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सईदा के चूल्हों को हिंदुओं का है इंतज़ार

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अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

पटना के जिस वीरचन्द पटेल पथ से होकर बिहार की सत्ता गुज़रती है, उसी पथ पर आपको 48 वर्षीय सईदा भी मिल जाएंगी, जो पिछले 30 सालों से लगातार अपने हाथों से बने मिट्टी के चूल्हे बेच रही हैं. बेहद ग़रीब और दो जून की रोटी को तरसती इन आंखों ने लाख मुसीबतें झेलने के बावजूद अपनी रोज़ी-रोटी का ज़रिया नहीं बदला.

किसी ज़माने में हाथ की इस कारीगरी से उनका पेट और परिवार दोनों चल जाता था, लेकिन सबके घरों में गैस-सिलेंडर पहुंच जाने के कारण मिट्टी के चूल्हों की अब कोई मांग नहीं है. ऐसे में उनके चेहरे पर चिंता की लकीरें दिखना आम बात है. लेकिन सईदा की बड़ी चिंता अपनी रोज़ी-रोटी से ज़्यादा हमारे आपसी सौहार्द की है.

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सच तो यह है कि बिहार के फ़िज़ाओं में हाल के चुनाव ने चाहे जितनी भी नफ़रत घोल दी हो, मगर सईदा के दुनिया पर इसका कोई असर नहीं है. हर बार की तरह इस बार भी सईदा ने राजद के दफ़्तर के क़रीब ही मिट्टी के चुल्हों की अपनी दुकान सजा रखी है. उसे अब बस छठ का इंतज़ार है.

वो कहती हैं, ‘हमारी सबसे बड़ी उम्मीद छठ का पर्व है.’ स्पष्ट रहे कि छठ बिहार में हिन्दुओं का सबसे अहम त्योहार है.

आगे सईदा बताती हैं, ‘मैंने जबसे होश संभाला है, कभी भी हिन्दू-मुस्लिम का फ़र्क़ महसूस नहीं किया है. लेकिन इस बार मन में अजीब सा डर है.’ ये बोलने के बाद वो ख़ामोश हो जाती हैं.

वो आगे बोलती हैं, ‘लोग चूल्हे खरीदने आएंगे तो उन्हें मेरे धर्म से कोई मतलब नहीं होगा, बल्कि उनका पर्व मेरे हाथ के बने चूल्हे पर उसी पवित्रता से मनेगा, जैसा पहले से मनता आ रहा है.’

सईदा के हाथों बने मिट्टी के इन चुल्हों की क़ीमत सिर्फ़ 40-50 रूपये ही है. लेकिन जब लोग ज़्यादा मोल-भाव करते हैं तो वो इसे सस्ते में भी बेच देती हैं. वो बताती हैं, ‘पिछली बार मेरे ज़्यादातर चुल्हे बच गए थे. इस बार भी पहले जितने ग्राहक नहीं आ रहे हैं. इसलिए जितना मिल जाता है, उतने में बेच देती हूं.’ उनके मुताबिक़ अभी तक पूरे दिन भर में सिर्फ़ 4-5 चुल्हे ही बिकते हैं.

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सईदा के परिवार में 10 लोग हैं. दो बेटे भी हैं. बहुए भी हैं. और उनके बच्चे भी हैं. लेकिन सईदा की शिकायत है कि बेटे पैसे कमाकर उन्हें नहीं देते. घर का खर्च ज़्यादातर उन्हें ही उठाना पड़ता है. पोते व एक नाती भी हमेशा उनके साथ ही रहते हैं. सईदा के शौहर भी दिनभर मजदूरी करते हैं. लेकिन सईदा का कहना है कि अब वो बूढ़ा हो गया है, ज़्यादा नहीं कमाता. और महंगाई तो आप देख ही रहे हैं.

सईदा का घर वैसे पास में ही है, लेकिन सईदा को इन दिनों पूरी रात सड़क पर ही गुज़ारनी पड़ती है. हालांकि वो यह भी बताती हैं, ‘सारी रात चुल्हों को वैसे ही सड़कों पर छोड़ देती हैं. तब भी कोई नुक़सान नहीं पहुंचाता. कोई चोरी नहीं करता. हां, कभी-कभी जानवरों का डर बना रहता है कि कहीं गाय-बैल आकर तोड़ न दें. इसीलिए इन दिनों सड़क पर ही पूरी रात गुज़ारती हूं. कम से कम छठ तक तो रहूंगी ही.’

सईदा इन दिनों बीमार भी रहती हैं. मिट्टी लाने में भी परेशानी होती है. इस बार वो मिट्टी फूलपुर से लाई हैं. बल्कि बार-बार जाने से बचने के लिए एक ट्रक मिट्टी एक ही बार मंगवा ली हैं. वो बताती हैं, ‘चूल्हे बनाते-बनाते पूरी उम्र निकल गई. तबीयत ख़राब रहती है फिर भी काम करना पड़ता है. काम करना मेरी मजबूरी है बाबू.’ वो यह भी बताती हैं, ‘छठ के बाद अब बोरसी बनाउंगी. चुल्हा तो तुम्हारे काम का है नहीं, लेकिन एक बोरसी आकर ले जाना. तुमको सस्ते में लगा दूंगी. सिर्फ 30 रूपये...’

दरअसल, सईदा हमारे देश के गंगा-जमुनी तहज़ीब के ज़िन्दा रहने की जीती-जागती मिसाल हैं. मुझे पूरा यक़ीन है कि बिहार के जिस जनता ने साम्प्रदायिकता को नकार कर एक धर्मनिरपेक्ष सरकार चुनी है, बिहार के वही लोग सईदा के चुल्हे ज़रूर खरीदेंगे ताकि सईदा के घर भी चुल्हा जलने का इंतज़ाम हो सके.

साथ ही यह भी उम्मीद है कि सईदा के हाथों बने मिट्टी के चुल्हे इस बार छठ में मुहब्बत के प्रसाद बनेंगे. प्यार की ठेकुए व रोटियां पकेंगी और साम्प्रदायिकता पूरी तरह से भष्म हो जाएगी.


‘पार्टी बनाएगी तो बनूंगा डिप्टी सीएम’

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अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

पटना:बिहार में महागठबंधन की शानदार जीत के बाद मुस्लिम नेतृत्व के सबसे बड़े व चर्चित चेहरा बनकर उभर रहे अब्दुल बारी सिद्दीक़ी से TwoCircles.net ने बात की. उनसे यह जानने की कोशिश की कि अल्पसंख्यक आबादी के लिए उनके व उनकी सरकार के पास क्या है? मुसलमानों के विकास की योजना है?


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इसी बीच बात-बात में चर्चा इस बात पर भी कि क्या वो प्रांत के डिप्टी सीएम बनाए जा सकते हैं? तो इस पर अब्दुल बारी सिद्दीक़ी का कहना था कि यह ख़बर मीडिया अपने अंदाज़ पर चला रही है कि मैं डिप्टी सीएम बनूंगा. यह तो गठबंधन के नेता तय करेंगे कि कौन क्या बनेगा?

बातचीत में उन्होंने यह भी कहा, ‘हम लोग ईमान पर भी यक़ीन करते हैं और ऊपर वाले पर भी. जो होता है, उसकी मर्ज़ी से होता है. हमलोग सिर्फ़ कोशिश करते हैं.’ हालांकि उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि वो कोई भी कोशिश फिलहाल नहीं कर रहे हैं.

उनका स्पष्ट तौर पर कहना था, ‘पार्टी जो तय करेगी, उसे मैं मानूंगा. उस मानने में कोई मलाल नहीं होगा.’ हालांकि एक लंबी बातचीत में उन्होंने यह भी कहा कि पार्टी या गठबंधन अगर उन्हें डिप्टी सीएम बनाता है तो वे ज़रूर बनेंगे. आख़िर कौन नेता नहीं चाहता कि उसे सरकार में शीर्ष का पद मिले.

स्पष्ट रहे कि सूत्रों के हवाले से TwoCircles.net को यह ख़बर मिली थी कि अब्दुल बारी सिद्दीक़ी को बिहार का डिप्टी सीएम बनाया जा सकता है. पार्टी में इस बात की चर्चा है कि अब्दुल बारी सिद्दीक़ी की वरीयता को देखते हुए उन्हें डिप्टी सीएम बनाया जा सकता है.

अब्दुल बारी सिद्दीक़ी का नाम इससे पहले भी इस पद के लिए आ चुका है. फरवरी 2005 में भी जब रामविलास पासवान ने मुस्लिम मुख्यमंत्री की बात की थी तब अब्दुल बारी सिद्दीक़ी के नाम पर ही विचार किया गया था. हालांकि इस पर कई अटकलें भी सामने आ रही है और मीडिया में इस बात की भी चर्चा है कि लालू याजव यह पद अपने परिवार में किसी को दे सकते हैं. यह बात अलग है कि खुद लालू यादव एक टीवी चैनल के इंटरव्यू में यह कह चुके हैं कि उनके दोनों बेटे अभी राजनीति सीखेंगे.

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क्यों पेरिस हमलों के विरोध में तस्वीर बदलना एक विवादास्पद फैसला है?

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सिद्धांत मोहन, TwoCircles.net

पेरिसमें शुक्रवार को हुए आतंकी हमले में 150 से ज़्यादा निर्दोष जानें चली गयीं. कई घायल भी हुए. इस दुखद और भर्त्सनायोग्य घटना के बाद समूचे विश्व में शोक है, लोग उदास हैं और फ्रांस के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हैं.

इसी बीच फेसबुक ने फ्रांस के तिरंगे झंडे का सहारा लेते हुए एक ऐसी मुहिम चलाई है, जिसके तहत पूरे विश्व के फेसबुक यूज़र अपनी तस्वीर को फ्रांस के राष्ट्रीय ध्वज के साथ मिला सकते हैं. लोग इस मुहिम में फेसबुक का साथ देते हुए अपनी तस्वीरें बदल भी रहे हैं, जिससे यह भी ज़ाहिर होता जा रहा है कि फ्रांस के इस कठिन समय में डिजिटल क्रान्ति की बदौलत विश्व उसके साथ खड़ा है.

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लेकिन कोई यह कहे कि पेरिस हमलों के विरोध में तस्वीरें बदलना एक गलत फैसला है, तो कैसा लगेगा? ज़ाहिर है कि अजीब लगेगा लेकिन इस गलती को समझने के लिए कुछ गूढ़ बातों को भी ध्यान में रखना होगा.

फेसबुक कई बहानों से प्रोफाइल पिक्चर बदलने की मुहिम लम्बे समय से चलाता रहा है. समलैंगिक मुद्दे हों या भारत में अपनी डिजिटल इंडिया मुहिम का परोक्ष रूप से समर्थन कराना हो, फेसबुक की यह कारस्तानियां पुरानी हैं.

फेसबुक के इस हालिया कदम के बाद यह स्पष्ट होता जा रहा है कि विश्व में हो रहे आतंकी हमलों में शिकार हो रही मानवता सिर्फ गैर-मुस्लिम आबादी है. थोड़ा और परिष्कृत करते हुए कहें तो इन हमलों में हलाल हो रही मानवता का आशय सिर्फ उन देशों की जनता से है जिनके सहयोग से वैश्विक आर्थिक नीतियां निर्धारित होती हैं.

यदि फेसबुक की इस मुहिम को एकदम वैध मानते हुए बात करें तो समझ में आता है कि पेरिस हमलों के एक रोज पहले हुए लेबनान की राजधानी बेरुत में हमले में मारे गए 50 शिया मुसलमानों को मानवता से नहीं जोड़ना चाहिए. यह भी एक तथ्य है कि एक हफ्ते पहले रूस के एक हवाईजहाज को बीच हवा में ही मार गिराया गया, लेकिन बेरुत में हुए हमलों की तरह रूसी विमान पर हुआ यह हमला भी मीडिया की खबरों से दूर रहा. दो दिनों पहले बग़दाद में एक शवयात्रा में हुए धमाके में भी 19 निर्दोष मौते हुईं लेकिन इनसे भी मीडिया – खासकर भारतीय मीडिया – नावाकिफ़ है. इससे यह ज़ाहिर है कि सहानुभूति का स्तर – जो कि अब मीडिया से ही निर्धारित हो रहा है – बेरुत, रूस और बग़दाद के मामलों में कहीं नहीं दिख-टिक रहा है.

पैसा उगाही पत्रकारिता के ज़माने में जब अधिकतर चैनलों के पत्रकार लन्दन दौरे के लिए हरे-भरे हो रहे थे, तो वे यह कहीं भूल भी रहे थे कि मीडिया एक हिस्सा उन्हें वॉच भी कर रहा है. फेसबुक की एक सेफ्टी चेक की मुहिम भी है जो लम्बे समय से चली आ रही है. इस बार भी इस मुहिम को सिर्फ पेरिस हमलों के लिए ही एक्टिवेट किया गया है. ऐसे समय में फेसबुक के संस्थापक मार्क ज़ुकरबर्ग की स्पष्ट जवाबदेही भी अपरिहार्य है.

