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‘मौत को क़रीब से देखा तो ज़िन्दगी की असली क़ीमत का अंदाज़ा लगा’

फ़हमिना हुसैन, TwoCircles.net

रोहतास (बिहार) :रोटी, कपड़ा व मकान के साथ-साथ बेहतर स्वास्थ्य और शिक्षा… ये पांच ऐसी बुनियादी मानवीय आवश्यकताएं हैं, जिसे देश के हर नागिरक को उपलब्ध कराना एक जनवादी सरकार का फर्ज़ होता है.

1947 में जब मुल्क आज़ाद हुआ तो भारत की जनता से इसे उपलब्ध कराने का वादा सरकारी तौर पर किया गया. मगर 68 वर्षों के दौरान भारत की सरकारें एक-एक करके अपनी सभी ज़िम्मेदारियों को भूलती गईं. पहले जो महामारियां हज़ारों और लाखों लोगों को मौत की नींद सुला देती थीं, अब उनका आसानी से इलाज तो हो जाता है, लेकिन दूसरी तरफ़ आज भी हैज़ा, दस्त, बुख़ार जैसी मामूली बीमारियों से हज़ारों बच्चों की मौत हो जाना एक आम बात है.

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उत्तर प्रदेश और बिहार में मस्तिष्क ज्वार, कुत्ता काटने, सांप काटने से हर साल हज़ारों लोग मरते हैं, जबकि इसका टीका आसानी से उपलब्ध है. देशभर में लाखों लोग बीमारियों के कारण मर जाते हैं या जीवनभर के लिए अपंग हो जाते हैं. इसलिए नहीं कि इन बीमारियों का इलाज सम्भव नहीं है, बल्कि इसलिए कि या तो दवाएं वक़्त पर नहीं मिलतीं या फिर इलाज का खर्च उठा पाना उनके बस के बाहर होता है.

ग्रामीण विकास की ‘उजली तस्वीर’ का संबंध स्वास्थ्य सुविधाओं से भी है. ग्रामीण स्वास्थ्य सुविधाएं बढ़ी तो हैं, लेकिन ज़्यादातर सरकारी दस्तावेज़ों में… अस्पताल का भवन तो हैं, लेकिन डॉक्टर और अन्य स्टाफ का नामोनिशान नहीं है. इन अस्पतालों में इलाज तो की जा रही है, लेकिन पूरे लापरवाही के साथ…

नीतिश कुमार के पिछली सरकार में रामधनी सिंह के स्वास्थ्य मंत्री बनने के बाद रोहतास के लोगों में एक ख़ास उम्मीद जगी थी कि कम से कम ज़िले में स्वास्थ्य सेवा सुधरेगी, लेकिन उल्टे यहां चिराग तले अंधेरा वाली कहावत नज़र आई. मंत्री जी अपने घर के सामने के अस्पताल को भी नहीं सुधार पाएं.

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डेहरी ऑन सोन के अनुमंडल हॉस्पीटल में इलाज के लिए आए शिवपूजन सहाय (52) बताते हैं कि यहां टाईम का बहुत दिक्कत है. बंद होने का समय 12 बजे है, लेकिन11 बजे ही बंद हो जाता है. हम गावं से आते हैं, लेकिन डॉक्टर टाईम पर कभी मिलते ही नहीं, इसलिए इमरजेंसी में प्राईवेट अस्पताल जाना मजबूरी बन जाती है.

स्वास्थ्य सुविधाओं के नाम पर यहां के अस्पतालों में सरकार ने निशुल्क दवा योजना तो शुरू कर दी है, लेकिन यहां दवाइयां ही मौजूद नहीं हैं. डेहरी के अनुमंडल अस्पताल में एक डॉक्टर नाम न प्रकाशित करने के शर्त पर बताते हैं कि –‘सुबह अस्पताल पहुंचते ही दवाओं की एक लिस्ट थमा कर कह दिया जाता है कि आज यही दवाईयां मरीज़ों को लिखें.’

डेहरी अनुमंडल अस्पताल जिसमें इनडोर मेडिसिन सूची में 112 दवाओं की लिस्ट है, लेकिन यहां केवल 34 दवाएं ही फिलहाल उपलब्ध है. साथ ही आउटडोर मेडिसिन सूची के 35 दवाओ में से सिर्फ़ 12 दवायें ही मौजूद हैं. इसके अलावा पिछले 6 महीने से कुत्ता काटने का एंटी-डॉट्स मौजूद नहीं है.

जननी सुरक्षा योजना के अंतर्गत गर्भवती महिला को आयरन फोलिक एसिड की टेबलेट 7 महीने तक निशुल्क देनी होती है, लेकिन महिला वार्ड में मौजूद तमाम गर्भवती महिलाओं को ऐसी कोई सुविधा यहां नहीं दी जाती है.

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लापरवाही व बदहाली का आलम तो यह है कि यहां हर मर्ज़ के लिए एक ही दवा दी जाती है. उसमें भी अगर डॉक्टर ने चार दवा लिखी है तो सिर्फ़ दो ही दवा उपलब्ध होती है. हैरानी की बात यह है कि मामूली खांसी-सर्दी तक की दवा यहां मौजूद नहीं है. पूछने पर अधिकारी बताते हैं कि हम क्या कर सकते हैं. दवा ऊपर से ही नहीं आती है.

यहां इलाज के लिए आए अशोक के परिजनों का कहना है कि एम्बुलेंस के लिए घंटो फोन करने पर भी अस्पताल के किसी अधिकारी ने फ़ोन नहीं उठाया. यहां मौजूद दूसरे मरीज़ बताते हैं कि अस्पताल में अल्ट्रासॉउन्ड मशीन होने के बाद भी उन्हें बाहर से ज्यादा पैसे देकर अल्ट्रासॉउन्ड कराना पड़ता है.

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वापस निकलने के लिए जब अस्पताल के दरवाज़े पर आई तो वहां एक बूढ़े व्यक्ति को आंखें बंद किये रोते हुए पाया. उनका रोना मुझे पूछने पर मजबूर किया कि आखिर उनकी इस आंसू की वजह क्या है? मेरे पूछने पर उन्होंने बस इतना ही कहा –‘मौत को क़रीब से देखा तो ज़िन्दगी की असली क़ीमत का अंदाज़ा लगा और समझ में आया कि क्या कीमत है मेरी और मेरे अपनों की…’ इतना बोलते ही वो ज़ोर से रो पड़ें.

दरअसल, उनकी बेटी का प्रसव होने वाला था. लेकिन पिछले कई घंटों से कोई डॉक्टर या एएनएम का पता नहीं था. इतना ही नहीं, उनके बेटी को अस्पताल में भर्ती करने के पैसे भी मांगे गए थे, जबकि जननी सुरक्षा योजना के अंतर्गत कोई राशि लेने का प्रावधान नहीं है.

जब स्वास्थ सेवाओं के इन हालातों को अपनी नंगी आंखों से देखा तो असली मुश्किलों का अंदाज़ा हुआ. अपनी खुद की तकलीफ़ कम नज़र आने लगी. काश! हमारे सियासतदान उन सरकारी अस्पतालों में ही ‘अच्छे दिन’ ला पाते, जहां लोग तिल-तिल कर अपनी ज़िन्दगी की कीमत चुका रहे हैं…


क्या इल्ज़ाम लगने भर से कोई मुजरिम हो जाता है? : सम्भल के 'अलक़ायदा चीफ़'का भाई

By अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

सम्भल:16 दिसम्बर को दिल्ली पुलिस के स्पेशल सेल को एक बड़ी ‘कामयाबी’ हाथ लगी. अलक़ायदा के भारतीय उपमहाद्वीप के कथित ‘संस्थापक’ व ‘इंडिया चीफ़’ मो. आसिफ़ को दिल्ली में गिरफ़्तार किया गया. आसिफ़ उत्तर प्रदेश के सम्भल के दीपासराय मोहल्ले का रहने वाला है.

स्थानीय अख़बारों के मुताबिक़ आसिफ़ की गिरफ़्तारी की ख़बर मिलते ही परिवार वाले मकान पर ताला लगाकर कहीं चले गए. मोहल्ले वाले कुछ भी बोलने से बचते रहे. कोई पड़ोसी भी कुछ बताने को तैयार नहीं हैं.


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मो. आसिफ़ के भाई सादिक़

किसी अख़बार ने आसिफ़ को 20 सालों से गायब बताया तो किसी ने बताया कि वह पिछले तीन साल दिल्ली में नेटवर्क तैयार कर रहा था. लेकिन 22 दिसम्बर को जब TwoCircles.netकी टीम सम्भल के दीपासराय में पहुंची तो स्थानीय लोगों व घर के सदस्यों की बातें बिलकुल इसके विपरित थीं.

पता चला कि पांचवी पास इस ‘अलक़ायदा चीफ़’ के पास फिलहाल रहने को अपना घर भी नहीं है. किराये के मकान के एक कमरे में उसका पूरा परिवार रहता है. इस मकान का 1500 रूपये का किराया भरने के लिए भी उसे कई बार सोचना पड़ता है. पैसे न होने के कारण उसके 10 साल के बच्चे की तालीम बीच में ही रूक गई. हर रविवार दिल्ली के लाल किला के पीछे लगने वाले चोर बाज़ार से पुरानी चीज़ें खरीद कर अपने मोहल्ले के लोगों से कुछ मुनाफ़े के साथ बचता है, उसी मुनाफ़े की रक़म से उसका परिवार चल पाता है.


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मो. आसिफ़ की बीवी आफ़िया परवीन

आसिफ़ के भाई सादिक़ दीपासराय में लेडीज़ कपड़ों के दर्जी हैं लेकिन उनकी दुकान अभी बंद है. सादिक़ बताते हैं, 'इन दिनों मोहल्ले में शादियां खूब हैं. इसलिए काम भी बहुत था, लेकिन क्या करें? सारे काम लौटा दिए.’

सादिक़ मीडिया की रिपोर्टिंग से नाराज़ हैं, वे कहते हैं, ‘आख़िर आप लोग इतनी नफ़रत लाते कहां से हो? क्या इल्ज़ाम लगने भर से कोई मुजरिम हो जाता है? मुजरिम तो कोई तब होता है, जब हमारी अदालत साबित कर देती है. लेकिन आप उससे पहले ही उसे आंतकवादी और न जाने किन-किन शब्दों से नवाज़ना शुरू कर देते हो. आप ही बताओं ये कहां की इंसानियत है? आख़िर मीडिया भी तो इंसान ही चलाता है, कोई एलियन आकर चला नहीं रहा है. कम से कम थोड़ी तो इंसानियत रखो. मीडिया ने तो इस तरह से मेरे भाई को बनाकर खड़ा कर दिया है कि ओसामा शायद मरा नहीं है, संभल में ज़िन्दा है.’ यह बोलते-बोलते सादिक़ की आंखें नम हो जाती है और वह रो पड़ते हैं.

उदास लफ़्ज़ों में वे कहते हैं, ‘कोई भी मज़हब इसांनियत के ख़िलाफ़ नहीं होता. आप चाहे जिस मज़हब के हो, कम से कम इंसानियत तो रखो.’

सादिक़ का दर्द उनकी बातों में साफ़ झलकता है. सादिक़ चिंतित हैं कि उनके वालिद का अब क्या होगा? वे कहते हैं, 'वालिद की हालत ख़राब हो गई है. बुढ़ापे में इस सदमे को वे कैसे बर्दाश्त कर पा रहे होंगे. नींद की गोली देकर उन्हें सुलाया है.'

बकौल सादिक़, मीडिया की ख़बरें बता रही हैं कि हम घर छोड़कर भाग गए हैं. अरे हम कहां भागे हैं. हम तो यहीं हैं. आसिफ़ तो यहीं रहता है. सिर्फ़ रविवार को दिल्ली जाता था पुराने सामान लाने, जिसे बेचकर वो अपना परिवार चला रहा था. 23 जून 2013 को वो सऊदी गया था, पर अक्टूबर 2014 में ही लौट आया. वहां पैसे कम मिल रहे थे. यहां ज़्यादातर लोग अब बाहर जाना पसंद नहीं करते क्योंकि वो यहीं मेहनत करके उतना कमा लेते हैं.

