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पैग़म्बर मुहम्मद के खिलाफ़ की गई टिप्पणी देश का वातावरण बिगाड़ने का प्रयास – जदयू

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By TCN News,

पटना:जहां ‘गुस्ताख़-ए-रसूल’ की फांसी को लेकर मुसलमान देश भर में विरोध-प्रदर्शन कर रहे हैं, वहीं आज बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल (यूनाईटेड) ने एक प्रेस विज्ञप्ति के सहारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनकी पार्टी भारतीय जनता पार्टी पर निशाना साधा है.

जदयू की ओर से जारी प्रेस विज्ञप्ति में जदूय प्रवक्ता डॉ. निहोरा प्रसाद यादव ने कहा है कि प्रधानमंत्री को अपने दल के नेताओं और सहयोगी संगठनों पर वैसे बयान देने पर रोक लगाना चाहिए, जो किसी धर्म और समुदाय के भावनाओं पर ठेस पहुंचाता हो.

डॉ. निहोरा प्रसाद ने कहा है, 'जब से केंद्र में भाजपा की सरकार बनी है, तब से केंद्र के मंत्री, सांसद और नेताओं के साथ-साथ इनके सहयोगी संगठन चाहे आरएसएस हो या विश्व हिन्दू परिषद या फिर हिन्दू सभा... सबने खूब जहरीला बयान दिया है. और इन बयानों का मक़सद सिर्फ़ एक खास धर्म और समुदाय को टारगेट करना है. ये जानबुझ कर ऐसी बातें बोल दे रहे हैं, जिससे माहौल बिगड़ रहा है.’

उन्होंने आगे कहा, ‘बिहारशरीफ में हिन्दू महासभा के कमलेश तिवारी द्वारा मुहम्मद साहब के खिलाफ़ की गई टिप्पणी इस देश में वातावरण बिगाड़ने का प्रयास है.’

डॉ. निहोरा प्रसाद ने अपने प्रेस बयान में स्पष्ट तौर पर कहा है कि जब इस देश में संविधान किसी को यह इजाज़त नहीं देता कि किसी धर्म या धर्म गुरु के खिलाफ़ कोई टिप्पणी करे तो फिर ऐसा करने वाले लोगों पर प्रधानमंत्री क्यों चुप क्यों रहते हैं? देश के 125 करोड़ लोगों की हिमायत सिर्फ़ बयानों से नहीं होगी, बल्कि इस दिशा में न्यायसम्मत कार्रवाई भी करनी होगी.


बदहाली के अंतिम पायदान पर बिहार की उर्दू लाईब्रेरियां

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By अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

पटना:बिहार की उर्दू लाईब्रेरियां भयानक संक्रमण के दौर से गुज़र रही हैं. एक ज़माने में उर्दू अदब की नामचीन विरासत रही इन लाईब्रेरियों पर ख़त्म होने का ख़तरा मंडरा रहा है. बिहार में पिछले एक साल में कई ऐसे मामले सामने आए हैं, जिसमें इन लाईब्रेरियों में रखी हुई बहुमूल्य धरोहरों को नष्ट करने के ख़ातिर नदियों में बहाने की कोशिश की गई है.


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पटना सिटी में गांधी सरोवर मंगल तालाब के नज़दीक ‘कुतुबख़ाना अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू’ लाईब्रेरी की बिल्डिंग

एक ऐसा ही मामला मई महीने में मुंगेर जिले में भी सामने आया, जहां उर्दू की हज़ारों किताबों को एक लाईब्रेरी से निकालकर गंगा में फेंक दिया गया. यह लाईब्रेरी बिहार की पुराने लाईब्रेरियों में एक थी. इस लाईब्रेरी का अपना एक ऐतिहासिक महत्व है. बताया जाता है कि 1934 में बिहार में आए भारी भूकम्प में मारे गए लोगों को श्रद्धांजलि देने की नीयत से मुंगेर में यह उर्दू लाईब्रेरी स्थापित की गई थी.

लाईब्रेरी के सेक्रेटरी मो. फ़ारूक़ के मुताबिक़ इस लाईब्रेरी में 12 हज़ार से अधिक किताबें थी. लेकिन नदी में किताबें बहा देने के बाद अब लाईब्रेरी में एक भी किताब नहीं बची है. बताया जाता है कि इस घटना के पीछे शहर के भगवा बिग्रेड से जुड़े कुछ शरारती तत्वों का हाथ है, जो इस लाईब्रेरी को ख़त्म कर देना चाहते थे. हालांकि कुछ लोग इसके पीछे शहर के एक बिजनेसमैन का हाथ बताते हैं, जो इस हैरिटेज बिल्डिंग पर अवैध क़ब्ज़े की कोशिश में है.


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पटना में गर्वमेंट उर्दू लाईब्रेरी की बिल्डिंग

लेकिन सबसे अधिक हैरानी की बात यह है कि प्रशासन ने अभी तक इस मामले में कुछ नहीं किया और साथ ही क़ौम की नुमाईंदगी करने वाले बड़े-बड़े प्रतिनिधि भी इस पूरे मामले पर अभी तक चुप्पी साधे हुए हैं.

मुंगेर की कहानी बिहार में कोई पहली बार सामने नहीं आई है. इससे पहले पटना सिटी में गांधी सरोवर मंगल तालाब के नज़दीक ‘कुतुबख़ाना अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू’ लाईब्रेरी की किताबें में तालाब में डाल दी गई थी. हालांकि इस लाईब्रेरी की कहानी मुंगेर की कहानी से थोड़ी अलग है.


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बेतिया की सज्जाद लाईब्रेरी में दीमक लगी किताबें

27 मार्च 1939 को स्थापित इस लाइब्रेरी का उद्घाटन कांग्रेस की नेता और स्वतंत्रता सेनानी सरोजनी नायडू ने किया था. इसके संस्थापकों में स्वतंत्रता सेनानी ख़ान बहादुर इब्राहिम हुसैन, जस्टिस अख़्तर हुसैन, अज़ीमाबाद (पटना का पुराना नाम) के मशहूर लेखक नवाब रईस व ‘सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है’ जैसी मशहूर नज़्म लिखने वाले मोहम्मद हसन उर्फ़ बिस्मिल अज़ीमाबादी शामिल थे. तब यह लाईब्रेरी अज़ीमाबाद के अदीबों व दानिश्वरों का मक्का हुआ करती थी. लेकिन अब यहां जानवरों के खूंटे बंधे हुए हैं. चोर-उचक्कों और शराबियों-जुआरियों ने अब इसे अपना अड्डा बना लिया है. किताबें क्या, इस लाइब्रेरी के दरवाज़े-खिड़कियां तक ग़ायब हो गए हैं. जबकि इस लाईब्रेरी में उर्दू, फ़ारसी, अरबी व पाली भाषा की दस हज़ार से अधिक किताबें थी. कई भोजपत्र व पाण्डुलिपियां भी थीं. उस समय के तमाम मशहूर अख़बार व रिसाले जैसे सर्च लाईट, इंडियन नेशन, आर्यावर्त, सदा-ए-आम, संगम, शमा, फूल आदि इस लाईब्रेरी में आते थे. दूर-दूर से लोग यहां जासूसी की किताबें पढ़ने आते थे क्योंकि उस समय जासूसी की किताबों को पढ़ने का अपना एक अलग मज़ा था. और इस लाईब्रेरी में जासूसी किताबें खूब थी. इब्ने शफ़ी की सिरीज़ की सभी क़िताबें इस लाईब्रेरी में मौजूद थीं.


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बेतिया की सज्जाद लाईब्रेरी की सड़ चुकी किताबें

पश्चिम चम्पारण जिले के बेतिया शहर में भी कभी मशहूर सज्जाद लाईब्रेरी हुआ करता था. बताया जाता है कि 1937 में मुस्लिम इंडीपेंडेंट पार्टी के गठन के साथ ही शहर के अहम दानिश्वरों के साथ मिलकर मौलाना अबुल मुहासिन मो. सज्जाद ने इस लाईब्रेरी की स्थापना की थी. तब यह लाईब्रेरी आज़ादी के दीवानों का अहम केन्द्र हुआ करता था, लेकिन अब यह लाईब्रेरी बिल्डिंग सहित पूरी तरह से गायब है.

कुछ ऐसी ही कहानी मोतिहारी की उर्दू लाईब्रेरी की भी है. बताया जाता है कि इस लाईब्रेरी के लिए हाफ़िज़ मोहम्मद दीन जैसे लोगों ने स्थापित किया था. लेकिन अब यह लाईब्रेरी लोगों के शादियों की गवाह बनती है. क्योंकि इस लाईब्रेरी की सारी किताबें गायब हैं और इसके कमिटी से जुड़े लोग इसका इस्तेमाल शहर में होने वाले शादियों या मुशायरों में करते हैं.

पटना के अशोक राजपथ स्थित गवर्मेंट उर्दू लाइब्रेरी कभी बिहार की शान हुआ करती थी. इस लाईब्रेरी की स्थापना जनाब डॉ. सैय्यद महमूद (1889-71) ने की थी. इस लाईब्रेरी की पहली चेयरमैन लेडी अनीस इमाम थी, जो 1938 से लेकर जून 1979 तक इस पद पर क़ायम रहीं. कभी इस लाईब्रेरी की देश भर में अपनी पहचान थी, क्योंकि उर्दू की किताबों और अख़बारों का जितना विशाल संग्रह यहां उपलब्ध है, उतना शायद ही देश की किसी और लाइब्रेरी में हो. इस लाईब्रेरी में 38 हज़ार किताबें हैं. लेकिन इस लाईब्रेरी में भी किताबें अब धूल फांक रही हैं. इसके अलावा चिंता का विषय यह है कि यहां दो बार अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के सदस्य हंमागा कर चुके हैं. उनकी मांग है कि उर्दू की किताबें हटाकर इसे हिन्दी पुस्तकालय बनाया जाए.

बग़ल में स्थित एशिया के बड़ी लाईब्रेरियों में शुमार खुदाबख्श ओरियंटल लाईब्रेरी की हालत भी कुछ अधिक सही नहीं है. यह लाईब्रेरी भी अब अंदर-अंदर ही खोखली होती जा रही है. 2014 में इतिहासकार डॉ. इम्तियाज़ के हटने के बाद अभी तक कोई डायरेक्टर इस लाईब्रेरी को नहीं मिला. स्कॉलरों को स्कॉलरशिप भी मिलना लगभग बंद है. स्टाफ को सैलरी भी वक़्त पर नहीं मिल पाती है.

पटना के खानकाह एमादिया की लाइब्रेरी में रखी किताबें भी अब ख़त्म होने के कगार पर हैं जबकि इस लाईब्रेरी के किताबों के संरक्षण और डिजिटाइजेशन का ज़िम्मा आज से दस साल पहले खुद केन्द्र सरकार ने लिया था. डिजिटाइजेशन के काम लिए केंद्र सरकार ने 2005 की योजना के तहत 90 लाख रुपए की राशि खुदाबख्श लाइब्रेरी को दी थी. लेकिन दस साल में भी यह काम खुदाबख्श लाईब्रेरी पूरा नहीं कर पाई. ऐसे में संरक्षण नहीं होने की वजह से पहले से दयनीय हालत में पहुंचीं किताबों की स्थिति लगातार ख़राब और होती जा रही है.

हालाकिं खानकाह से जुड़े लोगों का कहना है कि खुदाबख्श लाइब्रेरी ने दो साल पहले संरक्षण के काम की शुरुआत की थी लेकिन कुछ किताबों को ठीक करने के बाद काम को बंद कर दिया. खानकाह एमादिया ने कई बार खुदाबख्श लाइब्रेरी से शिकायत भी की, लेकिन कोई हल नहीं निकाला जा सका. जबकि यहां बहुत सारी किताबें इस हालत में पहुंच गई हैं कि डिजिटाइजेशन के लिए इन्हें स्कैन करना तक मुश्किल है. हालांकि खुदाबक्श लाइब्रेरी का कहना है कि उसने केन्द्र सरकार के योजना के तहत अब तक 3000 से ज्यादा पांडुलिपियों के डिजिटाइजेशन का काम पूरा किया है.

खानकाह एमादिया क़रीब तीन सौ साल पुराना है. पहले यह फुलवारीशरीफ में था. करीब 200 साल पहले नूर-उल-हक़ इसे पटना सिटी ले आए. खानकाह की स्थापना के समय से ही इसमें पुस्तकालय है. पुस्तकालय में करीब नौ हजार किताब, छह सौ पांडुलिपियां और करीब एक हज़ार हस्तलिखित किताबें मौजूद हैं. सबसे पुरानी पांडुलिपि सरफ-सुजु-हुकम है. कुछ अंग्रेजी किताबों को छोड़कर बाकी सभी उर्दू, अरबी और फारसी भाषा में लिखी हुई है.

एक रिपोर्ट के मुताबिक़ बिहार में करीब पांच हजार छह सौ ग्रामीण पुस्तकालयों को आर्थिक मदद के अभाव में बंद कर दिया गया. आंकड़े बताते हैं कि अब पूरे राज्य में महज चार सौ लाईब्रेरियां ही चालू हालत में हैं और उनमें से भी ज्यादातर की स्थिति ख़राब है.

बेतिया की सज्जाद लाईब्रेरी को दुबारा शुरू करने की कोशिश यहां के युवा कर रहे हैं. वहीं पूरी तरह से ख़त्म हो चुकी ‘कुतुबख़ाना अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू’ लाईब्रेरी को एक बार फिर ज़िन्दा करने की नीयत से अगस्त 2013 में ‘उर्दू लाईब्रेरी एक्शन कमिटी’ बनाई गई. इस कमिटी के संरक्षक खुद बिहार सरकार के पूर्व अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री नौशाद आलम हैं. कमिटी के अध्यक्ष समाजसेवी आदिल हसन आज़ाद हैं. आदिल दावा करते हैं कि वे इस लाईब्रेरी को दुबारा ज़िन्दा करके दम लेंगे.

बिहार के शेखपुरा के समाहरणालय परिसर में ही स्थित उर्दू लाईब्रेरी की कहानी तो और भी दिलचस्प है. यह लाईब्रेरी अब होमगार्ड कार्यालय में तब्दील हो चुका है. जब सैकड़ों छात्रों ने प्रदर्शन किया तो प्रशासन की आंख खुली और कहा गया कि लाईब्रेरी से जल्द ही सरकारी दफ्तर को हटाया जायेगा.

ऐसे में निराशा के इन बादलों के बीच अभी एक हल्की-सी रोशनी भी दिखाई पड़ती है. उम्मीद की यह रोशनी युवा तबक़े से आई है, जो विरासत को बचाने और दुबारा से स्थापित करने की लड़ाई लड़ रहा है. यह युवा वर्ग इन लाईब्रेरियों की दशा व दिशा को लोगों तक पहुंचाने में जुटा हुआ है, ताकि समय रहते क़दम उठाया जा सके और उर्दू अदब की अनमोल विरासत आने वाली पीढ़ी के हाथों में सुरक्षित सौंपी जा सके.

असहिष्णुता की बहस में कूदे एनडीए के मुस्लिम सांसद, कहा भाजपा जिम्मेदार

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By TCN News,

नई दिल्ली:देश में असहिष्णुता पर जारी बहस अब एक क़दम और आगे बढ़ गयी है. अब तक इस बहस में सत्तारूढ़ पार्टी का आरोप था कि देश में असहिष्णुता का हव्वा विपक्षी पार्टी खड़ा कर रही है, जबकि देश में कहीं भी ऐसा है नहीं. लेकिन अब उन्हीं के सांसद चौधरी महबूब अली क़ैसर ने सरकार की मुश्किलें और बढ़ा दी हैं और फिर से विपक्ष को भी बोलने का मौक़ा दे दिया है.


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चौधरी महबूब अली कैसर ने अपने बयान में कहा है कि बिहार चुनाव में हार के लिए भाजपा के कट्टर छवि वाले नेताओं और संघ प्रमुख के बयान जिम्मेदार हैं. गौहत्या पर जिस तरह की बयानबाजी हुई, वह काफी निराशाजनक थी.