हालांकि मार्क ने अपने फेसबुक प्रोफ़ाइल पर कहा भी है कि लोगों ने उनसे पूछा है कि सिर्फ पेरिस के लिए सेफ्टी चेक का इस्तेमाल क्यों, अन्य जगहों के लिए क्यों नहीं? इस पर मार्क का जवाब है कि हम सभी लोगों के लिए बराबरी से सोचते हैं और इन दुर्घटनाओं में प्रभावित लोगों की हम पूरी शिद्दत से मदद करेंगे. लेकिन मार्क का यह बयान पश्चिमी देशों की आर्थिक ढाँचे और उससे प्रभावित होने वाली सोच का सही विश्लेषण नहीं है.

चुनाव बाद बिहार की छठ पूजा

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अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

पटना:‘बिहार जीत’ पर दो-दो दीवाली मनाने के बाद छठ के मौक़े पर भी पटना के लोगों में ज़बरदस्त उत्साह नज़र आया. गंगा घाट पर भी आस्था का अद्भुत नज़ारा देखने को मिला. बिहार में करारी हार के भाजपा के गायब नेता एक बार फिर से लोगों के बीच नज़र आए. पानी के जहाज पर सवार होकर लोगों को छठ की मुबारकबाद देते दिखें.

पटना में गंगा नदी किनारे छठ का अपना एक अलग महत्व है. शायद यही कारण है कि पटना के आस-पास के ज़िलों से भी लोग छठ का पवित्र त्योहार मनाने पटना ही आते हैं, क्योंकि लोगों में यह मान्यता है कि गंगा घाट पर सूर्य को अर्घ्य देने से सारी मनोकामना पूरी हो जाती है.

हिन्दुओं के पवित्र त्योहार ‘छठ’ को लेकर पटना के मुस्लिम बस्तियां भी अलग-अलग तरीक़ों के सजावट से जगमगाती दिखीं. पटना के सब्ज़ी-बाग को विशेष तौर पर बिजली के कुमकुमों से सजाया गया था. चौराहे पर छठी मैया की प्रतिमा भी स्थापित की गई थी. अनिसाबाद से लेकर फुलवारीशरीफ़ तक हिन्दू-मुस्लिम दोनों नौजवानों ने सड़क की सफ़ाई की, फिर पूरे सड़क पर पानी का छिड़काव करके सड़क के दोनों किनारे चूना लगाते नज़र आए.

छठ-व्रतियों को कोई तकलीफ़ न हो. पैरों या बदन में कोई कंकड़ न चुभे, इसके लिए पटना के दरियापुर इलाक़े के मुसलमानों ने 10 दिनों पहले से सफ़ाई अभियान शुरू कर दिया था. किसी के आस्था को ठेस न पहुंचे, इसे ध्यान में रखते हुए पटना के कई मुहल्लों में मीट आदि के बिक्री पर रोक लगा दी गयी थी. कई इलाक़ों में मुसलमानों की ओर से सड़क पर कालीन भी बिछाए गए थे. कई जगह स्वागत-द्वार व रौशनी की व्यवस्था भी यहां के मुसलमानों ने की थी.

दरअसल, छठ दूसरे तमाम पर्व-त्योहारों से थोड़ा अलग है. बल्कि यह उत्सव नहीं, व्रत है. एक अनुष्ठान है, जिसे चार दिनों तक किया जाता है. इसीलिए बिहार में इसे महापर्व का दर्जा दिया गया है. इस त्योहार में रोशनी के प्रतीक यानी सूर्य की पूजा की जाती है.

सरकार की ओर से घाटों पर देखरेख व नागरिक सेवा के लिए पटना के मुस्लिम टीचरों को ड्यूटी पर तैनात किया गया था.

TwoCircles.net ने बिहार के इस सबसे बड़े पर्व से जुड़े प्रतीकों को कैमरे क़ैद करने की कोशिश की, जिसे आप भी यहां देख सकते हैं.

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कल गांधी मैदान में नीतीश की ताजपोशी, देखें मेहमानों की सूची

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अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

पटना:छठ का त्योहार ख़त्म होते ही पटना में राजनीतिक हलचल फिर से तेज़ हो गई है. नीतीश कुमार की ताजपोशी का गवाह बनने के लिए बिहार के दूसरे ज़िलों से भी महागठबंधन के कार्यकर्ता व नेता पटना पहुंचने लगे हैं. अधिकतर होटलों के कमरे अब फुल हो चुके हैं. जिन्हें कमरा नहीं मिल पाया वो अपने रिश्तेदारों के यहां डेरा डाल चुके हैं. क्योंकि मामला किसी भी हालत में नीतीश की ताजपोशी में शामिल होने का है. सरकारी मेहमानों के लिए पटना के मौर्या सहित कई होटलों और राजकीय अतिथिशाला में ठहराने के प्रबंध किए गए हैं.


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यूं तो इससे पूर्व नीतीश कुमार की बतौर मुख्यमंत्री दो बार ताजपोशी हो चुकी है. लेकिन इस बार ताजपोशी का उत्साह कुछ अलग तरह का है. यह ताजपोशी पूरे भारत में इतिहास तो बनेगी ही, साथ ही देश में भविष्य की राजनीति को भी इससे जोड़कर देखा जा रहा है.

ऐतिहासिक गांधी मैदान को सजाया जा रहा है. गांधी मैदान के आस-पास सड़कों की डेन्टिंग-पेन्टिग भी जारी है. खुद प्रमंडलीय आयुक्त आनंद किशोर गांधी मैदान में बैरिकेडिंग, जलापूर्ति, शौचालय और पार्किंग का मुक़म्मिल इंतजाम सम्हाल रहे हैं. जिलाधिकारी डॉ. प्रतिमा एस.वर्मा और एसएसपी विकास वैभव भी कई बार गांधी मैदान का निरीक्षण कर पार्किंग की व्यवस्था के साथ-साथ जन-सुविधाओं के लिए स्थल का निर्धारण कर चुके हैं.


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हालांकि ऐसा माना जा रहा है कि नीतीश कुमार का यह ‘शपथ-ग्रहण समारोह’ भाजपा व पीएम मोदी के विरोधी नेताओं का ‘मिलन-समारोह’ होगा. लेकिन इसके बावजूद खुद नीतीश कुमार ने पीएम मोदी को फोन कर अपने शपथ-ग्रहण समारोह में शामिल होने का न्योता दिया है, जिसे पीएम मोदी ने स्वीकार कर लिया है. लेकिन बताया जा रहा है कि पीएम मोदी अपने पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के कारण संभवत: इस ताजपोशी में शिरकत नहीं कर पाएंगे. उनकी जगह संसदीय कार्य मंत्री वेंकैया नायडू और केंद्रीय राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) राजीव प्रताप रूडी केंद्र सरकार की ओर से इस शपथ-ग्रहण कार्यक्रम में शामिल होंगे. हालांकि सूत्र बताते हैं कि नीतीश कुमार ने गृहमंत्री राजनाथ सिंह, वित्तमंत्री अरूण जेटली, विदेशमंत्री सुषमा स्वराज और अन्य केंद्रीय मंत्रियों को भी इस कार्यक्रम में आमंत्रित किया है.

इस ताजपोशी में शामिल होने वाले मेहमानों की एक सूची जारी कर दी गई है. लेकिन इसके अलावा भी कई अहम लोगों के इस समारोह में शामिल होने की ख़बर मिल रही है. इस बीच ख़बर यह भी है कि इस समारोह में भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी और सांसद शत्रुघ्न सिन्हा भी शामिल हो सकते हैं. उम्मीद है कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी भी इस समारोह में आ सकती हैं, हालांकि अभी तक उनके आने का आधिकारिक पुष्टि नहीं हुई है.

ताजपोशी के इस शानदार व भव्य समारोह में शामिल होने वाले प्रमुख अतिथियों की सूची आप यहां देख सकते हैं:


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क्यों बिहार चुनाव के नतीजे लेफ्ट के लिए आशाजनक नहीं हैं?

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अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

पटना:बिहार के चुनावी नतीजों के साथ वामदलों की अहमियत और उनके प्रदर्शन पर चर्चा का बाज़ार गर्म है. जहां यह चुनाव राजद और कांग्रेस के लिए किसी स्वप्न से कम नहीं है, वहीं वामदलों का प्रदर्शन भी एक रोचक घटना है.

आंकड़े इस बात के गवाह है कि लेफ्ट अपनी पूरी मज़बूती के साथ इस चुनाव में अपने वजूद का अहसास कराने के लिए जुटी रही, मगर नतीजों ने कुछ और ही हक़ीक़त बयान की. आज़ादी के बाद अब तक के सफ़र में लेफ्ट पार्टियां बिहार में धीरे-धीरे अपना जनाधार खोती नज़र आई हैं. 2010 में तो स्थिति और भी गंभीर हो गई लेकिन इस बार भाकपा(माले) ने 3 सीटें लाकर लेफ्ट पार्टियों की धूमिल होती छवि को ज़रूर बचा लिया है. हालांकि यहां इस तथ्य को भी ध्यान में ज़रूर रखना चाहिए कि माले 1990 से बिहार के चुनावी जंग में शामिल हो रही है.


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1951 से 2015 तक के बिहार विधानसभा चुनाव पर ग़ौर करें तो लेफ्ट पार्टियों को सबसे अधिक सीटें 1995 के चुनाव में आई थी. इस बार लेफ्ट पार्टियों ने 38 सीटों पर जीत हासिल की थी. इन 38 सीटों में 26 सीटें सीपीआई, 6 सीटें सीपीआई (एम) और 6 सीपीआई (एमएल) को मिली थी. हालांकि 1972 के चुनाव में सीपीआई ने अकेले 35 सीटें हासिल की थी.

आंकड़े बताते हैं कि 1995 के बाद से लेफ्ट पार्टियों की हालात धीरे-धीरे ख़राब होती गई. 2000 में लेफ्ट पार्टियों को 13 सीटें मिली. उसके बाद फरवरी 2005 में 6 तो आगे चलकर नवम्बर 2005 में 9 सीटें हासिल हुईं. लेकिन 2010 में लेफ्ट एक सीट पर पहुंच गई. अब इस बार 3 सीटें हासिल की हैं. यानी गरीबों के हक़ की लड़ाई लड़ने की पहचान रखने वाली इन पार्टियों के समक्ष आज अपना वजूद बचाने का संकट नज़र आ रहा है, तो यह चिन्ता का विषय ज़रूर है.

चुनावी कवेरज के दौरान ज़िला समस्तीपुर के विभूतिपुर विधानसभा क्षेत्र में TwoCircles.net की टीम गयी थी. यह वही क्षेत्र है जो कभी वामपंथियों के लिए मास्को कहलाता था. वामपंथी इसे लालगढ़ के रूप में भी शुमार करते हैं तो वहीं कुछ लोग इसे भारत के लेनिनग्राद के नाम से भी जानते हैं. एक वक़्त था कि सीपीएम के रामदेव वर्मा यहां राज करते थे. रामदेव वर्मा यहां से 6 बार जीत दर्ज करके विधायक रह चुके हैं, लेकिन 2010 में जदयू के राम बालक सिंह ने वामपंथियों के इस क़िले को भेदकर समाजवादियों का झंडा गाड़ दिया था और इस बार भी झंडा जदयू ने ही गाड़ा है.

विभूतिपुर में हमारी मुलाक़ात मनीष से हुई जो खुद को लेनिन कहलाना पसंद करते हैं. मनीष की बातें कई मायनों में अहम थी. लेफ्ट के साथ जुड़े होने के बाद भी उन्होंने स्पष्ट तौर पर कहा था, ‘इस बार जीत नीतीश की ही होगी.’ यह पूछने पर कि ऐसा क्यों? आप तो खुद को वामपंथी विचारधारा का बता रहे थे. इस सवाल पर मनीष ने थोड़ी मायूसी के साथ कहा था कि विचारधारा तो अभी भी वही है लेकिन हमारी विचारधारा में कुछ मतलबी नेता भी शामिल हो गए हैं. मनीष ने कहा था, 'हमारी लड़ाई दक्षिणपंथियों से है. ऐसे में हमें उसका साथ देना चाहिए जो हमारे दुश्मन को मैदान में पटखनी दे रहा हो.’

बकौल मनीष, अब लेफ्ट पार्टियों के नेताओं की कथनी व करनी में धीरे-धीरे काफी फ़र्क आ रहा है. यही वजह है कि बिहार से वामपंथियों का दबदबा लगभग ख़त्म-सा हो गया है. यह सोचने की बात है कि जब आपकी लड़ाई मोदी से है तो क्यों नहीं महागठबंधन के साथ शामिल होने की कोशिश की गई? हद तो यह है कि वामपंथियों में भी एकता नहीं हैं. कई जगहों पर सीपीआई और सीपीएम अलग-अलग लड़ रहे हैं और कह रहे हैं कि दोस्ताना लड़ाई है. इलाके के वामपंथियों का सवाल है कि क्या लड़ाई भी कभी दोस्ताना होती है क्या?

इन बातों व सवालों को जानने-समझने के लिए हमने लेफ्ट से जुड़े कई नेताओं से बात व मुलाक़ात की. सीपीआई से जुड़े सुमन शरण का कहना था कि इस बार लड़ाई हमारे पहचान की थी. हमने कई बार तथाकथित सेकुलर जमाअतों को अपना समर्थन दिया है. लेकिन इस बार एनडीए व महागठबंधन मेरी नज़र में बराबर हैं. नीतीश कुमार का सेकूलरिज़्म से कोई सम्बन्ध नहीं है. ये सभी मतलबी लोग हैं. हालांकि वे बताते हैं कि पहली बार 6 लेफ्ट पार्टियों ने मिलकर अपना गठबंधन बनाया था. ये बिहार में पहली बार हुआ. इसे हमें आगे भी बरक़रार रखना होगा. कामयाबी ज़रूर मिलेगी.