सादिक़ बताते हैं, ‘डॉक्टर कहते है कि एड्स छूने या साथ बैठने से नहीं फैलता है, लेकिन जैसे ही पता चलता है कि अमूल इंसान एड्स का मरीज़ है तो लोग मिलने से भी घबराते हैं. हमारा मामला तो एड्स से भी ज़्यादा खतरनाक है. हम जिसके पास भी जाते हैं, वह अजीब-सी नज़रों से देखता है. अब आप ही बताईए कि हम क्या करें? हमारे पास तो केस लड़ने के भी पैसे नहीं हैं. हम तो रोज़ कुआं खोदते हैं और पानी पीते हैं. हमारे पास तो दिल्ली जाने के भी पैसे नहीं हैं.’

आसिफ़ की बीवी आफ़िया परवीन का भी कहना है, ‘पता नहीं, यह सब हमारे साथ ही क्यों हो रहा है. मेरे पति आतंकी हो ही नहीं सकते.’

आफ़िया परवीन बताती हैं, 'रविवार को वे सुबह ही उठकर दिल्ली गए थे. जब दिन में मैंने फोन किया तो वो बंद आ रहा था. शाम में उनका फोन आया. बता रहे थे कि फोन बंद हो गया था. घर पर उनका एक टच स्क्रीन वाला मोबाइल रखा हुआ था. मुझसे बोले कि अभी एक आदमी घर जाएगा, वो मोबाइल उसे दे देना. तुरंत ही एक आदमी आया, जिसे मेरे बच्चे ने मोबाइल दे दिया. उसके बाद से उनसे कोई बात नहीं हुई. टीवी के ख़बरों से मालूम हुआ कि उन्हें पुलिस ने पकड़ा है.'

आफ़िया परवीन कहती हैं, ‘मेरा बच्चा बता रहा है कि जो आदमी मोबाइल लेने आया था, वही आदमी अखबार में छपी फोटो में आसिफ़ के बगल में खड़ा है.’

आफ़िया के मुताबिक़ इन दिनों पैसे की काफी तंगी चल रही है. अपनी परेशानियों के बारे में बताते हुए वे कहती हैं, 'आज तक हमारा घर नहीं बन पाया. हम किराए के घर में रह रहे हैं. 1500 रूपये हर महीने किराया देना पड़ता है. बच्चों के स्कूल की फीस भी नहीं हो पा रही थी इसलिए लड़के की पढ़ाई छुड़वा दी. 7 साल की लड़की अभी भी पढ़ रही है. लड़का अभी दस साल का है. दोनों बच्चों को अपने अब्बू का इंतज़ार है.'

क्या सोचते हैं ‘अल-क़ायदा चीफ़’ के गांव के लोग?

By अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

सम्भल:उत्तर प्रदेश का सम्भल जिला इन दिनों चर्चा के केंद्र में है. लेकिन यह चर्चा इसकी खूबियों को लेकर नहीं, बल्कि कथित ‘अलक़ायदा चीफ़’ की रिहाइश होने की ख़बरों को लेकर है.

इसी सम्भल के दीपासराय मोहल्ले के दो लोगों को सुरक्षा जांच एजेंसी ने आतंकी संगठन अलक़ायदा से जोड़ते हुए गिरफ़्तार किया है. यही नहीं, इनके मुताबिक़ दीपासराय में ही अलक़ायदा के दक्षिण एशिया के प्रमुख मौलाना आसिम उमर उर्फ़ सनाउल हक़ का भी घर है. वहीं दिल्ली में गिरफ़्तार आसिफ़ को अलक़ायदा के भारतीय उपमहाद्वीप के संस्थापक के साथ-साथ ‘इंडिया चीफ़’ बताया गया है, जबकि मुरादाबाद से गिरफ़्तार ज़फर मसूद पर अलक़ायदा के लिए पैसे जुटाने के आरोप हैं.


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सम्भल के स्थानीय लोगों में जांच एजेंसियों के इस आरोप के बाद डर व गुस्सा साफ़ देखा जा सकता है. ज़्यादातर स्थानीय लोग इसे साज़िश बताते हैं और कहते हैं कि ‘ये सब 2017 चुनाव की तैयारी है.’

दिल्ली के स्पेशल सेल द्वारा सम्भल के दो लोगों की गिरफ़्तारी के बाद पूरा शहर चिंताग्रस्त है. उन्हें यह समझ नहीं आ रहा है कि उनके साथ उठने-बैठने वाला आसिफ़ इतना बड़ा ‘आतंकी’ कैसे हो सकता है? क्या अलक़ायदा का स्तर इतना नीचा है कि आसिफ़ जैसे 5वीं पास को अपना इतना बड़ा पद दे दिया?

लोगों की चिंता इस बात की भी है कि हमेशा उनके साथ रहने वाला 5वीं पास आसिफ़ कैसे इंटरनेट सोशल मीडिया का इस्तेमाल करके लोगों को अपने साथ जोड़ रहा था. यहां के स्थानीय लोगों का स्पष्ट कहना है कि मीडिया चाहे जो कहे आसिफ़ आतंकी नहीं हो सकता. यह उनके शहर, उनके मोहल्ले को बदनाम करने की साज़िश है.

दीपासराय के मो. मुस्लिम गुस्से में सरकार पर आरोप लगाते हैं, ‘जिस शहर में मुसलमान तरक़्क़ी करने लगता है, वहां पहले दंगा कराकर मुसलमानों को कमज़ोर बनाया जाता था, पर अब दंगा करा पाना जब संभव नहीं दिख रहा है, तो सरकार यह रास्ता अपनाती है. पहले यूपी के आज़मगढ़ को टारगेट किया गया था, अब निशाने पर हमारा सम्भल है.’

मो. मुस्लिम बताते हैं, ‘खासतौर पर दीपासराय मोहल्ले में तालीम के प्रति लोगों में रूझान काफी बढ़ा है. लोग अब लड़कियों को भी पढ़ाने लगे हैं. वहीं पहले जहां यहां के मुसलमान गल्फ देशों में जाकर मजदूरी करते थे, अब वे लोग शहर में ही मेहनत करने लगे हैं. इस मोहल्ले के कई लोग अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी व जामिया मिल्लिया इस्लामिया में प्रोफ़ेसर हैं. शायद यही बात हुकूमत को पसंद नहीं आ रही है.’

TwoCircles.net ने दीपासराय के कई लोगों से बात की और उनकी सोच को जानने व समझने की कोशिश की. यहां के स्थानीय लोगों ने न सिर्फ़ बेबाक तरीक़े से जवाब दिया, बल्कि सरकार व जांच एजेंसियों के मंसूबों पर सवाल भी उठाए. उन्हीं बातचीत से संबंधित कुछ वीडियो आप नीचे देख सकते हैं :



सम्भल को बदनाम करने की साज़िश बर्दाश्त नहीं की जाएगी –शफ़ीक़ुर्रहमान बर्क़

By अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

सम्भल:कथित ‘अलक़ायदा आतंकी’ की गिरफ़्तारी के बाद चर्चा में आए उत्तर प्रदेश के सम्भल जिले के स्थानीय लोग सकते में हैं. TwoCircles.net ने कई बार सांसद रहे यहां के कद्दावर नेता डॉ. शफ़ीक़ुर्रहमान बर्क़ से बातचीत की और जाना कि वे क्या सोचते हैं.


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डॉ. बर्क़ का कहना है, ‘इस तरह का झूठा इल्ज़ाम लगाकर हमारी बस्ती को, हमारे शहर को, हमारे सम्भल को बदनाम करने की कोशिश की जा रही है. इसको बचाने के लिए हर मुमकिन कोशिश करेंगे, हर कुर्बानी देंगे क्योंकि यह हमारे साथ नाइंसाफ़ी है. यह संभल को बदनाम करने की कोशिश है. यहां पूरा शहर एक साथ है. सब मिलकर जद्दोजहद करेंगे.’

डॉ. बर्क़ का स्पष्ट तौर पर कहना है, ‘पहले आज़मगढ़, मालेगांव... यानी जहां-जहां मुस्लिम बहुल इलाक़े हैं, उन्हें किसी न किसी तरह से टारगेट किया जाता रहा है. लेकिन जब से मोदी सरकार सत्ता में आई है, ये चीज़ें और बढ़ती जा रही हैं. उनका मक़सद तो यह है कि देश के हालात बिगाड़ें, हर जगह झगड़ा-फ़साद कराएं. ‘सबका साथ –सबका विकास’ कहने की बात है, उस पर कोई अमल नहीं है. कथनी व करनी में फ़र्क़ पूरा देश देख रहा है.’


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डॉ. बर्क़ सुरक्षा एजेंसियों द्वारा इस गिरफ़्तारी को राजनीति से प्रेरित क़दम मानते हुए बताते हैं, ‘यह पॉलिटिकली मोटिवेटेड क़दम है. इलेक्शन के फ़ायदे को ध्यान में रखने के लिए ऐसा किया जा रहा है, ताकि यहां का वोटर डरा रहे और अपने वोटों का सही इस्तेमाल न कर सके.’ हालांकि डॉ. बर्क़ का यह भी कहना है कि हिन्दुस्तान की इतनी बड़ी आबादी में, किसी शहर में कोई आदमी ग़लत हो सकता है. मगर इसका मतलब यह थोड़े ही ना है कि पूरी आबादी को बदनाम करें, उन्हें प्रताड़ित करे. वे कहते हैं, 'ईमानदारी से जांच कीजिए. अगर ग़लत है तो क़ानून के मुताबिक़ उसे सज़ा दें. लेकिन किसी के साथ महज़ शक की बुनियाद पर आप ज़्यादती करेंगे तो हम इसे बिल्कुल बर्दाश्त नहीं करेंगे. चाहे इसके लिए हमें सड़कों पर आना पड़ा. चाहे हमें कुछ भी करना पड़े.’

डॉ. बर्क़ इस मामले में जल्दी ही पीएम मोदी व गृहमंत्री राजनाथ सिंह से मुलाक़ात करेंगे.

अलक़ायदा’ पर चुटकी लेते हुए डॉ. बर्क़ कहते हैं, ‘आसिफ़ जैसा गरीब आदमी जो अपने बच्चों का पेट तक नहीं पाल पा रहा है, ‘अलक़ायदा’ का चीफ़ हो सकता है? तो फिर ‘अलक़ायदा’ क्या है?’

डॉ. बर्क़ का कहना है, ‘यह देश मुसलमानों का भी है. क्या हमने इस देश की आज़ादी की लड़ाई नहीं लड़ी है? क्या हमने कुर्बानियां नहीं दी हैं? फांसी के फंदे को नहीं चूमा है? अगर मुसलमान साथ न होता तो क्या ये मुल्क आज़ाद हो पाता? हम वफ़ादार थे और वफ़ादार रहेंगे.’

वे आगे सवालिया अंदाज़ में पूछते हैं, ‘इस देश में गांधी का क़त्ल किसने किया? इंदिरा गांधी व राजीव गांधी को किसने मारा? क्या वे हिन्दू नहीं थे? जिन्होंने देश के महत्वपूर्ण दस्तावेज़ों को पाकिस्तान से बेच डाला वो हमने सर्टिफिकेट मांगेगे? क्या वीर अब्दुल हमीद उन्हें याद नहीं? क्या ब्रिगेडियर उस्मान ने अपनी जान देकर कश्मीर को नहीं बचाया? मैं आपको बता दूं कि अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ जिहाद का सबसे पहला फ़तवा मौलाना फ़ज़ले खैराबादी ने दिया. भारत में 40 करोड़ मुसलमान हैं. क्या इनको साथ लिए बग़ैर ये मुल्क चल सकता है?’

स्पष्ट रहे हैं कि 85 साल के डॉ. शफ़ीक़ुर्रहमान बर्क़ संभल सीट से चार बार (1974, 1977, 1985, और 1989) उत्तर प्रदेश विधानसभा के विधायक रह चुके हैं. 1990-91 में वो यूपी के कैबिनेट मंत्री थे. उसके बाद 11वीं, 12वीं, 14वीं व 15वीं लोकसभा चुनाव में इस ज़िला से जीत दर्ज करके सांसद भी बने. डॉ. बर्क़ भी संभल के दीपासराय इलाक़े में रहते हैं.







‘अगर सरकार वाक़ई आतंकवाद के ख़िलाफ़ है, तो सबसे पहले आरएसएस पर बैन लगाए’ –आप विधायक अमानतुल्लाह खान

अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

दिल्ली : दिल्ली में सत्तासीन आम आदमी पार्टी के ओखला विधायक अमानतुल्लाह ख़ान ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) को बैन करने की मांग उठाई है.