उन्होंने कहा, ‘सबका साथ –सबका विकास हमारा नारा है, लेकिन इसे साबित भी करना होगा. इस देश में 90 फीसदी हिन्दू भी सेकुलर हैं और एक फीसदी लोगों के इस तरह के बयान से नुक़सान होता है. इसलिए इस तरह के बयान चाहे किसी भी तरफ़ से आते हो, सबकी निंदा करनी चाहिए. इस तरह के बयान अल्पसंख्यकों के साथ-साथ हिन्दूओं को भी बुरे लगते हैं.’

लोजपा सांसद चौधरी महबूब अली कैसर ने असहिष्णुता के मसले पर पीएम मोदी से हस्तक्षेप की मांग की है.

चौधरी महबूब अली कैसर के इस बयान के आते ही बिहार में जदयू भी इस मसले पर मैदान में कूद पड़ी है. जदयू प्रवक्ता डॉ. निहोरा प्रसाद यादव ने कहा है कि एनडीए के सांसद चौधरी महबूब अली कैसर द्वारा देश में बढ़ रहे असहिष्णुता पर उठाये गए सवाल भले ही भाजपा को नागवार लगे, पर सच्चाई वही है जो कैसर कह रहे हैं. इस सवाल पर लोजपा अध्यक्ष एव केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान को भी अपनी स्थिति स्पष्ट करना चाहिए.

उन्होंने आगे कहा, ‘देश में कई महीनों से इस तरह के सवाल उठ रहे हैं पर इसकी तह में जाने के बजाय भाजपा व्यक्तिगत टिप्पणी करके इसे दबाने का प्रयास कर रही है. दबाने से समस्याओं का समाधान नहीं हो जाता, बल्कि ऐसी भावनाओं को और मज़बूती मिलती है.’

निहोरा प्रसाद यादव ने कहा है कि सरकार की संवैधानिक ज़िम्मेदारी भी बनती है कि देश का कोई वर्ग, धर्म और समुदाय उनके सरकार और दल के नेताओं के व्यवहार से आहत न हो, पर यहां तो यदि कोई सही बात कह रहा है तो उसे मुसलमान, ईसाई और दलित एवं सरकार विरोधी होने के नज़रिये से देखा जा रहा है. जब तक शासक वर्ग का नज़रिया इस प्रकार रहेगा, देश में असहिष्णुता और बढ़ेगा. शासन को इन वर्गो को मुसलमान, ईसाई दलित और सरकार विरोधी होने के नज़रिये से न देखकर देश के नागरिक के रूप में देखना चाहिये.’

कनहर बांध: जांच समिति की रिपोर्ट से नाराज़ ट्रिब्यूनल

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By सिद्धांत मोहन, TwoCircles.net

नई दिल्ली:उत्तर प्रदेश सरकार के सिंचाई विभाग द्वारा तैयार किए जा रहे विवादित कनहर बांध पर नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल/ राष्ट्रीय हरित ट्रिब्यूनल के सामने जांच समिति ने यह स्वीकार किया कि उनके द्वारा तैयार की गयी रिपोर्ट में खामियां और गलतियां हैं. ट्रिब्यूनल द्वारा गठित इस जांच समिति को ट्रिब्यूनल के 7 मई 2015 के आदेश का पालन करते हुए निर्माणाधीन बांध के सन्दर्भ में ज़रूरी जानकारियां रिपोर्ट में सौंपनी थी.


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इस मामले में सौंपी गयी इस रिपोर्ट से नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के जज असंतुष्ट हैं. जस्टिस स्वतंत्र कुमार की बेंच ने आईआईटी कानपुर की ओर से किसी कमेन्ट की अनुपस्थिति और रिपोर्ट को फ़ाइल करने में हुई देर के कारणों के लिए जांच कमेटी से स्पष्टीकरण मांगा है.

बांध के डूब क्षेत्र में आने वाले उत्तर प्रदेश, झारखंड और छत्तीसगढ़ के गांवों के बाशिंदों के पुनर्वास के सन्दर्भ में पूरी जानकारी और बांध से प्रभावित होने वाली समूची जनसंख्या की जानकारी पर ट्रिब्यूनल ने कमेटी से जवाब तलब किया है. इस बांध के निर्माण के बाद डूबने वाले जंगलों और महज़ 12 प्रतिशत के सरवाईवल रेट पर ट्रिब्यूनल ने गहरी चिंता प्रकट की है.


अकथ कहानी कनहर की / Photos o Kanhar story

ट्रिब्यूनल के अध्यक्ष जस्टिस स्वतंत्र कुमार ने जांच कमेटी को आखिरी मौक़ा दिया है, ताकि कमेटी इन सभी बिन्दुओं के मद्देनज़र तीन हफ़्तों के भीतर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत कर सके.

ओ.डी. सिंह और देबदित्यो सिन्हा द्वारा दायर की गयी याचिका के तहत सुनवाई करते हुए ट्रिब्यूनल ने यह भी कहा है कि ट्रिब्यूनल के आदेशों का स्पष्ट उल्लंघन करते हुए राज्य सरकार ने नए निर्माण करवाने शुरू कर दिए हैं.

ज्ञात हो कि आदेश के अनुसार सरकार बांध स्थल पर किसी भी किस्म का नया निर्माण नहीं करवा सकती है, लेकिन विश्वस्त सूत्रों की मानें तो राज्य सरकार ने इस आदेश का ज़ाहिरा तौर पर उल्लंघन किया है. जस्टिस स्वतंत्र कुमार ने कहा है कि प्रदेश सरकार को आदेश के अनुसार चलना होगा अन्यथा विपरीत परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं.

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निर्भया काण्ड के बाद घटने के बजाय बढ़े हैं बलात्कार के मामले

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By अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

नई दिल्ली:निर्भया कांड के तीन साल पूरे हो चुके हैं. इन बीते तीन सालों में बलात्कार की घटनाएं और दोषी क़रार दिए जाने वालों की संख्या बढ़ी है.

नेशनल क्राईम रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि साल 2013 और 2014 में पूरे देश में कुल 17067 लोगों को बलात्कार के मामले में दोषी क़रार दिया गया है. वहीं इन दो सालों में पूरे देश में कुल 42194 क़ैदी ऐसे हैं जो बलात्कार के मामले में अंडर-ट्रायल चल रहे हैं.


(साभार - बिज़नेस इनसाइडर)

इन आंकड़ों के मुताबिक़ साल 2014 में कुल 8879 क़ैदी दोषी क़रार दिए गए. वहीं 22500 लोग बलात्कार के मामले में अंडर-ट्रायल हैं. अगर दिल्ली की बात करें तो साल 2014 में यहां 546 क़ैदी बलात्कार के मामले में दोषी क़रार दिए गए हैं. वहीं 1583 क़ैदी अभी भी अंडर-ट्रायल क़ैदी के रूप में दिल्ली के अलग-अलग जेलों में बंद हैं. हालांकि इस मामलों में उत्तर प्रदेश पहले स्थान पर है. दूसरे स्थान पर मध्य प्रदेश का नंबर आता है.

उत्तर प्रदेश में साल 2014 में कुल 1862 क़ैदी बलात्कार के मामले में दोषी क़रार दिए गए हैं. वहीं 5098 क़ैदी अंडर-ट्रायल हैं. जबकि मध्य प्रदेश में 1414 क़ैदी दोषी क़रार दिए गए हैं वहीं 2393 क़ैदी इस मामले में अंडर-ट्रायल हैं.

यदि बात साल 2013 की करें तो इस साल 8188 क़ैदी पूरे देश में बलात्कार के मामले में दोषी क़रार दिए गए हैं, जबकि 2012 में यह संख्या सिर्फ़ 7009 थी. वहीं 19694 क़ैदी अंडर-ट्रायल हैं, जबकि 2012 में 14926 क़ैदी अंडर-ट्रायल थे.

बलात्कार के मामले में 2013 में दिल्ली में 472 क़ैदियों को दोषी क़रार दिया गया था, जबकि 2012 में यह संख्या 424 थी. वहीं 2013 में 19694 क़ैदी अंडर-ट्रायल थे, जबकि 2012 में सिर्फ़ 879 क़ैदी ही अंडर-ट्रायल थे.

दिल्ली पुलिस के आंकड़ों के मुताबिक़ दिल्ली में साल 2014 में बलात्कार के 2,069 मामले सामने आए थे, जबकि 2013 में बलात्कार के 1,571 मामले दर्ज किए गए थे. यानी साल दर साल बलात्कार के मामले बढ़ते जा रहे हैं. स्पष्ट रहे कि निर्भया कांड के बाद सरकार ने कई नए क़ानून बनाए थे. फंड भी जारी किए थे, लेकिन ऐसी घटनाओं में कोई कमी दिखाई नहीं दे रही है.

जामिया मिल्लिया इस्लामिया के ‘सरोजनी नायडू सेन्टर फॉर वूमेन स्टडीज’ की क़ानून विशेषज्ञ व असिस्टेंट प्रोफेसर तरन्नुम सिद्दीक़ी बताती हैं, ‘निर्भया कांड के बाद ऐसा लगा था कि देश में अब बलात्कार की घटना तकरीबन बंद हो जाएगी. क्योंकि हर कोई इस मामले को लेकर सड़कों पर था. वहीं सरकार ने भी कई नियम-क़ानून बनाएं, लेकिन पिछले तीन सालों में सब फेल नज़र आते हैं.’

तरन्नुम सिद्दीक़ी का कहना है कि लोगों को क़ानून की कोई जानकारी ही नहीं है. यहां तक कि दिल्ली की पढ़ी-लिखी लड़कियां भी इससे अनभिज्ञ हैं. दूसरी तरफ़ बलात्कारियों के मन में क़ानून का कोई भय भी नहीं दिखाई देता. सबसे ज़िम्मेदार तो इस मामले में प्रशासन ही है. प्रशासन की उदासीनता का अंदाज़ा आप इसी से लगा सकते हैं कि दिल्ली में आज तक ‘जेंडर ऑडिट’ भी नहीं कराया जा सका है. इसीलिए बलात्कार के मामले घटने के बजाए, बढ़ रहे हैं.

लेकिन इसके विपरित दिल्ली पुलिस संख्या में बढ़ोतरी को अच्छा संकेत मानती है. उसका मानना है कि महिलाएं अब सामने आने और घटना के बारे में रिपोर्ट करने में पहले के मुक़ाबले अधिक सहज महसूस कर रही हैं. क़ानून बदलने और पुलिस को संवेदनशील बनाने से महिलाओं में नया आत्मविश्वास आया है.

उत्तर प्रदेश उपचुनाव : तीन सीटों पर ओवैसी की पार्टी तैयार

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By अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

नई दिल्ली:बिहार के चुनाव के बाद अब ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (मजलिस) ने उत्तर प्रदेश के उप-विधानसभा चुनावों में दांव खेलने की पूरी तैयारी कर ली है. लेकिन इस बार यह दांव काफ़ी सधा हुआ दिखाई दे रहा है क्योंकि इस बार ओवैसी की पार्टी ‘जय मीम –जय भीम’ के नारे के साथ उतरने की तैयारी में है.

पार्टी से जुड़े सूत्र बताते हैं कि आगामी कुछ ही महीनों में यूपी की तीन सीटों पर होने वाले उप-विधानसभा चुनाव में मजलिस तीनों सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारेगी.


OWAISI UP POSTER

इन तीन विधानसभा सीटों में से दो सीट पर मजलिस दलित उम्मीदवार उतारने की तैयारी में है. यानी मुस्लिम के साथ-साथ दलित वोट-बैंक को साथ लेकर एक बेहद ही मज़बूत समीकरण बनाने की कोशिश ओवैसी इस चुनाव में करने की सोच रहे हैं.

ओवैसी का यह दांव इसलिए भी बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है कि मायावती की बहुजन समाज पार्टी(बसपा) किसी भी उपचुनाव में हिस्सा नहीं लेती है. ऐसे में मायावती के चुनावी संग्राम में न उतरने की सूरत में बसपा का एक बड़ा वोट-बैंक ओवैसी के पाले में जा सकता है. साथ ही यूपी का मुसलमान तबक़ा मुलायम के समाजवादी पार्टी से काफ़ी नाराज़ दिख रहा है, ऐसे में मुस्लिम वोट-बैंक का भी एक बड़ा हिस्सा ओवैसी के साथ जा सकता है. ऐसे में अगर सचमूच ऐसा हो गया तो यूपी में यह एक नये राजनीतिक समीकरण का बुनियाद साबित हो सकता है.

मजलिस के उत्तर प्रदेश प्रभारी मो. यामीन खान TwoCircles.net से बातचीत में बताते हैं, ‘पार्टी ने यह तय कर लिया है कि इस उप-विधानसभा चुनाव में तीनों सीटों पर लड़ना है. उम्मीदवारों के नामों का चयन भी तय कर लिया गया है. लेकिन उम्मीदवारों के नाम पर आख़िरी मुहर तो पार्टी के मुखिया बैरिस्टर असदुद्दीन ओवैसी ही लगाएंगे.’

2017 में मायावती के साथ गठबंधन के बारे में पूछने पर वो बताते हैं कि पार्टी ने तो आज तक गठबंधन का कोई ऐलान किया ही नहीं है. किसी पार्टी से गठबंधन होगा या अकेले ही चुनाव लड़ेंगे, यह तो पार्टी का मुखिया तय करेगा.’

स्पष्ट रहे कि यूपी के तीन विधानसभा क्षेत्र के विधायकों की मौत के कारण यह सीट खाली हुई है. तीनों सीटों पर पहले से सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी का क़ब्ज़ा था और इस बार पार्टी अपने उम्मीदवारों के नामों का ऐलान करके मैदान में ओवैसी से पहले ही कूद चुकी है.

चुनाव की तारीख अभी तय नहीं हुई है, लेकिन जानकारों का मानना है कि चुनाव आयोग अगले तीन-चार महीनों में यह चुनाव करा सकती है. इन तीन सीटों में मुज़फ़्फ़रनगर, देवबंद और बीकापुर विधानसभा का नाम शामिल है.

दरअसल, यूपी की चुनावी बिसात में यह ओवैसी के पार्टी का आगाज़ है. लेकिन दलित-मुस्लिम का यह गठजोड़ अगर ओवैसी के फेवर में गया तो आगे 2017 की पटकथा बेहद ही आसान होगी. ओवैसी को इस प्रयोग से काफी उम्मीदें हैं, लेकिन देखना दिलचस्प होगा कि यूपी की जनता ओवैसी का कितना साथ देती है.

विद्रोही : कवि के लिबास में क्रांतिकारी, जिससे लोग कन्नी काटते थे

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By अविनाश चंचल

पिछले हफ्ते रामाशंकर यादव विद्रोही नहीं रहे. पिछले मंगलवार यूजीसी के खिलाफ छात्रों के एक विरोध प्रदर्शन में जाते हुए उनका निधन हुआ. वे ज़ाहिरा अर्थों में जनकवि थे. जनता के सुख-दुख और लड़ाईयों में साझा रहने वाले कवि के रूप में उन्हें याद किया जायेगा. रमाशंकर यादव भारतीय परंपरा के एक विद्रोही कवि थे और यह भारतीय परंपरा कबीर और रैदास की उज्जवल परंपरा है, जिसने समय-समय पर समाज की बुराईयों, रुढ़ियों को तोड़ने का प्रयास किया है.


