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सीमांचल के हक़ की लड़ाई जारी रहेगी – ओवैसी

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By TwoCircles.net Staff Reporter

किशनगंज:‘हमारी पार्टी 'ऑल इंडिया मजलिसे इत्तेहादुल मुस्लेमीन (मजलिस)'ने बिहार के चुनाव में हिस्सा लिया, ताकि सीमांचल के साथ इंसाफ़ हो. मैं इस बात का वादा करता हूं कि जो मक़सद कल था, वो आज भी रहेगा. बल्कि हम तमाम लोग साथ मिलकर सीमांचल की लड़ाई को आगे भी जारी रखेंगे. हमारी ये लड़ाई उस वक़्त तक जारी रहेगी, जब तक सीमांचल के आवाम को इंसाफ़ नहीं मिल जाता.’

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यह बातें शनिवार को मजलिस के सरबराह सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने किशनगंज के टाउनहॉल में पार्टी के ‘कार्यकर्ता सम्मेलन’ को संबोधित करते हुए कहीं.

इस सम्मेलन में उन्होंने कहा, ‘इलेक्शन में जीत-हार लगी रहती है. लेकिन हमें मायूस होने की हरगिज़ ज़रूरत नहीं है और न ही अपनी ज़बान से यह अल्फ़ाज़ निकालने की ज़रूरत है कि हम इलेक्शन हारे. क्योंकि हमारा मज़हब इस बात की तालीम देता है कि अल्लाह की रहमत से मायूस न हों. इसलिए मायूस होने की ज़रूरत नहीं है. अल्लाह की रहमत से हमें उम्मीद रहना चाहिए.’

अपने कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए ओवैसी ने पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद की जिन्दगी में आने वाले परेशानियों से भी आगाह किया और सुझाव दिया कि हमें उनकी ज़िन्दगी को देखना चाहिए और सीखना चाहिए.

ओवैसी ने आगे यह भी कहा कि बिहार चुनाव में पार्टी की हार हुई है, हौसले की नहीं. पार्टी राज्य के दलितों एवं अक़्लियतों के साथ किसी तरह का नाइंसाफी नहीं होने देगी.

इस मौक़े पर ओवैसी ने बिहार की नीतीश सरकार को मुबारकबाद देते हुए यह चेतावनी भी दी कि नई सरकार दलित एवं अल्पसंख्यकों के साथ बेइंसाफी बंद करे. उन्होंने लालू-नीतिश पर कटाक्ष करते हुए कहा कि सूबे में 11 फीसदी यादव के वोट में 61 विधायक विधानसभा पहुंचे है, लेकिन 17 प्रतिशत मुसलमानों का वोट होने के बावजूद 24 विधायक ही जीत कर विधानसभा पहुंचे हैं. जबकि आबादी के अनुरूप विधानसभा में कम से कम 55 मुसलमान विधायक होना चाहिये. उन्होंने यह भी कहा कि पांच वर्ष लम्बा वक़्त नहीं होता है. इंतजार कीजिये. हम अपना हक़ लेकर रहेंगे.

मजलिस के प्रदेश अध्यक्ष एवं पूर्व विधायक अख्तरुल ईमान ने इस मौक़े पर कहा कि उनकी पार्टी आगामी ग्राम पंचायत चुनावों में पूरे दमखम से उतरेगी और अच्छी कामयाबी हासिल करेगी. उन्होंने कहा कि सीमांचल क्षेत्र सहित पूरे प्रदेश में मज़बूती से संगठन खड़ा करेगी.

दरअसल, कहा जा रहा था कि ओवैसी चुनाव के बाद बिहार का रूख नहीं करेंगे, लेकिन चुनाव हारने के बाद भी उनका सीमांचल के किशनगंज में आकर अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं से मिलना यह बताता है कि आगे वाले चुनावों में ओवैसी मुसलमानों के लिए विकल्प बने रहना चाहते हैं.

पार्टी से जुड़े सूत्र बताते हैं कि ओवैसी 2016 में पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में भी सीमांचल से सटी कुछ सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार सकते हैं. 2017 में यूपी विधानसभा चुनाव में कूदने का ऐलान वह पहले ही कर चुके हैं. बल्कि 2016 में होने वाले यूपी के उपचुनाव में भी ओवैसी अपना उम्मीदवार उतारने की तैयारी में हैं. ऐसे में ओवैसी चाहते हैं कि बिहार में कार्यकर्ताओं की एक बड़ी फौज तैयार की जाए ताकि उनका इस्तेमाल पश्चिम बंगाल व उत्तर प्रदेश में किया जा सके. इतना ही नहीं, आदिल हसन आज़ाद की मानें तो ओवैसी अभी से ‘मिशन-2019’ का भी आगाज़ करने का इरादा रखते हैं.


देश में उलटे पांव चलता बाल संरक्षण

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कैसे तमाम राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय प्रयासों के बावजूद देश में बाल संरक्षण की हालत किसी बद से बदतर होती जा रही है...

जावेद अनीस

26 साल पहले संयुक्त राष्ट्र की आम सभा में ‘बाल अधिकार समझौते’ को पारित किया गया था, जिसके बाद वैश्विक स्तर से बच्चों के अधिकार को गंभीरता से स्वीकार किया जाने लगा. इस समझौते की रोशनी में भारत में भी बच्चों के हक में कई नीतियां और कानून बनाये गये हैं. बच्चों और किशोरों की सुरक्षा, संरक्षण और देखभाल के लिए भारत सरकार द्वारा वर्ष 2000 में किशोर न्याय अधिनियम लाया गया. यह एक ऐसा प्रगतिशील कानून है, जिसके तहत 18 वर्ष से कम आयु के किसी भी विधि विवादित बच्चे के साथ वयस्कों की तरह व्यवहार नही किया जा सकता है. उनके लिए अलग से न्याय व्यवस्था की गयी है, इस कानून के दूसरे हिस्से में घर से भागे हुए, अत्यन्त गरीब परिवारों के और अनाथ या छोड़े गए बच्चों के संरक्षण की व्यवस्था है. 2007 में केंद्र सरकार द्वारा किशोर न्याय अधिनियम को मजबूती से लागू करवाने के लिए समेकित बाल संरक्षण योजना बनाई गयी. अधिनियम के अनुसार देश के प्रत्येक जिले में एक बाल गृह हो, एक आश्रय गृह हो, एक आबजव्रेशन होम हो, एक विशेष गृह हो.


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किशोर न्याय अधिनियम और एकीकृत बाल संरक्षण योजना कागजी रुप से निर्विवादित योजना है. यह कानून इतना आदर्श है कि यदि इसे पूरे स्वरुप के साथ लागू किया जाए तो शायद कोई भी बच्चा लावारिस, सड़क पर भीख मांगता, मजदूरी करता दिखाई नहीं देगा और सभी विधि विवादित बच्चों का सुधारात्मक पुनर्वास हो जाएगा लेकिन इसके क्रियान्वयन को लेकर कई सारी समस्याएं, जटिलताएं और रुकावटें सामने आ रही हैं.

इसे लागू करने में 9 विभागों की भूमिका बनती है लेकिन हकीकत यह है कि महिला बाल विकास और सामाजिक न्याय विभाग को छोड़ कर ज्यादातर विभाग इसके प्रति उदासीन है और यह उनकी प्राथमिकता में नही आता है. इसे लागू करने वाली संस्थाओं, पुलिस, अभियोजन पक्ष, वकीलों और यहां तक कि जजों को भी इस कानून के प्रावधानों और इसकी आत्मा की जानकारी नहीं हो सकी है. इसे जमीनी स्तर पर उतारने के लिए संस्थाओं, एजेंसियों में प्रशिक्षित स्टाफ की कमी एक बड़ी चुनौती है. संरक्षण और सुधार गृहों की स्थिति भी दयनीय है आईसीपीएस को लागू करने में राज्य के साथ स्वयंसेवी संस्थाओं की भी महत्वपूर्ण भूमिका बन गई है. इसकी वजह से भी चुनौतियां सामने आ रही हैं, इससे सरकारों को बच्चों के प्रति अपनी जवाबदेही को स्वयंसेवी संस्थाओं की तरफ मोड़ने में आसानी हो जाती है.

लेकिन भारत में ऐसे अधिनियमों के तहत स्थापित गृहों और संस्थाओं की स्थिति बेहद चिंताजनक है. आए दिन शिशु, बाल एवं सुधार गृहों से बच्चों के उत्पीड़न, उनके देखभाल में कोताही, सुरक्षा में चूक, पर्याप्त सेवाओं और सुविधाओं के अभाव की खबरें आती रहती हैं. हर घटना एक सुर्खी तो बनती है फिर कहीं और एक और पुनरावृत्ति सामने आ जाती है, इसे रोकने के लिए शायद ही कोई ठोस कदम उठाया जाता हो. सारा जोर किसी पर दोषारोपण करके पूरे मामले को दबाने पर होता है. समस्या की जड़ पर शायद ही बात की जाती हो.

सुप्रीम कोर्ट द्वारा पूरे देश के बाल सुधार गृहों की स्थिति के अध्यन के लिए न्यायाधीश मदन बी. लोकर की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित की गयी थी, इस न्यायिक रिपोर्ट के अनुसार हमारे देश के सरकारी बाल सुधार गृहों में रह रहे 40 प्रतिशत ‘विधि विवादित बच्चे’ बहुत चिंताजनक स्थिति में रहते हैं, यहां उन्हें रखने का मकसद उनमें सुधार लाना है लेकिन हमारे बाल सुधार गृहों की हालत वयस्कों के कारागारों से भी बदतर है. कमेटी के अनुसार बाल सुधार गृहों को ‘चाइल्ड फ्रेंडली’ तरीके से चलाने के लिए सरकारों द्वारा पर्याप्त संसाधन उपलब्ध नहीं कराए जा रहे हैं, किशोर न्याय अधिनियम के कई सारे प्रावधान जैसे सामुदायिक सेवा, परामर्श केंद्र और किशोरों की सजा से संबंधित अन्य प्रावधान जमीन पर लागू होने के बजाय अभी भी कागजों पर ही हैं.

एशियन सेंटर फॉर हयूमेन राइट्स, नई दिल्ली की रिपोर्ट ‘India's Hell Hole: Child Sexual Assault in Juvenile Justice Homes’में भारत के विभिन्न राज्यों में स्थित बाल गृहों में बच्चों के साथ होने वाले यौन उत्पीड़न के जिन 39 मामलों का अध्ययन किया गया है. इन मामलों में 11 मामले सरकारी सम्प्रेक्षण गृह, बाल गृह, आश्रय गृह और अनाथालयों के हैं, जबकि 27 केस निजी या स्वयंसेवी संस्था द्वारा चलाये जा रहे सम्प्रेक्षण गृह, बाल गृह, आश्रय गृह और अनाथालयों के हैं. सरकारी गृहों के मामलों में ज्यादातर अपराधकर्ता वहीं के कर्मचारी जैसे केयर- टेकर, रसोईया, सुरक्षाकर्मी शामिल थे, जबकि प्रायवेट या स्वंसेवी संस्था के द्वारा चलाये गृहों में अपराधकर्ता संस्था के मैनेजर/संस्थापक, संचालक, उनके रिश्तेदार/दोस्त, अन्य कर्मचारी जैसे केयरटेकर, वार्डन, रसोईया, सुरक्षाकर्मी आदि शामिल थे. रिपोर्ट के अनुसार ज्यादातर राज्य सरकारों द्वारा जे.जे. होमस की निरीक्षण कमेटी का गठन नही किया गया है.किशोर न्याय अधिनियम 2007 के नियमों के अनुसार सभी तरह के गृहों में रहने वाले बच्चों का उनके जुर्म, आयु, लिंग के आधार पर वर्गीकरण करके उन्हे अलग-अलग रखना चाहिए. लेकिन इसका पालन नही किया जा रहा है, इससे बड़े बच्चों द्वारा छोटे बच्चों के उत्पीड़न के संभावना बढ़ जाती है.

बाल सुरक्षा के लिए काम करने वाली संस्था ‘आंगन’ द्वारा 31 संप्रेक्षण गृहों के कुल 264 लड़कों से बात करने के बाद जो निष्कर्ष सामने आए हैं वे हमारी किशोर न्यायव्यवस्था की चिंताजनक तस्वीर पेश करते हैं. अध्ययन में शामिल 72 प्रतिशत बच्चों ने बताया कि उन्हें किशोर न्याय बोर्ड के सामने प्रस्तुत करने से पहले पुलिस लॉकअप में रखा गया था, 38 प्रतिशत बच्चों का तो कहना था कि उन्हें पुलिस लॉकअप में 7 से 10 दिनों तक रखा गया था जो पूरी तरह से कानून का उल्लंघन है. इसी तरह से 45 प्रतिशत बच्चों ने बताया कि पुलिस कस्टडी के दौरान उन्हें शारीरिक रूप से प्रताड़ित किया गया, जिसमें चमड़े की बेल्ट और लोहे की छड़ी तक का इस्तेमाल किया गया. कुछ बच्चों ने यह भी बताया कि उन्हें उन अपराधों को स्वीकार करने के लिए बुरी तरह से पीटा गया जो उन्होंने किया ही नहीं था.किशोर न्यायव्यवस्था की कार्यशैली और संवेदनहीनता को रेखांकित करते 75 प्रतिशत बच्चों ने बताया कि पेशी के दौरान बोर्ड उनसे कोई सवाल नहीं पूछा और ना ही उनका पक्ष जानने का प्रयास किया.

इन्हीं परिस्थितियों को देखते हुए 2013 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा किशोर गृहों की निगरानी का निर्णय लिया गया. इसके तहत एक पैनल का गठन किया गया है. सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस ने सभी राज्यों के हाईकोर्ट को भी लिखा कि वे अपने यहां एक जज को नामांकित करे जो इन गृहों का निरीक्षण करेगें. समय-समय पर ये जज गृहों में जाकर देखेगें कि वे सही चल रहे है या नहीं और उन्हें पर्याप्त राशि प्राप्त हो रही है या नही. इसकी रिपोर्ट वे राज्य सरकार और जुवेनाइल कमेटीयों को भेजेंगे. सितंबर 2015 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा केन्द्र और राज्य सरकारों को यह निर्देश दिया गया है कि देश में अपंजीकृत स्वयंसेवी संस्था द्वारा चलाये जा रहे बाल गृहों को तत्काल बंद किया जाये और उन्हें किसी भी तरह का सरकारी फंड न दिया जाए. इसके लिए 31 दिसंबर 2015 को समयसीमा निर्धारित किया गया है.

समाज में बच्चे सबसे असुरक्षित होते है इसलिए उनकी सुरक्षा, देखरेख और बचाव के लिए विशेष प्रयास की ज़रुरत होती है. हमारे देश में किशोर न्याय अधिनियम और एकीकृत बाल संरक्षण योजना इसी दिशा में किये गये प्रयास हैं. इस व्यवस्था के तहत बनाए गए आवासीय, देखरेख और सुधार गृहों से यह अपेक्षा की जाती है कि वहां बच्चे ना केवल सुरक्षित रहेगें बल्कि उनके लिए एक वैकल्पिक परिवार के रूप में भी कार्य करेगें और उसकी भावनात्मक और विकास से जुड़ी आवश्यकताऐं पूरी हो सकेगीं. इन संस्थानों में ऐसी घटनाओं को रोकने और बच्चों की देखभाल की गुणवत्ता में सुधार लाना एक ऐसी चुनौती है जिसे सम्पूर्णता के साथ सम्बोधित करने की ज़रुरत है.

(तस्वीर IBNLive से साभार)

[जावेद भोपाल में रह रहे पत्रकार हैं. उनसे javed4media@gmail.comपर संपर्क किया जा सकता है.]

किताब समीक्षा और ऑपरेशन अक्षरधाम का पूरा सच

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अवनीश कुमार

हमारे राज्यतंत्र और समाज के भीतर जो कुछ गहरे सड़गल चुका है, जो भयंकर अन्यायपूर्ण और उत्पीड़क है, उसका बेहतरीन आलोचनात्मक विश्लेषण और उस तस्वीर का एक छोटा सा हिस्सा है – ऑपरेशन अक्षरधाम

24 सितंबर 2002 को हुए गुजरात के अक्षरधाम मंदिर पर हमले को अब करीब 13 साल बीत चुके हैं. गांधीनगर के सबसे पॉश इलाके में स्थित इस मंदिर में शाम को हुए एक ‘आतंकी’ हमले में कुल 33 निर्दोष लोग मारे गए थे. दिल्ली से आई एनएसजी की टीम ने ऑपरेशन ‘वज्रशक्ति’ के तहत दो फिदाईनो को मारने का दावा किया था. मारे गए लोगों से उर्दू में लिखे दो पत्र भी बरामद होने का दावा किया गया, जिसमें गुजरात में 2002 में ‘राज्य-प्रायोजित’ दंगों में मुसलमानों के जान-माल की हानि का बदला लेने की बात की गई थी. बताया गया कि दोनो पत्रों पर तहरीक-ए-किसास नाम के संगठन का नाम लिखा था.

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इसके बाद राजनीतिक परिस्थितियों में जो बदलाव आए और जिन लोगों को उसका फायदा मिला, वह सबके सामने है और एक अलग बहस का विषय हो सकता है. इस मामले में जांच एजेंसियों ने 6 लोगों को आतंकियों के सहयोगी के रूप में गिरफ्तार किया था जो अंततः सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद पूरी तरह निर्दोष छूट गए. यह किताब मुख्यरूप से जिन बिंदुओं पर चर्चा करती है उनमें पुलिस, सरकारी जांच एजेंसियों और खुफिया एजेंसियों तथा निचली अदालतों और उच्च न्यायालय तक की कार्यप्रणालियों और सांप्रदायिक चरित्र का पता चलता है. यह भी दिखता है कि कैसे राज्य इन सभी प्रणालियों को हाइजैक कर सकता है और किसी एक के इशारे पर नचा सकता है.

‘ऑपरेशन अक्षरधाम’ मुख्य रूप से उन सारी घटनाओं का दस्तावेजीकरण और विश्लेषण है जो एक सामान्य पाठक के सामने उन घटनाओं से जुड़ी कड़ियों को खोलकर रख देता है. यह किताब इस मामले के हर एक गवाह, सबूत और आरोप को रेशा-रेशा करती है. मसलन इस ‘आतंकी’ हमले के अगले दिन केंद्रीय गृह मंत्रालय ने दावा किया कि मारे गए दोनों फिदाईनों का नाम और पता मुहम्मद अमजद भाई, लाहौर, पाकिस्तान और हाफिज यासिर, अटक पाकिस्तान है, जबकि गुजरात पुलिस के डीजीपी के चक्रवर्ती ने केंद्रीय गृह मंत्रालय के दावे से अपनी अनभिज्ञता जाहिर की और कहा कि उनके पास इस बारे में कोई जानकारी नहीं है.

इसी तरह पुलिस के बाकी दावों जैसे फिदाईन मंदिर में कहां से घुसे, वे किस गाड़ी से आए और उन्होने क्या पहना था, में भी अंतर्विरोध बना रहा. पुलिस का दावा और चश्मदीद गवाहों के बयान विरोधाभासी रहे पर आश्चर्यजनक रूप से पोटा अदालत ने इन सारी गवाहियों की तरफ से आंखें मूंदे रखी.

चूंकि यह एक आतंकी हमला था इसलिए इसकी जांच आतंकवाद निरोधी दस्ते (एटीएस) को सौंपी गई. लेकिन इसमें तब तक कोई खास प्रगति नहीं हुई, जब तक कि एक मामूली चेन स्नेचर समीर खान पठान को पुलिस कस्टडी से निकालकर उस्मानपुर गार्डेन में एक फर्जी मुठभेड़ में मार नहीं दिया गया. अब इस मामले में कई वरिष्ठ पुलिस अधिकारी जेल में हैं. इस मामले में दायर एफआईआर में लिखा गया ‘पठान मोदी और अन्य भाजपा नेताओं को मारना चाहता था. उसे पाकिस्तान में आतंकवाद फैलाने का प्रशिक्षण देने के बाद भारत भेजा गया था. यह ठीक उसके बाद हुआ जब पेशावर में प्रशिक्षित दो पाकिस्तानी आतंकवादी अक्षरधाम मंदिर पर हमला कर चुके थे.’ रोचक बात यह थी कि इसके पहले अक्षरधाम हमले के सिलसिले में 25 सितंबर 2002 को जी.एल. सिंघल द्वारा लिखवाई गई एफआईआर में मारे गए दोनो फिदाईनों के निवास और राष्ट्रीयता का कहीं कोई जिक्र नहीं था.

