ़ ‘हिन्दुस्तान मुर्दाबाद -पाकिस्तान जिन्दाबाद’ के नारे लगाने का झूठा आरोप लगाकर इन्हें आईपीसी की धारा 114, 109, 147, 124 ए (देशद्रोह) और 153 ए के तहत अभियुक्त बनाया गया था.

Advocate Shoaib

रिहाई मंच की ओर से जारी एक प्रेस बयान में अध्यक्ष मुहम्मद शुऐब ने कहा कि –‘2012 में आतंकवाद के आरोप में कैद निर्दोषों को छोड़ने के नाम पर आई सपा सरकार ने अपना वादा अगर पूरा किया होता तो पहले ही ये बेगुनाह छूट गए होते.’

उन्होंने कहा कि सरकार ने वादा किया था कि आतंक के आरोपों से बरी हुए लोगों को मुआवजा व पुर्नवास किया जाएगा, पर खुद अखिलेश सरकार अब तक अपने शासनकाल में दोषमुक्त हुए किसी भी व्यक्ति को न मुआवजा दिया न पुर्नवास किया. मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को डर है कि अगर आतंक के आरोपों से बरी लोगों को मुआवज़ा व पुर्नवास करेंगे तो उनका हिन्दुत्वादी वोट बैंक उनके खिलाफ़ हो जाएगा.

मंच के अध्यक्ष मुहम्मद शुऐब ने कहा कि आज दोष मुक्त हुए तीन युवक पश्चिम बंगाल से हैं. ऐसे में जब अखिलेश यादव पुर्नवास व मुआवज़ा की गारंटी नहीं कर रहे हैं, तो पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को इनके सम्मान सहित पुर्नवास की गांरटी देनी चाहिए.

मंच के प्रवक्ता राजीव यादव बताते हैं कि –‘नवंबर 2007 में यूपी की कचहरियों में हुए धमाकों के बाद आतंकवाद का केस किसी भी अधिवक्ता को न लड़ने देने का फरमान अधिवक्ताओं के बार एशोसिएशनों ने जारी किया था, उस वक्त अधिवक्ता मुहम्मद शुऐब ने इसे संविधान प्रदत्त अधिकारों पर हमला और अदालती प्रक्रिया का माखौल बनाना बताते हुए आतंकवाद के आरोपों में कैद बेगुनाहों का मुक़दमा लड़ना शुरु किया था.’

राजीव के मुताबिक़ –‘जनवरी 2007 में कोलकाता के आफ़ताब आलम अंसारी की मात्र 22 दिनों में रिहाई से शुरु हुई बेगुनाहों की इस लड़ाई में मुहम्मद शुऐब और उनके अधिवक्ता साथियों पर प्रदेश की विभिन्न कचहरियों में हमले हुए. पर ऐसी किसी भी घटना से विचलित न होते हुए रिहाई मंच के अध्यक्ष मुहम्मद शुऐब अब तक दर्जन भर से अधिक आतंकवाद के आरोप में कैद बेगुनाहों को छुड़ा चुके हैं.’

राजीव यादव का कहना है कि –‘इंसाफ़ की इस लड़ाई में हम सभी ने अधिवक्ता शाहिद आज़मी, मौलाना खालिद मुजाहिद समेत कईयों को खोया है, पर इस लड़ाई में न सिर्फ़ बेगुनाह छूट रहे हैं, बल्कि देश की सुख शांति के खिलाफ़ साजिश करने वाली खुफिया-सुरक्षा एजेंसियों की हकीक़त भी सामने आ रही है.’

उन्होनें बताया कि इस मुक़दमें से बरी हुए अजीर्जुरहमान, मो0 अली अकबर हुसैन, नौशाद, नूर इस्लाम, शेख मुख्तार हुसैन के अलावां जलालुद्दीन जिनपर हूजी आतंकी का आरोप लगाया गया था, अदालत द्वारा अक्टूबर 2015 में पहले ही निर्दोष घोषित किए जा चुके हैं. जून 2007 में इनके साथ ही यूपी के नासिर और याकूब की भी गिरफ्तारी हुई थी, जिन्हें अदालत दोषमुक्त कर चुकी है.

राजीव यादव का कहना है कि –‘जून 2007 में लखनऊ में आतंकी हमले का षडयंत्र रचने वाले सभी आरोपी जब बरी हो चुके हैं, तो इस घटना पर तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती को अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए.’

राजीव के मुताबिक़ यहां गौर करने की बात यह है कि 2007 में मायावती और राहुल गांधी पर आतंकी हमले के नाम पर मुस्लिम लड़कों को झूठे आरोपों में न सिर्फ़ पकड़ा गया, बल्कि 23 दिसबंर 2007 को मायावती को मारने आने के नाम पर दो कश्मीरी शाल बेचने वालों का चिनहट में फ़र्जी मुठभेड़ किया गया. ऐसे में आतंकवाद की राजनीति के तहत फंसाए गए इन युवकों पर राहुल और मायावती को अपना मुंह खोलना चाहिए.

अब जामिया से अल्पसंख्यक दर्जा छीनने की तैयारी में है मोदी सरकार

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TwoCircles.net Staff Reporter

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) के अल्पसंख्यक दर्जा के मामले में सुप्रीम कोर्ट में मोदी सरकार के ‘यू-टर्न’ के बाद अब जामिया के अल्पसंख्यक दर्जा पर भी ख़तरा मंडराने लगा है. क्योंकि एक ख़बर के मुताबिक़ केन्द्र की मोदी सरकार यूपीए-2 सरकार के फैसले को पलट कर इस दर्जा को छिनने की तैयारी में जुट गई है.