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विद्रोही की कविता मौखिक कविता की परंपरा है. कबीर की तरह वे भी लिखते नहीं थे, बल्कि कहते थे और इतनी ताक़त और दम लगाकर कहते थे कि सुनने वाला श्रोताओं को एक-एक कहा गया शब्द ‘ठक’ से जाकर लगता था. उनकी कविता का संसार सिर्फ भारतीय समाज नहीं था बल्कि उनकी चिंताओं में पूरा देश और दुनिया की चिंताएँ शामिल थीं, वे चिताएँ मानव जाति को बचाने की चिंता थी, वे मुनाफाखोर संस्कृति के खिलाफ, लूट, भ्रष्टाचार, गरीबों के शोषण के खिलाफ व्यक्त की गयी चिंताएं थीं. विद्रोही की कविताओं में मोहनजोदड़ों भी था तो इजरायल भी और समाज का क्रुर जाति व्यवस्था भी. उनकी कविताओं में जली हुई औरत का दर्द था तो भारत-पाकिस्तान बंटवारे में फंस गए नूर मियां भी. उनकी कविताओं का पात्र हवा-हवाई कोई काल्पनिक नायक नहीं थे बल्कि लोक जीवन और यथार्थ की खुरदुरी जमीन पर टिके पात्र उनकी कविताओं के नायक थे और काव्य विषय भी. भगवान के नाम पर हो रही धंधेबाजी के खिलाफ विद्रोही कहते हैं, "मैं किसान हूँ/आसमान में धान बो रहा हूँ/कुछ लोग कह रहे हैं कि पगले! आसमान में धान नहीं जमा करता/मैं कहता हूँ पगले!/अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है/तो आसमान में धान भी जम सकता है/और अब तो दोनों में से कोई एक होकर रहेगा/या तो ज़मीन से भगवान उखड़ेगा/या आसमान में धान जमेगा."


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भारतीय समाज और खासकर, हिन्दी साहित्य में अभिजात्य का कब्जा हमेशा से रहा है. विद्रोही ने अपनी कविताओं में उस अभिजात्यपन को तोड़ने का प्रयास किया. इस क्रम में पूरे अभिजात्य समाज से उतनी ही प्रताड़ना भी मिली. प्रताड़ित करने वाला यह अभिजात्य समाज किसी एक धारा का नहीं था. इसमें समाज के सामंत तो हैं ही, बल्कि हिन्दी साहित्य के सामंत भी शामिल हैं. ये सामंत किसी बड़े विश्वविद्यालयों में प्रगतिशील प्रोफेसर का चोला ओढ़े है तो किसी बड़े साहित्यिक संस्थान में जनवादी आलोचक बना बैठा है. जनकवि विद्रोही को सत्ता के हर खेमे ने उपेक्षित किया और ऐसा स्वाभाविक ही था क्योंकि विद्रोही जिस प्रतिरोध की संस्कृति और कविता के गायक थे, उसकी चिंता निजी नहीं थी बल्कि पूरा समाज और हाशिये पर धकेल दिया गया मानव संसार उनकी चिंता के केन्द्र में है. उनकी कविता का मूल स्वर प्रतिरोध का स्वर है, वे कहते हैं, “मेरा सर फोड़ दो, मेरी कमर तोड़ दो, पर ये न कहो कि अपना हक़ छोड़ दो”.लेकिन अफ़सोस खुद शोषण और हाशिये पर धकेल दिये समाज कि चिन्ता करने वाले कवि को अभिजात्य समाज ने उपेक्षित किया.

रमाशंकर यादव अस्सी के दशक में जेएनयू के प्रतिभाशाली छात्र थे, जिसे हिन्दी साहित्य में शोध करने के लिये देश के बड़े विश्वविद्यालय में दाखिला मिला था. लेकिन एक पिछड़े परिवार से आने की वजह से शायद जेएनयू के कथित प्रगतिशील प्रोफेसरों को रमाशंकर नाम का वह प्रतिभाशाली युवक रास नहीं आया. उन्हें प्रोफेसरों द्वारा बैल कहकर बुलाया जाता था. इस बीच विद्रोही छात्र आंदोलन में सक्रिय रहे और छात्रों के सवाल पर लगातार मुखर रहने का ही परिणाम हुआ कि 1983 में उन्हें इन्हीं प्रोफेसरों ने विश्वविद्यालय से बाहर का रास्ता दिखा दिया. लेकिन विद्रोही ने जेएनयू नहीं छोड़ा.

पिछले तीन दशकों से दिल्ली में होने वाले किसी भी प्रतिरोध के आयोजनों में विद्रोही अपने बगावती तेवर के साथ मौजूद रहे. चाहे वह किसानों की आत्महत्या के खिलाफ हो, चाहे महिलाओं पर हो रहे अत्याचार के खिलाफ, चाहे देश की प्राकृतिक संसाधनों को उद्योगपतियों के हाथ मे बेचने के खिलाफ या फिर धार्मिक कठमुल्लेपन के खिलाफ विद्रोही ने न सिर्फ अपनी कविताओं में बल्कि स्वयं भी तमाम विरोध-प्रदर्शनों में उपस्थित होकर मोर्चा लिया है.

आज जब समाज में साहित्य की भूमिका न के बराबर रह गयी है, जब कविता-कहानी की लोकप्रियता घटकर अपने न्यूनतम समय पर है, ऐसे समय में विद्रोही अपनी कविताओं के माध्यम से जनता से सीधा संवाद स्थापित करते थे. विद्रोही जनश्रुति की परंपरा के कवि थे और शाय़द इसलिए भी अपनी कविताओं को उन्होंने कभी लिखने की जरुरत नहीं समझी. हालांकि कुछ लोगों के प्रयास से उनकी कविताओं का एक संग्रह नयी खेतीनाम से प्रकाशित किया गया.

विद्रोही के जाने के बाद सोशल मीडिया पर बहुत से लोगों ने शोक व्यक्त किया. कई अखबारों में उन पर प्रोफाइल भी प्रकाशित हुए और शायद कुछ हिन्दी की पत्रिकाएँ उन पर कवर स्टोरी छापने की तैयारी में भी जुट गयी होंगी. लेकिन तल्ख सचाई यही है कि विद्रोही जब तक जेएनयू में रहे, बुरे हालातों में रहे. तमाम तरह की बीमारियों और अभावों में अपना जिन्दगी बसर करते रहे. उनको सहजने और सलीके से रखने का काम न तो उनकी विचारधारा के प्रगतिशील खेमे के लोगों ने किया न ही व्यापक जनसमाज ने अपने इस महान कवि की सुध ली. कभी हिन्दी के सांमत और नामवर आलोचकों ने उनपर लिखना जरुरी नहीं समझा, साफ-सुथरी पगार पाने वाले जनवादी कवियों ने उन्हें कवि नहीं माना, दिल्ली के अभिजात्य बुद्धिजीवी वर्ग ने भी उन्हें उपेक्षित किया. अंतिम दिनों में रमाशंकर यादव विद्रोही को किसी अजायबघर की चीज बना दिया गया था, जिसका परिचय था कि यह आदमी जेएनयू में चालीस सालों से रह रहा है बस, जिससे लोग कन्नी काटते थे.

कभी कवि मुक्तिबोध के मरने पर शरद जोशी ने लिखा था, मरा हुआ कवि बहुत काम का होता है. जनकवि विद्रोही के मरने के बाद भी दिल्ली का साहित्य संसार विद्रोही को काम की चीज बनाने में जुटा है. शोक सभाएँ की जा रही हैं, उनकी रचनाओं को छपवा कर संपादक बनने की जुगत लगायी जा रही है, बड़े-बड़े लेख छापे जा रहे हैं. लेकिन सच्चे अर्थों में विद्रोही जैसे जनकवि मरते नहीं हैं, वे अपनी कविताओं में, छात्रों की दिवालों पर, यूनिवर्सिटी में, सड़कों पर, जंतर-मंतर पर हर जगह उपस्थित रहेंगे. विद्रोही के मरने पर शोक सभा की जगह कविता का उत्सव होना चाहिए. उनकी कविताओं को जनता के बीच, उसके तपते संघर्षो में खड़ा किया जाना चाहिए यही उस महान जनकवि को आखिरी सलाम होगा. खुद विद्रोही के शब्दों में, मैं भी मरूंगा/ और भारत के भाग्य विधाता भी मरेंगे/ लेकिन मैं चाहता हूं/ कि पहले जन-गण-मन अधिनायक मरें/ फिर भारत भाग्य विधाता मरें/फिर/साधू के काका मरें/यानी सारे बड़े-बड़े लोग पहले मर लें/फिर मैं मरूं - आराम से/उधर चल कर वसंत ऋतु में/ जब दानों में दूध और आमों में बौर आ जाता है/या फिर तब जब महुवा चूने लगता है/या फिर तब जब वनबेला फूलती है/नदी किनारे मेरी चिता दहक कर महके/और मित्र सब करें दिल्लगी/ कि ये विद्रोही भी क्या तगड़ा कवि था/ कि सारे बड़े-बड़े लोगों को मारकर तब मरा.

[अविनाश चंचल मानवाधिकार कार्यकर्ता और एक्टिविस्ट हैं. वे स्वतंत्र पत्रकार भी हैं. उनसेavinashk48@gmail.comपर संपर्क किया जा सकता है.]

मुस्लिम परिवार के ख़िलाफ़ झूठी ख़बर प्रकाशित करने का कड़ा विरोध

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By अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

नई दिल्ली:हिंदी के प्रमुख अख़बार दैनिक भास्कर के कई संस्करणों में प्रकाशित एक ख़बर का सोशल मीडिया पर कड़ा विरोध हो रहा है. इस ख़बर में एक मुस्लिम परिवार के छत पर ईद मिलादुन्नबी के मौक़े से फहराए गए इस्लामिक झंडे को पाकिस्तान का झंडा बताया गया है.

मुस्लिम समुदाय के स्थानीय लोगों ने भी अख़बार का विरोध किया है और स्थानीय ज़िलाधिकारी को अख़बार के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने के लिए ज्ञापन भी सौंपा है. वहीं जयपुर में भी इसका विरोध हुआ है और वहां के आईजी को भी ज्ञापन सौंपा गया है.


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दरअसल, यह कहानी राजस्थान के दौसा की है, जहां हलवाई बाज़ार में एक मुस्लिम परिवार के घर पर इस्लामिक झंडा लगाया गया था. लेकिन दैनिक भास्कर ने इस झंडे को पाकिस्तानी झंडा क़रार देते यह ख़बर प्रकाशित की थी ‘हलवाई बाज़ार में एक घर की छत पर पाक का झंडा लहरा रहा है. पाक का झंडा कब लहराया, इस बारे में किसी को स्पष्ट पता नहीं है. आस-पास के लोगों से पूछताछ में पता चला कि पाक का झंडा 2 दिन से देख रहे हैं. पाक झंडा जिस घर की छत पर लहरा रहा है, वह अब्दुल खलील का है. हालांकि उस घर में 3-4 परिवार रहते हैं.’

ख़बर में आगे प्रशासन व खुफिया एजेंसी पर सवाल उठाते हुए यह भी लिखा गया है, ‘पाक के झंडे में स्पष्ट तौर पर चांद-तारा बने हैं. खुलेआम एक घर की छत पर पाक का झंडा लगाना यह प्रशासन की बड़ी नाकामी है. प्रशासन कई दिन से मुख्यमंत्री के संभावित दौरे को देखते हुए तैयारी में जुटा है, लेकिन शहर में देशद्रोही गतिविधि से अनभिज्ञ है. यह खुफिया एजेंसी की बड़ी चूक है. दो दिन से सीआईडी सीबी के लोगों को पाक झंडे लहराने की कानोंकान ख़बर ही नहीं लगी. पुलिस प्रशासन भी नाकाम रहा है. नीलकंठ पर पुलिस चौकी बनी है. चौकी में तैनात पुलिसकर्मी हलवाई बाजार के रास्ते से आते-जाते हैं, लेकिन किसी ने भी इस बारे में नहीं टोका कि पाक का झंडा क्यों लगा है.’

इतना ही नहीं, भास्कर के रिपोर्टर ने स्थानीय एसपी का बयान भी लिया है और अपने बयान में एसपी योगेश झंडा लगाने वालों से सख्ती से निपटने की बात भी कर रहे हैं. ख़बर में स्पष्ट तौर पर लिखा है ‘एसपी योगेश यादव का कहना है कि मकान पर पाकिस्तान का झंडा लगाना गंभीर मामला है. इस मामले में शीघ्र कार्रवाई की जा रही है. पुलिस पाक का झंडा लगाने वालों से सख्ती से निबटेगी.’

यानी यह ख़बर लिखते समय अख़बार के रिपोर्टर ने यह तक बता दिया है कि घर में कितने मुस्लिम परिवार रहते हैं. लेकिन हैरानी की बात यह है कि इस अख़बार का यह रिपोर्टर या फिर संपादक, जिस पर कि प्रत्येक ख़बर की सत्यता की पुष्टि करने की ज़िम्मेदारी होती है, ह भी फ़र्क़ नहीं कर सके कि जो झंडा लगा है वो इस्लामी है ना कि पाकिस्तानी. और उससे भी हैरानी की बात यह है कि स्थानीय एसपी ने भी बयान देने से पहले उस पाकिस्तानी झंडे को देखना मुनासिब नहीं समझा, जो ख़बर लिखे जाने के बाद भी लगा रहा. जबकि अब उन्हीं की प्रशासन उस झंडे को ईद मिलादुन्नबी का झंडा बता रही है.

हिंदी के प्रमुख अखबार की इस गैर-जिम्मेदाराना हरक़त का सोशल मीडिया और समाज में कड़ा विरोध हो रहा है. सोशल मीडिया पर इस खबर के विरोध में मुहिम चलाई गयी है. मीडिया के जानकारों का कहना है कि दैनिक भास्कर 'हिट्स'बटोरने के लिए इस तरीके की हरक़तें करता रहता है, साथ ही सामाजिक कार्यकर्ता यह कह रहे हैं कि धंधा चलाने के लिए अखबार साम्प्रदायिक सौहार्द्र को भी चूल्हे में झोंकने की तैयारी में हैं.

हालांकि देश में यह पहला मामला नहीं है. इससे पूर्व भी बिहार में चुनाव के दौरान मुहर्रम के मौक़े पर लगाए गए इस्लामी झंडे को पाकिस्तानी झंडा बताकर पुलिस-प्रशासन के बयान के आधार पर वहां के स्थानीय मीडिया ने काफी प्रमुखता से ख़बर प्रकाशित की थी. इस ख़बर को दिखाकर एक खास पार्टी के कार्यकर्ताओं ने लोगों के दिलों में साम्प्रदायिकता का खूब ज़हर घोला था. जिसका फ़ायदा उस खास पार्टी चुनाव को नतीजों में भी मिला. जहां बीजेपी का बिहार के कई ज़िलों में खाता भी नहीं खुला, वहीं चम्पारण में वो 13 सीटों पर जीतने में कामयाब रही है. TwoCircles.net ने इस सच्चाई को उसी समय रिपोर्ट किया था. उस ख़बर को आप यहां नीचे पढ़ सकते हैं.

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मोतिहारी के साम्प्रदायिक सौहार्द्र से खेलते मीडिया व पुलिस


मास्टर क़ासिम : शिक्षा की मशाल जलाकर हज़ारों ज़िंदगियां कर रहे हैं रोशन

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By अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

अमरोहा:‘हिन्दुस्तान के मुसलमानों की दो सबसे बड़ी ज़रूरतें हैं. सबसे पहली सब्र और दूसरी इल्म.’

ऐसा कहना है मास्टर क़ासिम अली तुर्क का, जिन्होंने उत्तर प्रदेश के अमरोहा ज़िले के अपने गांव में शिक्षा की मशाल जलाकर हज़ारों ज़िंदगियां रोशन की हैं. मास्टर क़ासिम कहते हैं, “सब्र सबसे पहली ज़रूरत इसलिए हैं ताक़ि मुसलमानों में अपने साथ भेदभाव की जो भावना है, उसे शांत किया जा सके. और सब्र के बाद इल्म इसलिए क्योंकि तरक़्क़ी इल्म के बिना मुमकिन नहीं है और इल्म शांत मन से ही आता है.”


Qasim Turk

47 वर्षीय मास्टर क़ासिम अमरोहा ज़िले के फ़तेहपुर गांव में रहते हैं. यहीं पैदा हुए और अमरोहा से ही उच्च शिक्षा हासिल कर तुर्की इंटर कॉलेज, पलौला में अध्यापक की नौकरी हासिल की.