28 अगस्त 2003 की शाम को साढ़े 6 बजे क्राइम ब्रांच अहमदाबाद के एसीपी के दफ्तर पर डीजीपी कार्यालय से फैक्स आया जिसमें निर्देशित किया गया था कि अक्षरधाम मामले की जांच क्राइम ब्रांच को तत्काल प्रभाव से एटीएस से अपने हाथ में लेनी है. इस फैक्स के मिलने के बाद एसीपी जीएल सिंघल तुरंत एटीएस आफिस चले गए, जहां से उन्होने रात आठ बजे तक इस मामले से जुड़ी कुल 14 फाइलें लीं. इसके बाद शिकायतकर्ता से खुद-ब--खुद वे जांचकर्ता भी बन गए और अगले कुछ ही घंटों में उन्होने अक्षरधाम मामले को हल कर लेने और पांच आरोपियों को पकड़ लेने का चमत्कार कर दिखाया. इस संबंध में जीएल सिंघल द्वारा पोटा अदालत में दिए बयान के मुताबिक, “एटीएस की जांच से उन्हें कोई खास सुराग नहीं मिला था और उन्होने पूरी जांच खुद नए सिरे से 28 अगस्त 2003 से शुरू की थी.”और इस तरह अगले ही दिन यानी 29 अगस्त को उन्होने पांचों आरोपियों को पकड़ भी लिया, पोटा अदालत को इस बात भी कोई हैरानी भी नहीं हुई.

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परिस्थितियों को देखने के बाद यह साफ था कि पूरा मामला पहले से तय कहानी के आधार पर चल रहा था. जिन लोगों को 29 अगस्त को गिरफ्तार दिखाया गया उन्हें महीनों पहले से क्राइम ब्रांच ने अवैध हिरासत में रखा था, जिसके बारे में स्थानीय लोगों ने प्रदर्शन भी किया था. जिन लोगों को “गायकवाड़ हवेली” में रखा गया था वे अब भी उसकी याद करके दहशत से घिर जाते हैं. उनको अमानवीय यातनाएं दी गईं, जलील किया गया और झूठे हलफनामें लिखवाए गए. उन झूठे हलफनामों के आधार पर ही उन्हें मामले में आरोपी बनाया गया और मामले को हल कर लेने का दावा किया गया.

किताब में इस बात की विस्तार से चर्चा है कि जिन इकबालिया बयानों के आधार पर 6 लोगों को आरोपी बना कर गिरफ्तार किया गया था, पोटा अदालत में बचाव पक्ष की दलीलों के सामनें वे कहीं नहीं टिक रहे थे. लेकिन फिर भी अगर पोटा अदालत की जज सोनिया गोकाणी ने बचाव पक्ष की दलीलों को अनसुना कर दिया तो उसकी वजह समझने के लिए सिर्फ एक वाकये को जान लेना काफी होगा. “मुफ्ती अब्दुल कय्यूम को लगभग डेढ़ महीने के नाकाबिल-ए-बर्दाश्त शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न के बाद रिमांड खत्म होने के एक दिन पहले 25 सितंबर को पुरानी हाईकोर्ट नवरंगपुरा में पेश किया गया जहां पेशी से पहले इंस्पेक्टर वनार ने उन्हें अपनी आफिस में बुलाया और कहा कि वह जानते हैं कि वह बेकसूर हैं, लेकिन उन्हें परेशान नहीं होना चाहिए, वे उन्हें बचा लेंगे. वनार ने उनसे कहा कि उन्हें किसी अफसर के सामने पेश किया जाएगा जो उनसे कुछ कागजात पर हस्ताक्षर करने को कहेंगे जिस पर उन्हें खामोशी से अमल करना होगा. अगर उन्होने ऐसा करने से इंकार किया या हिचकिचाए तो उन्हें उससे कोई नहीं बचा पाएगा क्योंकि पुलिस वकील जज सरकार अदालत सभी उसके हैं.”

दरअसल सच तो यह था कि बाकी सभी लोगों के साथ ऐसे ही अमानवीय पिटाई और अत्याचार के बाद कबूलनामे लिखवाए गए थे और उनको धमकियां दी गईं कि अगर उन्होने मुंह खोला तो उनका कत्ल कर दिया जाएगा. लेकिन क्राइम ब्रांच की तरफ से पोटा अदालत में इन इकबालिया बयानों के आधार पर जो मामला तैयार किया गया था, अगर अदालत उस पर थोड़ा भी गौर करती या बचाव पक्ष की दलीलों को महत्व देती तो इन इकबालिया बयानों के विरोधाभासों के कारण ही मामला साफ हो जाता, पर शायद मामला सुनने से पहले ही फैसला तय किया जा चुका था. किताब में इन इकबालिया बयानों और उनके बीच विरोधाभासों का सिलसिलेवार जिक्र किया गया है.

इस मामले में हाइकोर्ट का फैसला भी कल्पनाओं से परे था. चांद खान की गिरफ्तारी जम्मू-कश्मीर पुलिस ने अक्षरधाम मामले में की थी, चांद के सामने आने के बाद गुजरात पुलिस के दावे को गहरा धक्का लगा था. जम्मू-कश्मीर पुलिस के अनुसार अक्षरधाम पर हमले का षडयंत्र जम्मू-कश्मीर में रचा गया था जो कि गुजरात पुलिस की पूरी थ्योरी से कहीं मेल नहीं खाता था. लेकिन फिर भी पोटा अदालत ने चांद खान को उसके इकबालिया बयान के आधार पर ही फांसी की सजा सुनाई थी.

लेकिन इस मामले में हाइकोर्ट ने अपने फैसले में लिखा “वे अहमदाबाद, कश्मीर से बरेली होते हुए आए. उन्हें राइफलें, हथगोले, बारूद और दूसरे हथियार दिए गए. आरोपियों ने उनके रुकने, शहर में घुमाने और हमले के स्थान चिन्हित करने में मदद की.”जबकि अदालत ने आरोपियों का जिक्र नहीं किया शायद इसलिए कि आरोपियों के इकबालिया बयानों में भी इस कहानी का कोई जिक्र नहीं था. जबकि पोटा अदालत में इस मामले के जांचकर्ता जीएल सिंघल बयान दे चुके थे कि उनकी जांच के दौरान उन्हें चांद खान की कहीं कोई भूमिका नहीं मिली थी. लेकिन फिर भी हाइकोर्ट ने असंभव-सी लगने वाली इन दोनो कहानियों को जोड़ दिया था और इस आधार पर फैसला भी सुना दिया.

इसी तरह हाइकोर्ट के फैसले में पूर्वाग्रह और तथ्य की अनदेखी साफ नजर आती है जब कोर्ट यह लिखती है कि “27 फरवरी 2002 को गोधरा में ट्रेन को जलाने की घटना के बाद, जिसमें कुछ मुसलमानों ने हिंदू कारसेवकों को जिंदा जला दिया था, गुजरात के हिंदुओं में दहशत फैलाने और गुजरात राज्य के खिलाफ युद्ध छेड़ने की आपराधिक साजिश रची गई.” जबकि गोधरा कांड का मास्टरमाइंड बताकर पकड़े गए मौलाना उमर दोषमुक्त होकर छूट चुके हैं और जस्टिस यूसी बनर्जी कमीशन, जिसे ट्रेन में आग लगने के कारणों की तफ्तीश करनी थी, ने अपनी जांच में पाया था कि आग ट्रेन के अंदर से लगी थी. इसी तरह हाइकोर्ट ने बहुत-सी ऐसी बातें अपने फैसले में अपनी तरफ से जोड़ दीं, जो न तो आरोपियों के इकबालिया बयानों का हिस्सा थी और न ही जांचकर्ताओं ने पाईं और इस तरह पोटा अदालत के फैसले को बरकरार रखते हुए मुफ्ती अब्दुल कय्यूम, आदम अजमेरी और चांद खान को फांसी, सलीम को उम्र कैद, मौलवी अब्दुल्लाह को दस साल और अल्ताफ हुसैन को पांच की सजा सुनाई.

आखिरकार सर्वोच्च न्यायालय ने क्रमवार 9 बिंदुओं पर अपना विचार रखते हुए सभी आरोपियों को बरी किया. सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि इस मामले में जांच के लिए अनुमोदन पोटा के अनुच्छेद 50 के अनुरूप नहीं था. सर्वोच्च न्यायलय ने यह भी कहा कि आरोपियों द्वारा लिए गए इकबालिया बयानों को दर्ज करने में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तय नियमों की अनदेखी की गई. जिन दो उर्दू में लिखे पत्रों को क्राइम ब्रांच ने अहम सबूत के तौर पर पेश किया था उन्हें भी सर्वोच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया. फिदाईन की पोस्टमार्टम रिपोर्ट का हवाला देते हुए अदालत ने कहा “जब फिदाईन के सारे कपड़े खून और मिट्टी से लथपथ हैं और कपड़ों में बुलेट से हुए अनगिनत छेद हैं तब पत्रों का बिना सिकुड़न के धूल-मिट्टी और खून के धब्बों से मुक्त होना अस्वाभाविक और असंभव है.”इस तरह सिर्फ इकबालिया बयानों के आधार पर किसी को आरोपी मानने और सिर्फ एक आरोपी को छोड़कर सभी के अपने बयान से मुकर जाने के संदर्भ को ध्यान में रखते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने सारे आरोपियों को बरी कर दिया.

हालांकि ये सवाल अब भी बाकी है कि अक्षरधाम मंदिर पर हमले का जिम्मेदार कौन है. इसलिए इस किताब के लेखकों ने इन संभावनाओं पर भी चर्चा की है और खुफिया विभाग के आला अधिकारियों के हवाले से वे यह संभावना जताते हैं कि इस हमले की राज्य सरकार को पहले से जानकारी थी. फिदाईन हमलों के जानकार लोगों के अनुभवों का हवाला देते हुए लेखकों ने यह शंका भी जाहिर की है क्या मारे गए दोनो शख्स सचमुच फिदाईन थे? इसके साथ ही इस हमले से मिलने वाले राजनीतिक फायदे और समीकरण की चर्चा भी की गई है.

सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि किताब में कहीं भी कोरी कल्पनाओं का सहारा नहीं लिया गया है. इस पूरे मुकदमें से जुड़े एक-एक तथ्य को बटोरने में लेखकों को लंबा समय लगा है. मौके पर जाकर की गई पड़तालों, मुकदमें में पेश सबूतों, गवाहियों, रिपोर्टों और बयानों की बारीकी से पड़ताल की गई है और इन सारी चीजों की कानून सम्मत दृष्टिकोण से विवेचना की गई है. फरोश मीडिया द्वारा हिन्दी और उर्दू, दोनों ही भाषाओं में छापी गयी यह क़िताब राज्य सरकार की मशीनरी और खुफिया एजेंसियों, अदालतों तथा राजनीतिक महत्वाकांक्षा की साजिशों की एक परत-दर-परत अंतहीन दास्तान है.

तो क्या बिहार चुनाव ओवैसी की ‘नेशनल’ महत्वाकांक्षा का हिस्सा भर था?

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अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net,

बिहार चुनाव में ओवैसी को सीटों के मद्देनज़र सफलता नहीं मिली, मगर ओवैसी का ‘मिशन नेशनल पार्टी’ एक क़दम ज़रूर आगे बढ़ गया है. हालांकि बिहार चुनाव में ओवैसी की पार्टी को 6 सीटों पर कुल 80248 वोट मिलें, जो इन 6 सीटों पर पड़े मतदान का लगभग 8 फीसदी है और पूरे बिहार में पड़े वोटों का सिर्फ़ 0.2% ही है.

चुनाव आयोग की नियमावली के मुताबिक़ वोटों के लिहाज़ से ज़रूरी शर्तों को पूरा करने के साथ ही ओवैसी की पार्टी एक नेशनल पार्टी में तब्दील हो सकती है. इसी मक़सद से ओवैसी ने बिहार चुनाव लड़ा था. सूत्रों की मानें तो आगे आने वाले कुछ चुनाव में भी इसी एजेंडे को ओवैसी की पार्टी आगे बढ़ाएगी. अगर आने वाले वक़्त में ऐसा करने में ओवैसी कामयाब होते हैं तो देश की मुस्लिम राजनीति में ये मील का पत्थर सरीखा बदलाव साबित हो सकता है.

स्पष्ट रहे कि चुनाव आयोग के नियम बताते हैं कि किसी भी राजनीतिक पार्टी के नेशनल पार्टी बनने के लिए उस पार्टी को लोकसभा या विधानसभा के चुनाव में किन्हीं चार या अधिक राज्यों में डाले गए कुल वैध मतदान का 6 फ़ीसदी वोट हासिल हुआ हो. इसके अलावा किसी एक राज्य अथवा अधिक राज्यों से विधानसभा की कम से कम चार सीटें जीतनी ज़रूरी होती है या लोकसभा में कम से कम दो फीसदी सीटें हों और कम से कम तीन राज्यों में प्राप्त की गई हों.

दरअसल, ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (मजलिस) की स्थापना 1927 में ही हो चुकी थी. लेकिन पहली बार 1984 में हैदराबाद लोकसभा सीट से मजलिस चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंची. तब से ये सीट मजलिस के कब्ज़े में ही है. इसके अलावा 2014 के तेलंगाना विधानसभा चुनाव में मजलिस को 7 सीटों पर कामयाबी मिली और साथ ही ‘स्टेट पार्टी’ होने का दर्जा भी. इतना ही नहीं, मजलिस को महाराष्ट्र में भी दो सीटों पर कामयाबी मिली. मजलिस ने यहां 24 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए थे. यहां मजलिस को कुल 5.13 लाख वोट मिलें, बल्कि 12 सीटों पर मजलिस के उम्मीदवारों ने कड़ी टक्कर भी दी थी.


Asaduddin Owaisi campaigning in Aurangabad

बिहार में मजलिस ने अपने 6 उम्मीदवार खड़े किए थे, लेकिन एक भी सीट इसकी झोली में नहीं आ सकी. लेकिन राजनीतिक जानकार बताते हैं कि ओवैसी की मौजूदगी ने बिहार के चुनाव नतीजों का चेहरा ज़रूर बदल कर रख दिया है. जातीय समीकरण को साधने में इस बार महागठबंधन अल्पसंख्यकों को उतनी तरजीह देने के मूड में नहीं था, मगर ओवैसी ने उन्हें ऐसा करने पर मजबूर कर दिया. ओवैसी के जवाब में महागठबंधन को 33 मुसलमानों को टिकट देना पड़ा और उनमें से 23 जीतकर भी आए. ऐसे में बिहार विधानसभा में मुसलमानों के बढ़े हिस्सेदारी के लिए ओवैसी को क्रेडिट देना ग़लत नहीं होगा.

अब मजलिस के निशाने पर पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश जैसे राज्य आ गए हैं. पश्चिम बंगाल में तक़रीबन 25 फीसदी मुसलमान हैं, जो तृणमूल कांग्रेस के पाले में जाते रहे हैं, लेकिन मजलिस इन राज्यों में मुस्लिम वोट बैंक में सेंध लगाना चाहती है और कम से कम कुछ सीटें जीतकर अपने ‘मिशन नेशनल पार्टी’ को भी पूरा कर लेना चाहती है. इतना ही नहीं, मजलिस अपने ‘मिशन-2019’ के लिए एक तरह से इन राज्यों में विधानसभा चुनाव के बहाने एक संगठन भी खड़ा कर रही है ताकि लोकसभा चुनाव में भी अपने कुछ चुनिंदा सीटों पर उम्मीदवार खड़े कर अपने लक्ष्य को पूरा किया जा सके.

हालांकि बिहार चुनाव में ओवैसी की दोनों तरफ़ आलोचना की गई. अन्य सेकुलर पार्टियों ने उन्हें ‘वोट-कटवा’ क़रार दिया तो वहीं धर्म के एजेंडे को आगे रखकर चुनाव लड़ रही पार्टियां ओवैसी को टारगेट कर ध्रुवीकरण का खेल खेलती रहीं. मगर इन सबसे बेपरवाह ओवैसी अपनी रणनीति को अमली-जामा पहनाने में लगे रहे. बल्कि आगे आने वाले कुछ चुनाव इस रणनीत के असली परीक्षा साबित होंगे. तब तक ओवैसी की पार्टी को सीरियसली लेने वाले नेताओं की जमात में और इज़ाफ़ा हो चुका होगा.

अल्पसंख्यक को कभी एहसास ही नहीं हुआ कि मोदी हमारे भी प्रधानमंत्री हैं –अब्दुल बारी सिद्दीक़ी

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बिहार के वित्तमंत्री अब्दुल बारी सिद्दीक़ी से विशेष बातचीत

अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
पटना:बिहार चुनावों के नतीजों के बाद से ही देश में ‘सहिष्णुता’ व ‘असहिष्णुता’ के मामले को लेकर सियासी माहौल गर्म है. राष्ट्रीय जनता दल के जीते विधायक व बिहार के मौजूदा वित्त मंत्री अब्दुल बारी सिद्दीक़ी ने TwoCircles.netसे बात करते हुए इस माहौल को और भी गरमा दिया है.


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उन्होंने विशेष बातचीत में बिहार के नतीजों और मुल्क में अल्पसंख्यकों के हालातों के मद्देनज़र कुछ बेहद ज़रूरी बातें कही हैं, जो भविष्य की राजनीति में मुमकिन बड़े बदलाव की आहट देती हैं.

TwoCircles.netने बिहार के वित्तमंत्री से कई मसलों पर लंबी बातचीत की. हमने यह जानने की कोशिश की कि अल्पसंख्यक आबादी के लिए उनके व उनकी सरकार के पास क्या है? मुसलमानों के विकास की योजना है? मुसलमानों की सियासत में हिस्सेदारी और फारबिसगंज जैसे मसले पर क्या सोचते हैं? यह बातचीत शपथ-ग्रहण समारोह के एक दिन पहले की है.

इस बातचीत में उन्होंने मोदी सरकार पर हमला बोलते हुए कहा, ‘देश के लोगों को यह उम्मीद थी कि मोदी पूरे मुल्क के प्रधानमंत्री होंगे. सबके लिए काम करेंगे. लेकिन प्रधानमंत्री मोदी का जो एक्ट है, उससे देश के अल्पसंख्यक तबके को कभी भी एहसास नहीं हुआ कि वो हमारे भी प्रधानमंत्री हैं.’

वह आगे बताते हैं, ‘उनके दल के लोगों ने भी अल्पसंख्यकों को टारगेट किया. कभी लव-जिहाद का मामला उठाया. कभी यह कहने लगे कि जिन्होंने बीजेपी को वोट दिया है, वो ‘रामजादे’ हैं और जिन्होंने नहीं दिया वो ‘हरामजादे’ हैं. उनके मंत्री लोगों को पाकिस्तान भेजने में लग गए. इससे देश के अल्पसंख्यकों - खासतौर पर मुसलमानों को - यह लगने लगा कि जो संविधान ने उन्हें अधिकार दिए हैं, उन अधिकारों को यह सरकार छिनना चाहती है.’

बातचीत में उन्होंने यह भी कहा कि 1990 से 1995 के दौरान राजद की सरकार में सरकारी नौकरियों में मुसलमानों की हिस्सेदारी बढ़ी थी, लेकिन जब नीतीश कुमार बीजेपी के साथ सत्ता में आए तो इसमें कमी साफ़ तौर पर देखी जा सकती है.

आगे उन्होंने कहा, ‘अब महागठबंधन की सरकार में यह ख़्याल रखना लाज़िम है कि मुसलमान अगर पिछड़ गए हैं तो इसका कारण क्या है? उनको ऊपर उठाने के लिए क्या-क्या किया जा सकता है? बिहार के 89 फीसदी लोग देहातों में रहते हैं, उनके हालात कैसे सुधरे? स्किल डेवलपमेंट की तरफ़ हम कैसे बढ़ें? बुनकर बिरादरी को कैसे सशक्त किया जा सकता है? बेरोज़गारी दूर करने की क्या कोशिशें हो सकती हैं? मुसलमानों के शैक्षिक हालात को कैसे सुधारा जा सकता है? इन सब सवालों की तरफ़ हमारा विशेष ध्यान रहेगा. साथ ही मुसलमानों के जो नेता चुनाव जीतकर आए हैं, मुझे उनसे उम्मीद हैं कि वो अपने लोगों के मामलों व मसलों को सरकार व सदन रखेंगे.’