एक ख़बर के मुताबिक़ कानून मंत्रालय ने केंद्र सरकार को सुझाव दिया है कि इस यूनिवर्सिटी की स्थापना केंद्रीय कानून के तहत की गई है. इस यूनिवर्सिटी को शुरू करने या चलाने में मुस्लिम अल्पसंख्यकों की कोई भूमिका नहीं है.

कानून मंत्रालय ने सरकार को सुझाव दिया है कि केंद्र चाहे तो उसी प्रकार मानव संसाधन मंत्रालय भी अपने पुराने रुख से पीछे हट सकता है. जिस प्रकार अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अल्पसंख्यक दर्जे के मामले में सरकार ने अपने पुराने रुख को बदला है. क्योंकि केंद्र सरकार की ओर एटॉर्नी जनरल ने सुप्रीम कोर्ट में कह चुके हैं कि केंद्र सरकार एक सेक्युलर देश में अल्पसंख्यक संस्था को स्थापित नहीं कर सकती.

कानून मंत्रालय ने सरकार को यह सुझाव दिया है कि वो इस मामले में 22 फरवरी 2011 को नेशनल कमिशन फॉर मॉइनॉरिटी एजुकेशनल इंस्टीनट्यूशंस (NCMEI) के फैसले से पीछे हट जाए. क्योंकि NCMEI ने जामिया मिलिया को अल्‍पसंख्यक संस्थान घोषित किया था. हालांकि इस फैसले को भी जब कोर्ट में चुनौती दी गई तो तत्कालीन मंत्री कपिल सिब्बल की अगुवाई वाले मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने कोर्ट में हलफ़नामा दायर करके कहा था कि सरकार इस मामले में NCMEI के फैसले का स्वागत करती है.

यह मामला सिर्फ़ एएमयू व जामिया तक ही सीमित नहीं है. बल्कि देश के 8 अन्य यूनिवर्सिटियों के अल्पसंख्यक दर्जा पर भी ख़तरे की घंटी बजनी शुरू हो गई है.

क्योंकि यदि जामिया के मामले में नेशनल कमिशन फॉर मॉइनॉरिटी एजुकेशनल इंस्टीट्यूशंस के फैसले को सरकार खत्म करती है तो फिर उन 8 यूनिवर्सिटियों व 10 हज़ार से अधिक संस्थानों, जिन्हें इस कमीशन ने अल्पसंख्यक दर्जा दिया है, खत्म हो सकता है.

‘सेक्युलर देश और संविधान बचेगा तो AMU और JMI भी बचेगी’

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TwoCircles.net News Desk

‘आरएसएस द्वारा संचालित केन्द्र की मोदी सरकार का हमेशा से दो चेहरा रहा है. एक दिखाने का, तो दूसरा अंदर ही अंदर इस देश के अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ षड्यंत्र रचने का. पहले चेहरे के तहत पीएम मोदी व उनकी सरकार मुसलमानों के हाथ में क़ुरान और कम्यूटर की बात करते हैं. और अपने दूसरे चेहरे के तहत मुसलमानों को हर तरीक़े से कमज़ोर करने की साज़िश रची जाती है.’

यह बातें आज दिल्ली की संस्था ‘तंज़ीम-ए-इंसाफ़’ के जनरल सेक्रेटरी अमीक़ जामेई ने एक प्रेस वार्ता के दौरान कहीं.

उन्होंने TwoCircles.net से बात करते हुए कहा कि –‘अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और जामिया मिल्लिया इस्लामिया पर जिस तरह से संघ हमलावर हुआ है, इससे साफ़ पता चलता है कि सेक्युलर ताक़तों के ज़रिये क़ायम इदारों के साथ-साथ इस देश के अल्पसंख्यक समुदाय के जितने भी इदारे क़ायम किये गए हैं, या तो वो इन्हें भगवा रंग में रंग देना चाहती हैं, और अगर वो भगवा रंग से रंगने में कामयाब नहीं हो सके तो उस संस्थान का इतिहास आरएसएस व उसकी सरकार हमेशा के लिए मिटा देने की सोच रखता है.’

जामेई ने कहा कि –‘मोदी सरकार के इस कारनामे से उन्हें कोई आश्चर्य नहीं है. यह उनके एजेंडे का हिस्सा रहा है. हुकूमत के जितने संस्थान हैं, आज उन्हें भगवा रंग में रंग दिया गया है.’

जामेई कहते हैं कि –‘पूरे देश में अल्पसंख्यक, पिछड़े और दलित निशाने पर हैं. और भाजपा को परास्त करने का सही तरीक़ा यही होगा कि बिहार मॉडल पर अल्पसंख्यक, पिछड़े और दलित एक हो जायें और जातिगत लाभ को भूल पहले मुल्क के संविधान को बचा लें. क्योंकि इस समय सबसे बड़ी चुनौति मुल्क के सेकूलरिज़्म व संविधान को बचाना है.’