इसके साथ ही अपने पारिवारिक इंट के भट्ठे के कार्य में हाथ बंटाते रहे लेकिन सितंबर 2011 में एक हादसे ने उनके चार भाइयों के संयुक्त परिवार की ज़िंदग़ी बदल दी.
उनके सबसे बड़े भाई हाज़ी तसव्वुर हुसैन के बड़े बेटे वसीम तुर्की की 26 साल की उम्र में एक सड़क हादसे में मौत हो गई. परिवार उनकी यादों को ज़िंदा रखने के लिए उनके नाम से कुछ करना चाहता था.

मास्टर क़ासिम ने अपने भतीजे की याद को ज़िंदा रखने के लिए शिक्षा का रास्ता चुना. हालांकि उनके परिवार व खानदान से जुड़े लोगों की कई बातें भी सुननी पड़ी, क्योंकि किसी को भी ईंट का भट्टा बंद करके कॉलेज खोलने का आईडिया पसंद नहीं था. बावजूद इसके मास्टर क़ासिम ने इनके विरोध पर कोई ध्यान नहीं दिया और अपने इरादे को और मज़बूत करते गए.

बहुत सीमित संसाधनों के साथ साल 2004 में वे अपने गांव में डिग्री क़ॉलेज खोलने का सपने को साकार करने में लग गए. मास्टर क़ासिम बताते हैं, “डिग्री कॉलेज खोलने की सबसे बड़ी वजह यह थी कि इलाक़े की लड़कियां उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए शहर नहीं जा पाती थीं. अधिकतर लड़कियों की पढ़ाईं बारहवीं पास करने के बाद छूट जाती थी. जो समाज लड़कियों को कॉलेज नहीं भेज सकता था, उसमें हमने कॉलेज को लड़कियों तक लाने की कोशिश की.”

मास्टर क़ासिम की कोशिश रंग लाई और साल 2005 में बरेली यूनिवर्सिटी ने उन्हें बीए की क्लासेज़ चलाने की अनुमति दे दी. इस तरह वसीम तुर्की मुस्लिम डिग्री कॉलेज अस्तित्व में आया.

पहले साल दाख़िला लेने वाले छात्रों में अधिकतर लड़कियां थी. 2005 में सिर्फ़ कला संकाय के साथ शुरू होने वाले डब्ल्यूटीएम डिग्री कॉलेज में विज्ञान और वाणिज्य संकाय भी जुड़ गए और अब यहां एमए, एमएससी और बीकॉम की क्लासेज भी चलती हैं.

साथ ही उन्होंने गांव में ही तकनीक और रोज़गारपरक शिक्षा देने के लिए एक पॉलीटेक्निक संस्थान की स्थापना भी की. डब्ल्यूटीएम ग्रुप ऑफ़ कॉलेजेज़ अब फतेहपुर में ही एक बीएड कॉलेज भी संचालित करता है. इसके साथ ही बच्चों में मेडिकल एजुकेशन की ओर बढ़ते रुझान और क्षेत्र की ज़रूरत के मद्देनज़र एक आर्युवैदिक मेडिकल कॉलेज की स्थापना की दिशा में भी काम शुरू कर दिया गया है.

फिलहाल डब्ल्यूटीएम परिसर में एक सौ बेड का अस्पताल स्थापित करने के लिए निर्माण कार्य किया जा रहा है, जो आगामी साल में पूरा कर लिया जाएगा. उच्च शिक्षा से शुरुआत करने वाले मास्टर क़ासिम ने अपने गांव में ही सीबीएसई से संबद्ध एक इंटर कॉलेज भी स्थापित किया है, जो अंग्रेज़ी माध्यम में शिक्षा देते हैं. इसका नाम डब्ल्यूटीएम हाईटेक स्कूल रखा गया है. मास्टर क़ासिम कहते हैं, “डिग्री कॉलेज स्थापित करने के एक-दो सालों के अंदर ही हमें अहसास हो गया था कि अगर बच्चों की नींव मज़बूत हो तो उच्च शिक्षा की ऊंची इमारत उस पर खड़ी की जा सकती है.”


WTM College

वह बताते हैं, “स्कूल खोलने का उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय स्तर की अंग्रेज़ी शिक्षा को बेहद कम फ़ीस में आसपास के लोगों को उपलब्ध करवाना था, ताक़ि आसपास के ग़रीब किसानों के बच्चे भी अच्छी शिक्षा हासिल कर सके.”

हाईटेक स्कूल में पढ़ने वाले क़रीब सात सौ बच्चे आसपास के गांवों के ही हैं और इनमें से अधिकतर के परिजन किसान हैं. मास्टर क़ासिम कहते हैं, “हमारे समूह की उपलब्धि यही है कि अब लोग अपने बच्चों की शिक्षा पर ज़्यादा से ज़्यादा ज़ोर दे रहे हैं.”

जब उनसे पूछा कि एक बेहद ग़रीब परिवार में पैदा होने और गांव से बाहर निकले बिना वो इतना सब कैसे हासिल कर पाए तो उन्होंने कहा, “सब्र और लगन सफलता की सबसे बड़ी कुंजी है. अगर लगन और पक्का इरादा हो तो ग़रीबी या और कोई मुश्किल रास्ते में नहीं आती.” वे कहते हैं, “हमारे चार भाइयों के संयुक्त परिवार का मुझे भरपूर साथ मिला. ऐसा भी वक़्त आया जब हमें कॉलेज स्थापित करने के लिए रोज़ाना की ज़रूरतों से भी समझौता करना पड़ा. यही तो सब्र होता है.”

उनका कहना है कि सब्र ही इल्म के लिए रास्ता खोलता है, क्योंकि इल्म हासिल करने के लिए मन का शांत और स्थिर होना बेहद ज़रूरी है.

उनके बाक़ी तीनों भाई ज़्यादा पढ़े-लिखे नहीं हैं. लेकिन उन्होंने कॉलेज की स्थापना के बाद संचालन में पूरा सहयोग किया. चुनौतियों के सवाल पर मास्टर क़ासिम कहते हैं, “सबसे बड़ी चुनौती यह है कि ज़्यादातर बच्चे ग़रीब और किसान परिवारों से हैं. फ़सल ख़राब या कम हो तो बहुत से बच्चे फीस भी नहीं भर पाते. लेकिन शिक्षा की लौ को जलाए रखने के लिए इतना समझौता तो करना पड़ता है.”

मास्टर क़ासिम उन हज़ारों भारतीय मुसलमानों में शामिल हैं, जिन्होंने अपनी कोशिशों से सकारात्मक बदलाव समाज को दिया है. डब्ल्यूटीएम समूह की सबसे बड़ी उपलब्धि यही है कि उसने शैक्षिक तौर पर पिछड़े और मुस्लिम बहुल आबादी वाले इलाक़े में न सिर्फ़ शिक्षा की एक लौ जलाई है बल्कि इलाक़े के लोगों में इल्म के प्रति एक ललक भी पैदा की है.

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विदेशियों के लिए सरोगेसी पर पाबंदी, भारतीयों को भी अब एक ही बार मिलेगी किराये पर कोख

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By फ़हमिना हुसैन, TwoCircles.net

नई दिल्ली:दिल्ली के एक अस्तपताल में एक मासूम अपनी मां के लिए तरस रहा है. क्योंकि सरोगेसी के ज़रिए इस बच्चे को दुनिया में लाने वाले मां-बाप नार्वे में रहते हैं और जन्म देने वाली मां अपनी फीस लेकर घर जा चुकी है. ऐसे में अस्पताल वाले भी परेशान हैं कि इस बच्चे का क्या करें?

उधर बच्चे के जन्म के बाद नार्वे में उनके मां-बाप भी परेशान हैं, क्योंकि भारतीय दूतावास ने वीजा देने से मना कर दिया है. क्योंकि भारत सरकार ने 3 नवम्बर 2015 से सरोगेसी के लिए मेडिकल वीजा बंद कर दिया है.


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दरअसल, दैनिक हिन्दुस्तान की एक ख़बर के मुताबिक़ नार्वे के ओत्तार इंजे सम्सटड व उनकी पत्नी जीना जैक्सन सम्सटड इस साल मार्च में संतान की चाहत में भारत की राजधानी दिल्ली आए थे. यहां आईवीएफ फर्टिलिटी रिसर्च सेन्टर में उन्होंने सरोगेट मदर रीना की मदद से बच्चा पैदा करने का क़रार किया. इस क़रार के बाद यह दम्पत्ति अपने मुल्क नार्वे लौट गया. इसी बीच केन्द्र सरकार ने 18 अक्टूबर को एक आदेश जारी कर विदेशी जोड़ों के लिए सरोगेसी पर पाबंदी लगा दी है.

अब आईवीएफ़ रिसर्च सेन्टर ने विदेश मंत्रालय से मानवीय आधार पर नार्वे दूतावास को वीज़ा जारी करने की गुहार लगाई है, लेकिन अभी तक नार्वे दम्पत्ति को अभी तक वीजा नहीं मिल पाया है.

यह कहानी सिर्फ़ नार्वे दम्पत्ति की ही नहीं है. बल्कि इस दुनिया में आने वाले सैकड़ों मासूमों के ज़िन्दगी पर भी संकट आ गया है, जो भविष्य के कुछ महीनों में भारत के आबो-हवा में जन्म लेने वाले हैं. एक अनुमान के मुताबिक़ दिल्ली, मुंबई और गुजरात जैसे शहरों में अगले कुछ महीनों में सैकड़ों बच्चे सरोगेसी मदर के ज़रिए जन्म लेने वाले हैं.


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दरअसल, हमारे देश में पूर्व में ऐसे कई मामले सामने आ चुके हैं, जिनको ध्यान रखते हुए सरकार ने विदेशी जोड़ों के लिए सरोगेसी पर पाबंदी लगा दी है. क्योंकि मामला यह था कि सरोगेसी के इस कारोबार में कई समस्याएं पैदा होने लगी थी. पिछले वर्ष एक ऑस्ट्रेलियाई दंपत्ति ने जुड़वा बच्चों में से एक को अपनाने से मना कर दिया था. दंपत्ति का तर्क था कि वह एक ही बच्चा चाहता है पर आरोप लगा कि वे एक बच्चे को उसके लिंग की वजह से छोड़ दिये. 2008 में भी बेबी मांझी का मामला भी कानूनी रूप से पेचीदा हो गया था. पिता ने पारंपरिक व्यवस्था के अनुरूप अपनी जैविक बच्ची को गोद लेकर जापान जाने का प्रयास किया तो उसे इजाज़त नहीं मिली, क्योंकि भारतीय कानून नवजात शिशु के संरक्षण की जिम्मेदारी किसी स्त्री को ही देता है.


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ऐसे कई मामले देश में लागातार सामने आते रहें, जिनमें सरोगेट मदर से बच्चा विकलांग पैदा हो जाए या फिर क़रार एक बच्चे का हो और जुड़वा बच्चे हो जाएं तब कई तरह के विवाद सामने आए हैं. जिनमें आधिकारिक माता-पिता द्वारा बच्चे को अपनाने से इंकार किया है. दरअसल, भारत दुनिया में सरोगेसी का सबसे बड़ा ठिकाना है. एक रिपोर्ट के मुताबिक़ देश में इससे सालाना लगभग 10 हज़ार करोड़ रुपये भी ज्यादा का कारोबार हर साल होता है. ऐसे में इस धंधे में कई ख़राबियों का आना स्वाभाविक है.


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इन्हीं ख़राबियों को लेकर भारत में विभिन्न संस्थाएं इस कारोबार पर पाबंदी लगाने की मांग करते आए हैं. पिछले 16 दिसम्बर को आंध्र प्रदेश, तेलंगाना के महिला संगठन प्रोग्रेसिव ओर्गनइजेशन ऑफ़ विमेन ने दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरना दिया और भारत में सरोग्रेसी पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने की मांग को सामने रखा. इनका मानना है कि भारत की ग़रीब महिलाओं को सरोगेसी के नाम पर उनका शारीरिक और मानसिक शोषण हो रहा है. इसलिए सरोगेसी द्वारा महिलाओं के कोख के सौदे को आज़ादी से जोड़कर देखना शर्मनाक तथा हास्यास्पद है.

इतना ही नहीं, अगर मुस्लिम मान्यता के पहलू पर ग़ौर करें तो 2012 में बरेली मरकज दारूल इफ्ता द्वारा इस मामले को लेकर फतवा भी जारी किया जा चुका है. इस फ़तवे में कहा गया है कि कृत्रिम गर्भधारण, सरोगेसी (किराए की कोख), टेस्ट-ट्यूब बेबी का सहारा लेना इस्लामी नज़रिए से नाजायज़ है.

इन सबके बीच भारत सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने अपने प्रस्तावित क़ानून में कई नए प्रावधान जोड़े हैं. इस नए प्रावधान के तहत अब कोई भी महिला सिर्फ़ एक बार ही सरोगेट मदर की भूमिका निभा पाएगी. जबकि इससे पूर्व के प्रावधान में तीन बार सरोगेट मदर बनने की इजाज़त थी.

मुस्लिम परिवार के खिलाफ ग़लत ख़बर लिखने वाला पत्रकार ग़िरफ्तार

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By TwoCircles.net Staff Reporter,

नई दिल्ली:राजस्थान की दौसा पुलिस के मुताबिक़ पाकिस्तानी झंडे को लेकर ग़लत ख़बर प्रकाशित करने के आरोप में दैनिक भास्कर के एक संवाददाता भुवनेश यादव और फोटोग्राफर बबलू को गिरफ़्तार कर लिया गया है.

ज्ञात हो कि राजस्थान में हिंदी के प्रमुख अख़बार दैनिक भास्कर ने ईद मिलादुन्नबी के मौक़े पर एक घर के छत पर लगाए गए इस्लामी झंडे को पाकिस्तानी झंडा बताकर ख़बर प्रकाशित की थी, जिसका दौसा और सोशल मीडिया पर कड़ा विरोध हुआ था.

इस ख़बर को लिखते समय अख़बार के रिपोर्टर ने यह तक बता दिया है कि पाक झंडा जिस घर की छत पर लहरा रहा है, वह अब्दुल खलील का है और इस घर में कितने मुस्लिम परिवार रहते हैं.

इस ख़बर के आने के बाद उस घर के मालिक खलील अहमद ने भास्कर के दौसा एडिशन पर एफ़आईआर दर्ज करवा दी थी. इसके अलावा सोशल मीडिया पर भी कड़ा विरोध हुआ. मुस्लिम समुदाय के स्थानीय लोगों ने भी अख़बार का विरोध किया और स्थानीय ज़िलाधिकारी को अख़बार के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने के लिए ज्ञापन सौंपा. वहीं जयपुर में भी इसका विरोध हुआ और वहां के आईजी को भी ज्ञापन सौंपा गया.

स्थानीय लोगों की यह भी मांग है कि अख़बार दौसा के लोगों से माफ़ी मांगे और फिर से सही ख़बर प्रकाशित करे क्योंकि यह ख़बर न सिर्फ़ अख़बार की संपादकीय नीति को कटघरे में खड़ा करती है, बल्कि अख़बार के संपादक की घृणित मानसिकता का भी पर्दाफ़ाश करती है.

पत्रकारों की इस गिरफ़्तारी की तारीफ़ भी की जा रही है लेकिन कुछ लोगों का यह भी मानना है कि न्यूज़ एडिटर इस मामले में ज़्यादा जिम्मेदार है, सो अखबार के न्यूज़ एडिटर कल्पेश याग्निक की भी अविलंब गिरफ़्तारी की भी मांग उठ रही है. हालांकि सूत्र बताते हैं कि शनिवार को जयपुर में ज़िले के समस्त पत्रकार इस गिरफ़्तारी का विरोध करेंगे.