अब्दुल बारी सिद्दिक़ी 1977 में बहेड़ा विधानसभा क्षेत्र से पहली बार विधायक बने थे. उसके बाद वो 1980, 1985 और 1990 का तीन विधानसभा चुनाव हारे. उनके राजनीतिक करियर को लेकर कई सारी अटकलें लगने लगीं. 1992 में वे एमएलसी चुने गये. 1995 में फिर विधायक बने. इसके बाद लगातार 2000, 2005 और 2010 में विधानसभा का चुनाव जीत चुके हैं. इस बार भी अलीनगर सीट से भाजपा के मिश्रीलाल यादव को 13460 वोटों से पराजित किया है. सिद्दिकी बिहार सरकार में वर्षों तक कई विभागों के मंत्री भी रहे हैं. विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता भी रह चुके हैं. फिलहाल वह मौजूदा सरकार में वित्त विभाग के मंत्री हैं.

इस विशेष बातचीत को आप नीचे क्रमवार देख सकते हैं:

शिकायतों और अनियमितताओं के आईने से प्रधानमंत्री मोदी के आदर्श ग्राम की हक़ीक़त

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समय पूरा होने के बाद भी आधे-अधूरे विकास से जूझ रहा है प्रधानमंत्री का आदर्श गांव जयापुर

सिद्धांत मोहन, TwoCircles.net

जयापुर/वाराणसी:मोदी के गोद लिए गए गांव जयापुर के आदर्श ग्राम बने रहने की सीमा पूरी हो चुकी है. नियमशुदा तरीके से प्रधानमंत्री को अब एक दूसरा गांव गोद लेना होगा और अगले एक साल तक फिर उसे आदर्श ग्राम योजना के तहत विकसित करना होगा. लेकिन प्रधानमंत्री द्वारा गोद लिए जाने के बाद उत्साहित जयापुर की प्रधान दुर्गावती देवी कहती हैं, ‘नहीं! मोदी जी का हमारे देवर से बात होता रहता है. ऊ कहें हैं कि पूरा पांच साल तक हम इस गांव को देखेंगे.’ प्रधान की बात पर भरोसा करें तो साफ़ पता चलता है कि मोदी इस साल जिस गांव को गोद लेंगे उसे चार साल, उसके अगले साल लिए गये गांव को तीन साल, उसके अगले साल लिए गए को दो और फिर यही सिलसिला चलेगा.

बनारस से तीस किलोमीटर दूर स्थित जयापुर गांव में हवाई बातें बेहद तेज़ी से उड़ती हैं. लोग कहते हैं मोदी जी ने यह किया और वह किया. लेकिन दलितों के लिए बनाए गए रिहाईश ‘मोदी जी का अटल नगर’ को छोड़कर कहीं और परफेक्शन नहीं दीखता है.

पूरे गांव में इंटरलॉकिंग ईंटें बिछाई जा रही हैं. ईंटों को कहीं भी एक दूसरे से जोड़ा नहीं गया है. उन्हें बालू पर यूं ही रख दिया गया है. ईंटें कई जगहों पर टूट गयी हैं, खिसक गयी हैं. दुपहिया वाहन चलाने में पहिए सरक जाते हैं, गांव के बीचोंबीच एक जनरल स्टोर पर बैठे लोग कहते हैं, ‘हम लोगों ने ये ईंट बिछाने का बहुत विरोध किया था. लेकिन प्रधान ने सुना नहीं. वे बिछ्वाते गये. अब फिर से पूरा ईंट हटाकर नयी ईंट बिछाई जाएगी.’

नरेंद्र मोदी के आदर्श ग्राम जयापुर में सार्वजनिक बायो-टॉयलेट लगाए गए हैं. बाकी सभी घरो को एक-एक निजी टॉयलेट दिए गए हैं. निजी टायलेट की स्थिति और उनकी सफाई की बात नहीं की जानी चाहिए क्योंकि वे निजी हैं और उनकी सफाई का जिम्मा गृहस्वामी के पास है. लेकिन सार्वजनिक बायो-टॉयलेट की कहानी अजीब है. गांव में कुल आठ बायो-टॉयलेट लगे हैं, जबकि ऐसे आठ बायो-टॉयलेट गांव के किसी मास्टर साहब के अहाते में पिछले कई महीनों से खड़े हैं. गांव में लग चुके बायो-टॉयलेट में से कई में बाहर से ताले बंद हैं. ताले की चाभी किसी जनरल स्टोर पर तो किसी के आँगन में टंगी मिलती है. ऐसे ही एक सार्वजनिक शौचालय के बारे में पूछने पर जनरल स्टोर पर ताश खेल रहे लोग बताते हैं, ‘चाभी हमारे ही पास है. दरअसल गांव में बाहर के लोग आते हैं तो गन्दा कर देते हैं. पानी नहीं डालते. इसीलिए गांव में जिसको भी जाना होता है, वह हमारे यहां से ताली लेकर जाता है.’ जनरल स्टोर के पास ही बंद हो चुका आंगनबाड़ी केंद्र है और चल रहा सिलाई प्रशिक्षण केंद्र है. सिलाई केंद्र की लड़कियां पहले तो बंद शौचालयों के बारे में कोई जानकारी नहीं होने का बहाना करती हैं, फिर बाद में गांव के किसी और हिस्से में मिलने पर बताती हैं कि लोगों ने सार्वजनिक शौचालय को भी अपना निजी बना लिया है, इसीलिए हमेशा ताला बंद रहता है.


Toilet

ताला बंद शौचालय(लाल घेरे में)

एक छोटी बच्ची रिया सिंह मिलती हैं. रिया सिंह की समस्या बेहद गंभीर है. रिया का कहना है मोदी जी के दौरे की वजह से उनका स्कूल बंद हो गया. अब उन्हें पढ़ाई करने दूर जाना पड़ता है. लगभग 5 किलोमीटर रोज़. रिया सिंह की मोदी जी से फ़रियाद है कि उनके गांव में एक स्कूल खुलवा दिया जाए. लेकिन मज़े की बात है कि एक राजकीय आदर्श कन्या विद्यालय खोल दिया गया है. इस विद्यालय के सभी कमरों में ताला बंद है, अभी कक्षाएं नहीं चल रही हैं. हालांकि हरसिमरत कौर बादल ने ज़रूर इस विद्यालय का उद्घाटन कर दिया है. मोदी के आदर्श गांव जयापुर से 5 किलोमीटर की दूर स्थित जक्खिनी गांव में एक मॉडल स्कूल तैयार किया गया है. यह स्कूल भी अभी बंद है. स्कूल के निर्माण के वक़्त प्रमुख सचिव से लगायत नगर प्रशासन रोज़ दौरे करता था कि जल्द से जल्द स्कूल का निर्माण पूरा हो जाए. खबर है कि आने वाले शैक्षणिक सत्र में इस स्कूल में कक्षाएं चलाई जा सकती हैं.


School

आदर्श कन्या विद्यालय

अब आता है इस खबर का सबसे रोचक पक्ष - जयापुर की बस. जयापुर में उत्तर प्रदेश के राज्यपाल राम नाईक और गुजरात के सांसद सीआर पाटिल कुछ महीनों पहले आए थे. उनके साथ मीडिया भी जुटा था और प्रशासन भी. यह एक बड़ा मौक़ा था. मौक़ा इसलिए कि जयापुर गांव के मुख्यद्वार पर बने नए-नवेले बस स्टैंड से महिलाओं के लिए बस चलने वाली थी, और बड़ा इसलिए कि इसके लिए गांव की ही दो लड़कियों को जिम्मेदारी दी गयी थी. जिम्मेदारी बस चलाने की और पैसे कमाने की. इसे महिला सशक्तिकरण और सुविधार्जन की दृष्टि से बड़ा कदम माना जा रहा था. बनारस के मोदी विरोधी इसमें कोई ख़ास मसाला ढूंढने में असफल रहे. लेकिन रोचक बात यह है कि जयापुर की यह बस एक दिन भी नहीं चली.


Driver

बस चालिका ज्योति मिश्रा अपनी मां के साथ

हमने बस की चालाक के तौर पर नियुक्त की गयी ज्योति मिश्रा से मुलाक़ात की. ज्योति का कहना है, ‘शुरुआत में 10-15 दिन तक बोले कि ट्रेनिंग देंगे, चलाना सिखाएंगे. लेकिन कुछ नहीं हुआ.’ बस वापस चली गयी. बकौल ज्योति, उनसे किसी किस्म के मेहनताने की बात नहीं की गई थी. उन्हें कहा गया था कि जो चालकों से पैसा मिलेगा, उसी से पेट्रोल का खर्च निकालना है, बस का मेंटेनेस करना है और जो बचे, उसे खुद के लिए रखना है. यह सोचने की बात है कि महज़ तीन हज़ार की आबादी वाले जयापुर गांव में ज्योति कितने पैसे बना पातीं या कितने बचा पातीं? बस को बनारस के उद्योगपति दीनदयाल जालान के प्रतिष्ठान ने दिया था, जिसे अब वापिस ले लिया गया है. यानी कुल मिलाकर यह बस चलने से ज्यादा खड़ी है. अब ज्योति वापिस अपनी पढ़ाई में जुट गयी हैं.

बस स्टैण्ड अब जमाखोरी का अड्डा है. इस बस स्टैंड पर हर सोमवार को निःशुल्क दवा वितरण का कैम्प लगाया जाता है.


Bus Stand

बस स्टैंड, जहां निःशुल्क दवा वितरण किया जा रहा है

गांव में बिजली महज़ आठ घंटे मिलती है. पानी की समस्या और भी ज्यादा विकट है. गांववाले बताते हैं कि लोगों को पानी की सप्लाई देने के लिए महज़ दो इंच का पाइप लगाया गया है, जिसकी वजह से आधे से भी ज्यादा घरों में पानी नहीं पहुंच पाता है. सभी को सरकारी हैंडपंप या अन्य साधनों के भरोसे रहना पड़ता है. दलितों के लिए बसाया गया ‘अटल नगर’ परफेक्ट है. यहां रहे रहे परिवारों को कोई समस्या नहीं है. सोलर लाईटें लगी हैं, जो अँधेरा होने पर खुद-ब-खुद जल जाती हैं. बाग़ हैं, बगीचे हैं...पेड़ों में पानी भरते हुए लोग और बच्चे हमेशा दिख जाते हैं. एलपीजी गैस का कनेक्शन नहीं है, तो रसोईघर काला होने के डर से सभी परिवार पीछे की दो झोपड़ियों में लकड़ी पर खाना बनाते हैं. थोड़ा कुरेदने पर पता चलता है कि यहां भी पानी की समस्या विकट है. पानी नहीं मिलता, मिलता है तो ज़रुरत से बेहद कम मिलता है.

नरेंद्र मोदी के आदर्श ग्राम जयापुर में ग्राम प्रधान का चुनाव होने वाला है. यहां तीन प्रत्याशी खड़े हैं तो तीनों भाजपा और नरेंद्र मोदी के नाम पर वोट मांग रहे हैं. ‘सबका साथ-सबका विकास’ के नारे भी पोस्टरों पर दिख रहे हैं. लेकिन गांव वाले बताते हैं कि यहां सबका साथ तो नहीं हो रहा है, लेकिन कुछ को छोड़कर बाकी सबका विकास हो रहा है. जयापुर में जातियों का खेल जबरदस्त है. भूमिहार और ब्राह्मण यह आरोप लगाते हैं कि इस गांव के बहुसंख्यक यानी प्रधान विकास के कार्यों में, बीज बंटवारे में और दूसरे ज़रूरी कामों में गैर-बराबरी करते हैं. पटेलों में ही सारा बीज और धान ख़त्म हो जाता है. सारी सोलर लाइटें और सारी मशीनरी प्रधान के घर में ही रखी रहती हैं. लोगों का कहना है कि वहीं से उनमें फेरबदल करके उन्हें लगा दिया जाता है.

वर्तमान प्रधान दुर्गावती देवी हैं, लेकिन मीडिया और प्रशासन से बात करने उनके देवर नारायण पटेल ‘प्रधान-प्रतिनिधि’ के रूप में हमेशा सामने आते हैं. शायद इसी कुव्वत के दम पर नारायण पटेल इस बार का चुनाव लड़ रहे हैं. महिला सशक्तिकरण की यह नई परिभाषा है कि जहां एक तरफ गांव में महिलाओं को बस चलाने की ट्रेनिंग देने की कवायद हो रही है, वहीँ दूसरी ओर महिला ग्राम प्रधान बेहद मुश्किल से सामने दिखती हैं.


Pradhans Home

प्रधान का घर

गांव के हरेक घर के बाहर भाजपा के कम और विश्व हिन्दू परिषद्-राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के झंडे ज़्यादा लगे हुए हैं. सारे घरों की तस्वीर तो नहीं दिखा सकते, लेकिन उदाहरण के लिए जयापुर की वर्तमान प्रधान के घर की तस्वीर संलग्न है. पिछली मुलाक़ात में हमने जब पूछा कि क्या प्रधान से बात नहीं हो सकती है? तो नारायण पटेल ने कहा कि जो भी बात हो आप हमसे कर सकते हैं. लिख दीजियेगा कि प्रधान से बात हुई और प्रधान-प्रतिनिधि के तौर पर हमारा नाम जोड़ दीजियेगा. नारायण पटेल किसी टेप-रिकॉर्डर की तरह बताने लगते हैं कि, ‘गाँव में तीन बैंक हैं, सोलर लाईट लग रही है, एक बैंक और खुलने वाला है, आठ बायोटॉयलेट हैं, आठ और लगने हैं, आराम कुर्सियां लग रही हैं, डाक विभाग ने एक बस स्टैण्ड भी बनवाया है.’


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प्रधान-प्रतिनिधि नारायण पटेल

प्रधान से ताजा मुलाक़ात में प्रधान-प्रतिनिधि नहीं हैं. दबाव डालने पर सकपकाई निगाह से दुर्गावती देवी को बुलाया जाता है. गैर-बराबरी के सवाल पर वे अचकचाते हुए कहती हैं, ‘देखिए, चुनाव का समय है. जिसको जो कहना है, कहेगा.’ बीज और खाद वितरण के प्रश्न पर वह वस्तुस्थिति से पूरी तरह से अनभिज्ञ हैं. उन्हें आसपास बैठे लोगों से पूछना पड़ता है, जिसका स्पष्ट जवाब उन्हें नहीं मिल पाता.


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वर्तमान प्रधान दुर्गावती देवी

गांव में पानी की समस्या पर वे कहती हैं कि लोग प्रधान चुनाव के कारण ऐसा कह रहे हैं. सोलर प्लांट लग जाने के बावजूद सप्लाई नहीं शुरू हुई, इसके जवाब में वे कहती हैं कि चुनाव के बाद सप्लाई शुरू होगी. चलाई गयी बस चलने के बजाय खड़ी रही, इसके जवाब में वे कहती हैं कि यह सब गांव के ठाकुर-भूमिहार का खेल है. ईंटों के लिए भी उनके पास बहाना है. कुल मिलाकर जयापुर के ग्राम प्रधान के पास किसी भी किस्म की कोई ज़िम्मेदारी नहीं है.

जाति का खेल, प्रधान पर आरोप

जयापुर गांव में एक आर्मी के रिटायर्ड सिपाही रहते हैं, नाम है रवीन्द्र प्रताप सिंह. एक बार जयापुर गांव में प्रमुख सचिव नृपेन्द्र मिश्र वाराणसी के जिलाधिकारी प्रांजल यादव और अन्य अधिकारी विकास कार्यों का जायज़ा लेने आए हुए थे. गांव में मंच बनाकर सभी को अपनी बात कहने का मौक़ा दिया गया. भूमिहार जाति से ताल्लुक रखने वाले रवीन्द्र प्रताप सिंह ने बीच सभा में खड़े होकर चिल्लाना शुरू कर दिया कि इस गांव में जाति का खेल हो रहा है. सिर्फ़ पटेल जाति के लोगों का सारा काम किया जा रहा है और बाकी भूमिहारों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है. इतना कहते ही सभा में हड़कंप मच गया. लोग रवीन्द्र प्रताप सिंह को जबरन बिठाने लगे, लेकिन अपनी ज़िद पर अड़े रवीन्द्र प्रताप सिंह ने अपनी बात रख ही दी. इन्डियन एक्सप्रेस ने इस खबर को उठाया लेकिन फिर भी मीडिया का ध्यान इस ओर नहीं गया.


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बस की संचालिकाओं के साथ राज्यपाल राम नाईक(साभार - डीएनए)

पहले रवींद्र का नाम लेते ही लोग यह कहने लगे कि वह आर्मी के रिटायर्ड सैनिक हैं, इसलिए पागल हो चुके हैं. उनसे बात करके कोई फायदा नहीं होगा. लेकिन रवीन्द्र प्रताप सिंह आर्मी से सेवानिवृत्ति के बाद जयापुर के बैंक में बतौर क्लर्क नौकरी कर रहे हैं. गांव के विकास के बारे में पूछने पर रवीन्द्र प्रताप सिंह बताते हैं कि सबकुछ हो रहा है, अच्छा है कि प्रधानमंत्री ने गाँव को गोद ले लिया है, इससे कुछ सुविधा मिलेगी. लेकिन उनकी शिकायत को लेकर बात करने पर वे कहते हैं, ‘मेरा कहना सिर्फ इतना है कि गाँव के विकास का काम यदि हो रहा है तो वह सही तरीके और ब्लॉकवार तरीके से हो. एक के बाद एक ब्लॉक का विकास किया जाए. लेकिन यहां जाति के नाम पर खेल चल रहा है. चूंकि प्रधान पटेल हैं, इसलिए पटेलों की तरफ ही सोलर लाईट लग रही है और शौचालय बन रहे हैं. बाकी भूमिहारों और अन्य जातियों की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है.’ रवीन्द्र सिंह कहते हैं, ‘उस दिन मुख्य सचिव की बैठक में बोलने का मुझे यह खामियाजा भुगतना पड़ रहा है कि अब गाँव में मुझसे कोई बात नहीं कर रहा है. लोग कहते हैं कि मैनें गांव की बेइज़्ज़ती कराई है.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की आड़ में जयापुर

जिस समय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी गाँव को गोद लेने की प्रक्रिया की औपचारिकता को अंजाम देने वाराणसी आए थे, उस समय यह बात उड़ते-उड़ते आई कि जयापुर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक गढ़ है इसीलिए नरेन्द्र मोदी ने इस गाँव का चुनाव किया. टीवी चैनल जयापुर पहुंच गए और वहां से एक और शिगूफ़ा सामने आया.... ‘जयापुर के लोगों ने सबसे पहले मुस्लिम शासकों और अंग्रेजों को मारकर भगाया था.’ प्रधानमंत्री समेत भाजपा से जुड़े किसी भी व्यक्ति ने इस पर कोई भी स्पष्टीकरण देना या उसे सत्यापित करने का बीड़ा नहीं उठाया. प्रधानमंत्री ने मंच से कहा था कि जब वे पहली बार बनारस आए तो उन्हें किसी ने बस यूं ही जयापुर का नाम बताया और तब उन्होंने ही निर्णय कर लिया कि वे इसी गाँव को गोद लेंगे. लेकिन जयापुर की हकीकत किसी दूसरी ओर ही इशारा करती है.

बनारस शहर से लगभग 40 किलोमीटर की दूरी पर बसा जयापुर आराजी लाइन के अंदर आता है. सड़कें कुछ ख़ास अच्छी हालत में नहीं हैं, पहुंचने में एक घण्टे से ऊपर का ही वक्त लगता है. प्रधानमंत्री हेलीकॉप्टर से गए थे, न कि सड़क से. 2011 की जनगणना के हिसाब से जयापुर की आबादी 3205 होनी चाहिए लेकिन प्रधान और लोकल लोगों की मानें तो गाँव की आबादी 4200 के आसपास है.

जयापुर जाते वक्त पास के सिंगही गांव के सनाउल्ला बीच रास्ते में साइकिल पर मिलते हैं और बड़े इत्मीनान से कहते हैं कि यदि आप मुस्लिमों को खोज रहे हैं तो जयापुर मत जाइयेगा. सनाउल्ला झूठ नहीं कहते हैं. यह रोचक तथ्य है कि जयापुर गाँव में सभी के सभी हिन्दू हैं. इस गाँव में आपको भूल से भी एक मुस्लिम मिल जाए, तो समझ जाइए कि आप से ही कोई गलती हुई है क्योंकि इस गाँव में एक भी मुस्लिम या ईसाई या कोई भी अल्पसंख्यक नहीं मौजूद है. पास ही सटे गाँव जक्खिनी में मुस्लिम रहते हैं, पास के दूसरे गाँव सिंगही में भी मुस्लिमों की बस्ती है.