जामेई ने बताया कि आगामी 25 फ़रवरी सेशन के दौरान ऑल पार्टी और मुल्क के तमाम दानिश्वरों की एक बैठक दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में ‘तंज़ीम-ए-इंसाफ़’ आयोजित करेगी और मुल्क के संविधान पर मंडराने वाले ख़तरा से निपटने के लिए आगे की कार्य-योजना तय करेगी.


सबको राहत, बेगुनाह आमिर को क्यों नहीं?

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Afroz Alam Sahil, TwoCircles.net

नेशनल क्राईम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ें बताते हैं कि देश के विभिन्न जेलों में साल 2014 में 938 क़ैदियों को जेल से रिहाई के बाद आर्थिक मदद दी गई है. वहीं 2196 क़ैदियों को पुनर्वासित किया गया. इसके अलावा साल 2014 में 79121 क़ैदियों को लीगल एड भी हासिल कराया गया है.

वहीं आंकड़ें यह भी बताते हैं कि 2013 में भी 1911 क़ैदियों को जेल से रिहाई के बाद आर्थिक मिली. 1883 क़ैदियों को पुनर्वासित किया गया और 67386 क़ैदियों को लीगल एड भी हासिल कराया गया.

लेकिन 14 सालों तक जेल में अंडरट्रायल रहने वाला मो. आमिर ख़ान की कहानी कुछ अलग है. वो इन दिनों अपने मुवाअज़े व पुनर्वास की लड़ाई लड़ रहे हैं. इसके लिए वो देश के तमाम अहम नेताओं के साथ-साथ राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी से भी मुलाक़ात कर चुके हैं. लेकिन अभी तक उन्हें कोई मदद सरकार की ओर से नहीं मिली है.

आमिर के इस मामले में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने मार्च 2014 में मीडिया रिपोर्टों के आधार पर स्वतः संज्ञान लिया था. आयोग ने मार्च 2014 में ही केंद्रीय गृह मंत्रालय और दिल्ली पुलिस को नोटिस भेजकर चार हफ्तों में जवाब मांगा था. और अब 5 दिसम्बर को दिल्ली सरकार को कारण बताओ नोटिस जारी करके पूछा है कि आतंकवाद के आरोपों से बरी हुए बेगुनाह मो. आमिर को 5 लाख की आर्थिक मदद क्यों न दिया जाए? दिल्ली सरकार के मुख्य सचिव के पास इस नोटिस का जवाब देने के लिए 6 हफ्ते हैं, जो इसी महीने के 20 जनवरी को पूरे हो जाएंगे.

Mohd. Aamir Khan

दिल्ली सरकार के प्रवक्ता अरूणोदय प्रकाश का कहना है कि –‘मुझे इस संबंध में अभी जानकारी नहीं है. देखना होगा कि पत्र किस विभाग या मंत्रालय को आया है.’

इस संबंध में हमने दिल्ली सरकार के प्रिंसिपल सेकेट्री एस.एन. सहाय से भी बात करने की कोशिश की, लेकिन कामयाबी नहीं मिल सकी.

आम आदमी पार्टी के ओखला से विधायक अमानतुल्लाह खान कहते हैं, –‘जिस आमिर के ज़िन्दगी अहम साल जेल में ख़त्म हो गए हों. जिसका पूरा घर बर्बाद हो गया हो,क्या उसकी भरपाई 5 लाख के मुआवज़े से हो सकती है? सरकार को मुवाअज़े के साथ-साथ सरकारी नौकरी भी देनी चाहिए. मैं इस मामले में आमिर के साथ हूं और हक़ के लिए लड़ता रहूंगा.’

लेकिन दिल्ली सरकार को मिले नोटिस के बारे में उनका कहना है कि उन्हें इसकी जानकारी नहीं है.

अमानतुल्लाह खान आमिर के मामले को विधानसभा में भी उठा चुके हैं.

तिहाड़ जेल के उप-महानिरक्षक (DIG) मुकेश प्रसाद का कहना है कि –‘सरकार के सोशल वेलफेयर डिपार्टमेंट की पॉलिसी की तहत जेल से रिहा होने वाले क़ैदियों को आर्थिक मदद दी जाती है, ताकि वो जेल के बाहर एक सम्मानित ज़िन्दगी जी सके. अपना घर-परिवार चला सके.’

वहीं आमिर का कहना है –‘जब हमारे देश में किसी चरमपंथी या माओवादी को सरेंडर करने पर सरकार उनके पुनर्वास की बात करती है, तो मुझ जैसे बेगुनाहों को जिन्हें 14 साल तक अपने बेगुनाही की सज़ा काटनी पड़ी हो, को पुनर्वास के लिए सरकार मदद क्यों नहीं करती? जबकि जेल में हमारा आचरण भी प्रशंसनीय रहा. यह बात मैं नहीं कह रहा हूं, बल्कि खुद जेल प्रशासन मेरे आचरण प्रमाण पत्र में कह रही है, जिसे हमने सूचना के अधिकार से हासिल किया है.’

स्पष्ट रहे कि पुरानी दिल्ली के मो. आमिर को 27 फ़रवरी 1998 को गिरफ़्तार किया गया था और आतंकवाद के आरोप लगाकर उन्हें जेल में डाल दिया गया था. आमिर ग़िरफ़्तारी के वक़्त 18 साल के थे और 14 साल बाद जब वो जेल से रिहा हुए तो उनकी लगभग आधी उम्र बीत चुकी है. दिल्ली हाईकोर्ट समेत कई अदालतों ने उन्हें आतंकवाद के आरोपों से बरी किया है.