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मुस्लिम परिवार के ख़िलाफ़ झूठी ख़बर प्रकाशित करने का कड़ा विरोध

‘अल्पसंख्यक अधिकार दिवस’ बीत गया, आपने सुना क्या?

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By अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय यानी मुसलमानों के लिए ये बड़ा दिन था. जो बग़ैर किसी शोर-शराबे के चुपचाप गुज़र गया. न कहीं से कोई आवाज़ उठी और न ही किसी ने याद किया.

18 दिसम्बर का दिन ‘अंतर्राष्ट्रीय अल्पसंख्यक अधिकार दिवस’ के तौर पर मनाया जाता है. मगर तमाम दिवसों पर सोशल मीडिया गला फाड़कर चींखने वाली आवाज़ें इस मौक़े पर ख़ामोश रहीं.


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हैरानी इस बात की भी हुई कि बुद्धिजीवी तबक़े के बीच मुसलमानों के रिप्रेजेन्टेशन का दावा करने वाले तमाम दानिश्वर अपनी क़लम पर ताला जड़े रहें. किसी को याद ही नहीं पड़ा कि यह मौक़ा देश के मुसलमानों से जुड़े कुछ बेहद गंभीर मामलों को हाइलाईट करने का एक बेहतरीन प्लेटफार्म साबित हो सकता था.


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‘सबका साथ –सबका विकास’ का दावा करने वाली सरकार भी ख़ामोश रही. अल्पसंख्यक मंत्रालय यूं तो तमाम बड़ी घोषणाओं व ऐलानों का ढ़िंढ़ोरा पीटता है, मगर इस बेहद महत्वपूर्ण मौक़े को उसने भी नज़रअंदाज़ कर दिया.

दरअसल, यह नज़रिया प्राथमिकताओं के छिपे हुए मायाजाल की ओर इशारा करता है. मुसलमानों की तरक़्क़ी का मुद्दा अब सिर्फ़ सियासी मजलिसों का विषय बनकर रह गया है. हालांकि इसके हुकूमत से ज़्यादा ज़िम्मेदार हम ही हैं. हमने हमेशा अपने पिछड़ेपन का रोना रोया है, अधिकार की बात कभी की ही नहीं.


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मुझे याद है कि इसी 6 दिसम्बर को जंतर-मंतर पर 50 तंज़ीमों ने मिलकर बाबरी मस्जिद के शहादत की बरसी पर धरने का आयोजन किया था, लेकिन इस धरने में बमुश्किल 500 लोग भी मौजूद नहीं थे. जबकि उसी जंतर-मंतर पर 6 दिसम्बर को ही मुल्क के तकरीबन 5 हज़ार दलित बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर की पुण्य-तिथी के उपलक्ष्य में अन्याय, भ्रष्टाचार व गुंडागर्दी ख़िलाफ़ सम्मान, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक न्याय और 5 एकड़ भूमि के लिए ‘जन सम्मान दिवस’ आयोजित कर क़ानून में अपने अपने हक़ व अधिकार की बात कर रहे थे. छोटी-छोटी दलित बच्चियों का जोश देखने लायक़ था. लेकिन दूसरी तरफ़ प्रत्यक्ष पहचान वाले मुसलमान वही दाढ़ी-टोपियां, वही नारे –‘बाबरी के गुनाहगारों को गिरफ़्तार करो...’


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ये कितना अजीब है कि एक और दलित पुण्य-तिथि पर भी अपने संवैधानिक हक़ की बात कर रहे हैं, दूसरी तरफ़ मुसलमान अपने तमाम मसले-मसायल को भूल अपने मज़हबी मामलों से आगे ही नहीं निकल पा रहे हैं. जबकि भारत के मुसलमानों को यह समझना होगा कि उनकी हालत दलितों से भी बदतर है. जब तक वो इस सच को स्वीकार नहीं करेंगे तब तक वो तमाशबीन भीड़ बनकर नारे ही लगाते रह जाएंगे, जिनका मतलब भी उनको शायद मालूम नहीं होगा.

मुसलमानों से जुड़े मामलों की सबसे त्रासदी यही है कि वे सिर्फ़ मज़हबी मुद्दों के शोर-गुल में ऐसे खो जाते हैं कि उनको अपना हक़ व अधिकार की बातों का पता ही नहीं रहता. ऐसे में ‘अंतर्राष्ट्रीय अल्पसंख्यक अधिकार दिवस’ का मौक़ा किसी वरदान से कम नहीं था, मगर सरकार से लेकर क़ौम के नुमाइंदों तक सभी ने आंखें मूंद लेना ही बेहतर समझा.


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(यहां हम सिर्फ़ मुसलमानों की बात इसलिए कर रहे हैं कि क्योंकि सच्चर समिति के रिपोर्ट के मुताबिक़ इन मुसलमानों की हालत दलितों से बदतर हैं. यही बिरादरी अपने अधिकारों को लेकर कभी सजग नहीं रही, जबकि इसके तुलना में बाक़ी अल्पसंख्यक तबक़ा अपने अधिकारों को लेकर काफी जागरूक नज़र आता है.)

स्पष्ट रहे कि अल्पसंख्यक दिवस हर साल पूरी दुनिया में 18 दिसम्बर को मनाया जाता है. यह दिवस संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 1992 में अल्पसंख्यक के हित में घोषित किया गया था. अल्पसंख्यक किसी क्षेत्र में रहने वाले वे लोग हैं, जिनकी संख्या किसी से कम हो जैसे चाहे धार्मिक आधार पर हो, लैंगिक आधार पर हो, भाषा के आधार पर हो, रंग के आधार पर हो. फिर भी वह राष्ट्र निर्माण, विकास, एकता, संस्कृति, परंपरा और राष्ट्रीय भाषा को अनाये रखने में अपना योगदान देते हों तो ऐसे समुदायों को उस राष्ट्र में अल्पसंख्यक माना जाता है.

अल्पसंख्यकों के अधिकारों से सम्बंधित संविधान में प्रावधान

भारतीय संविधान में अल्पसंख्यकों के विकास के लिए शैक्षिक अधिकार और उनकी भाषा एवं संस्कृति के संरक्षण के लिए अनुच्छेद 29 और 30 के अंतर्गत विशेष प्रावधान किए गए हैं.

– देश की प्रत्येक ईकाई में रह रहे सभी अल्पसंख्यकों को उनकी भाषा, लिपि तथा संस्कृति के संरक्षण का अधिकार है तथा देश में ऐसे कोई भी कानून व नीतियां नहीं बनाई जाएंगी, जिनसे इन अल्पसंख्यकों की संस्कृति, भाषा व लिपि का शोषण हो.

– सभी धार्मिक, भाषायी व सामुदायिक अल्पसंख्यकों के साथ किसी भी राज्य शिक्षा संस्थान में भेदभाव नहीं किया जाएगा और न ही उन पर किसी भी प्रकार की धार्मिक शिक्षा थोपी जाएगी.

– सभी धार्मिक, भाषायी तथा सामुदायिक अल्पसंख्यक देश की प्रत्येक ईकाई में अपनी इच्छानुसार कोई भी शैक्षिक संस्थान खोलने के लिए स्वतंत्र हैं.

– किसी भी धार्मिक, भाषायी व सामुदायिक अल्पसंख्यक द्वारा स्थापित शैक्षिक संस्थानों को राज्य द्वारा अनुदान प्रदान करने में किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाएगा.

‘फाशिस्टों के पास जनसंघर्षों में भागीदारी की कोई विरासत नहीं'

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By TwoCircles.net Staff Reporter

नई दिल्ली:काकोरी कांड के शहीदों के 88वें शहादत दिवस पर ‘इंकलाबी जन एकजुटता’ अभियान के तहत जामिया नगर के बटला हाउस में ‘नौजवान भारत सभा’ के कुछ नौजवान मार्च निकालकर क़ौमी एकता का पैग़ाम देते नज़र आए.

क़ौमी एकता का पैग़ाम देने की नीयत से लोगों के बीच पर्चे बांटे गए. साथ ही नारों-गीतों के माध्यम से भी लोगों जागरूक करने की कोशिश की गई. इसके अलावा ‘नौजवान भारत सभा’ के नौजवान अपने भाषणों के ज़रिए लोगों को एकजुट होने का संदेश देते रहे.


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इस अभियान के बारे में बताते हुए ‘नौजवान भारत सभा’ से जुड़े अपूर्व मालवीय का कहना है, ‘हमारे क्रांतिकारियों की विरासत हमेशा क़ौमी एकता पर आधारित रही है. वे हमेशा धर्माधारित राजनीति के ख़िलाफ़ रहे हैं. जबकि आज तमाम कट्टरपंथी ताक़तें जनता को धार्मिक झगड़ों में उलझाकर उनकी वर्गीय एकजुटता पर प्रहार कर रही हैं. ऐसे में क्रांतिकारियों की मज़हबी एकता का संदेश हमारे सामने एक मिसाल की तरह है. हमें इस संदेश को जनता तक पहुंचाने की हर मुमकिन कोशिश करनी चाहिए और उसी कोशिश के तहत हम लोग यह मार्च निकालकर लोगों को जागरूक करने की कोशिश कर रहे हैं.’

इस अभियान में शामिल नेहा का कहना है, ‘यूं तो आज के दिन फासिस्ट हिन्दुत्वादी भी काकोरी के शहीदों को ‘शत-शत नमन’ करने का पाखंड कर रहे हैं. लेकिन यह लोग देश की जनता को नहीं बताते कि बिस्मिल, अशफाकउल्लाह, राजेन्द्र लाहिड़ी, रोशन सिंह आदि साम्राज्यवाद विरोधी होने के साथ-साथ एक सच्चे सेकुलर लोकतांत्रिक गणराज्य के पक्षधर थे और साम्प्रदायिकता के धुर-विरोधी थे.’

फेबियन का कहना है कि संघियों को हिटलर, मुसोलिनी, फ्रांको, हेडगवार, गोलवरकर, सावरकर, मुंजे, गोडसे, श्यामा प्रसाद मुखर्जी आदि की जयंतियां मनानी चाहिए. ऐसे लोग बिस्मिल, राजेन्द्र लाहिड़ी आदि के नाम लेकर क्रांतिकारी विरासत को कलंकित कर रहे हैं.

ये नौजवान बताते हैं कि फासिस्टों के पास जनसंघर्षों में भागीदारी की कोई विरासत नहीं है. फासिस्ट बस भीड़ की हिंसा और उन्माद को भड़काकर बर्बर नरसंहार करवा सकते हैं, पर वे किसी उदात्त लक्ष्य के लिए लड़ने और कुर्बानी देने का साहस जुटा ही नहीं सकते. आरएसएस और किसी भी ब्रांड के हिंदुत्ववादियों ने राष्ट्रीय आन्दोलन में कभी हिस्सा नहीं लिया. अंग्रेज़ों से इनकी वफ़ादारी के वायदों, मुखबिरी और माफीनामों के दस्तावेज़ी प्रमाण मौजूद हैं.

स्पष्ट रहे कि 19 दिसम्बर को काकोरी काण्ड के शहीदों रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक़उल्ला खां और रोशनसिंह का 88 वां शहादत दिवस था, जबकि राजेंद्र नाथ लाहिड़ी का शहादत दिवस 17 दिसम्बर को था. उन्हीं को याद करते हुए नौजवान भारत सभा ने 19-20 दिसम्बर को ‘इंकलाबी जन एकजुटता’ अभियान के तहत दिल्ली के विभिन्न इलाक़ों में जनसभा, सांस्कृतिक कार्यक्रम और जुलूस का आयोजन करके लोगों को एकता का पैग़ाम देने की कोशिश की.

मीडिया के रिमोट से चलता भारतीय मुसलमानों का भविष्य

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By भंवर मेघवंशी

उत्तर प्रदेश के एक स्वयंभू हिन्दू महासभाई कमलेश तिवारी द्वारा हज़रत मोहम्मद को अपमानित करने वाली टिप्पणी करने के विरोध में हुए देशव्यापी प्रदर्शन के कुछ अध्याय राजस्थान के भी विभिन्न शहरों में भी हुए. साम्प्रदायिक रूप से अतिसंवेदनशील मालपुरा कस्बे में भी मुस्लिम युवाओं ने अपने बुजुर्गों की मनाही के बावजूद एक प्रतिरोध जलसा आयोजित किया. हालांकि शहर काजी और क़ौम के बुजुर्गों ने बिना मशवरे के कोई भी रैली निकालने से युवाओं को रोकने की भरपूर असफल कोशिश की जैसा कि मालपुरा के निवासी वयोवृद्ध इक़बाल दादा बताते हैं, ‘हमने उन्हें मना कर दिया था और शहर काज़ी ने भी इंकार कर दिया था, मगर रसूल की शान के खिलाफ़ की गई अत्यंत गंदी टिप्पणी से युवा इतने अधिक आक्रोशित थे कि वे काज़ी तक को हटाने की बात करने लगे थे.’

अंतत: मालपुरा के युवाओं की अगुवाई में 11 दिसम्बर को एक रैली जामा मस्जिद से शुरू हो कोर्ट होते हुए तहसीलदार को ज्ञापन देने पहुंची. शांतिपूर्ण तरीक़े से ज्ञापन दे दिया गया, मगर दूसरे दिन सोशल मीडिया में वायरल हुए एक वीडियो के मुताबिक़ रैली से लौटते हुये मुस्लिम नवयुवकों ने 'आरएसएस –मुर्दाबाद'तथा 'आईएसआईएस –जिन्दाबाद'के नारे लगाए. जब मुस्लिम समाज के सभ्य लोगों को पुलिस के समक्ष यह वीडियो दिखाया गया तो उन्हें पहले तो यक़ीन ही नहीं हुआ, फिर उन्होंने अपने बच्चों की इस तरह की हरकत के लिये तुरंत माफ़ी मांग ली और मामले को तूल नहीं देने का आग्रह किया ताकि सौहार्द बरक़रार रहे.

मगर मालपुरा के हिन्दुववादी संगठन इस मांग पर अड़ गए कि प्रदर्शनकारियों के खिलाफ़ मुक़दमा दर्ज कर उनको तुरंत गिरफ्तार किया जाए. सूबे में सत्तारूढ़ विचारधारा के राजनीतिक दबाव के चलते किसी व्यक्ति विशेष द्वारा बनाए गये वीडियो को आधार बनाकर मुक़दमा दर्ज कर लिया गया तथा सलीमुद्दीन रंगरेज, फिरोज पटवा, वसीम,शाहिद, शाकिर, अमान तथा वसीम सलीम सहित 7 लोगों को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया.

गिरफ्तार किये गये 60 वर्षीय राशन डीलर सलीमुद्दीन के बेटे नईम अख्तर का कहना है, ‘मेरे वालिद एक ज़मीन के सौदे के सिलसिले में कोर्ट गए थे, वे रैली में शरीक़ नहीं थे, मगर पुलिस कहती है कि उनका चेहरा वीडियो में दिख रहा है. इसलिए उन्हें गिरफ्तार किया गया है.’

मालपुरा के मुस्लिम समुदाय का आरोप है कि पुलिस जान-बूझकर बेगुनाहों को पकड़ रही है. इतना ही नहीं, बल्कि धरपकड़ अभियान के दौरान सादात मोहल्ले में पुलिस द्वारा मुस्लिम औरतों के साथ निर्मम मारपीट और बदसलूकी भी की गई है.

पुलिस दमन की शिकार 50 वर्षीय बिस्मिल्ला कहती हैं, 'हम बहुत सारी महिलायें कुरान पढ़कर लौट रही थी, तब घरों में घुसते हुये मर्द पुलिसकर्मियों ने हमें मारा. वह चल फिरने में असहाय महसूस कर रही है. सना, जमीला, फहमीदा, नसीम आदि महिलाओं पर भी पुलिस ने लाठियां भांजी. किसी को चोटी पकड़ कर घसीटा तो किसी को पैरों और जांघों पर मारा एवं भद्दी गालियां देकर अपमानित किया.'