वहीं दूसरे लोगों का कहना था कि राजनीतिक पार्टियां अब प्राईवेट लिमिटेड कम्पनी बन चुके हैं. सारा खेल पैसों का है. लेकिन लेफ्ट पार्टियों के पास आधुनिक प्रचार-प्रसार के साधन नहीं हैं. भले ही उन्हें सीटें न मिल रही हों लेकिन हमारा जनाधार कम नहीं हुआ है. उनकी दलील उनके वोटिंग प्रतिशत पर आधारित है.

आंकड़े बताते हैं कि सीपीआई (एमएल)(एल) को 5,87,701 लोगों ने इस बार वोट दिया है. सीपीआई को 5,16,699 मतदाताओं ने पसंद किया है तो वहीं सीपीआई (एम) के झोली में भी 2,32,149 वोट आते दिखें हैं. लेकिन चुनाव नतीजे यह भी बताते हैं कि कई सीटों पर इन वोटों ने बीजेपी की राह ज़रूर हमवार की है. इस बारे में पूरी रिपोर्ट हम जल्द लेकर हाज़िर होंगे.

पार्टियों के दावे जो भी हों लेकिन भारत में लेफ्ट की राजनीति दिनोंदिन कमज़ोर होती जा रही है. सभी वामदलों का एक-दूसरे से 'दोस्ताना संघर्ष'ज़ाहिरा तौर पर लेफ्ट पार्टियों के मुहिम को और कमज़ोर करता जा रहा है. कहीं न कहीं एक अदद और दमदार नेतृत्व का अभाव व पार्टी के प्रचार की कमी ने भी लेफ्ट को कमज़ोर करने का काम किया है. ऐसे में बिहार चुनाव के नतीजों को लेफ्ट के लिए उम्मीद के नहीं हताशा के कम असफल अध्याय की तरह देखना चाहिए.

महागठबंधन के लिए आसान नहीं है विधानसभा अध्यक्ष का चयन करना

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By राजन झा

नवगठित बिहार विधानसभा में अध्यक्ष के पद को लेकर महागठबंधन में आम सहमति बनाना कठिन होगा. महागठबंधन के तीनों घटक दलों कांग्रेस, जनता दल यूनाइटेड और राष्ट्रीय जनता दल द्वारा इस पद के लिए अघोषित तौर पर अपनी दावेदारी पेश की गई है.

गठबंधन के सभी दल अध्यक्ष पद पर अपने पसंदीदा व्यक्ति को ही बैठाने की कोशिश में है. राजद की तरफ से अब्दुल बारी सिद्दीक़ी, कांग्रेस की तरफ से सदानंद सिंह और जनता दल यूनाइटेड की ओर से श्रवण कुमार का नाम प्रमुखता से लिया जा रहा है. ये तीनों नेता अपने अपने दलों के शीर्ष नेतृत्व के काफी विश्वस्त माने जाते हैं.



विधानसभा में अध्यक्ष की भूमिका सत्ता-पक्ष और विपक्ष के बीच एक तटस्थ अंपायर की होती है. विपक्ष सरकार की सकारात्मक आलोचना करे, इसकी पर्याप्त गुंजाइश हो, इसकी जिम्मेदारी भी विधासभा के अध्यक्ष पर होती है. परन्तु अब तक के बिहार विधानसभा के इतिहास में अध्यक्ष की तटस्थ भूमिका पर समय-समय पर प्रश्न खड़े किये जाते रहे हैं. सन् 1980 में अजीबोगरीब स्थिति उत्पन्न हुई जब तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष शिवचन्द्र झा ने मुख्यमंत्री भगवत झा आज़ाद को विधानसभा के नेता के रूप में मान्यता प्रदान नहीं की क्योंकि भगवत झा आज़ाद विधानसभा के सदस्य न होकर विधानपरिषद के सदस्य थे. लालू यादव के प्रथम कार्यकाल के दौरान तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष ने अपने ही दल के मंत्रियों की आलोचना कर सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया. हाल ही में विधानसभा अध्यक्ष उदय नारायण चौधरी द्वारा कुछ जदयू विधायकों की सदस्यता समाप्त करना और बाद में माननीय न्यायालय द्वारा इनकी सदस्यता को पुनः बहाल करने वाले ऐसे अनेकों उदहारण हैं जिससे अध्यक्ष की निष्पक्ष भूमिका संदेह के घेरे में आई.

संवैधानिक व्यवस्था के अंतर्गत विधानसभा के अन्दर अध्यक्ष का निर्णय अन्तिम होता है. हां, यह बात ज़रूर है कि अध्यक्ष के निर्णयों की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है. परन्तु, अक्सर ऐसा देखा जाता है कि अध्यक्ष द्वारा लिए गए निर्णय का राजनीतिक प्रभाव पड़ता है जिसकी भरपाई आमतौर पर न्यायिक समीक्षा से नहीं हो पाती है.

उपरोक्त तथ्यों के मद्देनजर अध्यक्ष पद का सभी राजनीतिक दलों के लिए बढ़ता महत्व लाजमी है. जरूरत इस बात की है कि अध्यक्ष पद की गरिमा और इसकी निष्पक्षता को कैसे वापस लाया जाए? गठबन्धनों के दौर में जहां आए दिन विधायकों के पाला बदल कर दुसरे दलों का दामन थामना आम बात है. ऐसे में क्या यह कार्य राजनीतिक दल आपस में सहमति बना कर पाएंगे? या इसके लिए सिविल सोसाइटी और बुद्धिजीवी वर्गों को आगे आना होगा?

[लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में शोध छात्र हैं. यह उनके अपने विचार हैं.]

लालू-नीतीश के ब्लॉक-बस्टर की रिलीज़ और ज़ाहिर सवाल (देखें तस्वीरें)

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अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

पटना:नीतीश कुमार पांचवी बार बिहार के मुख्यमंत्री बने. मगर पहली बार हुआ जब उनके मंत्रिमंडल में लालू की पार्टी भी हिस्सेदार हुई. लालू के दोनों बेटों ने शपथ ली. मंत्रिमंडल के बंटवारे में भी लालू की ही चली. मोटे मलाईदार पद लालू के पार्टी के खाते में गए.

डिप्टी सीएम भी लालू के छोटे बेटे तेजस्वी यादव को बनाया गया. तेजस्वी इसके अलावा पथ निर्माण, भवन निर्माण, पिछड़ा वर्ग एवं अति पिछड़ा वर्ग कल्याण मंत्रालय की ज़िम्मेदारी भी संभालेंगे. वहीं लालू के बड़े बेटे तेजप्रताप यादव को बिहार का स्वास्थ्य मंत्री बनाया गया. साथ ही वे लघु जल-संसाधन और पर्यावरण एवं वन विभाग मंत्रालय भी संभालेंगे.

कुल मिलाकर मोदी विरोधी मुहिम के साथ सत्ता में आए महागठबंधन ने अपनी सरकार की तस्वीर पेश कर दी. यह तस्वीर बहुत-सी उम्मीदें पैदा करती है, मगर साथ ही कई आशंकाओं को भी जन्म देती है.

उम्मीदें इस बात की कि नीतीश कुमार सुशासन के अपने मंत्र को पांचवी बार भी अमली-जामा पहनाने की कोशिश करेंगे, मगर आशंकाएं इस बात की कि कहीं परिवारवाद, वंशवाद, भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार की आंधी सारे किए-कराए पर पानी न फेर दे.

इन उम्मीदों व आशंकाओं के साथ लोग दिन के 11 बजे से ही आम लोग व पार्टी कार्यकर्ता पैदल गांधी मैदान की ओर चलने लगे थे. क़रीब 12 बजे गांधी मैदान का गेट खोला गया. लोगों को क़तार लगाकर चेकिंग के बाद अंदर जाने दिया जा रहा था. बाहर कांग्रेस के युवा कार्यकर्ताओं में काफी जोश दिख रहा था.

भले ही इस शपथ-ग्रहण समारोह में समाजवादी पार्टी का कोई भी नेता शामिल न हुआ हो, लेकिन गांधी मैदान के आस-पास की सड़कों पर सपा के झंडे व बैनर दिख रहे थे. हर जगह अखिलेश यादव के पाटलीपुत्र आगमन की बधाई दी जा रही थी.

दिन के एक बजे मंच पर सबसे पहले लालू के दोनों बेटे पहुंचे. फिर लालू-राबड़ी भी मंच पर पहुंच गए. फिर एक-एक करके मंच पर नेता आने लगें. नीतीश कुमार व लालू यादव बाहर से आने वाले मेहमानों को रिसीव करते रहे. फोटो का दौर चलता रहा. सुशील मोदी व नंदकिशोर यादव भी पहुंचे, लेकिन तुरंत मंच के आखिरी कोने में जाकर बैठ गए.

कुछ ही देर में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल भी पहुंचे. पहले नीतीश ने हाथ मिलाया फिर लालू ने हाथ मिलाते हुए गले से लगा लिया. ऐसा होना था कि गांधी मैदान में लोग लालू के नारों के साथ चिल्ला पड़े. उसके बाद एक-एक करके नेता आते गए और मंच भरता गया.

शपथ ग्रहण समारोह अपने नियत समय 2 बजे से शुरू हुआ. सबसे पहले नीतीश कुमार ने शपथ ली, फिर तेजस्वी व तेजप्रताप और उसके बाद अब्दुल बारी सिद्दीकी ने. फिर एक के बाद एक नेता आते गए और शपथ लेते रहे.

लालू के बेटे तेजप्रताप ने अपने शपथ में ‘अपेक्षित’ को ‘उपेक्षित’ पढ़ डाला तो लोगों ने खूब चुटकी ली. न्यूज़ चैनलों के लोग चिल्ला पड़ें कि आज की न्यूज़ मिल गयी. शपथ का दौर खत्म होने के क़रीब आ रहा था लेकिन लोग राहुल गांधी का इंतज़ार कर रहे थे. शपथ के बीच में राहुल गांधी भी पहुंच गए. सबसे पहले लालू यादव से हाथ मिलाया. फिर एक-एक करके आगे की पंक्ति के नेताओं से मुलाक़ात की. इधर मैदान में पटाखे बजते रहे. साथ ही कई तरह के भोजपुरी गानों पर भी लोग झूम रहे थे. एक गाना मोदी पर भी था.

इस प्रकार शपथ-ग्रहण समारोह समाप्त हुआ. लेकिन इस बीच ज़्यादातर लोगों के मन में कई सवाल थे. लोगों की तरह-तरह की बातें थी. खासतौर लालू व उनके बेटों की बात अधिक चल रही थी. दरअसल, बिहार की यह खिचड़ी सरकार कई मायनों में विरोधाभासों से भरी हुई है. एक ओर नीतीश कुमार भ्रष्टाचार मुक्त सुशासन की बात करते हैं, वहीं उनकी कैबिनेट में जगह पाने वालों का बैकग्राउंड कई बड़े सवाल खड़े करता है. सवाल इसलिए भी बड़े हो जाते हैं, क्योंकि इन चेहरों के कैबिनेट में शामिल होने का आधार यानी इनकी योग्यता क़तई नहीं है.

ऐसे में अगले पांच साल बिहार की तक़दीर में क्या होगा. सबकी निगाहें इस टिकी हुई हैं. अगर यह प्रयोग सफल रहा तो पूरे देश में मोदी विरोधी राजनीति की शुरूआत होगी. मगर यदि यह प्रयोग जंगल-राज और भ्रष्टाचार के वायरस का शिकार हो गया तो यह मानना गलत न होगा कि साम्प्रदायिकता विरोधी एक बड़ी मुहिम देशभर में आंखें खोलने से पहले ही ज़मींदोज़ हो जाएगी.

देखें शपथ-ग्रहण समारोह की तस्वीरें...

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बिहार: नतीज़ों के बाद साम्प्रदायिकता की आग

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अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

09 नवम्बर, 2015:सारण जिले के नगरा ओपी थाना क्षेत्र के नगरा बाज़ार में महागठबंधन की जीत पर जश्न मनाने के दौरान दो पक्षों में मारपीट हुई. इस मारपीट ने कुछ ही देर में हिंसा का रूप धारण कर लिया. कई गाड़ियों के शीशे तोड़ दिए गए. चार लोग घायल भी हुए. मौक़े पर पहुंच कर पुलिस ने हालात को क़ाबू में किया.

09 नवम्बर, 2015:सीवान शहर के मक़दूम सराय में दो गुटों में जमकर मारपीट हुई. हथियार भी लहराए गए. इलाक़े काफी तनाव का माहौल बन गया.

09 नवम्बर, 2015:आरा में महागठबंधन की जीत की खुशी में पटाखा छोड़े जाने पर एक छात्र की हत्या का मामला सामने आया. जिसके बाद पूरा शहर धधक उठा. जमकर तोड़फोड़ व आगज़नी की गई. पुलिस ने बड़ी मुश्किल से हालात को क़ाबू में किया.