इस समय मो. आमिर आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई में एक जुझारू मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं और साथ ही अपने ज़िन्दगी के जंग को जीतने का संघर्ष कर रहे हैं.

उन्हें पूरी उम्मीद है कि सरकार उन्हें आर्थिक मदद के साथ-साथ एक प्रतिष्ठित नौकरी भी ज़रूर देगी ताकि वो देश में अब सम्मानित नागरिक की हैसियत से ज़िन्दगी गुज़ार सकें. हालांकि आमिर का मानना है कि कोई भी पैसा उनके उन 14 सालों को नहीं लौटा सकतें.

क्या कहते हैं नियम :

गृह मंत्रालय के नेशनल क्राईम रिकार्ड ब्यूरो के मुताबिक़ अलग-अलग राज्यों में आर्थिक मदद या क़ैदियों के पुनर्वासन के अलग-अलग नियम हैं. दिल्ली में 6 महीने से 5 साल तक जेल में रहने वाले क़ैदी को पुनर्वासन के नाम पर 30 हज़ार रूपये की आर्थिक मदद की जाती है. वहीं 5 से 10 साल तक जेल में रहने वाले को 40 हज़ार और 10 साल से उपर रहने वालों को 50 हज़ार रूपये की मदद दी जाती है.

इसके लिए दिल्ली का नागरिक होना ज़रूरी है. साथ ही जेल के अंदर आचरण भी सही पाया गया हो. परिवार की आमदनी तमाम स्त्रोतों को मिलाकर एक लाख से नीचे हो.

AMU की जंग में कूदे अब आज़म ख़ान...

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TwoCircles.net Staff Reporter

रामपुर :अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) के अल्पसंख्यक दर्जा की जंग में अब उत्तरप्रदेश के कैबिनेट मंत्री आज़म ख़ान भी कूद पड़े हैं.

नगर विकास मंत्री आजम ख़ान ने शुक्रवार को केन्द्र सरकार पर हमला बोलते हुए कहा कि –‘सभी मोर्चों पर फेल होने के बाद केंद्र सरकार अब हिन्दुत्व के मुद्दे पर लौट रही है. इसलिए केंद्र सरकार देश के तमाम माइनॉरिटी इंस्टिट्यूशन को ख़त्म करना चाहती है.’

हालांकि आज़म ख़ान से पहले दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जा के मसले पर केन्द्र सरकार से टकराव का ऐलान कर चुके हैं.

अरविन्द केजरीवाल के इस हिमायत का आज़म ख़ान ने भी समर्थन करते हुए कहा कि –‘ एक सूबे के मुख्यमंत्री की ओर से की गई इस हिमायत का स्वागत करना चाहिए.’

साथ ही यह कहा कि –‘यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक का दर्जा दिलाने के लिए प्रदेश सरकार प्रयासरत है.’

दरअसल, आज़म ख़ान शुक्रवार को जौहर यूनिवर्सिटी में पत्रकारों से बात कर रहे थे.

उन्होंने एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जा के मुद्दे पर अपनी बात रखते हुए कहा कि –‘अल्पसंख्यकों को जब भी पूरा या अधूरा इंसाफ़ मिला, वो किसी मुसलमान ने ही दिया. जौहर यूनीवर्सिटी के मामले में भी दो गवर्नरों ने आपत्ति जताई थी. इसे आतंकवादियों का अड्डा तक कहा था. लेकिन जब अज़ीज़ कुरैशी को प्रदेश का चार्ज मिला तो उन्होंने बिल पर दस्तख्त किए और यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक दर्जा मिला.

उन्होंने बताया कि प्रदेश सरकार ने इसके लिए पांच वर्ष पहले खत लिखा था, लेकिन मानव संसाधन विकास मंत्री ने आज तक कोई जवाब तक नहीं दिया.

स्पष्ट रहे कि इससे पूर्व एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जा के मसले पर अक्टूबर 2005 में अलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला आया था, तब भी आज़म ख़ान उत्तरप्रदेश सरकार में मंत्री थे. तब उन्होंने बीबीसी को दिए अपने बयान में कहा था –‘केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह ने एएमयू के कुलपति के साथ मिलकर मुस्लिम वोटरों को लुभाने के लिए आरक्षण का फ़ैसला किया था.’

हालांकि उन्होंने एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे को बरक़रार रखने की हिमायत की थी. बाद में उन्होंने यह भी कहा कि –‘सरकार को तत्काल संसद का विशेष सत्र बुलाकर एएमयू को अल्पसंख्यक विश्वविद्यालय का दर्जा देने के लिए समुचित क़ानूनी सुधार करना चाहिए.’

दरअसल, आज़म ख़ान राजनीतिक करियर की शुरुआत अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से ही शुरू हुई है. उन दिनों 1974 में वो यूनिवर्सिटी से एलएलबी की पढ़ाई कर रहे थे. 1975-76 में एलएलएम की पढ़ाई के दौरान वो एएमयू छात्र संघ में जनरल सेक्रेट्री के पद के लिए चुनाव भी लड़े और जीत भी दर्ज किया.