पुलिस तीन औरतों –फ़रजाना, साजिदा और आरिफ़ा को पुलिस पर पथराव करने और राजकार्य में बाधा उत्पन्न करने के जुर्म में गिरफ्तार कर ले गई. जहां से फ़रजाना को शांतिभंग के आरोप में पाबंद कर देर रात छोड़ दिया गया, वहीं आरिफ़ा और साजिदा को जेल भेज दिया गया.

उल्लेखनीय है कि मालपुरा में आतंकवादी संगठनों के पक्ष में कथित नारे लगाने के वीडियो को वायरल किए जाने के बाद राज्य भर में इसकी प्रतिक्रिया हुई. हिन्दुत्ववादी संगठनों ने कुछ जगहों पर इसके विरोध में ज्ञापन भी दिये और देश-विरोधी तत्वों पर अंकुश लगाने की मांग की. जो वीडियो लोगों को उपलब्ध है, उसे देखने पर ऐसा लगता है कि वापस लौटती रैली में नारे लगाते एक युवक समूह पर ये नारे ऊपर से एडिट करके लगाए गये है. क्योंकि नारों की ध्वनि और रैली में चल रहे लोगों के मध्य कोई तारतम्य ही नहीं दिखाई पड़ता है.

प्रदर्शनस्थल के दुकानदारों का जवाब भी स्पष्ट नहीं है. दुकानदार'यह तो कहते हैं कि मालपुरा में पाकिस्तान ज़िन्दाबाद के नारे आम बात हैं. मगर ऐसे नारे कब और कहां लगते हैं तथा उस दिन क्या उन्होंने आईएसआईएस के पक्ष में नारे सुने थे? इसका जवाब वे नहीं देते. इतना भर कहते है कि शायद आगे जाकर लगाये हों या कोर्ट में लगाकर आये हों.

विचारयोग्य बात यह है कि ज्ञापन के दिन ना किसी समाचार पत्र, ना किसी टीवी चैनल और ना ही गुप्तचर एजेंसियों और ना ही पुलिस या प्रशासन को ये नारे सुनाई पड़े. लेकिन अगले दिन अचानक एक वीडियो जिसकी प्रमाणिकता ही संदिग्ध है, उसे आधार बनाकर पुलिस मालपुरा के मुस्लिम समाज को देशप्रेम के तराजू पर तौलने लगती है तथा उनमें देशभक्ति की मात्रा कम पाती है और फिर गिरफ्तारियों के नाम पर दमन और दशहत का जो दौर चलता है, वह दिन-ब-दिन बढ़ता जाता है. हालात इतने भयावह हो जाते है कि लोग अपने आशियानों पर ताले लगाकर दर-दर भागने को मजबूर हो जाते हैं.

मालपुरा का घटनाक्रम चर्चा में ही था कि एक बड़े समाचार पत्र में दौसा के हलवाई मोहल्ले के निवासी 'खलील के घर की छत पर पाकिस्तानी झण्डा'फहराये जाने की सनसनीखेज़ ख़बर प्रकाशित हो जाती है. खलील को तो प्रथमदृष्टया देशद्रोही घोषित करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी गई. मगर दौसा के मुस्लिम समाज ने पूरी निर्भिकता से इस शरारत का मुंह तोड़ जवाब दिया और पुलिस तथा प्रशासन को बुलाकर स्पष्ट किया कि यह चांद तारा युक्त हरा झण्डा इस्लाम का है, ना कि पाकिस्तान का!

पुलिस अधीक्षक गौरव यादव को इस उन्माद फैलाने वाली हरकत करने की घटना पर स्पष्टीकरण देना पड़ा तथा उन्होनें माना कि यह गंभीर चूक हुई है. एक धार्मिक झण्डे को दुश्मन देश का ध्वज बताना शरारत है. मुस्लिम समुदाय की मांग पर चार मीडियाकर्मियों के विरूद्ध मुक़दमा दर्ज किया गया और ख़बर लिखने वाले पत्रकार को गिरफ्तार कर लिया गया. ख़बर प्रकाशित करने वाले मीडिया समूह ने इसे पुलिस की नाकामी करार देते हुये स्पष्ट किया कि उनकी ख़बर का आधार पुलिस द्वारा दी गई सूचना ही थी. पुलिस ने अपनी असफलता छिपाने की गरज से मीडिया के लोगों को बलि का बकरा बना दिया है.

जैसा कि इन दिनों ईद मिलादुन्नबी की तैयारियों के चलते घरों पर चांद-तारे वाला हरा झण्डा लगभग हर जगह लगा हुआ दिखाई पड़ जाता है. उसे पाकिस्तानी झण्डे के साथ घालमेल करके मुसलमानों के खिलाफ़ दुष्प्रचार का अभियान चलाया जा रहा है.

भीलवाड़ा में पिछले दिनों एक मुस्लिम तंज़ीम के जलसे के बाद ऐसी ही अफ़वाह उड़ाते एक शख्स को मैंने जब चुनौती दी कि वह साबित करे कि ज़िला कलक्ट्रेट पर प्रदर्शन में पाकिस्तानी झण्डा लहराया गया है, तो वह माफी मांगने लगा. इसी तरह फलौदी में पाक झण्डे फहराने सम्बंधी वीडियो होने का दावा कर रहे एक व्यक्ति से वीडियो मांगा गया तो उसने ऐसा कोई वीडियो होने से ही इंकार कर दिया.

ऐसे में सवाल उठता है कि कौन लोग है जो संगठित रूप से 'पाकिस्तानी झण्डे'के होने का ग़लत प्रचार कर रहे है. यह निश्चित रूप से वही अफ़वाह गिरोह है, जो हर बात को उन्माद फैलाने और दंगा कराने में इस्तेमाल करने में महारत हासिल कर चुका है.

इन कथित राष्ट्रप्रेमियों को मीडिया की बेसिरपैर की ख़बरें खाद पानी मुहैया करवाती रहती है. भारत का कारपोरेट नियंत्रित जातिवादी मीडिया लव जिहाद, इस्लामी आतंकवाद, गौ-ह्त्या, पाकिस्तानी झण्डा, सैन्य जासूसी और आतंकी नेटवर्क के जुमलों के आधार पर चटपटी ख़बरें परोस कर मुस्लिम समुदाय के विरूद्ध नफ़रत फैलाने के विश्वव्यापी अभियान का हिस्सा बन रहा है.

आतंकवाद की गैर-जिम्मेदाराना पत्रकारिता का स्वयं का चरित्र ही अपने आप में किसी आतंकवाद से कम नहीं दिखाई पड़ता है. हद तो यह है कि हर पकड़ा ग़या 'संदिग्ध'मुस्लिम अगले दिन 'दुर्दांत आतंकी 'घोषित कर दिया जाता है और उसका नाम 'अल-क़ायदा''इंडियन मुजाहिद्दीन''तालिबान'अथवा 'इस्लामिक स्टेट'से जोड़ दिया जाता है.

आश्चर्य तो तब होता है जब मीडिया गिरफ्तार संदिग्ध को उपरोक्त में किसी एक आतंकी नेटवर्क का कमांडर घोषित करके ऐसी ख़बरें प्रसारित व प्रकाशित करता है, जैसे कि सारी जांच मीडियाकर्मियों के समक्ष ही हुई हो. अपराध सिद्ध होने से पूर्व ही किसी को आतंकी घोषित किये जाने की यह मीडिया ट्रायल एक पूरे समुदाय को शक के दायरे में ले आई है. इसका दुष्परिणाम यह हो रहा है कि आज इस्लाम और आतंकवाद को एक साथ देखा जाने लगा है. इसी दुष्प्रचार का नतीजा है कि आज हर दाढ़ी और टोपी वाला शख्स लोगों की नजरों में 'संदिग्ध आतंकी 'के रूप में चुभने लगा है.

हाल ही में जयपुर में इण्डियन ऑयल कार्पोरेशन के मार्केटिंग मैनेजर सिराजुद्दीन को 'एन्टी टेरेरिस्ट स्क्वॉयड'ने आईएसआईएस के नेटवर्क का हिस्सा होने के आरोप में गिरफ्तार किया. मीडिया के लिये यह एक महान उपलब्धि का क्षण बन गया. पल-पल की ख़बरें परोसी जाने लगी "आतंकी नेटवर्क का सरगना सिराजुद्दीन यहां रहता था, यह करता था, वह करता था. सोशल मीडिया के ज़रिये 13 देशों के चार लाख लोगों से जुड़ा था. अजमेर के कई युवाओं के सम्पर्क में था. सुबह मिस्र, इंडोनेशिया जैसे देशों में रिपोर्ट भेजता था, तो शाम को खाड़ी देशों तथा दक्षिणी अफ्रिकी देशों को रिपोर्ट भेजता था. फिदायनी दस्ते तैयार कर रहा था."

दस दिन आतंक की ख़बरों का बाजार गर्म रहा. सिराजुद्दीन को इस्लामिक स्टेट का एशिया कमाण्डर घोषित कर दिया गया, जबकि जांच जारी है और जांच एजेन्सियों की ओर से इस तरह की जानकारियों का कोई ऑफिशियल बयान जारी नहीं हुआ है.

गिरफ्तार किए गये मोहम्मद सिराजुद्दीन के पिता गुलबर्गा कर्नाटक निवासी मोहम्मद सरवर कहते हैं, ‘उनका बेटा पक्का वतनपरस्त है, वह अपने मुल्क के खिलाफ़ कुछ भी नहीं कर सकता है.’ सिराजुद्दीन की पत्नि यास्मीन के मुताबिक़ उसने कभी भी सिराजुद्दीन को कुछ भी रहस्यमय हरकत करते हुए नहीं देखा, वह एक नेक धार्मिक मुसलमान के नाते लोगों की सहायता करने वाला इंसान है.

सचाई क्या है, इसके बारे में कुछ भी कयास लगाना अभी जल्दबाजी ही होगी और हमारी खुफिया एजेन्सियों, पुलिस और आतंकरोधी दस्तों का जो पूर्वाग्रह युक्त साम्प्रदायिक व संवेदनहीन चरित्र है, उसमें न्याय या सत्य के प्रकटीकरण की उम्मीद सिर्फ एक मृगतृष्णा ही है. यह देखा गया है कि इस तरह के ज्यादातर मामलों में बरसों बाद 'कथित आतंकवादी'बरी कर दिये जाते है, मगर तब तक उनकी जवानी बुढ़ापा बन जाती है. परिवार तबाह हो चुके होते हैं.

कुछ अरसे से पढ़े लिखे, सुशिक्षित,आईटी एक्सपर्ट भारतीय मुसलमान नौजवान खुफिया एजेन्सियों और आतंकवादी समूहों के निशाने पर हैं. उन्हें पूर्वनियोजित योजना के तहत तबाह किया जा रहा है. इस तबाही या दमन चक्र के विरूद्ध उठने वाली कोई भी आवाज देशद्रोह मान ली जा रही है. इसलिए राष्ट्र राज्य से भयभीत अल्पसंख्यक समूह अब बोलने से भी परहेज़ करने लगा है और बहुसंख्यक तबका मीडियाजनित प्रोपेगंडा का शिकार होकर राज्य प्रायोजित दमन को 'उचित'मानने लगा है, जो अत्यंत निराशाजनक स्थिति है.

राजस्थान के गोपालगढ़ में मुस्लिम नरसंहार के आरोपी खुलेआम विचरण करते है. नौगांवा का होनहार मुस्लिम छात्र आरिफ़ - जिसे पुलिस ने घर में घुसकर एके-47 से भून डाला -के हत्यारे पुलिसकर्मियों को सज़ा नहीं मिलती है. भीलवाड़ा के इस्लामुद्दीन नामक नौजवान की जघन्य हत्या करने वाले हत्यारों का पता भी नहीं चलता है.

गौ भक्तों द्वारा पीट-पीट कर मार डाले गये डीडवाना के गफूर मियां के परिवार की सलामती की कोई चिन्ता नहीं करता है. हर दिन होने वाली साम्प्रदायिक वारदातों की आड़ में मुस्लिमों को लक्षित कर दमन चक्र निर्बाध रूप से जारी है. कहीं भी कोई सुनवाई नहीं है. लोग थाना, कोर्ट कचहरियों में चक्कर काटते-काटते बेबसी के कगार पर हैं और उपर से शौर्य-दिवस के जंगी प्रदर्शनों में 'संघ में आई शान –मियांजी जाओ पाकिस्तान'या 'अब भारत में रहना है तो हिन्दू बनकर रहना होगा'जैसे नारे ज़ख्मों पर नमक छिड़क रहे हैं.

गंभीरता से सोचने की ज़रूरत है कि कहीं हम अमेरिका जैसे देशों के बिछाये जाल में तो नहीं फंसते जा रहे है? हमारा अमेरिकी प्रेम हमें डुबो भी सकता है. स्थिति यह होती जा रही है कि वाशिंगटन ही पूरा विमर्श तय कर रहा है. इस्लामिक आतंकवाद जैसी शब्दावली से लेकर किनसे लड़ना है और कब लड़ना है? ईराक से लेकर अफ़गानिस्तान तक और सीरिया से लेकर लीबिया तक आतंकी समूहों का निर्माण, उनके सरंक्षण –संवर्धन में अमेरिका की हथियार इंडस्ट्री और सत्ता सब लगे हुए हैं. वैश्विक वर्चस्व की इस लड़ाई में पश्चिम का नया दुश्मन मुसलमान है. मगर भारतीय राष्ट्र राज्य के लिए मुसलमान दुश्मन नहीं है. वे राष्ट्र निर्माण के सारथी हैं. उनसे दुश्मनों जैसा सलूक बंद होना चाहिए. उनके देशप्रेम पर सवालिया निशान लगाने की प्रवृति से पार पाना होगा. झण्डा, दाढ़ी, टोपी, मदरसे,आबादी, मांसाहार जैसे कृत्रिम मुद्दे बनाकर किया जा रहा उनका दमन रोकना होगा. उन्हें न्याय और समानता के साथ अवसरों में समान रूप से भागीदार बनाना होगा, ताकि हम एक शांतिपूर्ण तथा सुरक्षित विकसित राष्ट्र का स्वप्न पूरा कर सकें.

[लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं. उनसे bhanwarmeghwanshi@gmail.comपर सम्पर्क किया जा सकता है.]

संभल की गिरफ्तारी मोदी सरकार की मुद्दों से ध्यान भटकाने की कोशिश है

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By TCN News

‘आतंकवाद को डील करने के मामले देश में सबसे बदनाम एजेंसी दिल्ली की स्पेशल सेल बनकर उभरी है.’ इन बातों का इज़हार संभल में आसिफ़ नाम के युवक को अल-क़ायदा के सरगना बताने के बाद फ़र्ज़ी आतंक के नाम पर फंसाए गए युवकों की रिहाई के लिए बनी तंज़ीम ‘पीपल्स कैम्पेन अगेंस्ट पॉलिटक्स ऑफ टेरर’ (पीसीपीटी) के संस्थापक सदस्य अमीक़ जामई ने आज अपने एक प्रेस बयान में कहा है.

उन्होंने कहा, ‘उत्तर प्रदेश में आज़मगढ़ के बाद अब संभल को आतंक के मॉडल के रूप में पेश किया जा रहा है, जो की बेहद ख़तरनाक है. मीडिया ट्रायल के ज़रिये खुद को हीरो बनाकर मेडल की चाहते रखने वाले एजेन्सी के अधिकारियों को सबसे पहले क़सूरवार लोगों की पूरी जानकारी जुटाकर फिर गिरफ्तार करना चाहिए. ताकि पुख्ता सबूतों के आधार पर अदालत से उन्हें सज़ा दिलवाई जा सके.’

अपने बयान में वह आगे कहते हैं, ‘लेकिन दिल्ली के स्पेशल सेल का रिकॉर्ड कोर्ट में बहुत बदनाम है. अधिकतर मामलों में यह कोर्ट में सही सबूत ही पेश नहीं कर पाए. लेकिन इनकी इस हरकत की वजह से बेगुनाहों को 20-20 साल जेल में गुज़ारना पड़ा है.’