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महावीरी अखाड़ा(फ़ाइल फोटो

12 नवम्बर, 2015 :पटना के फुलवारीशरीफ़ थाना से सटे इलाके इसापुर में दीवाली के अगले दिन देवी काली प्रतिमा विसर्जन के दौरान जमकर मारपीट व पथराव हुआ, जिसमें तीन पुलिसकर्मी सहित कई घायल हुए. इस घटना में कई दुकान व वाहन भी क्षतिग्रस्त हुए. पुलिस-प्रशासन की सूझबूझ से इस घटना पर तुरंत काबू पा लिया गया. पुलिस अभी भी इलाक़े में तैनात है.

15 नवम्बर, 2015:पश्चिम चम्पारण के योगापट्टी ब्लॉक के तहत आने वाले अमीठिया गांव में एक सम्प्रदाय के लोगों ने दो टेलर मिट्टी लाकर एक मस्जिद के सामने गिरा दी. मस्जिद से जुड़े लोगों द्वारा मना करने पर मिट्टी डालने वाले हिंसा पर उतर आएं. मस्जिद के सामने लगे लोहे के गेट को तोड़ डाला. एक बड़ी भीड़ मस्जिद के अंदर दाख़िल हो गई और मस्जिद में तोड़-फोड़ की गयी. मौक़े पर पुलिस प्रशासन ने पहुंच कर स्थिति को नियंत्रण में लिया.

18 नवम्बर, 2015:दरभंगा जिले के सिमरी थाना क्षेत्र के बसतवारा गांव में छठ के मौक़े से कलश तोड़ने के मामले को लेकर गांव का साम्प्रदायिक माहौल ख़राब किया गया. पुलिस के चार गाड़ियों सहित कई गाड़ियों को आग के हवाले कर दिया गया. इस घटना कई लोग मामूली रूप से ज़ख़्मी हुए. पुलिस ने स्थिति को नियंत्रण में ले लिया, लेकिन गांव में अभी भी तनाव है.

18 नवम्बर, 2015:भागलपुर के सजूर थाना क्षेत्र के राधानगर गांव में छठ के मौक़े पर एक मदरसे के सामने आतिशबाज़ी को लेकर हुई मारपीट को साम्प्रदायिक रंग दे दिया गया. कई थानों की पुलिस ने मौक़े पर पहुंच कर स्थिति को नियंत्रण में किया.

18 नवम्बर, 2015:सीवान के एम.एच. नगर थाना क्षेत्र के हसनपुरा गांव में भी छठ के दिन दो लोगों की आपसी मारपीट हुई. फिर इस मारपीट को साम्प्रदायिक रंग देकर गांव का माहौल ख़राब किया गया. पुलिस ने मौक़े पर पहुंच कर स्थिति को नियंत्रित किया.

18 नवम्बर, 2015:वैशाली के लालगंज में भी एक सड़क हादसे को साम्प्रदायिक रंग दे दिया गया. जमकर फ़साद हुआ. कई दुकानों व मकानों को आग के हवाले कर दिया गया. थाना इंजार्च का भी क़त्ल कर दिया गया. दर्जनों लोग इस घटना में घायल हुए. दो बच्चों को गोली भी लगी. पुलिस अभी भी यहां कैम्प कर रही है.

यह कुछ ऐसी घटनाओं का रोजनामचा है जो 8 नवम्बर को चुनाव परिणामों के बाद बिहार में घटी हैं. बिहार चुनाव के नतीजे आने के बाद और नीतीश कुमार के शपथ लेने के पहले की ये वो ख़बरें हैं, जिसे पटना के अख़बारों ने रिपोर्ट किया है. ऐसी दर्जनों ख़बरें हैं, जिन पर अब तक मीडिया की नज़र नहीं है.

ख़ैर, इन घटनाओं पर ग़ौर करेंगे तो पाएंगे कि बिहार में छोटी-छोटी घटनाओं को बड़ा साम्प्रदायिक रूप दिया जा रहा है. संभव है कि इसके पीछे सुनियोजित साज़िश हो सकती है. इस बात के संकेत साफ़ हैं कि ये तमाम साजिशें धार्मिक सदभाव ख़त्म करने के लिए हो रही हैं तो ऐसे में इसको स्वीकार करके इसे नज़रअंदाज़ करना ही सबसे ज़रूरी व अक़्ल वाली बात होगी.

बिहार में पिछले दस दिनों में कम से कम एक दर्जन घटनाओं को क़रीब से देखा व समझा है कि किस प्रकार आपसी चुनावी रंजिश को साम्प्रदायिकता का चोगा पहनाकर बिहार को लाल करने की पुरजोर कोशिश की जा रही है. लोगों का कहना है कि इसमें मक़सद सिर्फ़ एक है कि किसी तरह से नयी सरकार के कामकाज संभालने के कुछ ही दिनों के भीतर सूबे के साम्प्रदायिक सौहार्द को नफ़रत की चिंगारियों से खाक कर दिया जाए.

पटना के फुलवारीशरीफ़ की घटना के दौरान राकेश कुमार ने साफ़ तौर कहा था, ‘यह पूरा मामला राजनीतिक है. बल्कि यह कह सकते हैं कि क्रिया की प्रतिक्रिया है.’

राकेश ने स्पष्ट तौर पर बताया था कि तीन दिन पहले यहां श्याम रजक की जीत पर खूब जश्न मना था. मुसलमान लड़कों ने खूब पटाखे छोड़े थे और विरोधी दल के लड़कों को खूब चिढ़ाया था. बस वही बात हारने वाले दल के कार्यकर्ताओं को नागवार गुज़री. पहले तो वे शराब के नशे में आपस में ही लड़ रहे थे, लेकिन उसमें कुछ मुस्लिम लड़के घुस गए तो बस मौक़े का फायदा उठा लिया गया.

ऐसी ही बातें बाकी घटनाओं में भी देखने को मिलती हैं. लालगंज के मामले में तो अब बज़ाब्ता सियासत शुरू हो गई है. नीतीश के शपथ-ग्रहण के अगले ही दिन शनिवार को भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी और लोजपा सुप्रीमो रामविलास पासवान वहां पहुंच गए. इस मामले की जांच के लिए आयोग का गठन कर दिया गया है. लेकिन इस तरह के तमाम मामले नीतीश कुमार के रातों की नींद हराम करने वाली साबित होंगे.

नीतीश पहले से ही इन बातों को लेकर सतर्क हैं. पद संभालते ही उन्होंने पहला काम सूबे में लॉ एंड ऑर्डर बनाए रखने की कोशिश के तौर पर की. ताज़ा हालात बेहद संवेदनशील हैं. ऐसे में एक छोटा सा ग़ैर-ज़िम्मेदाराना क़दम एक बड़ी तबाही की पृष्ठभूमि तैयार कर सकता है. ज़रूरत युवाओं और ख़ासतौर पर क़ौम के सरबराहों को इस दौर में ख़ासा सतर्क रहने की है.

पेरिस का आतंकवादी हमला और हमारी प्रतिक्रिया

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By सलमान गनी

फ़्रानस में हुई ख़ूँरेज़ी के बाद एक बार फिर इस्लाम पर तीखे प्रहारों का आरम्भ हो चुका है। फर्क सिर्फ इतना है कि इस बार इस्लाम और कुरान पर दबे शब्दों में नहीं बल्कि खुलेआम आलोचना हो रही है। टीवी बहस में आईएस की विचारधारा को मौदूदी और शाह वली अल्लाह की शिक्षाओं की पैदावार बताया जा रहा है। मुस्लिम कयादतें और मिली नेता चीख चीख कर अपने धर्म की बेगुनाही साबित कर रहे हैं लेकिन आरोपों का तूफान है कि थमने का नाम नहीं ले रहा।

आईएस एक आतंकवादी संगठन है। उसकी बर्बरता अपनी सीमाओं को पार कर चुकी है। आईएस क्या है? यह संगठन कब बना? इसे कौन समर्थन दे रहा है? और यह संगठन किस के इशारे पर काम कर रहा है? ऐसे प्रश्न और इन पर चर्चाएँ बहुत कम सुनने को मिलती हैं। फ्रांस में हुई हालिया घटना के बाद आईएस की बढती हुई शक्ति, और उसकी बर्बरता पर सनसनीखेज टिप्पणी हो रही है और उसके विचारों को इस्लामी सिद्धांतों के अनुरूप बताने की भरपूर कोशिश की जा रही है। लेकिन इराक और सीरिया में अमेरिका और उसके सहयोगी के ताबड़तोड़ हमलों के बावजूद इस संगठन का कार्यक्षेत्र क्यों बढ़ रहा है और इसकी कारस्तानियों से किसको फायदा और किसको नुकसान पहुंच रहा है? इन सवालों के जवाब विश्व का मीडया जानबूझ कर अनदेखा कर रहा है।

अफसोस इस बात का है कि मुस्लिम दुनिया भी अभी तक इस नतीजे पर नहीं पहुंच पाई है कि आईएस दरअसल इस्लाम के दुश्मनों का केवल एक हथियार है जिसका सहारा लेकर वह इस्लाम और मुसलमानों के खिलाफ खुली लड़ाई लड़ रहे हैं। आईएस की हर आतंकवादी घटना के अंजाम देने के बाद मुस्लिम दुनिया अपनी सफाई देने में लग जाती है। मुस्लिम संगठन इस्लाम के बचाओ में उतर आते हैं। आईएस के खिलाफ प्रदर्शन होते हैं। आतंकवाद के खिलाफ फतवे दिए जाते हैं। इस्लाम की शांतिप्रियता के नारे बुलंद होते हैं। और इस्लाम धर्म अपराधियों की तरह कठघरे में खड़ा कर दिया जाता है।

आश्चर्य इस बात पर होता है कि आईएस को 'इस्लामी संगठन''समझ कर इस्लाम की रक्षा करने वाले इतनी छोटी सी बात क्यों नहीं समझते कि आखिर अफगानिस्तान और इराक को चन्द महीनों में बर्बाद कर देने वाले अमेरिका और उसके सहयोगी क्यों आईएस को कुचलने में विफल रहे हैं? क्यों दुनिया की बड़ी-बड़ी शक्तियां मिलकर भी इसी संगठन का सफाया करने में असमर्थ हैं, जिसे केवल पांच साल पहले कोई जानता भी नहीं था। अफगानिस्तान से तालिबान लड़ाकूओं को नष्ट कर देने वाले, इराक से सद्दाम हुसैन की सत्ता को पलट देने वाले और मिस्र से लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित सरकार का अंत कर देने वाले इतने असहाय क्यों हो गए हैं ? बात ये है कि ''आतंकवाद के खिलाफ युद्ध ''एक ऐसा अभियान है जिसे इस्लाम दुश्मन जारी रखना चाहते हैं। ओसामा बिन लादेन और अल बगदादी जैसे ''फर्जी दुश्मनों ''के खिलाफ ये लड़ाई क़यामत तक जारी रहेगी और जिस कि मदद से हमारे दुश्मन एकजुट होते रहेंगे.

चंपारण की पूर्व विधायक रश्मि वर्मा पर हमले-धमकियों की कहानी झूठी

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अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

पटना:राजनीतिज्ञों द्वारा चुनाव जीतने के लिए कुछ भी किया जाना कोई नयी घटना नहीं है. चाहे वह बूथ लूटना हो या फिर किसी की भी जान लेना हो. यहां तक कि कई बार नेता खुद पर भी हमले करवाते और स्याही फेंकवाते हैं. राजनीतिक पृष्ठभूमि पर बनी फिल्मों के लिए यह बातें कथानक का हिस्सा हैं.


Rashmi Verma

कथित धमकी भरा पत्र दिखातीं रश्मि वर्मा

लेकिन इस बार यह फ़िल्मी कहानी 2015 में भी बिहार विधानसभा चुनाव में पश्चिम चम्पारण के लोगों को देखने को मिली.

मामला पश्चिम चम्पारण के नरकटियागंज विधानसभा क्षेत्र की है. यहां की विधायक (अब पूर्व) रश्मि वर्मा को 28 सितम्बर को धमकी भरा पत्र मिला, जिसमें उन्हें चुनाव नहीं लड़ने की धमकी दी गई थी. पत्र में रश्मि वर्मा से कहा गया था, ‘तुम्हारे चुनाव लड़ने और नॉमिनेशन करने से हम लोगों के लक्ष्य में बाधा पहुंच रही है. अगर तुम चुनाव नहीं लड़ती हो और नामांकन नहीं करती हो तो तुम्हारे और तुम्हारे बच्चों के लिए अच्छा होगा.’

दरअसल, रश्मि वर्मा भाजपा के टिकट से यहां की विधायक बनी थी लेकिन इस बार उनका टिकट कट गया था. उनकी जगह पर भाजपा ने रेणु देवी को अपना कैंडिडेट बनाया था. जिसके बाद नाराज़ रश्मि वर्मा ने बतौर निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ने का फैसला किया. उनके निशाने पर भाजपा सांसद सतीश दुबे व रेणु देवी रहीं. क्योंकि पत्र में नीचे नाम की जगह एसडी और आरडी लिखा हुआ था.