मज़हब पर उठती उंगलियों से भरा रहा बीता साल

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जावेद अनीस

पिछले डेढ़ सालों में इस देश में अभिव्यक्ति की आज़ादी और लोकतंत्र के दायरे कम हुए हैं और बहुसंख्यकवाद का अहंकार सामने आया है, यह सब कुछ बहुत व्यवस्थित और शातिराना तरीके से किया जा रहा है. नरेंद्र मोदी अपने परिवार से ज्यादा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आंगन में पले-बढ़े और गढ़े गए हैं, वे लम्बे समय तक संघ प्रचारक की भूमिका में रहे हैं. अगर वे भाजपा में नहीं भेजे जाते तो आज संघ के बड़े नेता होते. सरकार बनने के बाद अब अकेले मोदी सत्ता में नहीं हैं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी सत्ता के महत्वपूर्ण केंद के रूप में उभरा है, यह सब कुछ वाजपेयी दौर से बिलकुल उलट है, इस बार का समन्वय जबरदस्त है.

पिछले डेढ़ सालों में देखें तो हर छोटे–बड़े चुनाव या उपचुनाव से पहले एक पैटर्न दिखाई देता है, जिसमें संघ परिवार द्वारा नफरत और विभाजन की एक परियोजना चलायी जाती है जिसके तहत अल्पसंख्यक समुदाय को निशाना बनाया जाता है. इसका मकसद एक तिहाई राज्यों में भाजपा की सरकार और राज्यसभा में बहुमत लाना है जिससे देश के संविधान और लोकतान्त्रिक ढ़ांचे को अपने हिसाब से बदला जा सके.

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2014 में हुए उत्तर प्रदेश में विधानसभा उपचुनावों के दौरान ‘लव जेहाद’ का मुद्दा बहुत ही मुस्तैदी से उछाला गया था. इस मामले में कितनी सच्चाई थी यह मेरठ जिले की घटना से समझा जा सकता है जिसमें एक मदरसे की हिंदू महिला टीचर का अपहरण, उसके साथ गैंगरेप को 'लव जिहाद'के उदाहरण के रूप में पेश किया गया था. पोल तब खुली जब लड़की ने बयान दिया कि उससे दबाव में केस कराया गया था जबकि वह मदरसा संचालक से प्यार करती है और उसके साथ ही रहना चाहती है.

इसके बाद धर्मातरण और घर वापसी को लेकर नफरत का खेल रचा गया, फिर भारत में मुसलमानों और ईसाइयों की आबादी बढ़ने को खतरे के तौर पर पेश किया गया. बिहार चुनाव से पहले गाय को विवाद का विषय बनाया गया और इस दौरान हुए दादरी काण्ड में तो केंद्र सरकार के मंत्री तक इस हत्या को जायज ठहरा रहे थे.

आने वाले दिनों में जिन राज्यों में चुनाव होने वाले हैं उनमें से असम में भाजपा अपने लिए संभावना देख रही है इसलिए वहां का एजेंडा अभी से तय किया जा रहा है और इस काम को अंजाम दे रहे हैं खुद वहां के गवर्नर पी.बी.आचार्य. पहले उन्होंने कहा 'हिंदुस्तान हिंदुओं के लिए है.'इसके बाद उनका बयान आया कि 'वे(मुस्लिम) कहीं भी जा सकते हैं, वे चाहे तो भारत में भी रह सकते हैं, अगर वह बांग्लादेश या पाकिस्तान जाना चाहते हैं तो वहां भी जाने के लिए आजाद हैं.’

इतना सब होने के बावजूद संगठित राजनीतिक दायरे की तरफ से कोई ठोस प्रतिरोध देखने को नहीं मिला, इस विकल्पहीनता ने निराशा और डर का माहौल पैदा कर दिया. कुछ घटनाएं उठ खड़े होने को मजबूर कर देती हैं, कन्नड़ विचारक कलबुर्गी की हत्या और गाय का मांस खाने के झूठे आरोप में अखलाक की एक संगठित भीड़ द्वारा दर्दनाक हत्या ने पूरे देश को झकझोर दिया और इसके खिलाफ स्वतंत्र आवाजें उठने लगीं जो बाद में मिलकर असहिष्णुता के खिलाफ प्रतिरोध की एक ऐसी मिसाल बनीं जिसके दबाव में राजनीतिक ताकतों को भी सामने आना पड़ा.
किसी भी समाज में लेखक, बुद्धिजीवी और कलाकार सबसे ज्यादा जागरूक और संवदनशील वर्ग होते हैं, शायद इसी वजह से प्रतिरोध स्वरूप बड़ी संख्या में लेखकों-बुद्धिजीवियों ने अपने पुरस्कार लौटाने शुरू कर दिए. बाद में इस मुहिम में फिल्मी हस्तियां भी शामिल हो गयीं. इसी कड़ी में मशहूर शायर मुनव्वर राना ने एक चैनल पर अपना साहित्य अकादमी अवॉर्ड यह कहते हुए लौटा दिया कि ‘मैं एक लाख का ब्लैंक चेक सरकार को देता हूं. वह चाहे तो इसे किसी अख़लाक़ को भिजवा दें, किसी कलबुर्गी, पंसारे को या किसी उस मरीज़ को जो अस्पताल में मौत का इंतज़ार कर रहा हो."लेकिन दुर्भाग्य से उनके इस विरोध को एक भारतीय के नहीं बल्कि एक मुसलमान के विरोध पर ही तौर पर देखा गया. सोशल मीडिया पर उनके खिलाफ अभियान चल पड़ा, उनके बारे में बहुत ही अश्लील और असभ्य पोस्ट लिखे गये.
टी.वी बहसों में भी संघ परिवार के प्रवक्ता यही काम करते रहे.