TwoCircles.net से ख़ास बातचीत में अमानतुल्लाह ख़ान ने आरएसएस पर आरोप लगाया है कि ये संस्था पहले से ही अराजक गतिविधियों में लिप्त रहा है. लेकिन केन्द्र में भारतीय जनता पार्टी का सरकार होने का इसको सीधा फ़ायदा मिल रहा है. सरकार ध्यान बंटाने के लिए दूसरे तबक़ों पर कार्रवाई कर रही है, मगर असल जड़ की ओर ध्यान नहीं दे रही है.

अमानतुल्लाह खान ने दिल्ली पुलिस स्पेशल सेल द्वारा संभल के दीपासराय के मो. आसिफ़ को अल-क़ायदा के ‘इंडिया चीफ़’ बताए जाने पर प्रश्न खड़ा किया है. वो बताते हैं कि –‘जिस तरह से आसिफ़ की कहानी दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल बता रही है, उसमें और उसके मुहल्ले व घर के लोगों द्वारा बताए जा रहे कहानी में काफी अंतर है. इसलिए सरकार को इसके लिए अलग से जांच बैठानी चाहिए.

अमानतुल्लाह खान का कहना है कि –‘जब से केन्द्र में मोदी की सरकार आई है, तब से ये लगातार कोशिश कर रही है कि देश के मुसलमानों को दहशतगर्दी के मामले में फंसाए. आज यह तो ज़रूर कहते हैं कि हर मुसलमान दहशतगर्द नहीं होता, लेकिन हर दहशतगर्द का तार मुसलमानों के साथ ज़रूर जोड़ दिया जाता है.’

अमानत कहते हैं कि –‘अगर सरकार वाक़ई दहशतगर्दी के ख़िलाफ़ है, तो सबसे पहले आरएसएस पर पाबंदी लगाए, क्योंकि आरएसएस सबसे बड़ी दहशतगर्द तंज़ीम है.’

वो बताते हैं कि –‘इस आरएसएस पर इस मुल्क में चार बार पाबंदी लग चुकी है. मुल्क में कई बम ब्लास्टों में इनका हाथ सामने आ चुका है. चाहे वो मक्का मस्जिद ब्लास्ट हो, या फिर मालेगांव, अजमेर या समझौता एक्सप्रेस का ब्लास्ट. इस सारे ब्लास्टों में इनके लोग शामिल थे. आज़ादी से लेकर अब तक यह संगठन मुल्क को नुक़सान ही पहुंचाने का काम किया है.’

स्पष्ट रहे है कि अमानतुल्लाह खान आम आदमी पार्टी के ओखला से विधायक हैं. इसके पहले वो रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी में शामिल थे. अब लोक जनशक्ति पार्टी केन्द्र बीजेपी के साथ सरकार में शामिल है.

विहिप अयोध्या साज़िश के ख़िलाफ़ ‘चिश्ती सद्भावना यात्रा’

अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

हिन्दू संतों के भीतर से ही सामाजिक सौहार्द और समरसता की आवाज़ें उभर कर सामने आ रही हैं. एक तरफ़ जहां अयोध्या में कुछ हिन्दुत्ववादी संगठन पत्थर तराशने और राम मंदिर का निर्माण करवाने का ऐलान करके माहौल ख़राब करने की कोशिश में लगे हुए हैं, वहीं अयोध्या की ज़मीन से जुड़े कुछ लोग ‘चिश्ती सद्भवना यात्रा’ निकाल कर इस मुल्क को अयोध्या की सांझी विरासत से रूबरू कराने में जुटे हुए हैं.

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अयोध्या की फ़िज़ाओं में नफ़रत का घोलने वालों के ख़िलाफ़ आपसी सौहार्द का पैग़ाम लेकर अयोध्या के ही महंत युगल किशोर शास्त्री खुलकर सामने आए हैं. वो इन दिनों 22 दिसंबर से 27 दिसंबर तक ‘चिश्ती सद्भावना यात्रा’ पर थे. 636 किलोमीटर का सफ़र तय करके शास्त्री कल दिल्ली पहुंचे. ये उनकी 24वीं यात्रा थी.

इस यात्रा की समाप्ती पर आज 28 दिसम्बर को दिल्ली के वूमेन प्रेस क्लब में समाजसेवी शबनम हाशमी, अपूर्वानंद व जॉन दयाल द्वारा युगल किशोर शास्त्री व उनकी टीम का अभिनन्दन करते हुए उनके कामों की सराहना की.

उसके बाद एक प्रेस वार्ता के ज़रिए अपनी बातों को लोगों के सामने रखा. युगल किशोर शास्त्री ने भी अपनी बातों को खुलकर सबके रखा और कहा कि यह उनकी 24वीं यात्रा है. इसके बाद भी वो पूरे मुल्क में साम्प्रदायिक ताक़तों के ख़िलाफ़ जन-चेतना यात्रा की लौ जलाए रखेंगे और विभाजनकारी ताक़तों से लोगों को आगाह करते रहेंगे.

युगल किशोर शास्त्री यहां मौजूद लोगों को अपने यात्रा और अपने जीवन के कई घटनाओं से रूबरू कराया. उन्होंने बताया कि फ़ैज़ाबाद में एक प्रेस क्लब का संस्थापक हूं. लेकिन जब स्थापना के कुछ ही दिनों के बाद वहां भगवान का पोस्टर देखा तो इस्तीफ़ा दे दिया. उनका कहना था –‘प्रेस न तो हिन्दू होता है, और न मुसलमान तो फिर प्रेस क्लब में भगवान की मूर्ती या फोटो क्यों?’

उन्होंने कहा कि –‘अयोध्या में बाबरी मस्जिद था, इससे किसी को इंकार नहीं होना चाहिए. इसको गिराने वालों का नारा भी सबको याद होगा –‘एक धक्का और दो, बाबरी मस्जिद तोड़ दो.’ यानी वो मस्जिद को ही गिराने की बात कर रहे थे.’ उन्होंने अपने सुझाव के तौर पर कहा कि –‘अयोध्या में न मस्जिद बने, ना मंदिर, बल्कि विवादित जगह को राष्ट्रीय पवित्र धरोहर घोषित किया जाए. और उसके आस-पास की घेराबंदी करके अस्पताल का निर्माण किया जाए.’

जॉन दयाल ने कहा कि –‘ये पत्थर बड़ी ख़तरनाक चीज़ है. इससे एक तरफ़ बड़े-बड़े घर बनते हैं, वहीं दूसरी तरफ़ लोगों के घरों व अरमानों को भी तोड़ जाते हैं.’

वहीं अपूर्वानंद ने अपनी बातों को रखते हुए कहा कि –‘दुर्भाग्य से हमने ज़्यादातर यात्राएं देश को तोड़ने वाली ही देखी हैं, लेकिन शास्त्री जी की ये 24वीं यात्रा देश को जोड़ने वाली साबित होगी.’

अपूर्वानंद ने स्पष्ट तौर कहा कि –‘हम उसे विवादित जगह नहीं मानते. बल्कि 1949 में वहां मूर्ति रखकर उसे विवादित बनाया गया. ऐसे में हमारी तरफ़ से ऐसा कोई पैग़ाम नहीं जाना चाहिए कि वहां सर्व-धर्म स्मारक बने, बल्कि वो मस्जिद थी. मस्जिद हर मुहल्ले में होती है. इसका समाधान स्थानीय लोग करें.’

दरअसल, युगल किशोर शास्त्री इकलौती ऐसी आवाज़ नहीं हैं. और भी कई आवाज़ें हैं, जो मुल्क के अलग-अलग हिस्सों में साम्प्रदायिक सौहार्द के लिए जी-जान से जुटी हुई हैं. ज़रूरत इनको समय रहते पहचानने का है और इनकी आवाज़ को घर-घर तक ले जाने का है.

सज़ा पूरी पर अभी भी हैं जेलों में बंद...

अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

नेशनल क्राईम रिकॉर्ड ब्यूरो के ताज़े आंकड़ों के मुताबिक़ देश के विभिन्न जेलों में 1326 क़ैदी ऐसे हैं, जिन्होंने अपनी मुक़र्रर सज़ा काट ली है, लेकिन जुर्माना न भर पाने की वजह से अभी भी जेलों में बंद हैं. इनमें 27 महिला क़ैदी हैं. पुरूष क़ैदियों की संख्या 1299 है.

यह संख्या सबसे अधिक अंडमान-निकोबार में है. यहां 424 क़ैदी ऐसे हैं जिनकी तय सज़ा की मियाद पूरी हो चुकी है, पर अभी भी यह जेलों में बंद हैं. जबकि दूसरा स्थान उत्तर प्रदेश का है. यहां 372 क़ैदी सज़ा मुकम्मल होने के बाद भी जेलों में हैं. इसमें 13 महिला क़ैदी भी शामिल हैं.

स्पष्ट रहे कि पिछले साल ही सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया है कि जो अंडर-ट्रायल क़ैदी मुक़दमों का सामना कर रहे हैं, अगर वो उस जुर्म के लिए निर्धारित सज़ा का आधा समय जेल में बिता चुके हैं. तो उन्हें रिहा कर दिया जाए.

इस बारे में सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में ही निचली अदालतों को इस काम को दो महीने में पूरा करने के निर्देश दिया था. लेकिन अंडर-ट्रायल क़ैदियों की कौन कहे, सज़ा मुकम्मल होने के बाद भी लोग जेल में ही हैं.

हालांकि आंकड़ें बताते हैं कि साल 2014 में 13,95,121 अंडर ट्रायल कैदियों को रिहा किया गया. इन्हें रिहा कर देने के बाद अब भी 2,82,879 क़ैदी यानी 67.6 फीसदी अभी भी अंडर ट्रायल हैं. यही नहीं, 3,237 लोगों को सिर्फ शक की बुनियाद पर गिरफ्तार किया गया है. वहीं यदि 2013 की बात करें तो नेशनल क्राईम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक़ उस समय देश के विभिन्न जेलों में 3044 क़ैदी ऐसे थे, जिन्होंने अपनी मुक़र्रर सज़ा काट ली थी, लेकिन जुर्माना न भर पाने की वजह से अभी भी जेलों में बंद थे.

यह कितना हास्यापद है कि देश में जहां एक तरफ़ हाई प्रोफ़ाइल व प्रभावशाली व्यक्तियों को बड़े आसानी से राहत मिल जा रही है, तो वहीं देश के विभिन्न जेलों में हज़ारों ग़रीब क़ैदी अपनी सज़ा मुकम्मल हो जाने के बाद भी जेलों में बंद हैं.

बीजेपी को अपने राज्यों में जंगल-राज नज़र क्यों नहीं आता? –जदयू प्रवक्ता निहोरा यादव

TwoCircles.net News Desk

बिहार को जंगलराज कहकर प्रचारित करने वालों पर बिहार प्रदेश जनता दल (यूनाइटेड) के प्रवक्ता डॉ. निहोरा प्रसाद यादव ने करारा प्रहार किया है.

उन्होंने आज अपने एक प्रेस बयान में कहा कि –‘दरअसल बिहार में मिली करारी हार की पीड़ा को भाजपा नेता छुपा नहीं पा रहे हैं. इनकी यह पीड़ा इस क़दर है कि वो सारे नैतिकता को ताक पर रखकर मुख्यमंत्री के शपथ लेने से पहले ही सरकार की आलोचना शुरू कर दिए थे.’

डॉ यादव का कहना है कि –‘भाजपा जल्दबाज़ी में वैसे मुद्दे उठा रही है जिनसे वह खुद कठघरे में आ जाती है. बिहार में कोई भी मुद्दा उठाने के पहले उसे सोचना चाहए कि भाजपा शाषित राज्यों की क्या स्थिति है. पड़ोसी राज्य झारखंड, जहां भाजपा की ही सरकार है, वहां सिर्फ़ अक्टूबर महीने में ही 1601 हत्याएं हुई हैं, जबकि बिहार में अक्टूबर महीने में हत्या से संबंधित 273 मामले ही दर्ज हुए हैं. छिटपुट होने वाली एक-दो दुखद घटनाओं को लेकर भाजपा नेता जिस प्रकार राजनीत कर रहे हैं, वह निंदनीय है.’