इस मामले को लेकर रश्मि वर्मा ने पुलिस के समक्ष भी रखा और यह ख़बर एक राष्ट्रीय ख़बर बन गई. लेकिन इसके बाद फिर 10 अक्टूबर को मीडिया में ख़बर आई कि ‘नरकटियागंज में विधायक रश्मि के कार्यालय के बाहर मिला टाइम बम’.

यह ख़बर भी देश के तमाम मीडिया में काफी चर्चित रही. उनके कार्यालय में टाईमबम मिलने की ख़बर से जिले में सनसनी फैल गयी. इस बार भी एक धमकी भरा पत्र मिला था, जिसमें चुनाव नहीं लड़ने की बात कही गई थी. इस बार भी इसकी लिखित शिकायत रश्मि वर्मा ने शिकारपुर थाने को दी.

टाईमबम मिलने के बाद से पुलिस-प्रशासन की भी रातों की नींद गायब हो गई. बल्कि टाईम बम की जांच के लिए एक विशेष टीम मुज़फ्फ़रपुर से बुलाई गई जिसकी जांच में बम नकली निकला.

इसके बाद रश्मि वर्मा को कड़ी सुरक्षा में रखा गया. रश्मि वर्मा ने चुनाव भी लड़ा. लोगों की सहानुभूति भी मिली और इसी सहानुभूति के बल पर रश्मि वर्मा को 39200 वोट भी मिले लेकिन वह तीसरे नंबर पर रहीं. यहां जीत कांग्रेस के विनय वर्मा की हुई. दूसरे नंबर पर भाजपा की रेणु देवी रहीं. रेणु देवी को 41151 वोट मिले.

लेकिन अब चुनाव ख़त्म हो जाने के बाद पुलिस जांच में यह बात खुलकर सामने आई है कि रश्मि वर्मा पर हमलों और उन्हें मिल रही धमकियों की कहानी पूरी तरह से नकली थी. पुलिस ने जांच के क्रम में रश्मि वर्मा के करीबी शाहनवाज़ रिज़वान और रश्मि वर्मा के कार्यालय के समीप स्थित आभूषण दुकान के मालिक रामेश्वर सर्राफ़ को हिरासत में लिया था. पूछताछ में शाहनवाज़ ने बम रखने का खुलासा किया.

अब शिकारपुर पुलिस ने शाहनवाज़ से पूछताछ के बाद यह दावा किया है कि रश्मि वर्मा ने अपने राजनीतिक फायदे के लिए खुद अपने कार्यालय में बम रखवाया था. साज़िश में उनके कई करीबी शामिल थे.

थानाध्यक्ष विनोद कुमार सिंह के मुताबिक़ इस मामले का खुलासा एसपी के ज़रिए शाहनावज़ से पूछताछ में हुआ है. शाहनवाज़ ने खुद पुलिस को बताया है कि रश्मि वर्मा ने चुनाव में लोगों की सहानुभूति बटोरने के लिए ऐसा किया था. नकली बम व पत्र रखने के लिए शाहनवाज़ और मोहित को चुना गया था. इन दोनों ने ही कार्यालय में बम रखा था.

थानाध्यक्ष के मुताबिक़ इस साज़िश में रश्मि वर्मा के अलावा अजय श्रीवास्तव, अशोक वर्मा, मुन्ना, मोहित कुमार, गोलू, तनुज वर्मा व शाहनवाज़ शामिल थे. अब सभी आरोपियों को शीघ्र गिरफ्तार किया जाएगा.

लेकिन इस पूरे मामले में रश्मि वर्मा का कहना है, ‘साज़िश के तहत हमारे क़रीबियों को फंसाकर राजनीतिक विरोधी हमको फंसाने की साज़िश रच रहे हैं. इसमें पुलिस भी शामिल हो गई है.’

चंपारण के बौद्ध धर्मावलम्बियों ने दिया विश्व शान्ति का सन्देश

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अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

चंपारणविश्व में फैली अशांति को लेकर बिहार के पश्चिम चम्पारण के बेतिया शहर में बौद्ध धर्म के अनुयायियों ने ‘बौद्ध धम्म संस्कार सम्मेलन’ का आयोजन कर विश्व शांति का पैग़ाम दिया.

इस सम्मेलन को संबोधित करते हुए डॉ. परमेश्वर भक्त ने कहा, ‘आधुनिक भौतिकवादी विकास युग से उत्पन्न आतंकवाद भावना को रसातल में ले जाना चाहता है, जिसमें मुक्ति के लिए बुद्ध दर्शन की आवश्यकता है.’

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सम्मेलन में फ्रांस हमले में मारे गए लोगों के लिए दो मिनट का मौन रखा गया. साथ ही मारे गए निर्दोष लोगों के प्रति संवेदना व्यक्त की गई. साथ ही यह भी संदेश दिया गया कि विश्व शांति के लिए बुद्ध का संदेश ही एकमात्र रास्ता है.

इस सम्मेलन का आयोजन बेतिया के महाराजा पुस्तकालय परिसर में किया गया. जिसमें नगर के सभी बुद्ध-अम्बेडकरवादी, धम्मप्रिय, श्रेष्ठी, श्रमण एवं आचार्य शामिल हुए. इस सम्मेलन का मुख्य विषय ‘विश्व शांति और बौद्ध धम्म’ था.

दरअसल, बिहार का चम्पारण ज़िला बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए एक ऐतिहासिक स्थान है. भगवान बुद्ध से जुड़े स्थलों में पश्चिम चम्पारण के लौरिया नंदनगढ़ का विशेष स्थान है. कहा जाता है कि यही वह जगह है जहां भगवान ने राजसी वस्त्रों का परित्याग किया था. रथ व घोड़े को वापस कर दिया तथा सिर मुंडवाकर पैदल ही बोधगया की तरफ़ चल दिये थे.

इसके अलावा पूर्वी चम्पारण का केसरिया स्तूप भी बौद्ध धर्म में विशेष महत्व रखता है. कहा जाता है कि भगवान बुद्ध जब महापरिनिर्वाण ग्रहण करने कुशीनगर जा रहे थे तो वह एक दिन के लिए केसरिया में ठहरे थे. जिस स्‍थान पर पर वह ठहरे थे, उसी जगह पर कुछ समय बाद सम्राट अशोक ने स्‍मरण के रुप में स्‍तूप का निर्माण करवाया था. इसे विश्‍व का सबसे बड़ा स्‍तूप माना जाता है.

2011 जनगणना के आंकड़ें बताते हैं कि पश्चिम चम्पारण में बौद्ध धर्म के मानने वालों की जनसंख्या 1337 है, वहीं पूर्वी चम्पारण में इनकी जनसंख्या 878 है. जबकि पूरे बिहार में 25,453 लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं.

बिहार मंत्रिमंडल: मुस्लिमों की भागीदारी पर पैदा होता असंतोष

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अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

पटना:महागठबंधन की जीत में अल्पसंख्यकों का एक रोल रहा है. नतीजों के बाद इस बात की पूरी उम्मीद थी कि मुसलमानों को उनके योगदान के अनुपात में हिस्सेदारी ज़रूर मिलेगी. मगर 28 मंत्रियों के मंत्रिमंडल में सिर्फ़ 4 मुसलमानों को ही हिस्सेदार बनाया गया. इससे एक बार फिर से क़ौम की बेहतरी की उम्मीद कर रहे लोगों में भारी निराशा हुई है.

यह निराशा मुस्लिम नौजवानों में खासतौर पर देखने को मिल रही है. मुसलमानों के साथ होने वाली इस नाइंसाफ़ी पर अब खुलकर सोशल मीडिया पर भी मुस्लिम नौजवान लिख रहे हैं.


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मुंबई के टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साईसेंस में पढ़ने वाले पूर्वी चम्पारण के तारिक़ अनवर चम्पारणी सोशल मीडिया पर लिखते हैं ‘मुसलमानों ने महागठबंधन को वोट भाजपा को हराने और खेत में गन्ना रोपने या काटने के लिये दिया था, सत्ता मे भागीदारी के लिए नहीं. बिहार का दुर्भाग्य अनपढ़ नहीं बल्कि जाहिल उप-मुख्यमंत्री.’

वहीं बसीरत मीडिया ग्रुप के फीचर एडीटर मो. शारिब ज़ेया रहमानी एक लंबे लेख में लिखते हैं ‘...इस पर कोई ऐतराज नहीं कि पूरे कैबिनेट में 7 के बजाए 20 यादव को मंत्री बना दिया जाए. ऐतराज बस इस पर है कि जिस तरह टिकट के तक़्सीम में नाइंसाफ़ी की गई, यहां भी डंडी मार दी गई. नीतिश कैबिनेट में यादव सात और मुसलमान चार, ये क्या तनासब है. जबकि मुसलमानों ने सबसे ज़्यादा तक़रीबन 90 फ़ीसद वोट महागठबंधन को दिया है.’

आगे उन्होंने यह भी लिखा है कि ‘मुसलमानों में ये अहलियत कहां कि वो डिप्टी सीएम बनाए जाएं. ये सारी सलाहियतें तो बिहार व यूपी में सिर्फ़ यादवों के अंदर हैं और क़ौमी सतह पर ब्राहमणों में. मुसलमानों का काम तो सिर्फ़ वोट देना है. सत्ता चलाना इनके बस का रोग नहीं. एम.वाई समीकरण का मतलब ये हरगिज़ न समझा जाए कि सत्ता में भी हिस्सेदारी मिलेगी.’

हालांकि वे आगे ये भी लिखते हैं कि ‘महागठबंधन को यह मालूम है कि मुसलमानों उन्हें डरकर वोट दिया है. मुसलमानों ने महागठबंधन को वोट देकर कोई अहसान नहीं किया है, बल्कि उनकी ये मजबूरी थी. ऐसे में अगर एक मंत्रालय भी उन्हें नहीं मिलता तो भी मुसलमानों को कोई शिकायत का हक़ नहीं था.’

मुस्लिम तरक़्क़ी मंच के सफ़दर अली का भी कहना है, ‘मुसलमानों ने इस बार महागठबंधन को वोट दिया है. लेकिन सच तो यह है कि इन्हीं सेकूलर जमाअतों ने मुसलमानों को सत्ता में हिस्सेदारी देने में हमेशा नाइंसाफ़ी किया है. पहले तो टिकट देने में कंजूसी गई और अब मंत्रिमंडल की लिस्ट देखकर भी मुसलमान खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहा है.’


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इधर ओवैसी की पार्टी ‘ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन’ से जुड़े कार्यकर्ता भी सोशल मीडिया पर चुटकी लेते नज़र आ रहे हैं. कई तरह के पोस्टरों के ज़रिए मुसलमानों की हिस्सेदारी को लेकर सवाल खड़े किए जा रहे हैं.

दरअसल, मुसलमानों की हमेशा से शिकायत रही है कि उन्हें सिर्फ़ एक वोटबैंक की तरह इस्तेमाल किया जाता है. चुनाव जीतने के बाद उनकी बुनियादी दिक़्क़तों की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता. ऐसे में जब सत्ता के गलियारों में उनका ही न के बराबर होगा तो उनकी आवाज़ को सुने जाने की संभावना और भी कम होगी. बिहार के मुसलमानों की सबसे बड़ी समस्या यह भी है कि उनके योगदान से चुने गए नेता उनकी तरक़्क़ी के बारे में कभी नहीं सोचते.

हालांकि एक तबक़ा ऐसा भी है कि जो पूरे मसले को हिन्दू-मुस्लिम से उपर उठकर एक अलग नज़रिए से देखता है. उसका सोचना है कि हिस्सेदारी मांगने के बजाए पहले सही नागरिक बनने के दिशा में मुसलमानों को सोचना चाहिए. अभी तो हालत ऐसी है कि मुसलमान इस अपने ही देश में नागरिक के बजाए दूसरे दर्जे के नागरिक ही ज़्यादा नज़र आते हैं.

राजनीतिक मामलों के जानकार अरशद अजमल का मानना है, ‘जिसकी जितनी आबादी है, उसे उतनी नुमाइंदगी मिलनी चाहिए. लेकिन मिलती नहीं है और शायद मुमकिन भी नहीं है. बिहार में मुस्लिम मत 17 फीसदी है. लेकिन महागठबंधन ने सिर्फ़ 14 फीसदी मुसलमानों को ही टिकट दिया और मंत्रिमंडल में भी लगभग 14 फीसदी को हिस्सेदारी मिली है. इसे बेहतर नहीं तो बुरा भी नहीं कहा जा सकता.’

वहीं बिहार के राजनीतिक मामलों के जानकार व अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर मो. सज्जाद बताते हैं, ‘किसी भी लोकतंत्र के लिए यह बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि अल्पसंख्यकों का इतना बड़ा तबक़ा सिर्फ़ इस डर से वोट दे रहा है कि कहीं भाजपा जैसी पार्टी सत्ता में न आ जाए और उनकी परेशानी बढ़ जाए.’

मो. सज्जाद आगे बताते हैं, ‘जो सवाल अभी सत्ता में भागीदारी या हिस्सेदारी को लेकर उठ रहे हैं तो बिहार के मुस्लिम दानिश्वरों से मेरा सवाल है कि वे उस वक़्त कहां थे जब बिहार में भाजपा का कोई डर नहीं था. 1997 में जब लालू अपनी पत्नी राबड़ी देवी को सीएम बना रहे थे तब क्यों किसी ने यह आवाज़ नहीं उठाई कि अब्दुल बारी सिद्दीक़ी को सीएम या डिप्टी सीएम बनाए.’