बातचीत में अल्पसंख्यक फैक्टर लाने की कोई ज़रूरत ही नहीं पड़ती, यदि हमने जयापुर गांव के बाशिंदों से कोई बातचीत न की होती. सीधे प्रधानमंत्री का नाम जुड़ा होने की वजह से जयापुर की खबरें रिपोर्ट करने की अपनी दिक्क़तें हैं. यहां का लगभग हरेक बाशिंदा किसी भी तरीके की बात करने से पहले हमेशा यही चाहता है कि तैयार खबर में उसका नाम न आए, फ़िर भी हमने पूरी कोशिश की है कि सभी आयामों पर बात करते वक्त सही शख्स का उल्लेख किया जाए.

जयापुर में मुस्लिम आबादी की बात उठाने पर बूढ़े-नौजवान एक ही बात रटते रहते हैं कि उनके पुरखों ने यहां से सभी मुसलमानों को मारकर भगा दिया और तब से लेकर आज तक गांव में मुस्लिमों का नामो-निशां नहीं है. गांव के बुजुर्ग रामअवतार मिश्रा कहते हैं, ‘घूम लीजिए पूरे गांव में, कोई मुस्लिम मिले तो बताईयेगा. भगा दिया हमने सब मुसलमानों को. हिन्दू अब और नहीं सहेगा. अब तो हम सीधे मोदी जी के आशीर्वाद के तले हैं, अब कोई डर नहीं है.’बहुत बार पूछने पर गांव के नौजवान अजीत सिंह कहते हैं, ‘हम लोगों का संकल्प है कि इसे ऐसा आदर्श ग्राम बनाएं ताकि हिन्दू समाज सबक ले सके.’यह कोरे दावे नहीं हैं. जयापुर की कुल आबादी का 65-70 प्रतिशत हिस्सा पटेल जाति के लोगों का है. उसके बाद भूमिहार, ब्राह्मण, लाला, भर, लोहार, तेली और मुसहर जाति के लोग आते हैं. गांव में हरिजन भी इक्का-दुक्का ही हैं. इसके अलावा गांव के अधिकतर लोगों से पूछने पर यह बात पता चलती है कि गांव का लगभग हरेक बाशिंदा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सदस्य है.

रोजाना गांव में संघ की शाखा लगाने वाले ग्राम प्रचारक अरविंद भी इस बारे में बताते हैं, ‘गाँव के लगभग 100 लोग वार्षिक दीक्षा लेने वाले संघ सदस्य हैं. लेकिन अक्सर सुबह शाखा में उपस्थित रहने वाले, ध्वज प्रणाम करने वाले और पथ-संचलन और रैलियों में हिस्सा लेने वाले लोगों को भी गिनें तो गांव का एक भी घर ऐसा नहीं होगा जहां संघ के सदस्य न हों.’गांव में बिना किसी क्रम के पूछताछ करने पर पता चलता है कि आदर्श ग्राम लिए जाने के पहले तक लगभग गाँव की आधी आबादी संघ से जुड़ी हुई थी, लेकिन अब प्रधानमंत्री द्वारा गोद लिए जाने के बाद लगभग हरेक पुरुष संघ का सदस्य है.
गांव साफ़ दिखता है, ‘प्रधान-प्रतिनिधि’ बताते हैं कि आदर्श ग्राम बनने के बाद से लोगों ने साफ़-सफ़ाई करना शुरू किया. पहले ऐसी कोई जागरूकता नहीं थी. अब सभी को नियमित रूप से हफ़्ते में एक दिन अपने घर के सामने सफाई करनी होती है. जयापुर के संघ के जुड़ाव के बारे में पूछने पर नारायण पटेल पहले जवाब देने से बचते हैं. फ़िर बहुत कुरेदने पर कहते हैं कि यह तो आस्था का सवाल है.

नारायण पटेल की बात सही भी है. यह बात बहुत कम लोगों को मालूम होगी कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का न तो कोई बैंक खाता है, न कोई लेटर-हेड, न कोई पंजीकरण का प्रमाण और न ही कोई कागज़, जिसकी बिना पर किसी भी तरह से सच और झूठ की स्क्रूटनी हो सके. इसी कारण से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के भीतर नाथूराम गोडसे को लेकर ही विरोधाभास है. संघ का एक हिस्सा कहता है कि नाथूराम गोडसे संघ का सदस्य नहीं था और दूसरा ज़्यादा मुखर हिस्सा कहता है कि नाथूराम गोडसे संघ का सदस्य था जिसने गांधी को मारकर देश की रक्षा की, नहीं तो देश कब का बिक गया होता. एक और अज्ञानी हिस्सा यह भी कहता पाया जाता है कि नाथूराम ने महात्मा गांधी की हत्या नहीं की थी.

जयापुर में ज़ाहिर तौर पर काम हुई हैं. तीन राष्ट्रीय बैंक हैं, एटीएम लगे हुए हैं. कई बड़ी चारपहिया गाड़ियां अक्सर दिख जाती हैं. अधिकतर घरों के पुरुष नहीं दिखते, क्योंकि वे काम करने खेतों में गए हुए होते हैं. लेकिन इस गांव की मियाद अब पूरी हो चुकी है, यह भी कहें कि इस मियाद के साथ अपेक्षित मुराद बेहद शिकायतों, उलझनों और अनियमितताओं से भरी हुई है. यदि प्रधानमंत्री द्वारा गोद लिया गांव इस स्थिति में है, तो अगले चार साल तक सभी सांसदों द्वारा लिए गए गांव किस स्थिति में जाएंगे, यह सोचने की बात है.

गांव सुधारने निकले एक शख्स की अनोखी कहानी

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अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

कासगंज(उ.प्र.)यह बात कई खबरों का हिस्सा है और कई बार लिखी भी जाती रही है कि लोग कमाने के लिए गांवों से शहर का रुख कर रहे हैं. गांवों में रूककर या गांवों की ओर लौटकर कोई भी इस देश के गांवों का विकास नहीं करना चाहता. यह गांवों और शहरों के अंतर्संबंध का एक भदेस और पिटा हुए ब्यौरा है, जिसके संगत में उदाहरण या अपवाद नहीं मिलते हैं.


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लेकिन एक शख्स है जो इन बातों और नियमों को धता बताते हुए सायास ही सारी पढ़ाई के बाद अपने गांव लौट आया है. यदि वह गांव नहीं लौटता तो शायद आज कहीं एक बड़ा जज होता, एक बड़ी कोठी में रह रहा होता. नाम है - अब्दुल हफीज़ गांधी.

कभी लॉ के प्रोफ़ेसर थे अब ज़िला पंचायत सदस्य हैं. अब्दुल हफ़ीज़ गांधी की यह कहानी देश के उन नौजवानों के लिए किसी आदर्श से कम नहीं है, जो राजनीति के ज़रिए समाज व देश में बदलाव लाना चाहते हैं.


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अब्दुल हफ़ीज़ गांधी के दिल में शुरू से ही तमन्ना राजनीति में नया मक़ाम बनाने की थी. मगर पैसे व रसूख की इस आंधी में वे टिक नहीं पा रहे थे. फिर सियासत का ख्याल दिल में दबाकर छात्रों को क़ानून पढ़ाने में जुट गए. एमिटी व जामिया के छात्रों के चहेते लॉ शिक्षक इस करियर के साथ-साथ अपने जड़ व ज़मीन से भी जुड़े रहे.


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गांव के लोगों के बीच लंबे समय तक काम करने का उन्हें सिला मिला. जैसे ही अब्दुल हफ़ीज़ गांधी ने ज़िला पंचायत का चुनाव लड़ने का ऐलान किया, लोगों ने उन्हें हाथों-हाथ लिया. और सत्ता, पैसे और रसूख के इस चक्रव्यूह को तोड़ते हुए इस नए ‘गांधी’ ने लोगों की मुहब्बत और भरोसे के दम पर अपना सियासी मक़ाम पा लिया. उनकी तमन्ना सियासत की इस ज़मीन से होकर राष्ट्रीय राजनीति में अपनी सशक्त पहचान बनाने की है, वह पहचान जो ग़रीबों व मज़लूमों के काम आ सके.


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अब्दुल हफ़ीज़ गांधी का जन्म यूपी के कासगंज जिले के पटियाली शहर से लगभग 7 कि.मी. दूर मऊ गांव में हुआ है. यह पटियाली वही शहर है, जहां कभी हज़रत अमीर खुसरू का जन्म हुआ था. 35 साल के अब्दुल हफ़ीज़ गांधी ने 12वीं तक की पढ़ाई दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लमिया से की. फिर क़ानून की पढ़ाई के लिए अलीगढ़ चले गए. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से बीए. एलएलबी और एलएलएम की पढ़ाई की. साल 2005 में वह अलीगढ़ स्टूडेन्ट यूनियन के प्रेसिडेंट भी रहें. यहीं से उनके राजनीतिक करियर की शुरूआत हुई और युवा कांग्रेस में राष्ट्रीय सचिव के पद पर आसीन हुए.

इस बीच उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी. दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी से एमफिल की पढ़ाई की और फिलहाल जेएनयू के स्कूल ऑफ लॉ एंड गवर्नेंस से सूचना के अधिकार क़ानून पर पीएचडी कर रहे हैं. इस बीच उन्होंने एमिटी व दिल्ली के जामिया में पढ़ाना शुरू किया. साथ ही समाज में जागरूकता फैलाने के मक़सद से देश के अलग-अलग हिस्सों के कॉलेजों, यूनिवर्सिटियों व गांवों में क़ानूनी विषयों पर कई वर्कशॉप करते रहे.

क़ानून के छात्रों को पढ़ाने के साथ वह ज़मीन से भी जुड़े रहे और यूपी के कासगंज ज़िले में बतौर ज़िला पंचायत चुनाव में रिकार्ड वोटों से जीत दर्ज की. उन्होंने इस चुनाव में बतौर निर्दलीय प्रत्याशी 46 फ़ीसद वोट हासिल करके अपने प्रतिद्वंदी को 4605 वोटों से मात दिया. स्पष्ट रहे कि कासगंज ज़िले के 23 वार्डों में चुनाव जीतने वाले यह अकेले मुसलमान हैं.

हफ़ीज़ गांधी TwoCircles.netसे बातचीत में बताते हैं, ‘सियासत से बड़े और छोटे दोनों स्तरों पर आम लोगों को फ़ायदा पहुंचाया जा सकता है. लेकिन अगर समाज में सुधार लाना है तो वो निचले स्तर से ही लाया जा सकता है. इसलिए पढ़े-लिखे लोगों का राजनीति में आगे आना ज़रूरी है.’

शायद यही सोच लेकर हफ़ीज़ गांधी ने यूनिवर्सिटी के क्लास-रूम से बाहर निकलकर उस ग्रामीण इलाक़े में काम करने की सोची, जहां आज भी विकास नहीं पहुंचा है. जहां शिक्षा की बदहाली है. उनका मानना है कि क्लासेज़ से अधिक ग्रामीण स्तर पर लोगों को अपने अधिकार व क़ानून से रूबरू कराना ज़रूरी है. जागरूकता की सबसे अधिक ज़रूरत यहीं है.

अब्दुल कहते हैं, ‘भारत एक युवा देश है. इस युवाशक्ति को एक दिशा देनी होगी. उन्हें राजनीति में भी आने के लिए प्रेरित करना होगा. क्योंकि युवा कम करप्ट होता है और पुरानी रिवायतों को बदलना चाहता है. एक पढ़ा-लिखा लीडर अपनी शिक्षा का सही उपयोग ग्रामीण व निचले स्तर पर कर सकता है, जहां लोग सरकारी योजनाओं से अनभिज्ञ हैं.’

उनका मानना है कि राजनीति सपने तो दिखाती है, लेकिन इनको हक़ीक़त में तब्दील करने के लिए युवाओं की भागीदारी राजनीति में भी सुनिश्चित करनी होगी और राजनीतिक दलों को इस बारे में सोचना होगा.

मुसलमानों के पिछड़ेपन के सवाल पर वह बताते हैं, ‘बड़ा दुख होता है कि मुसलमानों में पढ़ाई का रूझान कम दिखता है. फोन पर किसी को मोबाइल नंबर लिखाना हो तो पांच मिनट लग जाते हैं. यही हमारी क़ौम की तालीमी पसमांदगी का आईना है. हालांकि अब मुसलमानों में शिक्षा के प्रति रूझान में काफ़ी इज़ाफ़ा हुआ है.’

वह देश के मुस्लिम युवाओं को यह भी संदेश देना चाहते हैं कि मुसलमान शिक्षा को सिर्फ़ सरकारी नौकरियों से जोड़कर न देखें. नौकरी मिले या न मिले, दोनों ही परिस्थितियों में शिक्षा बेहद ज़रूरी है, क्योंकि तालिम से ही मौजूदा और आगे आने वाली पीढ़ियों की पसमांदगी दूर होगी.

हफ़ीज़ गांधी ने जो सोचा वह किया और अपने सपनों की दिशा में एक क़दम आगे ज़रूर बढ़ा दिया है. वो कहते हैं, ‘अभी तो यह शुरूआत है. आगे काफ़ी लंबा रास्ता तय करना है. मेरी ख्वाहिश है कि मैं अपने बदहाल पटियाली शहर में ‘हज़रत अमीर खुसरो–संत तुलसीदास यूनिवर्सिटी’ क़ायम करूं जहां इस देश के युवा धर्म व जाति से ऊपर उठकर तालीम हासिल करें और देश व समाज के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दें.’

मुसलमान युवकों को अब्दुल हफ़ीज़ गांधी से सबक़ लेना चाहिए. तालीम के अंधेरों में डूबी इस क़ौम के लिए ‘गांधी’ जैसे लोग एक नई रौशनी की तरह हैं. खासतौर पर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के उन युवाओं को सीखने की ज़रूरत है, जो अपने समाज व क़ौम के लिए कुछ करना चाहते हैं, लेकिन उनकी सारी ‘क्रांति’ चाय की दुकानों तक ही सिमट कर रह जाती है या जो बौद्धिक लफ़्फ़ाज़ी में ही सारा वक़्त ज़ाया कर देते हैं.

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मो. आमिर के लिए दिल्ली सरकार को नोटिस

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By TwoCircles.net Staff Reporter

दिल्ली:राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने दिल्ली सरकार को कारण बताओ नोटिस जारी करके पूछा है कि आतंकवाद के आरोपों से बरी हुए मो. आमिर को मुवाअज़ा क्यों न दिया जाए?

पुरानी दिल्ली के मो. आमिर को 27 फ़रवरी 1998 को गिरफ़्तार किया गया था और आतंकवाद के आरोप लगाकर उन्हें जेल में डाल दिया गया था. आमिर ग़िरफ़्तारी के वक़्त 18 साल के थे और 14 साल बाद जब वो जेल से रिहा हुए तो उनकी लगभग आधी उम्र बीत चुकी है. दिल्ली हाईकोर्ट समेत कई अदालतों ने उन्हें आतंकवाद के आरोपों से बरी किया है और इस समय मो. आमिर आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई में एक जुझारू मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं.

गिरफ़्तारी के बाद आमिर देश की विभिन्न जेलों में रहे. आमिर को ज़्यादातर वक़्त दिल्ली के तिहाड़ जेल में हाई सिक्योरिटी सेल में रखा गया. उन्हें पता ही नहीं था कि इस दौरान उनके पिता की मौत हो गई, आमिर की मां को ब्रेन स्ट्रोक के बाद लकवा मार गया, जिसके बाद उन्होंने बोलने की शक्ति खो दी और पिछले दिनों वो भी चल बसीं. करियर को लेकर आमिर के जो ख्वाब थे, उनके पूरा होने का कोई सवाल ही नहीं.

दिल्ली सरकार को जारी नोटिस में अपने एक टिप्पणी में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने कहा है कि सरकार की ज़िम्मेदारी है कि वह सभी नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करे. ऐसे में जब आमिर की पूरी ज़िन्दगी जेल जाने की वजह से पटरी से उतर गई हो, सरकार को उनके मदद के लिए आगे ज़रूर आना चाहिए.

नोटिस में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने दिल्ली सरकार से पूछा है कि बेगुनाह आमिर को गलत तरीक़े से गिरफ्तार करके 14 साल जेल में रखने के एवज़ में 5 लाख का मुआवज़ा क्यों न दिया जाए. दिल्ली सरकार के मुख्य सचिव के पास इस नोटिस का जवाब देने के लिए 6 हफ्ते हैं.

आमिर के इस मामले को आम आदमी पार्टी से जुड़े ओखला के विधायक मो. अमानतुल्लाह खान ने विधानसभा में भी उठाया था और दिल्ली सरकार से मुवाअज़ा के साथ-साथ सरकारी नौकरी देने की भी मांग की थी.

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा भेजे गए नोटिस पर TwoCircles.net से बातचीत करते हुए अमानतुल्लाह खान कहते हैं, ‘जिस आमिर की पूरी ज़िन्दगी दिल्ली पुलिस ने ख़त्म कर दी हो. जिसका पूरा घर बर्बाद हो गया हो, क्या उसकी भरपाई 5 लाख के मुआवज़े से हो सकती है?’

अमान्तुल्लाह आगे कहते हैं, ‘दिल्ली सरकार को मुवाअजे के साथ-साथ सरकारी नौकरी भी देनी चाहिए. मैं इस मामले में आमिर के साथ हूं और हक़ के लिए लड़ता रहूंगा.’

वहीं TwoCircles.net से बातचीत में मो. आमिर कहते हैं, ‘अपने पिता के साथ-साथ मैंने ज़िन्दगी के जो 14 साल खोए हैं, उसे कोई पैसा वापस नहीं दिला सकता है. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने जिस रक़म की बात की है, वो काफी कम है. ग़नीमत है कि कम से कम उन्होंने दिल्ली सरकार को नोटिस भेजकर याद तो दिलाया.’

आमिर फिलहाल बेरोज़गार है और अब खुद के रोज़गार से अपनी बेपटरी ज़िन्दगी को फिर से पटरी पर लाने की कोशिश में जुटे हुए हैं. वह कहते हैं, 'मुझे पूरी उम्मीद है कि आम आदमी पार्टी की सरकार मुझ जैसे लोगों के लिए सकारात्मक क़दम उठाएगी. सिर्फ़ मुवाअज़ा ही नहीं, बल्कि रोज़गार के कुछ अवसर भी उपलब्ध कराएगी.’

स्पष्ट रहे कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने मार्च 2014 के मीडिया रिपोर्टों के आधार पर आमिर के मामले का स्वतः संज्ञान लिया था. हालांकि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इससे पूर्व भी मार्च 2014 में ही केंद्रीय गृह मंत्रालय और दिल्ली पुलिस को नोटिस भेजकर चार हफ्तों में जवाब मांगा था.

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क्यों गुजरात के निकाय चुनावों में भाजपा को हार का सामना करना पड़ा?

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By सावजराज सिंह,

नरेंद्र मोदी के गुजरात से दिल्ली जाने के बाद गुजरात में यह पहला चुनाव था. और 3 दिसम्बर को आये चुनाव नतीजों के मुताबिक भाजपा को शिकस्त मिली है. जहां शहरी क्षेत्रों में भाजपा विजयी हुई है, वहीँ ग्रामीण क्षेत्रों में भाजपा की करारी हार हुई है. सभी 6 महानगरपालिकाओं में भाजपा की जीत हुई है पर कांग्रेस के वोट प्रतिशत और बैठकों में निश्चित तौर पर बढ़ोतरी हुई है. अहमदाबाद, सूरत, बड़ौदा, भावनगर और जामनगर महानगरपालिकाओं में भाजपा को स्पष्ट बहुमत मिला है लेकिन राजकोट महानगरपालिका बचा पाने में भाजपा को काफ़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ा है.


congress-gujarat

ग्रामीण क्षेत्रों में 31 जिला पंचायतों में से 23 पर कांग्रेस ने कब्जा करते हुए बड़ी जीत हासिल की है और लेकिन भाजपा को सिर्फ 6 पर जीत मिली है. कुल मिलाकर 988 जिला पंचायत बैठकों में कांग्रेस को 472 और भाजपा को 244 बैठकें प्राप्त हुई है जबकि 2010 के निकाय चुनावों में स्थिति बिल्कुल इससे उलट थी.