आगे उन्होंने कहा कि –‘भाजपा अपने को किसानों का शुभचिंतक बताने की कोशिश कर रही है. यदि ऐसा वाक़ई में है तो इनके नेता नरेन्द्र मोदी द्वारा घोषत उत्पादन लागत पर 50 प्रतिशत मुनाफ़ा जोड़कर समर्थन मूल्य निर्धारण क्यों नहीं किया गया? भाजपा नेता यदि इसके लिए आन्दोलन करते तो लगता कि वे वाक़ई किसानों के शुभचिंतक हैं. पर देश क्या. पूरी दुनिया जानती है कि भाजपा कारपोरेट घरानों के हितो की रक्षा करने वाली पार्टी है. दरअसल, जिन राज्यों में इनकी सरकार नहीं है, वहां अनर्गल बातों को उठाकर भाजपा नेता अराजकता पैदा करने की कोशश कर रहे हैं.’

डॉ निहोरा प्रसाद यादव ने कहा कि –‘ बिहार में क़ानून का राज्य स्थापित करने के लिए मुख्यमंत्री कृतसंकल्पित हैं. मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के दूसरे दिन से ही वो कामकाज में लग गए हैं. बिहार के विकास की योजनाएं बनाई जाने लगीं हैं और घोषणाओं को ज़मीन पर उतारा जाने लगा है. इससे भाजपा काफी घबड़ा गयी है. इसी घबराहट में ऐसी बातें किये जाने लगें जिसका कोई मायने नहीं है.’


अमेरिकन फेडरेशन ऑफ़ मुस्लिम्स ने किया मेवात के होनहार बच्चों को सम्मानित

By TCN News,

आपकी नज़र में मेवात की चाहे जो भी इमेज हो, लेकिन यह सच है कि मेवात में प्रतिभाओं की कमी नहीं है. बस उनको खोजने के लिए पारखी नज़र चाहिए. इन्हीं प्रतिभाओं पर पहली नज़र पड़ी है –अमेरिकन फेडरेशन ऑफ़ मुस्लिम्स ऑफ इंडियन ऑरिजीन और नई दिल्ली के ह्यूमन वेलफेयर फाउंडेशन की.

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इन दोनों संस्थाओं ने मेवात की प्रतिभाओं का जांचा-परखा और उन्हें सम्मानित किया. खास तौर पर मेवात के 10वीं व 12वीं के सौ बच्चों को नक़द पुरूस्कार, मेडल और सर्टिफिकेट से नवाज़ा और आगे की ज़िन्दगी में शीर्ष तक जाने के लिए प्रेरित किया.

इसके साथ ही ग्लोबल वेलफेयर फाउंडेशन की ओर से मेवात की धरती से जुड़े कुछ प्रसिद्ध व्यक्तित्व को ‘मेवात रत्न’ से सम्मानित किया गया.

मेवात के भादस इलाक़े के अल-फ़लाह मॉडल स्कूल में आयोजित इस सम्मान समारोह कार्यक्रम में अमेरिकन फेडरेशन ऑफ़ मुस्लिम्स के डॉ. अब्दूर रहमान व एस. नाकादर मुख्य अतिथी थे. वहीं भारत सरकार के भाषाई अल्पसंख्यकों के विभाग के नेशनल कमिश्नर बतौर ख़ास मेहमान शामिल रहें. इस कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रो. मंज़ूर अहमद (रिटायर्ड आईपीएस) कर रहे थे. वहीं हरियाणा सरकार के पूर्व परिवहन मंत्री चौधरी आफ़ताब अहमद और कनाडा से आए मो. अयूब अली ख़ान व इक़रा कुरैशी इस कार्यक्रम के सम्मानीय अतिथी थे.

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स्पष्ट रहे कि आज मेवात का नौजवान हर क्षेत्र में जोर आज़माइश करने को तैयार है. ऐसे में वो दिन दूर नहीं, जब मेवात भारत के नक्शे पर अपने हुनर के सितारे से चमक बिखेरेगा और यही शिक्षित युवा दुनिया में भारत का नाम रोशन करेंगे.

इस कार्यक्रम का संचालन कर रहे ओज़ैर ख़ान का कहना है –‘यक़ीन जानिए! अगर ऐसे ही मेवात की प्रतिभाओं की समय-समय पर सराहना और उनके मंजिल पाने की सही दिशा की रहनुमाई की जाती रही तो मेवात के यह युवा पूरी दुनिया में अपने मुल्क का नाम रौशन ज़रूर करेंगे. दरअसल, ऐसे सम्मान कार्यक्रम युवाओं में जोश भरने का काम करता है और उनकी कामयाबी के लिए दोधारी तलवार की तरह काम करता है.’

बिहार में ज़मीन का हक़ अल्पसंख्यकों को क्यों नहीं?

अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

बिहार में भूमिहीन दलितों को ज़मीन देने की नीतिश सरकार की पहल अब अगड़े तबक़े के भूमिहीन गरीबों तक भी पहुंचेगी, इस बात का ऐलान खुद नीतिश सरकार के राजस्व एवं भूमि सुधार मंत्री मदन मोहन झा ने एक प्रेस बयान में कर दिया है.
उन्होंने अपने बयान में कहा है कि बिहार में अब भूमिहीन दलितों के साथ-साथ भूमिहीन सवर्णों को भी 3 डिसमिल ज़मीन दी जाएगी.

उन्होंने यह भी कहा है कि अगर किसी इलाक़े में सरकारी या गैर-मजरुआ ज़मीन नहीं होगी, तो उस इलाक़े में सरकार ज़मीन खरीदकर गरीब सवर्णों को देगी. लेकिन इस बीच सवाल यह भी खड़ा हो गया है कि अल्पसंख्यकों को खासतौर पर मुसलमानों को इस योजना से महरूम क्यों रखा गया है?

यह सवाल खुद मंत्री जी के अपनी पार्टी से जुड़े यानी बिहार प्रदेश कांग्रेस (अल्पसंख्यक) के अध्यक्ष मिन्नत रहमानी ने उठाया है. उन्होंने इस सिलसिले में मंत्री मदन मोहन झा को एक ज्ञापन भी सौंपा है.

TwoCircles.net के साथ बातचीत में मिन्नत रहमानी ने बताया कि उन्होंने बिहार के भूमिहीन अल्पसंख्यकों खासकर मुसलमानों को भी नीतिश सरकार के इस योजना के तहत 3 डिसमिल ज़मीन उपलब्ध कराने की मांग बिहार के राजस्व एवं भूमि सुधार मंत्री मदन मोहन झा से की है.

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मिन्नत रहमानी ने बातचीत में यह भी बताया कि मंत्री मदन मोहन झा ने उन्हें यह आश्वासन दिया है कि वो जल्द ही इस मांग पर विचार कर अल्पसंख्यकों को भी इस योजना में शामिल करेंगे.

मिन्नत रहमानी का कहना है कि –‘राज्य में भूमिहीन अल्पसंख्यको की संख्या बहुत अधिक है. खासकर मुसलमानों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है. कोसी और मिथिला क्षेत्र में तो भूमिहीन लोग आज भी सड़क और बांध के किनारे रहने को मजबूर हैं.’ अल्पसंख्यक अध्यक्ष मिन्नत रहमानी का स्पष्ट तौर पर यह भी कहना है कि –‘प्रदेश के मुसलमानों ने अपना 90 फ़ीसदी वोट देकर मौजूदा गठबंधन सरकार को पूर्ण बहुमत दिया है. ऐसे में अब सरकार की बारी है कि वो उनकी मांगों और ज़रूरतों को अपनी प्राथमिकता में रखे.

दरअसल, सरकार के इन्दिरा आवास योजना के तहत गरीबों और महादलितों को घर बनाने के लिए तीन डिसमिल ज़मीन दिया जाता है. यदि सरकार के पास ज़मीन न हो तो सरकार ज़मीन खरीद कर देती है. नीतिश सरकार ने यह योजना 2009-10 में शुरू किया था.

हालांकि इस योजना पर कई आरोप भी लगे हैं. खुद उस समय विपक्ष में रहने वाले लालू प्रसाद यादव ने नीतिश सरकार को जंगलराज बताया था. लोगों का आरोप है कि भूमिहीनों को सरकारी पर्चा मिल गया है, लेकिन ज़मीन का स्वामित्व उन्हें अभी तक हासिल नहीं हो सका है.

इस आरोप पर मंत्री मदन मोहन झा ने कहा कि –‘भूदान या दान में दी गई ज़मीन के अलावा गैर-मजरुआ (सरकारी) के लाखों एकड़ ज़मीन का पर्चा भूमिहीनों को दिया गया था. पर्चा मिलने के बावजूद जिन गरीब भूमिहीनों को ज़मीन का स्वामित्व नहीं मिला है, उन्हें ज़मीन का क़ब्जा दिलाने के लिए सरकार विशेष अभियान चलाएगी.’

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स्पष्ट रहे कि सच्चर समिति की रिपोर्ट यह बता चुकी है कि देश में मुसलमानों की हालत कई मामलों में दलितों से भी बदतर है. इससे पूर्व बिहार अल्पसंख्यक आयोग ने 2004 में मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति जानने के लिए एक सर्वेक्षण कराया था, जिसके मुताबिक़ क़रीब आधे मुसलमान ग़रीबी रेखा से नीचे हैं.

बिहार राज्य अल्पसंख्यक आयोग द्वारा प्रायोजित एशियन डेवलपमेंट रिसर्च इंस्टिट्यूट (ADRI) के रिपोर्ट यह बताती है कि बिहार में 49.5 फ़ीसद ग्रामीण मुसलमान एवं 44.8 फ़ीसदी शहरी मुसलमान ग़रीबी रेखा से नीचे आते हैं, जिसमे 19.9 फ़ीसदी तो अत्यंत ही ग़रीब हैं. वहीं रिपोर्ट यह भी बताती है कि बिहार के गांवों में रहने वाले 28.04 फ़ीसदी मुसलमान आबादी भूमिहीन मजदूर हैं.

सच पूछे तो बिहार में मुसलमानों के साथ नाइंसाफ़ी का इतिहास रहा है. मौजूदा नीतिश सरकार से बिहार के मुसलमानों की काफी उम्मीदें हैं. ऐसे में मिन्नत रहमानी को भी उम्मीद है कि सरकार उनकी मांगों पर ध्यान देते हुए जल्द ही अपने फैसले में बदलाव करेगी और बिहार के दलितों व सवर्ण भूमिहीनों के साथ-साथ अल्पसंख्यक भूमिहीनों को भी ज़मीन का हक़ ज़रूर देगी.

‘हमारे 3 विधायक 240 पर भारी पड़ेंगे’

अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

बिहार में लालू-नीतिश के जीत की शोर में एक बेहद ही दिलचस्प घटनाक्रम दब कर रह गया. यह घटना भाकपा माले (लिब्रेरेशन) के उम्मीदवारों की जीत है.

भाकपा माले (लिब्रेरेशन) के 3 उम्मीदवार इस बार चुनाव जीत कर बिहार विधानसभा में पहुंचे हैं. ग़रीबों, मेहनतकशों और कामगारों के लड़ने वाली इस पार्टी के यह तीनों विधायक इतनी कम संख्या के बावजूद विधानसभा में पूरी शिद्दत के साथ अपनी मौजूदगी का अहसास कराने में जुटे हुए हैं. इनका दावा है कि वो अपनी पार्टी के एजेंडे पर सरकार को काम करने के लिए विवश करने की पूरजोर कोशिश करेंगे.

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TwoCircles.net के साथ भोजपूर के तरारी विधानसभा सीट से भाकपा माले (लिब्रेरेशन) के टिकट पर चुनाव जीते सुदामा प्रसाद ने एक विशेष बातचीत में इस बात का ऐलान किया कि भाकपा माले (लिब्रेरेशन) के ये तीन विधायक 240 विधायकों पर भारी पड़ेंगे.

सुदामा प्रसाद बताते हैं कि –‘मेरी जीत ग़रीबों की रियल जीत है. जहां बाक़ी उम्मीदवारों ने करोड़ों रूपये पानी की तरह खर्च किया, वहीं हमने चंदा करके इस चुनाव में जीत हासिल की. मेरा अधिकतम खर्च 5 लाख रूपये हुआ और यह पैसा भी गांव के लोगों के सहयोग से ही एकत्रित हुआ था.’

वो बताते हैं कि –‘इस दौर में भी ग़रीब चुनाव जीत सकता है, हमारे तरारी के लोगों ने इस चुनाव में साबित करके दिखा दिया. दरअसल, यह संघर्षों की जीत है. गांव के मेहनतकशों की जीत है.’