हालांकि मो. सज्जाद यह भी मानते हैं कि ऐसा नहीं होना चाहिए कि कल कुछ नहीं मांगा तो आज भी नहीं मांगे. सज्जाद आगे यह भी बताते हैं, ‘मुसलमानों को अब नागरिक बनाने का प्रयत्न होना चाहिए और वो प्रयत्न आन्दोलनों के ज़रिए मुमकिन है. आन्दोलन का मतलब यह नहीं कि हम हर दिन सड़क पर ही रहें, बल्कि आन्दोलन का मतलब अच्छी शिक्षा, स्वास्थ्य व रोज़गार के सवालों पर बोलना है. समाज के साथ होने वाले नाइंसाफ़ियों के ख़िलाफ़ बोलना होगा, चाहे वो नाइंसाफ़ी किसी के साथ भी हो रहा हो. वक़्फ़ सम्पत्तियों के सदुपयोग के लिए खुद अपने कम्यूनिटी के अंदर आन्दोलन चलाना होगा. कम्यूनिटी के अंदर जब आन्दोलन चलेगा तब ही शासन व प्रशासन मुसलमानों के प्रति संवेदनशील होंगे.’

जानिए! बिहार के मंत्रियों की शैक्षिक योग्यता

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अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

पटना:बिहार में नीतीश सरकार ने शपथ ले ली है. पटना के गांधी मैदान के ऐतिहासिक शपथ-ग्रहण समारोह में पिछले 20 नवम्बर को 28 विधायकों ने कैबिनेट के मंत्रीपद के लिए शपथ लिया.

लेकिन इन 28 मंत्रियों की योग्यता को लेकर इनदिनों सोशल मीडिया पर कई चीज़ें प्रसारित हो रही हैं. जिनमें इन मंत्रियों की शिक्षा पर सवाल उठाए जा रहे हैं और यह बताने की कोशिश की जा रही है कि नए मंत्रिमंडल में 2-4 को छोड़ सारे अनपढ़ हैं.

TwoCircles.netने सचाई जानने के लिए इन तथ्यों की छानबीन की और इन विधायकों द्वारा चुनाव आयोग को दिए हलफ़नामों का अध्ययन किया. इसी हलफ़नामे के आधार पर यह जानकारी हम अपने पाठकों के समक्ष रख रहे हैं ताकि सोशल मीडिया में फ़ैल रही खबरों से अलग, सचाई को दुरस्त किया जा सके.

1. तेजस्वी प्रसाद यादव (उपमुख्यमंत्री) –पथ निर्माण विभाग, भवन निर्माण और पिछड़ा-अतिपिछड़ा कल्याण विभाग –शैक्षिक योग्यता : 9वीं क्लास पास (डीपीएस आर.के. पुरम 2006)

2. तेजप्रताप यादव –स्वास्थ्य, लघु जल संसाधन और पर्यावरण एवं वन विभाग –शैक्षिक योग्यता : 12वीं पास (2010)

3. अब्दुल बारी सिद्दीक़ी–वित्त विभाग –शैक्षिक योग्यता : 12वीं पास (1975)

4. बिजेन्द्र प्रसाद यादव –उर्जा एवं वाणिज्यकर विभाग –शैक्षिक योग्यता : 10वीं पास (1965)

5. राजीव रंजन सिंह–जल संसधान और योजना एवं विकास विभाग –शैक्षिक योग्यता : बी.ए. (ऑनर्स) (1976)

6. अशोक चौधरी–शिक्षा, सूचना एवं आईटी विभाग –शैक्षिक योग्यता : पीएचडी (2003)

7. श्रवण कुमार–ग्रामीण विकास एवं संसदीय कार्य विभाग –शैक्षिक योग्यता : 12वीं पास (1977)

8. जय कुमार सिंह–उद्योग, विज्ञान एवं प्रावैधिकी –शैक्षिक योग्यता : ग्रेजुएट प्रोफेशनल (बीई. 1993)

9. आलोक कुमार मेहता–सहकारिता विभाग –शैक्षिक योग्यता : ग्रेजुएट प्रोफेशनल (बीई. 1990)

10. चंद्रिका राय–परिवहन विभाग –शैक्षिक योग्यता : पोस्ट ग्रेजुएट (1981)

11. अवधेश कुमार सिंह–पशु एवं मत्स्य संसाधन विभाग –शैक्षिक योग्यता : ग्रेजुएट (1974)

12. कृष्णनंदन प्रसाद वर्मा–लोक स्वास्थ्य एवं अभियंत्रण और विधि विभाग –शैक्षिक योग्यता : ग्रेजुएट (1971)

13. महेश्वर हजारी–नगर विकास एवं आवास विभाग –शैक्षिक योग्यता : ग्रेजुएट (1983)

14. अब्दुल जलील मस्तान–निबंधन, उत्पाद एवं मद्य निषेध –शैक्षिक योग्यता : 12वीं पास (1965)

15. रामविचार राय–कृषि विभाग –शैक्षिक योग्यता : 10वीं पास (1972)

16. शिवचंद्र राम–कला एवं संस्कृति व युवा विभाग –शैक्षिक योग्यता : ग्रेजुएट (1993)

17. डॉ. मदन मोहन झा–राजस्व एवं भूमि सुधार विभाग –शैक्षिक योग्यता : पीएचडी (1988)

18. शैलेश कुमार–ग्रामीण कार्य विभाग –शैक्षिक योग्यता : पोस्ट ग्रेजुएट (1984)

19. कुमारी मंजू वर्मा–समाज कल्याण –शैक्षिक योग्यता : 12वीं पास (1985)

20. संतोष कुमार निराला–एससी-एसटी कल्याण –शैक्षिक योग्यता : ग्रेजुएट प्रोफेशनल (लॉ-2009, बीए-1994)

21. डॉ. अब्दुल गफूर–अल्पसंख्यक कल्याण –शैक्षिक योग्यता : पीएचडी (2000)

22. चंद्रशेखर–आपदा प्रबंधन –शैक्षिक योग्यता : पोस्ट ग्रेजुएट (1985)

23. खुर्शीद उर्फ फिरोज़ अहमद–गन्ना उद्योग –शैक्षिक योग्यता : 10वीं पास (1981)

24. मुनेश्वर चौधरी –खान एवं भूतत्व–शैक्षिक योग्यता : ग्रेजुएट प्रोफेशनल (लॉ-1986, बीए-1976)

25. मदन सहनी–खाद्य एवं उपभोक्ता संरक्षण –शैक्षिक योग्यता : ग्रेजुएट (1992)

26. कपिलदेव कामत–पंचायती राज विभाग –शैक्षिक योग्यता : नन मैट्रिक

27. अनीता देवी–पर्यटन –शैक्षिक योग्यता : 12वीं पास (1991)

28. विजय प्रकाश–श्रम संसाधन –शैक्षिक योग्यता : पोस्ट ग्रेजुएट (1996)

मुस्लिम राजनीति में चूकते ओवैसी

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By काशिफ़ युनूस

ओवैसी के लिये बिहार चुनाव एक दुखद हादसे की तरह था. ओवैसी इस हादसे को टालना चाहते थे. वह उन नेताओं में हैं जो बहुत नपी-तुली चाल चलना चाहते हैं. कर्णाटक में मिली शर्मनाक पराजय से सबक सीखते हुए ओवैसी उत्तर प्रदेश पर ही अपनी पूरी तवज्जो रखना चाहते थे लेकिन अख्तरुल ईमान द्वारा किए जा रहे बारहा आग्रह को ओवैसी ठुकरा न सके. अख्तरुल ईमान की मदद करने मैदान में उतरे ओवैसी ने ज़बरदस्त हार का सामना किया और अब बिहार चुनाव के नतीजों के उत्तर प्रदेश में पड़ने वाले असर से ओवैसी खासे चिंतित हैं.


Asaduddin Owaisi

वैसे जब ओवैसी बिहार चुनाओ में उतरे तो उन्हें कुछ लोगों ने सलाह दी कि उन्हें अपनी राजनीति का अंदाज़ थोड़ा बदल देना चाहिए. कुछ छोटी सेक्युलर पार्टियों को मिलाकर एक सेक्युलर गठबंधन के लिए भी बात चली लेकिन ओवैसी को लगा कि सीमांचल में वह अपने धुआंधार भाषणो के बल पर खुद ही अपनी नाव पार लगा लेंगे.
ओवैसी यह अच्छी तरह जानते हैं कि उनके शोला बरसाने वाले भाषणो को दिखलाकर कैसे न्यूज़ चैनल वाले अपनी टीआरपी बढ़ाने के चक्कर में रहते हैं. बस क्या था, उन्होंने इसे ही अभीष्ट सच मानते हुए अपना बिहार कैम्पेन शुरू कर दिया.

लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त कुछ और थी. बिहार की धर्मनिरपेक्ष समीकरणों को ओवैसी सही तरीके से भांप नहीं सके. लोकसभा चुनाओ में बिहार में पिछड़ा वर्ग के प्रधानमंत्री के नाम पर जो वोट भाजपा ले गयी, उन्हीं वोटों को ओवैसी ने साम्प्रदायिकता का वोट समंझने की भूल कर दी. भाजपा ने भी वही भूल की. लेकिन बिहार के लोगों ने ये साबित कर दिया की लोकसभा में मिला वोट पिछड़ा और दबा-कुचला को प्रधानमंत्री बनाने के लिए था ना कि भाजपा या किसी अन्य दल के सांप्रदायिक एजेंडे के लिए.


Understanding the Owaisi phenomenon

किशनगंज में तो फिर भी ओवैसी का पहला भाषण सुनने के लिये भारी भीड़ उमड़ पड़ी थी लेकिन उत्तर प्रदेश में ओवैसी की किसी भी रैली में अभी तक किशनगंज की तरह भारी भीड़ नहीं उमड़ी है. वहीँ उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपनी अच्छी पकड़ बना चुकी पीस पार्टी की रैलियों में मुस्लिमों और गैर-मुस्लिमों दोनों की भारी भीड़ उमड़ रही है. ज्ञात हो की पीस पार्टी पिछ्ले विधानसभा चुनाओ में वोट शेयर के मामले में सपा, बसपा , कांग्रेस , भाजपा और लोकदल के बाद छठे नंबर की पार्टी के रूप में उभरी थी. पसमांदा मुसलमानो और अत्यंत पिछड़ा वर्ग में पीस पार्टी की पैठ दिन-ब-दिन बढ़ रही है. ओवैसी के पास उत्तर प्रदेश में दूसरा चैलेंज है. उन्हें ज़रुरत है अख्तरुल ईमान जैसे परिपक्व नेतृत्व की. उन्हें अभी एक ऐसे चेहरे की ज़रूरत है जिसे प्रदेश में वोटर आसानी से पहचानता हो. बिना किसी ऐसे चेहरे के प्रदेश स्तर पर नेतृत्व का भारी अभाव दीखता है.

ओवैसी को पीस पार्टी के अनुभव से सीखने की ज़रूरत है. उन्हें यह समझना होगा कि उनके गरमागरम भाषण न्यूज़ चैनल पर टाइम पास का ज़रिया तो बन सकते हैं लेकिन वोट के लिए उन्हें धरातल पर उतर कर मेहनत करनी पड़ेगी और धर्मनिरपेक्षता को अपने राजनीतिक एजेंडे में महत्वपूर्ण स्थान देना पड़ेगा. जिस तरह भाजपा की हिन्दू सांप्रदायिक राजनीति एक स्तर तक जाकर दम तोड़ देती है उसी तरह ओवैसी की मुस्लिम सांप्रदायिक राजनीति भी एक स्तर तक ही रास्ता तय करती है.

बिहार में अख्तरुल ईमान पार्टी को मज़बूत करने का दम भर रहे हैं. लेकिन उनका ये दम भी उर्दू अखबारों में ही दम तोड़ दे रहा है. जहां चुनावों से पहले हिंदी मीडिया ओवैसी को खूब लिख रहा था वहीँ अब चुनाओ के बाद हिंदी मीडिया का एजेंडा बदला-बदला सा है. ऐसे में अख्तरुल ईमान अपनी पार्टी के मीडिया सेल को ही पहले चरण में मज़बूत कर लें तो उनके लिए बेहतर होगा.

[यह लेखक के अपने विचार हैं. उनसे yunuskashif@gmail.comपर संपर्क किया जा सकता है.]


जामिया मिल्लिया इस्लामिया में मोदी, छात्रों में ज़बरदस्त नाराज़गी

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राक़िब हमीद, TwoCircles.net

दिल्ली:देश के बड़े शिक्षण संस्थानों में शुमार जामिया मिल्लिया इस्लामिया में इस वक़्त माहौल गर्म है. विश्वविद्यालय में होने वाले वार्षिक दीक्षांत समारोह में इस बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बुलाए जाने को लेकर विश्वविद्यालय के मौजूदा और पुराने छात्रों, सभी में रोष व्याप्त है.

दीक्षांत समारोह में प्रधानमंत्री को बुलाए जाने पर नाराज़ छात्र जल्द ही जामिया के कुलपति को वह पत्र सौपेंगे, जिसमें उन्होंने इन बातों का ज़िक्र किया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बुलाना क्यों गलत फैसला है?