आमिर बॉलीवुड के पहले ‘खान’ नहीं थे, जिन्होंने इन सबपर सवाल उठाया. सबसे पहले यह काम सैफ अली खान ने किया था. याद करें लव जिहाद के गरमाए माहौल में विश्व हिन्दू परिषद की महिला शाखा दुर्गा वाहिनी की पत्रिका “हिमालय ध्वनि” के कवर पर करीना कपूर को लव जेहाद का शिकार बताते हुए उनकी एक विवादित तस्वीर कवर पेज पर छापी गयी थी जिसमें करीना का आधा चेहरा साफ दिखाई दे रहा है तो वहीं आधा चेहरा बुर्के से ढका हुआ था और उस पर लिखा हुआ था ‘धर्मांतरण से राष्ट्रांतरण’. इस पर सैफ अली खान ने ‘हिन्दू-मुस्लिम विवाह जेहाद नहीं, असली भारत है’ नाम से एक लेख लिखा था. शाहरुख खान ने भी अपने 50वें जन्मदिन के मौके पर कहा था कि देश में ‘घोर असहिष्णुता’ है और वे भी ‘प्रतीकात्मक रुख’ के तौर पर अपना पुरस्कार लौटाने में नहीं हिचकेंगे, फिर क्या था इसके बाद भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने उन्हें 'देशद्रोही'बता दिया, आदित्यनाथ ने उनकी तुलना हाफ़िज़ सईद से कर डाली.

इसके बाद फिल्मी दुनिया के एक और सितारे आमिर ने भी कह दिया कि ‘मुझे लगता है देश में पिछले छह से आठ महीनों में निराशा की भावना बढ़ी है."इसी को समझाने के लिए उन्होंने कह दिया कि ‘उनकी पत्नी (किरण राव) ने इन सबसे परेशान होकर एक दिन उनसे कहा कि क्या उन्हें विदेश में जाकर रहना चाहिए.’आमिर ने यह भी कहा कि पत्नी ने जो कहा वह भयानक है. आमिर खान के इस बयान को गलत तरीके से पेश करते हुए यह बताया गया कि वे देश छोड़ने की बात कर रहे हैं. इसके बाद तो पूरा संघ परिवार, सरकार में बैठे लोग उन पर टूट पड़े. यहां तक कि प्रधानमंत्री ने अप्रत्यक्ष रूप से उन पर टिप्पणी की. चैनलों और सोशल मीडिया पर उनके और दूसरे खान सितारों के विरोध में नफरत भरे संदेशों की बाढ़ आ गयी. उनकी फिल्मों को बायकाट करने की अपील की गयी. ऑनलाइन शॉपिंग वेबसाइट स्नैपडील आमिर खान को अनइंस्टॉल करने का अभियान चलाया गया और आमिर को ब्रैंड एंबेस्डर से हटाने की मांग की गयी. बाद में आमिर भारत सरकार के ‘अतुल्य भारत’ अभियान से हटा दिए गए.

खान ब्रिगेड की कई दशकों से बॉलीवुड पर हुकूमत है और वे दर्शकों के चहेते बने हुए हैं, यही वजह है कि नफरत और विभाजन की राजनीति करने वाले हिन्दुत्ववादी संगठनों को खटकते रहे हैं. ये संगठन और उनके अनुयायी खान सितारों को उनके धर्म को लेकर पहले भी निशाने पर लेते रहे हैं. इस बार भी उन्हें बताया जा रहा है कि मुस्लिम होने के बावजूद जिस भारत ने उन्हें सितारा बनाया है, उसी को वे असहिष्णु कहते हुए एहसानफरामोशी कर रहे हैं जो कि देशद्रोह से कम नहीं है, लेकिन क्या मोदी सरकार या संघ परिवार आलोचना भारत की आलोचना हो जाती है?

चाहे साहित्य में मुनव्वर राना हों या फिल्मी दुनिया से आमिर और शाहरुख खान ये अपने क्षेत्रों में अकेले नहीं हैं जिन्होंने देश में बढती हुई असहिष्णुता के खिलाफ आवाज उठायी है, लेकिन जिस तरह की प्रतिक्रिया हो रही है, उनके मजहब को लेकर सवाल उठाए गये और उन्हें देशद्रोह तक कहा जा रहा है वह बहुत चिंताजनक है. यह एक ऐसा दौर है जहां फनकारों को उनका मजहब याद दिलाया जा रहा है.
मशहूर शायर निदा फाजली ने सही कहा है कि ‘असहिष्णुता फैलाने वाले लोग मुठ्ठी भर ही है.’शायद यह वजह है कि सारे दायरों को तोड़ते हुए निदा फाजली, मुनव्वर राना की शायरी और खान सुपरस्टारों की फिल्मों को पूरा देश पसंद करता है. जहां हमारी शायरी और फिल्मों की बात आती है, वहां सारी रेखायें मिट जाती है. भारतीयता का विचार भी तो यह है जिसे हम वर्षों से जीते आये हैं आने वाले दिनों में असली लड़ाई इसे बनाये और बचाए रखने की ही है.