सुदामा प्रसाद का स्पष्ट तौर पर कहना है कि –‘बिहार में साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने और खासतौर पर बीजेपी का ग्राफ़ बढ़ाने में लालू प्रसाद यादव व नीतिश कुमार ही ज़िम्मेदार हैं,’

वो बताते हैं कि वो सामंतवाद के ख़िलाफ़ चुनाव इसलिए लड़े थे कि ताकि इस बिहार में गरीबों के साथ नाइंसाफ़ी होना बंद हो. वो हर हालत में गरीबों के लिए काम करेंगे.

वो कहते हैं कि –‘बटाईदार किसान सरकार की योजनाओं से पूरी तरह वंचित हैं. जबकि गरीब व बटाईदार किसानों को सरकार की सभी योजनाओं का लाभ मिलना चाहिए था. सच तो यह है कि 80 फ़ीसद से अधिक किसान कृषि कार्य नहीं कर रहे हैं. खेती का 77 फ़ीसदी काम बटाईदार किसान ही करते हैं. हम घाटे की खेती के लिए संघर्ष करते रहेंगे’

उनके मुताबिक़ बिहार में नहरों पर काम करने की सख़्त ज़रूरत है, क्योंकि बिहार के सारे नहर अंग्रेज़ों के ज़माने के हैं. खेती में भी सुधार करने की अत्यंत आवश्यकता है. क्योंकि सिर्फ़ इसी में सुधार लाकर बिहार में बेरोज़गारी खत्म की जा सकती है.
TwoCircles.net ने सुदामा प्रसाद एक लंबी बातचीत की. बातचीत के प्रमुख अंश आप वीडियो में देख व सुन सकते हैं.

स्पष्ट रहे कि सुदामा प्रसाद अपने ज़िला में इन दिनों ख़बरों में हैं, क्योंकि इस बार चुनाव जीते समस्त विधायकों में वो पहले ऐसे विधायक हैं, जिन्होंने अपने क्षेत्र के सारे पदाधिकारियों के साथ एक बैठक आयोजित कर क्षेत्र में चलने वाले विभिन्न सरकारी विभागों से संबंधित योजनाओं एवं कार्यों की बिन्दुवार समीक्षा की है. अपने क्षेत्र के सहार प्रखंड के कई गावों के दलित बस्तियों में बिजली की आपूर्ति नहीं होने के बावजूद भारी भरकम बिजली बिल भेजे जाने के मामले में विभागीय अभियंता से जबाब-तलब किया है. अपने विधानसभा क्षेत्र में पूर्व में हुए सड़क निर्माण कार्य में बरती गयी अनियमितता को लेकर संबंधित पदाधिकारियों से पूछताछ की है. मनरेगा के तहत कार्य करने वाले मजदूरों का बकाया मजदूरी भुगतान नहीं होने के मामले में तमाम प्रखंड के कार्यक्रम पदाधिकारियों को इसमें तेजी लाने की सलाह दी है.

मशावरात के चुनाव में जीते नवेद हामिद

By TwoCircles.net Staff Reporter

ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस मशावरात के चुनाव के नतीजे घोषित हो चुके हैं. मुसलमानों के इस संस्था के चुनाव पर सबकी नज़र थी. इस चुनाव में मुसलमानों के तीन अहम नाम मैदान में थे. तीन लोगों के बीच कड़ी टक्कर में बाजी नवेद हामिद के हाथ लगी है. वो पांच वोटों से यह चुनाव जीत चुके हैं.

इस चुनाव में साउथ एशियन कौंसिल फॉर माईनरिटीज़ के सचिव नवेद हामिद, इंस्टीट्यूट ऑफ ऑब्जेक्टिव स्टडीज़ के निदेशक रिटायर्ड आईपीएस और पूर्व राज्यसभा सांसद मो. अदीब के बीच मुक़ाबला था.

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ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस मशावरात मुसलमानों के लिए काम करने वाले नामचीन संगठनों में एक है. इस संगठन में कुल 146 सदस्य हैं. जिसमें 144 लोगों ने वोट दिया था. इन 144 वोटों में से 52 वोट नवेद हामिद को मिले. दूसरे नंबर पर डॉ. मंज़ूर आलम रहें और उन्हें 47 वोट मिलें. तीसरा नंबर मो. अदीब का रहा. उन्हें 45 सदस्यों का वोट हासिल हुआ. उसमें 'संगठन में कुल सदस्य 155 हैं. जिसमें 147 लोगों ने वोट दिया. 3 वोट अवैध पाए गए.'

नवेद हामिद ने TwoCircles.net के साथ बात करते हुए बताया कि –‘एक बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी मुझे सौंपा गया है, जिसे मैं पूरी ईमानदारी के साथ निभाने की कोशिश करूंगा. जिस मक़सद के तहत आज से 51 साल पहले इस संगठन को बनाया गया था, उस मक़सद को अब ज़मीन पर उतारने की पूरी कोशिश करूंगा.’

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स्पष्ट रहे कि नवेद हामिद 2012 में भी अध्यक्ष पद के लिए चुनाव लड़ चुके हैं. लेकिन उस समय सिर्फ़ 2 वोटों से डॉ. ज़फ़रूल इस्लाम खान से वो चुनाव हार गए थे.

उम्मीद की जाती है कि ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस मशावरात के नए अध्यक्ष इस संगठन को नए दिशा की ओर ले जाएंगे और मुसलमानों के मसले को पूरे ज़ोर-शोर से पूरी मज़बूती व ईमानदारी के साथ उठाएंगे.

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मुज़फ्फ़रनगर साम्प्रदायिक हिंसा : जस्टिस सहाय कमीशन की रिपोर्ट सार्वजनिक करे सरकार –उलेमा कौंसिल

By TCN News,

लखनऊ : राजनीतिक दल ‘राष्ट्रीय उलेमा कौंसिल’ ने उत्तरप्रदेश के अखिलेश सरकार पर यह आरोप लगाया है कि ‘सरकार ने चुनाव के समय मुसलमानों को उनकी आबादी के अनुपात में आरक्षण, रंगनाथ मिश्रा व सच्चर कमेटी की सिफारिशों को लागू करने का वादा किया था, लेकिन सत्ता में आने के बाद वो अपने वादे पूरा न कर जनता को धोखा देने का काम कर रही है.’


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साथ ही उन्होंने मांग भी रखा कि ‘विधानसभा के शीतकालीन सत्र में मुज़फ्फ़रनगर साम्प्रदायिक हिंसा की जांच करने वाली जस्टिस सहाय कमीशन की रिपोर्ट को सदन में पेश कर उसे सार्वजनिक किया जाए और उस रिपोर्ट के आधार पर दोषियों के विरुद्ध कार्यवाही की जाए.’

उलेमा कौंसिल के उत्तरप्रदेश अध्यक्ष डा. निज़ामुद्दीन ख़ान ने पार्टी की ओर से जारी एक प्रेस बयान में कहा कि –‘सूबे की सरकार कानून व्यवस्था व विकास के मामले में पूरी तरह से फेल हो चुकी है. जिन जगहों पर विकास की ज़रूरत है, उसे नज़रअंदाज़ कर कुछ खास इलाकों में विकास का ढिंढोरा पीटा जा रहा है.’

उन्होंने आरोप लगाया कि ‘सपा सरकार आतंकवाद के झूठे आरोप में जेलों में बंद निर्दोषों की रिहाई का वादा किया था, लेकिन सरकार निर्दोषों की रिहाई के बजाए बसपा शासनकाल में अपनी पार्टी नेताओं पर लगे केस हटवाने का काम कर रही है.’

राष्ट्रीय उलेमा कौंसिल का यह भी आरोप है कि ‘सपा सरकार में हुए मुस्लिम-विरोधी साम्प्रदायिक हिंसा के असल दोषी आज़ाद घूम रहे हैं, जबकि आतंकवाद के नाम पर क़ैद बेगुनाह मुस्लिम जेलों में बंद हैं. हद तो यह है कि सरकार के साथ-साथ सपा के मुस्लिम मंत्री व विधायक भी इस पर चुप्पी साधे हुए हैं.’

निज़ामुद्दीन ख़ान ने यह भी कहा कि ‘मुलायम यादव ने मुसलमानों को आरक्षण देने का वादा किया था, लेकिन आरक्षण देने के बजाए बुनकरी जैसे उनके पारम्परिक पेशे को भी तबाह कर उन्हें भुखमरी के कगार पर धकेला जा रहा है.’

उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि ‘सपा सरकार अब भाजपा से मिलकर साम्प्रदायिक कार्ड खेलने की रणनीति पर चल रही है. इसीलिए उसने बिहार में मोदी को जिताने की नाकाम कोशिश की. उत्तरप्रदेश की जनता को सपा और भाजपा के साम्प्रदायिक गठजोड़ से चौकन्ना रहने की ज़रूरत है.’

‘आरएसएस दलितों को इंसान नहीं समझता...’

By TCN News,

अहमदाबाद : ‘दलित, आदिवासी और मुसलमान को फ़र्ज़ी तौर पर फंसाकर बांटने का काम करने वाली मोदी सरकार होश में आ जाए, क्योंकि गुजरात में दलित, पिछड़े और मुसलमान अब एक हो चुके हैं.’

यह बातें आज अहमदाबाद के दानीलिमडा के अम्बेडकर हॉल में सर्वोदय यूथ सोसाइटी व दलित समाज की ओर से आयोजित एक दिवसीय कंवेन्शन में गुजरात के दलित नेता नाटूभाई परमार ने कहा.


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कन्वेंशन को संबोधित करते हुए कहा कि –‘दलितों को संघ इंसान नहीं समझता. आज जब सावित्री बाई फुले का जन्म-दिवस है, तो संघ पुणे में समागम कर रहा है.’

इस कार्यक्रम को संबोधित करते हुए तंज़ीम-ए-इंसाफ़ के जनरल सेक्रेटरी अमीक़ जामेई ने कहा कि –‘मोदी जी, मुफ़्ती अब्दुल क़य्यूम साहेब को उचित मुआवज़ा देने की तैयारी शुरू कर दे. साथ ही जिन अफ़सरों ने उनके 11 साल बर्बाद किये, उन्हें तिहाड़ भेजा जाए और फ़र्ज़ी मामले में उनको हासिल तमाम मेडल वापस लिये जाएं.’

अमीक़ जामेई इस कन्वेंशन के मुख्य अतिथि थे. इस कन्वेंशन में दलित समाज की ओर अक्षरधाम मामले से बाइज़्ज़त बरी हो चुके मुफ़्ती अब्दुल क़य्यूम को सम्मानित किया गया और साथ ही उनकी पुस्तक ‘ग्यारह साल सलाखों के पीछे’ का लोकार्पन किया गया.

पूर्वोत्तर भारत और बांग्लादेश में भूकंप के तेज़ झटके

TwoCircles.net News Desk

आज सुबह करीब 4 बजकर 35 मिनट पर बांग्लादेश और पूर्वोतर भारत में भूकंप के तेज़ झटके महसूस किए गए हैं. इसके अलावा पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड व उत्तरप्रदेश के कुछ ज़िलों में भी भूकम्प के झटके लोगों ने महसूस किए हैं.

ख़बर लिखे जाने तक इस भूकम्प की वजह से इंफाल में एक व्यक्ति की मौत हो गई है, वहीं 50 से अधिक लोग घायल हैं. घायल लोगों को रीजनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेज़ में भर्ती कराया गया है.

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भूकंप की वजह से कई इमारतों में दरारें आ गई हैं तो वहीं कई इमारतें पूरी तरह से धाराशाई हो चुकी हैं.

अमरीकी भूगर्भ सर्वेक्षण केंद्र ने भूकंप की तीव्रता शुरू में 6.8 बताई थी, जिसे बाद में सुधार कर 6.7 कर दिया गया.

यूएसजीएस के मुताबिक़ भूकंप का केंद्र मणिपुर की राजधानी इम्फाल से 29 किलोमीटर पश्चिम तेमग्लांग जिले के आस-पास था.

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट कर बताया है कि इलाक़े में आए भूकंप के हालात पर उन्होंने असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई से फोन पर बात की और पूरी स्थिति का जायजा लिया है.

मोदी ने ट्वीट कर ये भी कहा कि वे असम के दौरे पर गए गृहमंत्री राजनाथ सिंह के संपर्क में हैं और भूकंप से जुड़े हालात के पल-पल की ख़बर ले रहे हैं.