वहीं तालुका पंचायतों का चित्र देखे तो 230 तालुका पंचायतों में से 134 तालुका पंचायतों पर कांग्रेस ने पंजा जमाया है और 73 पर भाजपा का कमल खिला है. कुल मिलाकर देखें तो ग्रामीण क्षेत्रों में कांग्रेस ने बुरी तरह से भाजपा को हराया है.

एक तरह से देखा जाए तो यह भाजपा के लिए पिछड़ने का दौर है. दिल्ली, बिहार के बाद ये भाजपा की लगातार तीसरी बड़ी हार है. यह एक स्पष्ट संदेश है कि लोग नरेंद्र मोदी सरकार से और भाजपा की नीतियों से खुश नहीं हैं.

भाजपा की हार के मुख्य कारण है महंगाई, भ्रष्टाचार, ग्रामीण क्षेत्रों की उपेक्षा, गुंडागर्दी, किसानों के प्रति उदासीनता, पटेल आरक्षण और जातिगत समीकरण. महंगाई से त्रस्त गरीब वर्ग और मध्यम वर्ग भाजपा के विरुद्ध गया. दो सौ रुपए दाल, महंगी सब्जियां, महंगी बिजली, महंगी शिक्षा की वजह से गरीब वर्ग और मध्यम वर्ग की हालत खराब थी तो उसका असर दिखा चुनाव परिणामों पर. शहरी क्षेत्रों का उच्च मध्यम वर्ग और अमीर वर्ग भाजपा की ओर रहा पर गरीब वर्ग और मध्यम वर्ग ने नाराज होकर कांग्रेस से हाथ मिलाया.

एक और नामालूम वजह है भ्रष्टाचार. भ्रष्टाचार से पूरा गुजरात त्रस्त है. छोटे-मोटे कामों के लिए लोगों से रिश्वत मांगी जाती है नहीं तो काम लटकाया जाता है और लोगों को परेशान किया जाता है. मुख्यतः भ्रष्टाचार तंत्र और स्थानीय भाजपा के नेता और कार्यकर्ता करते हैं. इन स्थानीय नेताओं, कार्यकर्ताओं का सरकारी कामों को लेकर अनुबंध होता है. ठीक तरह से काम न करके बडी मलाई खाकर कमजोर काम करते हैं. रोड, तालाब से लेकर स्थानीय कारखानों में भी इनके कॉन्ट्रैक्ट रहते है और भरपूर भ्रष्टाचार होता है. लोग इस तरह के भ्रष्टाचार से तंग आ गये थे जो नतीजों में साफ दिखाई दे रहा है.

गुजरात के विकास को भाजपा हमेशा एक मॉडल के रूप में प्रस्तुत करते आयी है. लेकिन अतीत को खंगाला जाये तो सच सामने आ जायेगा कि गुजरात सदियों से समृद्ध रहा है. इसी गुजरात की समृद्धि की बात सुनकर मुहम्मद गजनवी सत्रह बार गुजरात लूटने आया था. आठ सौ साल पहले भी गुजरात का मांडवी सबसे समृद्ध बंदरगाह था और इस बंदरगाह पर अस्सी देशों का व्यापार चलता था. दो सौ साल पहले भूकंप में नष्ट हुए लखपत की रोज की एक लाख कोरी(उस समय का स्थानीय चलन) की कमाई थी और यहाँ की समृद्धि देश विदेश में प्रसिद्ध थी. अंग्रेजों के समय में गुजरात के बलदिया और माधापर गांवों की बैंक मूडी पूरे एशिया में सबसे ज्यादा थी. और सारी दुनिया के समृद्ध गांवों में से थे. गुजरात का विकास किसी सरकार या नेता की बदौलत नहीं पर गुजरात की प्रजा की व्यापारी सूझबूझ, उद्योग साहसिकता और सख्त परिश्रम की वजह से था.

मोदी सरकार ने सडकें अच्छी बनाई और अमीर वर्ग के लिए नीतियां बनाई, जिसका फायदा हर वर्ग को नहीं मिला. उस विकास का फैलाव बहुत सीमित था. एक तरह से वह छद्म विकास था. किसी आम इंसान की जमीन नहीं बढ़ी पर अडानी, अंबानी, आर्चियन ग्रुप को लाखों एकड़ जमीन पानी के भाव दी गई. स्थानीय लोग पशु पालक और किसान थे, उनकी जमीन उद्योगपतियो को दी गई. शुरुआत में लोगों को लगा कि इससे भला होगा इसलिए बिना विरोध वह भाजपा का समर्थन करते रहे पर उद्योगपतियो ने जमीन पर कब्जा जमा लिया और ग्रामीण लोगों का कुछ फायदा नहीं हुआ. उलटा जमीन छिन जाने से पशुओं के लिए जमीन बची नहीं और प्रदूषण से किसानों की खेती बर्बाद होने लगी. हालत गंभीर हो गई और लोग विकास की वास्तविकता समझ गए. इस बार ग्रामीण लोगों ने छ्द्म विकास के विरोध में मतदान किया. भाजपा सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों की उपेक्षा की बदले में प्रजा ने भाजपा की सख्त उपेक्षा से जवाब दिया है.

गुंडागर्दी भी भाजपा की हार का मुख्य कारण रही है. यहां गुंडागर्दी के दो प्रकार है - हार्ड गुंडागर्दी और सॉफ्ट गुंडागर्दी. हार्ड गुंडागर्दी राज्य सरकार और प्रदेश के भाजपा नेता दिखाते आये हैं. आंदोलनकारियों पर पुलिस से लाठियाँ बरसाना या राजद्रोह के केसों में सरकार का विरोध करने वालों को जेल में डाल देने जैसी गुंडागर्दी सरकार की देखरेख में होती रही है. दूसरी गुंडागर्दी भाजपा के नेता दिखाते हैं, उनका विरोध करने वालों के लिए. इन नेताओं के संदिग्ध आर्थिक स्त्रोत पर, खनिज चोरी पर, भ्रष्टाचारों पर उंगली उठाने वाले लोगों को ये न केवल परेशान करते हैं बल्कि धमकी, पिटाई करके उन्हें चुप करा दिया जाता है.

सॉफ्ट गुंडागर्दी ज्यादा खतरनाक है. स्थानीय सहकारी समितियों, जल समितियों, संगठनो में ज्यादातर भाजपा के स्थानीय नेता सदस्य होते हैं. और कंपनियों, फैक्टरीयों में भी इन स्थानीय नेताओं का दबदबा चलता है. ये लोग आर्थिक पाबंदियां लगाकर या नौकरी, मजदूरी से निकलवाकर आम लोगों को परेशान करते हैं. झील के पानी से किसानों की खेती होती है तो जल सिंचाई समिति के सदस्य बीच में पानी अटकाकर फसल बर्बाद करा देते हैं. दुग्ध सहकारी समितियों के सदस्य दूध का फैट कम देते हैं, दूध के भाव में कमीशन खाते हैं और दूध का पैसा लेट करा देते हैं. जल प्रबंधन के सदस्य गांवों में पीने का पानी बंद करा देते हैं. इस तरह की सॉफ्ट गुंडागर्दी का पूरा जाल है आम लोगों को परेशान करने के लिए. इस बार ग्रामीण लोगों ने इस गुंडागर्दी के खिलाफ अपना वोट दिया है.

किसानों के प्रति सरकार की उदासीनता भी रोष का एक कारण बनी है. किसानों को कपास और मूंगफली की कीमत काफी कम मिली है. किसान कर्ज में डूबे हैं और उन्होंने भाजपा के विरुद्ध अपना मत दिया.

पटेल आरक्षण आंदोलन को लेकर सरकार का रवैया उदास रहा था. सरकार पूरी तरह स्थिति को समझने और संभालने के लिए असफल रही. सरकार ने जो लाठियां चलवाई और प्रदेश का माहौल बिगड़ा उससे पटेल समुदाय में सरकार के खिलाफ रोष व्याप्त हुआ. फिर सरकार ने आंदोलनकारियों पर राष्ट्रद्रोह का केस लगाकर उन्हें जेलों में बंद कर दिया. इससे सरकार की छवि न सिर्फ पटेल समुदाय में बल्कि और समुदायों में भी काफी बिगड़ी. हालांकि चुनाव नतीजों में पटेल आरक्षण का असर आंशिक रहा है. खासकर उत्तर गुजरात और सौराष्ट्र में ही इसका कुछ असर पड़ा है.

जातिगत समीकरण इस बार अनायास ही कांग्रेस के सही बैठे. स्थानीय निकाय चुनावों में जातिवाद मुख्य रूप से शामिल होता ही है. लोग पार्टी या प्रतिभा को नहीं देखते, खासकर जाति के आधार पर वोट देते हैं. इस बार कांग्रेस का जाति समीकरण अनायास ही ठीक रहा था. और यह भी एक वजह रही भाजपा की हार की जबकि जाति समीकरणों की रणनीति में भाजपा माहिर मानी जाती है पर इस बार ठीक से कुछ नहीं बैठा.

यह गुजरात का जनादेश कांग्रेस की जीत किसी स्थिति में नहीं है. हालांकि शिवसेना ने इसे कांग्रेस की जीत के तौर पर देखा है. कांग्रेस ने पिछले दो दशकों में विपक्ष की जिम्मेदारी जैसा कुछ निभाया नहीं है. गुजरात में कांग्रेस कभी मजबूत विपक्ष के तौर पर खड़ी ही नहीं रही. लेकिन प्रजा के पास और कोई विकल्प नहीं था इसलिए मजबूरन पंजे की उंगली थामनी पडी है. इस पूरे चुनाव के दौरान कोंग्रेस की न कोई रणनीति थी न खास कुछ चुनाव प्रचार में दम. पूरे चुनाव में परंपरागत रीति की तरह कांग्रेस सोती ही रही. पर प्रजा ने उनकी उंगली पकडी है यह भी एक सच है.

यह चुनाव गुजरात में भाजपा के गढ़ पर यह प्रजा का पहला प्रहार है, और निश्चित रूप से इस प्रहार के बाद से भाजपा का गढ़ बिखर गया है.

[सावजराज कच्छ, गुजरात के रहने वाले हैं. स्वतंत्र पत्रकार हैं. उनसे sawajrajsodha@gmail.comपर संपर्क किया जा सकता है. यह उनके अपने विचार हैं. तस्वीर 'इन्डियन एक्सप्रेस'से साभार.]

बदहाली के कारण दिल्ली में रुकते साइकिल रिक्शे के पहिए

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By फ़हमिना हुसैन, TwoCircles.net

दिल्ली:कभी रिक़्शे के तीन पहियों के सहारे 45 वर्षीय रहमत अली के परिवार की क़िस्मत घूमती आ रही थी, लेकिन अब रहमत अली खुद ही भुखमरी झेलने को और पेट पालने को बेबस हैं. उनके माथे पर चिंता पर लकीरें साफ़ बता रही हैं कि रहमत अली को अब बस खुदा की रहमत का ही इंतज़ार है.


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दिल्ली के जामिया नगर में रिक्शा चलाने वाले रहमत अली के आंखों से दिन भर कड़ी मेहनत करने के बाद भी रात को नींद गायब रहती हैं. उनको बस एक ही चिंता सताती रहती है कि गांव में रहने वाले मेरे परिवार का क्या होगा?

पश्चिम बंगाल के मालदा शहर से आकर दिल्ली में अकेले रहने वाले रहमत अली बताते हैं कि उनके ऊपर पत्नी व पांच बच्चों के अलावा बूढ़े मां-बाप की भी ज़िम्मेदारी है. वह सुबह सात से लेकर शाम के सात बजे तक रिक़्शा चलाते हैं. तयशुदा वक़्त इसलिए क्योंकि रहमत के पास खुद का रिक़्शा नहीं है.

वह बताते हैं, ‘रोज़ चाहे कमाई हो या न हो, रिक़्शा मालिक को 150 देना होता है. बाक़ी के बचे पैसे इतने कम होते हैं कि कुछ समझ में ही नहीं आता कि वो ख़ुद क्या खाए और घर वालों को क्या भेजे? यही सोच-सोचकर उसकी पूरी रात बीत जाती है.’

अपने मौजूदा हालातों का ज़िक्र करते हुए वह बताते हैं, ‘दो-चार साल पहले तक अपनी कमाई में से कुछ पैसा घर भेज देता था, उसमें पूरे परिवार का गुज़र-बसर हो जाया करता था. लेकिन अब जब महंगाई आसमान छू रही है, तब हमारी आमदनी पहले से भी कम हो गई है. इसका एकमात्र कारण बैटरी वाला रिक़्शा है.’


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रहमत के मुताबिक़ अब लोग रिक़्शा के बजाए ई-रिक़्शा पर बैठना ज़्यादा पसंद करते हैं. क्योंकि लोगों को जल्दी रहती है और उनका काम सस्ते में भी हो जाता है. ऐसे में इस पहिए के धीमी रफ़्तार वाली रिक़्शा को कोई नहीं पूछता. रहमत का कहना है, ‘हमारे पास इतने पैसे भी नहीं है कि हम भी बैटरी वाला रिक़्शा खरीद सकें.’

बिहार से आए 60 साल के नवाब आलम की कहानी रहमत अली के कहानी से भी ज़्यादा दर्दनाक है. नवाब ढ़ाई साल से रिक्शा चलाकर किसी तरह ज़िंदा हैं.

नवाब बताते हैं कि दो जवान लड़कों के होते हुए भी उन्हें घर वालों से निराश होकर इस उम्र में दिल्ली आना पड़ा. काम की तलाश में दो-तीन दिनों तक यहां-वहां घूमते रहे, लेकिन कहीं काम नहीं मिला. बकौल नवाब, 'बेहाली में खुद को ज़िन्दा रखने के लिए रिक्शा चलाना ही मेरे लिए एकमात्र विकल्प था. अब मैं इस बूढ़ी उम्र में एक साथ दो-तीन लोगों को ढोकर ज़िन्दगी का बोझ ढो रहा हूं.’


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नवाब आगे बताते है, ‘इस काम में भी क़िस्मत मेरा साथ नहीं दे रही है. लोगों को जल्दी रहती है. बैटरी वाले रिक्शे पर बैठ जाते हैं. अगर साइकिल रिक़्शा से भी जाना होता है तो वह दूसरे रिक़्शों पर बैठते हैं. उन्हें लगता है कि यह बूढ़ा तेज़ रिक़्शा नहीं भगा पाएगा.’

32 साल के अज़हर की रिक़्शा चलाने की स्पीड तो काफ़ी तेज़ है. लेकिन ई-रिक़्शा ने उनकी ज़िन्दगी की रफ़्तार को धीमा ज़रूर कर दिया है. अज़हर का कहना है कि वह पिछले पांच साल से जामियानगर में रिक्शा चला रहे हैं. लेकिन अब बैट्रीवाला रिक्शा आ जाने से उतनी सवारियां नहीं मिलती हैं. कभी-कभी तो इतने पैसे भी नहीं हो पातें कि गांव में अपने परिवार को पैसे भेज सकें.

बिहार से ताल्लुक रखने वाले 45 वर्षीय साइकिल रिक्शा चालक दुर्गा कुमार कहते हैं, 'हम लोगों के पास समस्या है कि हम करते हैं तो उसके मुताबिक़ पैसा लेते हैं. अब रिक्शे में भी मोटर लगा दीजिए तो हैंडल घुमाके हम भी सस्ते में आपको ले चलेंगे. हमारी मेहनत का पैसा लोगों को महंगा लगता है.'

ऐसी ही कहानी मुख़्तार की भी है जो पिछले 10 साल से रिक्शा चला रहे हैं. मुख़्तार बताते हैं, ‘रिक्शा चलाकर ही वह आज गांव में पक्का घर बनवा चुके हैं. लेकिन आज इस ई-रिक्शा के आ जाने से वही घर चलाना अब मुश्किल हो चुका है. सवारियां पहले से कम मिलती हैं, मजबूरन हम रिक्शे वाले ज्यादा पैसे मांगते हैं. लेकिन कोई देने को तैयार नहीं होता. समझ नहीं आता अब हमारे धंधे का क्या होगा? परिवार कैसे चलेगा?’

दिल्ली के गली-मुहल्लों में ऐसी कितनी ही बेबस कहानियां पड़ी हैं, जो हमारी भागती ज़िंदगी को मंज़िल तक पहुंचाती है. लेकिन शायद ही रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में आम आदमी इन रिक्शेवालों के बारे में सोचता होगा. सरकार की भी नज़र इन पर नहीं जाती है. सरकार के पास विकास के स्वागत की कार्यप्रणाली पर काम कर रही है. दिल्ली दिनोंदिन डिजिटल हो रही है. नई-नई तकनीकें विकसित रही हैं, लेकिन सरकार ने यह कभी नहीं सोचा कि डेवलपमेंट के जिस मॉडल के ज़रिए वह लोगों की ज़िन्दगी को आसान बनाने की कोशिश में लगी हुई है, उस मॉडल का एक पहलू ग़रीब तबक़े के लिए बेरोज़गारी व भूखमरी का कारण बन रहा है.

स्पष्ट रहे कि पिछले साल 31 जुलाई 2014 को राजधानी में ई-रिक्शा के परिचालन पर रोक लगा दी गई थी. अदालत ने स्पष्ट तौर पर कहा था कि इसका परिचालन अवैध तौर पर हो रहा है और यह यातायात व नागरिकों के लिए खतरनाक है. लेकिन नवम्बर 2014 में ये प्रतिबंध यह कहते हुए हटा दिया गया कि यह ई-रिक़्शा हजारों लोगों को रोज़गार दे रहा है. सरकार के मुताबिक़ तकनीक के सुधार के साथ समाज में वाहनों को सुविधाजनक बनाने की मांग बढ़ी है, इसलिए मानवचालित रिक्शा की जगह वहनीय और सुविधाजनक ई-रिक्शा का विकल्प होना चाहिए. दिल्ली के लगभग हरेक इलाके में अदालत द्वारा साइकिल रिक्शे की एक औसत संख्या निर्धारित की गयी है, लेकिन ई-रिक्शों के लिए ऐसा कोई निर्धारण नहीं हुआ है. दिल्ली के परिवहन मंत्रालय द्वारा ई-रिक्शा में जारी तमाम आदेशों और सर्कुलर में कोई भी ऐसा बिंदु अनुपस्थित है, जिससे साइकिल रिक्शा चालकों की सहूलियत का कोई रास्ता खुल सके. ऐसे में यह बड़ी मछली के छोटी मछली को निगलने का खेल सरीखा होता जा रहा है.

हालांकि यह सच है कि इससे रिक्शे पर सवारी करने वाले कुछ आम लोगों को फायदा ज़रूर मिल रहा है. लेकिन यह बात भी सच है कि हमारी सरकारें अमूमन हक़ीक़तों से दूर होती जा रही हैं. रोज़गार की जितनी ज़रुरत दिल्ली के ई-रिक्शा चालकों को है, ज़ाहिरा तौर पर उतनी ही ज़रुरत साइकिल रिक्शा चालकों को भी है. दिल्ली ही नहीं, एनसीआर के साथ-साथ पूर्वी व पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई शहरों में जहां-जहां ई-रिक्शे बढ़ रहे हैं, वहां भी इसी किस्म की कहानियां धीरे-धीरे अपने पैर पसार रही हैं. इन बदहाल रिक्शेवालों की हालत देखकर लगता है कि शायद दिल्ली सरकार को पेट्रोल और डीजल की गंध से उबकाई तो नहीं आ रही है, लेकिन अब आम आदमी के पसीने की बू से उनका जी ज़रूर मितलाने लगा है.

बाबरी मस्जिद के लिए धरना, मायावती ने कहा मस्जिद ही था विवादित ढांचा

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By अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

नई दिल्ली:बाबरी मस्जिद विध्वंस की घटना को 23 वर्ष बीत गए हैं लेकिन दिल्ली में आज भी यह दिन विभिन्न संगठनों व राजनेताओं के विरोध-प्रदर्शन, धरना, जलसा-जुलूस के नाम रहा. जहां एक तरफ़ जंतर-मंतर पर कई संगठन के लोगों ने धरना दिया, वहीं दिल्ली के मुस्लिम इलाक़ों में विरोध-प्रदर्शन हुए.


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जंतर-मंतर पर आज वामपंथी राजनीतिक पार्टियों ने एक साथ मिलकर सांप्रदायिकता विरोधी जुलूस व सभा आयोजित कर केन्द्र की मोदी सरकार को निशाने पर लिया.