अमीक़ जामई का सवाल है कि किसी भी शख्स को देश का सबसे ख़तरनाक आतंकी बनाकर यह पेश करते हैं. लेकिन अदालत उन्हें बेक़सूर बताकर छोड़ देती है. ऐसे मामलों में ऐसा क्यों न हो कि कोर्ट और संसद के प्रति अफ़सरों की ज़िम्मेदारी तय की जाये? ऐसा क्यों न हो कि स्पेशल सेल के अफ़सरों के मेडल और अवार्ड उनसे वापस ले लिए जाएं?

संभल के मामले में जामई का कहना है कि संभल से आसिफ़ के परिवार ने उनसे संपर्क किया है. वह बता रहे हैं कि आसिफ़ दिल्ली से कपड़े खरीदकर संभल में बेचने का काम करता है और घर में उनके खाने तक को नहीं है. उन्होंने कहा कि यह इल्ज़ाम सरासर ग़लत है कि उसने कई मुल्कों का सफ़र किया है. घरवालों के मुताबिक़ वह एक साल के लिए सऊदी अरब जाकर रहा है. और यदि आसिफ़ तब्लीग़ से जुड़ा रहा है, तो क्या दीन का काम करना जुर्म है?

अमीक़ जामई ने इल्ज़ाम लगाया है, ‘जब मोदी सरकार की थू थू हो रही है, सरकार फेल हो रही है, जनता के सामने उनकी साख गिर रही है तो स्पेशल सेल आतंक की राजनीति कर लोगों का ध्यान भटकाने की कोशिश कर रही है.


अयोध्या में राम मंदिर की शुरुआत? यानी बहुत कुछ की शुरुआत

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By TwoCircles.net staff reporter

अयोध्या:बीते रोज़ अयोध्या में विश्व हिन्दू परिषद् की हरक़तों ने माहौल को तल्ख़ और तनावपूर्ण बना दिया है. इसकी शुरुआत अयोध्या में मंदिर निर्माण के लिए पत्थरों को लेकर आए दो ट्रकों के आने के बाद शुरू हुई.

तकरीबन छः महीनों पहले विश्व हिन्दू परिषद् ने अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के लिए देश भर से पत्थर जुटाने की मुहिम की शुरुआत की थी. इस मुहिम का ही नतीज़ा निकला कि सोमवार को दो ट्रक इन पत्थरों को लेकर अयोध्या पहुंच गए.


मीडिया से बात करते हुए विहिप के प्रवक्ता शरद शर्मा ने बताया, 'अयोध्या में विहिप की संपत्ति रामसेवक पुरम में दो ट्रक पत्थर लाए गए हैं. राम जन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष महंत नृत्य गोपालदास ने शिलापूजन भी कर दिया है.'

पीटीआई से बातचीत करते हुए महंत नृत्य गोपालदास ने बताया कि मोदी सरकार की ओर से 'संकेत'दिए गए हैं कि राम मंदिर का निर्माण अभी होगा. लेकिन बाद में चैनलों द्वारा घेरे जाने पर नृत्य गोपालदास ने कहा कि इसमें केंद्र सरकार का कोई रोल नहीं है. यह पत्थर राजस्थान और गुजरात के रामभक्तों द्वारा भेजे गए हैं.

यदि केंद्र सरकार की मौन सहमति की बात को सच मानकर भी चलें तो भी विहिप की इस कार्रवाई को कानूनी नहीं ठहराया जा सकता है. इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद अब राम जन्मभूमि का मामला अब सर्वोच्च न्यायालय के पास है. ऐसे में किसी भी तरह का निर्माण या तनावपूर्ण कार्य गैरकानूनी है.

ऐसे में प्रश्न उठता है कि उत्तर प्रदेश के सबसे संवेदनशील इलाकों में गिने जाने वाले अयोध्या में बिना प्रदेश सरकार की सहमति के ऐसी कार्रवाई कैसे हुई? यह भी प्रश्न है कि प्रदेश सरकार के खुफ़िया तंत्र के पास इसकी भी जानकारी न थी कि ऐसा कुछ शुरू होने जा रहा है. बहरहाल, सूबे के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने इस मामले में गृह सचिव से रिपोर्ट मांगी है.

विहिप की इस कार्रवाई से राम मंदिर का निर्माण हो या न हो, लेकिन एक बात साफ़ है. भाजपा और संघ 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में इस औचक मूवमेंन्ट का फायदा लेने के लिए तैयारी कर रहे हैं. राम मंदिर मामले के पक्षकार हाशिम अंसारी ने भी इसे पॉलिटिकल स्टंट और 2017 विधानसभा चुनाव के लिए राजनीतिक ड्रामा करार दिया है.

बड़ा सवाल यह है कि उत्तर प्रदेश में, जहां मुजफ्फरनगर हो या दादरी, हर महीने साम्प्रदायिक घटनाएं होती रहती हैं, वहाँ के एक अति-सवेदनशील इलाके में विहिप की हरक़त से तराजू के पलड़े पर रखा हुआ साम्प्रदायिक सौहार्द्र किस ओर झूलेगा.

अयोध्या के गांव में दादरी काण्ड दोहराने की कोशिश नाकाम, रिहाई मंच ने लगाया प्रदेश सरकार पर आरोप

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By TCN News

लखनऊ :रिहाई मंच ने आरोप लगाया है कि प्रदेश की सपा सरकार और भाजपा राम मंदिर के नाम पर फिर से प्रदेश में साम्प्रदायिक माहौल बनाने की रणनीति के तहत राम मंदिर के जिन्न को बाहर निकालने का प्रयास कर रही हैं. मामले के सुप्रीम कोर्ट में होने के बावजूद हिंदुत्ववादी गिरोह मंदिर निर्माण की बात कर रहा है और प्रदेश सरकार आपराधिक चुप्पी साधे हुए है. मंच ने कहा है कि अयोध्या और फैजाबाद के ग्रामीण इलाकों में मुसलमानों के खिलाफ हिंसा की साजिश भी की इसी घातक एजेंडे का नतीजा है. रिहाई मंच के सदस्यों का कहना है कि एक मुक्त जांच दल जल्द ही अलकायदा के नाम पर फंसाए गए सम्भल के पीडि़तों और साम्प्रदायिक हिंसा के शिकार हुए अयोध्या के मिर्जापुर माफी गांव का दौरा करेगा.

रिहाई मंच द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति में मंच के नेता राजीव यादव ने कहा, 'अयोध्या में राम मंदिर बनाने का राग 2017 में होने वाले चुनाव के मद्देनजर सपा और भाजपा के बीच हुए गुप्त समझौते के तहत अलापा जा रहा है. ठीक इसी तरह 2013 में भी चौरासी कोसी परिक्रमा के नाम पर सपा सरकार ने अशोक सिंघल और मुलायम सिंह यादव की मुलाकात के बाद विश्व हिंदू परिषद को माहौल बिगाड़ने की खुली छूट दे दी थी. जिसके बाद मुजफ्फरनगर दंगे के ज़रिए पूरे सूबे को साम्प्रदायिक हिंसा में झोंकने की कोशिश हुई थी.'

राजीव यादव ने आगे कहा कि सपा सरकार के संरक्षण में अयोध्या और फैजाबाद में मुसलमानों को डरा-धमकाकर दादरी जैसी घटनाएं दोहराने की कोशिश की जा रही है. इसके तहत ही 18 दिसम्बर को अयोध्या से लगे मिर्जापुर माफी गांव के मुस्लिम युवक नफीस खान पुत्र रईस खान की मोटर बाईक से गांव के ही लाल जी यादव की बाईक टकराने की मामूली घटना के बाद न सिर्फ सत्ताधारी दल के समर्थक होने के गुरूर में नफीस को सम्प्रदायसूचक गालियां दी गयीं बल्कि उसे बुरी तरह पीटा भी गया.

राजीव यादव ने बताया कि किसी तरह जान बचाकर घर पहुँचने के बाद जब आपातकालीन 100 नम्बर पर घर वालों ने फोन करके पुलिस को सूचित किया तब भी पुलिस नहीं आई और 80-90 लोगों की भीड़ ने नफीस के घर को चारों तरफ से घेर लिया और पथराव करने लगे. इस घटना के काफी देर बाद अयोध्या कोतवाल राम स्वरूप कमल पीएसी के साथ पहुंचे लेकिन उन्होंने नफीस और उसके परिवार को बचाने के बजाए हमलावरों को ही आश्वस्त किया कि जैसा वे चाहेंगे वैसा ही होगा.

वहीं परिजनों से मिले इंसाफ अभियान के प्रदेश सचिव गुफरान सिद्दीकी ने आरोप लगाया है कि घायल नफीस, उसके पिता और नफीस को बचाने आए पड़ोसी को हमलावरों ने पीट-पीट कर अधमरा कर दिया था. पुलिस पड़ोसी की मेडिकल जांच के नाम पर अस्पताल ले गई लेकिन बाद में उनका चालान कर दिया जिनके खिलाफ हमलावरों ने झूठा क्राॅस केस करवाया था. जबकि मेडिकल रिपोर्ट में नफीस के घायल होने की पुष्टि हुई है.

उन्होंने कहा कि प्रदेश पुलिस की मुस्लिम विरोधी मानसिकता इस मामले में फिर से उजागर हो गई है क्योंकि पीडि़त मुस्लिम पक्ष ने लालजी यादव, संजय यादव, राम जी यादव, भगवान यादव, जमुना यादव, रिंकू यादव, राघोराम यादव, मुरारी यादव, गिरधारी यादव, महेश यादव, टीटी राम यादव, बिजली यादव, अगरू राम यादव, राम सजीवन यादव, भारत लाल यादव उर्फ भरत लाल यादव, शशिकपूर यादव, शिवराम यादव, सल्लू, दिनेश यादव, आशाराम यादव, मन्नू यादव, सन्नू यादव, दिन्नू यादव, राम अवध यादव, मंसाराम यादव (सभी मिर्जापुर माफी गांव के निवासी) के खिलाफ नामजद मुकदमा दर्ज कराया है लेकिन पुलिस ने एक भी आरोपी को आज तक नहीं पकड़ा और वे अब भी आजाद घूम रहे हैं.

गुफरान सिद्दीकी ने कहा कि नफीस के परिजनों को अब भी हमलावर धमकी दे रहे हैं कि हमारी सरकार है, पीएसी भी उनको नहीं बचा पाएगी. उन्होंने कहा कि इस घटना ने एक बार फिर साफ कर दिया है कि मुसलमानों के वोट लेने वाली सपा सरकार अब खुल कर संघ परिवार के मुस्लिम विरोधी एजेंडा लागू कर रही है.

करोड़पति विधायक के पास बच्चों के स्कूल की फीस भरने के पैसे नहीं

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अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

नई दिल्ली :ख़बर है कि आम आदमी पार्टी के विधायक अमानतुल्लाह खान के पास बच्चों की स्कूल की फीस जमा करने के पैसे नहीं हैं, जिसके कारण स्कूल ने बच्चों का एडमिशन रद्द कर दिया है.

ओखला क्षेत्र के विधायक अमानतुल्लाह खान का कहना है कि विधायक बनने के बाद उनका खर्च बहुत अधिक बढ़ा है. बतौर एमएलए उन्हें हर महीने 83 हजार पांच सौ रुपए सैलरी के रूप में मिलता है. इसी सैलरी में से वह अपने पांच स्टाफ को हर महीने 62 हज़ार रुपए की सैलरी दे देते हैं. बाक़ी बचे 21 हज़ार में कई खर्च, जैसे गाड़ी का फ्यूल, फोन बिल समेत घर का खर्च है. यही वजह है कि वह बच्चों की फीस जमा नहीं कर पाए.


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उनके मुताबिक़ हमदर्द स्कूल का कुल बकाया 58 हजार रुपए के आसपास है. दोबारा एडमिशन के लिए उन्होंने पार्टी से आर्थिक मदद मांगी है.

इस ख़बर के आने के बाद सोशल मीडिया में चर्चा का माहौल काफी गर्म है. उसके अलावा बटला हाउस की चाय की दुकानों पर भी लोग अमानतुल्लाह खान के इस मामले पर चर्चा करते हुए नज़र आ रहे हैं.

सोशल मीडिया पर Ameeque Jameiने लिखा है, ‘मैं चाहता हूँ कि विधायक जी ख़ुद आकर इस ख़बर पर अपना रूख रखें और अपना मज़ाक़ उड़वाना बंद करें. बेहतर होगा कि सरकारी तालीम को प्रमोट करने वाले आप नेता अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में दाख़िला दिलाकर हम सबको रास्ता दिखाए!’

जामिया नगर में रहने वाले पत्रकार अब्दुल वाहिद आज़ाद का कहना है, ‘अगर वाक़ई विधायक जी के पास पैसे की कमी है तो वह अपने दूसरे खर्चों में कमी कर सकते थे. लेकिन बच्चों की फ़ीस अदा न करना, उस मुसलमान के लिए जिसका मज़हब तालीम को सबसे ज़्यादा अहमियत देता है, बहुत ही शर्म की बात है.’


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आज़ाद आगे कहते हैं, ‘हमारे लिए तो बहुत ही शर्म की बात है कि हमारा नुमाइंदा ऐसा है, जो अपने बच्चों की तालीम को सियासत के बाज़ार में लाकर रख दिया है. बच्चों के तालीम पर खर्च में कटौती की कैंची चलाई है. ऐसे में इस रहनुमा से कोई कैसे अच्छी व बड़ी उम्मीद कर सकता है?’

वहीं बटला हाउस के ही इलाक़े में रहने वाले शारिक़ नदीम का कहना है कि अगर सच में पैसों की कमी है तो फिर सभी ओखलावासी उनके बच्चों के तालीम के लिए चंदा करने के लिए तैयार हैं. बस वे एक बार अपील करके तो देखें.’

स्पष्ट रहे कि यह समस्या उस विधायक के साथ है, जो विधानसभा चुनाव के दौरान खुद इलेक्शन कमीशन को बता चुके हैं कि वे 2015 में 2,00,73,316 यानी 2 करोड़ से अधिक के मालिक हैं. इससे पूर्व 2008 में जब लोजपा से चुनाव लड़े थे तो उनकी माली हैसियत सिर्फ 5,57,000 (5 लाख+) की थी, जो अगले साल चुनाव में बढ़कर 2013 में 14,12,000 (14 लाख+) हो गई.

'ओसामा अभी मरा नहीं, सम्भल में ज़िन्दा है'

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By अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

सम्भल:पहली नज़र में यह साफ़ सुथरा और तालीम की ओर बढ़ता शहर दिखता है. सम्भल के दीपासराय को देख किसी पॉश कॉलोनी का बोध होता है. यहां पतली ही सही मगर साफ़-सुथरी पक्की सड़कें हैं, जो आमतौर पर अन्य मुस्लिम इलाक़ों में नज़र नहीं आतीं.

आलीशान मस्जिद व मदरसे, इलाक़े का पूरा आसमान मिनारों से भरा पड़ा है. सड़कों पर नक़ाशपोश बच्चियां व औरतें लेकिन ज़्यादातर बच्चियों के कंधों पर किताबों का बैग या हाथों में किताबें ही नज़र आ रही है. शायद यही सम्भल के इस मोहल्ले की अपनी पहचान है, लेकिन अचानक एक ‘झटके’ ने इस पहचान को पीछे धकेल दिया है.


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इस मुस्लिम बहुल शहर के दीपासराय मोहल्ले के दो लोगों को जांच एजेंसियों ने आतंकी समूह अलक़ायदा से जोड़ा है. यही नहीं, पुलिस का कहना है कि दीपासराय में ही अलक़ायदा के दक्षिण एशिया के प्रमुख मौलाना आसिम उमर उर्फ़ सनाउल हक़ का भी घर है. दीपासराय के मो. आसिफ़ को दिल्ली पुलिस के स्पेशल सेल ने दिल्ली में यह कहते हुए गिरफ़्तार किया है कि आसिफ़ अल-क़ायदा के भारतीय उपमहाद्वीप के संस्थापकों में से एक है.