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भारत के केंद्रीय मंत्री निर्मला सीतारमण ने ट्वीट किया, "सिलीगुड़ी के सरकारी गेस्ट हाऊस में मैंने अपना कमरा हिलता हुआ महसूस किया. उम्मीद है सभी ठीक होंगे."

त्रिपुरा के गवर्नर तथागत रॉय ने ट्वीट किया, ''Agartala seemingly OK after quake of Richter 6.7, epicentre near Imphal,not too far from here. Raj Bhavan shook,though,and we woke up''

कोलकाता से TwoCircles.net के संवाददाता ज़ैदुल हक़ ने बताते हैं –‘मेरा पूरा पलंग और अलमारी हिल रहा था. डर के मारे मेरी बेटी चिल्लाने लगी. मेरी बीवी-बेटे समेत सब उठ गए. इतना जोर का झटका मैंने आज तक कभी महसूस नहीं किया है. झटका बहुत देर तक रहा और हम यही सोच रहे थे कि क्या किया जाए.’

भूकंप आने के बाद इंफाल में बिजली की सप्लाई काट दी गई है. भूकंप प्रभावित क्षेत्रों के लिए एनडीआरएफ़ की टीमें रवाना कर दी गई हैं.

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गाय की पूजा के लिए गौशाला में गई दलित महिला के साथ दुष्कर्म

TwoCircles.net News Desk

रोहतक :हरियाणा के रोहतक स्थित पहरावर गौशाला में एक दलित महिला गाय की पूजा करने गई थी, जहां उस महिला के साथ धोखे से गौशाला के पूर्व कमेटी सदस्य ने ही दुष्कर्म किया.

पीड़िता के मुताबिक़ आरोपी ने पहले तो धोखे से उसको एक कमरे में भेजा और बाद में खुद घुस गया. और फिर उसे जान से मारने की धमकी देकर अपने हवस का शिकार बनाया.

पीड़िता ने बताया कि वह रविवार शाम को पहरावर स्थित गौशाला में गाय की परिक्रमा करने गई थी. गौशाला में जयभगवान पहले से ही मौजूद था. आरोपी ने महिला से कमरे से कुछ सामान लाने के लिए कहा. इस पर महिला कमरे में गई तो पीछे से आरोपी जयभगवान भी घुस गया. यहां उसने छेड़खानी शुरू कर दी.

महिला के विरोध के बाद भी आरोपी ने उससे दुष्कर्म किया. इसके बाद आरोपी ने महिला को जान से मारने की धमकी भी दी. पीड़िता ने मामले की शिकायत पुलिस को दी है.

इस संबंध में माता दरवाज़ा निवासी दलित महिला की शिकायत पर सदर थाना पुलिस ने कमेटी के पूर्व सदस्य जयभगवान के खिलाफ़ रेप, एससी/एसटी एक्ट सहित बंधक बनाने की धाराओं में केस दर्ज कर लिया है.

जांच अधिकारी देवी रानी ने बताया कि पीड़िता की शिकायत के आधार पर जयभगवान के खिलाफ़ केस दर्ज कर जांच शुरू कर दी है.

गंभीर बात यह है कि इसा मामले की जांच अधिकारी एएसआई देवी रानी को बनाया गया है, जबकि तय दिशा-निर्देशों के अनुसार यदि एफआईआर में एससी/एसटी एक्ट शामिल है तो ऐसे स्थिति में डीएसपी स्तर के अधिकारी को जांच अधिकारी बनाने के विशेष निर्देश है. इसके बावजूद पुलिस प्रशासन की ओर से कोई ध्यान नहीं दिया गया.

वहीं इस मामले में गौशाला के संस्थापक नरेश शर्मा का कहना है कि जयभगवान गौशाला कमेटी का सक्रिय सदस्य नहीं हैं. उन्होंने कहा, जब महिला आई थी, तो जयभगवान ने बताया कि झूठे केस के मामले में फंसाने के लिए तीन लाख रुपये की मांग कर रही थी. इस मामले में सेक्टर एक पुलिस चौकी में शिकायत दी गई थी.

डीएसपी पुष्पा खत्री गौशाला संस्थापक के आरोप की पुष्टि करती हैं. उन्होंने बताया कि मामले में ये भी शिकायत सामने आई है कि महिला ने झूठे केस में फंसाने के एवज में तीन लाख रुपये मांगे थे. इसकी भी जांच की जा रही है.

‘मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड’ में हर तबक़े की नुमाइंदगी क्यों नहीं?

अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

भारत में इस समय समान नागरिक संहिता या कॉमन सिविल कोड की बहस चल रही है. कुछ संगठन इसकी प्रखर मांग भी कर रहे हैं. इस राष्ट्रीय स्तर की बहस से इतर एक और बहस भी शुरू हुई है. यह बहस मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड में सुधार और बदलाव को लेकर है.

ये बहस या कहें कि मांग उठाई है महिलाओं और युवाओं ने, जिन्हें लगता है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड में उनका कोई प्रतिनिधित्व नहीं है.

ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड में फिल-वक़्त 80 फीसदी से उपर सदस्य 70 साल से अधिक उम्र के हैं. ऐसे में युवाओं की आवाज़ इस बोर्ड में न के बराबर ही है. इसीलिए मुसलमानों की इस सर्वोच्च संस्था के भीतर और बाहर दोनों ही जगहों से युवाओं की भागीदारी की आवाज़ बुलंद होने लगी है. इन हालातों में बोर्ड के लिए बदलाव के इस बयार को लंबे वक़्त तक नज़रअंदाज़ कर सकना मुमकिन नहीं दिखता.

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एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक़ खुद एक्जक्यूटिव सदस्य हाफिज़ अतहर अली यह सवाल उठा चुके हैं कि बोर्ड में युवाओं के लिए जगह क्यों नहीं?

खुद उनका कहना है कि –‘कम उम्र के तलबा को सदस्य बनाने से कई फायदे होंगे. वह तजुर्बेकारों के बीच रहकर शरई कानूनों मसलों को अच्छी तरह से समझेगा और बोर्ड के फैसलों पर अमल-दरामत में भी तेज़ी लाएगा.’

यह बयान उन्होंने 2015 के मई महीने में दिया था, लेकिन अब TwoCircles.net से बात करते हुए उनका कहना है कि –‘जबसे मौलाना वली रहमानी बोर्ड के एक्टिंग जेनरल सेकेट्री बने हैं, बोर्ड में युवाओं की भागीदारी बढ़ी है.’

क्या बोर्ड ने इन दिनों युवाओं को सदस्य बनाया है? कितने युवा हैं बोर्ड में? इन सवालों के जवाब में उनका कहना है कि –‘मेरे पास कोई लिस्ट नहीं है. लेकिन वली रहमानी बढ़िया काम कर रहे हैं.’

कुछ महीने पूर्व लखनउ के एक अधिवेशन में भी बोर्ड में युवाओं की भागीदारी को लेकर सवाल उठ चुका है. यह मांग अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में लॉ के प्रोफेसर व बोर्ड के सदस्य शकील समदानी ने रखी थी.

TwoCircles.net से विशेष बातचीत में शकील समदानी बताते हैं कि –‘कई सदस्यों ने कहा था बोर्ड में युवाओं की भागीदारी बढ़नी चाहिए. लेकिन मेरा मानना है कि सिर्फ़ युवा होना काफी नहीं है, बल्कि मिल्ली कामों का तजुर्बा व जज़्बा हो. ये संजीदा इदारा है. यहां जज़्बाती नारों से काम नहीं चलेगा. उन्हें पता होना चाहिए कि इस्लाम क्या है. शरीअत क्या है.’

वहीं बोर्ड के सदस्य कमाल फारूक़ी का कहना है कि –‘हमारे यहां युवाओं व महिलाओं के रिप्रेजेन्टेशन की अलग से कोई बात नहीं होती है. जो काम करने वाले होते हैं उन्हें बोर्ड में शामिल किया जाता है.’

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लेकिन दूसरी तरफ़ मुस्लिम युवाओं का मानना है कि क़ौम की सबसे ताक़तवर आवाज़ में नई आवाज़ों का रिप्रेजेन्टेशन बेहद ज़रूरी है. बोर्ड के अधिकतर अरकान 70 साल के उपर के हैं. कुछ चलने-फिरने में लाचार हैं तो कुछ की सोचने विचारने की ताक़त भी उतनी मज़बूत नहीं रही. ऐसे में इस ढांचे को बदलने की सख़्त ज़रूरत है.

पत्रकार अब्दुल वाहिद आज़ाद का कहना है कि –‘मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड एक नुमाइंदा तंज़ीम है. इसलिए इसमें मुसलमानों के हर तबक़े की नुमाइंदगी होनी चाहिए.’

वो बताते हैं कि –‘इस मुल्क में सबसे अधिक आबादी नौजवानों की है, लेकिन अफ़सोस इस बात की है कि बोर्ड में ये नौजवान कहीं नज़र नहीं आता.’

आज़ाद आगे बताते हैं कि –‘किसी भी तंज़ीम में, जहां लीडरशिप उम्र के आख़िरी पड़ाव में पहुंच चुके लोगों को मिले, ऐसे तंज़ीम से अच्छे नतीजों की उम्मीद नहीं की जा सकती है.’

वहीं एडवोकेट शम्स तबरेज़ बताते हैं कि –‘बोर्ड में युवाओं की भागीदारी बिल्कुल भी नहीं होने की सूरत में कुछ साल पहले मिल्लत के अच्छे सलाहियत के नौजवानों के साथ ‘ऑल इंडिया यूथ मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड’ बनाने का ऐलान किया था, जिसकी ख़बर अख़बारों में भी छपी थी.’

आगे वो आरोप लगाते हैं कि –‘इस ख़बर के छपते ही कई मौलाना व नेता हमारे ग्रुप के लोगों को जान से मरवा देने की धमकी देने लगें. इस बात से डराने लगें कि मौलाना हम लोगों के खिलाफ़ फ़तवा जारी कर देंगे, जिससे हमें मरने के बाद जनाज़े की नमाज़ पढ़ाने वाला भी कोई नहीं मिलेगा.’

बात सिर्फ़ युवाओं के भागीदारी की ही नहीं है. बल्कि मसला बोर्ड में महिलाओं की भागीदारी को लेकर भी है. और दिक्कत इस बात की भी है कि बोर्ड का ढांचा इस क़दर बंद है कि इसमें पारदर्शिता और लोकतंत्र की कोई गुंज़ाईश दिखाई नहीं पड़ती है.

मौलाना सज्जाद नोमानी के मुताबिक़ बोर्ड के जनरल काउंसिल के 250 सदस्यों में से सिर्फ़ 25 और वर्किंग कमिटी के 51 सदस्यों में सिर्फ़ 5 महिलाओं के नाम शामिल हैं.

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All India Muslim Personal Law Board 22nd Conference in Mumbai

लेकिन शाईस्ता अंबर का आरोप है कि बोर्ड में हमेशा पुरूषवादी मानसिकता ही हावी रही है. बोर्ड में महिलाएं हर मामले में खामोश रहती हैं. महिलाओं के अधिकारों के मामलों में भी वो कुछ नहीं बोल पातीं. इसलिए हमें अलग से ‘ऑल इंडिया वूमेन मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड’ बनाने की ज़रूरत पड़ी.

शाईस्ता अंबर भी आरोप लगाती हैं –‘जब हमने महिलाओं का अलग बोर्ड बनाया तो मुझ पर तरह-तरह के आरोप लगाए गए. मेरे किरदार पर छींटाकशी की गई. भद्दे व गंदे अल्फ़ाज़ों का इस्तेमाल किया गया. शायद ये मौलाना कुरआन के सुरह नूर के उस आयत को भी भूल गएं, जिसमें कहा गया है कि अगर किसी औरत के किरदार को बगैर जाने इल्ज़ाम लगाया तो तुम्हें सौ कोड़े मिलेंगे.’

वो कहती हैं कि –‘मुसलमानों के हर तंज़ीम में नई नस्ल को मौक़ा देने की ज़रूरत है, क्योंकि यही नौजवान नस्ल हर दौर में इंक़लाब का परचम लेकर खड़ा मिलता है. हमारे बूढ़े हो चुके मौलानाओं को चाहिए कि वो नौजवानों के हाथों में परचम दे. हमारे पैग़म्बर (सल्ल.) ने हज़रत अली व हज़रत ओसामा के हाथों में परचम नहीं दिया था? क्या इस्लामी जंगों में नौजवानों को भी मैदान उतरने का मौक़ा नहीं दिया गया था?’