[जावेद अनीस स्वतंत्र पत्रकार हैं और भोपाल में उनकी रिहाईश है. उनसे javed4media@gmail.comपर संपर्क किया जा सकता है.]

अब दिल्ली के उर्दू मीडियम स्कूलों में तालाबंदी...

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Afroz Alam Sahil, TwoCircles.net

नई दिल्ली :अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) और जामिया के अल्पसंख्यक दर्जा पर सरकार की ‘टेढ़ी नज़र’ के बाद अब नंबर उर्दू मीडियम स्कूलों का है. दिल्ली के कई उर्दू मीडियम स्कूलों पर गाज गिर चुकी है और कई पर अभी गाज गिरनी बाक़ी है.

एक ख़बर के मुताबिक़ पिछले दिनों पुरानी दिल्ली में 7 इलाक़ों के ईवनिंग शिफ्ट के उर्दू मीडियम स्कूलों को एमसीडी ने यह कहकर बंद कर दिया कि ईवनिंग स्कूल में बच्चे कम हैं.

जबकि इस इलाक़े के काउंसलर आल मुहम्मद इक़बाल का कहना है कि –‘एमसीडी ने जो फैसला लिया है, वो ग़लत है. वो अपनी नाकामियों को छिपाने की कोशिश कर रही है. बच्चे कम नहीं हैं, बल्कि टीचर कम हैं और जो हैं उनका शैक्षिक स्तर टीचर कहलाने लायक भी नहीं है. ऐसे में एमसीडी को उर्दू शिक्षकों की बहाली व पहले से मौजूद अपने टीचरों का शैक्षिक स्तर बढ़ाने के बारे में सोचना चाहिए न कि स्कूल ही बंद कर देना चाहिए.’

कांग्रेस लीडर महमूद ज़या भी बीजेपी व आम आदमी पार्टी पर आरोप लगाते हुए कहते हैं कि –‘उर्दू मीडियम स्कूलों को बंद करके सरकार उर्दू ज़बान को ही ख़त्म कर देने की साज़िश रच रही है. स्कूल में बच्चे न होने का बहाना ग़लत है. क्योंकि उसी पुरानी दिल्ली के गली शंकर वाली एक हिन्दी मीडियम स्कूल में सिर्फ़ 30 बच्चे पढ़ते हैं, लेकिन उसे तो किसी ने बंद नहीं किया.’

सिर्फ़ पुरानी दिल्ली ही नहीं, बल्कि पूरे दिल्ली में कई उर्दू मीडियम स्कूलों में ताला जड़ा हुआ है. कई उर्दू मीडियम में तालीम देने वाले स्कूल बंद हो चुके हैं. और जो बाक़ी बचे हैं, उनका इंफ्रास्ट्रक्चर लगभग ध्वस्त हो चुका है. वो इतने खस्ताहाल हैं कि उन्हें कभी भी बंद किया जा सकता है.

सच तो यह है कि न मौजूदा और न पिछली दिल्ली सरकारों ने इन स्कूलों की सुध लेने की कोशिश की. दूसरी तरफ़ मुसलमानों के बीच उर्दू तालीम को लेकर फैली उदासीनता भी एक बड़ी वजह है. उर्दू के नाम पर ऊंची आवाज़ों में नारे बुलंद करने वाले रहनुमा भी खुद के बच्चों को अब उर्दू मीडियम स्कूलों में भेजना नहीं चाहते.

आरटीआई के ज़रिए मिले अहम दस्तावेज़ यह बताते हैं कि दिल्ली में कुल 29444 शिक्षकों के पद रखे गए हैं, जिनमें उर्दू भाषा के लिए सिर्फ 262 शिक्षकों के पद ही रखे गए हैं. जबकि यह दस्तावेज़ बताते हैं कि इनमें भी सिर्फ 70 पदों पर ही शिक्षक कार्यरत हैं. 192 यानी 73% शिक्षकों के पद फिलहाल रिक्त हैं. हालांकि पिछले हफ्ते 32 उर्दू टीचरों के बहाली की ख़बर फिलहाल उर्दू अख़बारों के ज़रिए मिल रही है.

यह कहानी सिर्फ़ राजधानी दिल्ली की ही नहीं, बल्कि दूसरे राज्यों में भी उर्दू का यही हाल है. खास तौर पर राजस्थान, मध्यप्रदेश व महाराष्ट्र में सैकड़ों उर्दू मीडियम स्कूल बंद कर दिए गए हैं.

दरअसल, देश में अल्पसंख्यकों की तालीम को लेकर मचे घमासान के बीच उर्द स्कूलों की यह हालत इस बात की ओर इशारा करती है कि अल्पसंख्यकों के तालीम व उनकी ज़बान को लेकर देश की शिक्षा व्यवस्था का पूरा ढांचा किस क़दर चरमरा चुका है.