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ज़फर मसूद को भी अलक़ायदा के लिए पैसे जुटाने के आरोप में मुरादाबाद से गिरफ्तार किया गया. जफ़र का घर भी दीपासराय में ही है. ज़फ़र पर साल 2002 में भी आतंकवादी संगठनों से जुड़े होने के आरोप लगे थे, मगर अदालत ने उन्हें निर्दोष माना था. लगभग 13 सालों के बाद ज़फर फिर से पुलिस के निशाने पर हैं.

सम्भल के दीपासराय पहुंचने पर मिलते स्थानीय लोग कहते हैं कि यह सब इस शहर को बदनाम करने की साज़िश है.

दीपासराय में रहने वाले मो. मुस्लिम गुस्से में सरकार पर आरोप लगाते हैं, 'जिस शहर में मुसलमान तरक़्क़ी करने लगता है, वहां पहले दंगा कराकर मुसलमानों को कमज़ोर बनाया जाता था. पर अब दंगा करा पाना जब संभव नहीं दिख रहा है तो सरकारों ने यह रास्ता अपनाया है. पहले यूपी के आज़मगढ़ को टारगेट किया गया था, अब निशाने पर हमारा सम्भल है.’

वे आगे बताते हैं, ‘खासतौर पर दीपासराय मोहल्ले में तालीम के प्रति लोगों में रूझान काफी बढ़ा है. लोग अब लड़कियों को भी पढ़ाने लगे हैं. वहीं पहले जहां यहां के मुसलमान खाड़ी देशों में जाकर मजदूरी करते थे, अब वे शहर में ही मेहनत करने लगे हैं. इस मोहल्ले के कई लोग अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय व जामिया मिल्लिया इस्लामिया में प्रोफ़ेसर हैं. शायद यही बात हुकूमत को पसंद नहीं आ रही है.'

यह बात दीपासराय के ज़्यादातर लोगों की समझ के बाहर है कि उनके साथ उठने-बैठने वाला आसिफ़ इतना बड़ा ‘आतंकी’ कैसे बन गया? क्या अलक़ायदा का स्तर इतना नीचा है कि उसने आसिफ़ जैसे 5वीं पास को इतना बड़ा पद दे दिया?

लोगों को चिंता इस बात की है कि हमेशा उनके साथ रहने वाला 5वीं पास आसिफ़ कैसे इंटरनेट व सोशल मीडिया का इस्तेमाल करके लोगों को अपने साथ जोड़ रहा था. यहां के स्थानीय लोगों का स्पष्ट कहना है कि मीडिया चाहे जो कहे आसिफ़ आतंकी नहीं हो सकता. यह हमारे शहर, हमारे मोहल्ले को बदनाम करने की साज़िश है.

आसिफ़ का भाई सादिक़ इसी मोहल्ले में लेडिस टेलर का दुकान चलाते हैं. लेकिन उनकी दुकान अभी बंद है. वे बताते हैं, ‘इन दिनों मोहल्ले में शादियां खूब हैं. इसलिए काम भी बहुत था, लेकिन क्या करें? सारे काम लौटा दिए.’

यहां के लोगों की पहली शिकायत मीडिया से है. स्थानीय लोगों का कहना है कि मीडिया बिला वजह उनका वक़्त बर्बाद करती है. उनकी दलील है कि सचाई दिखाने की हिम्मत तो किसी मीडिया में है नहीं. दिखाना उन्हें वही है जो उनकी मर्जी है या जो प्रशासन द्वारा कहा जाता है.’ ज़फ़र मसूद की बीवी भी मीडिया के सवालों से अब इतनी परेशान हो चुकी हैं कि वह अब किसी से मिलना नहीं चाहतीं.


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आसिफ़ का भाई सादिक़ भी मीडिया से नाराज़ है. वह प्रश्न करते है, ‘आख़िर आप लोग इतनी नफ़रत लाते कहां से हो? क्या इल्ज़ाम लगने भर से कोई मुजरिम हो जाता है? मुजरिम तो कोई तब होता है, जब हमारी अदालत साबित कर देती है. लेकिन आप उससे पहले ही उसे आतंकवादी और न जाने किन-किन शब्दों से नवाज़ना शुरू कर देते हो.’

सादिक़ उदासी में कहते है, ‘मीडिया ने इस तरह से मेरे भाई को यह कहकर खड़ा कर दिया है कि ओसामा शायद मरा नहीं है, सम्भल में ज़िन्दा है.’ सादिक़ रोते-रोते आगे कहते है,‘कोई भी मज़हब इसांनियत के ख़िलाफ़ नहीं होता. आप चाहे जिस मज़हब के हो, कम से कम इंसानियत तो रखों.’ आसिफ़ का दर्द उसकी बातों में साफ़ झलकता है. सादिक़ आगे कहते हैं, ‘मेरे वालिद का अब क्या होगा? वालिद की हालत ख़राब हो गई है. बुढ़ापे में इस सदमे को वह कैसे बर्दाश्त कर पा रहे होंगे. नींद की गोली देकर उन्हें सुलाया है.’


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सादिक़ बताते हैं, ‘पुलिस या एजेंसी की ओर से कोई सूचना आज तक नहीं दी गयी है. सारी जानकारियां हमें मीडिया से ही मिल रही हैं.’

सादिक़ के दर्द को इस बात से भी समझा जा सकता है, डॉक्टर कहते हैं कि एड्स छूने से नहीं फैलता, लेकिन हमारा मामला तो एड्स से भी ज़्यादा खतरनाक है. हम जिसके पास भी जाते हैं, वह अजीब नज़रों से हमें देखता है. अब आप ही बताईए कि हम क्या करें? हमारे पास तो केस लड़ने के भी पैसे नहीं हैं. हम तो रोज़ कुंआ खोदते हैं और पानी पीते हैं.’

आसिफ़ की बीवी का भी कहना है, ‘पता नहीं, यह सब हमारे साथ ही क्यों हो रहा है. मेरे पति आतंकी नहीं हो सकते.’

आसिफ़ की गिरफ्तारी के सम्बन्ध में वे कहती हैं,‘संडे को वो सुबह ही उठकर दिल्ली गए थे. जब दिन में मैंने फोन किया तो वो बंद आ रहा था. शाम में उनका फोन आया. वो बता रहे थे कि फोन बंद हो गया था. घर पर उनका एक टच वाला मोबाईल रखा हुआ था. बोले कि वो मोबाईल अभी एक आदमी घर जाएगा, उसे दे देना. तुरंत ही एक आदमी आया, जिसे मेरे बच्चे ने मोबाईल दे दिया. उसके बाद से उनसे कोई बात नहीं हुई. टीवी पर ख़बरों से मालूम हुआ कि उन्हें पुलिस ने पकड़ा है.’


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आसिफ़ की वीबी के मुताबिक़ इन दिनों पैसे की काफी तंगी चल रही है. आज तक उनका घर नहीं बन पाया. वे किराए के घर पर रह रहे थे. 1500 रूपये हर महीने किराया देना पड़ता है. बच्चों के स्कूल की फीस भी नहीं हो पा रही थी. इसलिए उन्होंने लड़के की पढ़ाई छुड़वा दी. लड़की अभी भी पढ़ रही है. लड़का अभी दस साल का है.

इस पूरे मामले में स्थानीय पुलिस के पास कुछ भी जानकारी नहीं है. नखाशा पुलिस चौकी के इंचार्ज आदित्य सिंह बताते हैं. ‘हमें इस घटना के संबंध में कोई जानकारी नहीं है.’ आदित्य सिंह सवालिया अंदाज़ में यह भी कहते हैं, 'यहां का हर व्यक्ति कहता है कि वह बेगुनाह हैं, लेकिन उन्हें क्या मालूम कि वह दिल्ली में क्या करता था? आख़िर इंटेलीजेंस के पास कुछ होगा तब ही तो गिरफ़्तार किया है.’

आदित्य सिंह बताते हैं कि दीपासराय में सिर्फ़ मुसलमान ही रहते हैं. लेकिन जब हमने पूछा कि आपके इस चौकी में कितने मुसलमान हैं तो उनका स्पष्ट जवाब था कि ‘एक भी नहीं.’ फिर वह आगे बताते हैं कि 'पहले दो थे, पर अब नहीं हैं.’ आदित्य सिंह के मुताबिक़ रात में गश्त बढ़ा दी गई है. बाहर से आने वाले लोगों पर नज़र रखी जा रही है. हालांकि पहले ऐसा नहीं था लेकिन स्थानीय लोगों का कहना है कि कोई गश्त उन्हें अभी भी नज़र नहीं आती.

पूरे सम्भल में तकरीबन 50 से भी अधिक मदरसे हैं. इसके इंग्लिश मीडियम स्कूलों की भी कोई कमी नहीं है. दीपासराय के ही मदरसे ‘मदीनतुल ऊलूम’ की देखभाल करने वाले फैज़ल बताते हैं ‘सम्भल के मदरसों में ज़्यादातर छात्र स्थानीय या यूपी के दूसरे ज़िलों से हैं. किसी दूसरे राज्य के छात्र यहां बहुत कम हैं.’ हम यहां छात्रों से मिलने की कोशिश में थे, लेकिन फैजल के मुताबिक़ हम अध्यापकों की मौजूदगी में ही मिल सकते हैं. शायद पिछले कुछ दिनों में उन्होंने मीडियावालों के रवैये को देखा था और नहीं चाहते थे कि बच्चे भी वही चीजें झेलें.

सम्भल की यह खूबसूरती ही है कि एक तरफ़ जहां शहर में आरएसएस कार्यकर्ताओं द्वारा ‘आतंकवाद’ का पुतला फूंका जा रहा था, वहीं कोतवाली में अमन कमेटी की बैठक चल रही थी, वह भी इस फ़िक्र में कि ईद-मिलादुन्नबी का जुलूस शांति से गुज़र जाए. कैसे लोगों में फिर से इंसानित बहाल की जाए.

सम्भल के जितने भी लोगों से हमने बात की, उनमें शहर की नई पहचान को लेकर चिंता नज़र आई. इन घटनाओं के बाद सम्भल के लोगों के दिलो-दिमाग में डर है और इस डर को साफ़ देखा जा सकता है. डर इस बात का कि कहीं सम्भल एक नया आजमगढ़ न हो जाए.

इन सबके बीच यह सोचना भी ग़लत नहीं होगा कि सम्भल फिर से अपने पुराने दिनों में लौटना चाहता है. अपने अतीत से पूरी दुनिया को रूबरू कराना चाहता है. बताना चाहता है कि हिन्दुस्तान के ‘जंग-ए-आज़ादी’ में इसका क्या रोल रहा है? सादिक़ के मुताबिक़ इस शहर में दीपासराय की एक अलग अहमियत है, क्योंकि इस मोहल्ले का नाम 16वीं सदी के राजा दीप चंद के नाम पर रखा गया है. मुल्क की आज़ादी में हिस्सा लेने वाले मुस्लिम क्रांतिकारियों की सबसे अधिक संख्या इसी मोहल्ले से थी.

यहां की नई पीढ़ी को दीपासराय का यह इतिहास भले ही मालूम न हो, लेकिन वे दीपासराय के भविष्य को लेकर चिंतित ज़रूर हैं.

दादरी: उन्होंने कहा “तुमने गाय काटी है, तुम्हें जिंदा नहीं छोड़ेंगे”

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By सिद्धांत मोहन, TwoCircles.net

लखनऊ:गोमांस की अफ़वाह पर भीड़ द्वारा मार दिए गए दादरी के मोहम्मद अखलाक़ की बेटी शाईस्ता ने गौतम बुद्ध नगर के एसीजेएम – द्वितीय की अदालत में अपने पिता की मौत की पूरी कहानी बयां की है. शाईस्ता का यह बयान मीडिया चैनलों की सुर्ख़ियों में बना हुआ है.

21 वर्षीया शाईस्ता ने यह बयान देते समय पूरे घटनाक्रम को फिर से जिया है. आगे पढ़ें शाईस्ता का हूबहू बयान -


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28 सितम्बर 2015 को रात को हम अपने घर पर नमाज़ पढ़कर खाना खाकर सोने की तैयारी कर रहे थे. घर पर मेरे पापा, मेरे भाई दानिश, मेरी मम्मी इकरामन, दादी मसगरी और मैं थे. रात के लगभग सवा दस – साढ़े दस बजे थे. हमारे गांव में चौक वाले मंदिर में ऐलान हुआ कि “बड़े ट्रांसफार्मर पर किसी ने गाय काट दी है, सब लोग वहां पर जमा हो जाओ.” तभी हमारे घर के बाहर बहुत सारे लोग मेरे पापाजी और भईया का नाम लेकर गन्दी-गन्दी गालियां दे रहे थे. हमारे घर का दरवाज़ा तोड़कर और चाचा वाली दीवार से हमारे घर में घुस गए. उस वक़्त मैं, मेरा भाई दानिश और पापा जी ऊपर थे. मम्मी व दादी नीचे थीं. मम्मी और दादी ने पूछा कि क्या बात है, ऊपर से पापा ने पूछा तो पापाजी को देखकर वे लोग ऊपर पहुंच गए. शिवम s/o मुकेश, संदीप s/o ओमवीर, डा. अरुण @ अन्नू s/o राजपाल, सौरभ, गौरव s/o धीरज, विशाल s/o संजय राणा, श्रीराम, हरिओम s/o राजाराम, पुनीत s/o धर्मवीर, रूपेंद्र s/o प्रदीप फ़ौजी, सचिन, विवेक s/o ओम, भीम s/o छुट्टन, हरीओम s/o रूपसिंह, सोनू @ धम्मू s/o धर्मवीर, रविन s/o रणवीर थे. इनमें से विवेक के हाथ में सरिया था, बाकी के हाथ में लाठी डंडे थे. इनके अलावा कुछ लोग और भी थे जिन्हें मैं नहीं पहचानती. मैं, मेरा भाई और पापा अपनी जान बचाने ऊपर के कमरे में छुपे तो उन लोगों ने दरवाजा तोड़ दिया. फिर हम अन्दर वाले कमरे में छिपे. उस कमरे में घरेलू सामान, फ्रिज वगैरह रखा था. उस कमरे में अन्दर कुण्डी नहीं है, हम तीनों ने धक्का लगाकर वो गेट रोका. भीड़ ने धक्का मारकर वो दरवाजा भी तोड़ दिया और मेरे पापा और भईया को वे लोग मारने लगे. हम लोग रोते-चिल्लाते रहे कि क्या बात है? क्यों मार रहे हो, तो वे लोग बोले कि “तुमने गाय काटी है, तुम्हें ज़िंदा नहीं छोड़ेंगे.” मेरी मम्मी, दादी और हमने बीच बचल किया तो हमें भी लात घूंसों से मारा, धकेल दिया. ये लोग पापाजी और भईया को बेरहमी से मारते रहे. दानिश को मरा जानकर उसे छोड़कर पापाजी को घसीटते हुए बाहर ले गए. वे लोग जाते-जाते घर में मिट्टी का तेल छिड़ककर गए. मिट्टी का तेल घर पर रखा था. कह रहे थे कि अगर पुलिस को बताया तो तुम्हें भी जान से मार देंगे. पुलिस के आने पर हम भैय्या को कैलाश हॉस्पीटल ले गए. हॉस्पीटल जाकर हमें पता चला कि हमारे पापा भी इसी हॉस्पीटल में है उनकी मौत हो चुकी है.


(File Photo)

हमने गाय नहीं काटी थी. भीड़ जो लोग हमारे घर में घुसे थे. उन्होंने हमारे घर से फ्रिज में से मांस निकाला था. वो मांस बकरे का था जो हमारी रिश्तेदारी में से आया था. वो मांस वे लोग लेकर चले गए थे. हमने पुलिस को सब लोगों के नाम और पूरी घटना बतायी थी. और कुछ नहीं कहना है.

[आधिकारिक बयान के लिए The Telegraph का आभार]

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