वहीं TwoCircles.net से बातचीत में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के एक्टिंग जेनरल सेकेट्री मौलाना वली रहमानी तमाम आरोपों को खारिज करते हुए कहते हैं कि –‘बोर्ड में युवा मौजूद हैं. किसी को नज़र नहीं आ रहा है या वो काम नहीं कर रहे हैं तो हम क्या कर सकते हैं? और जिन्हें सब 70 से उपर का नज़र आ रहा है, वो दरअसल नाबालिग़ हैं, उनकी आंखें कमज़ोर हैं.’

वो आगे कहते हैं कि –‘यहां यह मुद्दा ही नहीं है कि कौन कितने साल का है. अब आप ही बताइए कि मैं अपने जवानी के दिनों में बोर्ड में शामिल हुआ. अब बूढ़ा हो गया हूं तो क्या मुझे निकाल कर बाहर फेंक दिया जाए?’

स्पष्ट रहे कि भारत में इस वक़्त मुसलमान एक साथ कई समस्याओं से जूझ रहा है. मौजूदा हुकूमत के दौर में मुद्दों के वे बर्फ भी पिघल रहे हैं, जो अब तक जमे हुए थे. दुनिया के हालात ने भी मुसलमानों की मुश्किलें बढ़ा दी हैं, लेकिन अफ़सोस कि इन समस्याओं का वाजिब जवाब और हल ढूंढने में हमारी क़यादत नाकाम है.

चिंता का विषय यह है कि देश का मुस्लिम नौजवान बेचैन है और बुजुर्ग क़यादत की नींद खुल नहीं रही है. नौजवानों की बेचैनी इसलिए भी ज्यादा है कि देश के सभी मुस्लिम संगठनों में उनकी भागीदारी बिल्कुल नहीं है, बल्कि कौम की नज़र में उनकी कोई हैसियत तक नहीं है.

यही हाल महिलाओं का भी है. नौजवानों की तरह उनके यहां भी बेचैनी है. इस आधी आबादी की भी कोई हैसियत नहीं है, भागीदारी नहीं है. महिलाओं को भी लगता है कि उन्हें मुनासिब प्रतिनिधित्व मिलनी चाहिए और इसकी शुरुआत मुसलमानों की सबसे बड़ी और प्रतिनिधि तंज़ीम मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड से होनी चाहिए.

संदीप पाण्डेय को हटाया जाना, शिक्षण संस्थानों के भगवाकरण अभियान का हिस्सा

TwoCircles.net Staff Reporter

बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय ने मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित डॉ. संदीप पांडे को नक्सली होने और नक्सली गतिविधियों को बढ़ावा देने के आरोप में आईआईटी से कार्यमुक्त कर दिया है.

लेकिन डॉ. संदीप पांडे का साफ तौर पर कहना है कि –‘इसके पीछे राष्ट्रीय स्वयंसवेक संघ का हाथ है.’ वो बीएचयू के कुलपति प्रो. जीसी त्रिपाठी और डीन धनंजय पांडे को सीधे तौर पर संघ का व्यक्ति बताते हैं.

वो बीएचयू-आईआईटी से हटाए जाने को लेकर उन पर देशद्रोही, नक्सली और प्रतिबंधित निर्भया कांड की सीडी छात्रों के बीच दिखाने के आरोपों को बेबुनियाद बताते हैं. उनका कहना है कि क्लास में प्रतिबंधित निर्भया कांड की सीडी दिखाने के पहले ही क्षेत्रीय लंका थाने की पुलिस और बीएचयू के चीफ़ प्रॉक्टर के हस्तक्षेप के चलते उसे नहीं दिखाया गया था.

उनका कहना है, -‘जो मेरे साथ हुआ वह ग़लत हुआ, लेकिन यह बीएचयू प्रशासन का अपना अधिकार है. इसके लिए मैं कोई आंदोलन नहीं करने जा रहा हूं, लेकिन मैं 8 जनवरी को बनारस जा रहा हूँ.’

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Sandeep Pandey

दूसरी तरफ़ संदीप पांडे पर लगे आरोपों के बारे में बीएचयू-आईआईटी निदेशक प्रो. राजीव सैंगल ने कुछ भी कहने से इनकार कर दिया है. उनका बस इतना कहना है कि –‘संदीप पांडे को हटाने का फ़ैसला बोर्ड ऑफ़ गवर्नर की मीटिंग में लिया गया है. मैं इस पर नहीं बोल सकता.’

दरअसल, पांडे वाराणसी स्थित बीएचयू-आईआईटी में विज़िटिंग फ़ैकल्टी के बतौर कैमिकल, मेकेनिकल और सिरेमिक इंजीनियरिंग में कंट्रोल सिस्टम सहित अन्य विषयों पर पिछले ढाई साल से पढ़ा रहे थे. लेकिन नए साल की पहली तारीख को ही बीएचयू-आईआईटी प्रशासन ने उनसे उनका पाठयक्रम वापस लेकर पढ़ाने से मना कर दिया.

इन सबके बीच यहां के छात्रों सहित इस मसले पर लखनउ की सामाजिक संस्था ‘रिहाई मंच’ ने अब आन्दोलन छेड़ने का मन बना लिया है.

रिहाई मंच के मसीउद्दीन संजरी का कहना है कि ‘गांधीवादी नेता संदीप पांडे को बनारस बीएचयू से बर्खास्त किए जाने के पीछे असल कारण नक्सली होना या राष्ट्र विरोधी होना नहीं है, बल्कि देश के शिक्षण संस्थानों के भगवाकरण अभियान का हिस्सा है.’
उनका कहना है कि –‘देश की साम्प्रदायिक और फांसीवादी विचारधारा ने राष्ट्रवाद के मुखौटे में (जो सदा से उसका हथियार रहा है) स्पष्ट रेखा खींच दी है, जिसके अनुसार देश के नीच जाति के कहे जाने वाले वर्ग के गरीबों और मज़लूमों के साथ कारपोरेट जगत एवं राज्य की क्रूरता के खिलाफ़ आवाज़ उठाने वाले उनके रास्ते के सबसे बड़े कांटा हैं और वह उन्हें किसी कीमत पर बर्दाश्त नहीं करेंगे.’

वो कहते हैं कि –‘संदीप पांडे ने राज्य के भय अभियान की परवाह किए बिना हर तरह का जोखिम उठाते हुए आतंकवाद और माओवाद के नाम पर निर्दोशों के ऊपर किए जाने वाले अत्याचारों के खिलाफ़ मज़बूती से आवाज़ उठाई है. अपनी सादगी के लिए विख्यात संदीप पांडे ने उस समय आज़मगढ़ का दौरा किया था, जब पूरा मीडिया इस जनपद को 'आतंकवाद की नर्सरी'बताने के लिए अपनी ऊर्जा लगा रहा था. अंधविश्वास और गैर वैज्ञानिक सोच के खिलाफ़ उनकी सक्रियता ने साम्प्रदायिक एंव फासीवादी शक्तियों को दुश्मन बना दिया था.’

संजरी के मुताबिक़ –‘बहुमुखी प्रतिभा के धनी इस मानवतावादी को गेस्ट फैकल्टी के बतौर काम करने से रोक कर उसके जनपक्षधर अभियान को कमज़ोर करने का सपना पालने वाले अपने मक़सद में कभी कामयाब नहीं हो पाएंगे. हकीक़त तो यह है कि इस बर्खास्तगी से उनको अपने मानवतावादी अभियान को गति देने और वैज्ञानिक चेतना के प्रकाश को फैलाने का पहले से ज्यादा समय मिलेगा.’

संजरी कहते हैं कि –‘संदीप पांडे लिंगभेद के खिलाफ़ सशक्त आवाज़ हैं. उन्होंने नारी को देवी कहने का ढोंग भले ही नहीं किया लेकिन जब भी देश की निर्भयाओं का उत्पीड़न हुआ तो वह उसके प्रतिरोध में मैदान में नज़र आए. बीएचयू प्रशासन को मालूम होना चाहिए कि जिसकी तस्वीरों से तुम्हें डर लगता है संदीप पांडे उसके लिए मैदान में लड़ता है.’

क़बूलिये इस्लाम ...कि हो जाये सारे काम!

By Bhanwar Meghwanshi

आपका अगर कोई भी काम नही हो पा रहा हो… सरकार मुख्य सचिव नहीं बना रही हो... या प्रमोशन में देरी हो रही हो... आपका ट्रान्सफर नहीं किया जा रहा हो... आप पर करप्शन का कोई असली या फ़र्जी केस चल रहा हो...

तो इस तरह के हर निजी परेशानी तथा सरकारी परेशानी का एक पुख्ता इलाज़ मिल गया है. यह अचूक औषधि उमराव सालोदिया उर्फ़ उमराव खान साहब ने हाल ही में खोजी है. उनको इसका काफी फायदा हुआ है. अब श्रवण लाल जो कि दलित पुलिस ऑफिसर हैं. वे भी इसका फायदा लेने वाले हैं. सुना है कि उन्होंने भी श्रवण लाल नहीं रहने का फैसला करने का मन बना लिया है. वे भी शायद जल्द ही श्रवण लाल के बजाय सरवर खान बन जायेंगे.

दरअसल, दलित समुदाय के कतिपय अफ़सरों ने प्रगति की नयी राह पकड़ ली है. वे जाति से रहित समाज का हिस्सा बनने का भी दावा करते दिखाई पड़ रहे हैं. उनके लिए इस्लाम कोई धर्म नहीं होकर एक अनलिमिटेड ऑफर की तरह है या किसी सरकारी स्कीम की तरह कि यह ना मिले तो वह ले लो जैसा.

पद न मिले, प्रमोशन ना मिले और यहाँ तक कि मनचाही जगह पर पोस्टिंग या ट्रान्सफर नहीं मिले तो इस्लाम कबूल कर लो. सरकार की अक़्ल ठिकाने आ जायेगी. मनुवादी हिन्दू डर के मारे थर-थर कांपने लगेंगे. संघ मुख्यालय नागपुर में भूचाल आ जायेगा. भाजपा का अध्यक्ष दढ़ियल अमित शाह भी ख़ौफ़ खायेगा.

सौ मर्ज़ की एक ही दवा है. वर्तमान युग का परखा हुआ नुस्खा है. देर मत कीजिये... इस्लाम क़बूल फरमाईये. मीडिया को बुलाइए. अपनी तकलीफ़ बयां कीजिये और लगे हाथों मासूमियत से यह भी बता दीजिये कि परेशानियां तो खूब रही ज़िन्दगी में, पर जबसे इस्लाम में रूचि बढ़ी है. तब से अल्लाह तआला का ऐसा करम फ़रमा है कि हर परेशानी से निज़ात हासिल हो गयी है. यहां तक कि जिस सड़ी, गली, गन्दी वाली जाति में जन्म लिया और जिसकी वजह से नौकरी वौकरी मिली, उस जात-समाज से भी मुक्ति मिल गयी है.

अब हम समानता के साथ जिएंगे इन गलीज़ दलितों से दूर... वैसे तो पहले भी हम तो इन गंदे लोगों से दूर ही रहे. नौकरी मिलते ही इनके गली-मोहल्ले तक छोड़ दिये थे. कभी मजबूरी में जाना भी पड़ा तो गए बाद में, आये उससे भी जल्दी. बच्चों को तो वैसे भी इन लोगों के बीच हमारा जाना कभी रास नहीं आया. मूर्ति पूजा के भी हम शुरू से ही घोर विरोधी ही रहे हैं. हमने तो उस काली कलूटी मूरत वाले अम्बेडकर की मूरत पर कभी दो फूल तक नहीं चढ़ाये. जिन इलाकों में पोस्टेड रहें, वहां मूर्ति तक नहीं लगने दी. हम तो सदैव क्रांतिकारी ही रहे. किसी तरह गिन-गिन कर दिन निकाले कि कब यह दलित होने के नाते मिली नौकरी का अभिशाप हमारा पीछा छोड़े. पेंशन के हक़दार हो जायें तो अपनाएं इस्लाम...