वक्ताओं ने इस सभा में स्पष्ट तौर कहा कि भाजपा-आरएसएस का केन्द्रीय सरकार पर क़ब्ज़ा होने के बाद से पूरे देश में साम्प्रदायिक तनाव व हिंसक वारदातों में तेज़ी से बढ़ोतरी हुई है. ये कभी लव-जिहाद के नाम पर नौजवान लड़के-लड़कियों के अधिकारों पर हमला करते हैं तो कभी घर-वापसी के नाम पर मुसलमानों व ईसाइयों पर धर्मान्तरण करने का दबाव डालते हैं. कभी मस्जिदों व गिरजाघरों पर हमले करते हैं.

वक्ताओं ने आगे कहा कि मोदी सरकार के कई मंत्री और सांसद अपने ज़हरीले भाषणों से घृणा फैलाने और साम्प्रदायिक गड़बड़ी पैदा करने में लगातार लगे हुए हैं. आज तक प्रधानमंत्री मोदी ने संसद या देश को इन पर लगाम लगाने का यक़ीन नहीं दिलाया है. अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ देश में बढ़ती साम्प्रदायिक हिंसाओं की घटनाओं पर भी कभी खुलकर निंदा नहीं की. ऐसे में इस संरक्षण से साम्प्रदायिक ताकतों के हौसले और भी बुलंद हुए हैं.


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इस सभा में सीपीआई (एम), सीपीआई, एआईएफबी, आरएसपी, सीपीआई (एमएल) लिबरेशन, एसयूसीआई (कम्यूनिस्ट) जैसी राजनीतिक पार्टियां शामिल थीं.

जंतर-मंतर पर आज पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया ने भी प्रदर्शन किया. पॉपुलर फ्रंट ने इस प्रदर्शन में सरकार के सामने यह मांग रखी कि बाबरी मस्जिद को ढहाना एक आतंकी कार्रवाई थी. इसलिए जो लोग इस कार्य में शामिल थे, उनको कड़ी से कड़ी सज़ा दी जाए ताकि दोबारा इस तरह की फाशिस्ट हरकतें न हों. पॉपुलर फ्रंट के इस धरने में कई संगठनों के साथ-साथ कई अहम चेहरे शामिल थे.


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इसके अलावा लोकराज संगठन, कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी, जमाअत-ए-इस्लामी हिन्द, सिख फोरम, वेलफेयर पार्टी ऑफ इंडिया, यूनाईटेड मुस्लिम्स फ्रंट, सीपीआई (एम.एल.) न्यू प्रोलेतेरियन, एसोसिएशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स, नया दौर पार्टी, इंसाफ, दिल्ली श्रमिक संगठन, राष्ट्रीय ईसाई मंच, स्टूडेंट इस्लामिक ऑर्गनाईजेशन, पुरोगामी महिला संगठन, हिन्द नौजवान एकता सभा, मजदूर एकता कमेटी, राष्ट्रीय उलेमा कौंसिल, सिटिज़न फॉर डेमोक्रेसी, मिशन भारतीयम, सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ़ इंडिया, निशांत नाट्य मंच, ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस-ए-मुशावरात जैसे कई संगठनों ने एक साथ मिलकर आज जंतर-मंतर पर धरना दिया.

वहीं दिल्ली के जामिया नगर इलाक़े में भी असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के दिल्ली चैप्टर ने भी कैंडिल मार्च निकालकर बाबरी के हत्यारों के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद की.

उत्तर प्रदेश के लखनऊ में भी आज बाबरी मस्जिद के शहादत की 23वीं बरसी पर लक्ष्मण मेला मैदान में राष्ट्रीय उलेमा कौंसिल, आल इंडिया इमाम्स कौंसिल, मुस्लिम मजलिस, इंडियन नेशनल लीग, इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग, पिछड़ा जन समाज पार्टी, परचम पार्टी, वेलफेयर पार्टी आफ इंडिया एवं मुस्लिम फोरम ने एकसाथ मिलकर धरना-प्रदर्शन किया और सरकार के समक्ष यह मांग रखी कि बाबरी मस्जिद का नव निर्माण किया जाए और दोषियों को दण्डित किया जाए.


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इस बीच आज यूपी में बाबरी मस्जिद पर बहन मायावती के बयान ने देश की सियासत को गरमा दिया है. मायावती ने अयोध्या के उस विवादित ढांचे को ‘बाबरी मस्जिद’ बताया है कि जिसे भाजपा व आरएसएस के लोग राम मंदिर बताते आए हैं.


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वहीं दूसरी तरफ़ मद्रास उच्च न्यायालय ने तमिलनाडु सरकार को आदेश दिया है कि वह अगले साल से किसी भी संगठन को 6 दिसंबर के दिन बाबरी मस्जिद या राम मंदिर के समर्थन या विरोध में जलसे-जुलूस और प्रदर्शन की अनुमति न दे. उच्च न्यायालय ने कहा है कि इस तरह के प्रदर्शनों से आम जनजीवन प्रभावित होता है और उससे सरकारी और ग़ैर-सरकारी संसाधन भी बर्बाद होते हैं.


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दरअसल, 6 दिसम्बर आज़ाद हिन्दुस्तान के इतिहास का एक ऐसा दिन है, जिसे भूलना अल्पसंख्यकों के लिए मुश्किल है. बाबरी मस्जिद विध्वंस की घटना हिन्दुस्तान की धर्मनिरपेक्ष छवि पर एक ऐसा बदनुमा दाग़ है, जिसकी कालिख़ एक लम्बे समय तक भाजपा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिन्दू परिषद् को ढोनी होगी. ज्ञात हो कि मस्जिद गिराए जाने के बाद देश के एक बड़े हिस्से में साम्प्रदायिक दंगे हुए थे, जिसमें हज़ारों मासूम जानें गयी थीं. जहां राम मंदिर के समर्थक हर साल इसे 'शौर्य दिवस'के रूप में मनाते रहे हैं, वहीं हर साल इस दिन बाबरी मस्जिद के समर्थक 'काला दिन'मनाते हैं और उसके पुनर्निर्माण के लिए सभाएं और प्रदर्शन करते रहे हैं.


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बाजारीकरण के ख़िलाफ़ ‘ऑक्युपाई यूजीसी’ का भारतीय संसद मार्च

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By TwoCircles.net Staff Reporter,

नई दिल्ली:नॉन नेट वज़ीफ़े के लिए और डब्लूटीओ में शिक्षा को बेचे जाने के ख़िलाफ़ दिल्ली व देश के दूसरे तमाम राज्यों से आए विश्वविद्यालयों के छात्र आने वाले 9 दिसम्बर को संसद मार्च करेंगे. यह मार्च दिन के एक बजे से यूजीसी भवन से शुरू होगा और संसद तक जाएगा.


Occupy UGC

‘ऑक्युपाई यूजीसी’ से जुड़ी चेतन्या बताती हैं, ‘सवाल सिर्फ़ वज़ीफ़े का नहीं है, अहम सवाल यह है कि सरकार क्या चाहती है?’

वह आगे बताती हैं, ‘खुद को जनता की सरकार बताने वाली इन सरकारों की असलियत हमारे सामने खुल चुकी है. मुनाफ़े व लूट पर टिकी इस व्यवस्था में सबकुछ माल है, इसलिए शिक्षा भी इससे अलग नहीं है. शिक्षा और रोज़गार का सवाल व्यवस्था से जुड़ा हुआ है. और दरअसल यह व्यवस्था देश को गरीबी, भूख और बदहाली ही दे सकती है. हम सरकार की तमाम जन-विरोधी नीतियों और शिक्षा के बाज़ारीकरण के ख़िलाफ़ हैं.’

दरअसल, आन्दोलन कर रहे छात्रों की तीन मांगें हैं और इन्हीं तीन मांगों को लेकर पूरे देश से आए छात्र 9 दिसम्बर को संसद मार्च करेंगे और भारत सरकार से अपनी अपनी मांगों को माने जाने का संकल्प दोहराएंगे.

1. नॉन नेट फेलोशिप को दोबारा शुरू करके बढ़ाया जाए. राज्य के विश्वविद्यालयों में विस्तारित किया जाए और किसी भी ऐसी शर्त को न जोड़ा जाए जिससे कुछ छात्र छंट जाएं –जैसे ‘मेरिट’ का मापदंड.
2. भारत डब्ल्यूटीओ की समझौता वार्ता में हिस्सा न ले.
3. शिक्षा के क्षेत्र में बजट कटौती को रोका जाए और शिक्षा के सम्पूर्ण बजट का 10 प्रतिशत खर्च निर्धारित किया जाए.

स्पष्ट रहे कि पिछले 40 दिनों से दिल्ली में आईटीओ के पास विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के दफ़्तर के बाहर विभिन्न कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के छात्र-युवा धरने पर बैठे हैं.

स्मृति ईरानी ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के 134 करोड़ रूपए स्वीकृत किए

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छात्र संगठन सर सैयद मायनॉरिटी फाउन्डेशन की कोशिशों का नतीजा

सिद्धांत मोहन, TwoCircles.net

अलीगढ़:तकरीबन दो सालों से लटके हुए अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के किशनगंज केंद्र पर नई केंद्र सरकार द्वारा लगाई गयी अड़चनें बीते शनिवार को साफ़ हो गयीं. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्र दल सर सैयद मायनॉरिटी फाउन्डेशन ने जारी एक बयान में कहा है कि यह फाउन्डेशन केंद्र सरकार और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के बीच पनप रहे गतिरोध को कम करने के लिए प्रयासरत है.


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अल्पसंख्यकों के बीच शिक्षा के प्रसार के मद्देनजर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय विस्तार कार्यक्रमों को अंजाम देता रहा है. इसके पहले केरल के मल्लापुरम और पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद में भी विश्ववविद्यालय ने केन्द्रों की स्थापना की है. बिहार में प्रस्तावित यह केंद्र भी इसी श्रृंखला का हिस्सा हैं.

साल 2013 में तत्कालीन यूपीए सरकार ने अलीगढ़ विश्वविद्यालय के किशनगंज केंद्र को मंजूरी दी थी. इस मंजूरी के बाद कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी उद्घाटन-शिलान्यास के लिए बिहार भी आई थीं. लेकिन 2014 के चुनावी नतीजों ने कांग्रेस को सत्ता से दूर भेज दिया. सत्ता में आई भाजपा के मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने इस सेंटर की स्थापना को 'गैर-कानूनी'बताते हुए निर्धारित फंड पर रोक लगा दी.


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(File Photo)

फोन पर हुई बातचीत में संस्था के अध्यक्ष मोहम्मद परवेज़ सिद्दीक़ी ने कहा, 'सेंटर का फंड एक साल से लटका हुआ था. यह पैसा यूजीसी को देना था. एक दिसंबर को मंत्री स्मृति ईरानी में उन्होंने यह कई बार कहा कि इस सेंटर की स्थापना अवैध है. कारण पूछने पर उन्होंने बताया कि इसकी स्थापना का ध्येय राजनीति से जुड़ा हुआ है.'

परवेज़ आगे बताते हैं कि हमारी दलीलों और तथ्यों को समझते हुए मंत्रालय ने बीते शनिवार को रुके हुए 134 करोड़ रूपए पास कर दी. बकौल बयान, सर सैयद मायनॉरिटी फाउन्डेशन श्रीमती स्मृति ईरानी के इस अच्छे कदम को सरहाती है और इस बात की अपील करती है कि जो फन्ड किशनगंज सेन्टर को रिलीज किया गया है उसे बगैर किसी शर्त के केंद्र के निर्माण पर खर्च करने का आदेश दिया जाए.

फाउन्डेशन ने विश्वविद्यालय के छात्रों और प्रशासनिक अमले से अपील की है कि विश्वविद्यालय के मसलों को सामने रखें ताकि मौजूदा सरकार द्वारा उनके निवारण के लिए हरसंभव कोशिश की जा सके.

उत्तर प्रदेश सरकार, भ्रष्ट न्यायाधीश और नूर सबा की जंग

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अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

नई दिल्ली:समाज में इंसाफ़ और क़ानून व्यवस्था साथ-साथ चलते हैं. इसलिए जहां इंसाफ़ नहीं होगा, वहां विद्रोह होना कोई बड़ी बात नहीं है.

उत्तर प्रदेश के रामपुर की 73 साल की विधवा नूर सबा की कहानी भी कुछ ऐसी ही है. 36 सालों से नूर सबा इंसाफ़ के लिए संघर्ष कर रही थीं, लेकिन जब इंसाफ़ के सारे रास्ते लगभग बन्द हो गए, तब उन्होंने बग़ावत का रास्ता अपना लिया है.


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पद्मश्री सहित राष्ट्रपति द्वारा उत्कृष्ट सेवा पदक व कई राष्ट्रीय एवं राज्य स्तरीय पुरस्कारों से सम्मानित शिक्षक एवं शिक्षाविद मसूद उमर ख़ान की विधवा और जामिया मिल्लिया इस्लामिया के संस्थापकों में शामिल रहे जस्टिस सरदार वली खान की बहु नूर सबा बीते 19 नवम्बर, 2015 से अपने ऊपर हुए ‘न्यायिक आतंकवाद’ के विरूद्ध दिल्ली के जंतर-मंतर पर अनिश्चितकालीन धरने पर बैठी हैं.


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इससे पूर्व अप्रैल में नूर सबा का यह मामला जदयू राज्यसभा सांसद अली अनवर संसद में भी उठा चुके हैं. तब नूर सबा की दास्तान को सुनकर पूरी सदन हैरान रह गयी थी. सरकार की ओर से वित्त मंत्री अरुण जेटली ने यह भरोसा दिलाया कि वे इस मसले पर यूपी के मुख्य सचिव को पत्र लिखकर यह सुनिश्चित करेंगे कि नूर सबा के इंसाफ़ में अब और देरी न हो.

दरअसल, नूर सबा का आरोप है कि उनके पति मसूद उमर खान रामपुर के गवर्मेंट पब्लिक स्कूल में प्राचार्य के पद पर कार्यरत थे, जिनका सेवानिवृत्ति वर्ष 1994 था. लेकिन उनका देहांत 1980 में ही हो गया. पति के मृत्यु के बाद वह अपने पति की पेंशन, ग्रेच्यूटी, इनश्योरेन्स इत्यादि के लिए सरकारी विभागों के चक्कर काटने लगीं, लेकिन सरकारी अधिकारियों ने उनसे रिश्वत की मांग की, जिसे नूर सबा ने देने से इंकार कर दिया. इंकार करने के बाद सरकारी अधिकारियों ने कागज़ों में उनके पति को सरकारी प्रिसिंपल के बजाए प्राईवेट स्कूल का प्रिसिंपल बताने लगे.


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नूर सबा 17 सालों तक यूपी के सरकारी दफ़्तरों का चक्कर काटती रहीं. लेकिन कोई फ़ायदा हासिल न हुआ तब उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया. लंबी कार्यवाही के बाद 2008 में हाईकोर्ट ने फ़ैसला नूर सबा के पक्ष में दिया और साथ ही सरकार को निर्देशित भी किया परंतु सरकार ने उस पर कोई कार्यवाही नहीं की. तब नूर सबा ने सुप्रीम कोर्ट की शरण ली.

नूर सबा का आरोप है कि राज्य सरकार ने खुद के बचाव के लिए सुप्रीम कोर्ट में झूठे आदेश और दस्तावेज़ों का सहारा लिया, जो झूठा साबित हुआ और माननीय सुप्रीम कोर्ट ने भी नूर सबा के पक्ष में ही आदेश दे दिया. लेकिन इसके बाद भी प्रदेश सरकार ने इस आदेश पर कोई कार्यवाही नहीं की और नूर सबा को किसी भी प्रकार की कोई आर्थिक सहायता नहीं मिली.

नूर सबा ने दोबारा सुप्रीम कोर्ट में इस सम्बन्ध में एक केस दाखिल किया. लेकिन नूर सबा आरोप लगाती हैं कि इस बार तत्कालीन बेंच ने प्रदेश सरकार के दिखाए कागज़ातों के आधार पर नूर सबा के विरुद्ध फैसला दे दिया. इसके बाद उन्होंने इसकी शिकायत राष्ट्रपति महोदय से की और सम्बंधित बेंच के तीनों जजों के खिलाफ़ मुक़दमे की मांग की. राष्ट्रपति ने 15 पत्र इस सम्बन्ध में जारी किये हैं. साथ ही सम्बंधित न्यायाधीशों के विरुद्ध मुक़दमा दर्ज करवाने का आदेश भी दिया है, परंतु अभी तक मुक़दमा दर्ज नहीं हुआ है.

नूर सबा इसे ‘न्यायिक आतंकवाद’ मानती हैं और उक्त तीनों न्यायाधीशों को गिरफ्तार करना चाहती हैं. अपने इसी मंशा के तहत 27 नवम्बर को नूर सबा अपने अधिवक्ता बेटे आबिद और मुम्बई की विख्यात समाजसेविका सोनिका क्रांतिकारी व उनके पति के साथ जंतर-मंतर से सुप्रीम कोर्ट की तरफ़ आगे बढ़ने ही वाली थी कि दिल्ली पुलिस ने उनको आगे जाने से रोक दिया गया.

नूर सबा कहती हैं कि जब उन्होंने अपने इंसाफ़ के लिए आवाज़ उठाना शुरू किया तो हक़ व इंसाफ़ के बदले उन्हें जजों और भ्रष्ट अधिकारियों से पंगा न लेने की धमकी मिलने लगी. उनका आरोप है कि उनकी आवाज़ दबाने के लिये रामपुर ज़िला न्यायालय के चीफ़ न्यायिक मजिस्ट्रेट व खरीदे गये लोकल गुंडों द्वारा उन्हें सिविल व क्रिमनल के झूठे मुक़दमों में फंसाया गया. गुण्डों के ज़रिए उनके घर को नाजायज़ रजिस्ट्री करवाकर छिनवाया गया. उनके घर में लूट करवाई गयी. मजिस्ट्रेट के फ़र्जी हस्ताक्षरों से आदेश जारी करवाते हुए उनके ऊपर 307 का मुक़दमा दर्ज करवाया गया. इतना ही नहीं, इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा मामले की न्यायिक जांच करवाये जाने के बाद भी ज़िला जज रामपुर द्वारा यूपी सरकार के अधिकारियों के दबाव में गुण्डों के खिलाफ़ कोई भी कानूनी कार्यवाही नहीं की गई.

नूर सबा बताती हैं कि अगर अब भी इंसाफ़ नहीं मिला तो वे जल्द ही अपने पति को मिले सारे पुरस्कार राष्ट्रपति भवन के सामने जला देंगी. साथ ही अपने साथ होने वाले नाइंसाफ़ी की पूरी दास्तान को लिखकर 22 देशों के राष्ट्रपति को उन देशों के एम्बेसी के ज़रिए भेजेंगी.

उनका कहना है, ‘मेरे साथ होने वाले इस नाइंसाफ़ी ने न सिर्फ इंसानियत बल्कि कानून व संविधान दोनों को शर्मसार कर दिया है. देश में कानून व न्यायिक शक्तियों को ब्लैकमेल के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है. ऐसे में जब मेरे सामने इंसाफ़ के सारे रास्ते बन्द हो चुके हैं तब मैंने जुल्म के खिलाफ़ बगावत का रास्ता अपनाया है और मेरी इस लड़ाई में ऐसे कई लोग शामिल हो गए हैं जो ‘न्यायिक आतंकवाद’ के शिकार से परेशान हैं.'नूर सबा आख़िर में यह भी कहती है, ‘हमें अपने देश के संविधान पर पूरा भरोसा है, मगर भ्रष्ट न्यायाधीशों पर नहीं... लेकिन हम ईमानदार न्यायाधीशों की इज्ज़त करते हैं.’

विद्रोही'के साथ चलना हर किसी के लिए आसान नहीं है...