जामिया में प्रसारित हो रहा सितम्बर 2008 का यह वीडियो

कुलपति को इत्तला करने वाले इन छात्रों में अधिकांश जामिया के पूर्व छात्र हैं, इस पत्र में उन्होंने यह दर्शाया है कि किस तरह से नरेंद्र मोदी और सत्तारूढ़ भाजपा के अन्य नेता जामिया के बारे में अपमानजनक और विद्वेषपूर्ण भाषा का इस्तेमाल करते रहे हैं.

टाइम्स ऑफ इण्डिया में गुरुवार को छपी खबर में मोदी के शिरक़त की पुष्टि हुई है. अखबार से बात करते हुए जामिया के कुलपति तलत अहमद ने कहा है, ‘हमने प्रधानमंत्री कार्यालय की ओर से पुष्टि का इंतज़ार कर रहे हैं. अभी तक शिरक़त की अर्ज़ी पर कोई मनाही भी नहीं की गयी है. लिहाज़ा दीक्षांत समारोह तभी होगा, जब प्रधानमंत्री समय देंगे.’

जामिया के कई पूर्वछात्र विश्वविद्यालय प्रबंधन की इस कार्रवाई के खिलाफ खुलकर प्रदर्शन कर रहे हैं. मोदी द्वारा गुजरात में बतौर मुख्यमंत्री 2008 में दिए गए एक भाषण में मोदी ने जामिया विश्वविद्यालय पर आरोप लगाते हुए कहा था कि ‘जामिया अपराधियों को जेल से बाहर निकालने के लिए वक़ीलों पर पैसे खर्च कर रही है.’जामिया के पूर्व छात्रों का कहना है कि कुलपति को दिए जाने वाले इस पत्र मदन इस विवादित वीडियो का लिंक भी मुहैया कराया जाएगा. यह वीडियो पहले से ही जामिया की सोशल मीडिया ग्रुपों में वायरल हो रहा है.

पत्रिका ‘तहलका’ के पत्रकार और जामिया से 2014 में पास हुए छात्र असद अशरफ इस मामले को सोशल मीडिया फेसबुक तक ले गए, जहां उनकी इस मुहिम को अच्छा-खासा समर्थन मिल रहा है. इस साल होने वाले दीक्षांत समारोह में उन्हें भी डिग्री मिलेगी. उन्होंने इस मामले पर एक ब्लॉग भी लिखा है, जिसमें उनका मूल प्रश्न है कि वे मोदी के हाथों से डिग्री क्यों लें?
अपने ब्लॉग में असद अशरफ लिखते हैं, ‘मैंने तय किया है कि इस बार मैं जाकर उस मुख्य अतिथि के हाथों से डिग्री नहीं लूंगा जिसने मेरे विश्वविद्यालय को आतंकवाद का पैदाईश का घर करार दिया था, जिसके बाद से इस विश्वविद्यालय के सभी छात्र जांच और खुफ़िया एजेंसियों द्वारा संभावित आतंकवादी की तरह देखे जाने लगे.’

अपने ब्लॉग में वे आगे लिखते हैं, ‘प्रधानमंत्री महोदय, जो गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री थे, ने 2008 में जामिया को आतंकवाद का घर और यहां के कुलपति को आतंकवादियों को कानूनी मदद पहुंचाने वाला करार देते हुए एक बार भी इस गरिमापूर्ण विश्वविद्यालय के इतिहास के बारे में नहीं सोचा.’

असद आगे लिखते हैं, ‘मेरे पास कोई पुरस्कार नहीं है, जिसे मैं लौटा सकूं. लेकिन मैं साफ़ शब्दों में लिखना चाहूंगा कि इस साल मैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों से डिग्री नहीं लूंगा. प्रधानमंत्री ने अभी तक असहिष्णुता के मुद्दे पर एक शब्द भी नहीं बोला है और इसे देखते हुए लगता है कि नाज़ी जर्मनी के रास्ते पर हो रही आमजन की बर्बर हत्याओं और तमाम उपद्रव को उनका खुला समर्थन है.’

जामिया के एक और पूर्वछात्र महताब आलम ने भी इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाया है. महताब लिखते हैं, ‘जामिया मिल्लिया इस्लामिया के बारे में दुखद और अपमानजनक वक्तव्य देने वाले प्रधानमंत्री को बुलाने के लिए जामिया के कुलपति को शर्म आनी चाहिए. नरेंद्र मोदी को जामिया मंप तब तक नहीं घुसने देना चाहिए, जब तक सितम्बर 2008 में दिए गए अपने वक्तव्य के लिए वे सार्वजनिक रूप से माफी नहीं मांग लेते.’

पूर्व छात्रों द्वारा लिखे गए पत्र को खूब समर्थन मिल रहा है, यह पत्र जल्द ही जामिया मिल्लिया इस्लामिया के कुलपति को सौंपा जाएगा.

28 नवम्बर को किशनगंज से ओवैसी करेंगे ‘मिशन-2019’ का आगाज़

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अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

किशनगंज:बिहार के मुस्लिम बहुल इलाके सीमांचल में अपनी राजनीतिक जड़ें मज़बूत करने के लिए ओवैसी एक बार फिर 28 नवम्बर को किशनगंज में होंगे. यह अलग बात है कि हाल ही में बिहार विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी के सभी उम्मीदवार हार गए. कुछ प्रत्याशी तो अपनी ज़मानत भी बचा पाने में भी नाकाम रहे.


shukriya

असदुद्दीन ओवैसी किशनगंज में न सिर्फ़ हार की समीक्षा करेंगे, बल्कि बिहार में अपनी पार्टी के लिए संभावनाएं भी तलाश करेंगे. इसके साथ ही 2016 में होने वाले पश्चिम बंगाल के चुनाव, 2017 में होने यूपी चुनाव और 2019 में होने लोकसभा चुनाव के लिए अपने ‘मिशन’ का भी आगाज़ करेंगे.

ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (मजलिस) की बिहार इकाई के अध्यक्ष अख्तरुल ईमान ने TwoCircles.net से बातचीत में बताया, ‘ओवैसी 27 नवम्बर की शाम किशनगंज पहुंच जाएंगे. 28 नवम्बर को सुबह 10 बजे किशनगंज के टाउनहॉल में पार्टी वर्कर्स की मीटिंग हैं. जिसमें पार्टी के तमाम कार्यकर्ताओं के साथ-साथ चुनाव लड़ने वाले 6 उम्मीदवार भी शामिल रहेंगे.’

आगे उन्होंने बताया, ‘ओवैसी पार्टी द्वारा कार्यकर्ताओं की हौसलाफ़ज़ाई के साथ-साथ आगे की रणनीति भी तैयार की जाएगी. पार्टी के विस्तार पर बात होगी.’ हालांकि उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि पार्टी मुख्य फोकस सीमांचल ही रहेगा.

लेकिन पार्टी से जुड़े मजलिस के युवा नेता व बलरामपुर प्रत्याशी रहे आदिल हसन आज़ाद का कहना है, ‘ओवैसी 28 को सीमांचल के लोगों का शुक्रियादा करने आ रहे हैं. साथ ही ‘मिशन-2019’ की तैयारी भी शुरू हो जाएगी.’

साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि जब सदन का रास्ता बंद हो जाता है, तब सड़क का रास्ता खुल जाता है. हम सीमांचल के साथ-साथ पूरे बिहार के मुसलमानों व दलितों की आवाज़ उठाते रहेंगे. उनके हक़ के लिए लड़ते रहेंगे.

दरअसल, कहा जा रहा था कि ओवैसी चुनाव के बाद बिहार का रूख नहीं करेंगे, लेकिन चुनाव हारने के बाद भी उनका सीमांचल के अहम शहर किशनगंज में आकर अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं से मिलना यह बताता है कि आगे वाले चुनावों में वह मुसलमानों के लिए विकल्प बने रहना चाहते हैं.

पार्टी से जुड़े सूत्र बताते हैं कि ओवैसी 2016 में पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में भी सीमांचल से सटे कुछ सीटों पर अपना उम्मीदवार उतार सकते हैं. 2017 में यूपी विधानसभा चुनाव में कूदने का ऐलान वो पहले से कर चुके हैं. बल्कि 2016 में होने वाले यूपी के उप-चुनाव में भी ओवैसी अपना उम्मीदवार उतारने की तैयारी में हैं. ऐसे में ओवैसी चाहते हैं कि बिहार में कार्यकर्ताओं की एक बड़ी फौज तैयार की जाए ताकि उनका इस्तेमाल पश्चिम बंगाल व यूपी में किया जा सके. इतना ही नहीं, आदिल हसन आज़ाद की मानें तो ओवैसी अभी से ‘मिशन-2019’ का भी आगाज़ करने का इरादा रखते हैं.

बिहार में जल्द होगी 27 हजार उर्दू शिक्षकों की बहाली

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TwoCircles.net Staff Reporter

पटना:चुनाव खत्म होते ही राज्य सरकार उर्दू और बांग्ला शिक्षकों की नियुक्ति में जुट गई है. नियुक्ति के लिए जल्द ही नई तारीख़ तय कर ली जाएगी. इसके लिए शिक्षा विभाग ने 27 नवम्बर को राज्य भर के ज़िला कार्यक्रम पदाधिकारियों (डीपीओ) की बैठक बुलाई है. इस बैठक की सूचना सभी डीपीओ को भेज दी गई है.

प्राथमिक शिक्षा निदेशक के.वी.एन. सिंह ने सभी डीपीओ को लिखे गए पत्र में कहा है कि उन्हें उर्दू और बांगला शिक्षकों की नियुक्ति के लिए अब तक की कार्रवाई की जानकारी बैठक में देनी होगी. इसी के साथ प्रारंभिक स्कूलों में नियोजित शिक्षकों के प्रमाण पत्रों की जांच पर भी बैठक में चर्चा होगी. डीपीओ को कहा गया है कि वह निगरानी विभाग को उपलब्ध कराये गये फोल्डर की जानकारी के साथ बैठक में आएं. साथ ही नियोजित शिक्षकों के वेतन के लिए पैसे की मांग पत्र भी उन्हें साथ लाना होगा.

राज्य में 27 हजार उर्दू शिक्षकों की बहाली होनी है. इसी के साथ मिडिल स्कूलों में बांग्ला शिक्षकों की भी बहाली होगी. मिडिल स्कूलों में लगभग 400 पद बांग्ला शिक्षकों के रिक्त हैं. बहाली की प्रक्रिया जिस दिन से शुरू होनी थी, उसी दिन राज्य में आचार संहिता लग गई थी. लिहाजा बहाली पर रोक लग गई. अब नई सरकार ने फिर से बहाली की नई तारीख तय करने के लिए बैठक बुलाकर बहाली का रास्ता साफ़ कर दिया है.

असहिष्णुता के मोर्चे पर नाकामी छिपाने के लिए सरकार कर रही है आईएस का नाटक - रिहाई मंच

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By TCN News,

लखनऊ:'आईएस की तरफ से लड़ रहा कथित आतंकी आजमगढ़ निवासी बड़ा साजिद सीरिया में मारा जा चुका है', खुफिया और अस्पष्ट सूत्रों के हवाले से प्रसारित ऐसी खबरों को रिहाई मंच ने खुफिया एजेंसियों द्वारा आजमगढ़ को बदनाम करने की कोशिश बताया है.

संगठन ने अपना आरोप फिर दोहराया है कि आजमगढ़ और भटकल समेत पूरे देश से ऐसे कई मुस्लिम नौजवानों को वांटेड और भगोड़ा बताकर खुफिया एजेंसियों ने अपने पास बंधक बना कर रखा है. जिसे खुफिया एजेंसियां अपनी और सियासी जरूरत के हिसाब से एक ही आदमी को कई-कई बार मारने का दावा करती रहती हैं.

मंच ने आरोप लगाया है कि देश में बढ़ती असहिष्णुता के लिए खुफिया एजेंसियों की भूमिका की भी जांच होनी चाहिए. रिहाई मंच ने आमिर खान द्वारा भारत में बढ़ती असहिष्णुता पर जताई चिंता से सहमति जताते हुए कहा है कि देश उन्हें नहीं बल्कि असम के संघी राज्यपाल पीबी आचार्या को छोड़ देना चाहिए जो भारत को अम्बेडकर के संविधान के बजाए मनु के दलित, महिला और अल्पसंख्यक विरोधी संविधान से चलाना चाहते हैं.

रिहाई मंच के अध्यक्ष मोहम्मद शुऐब ने जारी प्रेस विज्ञप्ति में कहा है कि पिछले दो दिनों से आजमगढ़ के जिस बड़ा साजिद के सीरिया में आईएस की तरफ से लड़ते हुए मारे जाने की खबरें प्रसारित की जा रही हैं, उसके मारे जाने की खबरें इससे पहले भी चार बार इन्हीं खुफिया विभागों के हवाले से छप चुकी हैं. जिसमें पिछली चार महीने पहले जुलाई में ही छपी थीं. रिहाई मंच के अध्यक्ष ने पूछा कि खुफिया विभाग के लोगों को बताना चाहिए कि कोई एक ही व्यक्ति कितनी बार मर सकता है जो उसके बारे में हर चार-पांच महीने बाद वे ऐसी अफवाहें खबरों के रूप में फैलती हैं.