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राजस्थान की फिजाओं में आजकल यही सब चल रहा है. सरकारी भेदभाव से नाराज़ दलित अफ़सरों में नाराज़गी ज़ाहिर करने का सबसे सुगम समाधान इस्लाम धर्म स्वीकार करना हो गया है. वह भी सिर्फ प्रचार पाने के लिए... मीडिया की लाइम लाइट मं आने के लिए... हिंदूवादी सरकार के साथ बार्गेनिंग करने के लिए...

सच तो यह है कि इन अवसरवादी अफ़सरों की इस तरह की हरकतों ने इस्लाम को ही एक मज़ाक जैसा बना डाला है. हर कोई कह रहा है. मेरी यह बात मानो, वह बात मानो वरना मैं इस्लाम कबूल कर लूंगा. इन लोगों की इस्लाम को लेकर इतनी सतही समझ है कि इन्होंने इस्लाम को शांति के बजाय बदला लेने का धर्म बना दिया है.

ऐसा सन्देश जा रहा है कि इस्लाम की दावत क़बूलने के लिए इस्लाम को समझने की कोई ज़रुरत नहीं है. सिर्फ किसी से नाराज़ होना ही काफी है. इस्लाम इतना सस्ता हो गया है कि कोई भी सरकारी अफ़सर अपने दफ्तर में जाये, थोड़ी देर बैठे. मौलवी को बुलाने के बजाय ख़बरनवीसों को बुलाये और इस्लाम क़बूल कर ले. हालात ऐसे हो गए है कि अब दलित अफ़सरान बिना क़लमा पढ़े ही ख़बरें गढ़कर ही मुसलमान हुये जा रहे हैं. आज की इस ताज़ा ख़बर पर भी लगे हाथों मुलाहिज़ा फरमाइए-

राजस्थान में इस्लाम क़ुबूल करेगा एक और दलित अफ़सर !

जयपुर : राजस्थान के आईएएस अफ़सर उमरावमल सालेदिया के बाद अब पुलिस अफ़सर श्रवण लाल भी इस्लाम मज़हब अपनाना चाहते हैं. श्रवणलाल ने ये इलज़ाम लगाया कि उनके दलित होने की वजह से उन्हें भेदभाव का सामना करना पड़ता है. मीडिया को बुलाकर उन्होंने कहा कि उनका बेवजह तबादला कर दिया गया, जबकि वो डेढ़ साल के बाद रिटायर होने वाले हैं और वो भी ऐसी हालत में जबकि उनकी बीवी अक्सर बीमार रहती हैं. अफ़सरों से अपनी परेशानी साझा करने के बाद भी उन्हें कोई राहत नहीं मिली. उनका कहना है कि हाई कोर्ट का हुक्म भी यहां लोग मानना नहीं चाहते. श्रवण लाल इस बीच इस्लाम से ख़ास प्रभावित हुए और अमन के मज़हब के क़रीब आने लगे. इस्लाम में ज़ात-पात का भेद ना होने की वजह से वो इस्लाम क़ुबूल करना चाहते हैं. (साभार: कोहराम डॉटकॉम)

सवाल ये है कि व्यवस्था से नाराज़ ये लोग कल इस्लाम में भी किसी बात से नाराज़ हो जायेंगे. मान लें की वे हज़ के लिए आवेदन करें और उनका नम्बर नहीं लगे तो नाराज़ होकर क्या घर वापसी कर लेंगे? अनुभव बताते है कि आवेश और बदले की नियत से, गुस्से में किसी को चिढ़ाने या दिखाने की गरज से किये जाने वाले धर्म-परिवर्तन अक्सर परावर्तन में बदल जाते हैं.

इस्लाम के अनुयायियों और इस्लामिक विद्वानों के लिए यह महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने का समय है. उनकी ज़िम्मेदारी है कि वे इस्लाम को इस्तेमाल होने से बचाये. जिस तरह से भौतिक पद प्रतिष्ठाओं के मिलने या नहीं मिलने के कारण इस्लाम का सरेआम बेहूदे तरीक़े से ग़लत इस्तेमाल हो रहा है, यह इस्लाम की तौहीन से कम नहीं है.

इस पर इस्लामिक स्कॉलर्स को गहन चिंतन मनन करना चाहिए कि इस्लाम को बदनाम करने के प्रयासों पर कैसे रोक लगे. सिर्फ़ अख़बारी इस्लामिक क़बूल मात्र नहीं हो, बल्कि इस्लाम की न्यूनतम अर्हताओं की पूर्ति करने वाला सच्चा खोजी ही दीन की दहलीज़ तक पंहुच पाये.

रही बात हर मूर्खतापूर्ण धर्मान्तरण या मज़हब बदलने की घोषणा मात्र पर सड़कों पर आ कर ख़ुशी से नाचने वाले अति उत्साही मूलनिवासी बहुजन दलितों की तो यह उनके लिए भी आत्मचिंतन और मंथन का समय है. ब्राह्मणवादियों को सबक़ सिखाने के नाम पर कहीं वे बाबा साहब जैसे महामानवों के मिशन से खिलवाड़ तो नहीं कर रहे हैं? आज यह सवाल ज़रुरी है कि जो बाबा साहब को तो मानने का ढोंग करें किन्तु बाबा साहब की एक ना माने, ऐसे लोग दलित बहुजन मूवमेंट के दोस्त हैं या दुश्मन?

यह वक़्त उन भगौड़े दलित अधिकारी-कर्मचारियों के लिए भी सोचने और समझने का है कि कहीं उनकी ज़रा सी चूक पूरे इतिहास और बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर के संघर्ष को बर्बाद तो नहीं कर देगी? वैसे भी एक-दो राव, उमराव अथवा श्रवण लालों के इधर-उधर हो जाने से समाज में कुछ भी व्यापक बदलाव आने वाला नहीं है. सच यह है कि सभी दलित वंचित वक़्त, व्यवस्था और समाज नामक बहेलियों के जाल में फंसे हुए पखेरू है, अगर उन्होंने सामूहिक उड़ान ली तो जाल सहित उड़ सकते है, वरना तो स्वर्ग-नर्क को छोड़कर जन्नत तथा दोज़ख़ में गिरने जैसा ही है.

देखा जाये तो यह बदलाव कुछ भी नहीं है. यह एक फालतू की क़वायद है. जिसके पक्ष में नारे, ज्ञापन, रैलियां करके उसे प्रोत्साहित करने के बजाय हतोत्साहित किये जाने की ज़रुरत है.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं. उनसे bhanwarmeghwanshi@yahoo.comपर सम्पर्क किया जा सकता है.)

तो क्या आरटीआई को ख़त्म कर देना चाहती है ये सरकार?

Afroz Alam Sahil, TwoCircles.net

दस साल पहले बड़ी उम्मीदों के साथ देश में आए सूचना का अधिकार क़ानून (आरटीआई) से अब लोगों का भरोसा टूट रहा है. क्योंकि जानकारों का मानना है कि नई सरकार में पारदर्शिता के बजाए गोपनियता पर अधिक ज़ोर है. सरकार का यह रवैया आरटीआई के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनकर सामने आ रही है.

खुद आरटीआई से हासिल जानकारी यह बताती है कि तत्कालीन मोदी सरकार ने आरटीआई के प्रचार-प्रसार के बजट में 80 फ़ीसदी राशि की कटौती की है.

पुणे के आरटीआई कार्यकर्ता विहार धुर्वे को आरटीआई के ज़रिए केन्द्र सरकार के कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग द्वारा मिले अहम दस्तावेज़ बताते हैं कि आरटीआई के प्रचार-प्रसार में चालू वित्तीय वर्ष में सिर्फ़ 1.67 करोड़ रुपए खर्च किए गए हैं, जबकि पिछले वित्तीय वर्ष यानी 2014-15 में इस मद में 8.75 करोड़ रुपए खर्च किए गए थे.

अगर यूपीए के शासनकाल की बात करें तो साल 2011-12 में आरटीआई के प्रचार-प्रचार के लिए मनमोहन सरकार ने 16.72 करोड़ रुपए, 2012-13 में 11.64 करोड़ रुपए और 2013-14 में 12.99 करोड़ रुपए खर्च किए थे.

इतना ही नहीं, आरटीआई डालने वाले कार्यकर्ताओं की शिकायत है कि अब अधिकतर आरटीआई में सरकार द्वारा कोई जवाब नहीं दिया जाता. पारदर्शिता का अंदाज़ा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि पिछले दिनों खुद केन्द्रीय सरकार ने अपने अफ़सरों व कर्मचारियों को ऑफिस मेमोरेंडम के रूप में जारी एक निर्देश में स्पष्ट तौर पर कहा है कि संवेदनशील सूचनाएं लीक नहीं होनी चाहिए.

कहानी यहीं ख़त्म नहीं होती. केन्द्रीय सूचना आयोग में भारी बैकलॉक नज़र आ रहा है. आरटीआई से जुड़े देश की इस सबसे सर्वोच्च संस्थान यानी केन्द्रीय सूचना आयोग के पास आज की तारीख़ तक 33,807 द्वितीय अपील व शिकायतों के मामले पेंडिंग हैं और जिस रफ़्तार से इस आयोग में केसों का निपटारा हो रहा है, उससे यह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि इन तमाम मामलों के निपटारे में दो साल से अधिक का समय लग सकता है.

अगर मामला राष्ट्रपति कार्यालय, उप-राष्ट्रपति कार्यालय, प्रधानमंत्री कार्यालय, गृह मंत्रालय या रक्षा मंत्रालय जैसे अहम दफ़्तरों से संबंधित है तो यह इंतज़ार और भी लंबा हो सकता है.

पूर्व सूचना आयुक्त शैलेष गांधी सरकार की मंशा पर सवाल उठाते हुए बताते हैं कि जिस रफ़्तार से केन्द्रीय सूचना आयोग में मामलों का निपटारा किया जा रहा है, अगर उसी रफ़्तार में काम होता रहा तो सिर्फ इन्हीं मामलों में दो साल से अधिक का समय लगना तय है. इस तरह से देखा जाए तो सरकार आरटीआई को ख़त्म कर देने के पूरी तैयारी में है. ये आयोग भी कोर्ट की तरह हो जाएगा.

कॉमनवेल्थ ह्यूमन राईट्स इनीसिएटिव से जुड़े वेंकटेश नायक का कहना है –‘मेरे खुद के अपील आयोग में एक साल से पड़े हुए हैं. एक तरफ़ तो हमारे प्रधानमंत्री देश-दुनिया में घूम-घूम कर पारदर्शिता की बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हैं, लेकिन उनकी बातों का पालन ख़ुद उनके अपने दफ़्तर के अधिकारी नहीं कर रहे हैं. ये प्रधानमंत्री के इज़्ज़त पर एक बहुत बड़ा सवाल है.’

नेशनल कैंपेन फॉर राईट टू इंफोर्मेशन से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता निखिल डे कहते हैं कि इससे पहले भी आरटीआई का हाल बहुत ज़्यादा अच्छा नहीं था, पर इस सरकार ने इसे और बुरा कर दिया. हमने इस मसले पर सब करके देख लिया. धरना-प्रदर्शन भी हो गया. अदालत भी चले गए. अब इस समस्या का समाधान एक दिन में तो संभव है नहीं. सरकार का जो मक़सद था, उसे उसने पूरा कर लिया.

इससे पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी भी केन्द्र सरकार की आलोचना कर चुकी हैं. उन्होंने कहा था –‘सरकार बेरहमी से आरटीआई अधिनियम को कमजोर करने तथा खुद को बचाने की कोशिश कर रही है.’

इन सबके बीच सोमवार को पूर्व रक्षा सचिव आर.के. माथुर मुख्य सूचना आयुक्त (सीआईसी) के रूप में शपथ ले चुके हैं. लेकिन इनका भी कार्यकाल सिर्फ तीन साल का ही होगा. माथुर अभी 62 साल के हैं. और वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी बताती है कि इनके पास निपटारे के लिए 10 हज़ार से अधिक मामले (शिकायत व अपील दोनों) मौजूद हैं. तीन सालों में पहले इनका निपटारा कर देना ही उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी.

स्पष्ट रहे कि मुख्य सूचना आयुक्त का पद 22 अगस्त, 2014 से रिक्त था. पिछले साल 8 जून, 2015 को इस पद पर आयोग के वरिष्ठ सूचना आयोग विजय शर्मा को नियुक्त किया गया. लेकिन गत 1 दिसम्बर को विजय शर्मा रिटायर हो गए.

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