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प्रणय कृष्ण

नाम है - रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’. ज़िला सुल्‍तानपुर के मूल निवासी. नाटा कद, दुबली काठी, सांवला रंग, उम्र लगभग 50 के आसपास, चेहरा शरीर के अनुपात में थोड़ा बड़ा और तिकोना, जिसे पूरा हिला-हिलाकर वे जब बात करते हैं, तो नज़र कहीं और जमा पाना मुश्किल होता है. विद्रोही फक्कड़ और फटेहाल रहते हैं, लेकिन आत्मकरुणा का लेशमात्र भी नहीं है, कहीं से. बड़े गर्व के साथ अपनी एक कविता में घोषणा करते हैं कि उनका पेशा है कविता बनाना और व्यंग्य करते हैं ऐसे लोगों पर जो यह जानने के बाद भी पूछते हैं, “विद्रोही, तुम क्या करते हो?” विद्रोही पिछले न जाने कितने वर्षों से शाम ढले जे.एन.यू. पहुंच जाते हैं और फिर जब तक सभी ढाबे बंद नहीं हो जाते, कम से कम तब तक उनका कयाम यहीं होता है. फिर जैसी स्थिति रही, उस हिसाब से वे कहीं चल देते है. मसलन सन् 1993-94 में, कुछ दिन तक वे मेरे कमरे में या मैं जिस भी कमरे में हूं, जिस भी हास्टल के, विद्रोही वहीं ठहर जाते. एक दिन सुबह-सुबह भाभी जी पधारीं उन्हें लिवा ले जाने. कई दिनों से घर में महाशय के पांव ही नहीं पड़े थे. भाभी जी सामान्य सी नौकरी करती हैं. विद्रोही निर्विकल्प कवि हैं. विद्रोही ने कविता कभी लिखी नहीं, वे आज भी कविता ‘कहते’ हैं, चाहे जितनी भी लम्बी हो. मेरे जे.एन.यू. छोड़ने के बाद, एक बार मेरे बहुत कहने पर, कई दिनों की मेहनत के बाद वे अपनी ढेर सारी कविताएं लिखकर मुझे दे गए. इलाहाबाद में मेरे घर पर उन कविताओं का अक्सर ही पाठ होता; लोग सुनकर चकित होते, लेकिन मसरूफ़ियात ऐसी थीं कि मैं उन्हें छपा न सका, लिहाजा कविताओं की पांडुलिपि विद्रोही जी को वापस पहुंच गई.


vidrohi uday shankar

विद्रोही कभी जे.एन.यू.के छात्र थे, लेकिन किंवदंती के अनुसार उन्होंने टर्म और सेमिनार पेपर लिखने की जगह बोलने की ज़िद ठान ली और प्रोफ़ेसरों से कहा कि उनके बोले पर ही मूल्यांकन किया जाए. ऐसे में विद्रोही ‘अमूल्यांकित’ ही रहे लेकिन जे.एन.यू. छोड़ वे कहीं गए भी नहीं, वहीं के नागरिक बन गए.. जे.एन.यू. की वाम राजनीति और संस्कृतिप्रेमी छात्रों की कई पीढ़ियों ने विद्रोही को उनकी ही शर्तों पर स्वीकार और प्यार किया है और विद्रोही हैं कि छात्रों के हर न्यायपूर्ण आंदोलन में उनके साथ तख्ती उठाए, नारे लगाते, कविताएं सुनाते, सड़क पर मार्च करते आज भी दिख जाते हैं. कामरेड चंद्रशेखर की शहादत के बाद उठे आंदोलन में विद्रोही आठवीं-नवीं में पढ़ रहे अपने बेटे को भी साथ ले आते ताकि वह भी उस दुनिया को जाने जिसमें उन्होंने ज़िन्दगी बसर की है. बेटा भी एक बार इनको पकड़कर गांव ले गया, कुछेक महीने रहे, खेती-बारी की, लेकिन जल्दी ही वापस अपने ठीहे पर लौट आए. विद्रोही की बेटी ने बी.ए. कर लिया है और उनकी इच्छा है कि वह भी जे.एन.यू. में पढ़े.

विद्रोही को आदमी पहचानते देर नहीं लगती. अगर कोई उन्हे बना रहा है या उन्हें कितनी ही मीठी शब्दावली में खींच रहा है, विद्रोही भांप लेते हैं और फट पड़ते हैं. घर से उन्हें कुछ मिलता है या नही, मालूम नहीं, लेकिन उनकी ज़रूरतें, बेहद कम हैं और चाय-पानी, नशा-पत्ती का ख्याल उनके चाहने वाले रख ही लेते हैं. विद्रोही पैसे से दुश्मनी पाले बैठे हैं. मान-सम्मान-पुरस्कार-पद-प्रतिष्ठा की दौड़ कहां होती है, ये जानना भी ज़रूरी नहीं समझते. हां, स्वाभिमान बहुत प्यारा है उन्हें, जान से भी ज़्यादा.

किसी ने एक बार मज़ाक में ही कहा कि विद्रोही जे.एन.यू. के राष्ट्र-कवि हैं. जे.एन.यू.के हर कवि-सम्मेलन-मुशायरे में वे रहते ही हैं और कई बार जब ‘बड़े’ कवियों को जाने की जल्दी हो आती है, तो मंच वे अकेले संभालते हैं और घंटों लोगों की फ़रमाइश पर काव्य-पाठ करते हैं. मज़ाक में कही गई इस बात को गम्भीर बनाते हुए एक अन्य मित्र ने कहा,”काश! जे.एन.यू. राष्ट्र हो पाता या राष्ट्र ही जे.एन.यू. हो पाता.” ‘बड़े’ लोगों के ‘राष्ट्र’ में भला विद्रोही जैसों की खपत कहां? विद्रोही ने मेरे जानते जे.एन.यू. पर कोई कविता नहीं लिखी लेकिन जिस अपवंचित राष्ट्र के वे सचमुच कवि हैं, उसकी इज़्ज़त करने वाली संस्कृति कहीं न कहीं जे.एन.यू.में ज़रूर रही आई है.

‘जन-गण-मन’ शीर्षक तीन खंडों वाली लम्बी कविता के अंतिम खंड में विद्रोही ने लिखा है-

मैं भी मरूंगा और भारत भाग्य विधाता भी मरेंगे
मरना तो जन-गण-मन अधिनायक को भी पड़ेगा
लेकिन मैं चाहता हूँ कि पहले जन-गण-मन अधिनायक मरें
फिर भारत-भाग्य विधाता मरें
फिर साधू के काका मरें
यानी सारे बड़े-बड़े लोग पहले मर लें
फिर मैं मरूं- आराम से, उधर चलकर
बसंत ऋतु में जब दानों में दूध और आमों में बौर आ जाता है
या फिर तब जब महुवा चूने लगता है
या फिर तब जब वनबेला फूलती है
नदी किनारे मेरी चिता दहक कर महके
और मित्र सब करें दिल्लगी कि ये विद्रोही भी क्या तगड़ा कवि था
कि सारे बड़े-बड़े लोगों को मारकर तब मरा।

विद्रोही की कविता गंभीर निहितार्थों, भव्य आशयों, महान स्वप्नों वाली कविता है, लेकिन उसे अनपढ़ भी समझ सकता है. विद्रोही जानते हैं कि यह धारणा झूठ है कि अनपढ़ कविता नहीं समझ सकते. आखिर भक्तिकाल की कविता कम गंभीर नहीं थी और उसे अनपढ़ों ने खूब समझा. बहुधा तो कबीर जैसे अनपढ़ों ने ही उस कविता को गढ़ा. दरअसल, अनपढ़ों को भी समझ में आ सकने वाली कविता खड़ी बोली में भी वही कवि लिख सकता है जो साथ ही साथ अपनी मातृभाषा में भी कविता कहता हो. विद्रोही अवधी और खड़ी बोली में समाभ्यस्त हैं. विद्रोही के एक अवधी गीत के कुछ अंश यहां उद्धृत कर रहा हूं जिसमें मजदूर द्वारा मालिकाना मांगने का प्रसंग है-

जनि जनिहा मनइया जगीर मांगातऽऽ
ई कलिजुगहा मजूर पूरी सीर मांगातऽऽ
…………………………………
कि पसिनवा के बाबू आपन रेट मांगातऽऽ
ई भरुकवा की जगहा गिलास मांगातऽऽ
औ पतरवा के बदले थार मांगातऽऽ
पूरा माल मांगातऽऽ
मलिकाना मांगातऽऽ
बाबू हमसे पूछा ता ठकुराना मांगातऽऽ
दूधे.दहिए के बरे अहिराना मांगातऽऽ
……………………………….
ई सड़किया के बीचे खुलेआम मांगातऽऽ
मांगे बहुतै सकारे, सरे शाम मांगातऽऽ
आधी रतियौ के मांगेय आपन दाम मांगातऽऽ
ई तो खाय बरे घोंघवा के खीर मांगातऽऽ
दुलहिनिया के द्रोपदी के चीर मांगातऽऽ
औ नचावै बरे बानर महावीर मांगातऽऽ

विद्रोही मूलत: इस देश के एक अत्यंत जागरूक किसान-बुद्धिजीवी हैं जिसने अपनी अभिव्यक्ति कविता में पाई है. विद्रोही सामान्य किसान नहीं हैं, वे पूरी व्यवस्था की बुनावट को समझने वाले किसान हैं.उनकी कविता की अनेक धुनें हैं, अनेक रंग हैं. उनके सोचने का तरीका ही कविता का तरीका है. कविता में वे बतियाते हैं, रोते और गाते हैं, खुद को और सबको संबोधित करते है, चिंतन करते हैं, भाषण देते हैं, बौराते हैं, गलियाते हैं, संकल्प लेते हैं, मतलब यह है कविता उनका जीवन है. किसानी और कविता उनके यहां एकमेक हैं. ‘नई खेती‘ शीर्षक कविता में लिखते हैं -

मैं किसान हूँ
आसमान में धान बो रहा हूँ
कुछ लोग कह रहे हैं कि पगले!
आसमान में धान नहीं जमा करता
मैं कहता हूँ पगले!
अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है
तो आसमान में धान भी जम सकता है
और अब तो दोनों में से कोई एक होकर रहेगा
या तो ज़मीन से भगवान उखड़ेगा
या आसमान में धान जमेगा.

विद्रोही पितृसत्ता-धर्मसत्ता और राजसत्ता के हर छ्द्म से वाकिफ़ हैं; परंपरा और आधुनिकता दोनों के मिथकों से आगाह हैं. ‘औरत’शीर्षक कविता की आखि‍री पंक्तियां देखिए-

इतिहास में वह पहली औरत कौन थी जिसे सबसे पहले जलाया गया?

मैं नहीं जानता

लेकिन जो भी रही हो मेरी माँ रही होगी,

मेरी चिंता यह है कि भविष्य में वह आखिरी स्त्री कौन होगी

जिसे सबसे अंत में जलाया जाएगा?

मैं नहीं जानता

लेकिन जो भी होगी मेरी बेटी होगी

और यह मैं नहीं होने दूँगा.

विद्रोही के साथ चलना हर किसी के लिए आसान नहीं है. वे मेरे अंतरतम के मीत हैं. ऐसे कि वर्षों मुलाकात न भी हो, लेकिन जब हो तो पता ही न चले कि कब बिछड़े थे. उन्हें लेकर डर भी लगता है, खटका सा लगा रहता है, इतने निष्कवच मनुष्य के लिए ऐसा लगना स्वाभाविक ही है. आखिर जे.एन.यू. भी बदल रहा है. जिन युवा मूल्यों का वह कैम्पस प्रतिनिधि बना रहा है, उन्हें खत्म कर देने की हज़ारहां कोशिश, रोज़-ब-रोज़ जारी ही तो है.

[जे.एन.यू. की क्रान्ति के झंडाबरदारों में से एक रमाशंकर 'विद्रोही'का कल अचानक निधन हो गया. छात्रों द्वारा यूजीसी के घेराव के वक़्त अचानक उनकी तबीयत बिगड़ी, अस्पताल ले जाने पर पता चला कि उनकी मौत हो चुकी है. जेएनयू का छात्र उदास है. जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष प्रणय कृष्णने साल 2011 में यह आलेख लिखा था. 'विद्रोही'पर कोई सतही शोकग्रस्त आलेख से अच्छा था कि उन्हें जीवित मानते हुए याद किया जाए. इस आलेख के लिए प्रणय कृष्ण का आभार. तस्वीर जेएनयू के छात्र उदय शंकर के कैमरे से.]


क्यों मुस्लिम रहनुमाओं की अक्ल पर भरोसा नहीं करना चाहिए?

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अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
एक सिरफिरे ने धार्मिक नफ़रत फैलाने की नीयत से मुसलमानों के पैग़म्बर के बारे में कुछ नागवार बातें कहीं. मुसलमानों ने इस बेहद बेहूदा बयान को रसूल की शान में गुस्ताख़ी माना और उसे ‘गुस्ताख़-ए-रसूल’ कह दिया. जिसे शायद अपने ही संगठन के लोग न जानते हों, वह ‘गुस्ताख़-ए-रसूल’ बनते ही मक़बूल हो गया.

मुस्लिम रहनुमाओं ने एक भद्दी और नज़रंदाज़ कर देने वाली टिप्पणी को हाथों-हाथ लिया और इस बारे में बयानबाज़ियां करके उसे अख़बारों की सुर्खी बना दिया. जो घटिया बयान क़ाबिले ज़िक्र भी नहीं है, उसे धर्म गुरूओं की तवज्जों ने घर-घर तक पहुंचा दिया.

इस्लाम सब्र का संदेश देता है, लेकिन जब बात रसूल की शान में गुस्ताख़ी की आई तो हज़ारों-हज़ार मुसलमान सड़कों पर उतर आए. ऐसा लगा कि मुस्लिम धर्म-गुरूओं की अक़्ल घुटनों में आ गई है जो सड़कों पर आने के लिए उतारू है.

जगह-जगह प्रदर्शन हुए. नारे लगाए गए. कुछ ने तो ‘गुस्ताख़-ए-रसूल’ के क़त्ल का ऐलान तक कर दिया. यह सब उसी धर्म के लोग कर रहे थे, जो सब्र का संदेश देता है. उन पैग़म्बर के आशिक़ कर रहे थे, जिन्होंने खुद पर रोज़ कूड़ा फेंकने वाली बूढ़ी औरत का भी हाल-चाल पूछा था.


LokSatta

इन प्रदर्शनों पर लाखों रूपये और दसियों हज़ार कामकाजी घंटे बर्बाद हो गए. यहां यह बात करनी भी ज़रूरी है कि खुदा-नाख़ास्ता किसी ऐतजाज में कोई ऊंच-नीच होती तो उसकी क़ीमत भी मुसलमानों को ही चुकानी पड़ती.

जितना पैसा और सामूहिक वक़्त इन प्रदर्शनों पर खर्च हुआ, उससे कहीं कम में क़ानूनी तौर पर ‘गुस्ताख़-ए-रसूल’ को सबक़ सिखाया जा सकता था. और हुआ भी यही. आख़िर में क़ानून ने अपना काम किया और ‘गुस्ताख़-ए-रसूल’ गिरफ़्तार हुआ.

चिंतनीय विषय है कि हम देश के क़ानून पर यक़ीन करने के बजाए क़ानून खुद हाथ में ले लेते हैं. कभी केरल में एक लेक्चरर के ज़रिए रसूल की शान में गुस्ताख़ी करने पर हाथ काट दिया जाता है. तो कभी अख़बार में मुसलमानों को ही मुबारकबाद देने के मक़सद से पैग़म्बर की तस्वीर छाप दी जाती है तो अख़बार के दफ्तर को आग के हवाले कर दिया जाता है.

अभी पिछले दिनों महाराष्ट्र में एक अख़बार के दफ्तर में इसलिए तोड़-फोड़ की गई, क्योंकि उस अख़बार ने आइएसआइएस के फंडिंग पर एक लेख में एक कार्टून प्रकाशित किया था, जिसमें पैसे को दिखाने के लिए पिगी बैंक यानी बच्चों के इस्तेमाल का गुल्लक दिखाया गया. इस गुल्लक पर आइएसआइएस का लोगो था, जिस पर अरबी में अल्लाह, रसूल और मुहम्मद लिखा हुआ था.

हालांकि यह कहानी सिर्फ अपने ही देश की नहीं है, बल्कि ऐसी घटनाएं पूरे विश्व में लगातार सामने आते रहे हैं. यानी ऐसी कोशिशें लगातार होती रहीं और हम अपने सारे मसले-मसायल भूलकर इनका विरोध करते रहें. हमने कभी भी यह समझने की कोशिश नहीं की कि आखिर यह सब क्यों हो रहा है? किसने यह आग धधकाई है, जो मासूम जिंदगियों को जाया कर रही है? कौन हैं वह लोग जो इन घटनाओं की कीमत चुका रहे हैं और वह कौन हैं जो इनसे भी फायदा उठाने की कोशिश कर रहे हैं? लेकिन कभी भी हमने इन सवालों पर विचार नहीं किया. इन सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश तक भी नहीं की. बस हर बार की घटना में हम कठपुतली की तरह इस्तेमाल होते रहे जिस मक़सद से उस घटना को अंजाम दिया गया था.

देश के मौजूदा माहौल में मुसलमानों को सब्र से काम लेकर इल्म हासिल करने की ज़रूरत है और क़ानून पर विश्वास कर उसका इस्तेमाल करने की ज़रूरत है. ग़ुस्से का इज़हार, उग्र विरोध-प्रदर्शन या सर क़लम करने जैसे बेहूदा गैर-ज़रूरी ऐलान किसी और के बजाय मुसलमानों को ही ज़्यादा नुक़सान पहुंचाएंगे. मुसलमानों को ठहर कर सोचने की ज़रूरत है कि किसी सिरफ़िरे के बयान पर उन्हें सड़कों पर उतरना क्यों पड़ रहा है. इसके अलावा ऐसे लोगों से निपटने के जो और आसान और ज़्यादा प्रभावकारी तरीक़े हैं, वह इस्तेमाल क्यों नहीं किए जा रहे हैं.

कल फिर कोई और मुसलमानों को भड़काने के नाम पर सोची-समझी साज़िश के तहत पैग़म्बर पर टिप्पणी कर देगा और मुसलमान फिर सड़कों पर उतर आएंगे. किसी कठपुतली की तरह जिसकी डोर किसी और के हाथ में होती है.

वक़्त की ज़रूरत यह है कि सड़कों पर आने को उतारू रहने वाले रहनुमा या धर्म-गुरू ठहरें, सोचें और भविष्य में आने वाले ऐसे बयानों से निपटने का ऐसा तरीक़ा इजाद करें कि आम मुसलमानों को अपने पैग़म्बर की लाज बचाने के लिए सड़कों पर न उतरना पड़े.

आख़िर में सवाल यह है कि जब पैग़म्बर-ए-इस्लाम ने उनके ऊपर कीचड़ उछलने वाली बुढ़िया को जवाब नहीं दिया, उसके प्रति हिंसा या गर्म शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया, तो फिर अब उनकी तौहीन किए जाने पर हिंसक प्रतिक्रिया करने का अधिकार मुसलमानों को किसने दे दिया? वह प्रतिक्रियाएं अपने तौर-तरीक़े से क्यों दे रहे हैं. जब पूरी घटना के साथ पैग़म्बर-ए इस्लाम का नाम जुड़ा है तो फिर इसका जवाब उनके लहजे में क्यों नहीं दिया जा रहा है?

अगर आप यह लेख पढ़ रहे हैं या फिर पैग़म्बर के अपमान या कुरान के अपमान की कोई भी ख़बर पढ़ रहे हैं तो कुछ भी सोचने से पहले यह ज़रूर सोच लीजिएगा कि यदि पैग़म्बर के सामने ऐसे हालात आए होते तो उन्होंने क्या किया होता? अगर आपने एक बार भी ऐसा सोच लिया तो तमाम बातों का जवाब मिल जाएगा.

राजपूतों और व्यवस्था की शिकार एक दलित लड़की

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अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

वैशाली:बिहार में सरकार का चेहरा बदल गया है, मगर मिज़ाज नहीं बदले हैं. पिछले शासनकाल में एक दलित लड़की सीमा (बदला हुआ नाम) के साथ हुई ज़ोर-ज़बरदस्ती की कोशिश का इंसाफ़ अभी तक नहीं हो पाया है.


Letter 1

यह घटना बिहार के वैशाली जिले जुड़ावनपुर थाना क्षेत्र के वीरपुर गांव की है. सीमा की मां फूलमती देवी(बदला हुआ नाम) बताती हैं, ‘मेरी 15 साल की बेटी दर्जी के यहां जा रही थी. तभी रास्ते में राजपूत बिरादरी के कुछ लड़कों ने पहले छेड़खानी की और फिर उसे पकड़कर मकई के खेत में ले जाने लगें. जब मेरी लड़की चिल्लाने लगी तो कुछ लोग जमा हो गए. लोगों को देखकर वह सब भाग गए.’

फूलमती देवी बताती हैं, ‘मेरी बेटी उन सभी को पहचानती है. क्योंकि सारे लड़के गांव के ही थे. नाम सामने आ जाने पर उन्होंने गांव के दलितों की पिटाई की और साथ ही यह धमकी भी दी कि कोई पुलिस के पास गया तो सबको जला डालेंगे. सबकी इज़्ज़त लूट लेंगे. गांव के हम दलित डर गए क्योंकि पूरे गांव में सिर्फ़ दो ही घर पासवान के हैं.’