उन्होंने कहा कि जब पूरा देश और दुनिया मोदी राज में भारत के असहिष्णु होने पर चिंतित है तब खुफिया एजेंसियां ऐसी अफवाहें फैलाकर जनता में मुसलमानों की छवि को संदिग्ध बनाने की राजनीति कर रही हैं. उन्होंने कहा कि असहिष्णुता की किसी भी बहस में खुफिया विभागों की भूमिका पर बहस किए बिना हम असहिष्णुता
की राजनीति को नहीं समझ सकते. क्योंकि इन्हीं खुफिया एजेंसियों द्वारा कथित ‘खुफिया सूत्रों’ के जरिए मुसलमानों की छवि खराब करने वाली खबरें प्रसारित करवा कर बहुसंख्यक हिंदू समाज के बीच मुसलमानों का दानवीकरण किया जाता है. उन्हें देश और समाज विरोधी बताकर हिंदुओं में असुरक्षाबोध पैदा किया जाता है जैसा कि मोदी के गुजरात में मुख्यमंत्री रहते किया गया और खुफिया विभाग के अधिकारियों द्वारा इशरत जहां समेत बेगुनाहों को फर्जी मुठभेड़ों में मारकर मोदी को ‘हिंदु हृदय सम्राट’ बनाया गया.

उन्होंने कहा कि आतंकी घटनाओं और फर्जी मुठभेड़ों में खुफिया एजेंसियों की संदिग्ध भूमिका की जांच, खुफिया एजेंसियों को संसद के प्रति जवाबदेह बनाए बिना
देश में संहिष्णुता स्थापित नहीं की जा सकती. उन्होंने कहा कि असहिष्णुता की राजनीति के निर्बाध आगे बढ़ते रहने के लिए ही इशरत जहां फर्जी मुठभेड़ कांड में आरोपी होने के बावजूद आइबी अधिकारी राजेंद्र कुमार से पूछताछ तक नहीं की गई. वहीं बटला हाऊस फर्जी मुठभेड़ में मारे गए युवकों और कथित आतंकी बड़ा
साजिद के गांव संजरपुर के निवासी और रिहाई मंच नेता मसीहुदीन संजरी ने कहा कि हर चार-पांच महीने बाद उनके गांव को बदनाम करने के लिए झूठी खबरें
खुफिया एजेंसियां फैलाती हैं.

बड़ा साजिद के मारे जाने की पांचवी बार फैलाई गई खबर भी इसी योजना का हिस्सा है. उन्होंने संचार माध्यमों से अपील की कि वे खुफिया एजेंसियों द्वारा संदिग्ध सूत्रों के नाम पर मुहैया कराई जा रही खबरों की विश्वसनीयता को जांच परख कर ही छापें क्योंकि खुफिया एजेंसियों की अपनी तो कोई विश्वसनीयता बची नहीं है ऐसी खबरें प्रसारित करने से संचार माध्यमों की भी विश्वसनीयता भी संदिग्ध हो जाएगी.

संजरी ने आगे कहा, 'अगर यह क्रम नहीं रुका तो उनके गांव वालों को ऐसी खबरें प्रसारित करने वालों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने पर मजबूर होना पड़ेगा.

रिहाई मंच नेता राजीव यादव ने कहा कि आतंकवाद के नाम पर भगोड़ा बताए जाने वाले तमाम मुस्लिम युवक खुफिया और सुरक्षा एजेंसियों के पास ही हैं, जिन्हें वे अपनी और सरकार की जरूरत के हिसाब से कहीं फर्जी मुठभेड़ों में मार देती हैं तो कहीं पहले से मार दिए गए युवकों को किसी दूसरे देश में हुई आतंकी कार्रवाई में मारा गया दिखा कर सवालों को दबा देना चाहती हैं.

राजीव यादव ने कहा कि ऐसे सैकड़ों की तादाद में मुस्लिम युवक खुफिया और सुरक्षा एजेंसियों के पास बंधक हैं जिन्हें एजेंसियां अपनी कूट भाषा में ‘कोल्ड स्टोरेज’ कहती हैं. जिसके सम्बध में कई बार संचार माध्यमों में खबरें भी आ चुकी हैं और खुद आतंकवाद के आरोंपों से अदालतों से बरी हुए लोगों ने भी सार्वजनिक तौर पर बताया है. उन्होंने कहा कि बंधुआ मजदूरी के लिए बंधक बनाकर कैद रखने की खबरों पर स्वतः संज्ञान लेने वाली अदालतों को मुस्लिम युवकों को आतंकवादी बताकर हत्या के लिए खुफिया और सुरक्षा एजेंसियों द्वारा बंधक बना कर रखने वाली सूचनाओं पर भी स्वतः संज्ञान लेना चाहिए और बंधकों को मुक्त कराना चाहिए.

राजीव यादव ने कहा कि आजमगढ़ की ही तरह कर्नाटक के भटकल को भी आतंकवादियों के शहर के बतौर बदनाम करने के लिए आईएस से उसे जोड़ने की कोशिशें पिछले लम्बे वक़्त से की जा रही है. जबकि हमने अपनी फैक्ट फाइंडिंग में इस तथ्य को पाया है कि वहां के भगोड़े आतंकी बताए जा रहे युवक वहीं पर तैनात रहे खुफिया विभाग के अधिकारी सुरेश के करीबी रहे हैं, जिसने एक तरफ तो उनके आतंकी होने की खबरें प्रसारित करवाईं वहीं दूसरी ओर उन्हें अपने प्रयास से दूसरे नामों से व्यवसाय भी स्थापित करवाया. यह साबित करता है कि आतंकवाद के नाम पर होने वाला पूरा खेल ही खुफिया और सुरक्षा एजेंसियों द्वारा संचालित है और उसने ही इंडियन मुजाहिदीन नाम के फर्जी आतंकी संगठन को भी खड़ा किया था, जिसकी विश्वसनीयता के आम लोगों में संदिग्ध हो जाने के बाद अब उसके द्वारा आइएम के नाम पर ‘कोल्ड स्टोरेज’ में रखे गए लोग उसके लिए ही बोझ हो गए हैं. क्योंकि उनके लिए अब उन्हें किसी फर्जी मुठभेड़ में मारना या फर्जी मुकदमों में फंसाना आसान नहीं रह गया है. ऐसे में वे उन्हें आईएस से जोड़ कर उनसे मुक्त हो जाना चाहते हैं.

बिहार के बदहाल मुसलमानों के करोड़पति विधायक

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अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

पटना:बिहार के मुसलमानों की बदहाली किसी से छिपी हुई नहीं है. इनकी बदहाली के सच को सच्चर की कमेटी रिपोर्ट भी बयान कर चुकी है. लेकिन एक सच यह है कि इस बार बिहार में मुसलमानों के जो नेता चुनाव जीतकर आए हैं, वे इस हक़ीक़त के बिल्कुल उलट नज़र आते हैं.

बिहार की 243 सीटों पर इस बार 24 मुस्लिम उम्मीदवार चुनाव जीतकर आए हैं. लेकिन यदि बात बिहार के मुसलमानों के आर्थिक स्थिति की करें तो हमारे मुस्लिम जनप्रतिनिधि बिहार के मुसलमानों के आर्थिक हालात का प्रतिनिधित्व नहीं करते.

आंकड़े बताते हैं कि बिहार का मुस्लिम परिवार औसतन गरीब है, तो वहीं मुसलमान विधायक औसतन करोड़पति हैं. आंकड़े यह भी बताते हैं कि एक ओर यहां आम मुसलमानों के हालात बदतर होते जा रहे हैं, वो हमारे मुस्लिम नेता दिन-प्रतिदिन अमीर होते जा रहे हैं. यानी यहां ग़रीब मुसलमानों की नुमाईंदगी अमीरों के हाथ में है.

प्राप्त जानकारी के अनुसार, इस बार जीते हुए मुस्लिम विधायकों में से 15 विधायक करोड़पति हैं, तो 9 विधायक करोड़पति बनने के क़रीब हैं. ये आंकलन खुद उनके ज़रिए इस बार के चुनाव में चुनाव आयोग को दिए उनके हलफ़नामे के आधार पर किया जा रहा है.

जीते हुए 24 विधायकों में सबसे अमीर मधुबनी के बिसफी विधानसभा सीट से चुनाव जीतने वाले फैयाज़ अहमद हैं. 2015 चुनाव में उन्होंने अपने खुद के हलफ़नामे में बताया है कि वह 10.44 करोड़ के मालिक हैं, लेकिन उससे पहले 2010 विधानसभा चुनाव में उनके पास 15.83 करोड़ रूपये थे, जबकि 2005 में वो सिर्फ़ 3.47 करोड़ के मालिक थे.

उसके बाद मुस्लिम अमीर विधायकों की फेहरिस्त में किशनगंज के विधायक डॉ. मो. जावेद का नाम आता है. डॉ. जावेद के पास 2005 में 1.16 करोड़ थे, जो 2010 में बढ़कर 1.99 करोड़ हो गए. लेकिन 2010 में विधायक बनने के बाद अब 2015 में वह 7.86 करोड़ के मालिक हैं.

तीसरे नंबर पर अररिया जिले के जोकीहाट के विधायक सरफ़राज़ आलम का नाम आता है. 2015 में वह 4.63 करोड़ के मालिक हैं. वे 2010 में 1.32 करोड़ के मालिक थे, जबकि 2005 में उनके पास सिर्फ़ 15.51 लाख का मालिकाना था.

आंकड़े यह भी बताते हैं कि कुछ मुस्लिम विधायकों की सम्पत्ति काफी तेज़ी से बढ़ी है. इसमें सबसे पहला नाम आता है शिवहर के विधायक शरफुद्दीन का. इनके पास 2005 में सिर्फ़ 16.15 लाख रूपये थे. 2010 में उनकी सम्पत्ति 51.15 लाख रूपये की हो गई. लेकिन 2015 में अब वह 4.19 करोड़ के मालिक हैं.

वहीं कुछ ऐसे विधायक भी हैं, जो पहले के मुक़ाबले काफी तेज़ी के साथ गरीब हुए हैं. 2014 में सीतामढ़ी से लोकसभा चुनाव लड़ते समय सैय्यद अबु दोजाना की सम्पत्ति 6.63 करोड़ रूपये थी. लेकिन अब 2015 में जब सुरसंड से चुनाव लड़ते वक़्त उनकी सम्पत्ति 3.74 करोड़ है.

कुछ ऐसे मुस्लिम विधायक भी हैं, जिनकी सम्पत्ति तो बढ़ी है, लेकिन सम्पत्ति के साथ-साथ उनके ऊपर कर्ज का भी इज़ाफ़ा हुआ है. रोहतास जिले के डेहरी विधानसभा के विधायक मो. इलियास हुसैन के पास 2005 में 1.14 करोड़ की सम्पत्ति थी, लेकिन उसी साल उनके उपर 2.64 करोड़ का क़र्ज़ भी था. 2010 में उनकी सम्पत्ति घटकर 92.28 लाख की हो गई, लेकिन 2010 में भी वह 2.64 करोड़ के क़र्ज़दार थे. अब 2015 में इलिसास हुसैन 1.22 करोड़ के मालिक हैं. लेकिन साथ ही 2.65 करोड़ के क़र्ज़दार भी हैं.

सबसे ग़रीब मुसलमान विधायक की बात करें तो सबसे पहला नाम आता है कटिहार के बलरामपुर विधानसभा के विधायक महबूब आलम का. इनके पास 2015 में सिर्फ़ 22.96 लाख की सम्पत्ति है, जबकि 2010 में वो 2.32 लाख के ही मालिक थे.

दरअसल, एक सचाई यह भी है कि जहां से मुस्लिम विधायकों की जीत हुई है या फिर वो बिहार का वो इलाक़ा जो मुस्लिमबहुल नज़र आता है, अमूमन बदहाल ही है. सच तो यह है कि अब तक इन इलाक़ों से जिसने भी चुनाव लड़ने का साहस किया है, उन्हें यहां के लोगों के जज़्बातों से खेलना बखूबी आता है. मुद्दों के नाम पर सिर्फ जज़्बात को उभारने वाले मुद्दे ही होते हैं. यह अलग बात है कि चुनाव जीतने के बाद विधायक सारे जज़्बातों को भूल जाते हैं.

जज़्बातों के खेल और माली हालात में हुए चमत्कार के बीच यह सवाल मुस्लिम इलाकों में अभी भी तैर रहा है कि आखिर कब इन इलाकों की बदहाली दूर होगी? आखिर क्यों मुसलमानों के नाम पर सियासत करने वाले मुसलमान या नेता समुदाय की बुनियादी दिक्कतों की कभी बात नहीं करते?

ऐसे अनगिनत सवालों के जवाब न जाने बिहार के मुसलमान कब से मांग रहे हैं, मगर चुनाव की मंडी में सियासत का इतना शोरगुल है कि इन सवालों का कोई खैर-ख्वाह नहीं. मुसलमानों के साथ भी परेशानी यह है कि देश में निरपेक्षता को बचाए रखने का जिम्मा चुनाव के समय इनके ही कंधों पर आता है. इस दरम्यान उनके और उनके इलाक़ों के मसालयल कोसों दूर चले जाते हैं.

जीतने वाले 24 मुस्लिम उम्मीदवारों के सम्पत्ति की सूची...

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