मुसीबत तो यह है कि एएमयू व जामिया जैसे बड़े-बड़े संस्थानों के नाम पर शोर-गुल भी मच जाता है और लोगों की निगाहें भी चली जाती हैं. लेकिन गुमनामी का धूल फांकते इन उर्दू मीडियम स्कूलों के नसीब में ये भी नहीं है. जबकि इनके हालत की ख़बर सरकार से लेकर नीतियां बनाने वाले और मुस्लिम रहनुमाओं व नुमाइंदों तक सभी को है. बावजूद इसके इन उर्दू मीडियम स्कूलों को बचाने की कोई भी क़वायद किसी के भी तरफ़ से शुरू नहीं की जा रही है. हद तो यह है कि एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जा को लेकर बयान देने वाले दिल्ली के मुख्यमंत्री भी इस मसले पर चुप्पी साथ लेते हैं. शायद यह भी उनकी सोची-समझी रणनीति का हिस्सा हो.

चोरी के इल्ज़ाम में उठाया गया था, लेकिन मुझे आतंकी बना दिया गया -अज़ीज़ुर्रहमान

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TwoCircles.net News Desk

लखनऊ :‘12 दिन की कस्टडी में यूपी एसटीएफ ने रिमांड में 5 लोगों के साथ लिया और बराबर नौशाद और जलालुद्दीन के साथ टार्चर किया जा रहा था, जिसे देख हम दहशत में आ गए थे कि हमारी बारी आने पर हमारे साथ भी ऐसा ही किया जाएगा. टार्चर कुछ इस तरह था कि बिजली का झटका लगाना, उल्टे लटका कर नाक से पानी पिलाना, टांगे दोनों तरफ़ फैलाकर खड़ाकर डंडा से पीटना, नंगा कर पेट्रोल डालना, पेशाब पिलाना इन जैसे तमाम जिसके बारे में आदमी सोच भी नहीं सकता, हमारे साथ किया जाता था. 6 दिन तक लगातार एक भी मिनट सोने नहीं दिया.'

यह बातें आज 8 साल 7 महीने लखनऊ जेल में रहने के बाद देशद्रोह के आरोप से दोषमुक्त हो चुके अजीर्जुरहमान ने रिहाई मंच द्वारा आयोजित लखनऊ के यूपी प्रेस क्लब में प्रेस वार्ता के दौरान कहा.

Azizur Rahman

24 परगना के बशीर हाट के रहने वाले 31 वर्षीय अजीर्जुरहमान ने बताया कि उसे 11 जून 2007 को सीआईडी वालों ने चोरी के इल्जाम में उठाया था. 16 जून को कोर्ट में पेश करने के बाद 22 जून को दोबारा कोर्ट में पेश कर 26 तक हिरासत में लिया. जबकि यूपी एसटीएफ ने मेरे ऊपर इल्जाम लगाया था कि मैं 22 जून को लखनऊ अपने साथियों के साथ आया था.

अब आप ही बताएं की यह कैसे हो सकता है कि जब मैं 22 जून को कोलकाता पुलिस की हिरासत में था तो यहां कैसे उसी दिन कोई आतंकी घटना अंजाम देने के लिए आ सकता हूं?

खैर, हमारा रिमांड ख़त्म होने के एक दिन पहले लखनऊ से बाहर जहां ईट भट्टा और एक कोठरी नुमा खाली कमरा पड़ा था, वहां ले जाकर गाड़ी रोका और मीडिया के आने का इंतजार किया. यहां लाने से पहले एसटीएफ वालों ने हमसे कहा था कि मीडिया के सामने कुछ मत बोलना.

इस बीच धीरेन्द्र नाम के एक पुलिसकर्मी ने सीमेंट की बोरी और फावड़ा लिया और कोठरी के अंदर गया फिर कोठरी के अंदर गड्डा खोदा, बोरी के अंदर से जो भी सामान ले गए थे, गड्डे के अंदर टोकरी में रख दिया. फिर जब सारे मीडिया वाले आ चुके तो हमको गाड़ी से निकालकर उस गड्डे के पास से एक चक्कर घुमाया जिसका फोटो मीडिया खींचती रही.

एसटीएफ वालों ने मीडिया को बताया कि ये आतंकी हैं जो कि यहां दो किलो आरडीएक्स, दस डिटोनेटर और दस हैंड ग्रेनेड छुपाकर भाग गए थे. इनकी निशानदेही पर यह बरामद किया गया है. मीडिया वाले बात करना चाह रहे थे पर एसटीएफ ने तुरंत हमें ढकेलकर गाड़ी में डाल दिया.

अजीजुर्रहमान ने बताया कि हम लोगों को जब यूपी लाया गया उस समय उसमें एक लड़का बांग्लादेशी भी था. पूछताछ के दौरान उसने बताया कि वह हिन्दू है और उसका नाम शिमूल है. उसके बाद दो कांस्टेबलों ने उसके कपड़े उतरवाकर देखा कि उसका खतना हुआ है कि नहीं. जब निश्चिंत हो गए की खतना नहीं हुआ है तो पुलिस वालों ने उससे कहा कि यह बात कोलकाता में क्यों नहीं बताया. उसके बाद दो कांस्टेबल उसे फिर से कोलकाता छोड़ आए. सिर्फ मुसलमान होने के नाते हमें आतंकी बताकर फंसा दिया गया.

पत्रकार वार्ता के दौरान जेल में कैद आतंकवाद के अन्य आरोपियों के बारे में सवाल पूछने पर अजीजुर्रहमान ने बताया कि उनके साथ ही जेल में बंद नूर इस्लाम की आंख की रौशनी कम होती जा रही है. लेकिन मांग करने के बावजूद जेल प्रशासन उनका इलाज नहीं करा रहा है.

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