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फूलमती के मुताबिक़ इस घटना के बाद राजपूतों का मनोबल और बढ़ गया. बार-बार लड़की को उठा लेने की धमकी देते थे. तब हम अपनी सुरक्षा के लिए पुलिस थाने गए. लेकिन पुलिस वालों ने हमें भगा दिया. बल्कि अब उल्टा उन राजपूतों ने हमारी लड़की पर ही केस कर दिया जबकि पुलिस हमारी शिकायत तक लेने को तैयार नहीं हुई.

लड़की के पिता राघव पासवान(बदला हुआ नाम) बताते हैं कि एक संस्था की मदद से हमने कोर्ट में इसकी शिकायत दी. कोर्ट के आदेश पर एफआईआर दर्ज हुई लेकिन पुलिस ने अब तक कुछ नहीं किया. बल्कि अब वे हर दिन जान से मारने की धमकी देते हैं.

राघव बताते हैं, ‘इस गांव में हमारे पास इस घर के सिवाय कुछ नहीं है. आख़िर घर छोड़कर कहां जाएं? हम अपनी फरियाद लेकर रामविलास पासवान के पास भी जा चुके हैं. जीतनराम मांझी को भी पत्र दिया था, तब वह बिहार के मुख्यमंत्री थे. लोजपा नेता पारसनाथ पशुपति को पत्र और जदयू नेता श्याम रजक से भी मुलाक़ात कर चुके हैं. लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ.’

यानी राजपूतों की ज़ोर-ज़बरदस्ती का शिकार इस लड़की का परिवार अब अपनी फ़रियाद लेकर दर-दर की ठोकरें खा रही है. लड़की को गांव छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा है. राज्य सरकार से लेकर केन्द्र के कैबिनेट मंत्री तक वे अपनी शिकायत पहुंचा चुके हैं. मगर कोई सुनने वाला नहीं है.

इस मामले को देख रही एडवोकेट सविता अली का कहना है, ‘पुलिस उन्हीं राजपूतों का साथ दे रही है. अब तक पुलिस ने इस मामले में कुछ नहीं किया है. यह परिवार काफी डरा हुआ है. लड़की को गांव छोड़कर जाना पड़ा तो वहीं मां-पिता भी जान बचाते फिर रहे हैं और पुलिस कुछ भी सुनने को तैयार नहीं है.’

राजपूतों की दबंगई बदस्तूर जारी है और लड़की का परिवार ख़ौफ़ के साये में दिन-रात घुट-घुट कर जीने के लिए मजबूर है. इस मामले की शिकायत नीतीश कुमार तक गई है. हद तो यह है कि राज्य अनुसूचित जाति आयोग भी जून 2014 में ही वैशाली ज़िला के ज़िला अधिकारी और पुलिस अधीक्षक को अभियुक्तों के विरूद्ध त्वरित कार्रवाई करने का आदेश दे चुकी है, उसके बावजूद अब तक कोई कार्रवाई नहीं हुई. आयोग ने दुबारा सितम्बर 2014 में भी आदेश दिया लेकिन नतीजा सिफर ही रहा. जबकि यह घटना 20 मार्च 2014 की है.

फूलमती का कहना है कि चुनाव के दौरान इसी अक्टूबर महीने में हम लोग पटना आकर श्याम रजक से भी मिलें थे. श्याम रजक ने एसपी को फोन भी किया था, बावजूद इसके कोई कार्रवाई नहीं हुई. मुख्यमंत्री से ही अब उम्मीद है कि लेकिन नीतीश कुमार के लोग उनसे मिलने ही नहीं देते. हालांकि उनका कार्यालय भी कार्रवाई के लिए एक पत्र लिख चुका है. ऐसे हम क्या करें और कहां जाएं?

सामाजिक परिवर्तन का नारा देने वाली इस नई सरकार में भी इस मामले की सुनवाई न होना बड़े सवाल खड़े करता है. सबसे महत्वपूर्ण सवाल कि क्या सारे वायदे सिर्फ़ चुनाव तक के लिए ही थे? या चुनाव के बाद भी सियासतदानों को अपने कुछ वायदों की याद बाक़ी है.

लाठियां खाते छात्र और दक्षिणपंथी बाजारू शिक्षा की समस्याएं

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By अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

9 दिसम्बर की इस घटना की रिपोर्ट शायद ही पाठकों तक पहुंच पाई हो. जब संसद मार्च को निकले विभिन्न विश्वविद्यालयों के छात्रों को रायसीना रोड पर रोक कर उनको तितर-बितर करने के लिए पानी की बौछारे और आंसू गैस के गोले छोड़े गए. फिर भी इन जब छात्रों के हौसले पस्त नहीं हुए तो उन पर लाठियां बरसाई गईं. उनके साथ अभद्र बरताव किया गया.

दरअसल ये छात्र नॉन नेट फ़ेलोशिप के लिए और डब्लूटीओ में शिक्षा को बेचे जाने के ख़िलाफ़ यूजीसी दफ़्तर से संसद मार्च के लिए निकले थे. इनमें ही कुछ छात्र पिछले 50 दिनों से दिल्ली में स्थित यूजीसी दफ़्तर के बाहर धरने पर बैठे हैं. दिल्ली के सर्द रातों में भी ये पूरी रात सड़क पर ही गुज़ारते हैं.


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लेकिन सवाल यह है कि जिन छात्रों को क्लास रूम में होना चाहिए वह सड़कों पर क्यों हैं? तो इसका जवाब है कि पहले तो वे अपनी नॉन नेट फ़ेलोशिप को बचाने के लिए बैठे हैं, वही फ़ेलोशिप जिसके कारण इस देश के ग़रीब और आम घरों से आने वाले छात्र भी उच्चतर शिक्षा हासिल करने का सपना देख पाते हैं, क्योंकि इस फ़ेलोशिप में एम. फिल. करने वाले को 5 हज़ार व पीएचडी करने वाले छात्रों को 8 हज़ार रूपये मिलते हैं. लेकिन सरकार ने पिछले 7 अक्टूबर को इसे बन्द कर देने का ऐलान किया. हालांकि छात्रों के व्यापक विरोध के बाद मानव संसाधन मंत्री स्‍मृति ईरानी ने यह साफ़ किया कि नॉन नेट फेलोशिप को बंद नहीं किया जाएगा. बल्कि सरकार नेट और नॉन नेट फेलोशिप दोनों को लेकर एक समीक्षा समिति गठित कर चुकी है. यह समीक्षा समिति दिसंबर 2015 तक मंत्रालय को अपनी रिपोर्ट देगी.

लेकिन छात्रों को सरकार की नीयत साफ़ नज़र नहीं आ रही है. इसलिए छात्रों की मांग है कि इसे दोबारा शुरू करके इसकी रक़म को और बढ़ाया जाए. साथ ही इसे राज्य के दूसरे विश्वविद्यालयों में भी विस्तारित किया जाए और किसी भी ऐसी शर्त को न जोड़ा जाए जिससे कुछ छात्र छंट जाएं –जैसे ‘मेरिट’ का मापदंड.


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धरने पर बैठे इन छात्रों की इस फ़ेलोशिप के साथ-साथ और भी कई मांगे व सवाल हैं. सबसे बड़ा सवाल है कि शिक्षा के क्षेत्र में बजट कटौती और ‘शिक्षा का बाज़ारीकरण’.

सच तो यही है कि हमारे देश में शिक्षा जगत इन दिनों बड़े ख़तरे से दो-चार हो रहा है. यह ख़तरा शिक्षा के बाज़ारीकरण के हाथों में चले जाने का है और सरकार के धीरे-धीरे हाथ खींचते जाने का है. मोदी की अगुवाई वाली सरकार ने कभी जीडीपी का 6 फ़ीसदी हिस्सा शिक्षा पर खर्च करने का वादा किया था, मगर आज ज़मीनी हालत यह है कि जितना पहले खर्च होता था, उसमें भी भारी कटौती कर दी गई है. दरअसल इस पूरी क़वायद का मतलब शिक्षा के क्षेत्र में पहले से बैठे मगरमच्छों को और भी ज़्यादा फ़ायदा पहुंचाना है और आम ग़रीब जनता के बच्चों को शिक्षा से महरूम करके उन्हें ग़रीबी की ओर धकेल देना है.

पहले तो इस सरकार ने शिक्षा के निजीकरण के एजेंडे को अपनाते हुए शिक्षा बजट में 16.5 प्रतिशत की कटौती करते हुए इसे 83,000 करोड़ से घटाकर 69,000 हजार करोड़ रुपये कर दिया गया. और अब सरकार देशी-विदेशी पूंजीपतियों को फ़ायदा पहुंचाने की पूरी कोशिश में है.

इस देश में पिछले साठ साल में ऐसा पहली बार हुआ, जब शिक्षा के बजट में बढ़ोतरी की बजाय इसे घटा दिया गया. इतना ही नहीं, शिक्षा जगत के जानकारों का कहना है कि अब यह सरकार मौजूदा शिक्षा बजट को खर्च करने में भी पिछड़ रही है.

हैरानी की बात है कि यह हालत तब है, जब देश में 60 लाख बच्चे आज भी स्कूल से वंचित हैं और शिक्षा का अधिकार कानून लागू हुए पांच साल हो चुके हैं. इस कानून में निजी स्कूलों में भी 25 प्रतिशत सीटों को आरक्षित करने का प्रावधान था, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने भी अनिवार्यता से लागू करने का आदेश दिया. इसके बावजूद क्रियान्वयन के अभाव में 21 लाख सीटों में से सिर्फ 29 प्रतिशत सीटें ही भरी गईं हैं. खुद मानव संसाधन विकास मंत्रालय यह मानती है कि 2009 के मुक़ाबले 2014 के अंत तक 26 प्रतिशत नामकंन में गिरावट दर्ज की गई है.

मौजूद आंकड़े बताते हैं कि इस समय देश में तीन लाख स्कूल भवनों और क़रीब 12 लाख शिक्षकों की दरकार है. इस कमी के चलते कई स्कूल खुले में चल रहे हैं. जबकि नियम के अनुसार 30 बच्चों पर एक शिक्षक का होना अनिवार्य है, लेकिन देश के लगभग सभी स्कूलों में 100 से अधिक बच्चों पर सिर्फ एक शिक्षक है. जिसका सीधा असर शिक्षा की गुणवत्ता पर पड़ रहा है. इसके अलावा शिक्षा भगवाकरण भी देश में शिक्षा के गुणवत्ता को बर्बाद करने पर तुला हुआ है.

आंकड़े यह भी बताते हैं कि भवन व शिक्षकों की कमी की वजह से स्कूलों पर ताले तक लग रहे हैं. राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, उत्तराखंड सहित कई राज्यों में एक लाख से अधिक स्कूलों में ताले पड़ चुके हैं लेकिन सरकार उदासीन है. सरकार की उदासीनता का सीधा फ़ायदा निजी स्कूलों को मिल रहा है.

अब अगर फिर से उच्चतर शिक्षा की बात करें तो सरकार इसे पूरी तरह से पूंजीपतियों के हाथों बेच देने की तैयारी में है. एक ख़बर के मुताबिक़ 15-18 तक नैरोबी में दुनिया भर के पूंजीपति व्यापारियों के संगठन यानी ‘विश्व व्यापार संगठन’ की बैठक होने वाली है. जिसमें पीएम मोदी शामिल होंगे. शिक्षा के जानकारों के मुताबिक़ पीएम मोदी इस बैठक में शिक्षा के क्षेत्र में रोज़गार करने के लिए दुनिया भर के पूंजीपतियों को न्योता देंगे. यदि ऐसा सच में हुआ तो इस देश में आम जनता से शिक्षा का अधिकार हमेशा के लिए छिन जाएगा और हमारे बच्चों के लिए अच्छी शिक्षा और उच्चतर शिक्षा महज़ एक सपना बनकर रह जाएगा. इसीलिए इसका भी विरोध यूजीसी के दफ़्तर के बाहर बैठे छात्र कर रहे हैं, लेकिन इनकी कोई सुनने वाला नहीं है. न सरकार और न ही मीडिया इनकी ओर तवज्जो दे रही है.

ऐसे में यह पूरी क़वायद कई बड़े सवालों को जन्म देती है. क्या एक सुनियोजित साज़िश के तहत शिक्षा पर इस किस्म के हमले किए जा रहे हैं? क्या दक्षिणपंथी ताक़तें और कारपोरेट जगत की बड़ी ताक़तें दोनों ही अपने फ़ायदे एक मंच पर खड़ी हो गई हैं? और सबसे बड़ा सवाल यह है कि अगर यही सिलसिला चलता रहा तो क्या यह देश फिर से किन्हीं आदर्श व्यक्तित्वों को देख सकेगा, जो बेहद ही विपरित हालातों में पढ़-लिख कर इतने बड़े ओहदे पर पहुंचे और आज भी ग़रीब युवाओं के आदर्श हैं.

आबे-मोदी की यात्रा आज बनारस में, फजीहत में समाज

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By सिद्धांत मोहन, TwoCircles.net

वाराणसी:बनारस में आज जापान के प्रधानमंत्री शिंज़ो आबे बनारस के सांसद और देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ आ रहे हैं. वे काशी विश्वनाथ मंदिर में दर्शन करेंगे फिर दशाश्वमेध घाट पर गंगा आरती देखेंगे और वापिस चले जाएंगे. इसके लिए शहर में तैयारियां की गयी हैं, लेकिन इन तैयारियों की आड़ में सबकुछ डावांडोल और फजीहत से भरा हुआ है.

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इस आगमन के फलस्वरूप की गयी तैयारियां एक किस्म का छलावा है. एयरपोर्ट से लेकर घाट तक के समूचे रास्ते पर पुराने पीले हैलोजन बदलकर उन्हें सफ़ेद एलईडी लाइटों से महज़ दो रोज़ के भीतर बदला गया है. इन लाइटों से ठीक दस मीटर की दूरी पर पुरानी पीली लाइटें अभी भी जल रही हैं, लेकिन उनसे कोई वास्ता इसलिए नहीं होना चाहिए कि आबे-मोदी यहां से नहीं गुजरेंगे. दिखाना यह है कि हम कितनी सहजता से क्योटो हो जाना चाहते हैं, चाहे उसकी कीमत कुछ भी क्यों न हो?

बनारस के अंतर्राष्ट्रीय एयरपोर्ट से लेकर गंगा घाट तक के रास्ते अब गरीबों, भीख मांगने वाले लोगों के लिए नहीं रहे. ये रास्ते अब एक गलीच जगह बन गए हैं. रोज़ सब्जी के ठेले पर सब्जियां और रोज़मर्रा के ज़रूरी सामान बेचने वाले लोग परेशान हैं कि उनसे तीन दिन की रोटी छीन ली गयी है. इस तीन दिन की रोटी का रास्ता तीन दिनों की कमाई से होकर जाता है.

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राइजिंग यूपी का नारा लगाता समाजवादी पार्टी द्वारा तैयार किया गया स्वागत द्वार और बैनर.

यह बनारस का क्योटो मॉडल है, जहां हम सभी पूंजी की चमक से ग्रस्त हैं.

शहर में जगह-जगह पर बांस की बल्लियों से रास्ता रोकने की कवायद का नतीज़ा यह है कि कबीरचौरा मोहल्ले में स्थित मंडलीय चिकित्सालय के आकस्मिक चिकित्सा विभाग के ठीक सामने महज़ इतनी जगह छोड़ी गयी है कि एक चारपहिया को पास करने में मुश्किल हो. लेकिन आकस्मिक चिकित्सा चार पहिया वाहन से ज्यादा एम्बुलेंसों के सहारे चलती है, तय है कि जिसे पार करने में दिक्कत होगी.

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आकस्मिक चिकित्सा विभाग के सामने लगे बांस.

शहर को 'तैयार'करने में मुस्लिम मोहल्लों में भाजपा का काडर सफाई के लिए प्रेरित करता रहा. इसकी ज़रुरत मुस्लिम मोहल्लों में ही क्यों पड़ी? क्योंकि वहां चमड़े के काम होते हैं? यानी क्योटो मॉडल की इस बहस की हाथ से किए जाने वाले छोटे स्तर के कामों की कोई सुनवाई नहीं होनी है.

तीन दिनों से एसपीजी के दौरे लग रहे हैं. रह-रहकर जैमरों की टेस्टिंग हो रही है, यानी रह-रहकर मोबाइल फोन बंद हो जा रहे हैं. दशाश्वमेध घाट पर रोज़ भीख मांगकर गुज़ारा करने वाले लोग खदेड़ दिए गए हैं. इसके जवाब में भाजपा कहती है कि भीख मांगना कमाने का कोई जरिया नहीं है? उन्हें कड़ी मेहनत करके कमाना चाहिए.

दिखावट के लिए लगाई गयीं सफ़ेद लाइटें.

दिखावट के लिए लगाई गयीं सफ़ेद लाइटें.

पूंजी के समाज में ऐसी परम्पराओं का विकसित होना नया नहीं है, लेकिन यह विकास महज़ दो दिनों में घटित हुआ है. समाजवादी पार्टी और भाजपा के बीच का फ़र्क मिट चुका है. पोस्टरों और बैनरों में दोनों ही शिंज़ो आबे का सम्मान-स्वागत करते नज़र आ रहे हैं. दोनों पूंजी के आगे नतमस्तक होते दिख रहे हैं.

दिल्ली के मुसलमान ISIS से कोसों दूर – दिल्ली पुलिस कमिश्नर

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By TwoCircles.net Staff Reporter

नई दिल्ली:दिल्ली के मुसलमानों के जानिब यहां के पुलिस कमिश्नर भीम सिंह बस्सी ने एक बड़ा बयान दिया है. एक समाचार चैनल के कार्यक्रम में शिरकत करते हुए उन्होंने यह क़बूल किया है कि दिल्ली के मुसलमान दहशतगर्दी के सख़्त ख़िलाफ़ है. यहां तक कि वे अपने बच्चों को भी आतंकवाद से दूर रहने की ताकीद करते हैं.

बी.एस. बस्सी ने अपनी बातों को रखते हुए कहा कि दिल्ली के मुसलमानों और मौलानाओं को ISIS से आपत्ति है. दिल्ली के मौलाना खुली ज़बान से बच्चों को आतंक से दूर रखने की बात करते हैं.

भारत के लिए बड़ा ख़तरा ISIS या ISI?बस्सी इस सवाल के जवाब में कहते हैं, ‘इसमें शक नहीं है कि अब तक जिस आतंकवाद ने हमें परेशान किया है, वह पड़ोसी मुल्क से रहा है. भारत में आतंक के पीछे पाकिस्तान का हाथ रहा है.’

पढ़े लिखे लोगों के भी इन संगठनों तक पहुँचने के प्रश्न पर दिल्ली पुलिस कमिश्नर बस्सी ने कहा कि भारत के लिए आतंक कोई नई बात नहीं है. 80 के दशक से ही इसको हम झेल रहे हैं, जो आज भी जारी है.

साथ ही बस्सी ने यह भी कहा कि यह कोई ज़रूरी नहीं है कि जिसके पास पैसा हो, वह आतंक की तरफ़ नहीं बढ़ेगा. जब 10 लाख कमाने वाला धोखाधड़ी कर सकता है, तो डेढ़ लाख कमाने वाला आतंकवादी क्यों नहीं बन सकता.

उन्होंने यह भी कहा कि आतंकी गतिविधियों में शामिल लोगों पर हमारी नज़र बनी रहती है. जो पकड़े गए हैं, उन पर भी हमारी नज़र थी. जब सिर से पानी उपर निकल गया, तो इनको गिरफ्तार कर लिया गया.

पुलिस कमिश्नर बी.एस. बस्सी का बयान इसलिए भी अहम हो जाता है क्योंकि दिल्ली में ऐसे कई मामले आ चुके हैं, जब दिल्ली पुलिस पर मुसलमान युवकों को झूठे आतंकी केसों में फंसाने का आरोप लगा है. हाल में ही राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने मो. आमिर के मामले में दिल्ली सरकार को एक नोटिस के ज़रिए 5 लाख रूपये का मुवाअज़ा देने को कहा है. इस मामले में भी दिल्ली पुलिस पर यह आरोप लगा कि पुलिस ने आमिर को झूठे केस में फंसाकर गिरफ्तार कर लिया था, जिसकी वज़ह से बेगुनाह आमिर को 14 साल जेल में रहना पड़ा. 14 साल के बाद अदालत ने उसे बेगुनाह क़रार दिया और दिल्ली पुलिस को फटकार लगी.

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