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बिहार की चुनाव डायरी - किसकी जोड़ी कितनी हिट

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नासिरुद्दीन हैदर

बिहार में चुनाव प्रचार खत्म हो चुका है. आज आखिरी दौर का मतदान भी हो गया है. फिर नतीजों की बारी है. उससे पहले कुछ दिन चर्चा का बाजार गर्म रहेगा. टीवी चैनल भी सर्वे और एक्जिट पोलों से लबरेज़ रहेंगे.


चुनाव की घोषणा के ठीक पहले, चुनाव की घोषणा के बाद और मतदान के दौरान - बिहार के अलग अलग हिस्सों में जाने का मौका मिला. जब भी कोई मिला, सबका स्वभाविक सवाल होता है - बिहार में क्या हो रहा? बिहार में क्या होगा? कौन जीतेगा?

आमजन के बीच छवि है कि पत्रकारों को दुनिया की हर चीज के बारे में पता होता है. इसलिए चुनाव में क्या हो रहा है या क्या नतीजे आएंगे - पत्रकारों के पास सबसे पुख्ता जानकारी होगी.



मेरे पास इस बात का कोई जवाब नहीं कि क्या होगा या क्या नतीजे आएंगे. हालांकि बतौर पत्रकार मैंने कुछ चीजें देखीं, लोगों से बात की, कुछ चीजें महसूस कीं. उसी आधार पर मैंने बार-बार पूछे जाने वाले कुछ सवालों का जवाब देने की कोशिश की है. यह जवाब मेरे जाती अनुभव पर आधारित है. इससे हर कोई अपने-अपने नतीजे निकलने को आजाद है.

नीतीश कुमार के बारे में लोग क्या सोचते हैं?

यह चुनाव नीतीश कुमार के इर्द-गिर्द है. अगर कुछ महीनों को छोड दें तो वे दस साल से मुख्यमंत्री हैं. इसलिए चुनाव में वे एक बडा मुद्दा हैं. यह उनके काम और काम करने के तरीके को नापने का भी चुनाव है.

पटना का कुम्हरार हो या दीघा, बांकीपुर या फिर नौबतपुर. गंगा पार हाजीपुर हो या वैशाली या सीमांचल का पूर्णिया या अररिया हो, बहुत कम ऐसे लोग मिलेंगे जो नाम सुनते ही नीतीश कुमार की सीधे-सीधे बुराई करते नजर आएं. गाली देने वाले भी कम मिलते हैं. नौबतपुर में प्रधानमंत्री की रैली में शामिल दबंग युवा हों या वैशाली में पासवान-मांझी की रैली में शामिल गरीब, नीतीश का नाम आते ही उनके विचार धुर विरोधी वाले नहीं रह जाते. तीखी बुराई करने वाले ज्यादातर विरोधी पार्टियों के कार्यकर्ता होते हैं.

समर्थकों के लिए नीतीश बिहार और उनकी जिंदगी में बदलाव की निशानी हैं. वे सड़क दिखाते हैं. कहते हैं याद कीजिए यही नौबतपुर दस साल पहले किस हाल में था. वे अपराध में कमी का हवाला भी देते हैं. वे बिजली की हालत सुधरने की तरफ ध्यान दिलाते हैं. इनके पास गिनाने के लिए कई चीजें हैं - स्कूलों में टीचर आ रहे हैं, पीएचसी पर डॉक्टर आते हैं, लडकियों को साइकिल मिली, स्कूल जाने वालों को ड्रेस, मिड-डे मील मिल रहा, पेंशन मिल रहा. वगैरह वगैरह.

जो समर्थक नहीं रह गए उन्हें सबसे बडी शिकायत है, बाकि सब तो ठीक है लेकिन लालू के साथ जाकर नीतीश ने ठीक नहीं किया. गड़बड़ा गए. लालू काम करने नहीं देगा. नीतीश भी उसी तरह हो जाएंगे. ऐसे लोग यह भी जोड़ते हैं, अगर नीतीश अकेले चुनाव लडते तो उनको कोई रोक नहीं सकता था. नीतीश लालू के बराबर सीट पर लड़ रहे हैं. लालू नीतीश को कभी आगे नहीं बढ़ने देगा. रिमोट अपने हाथ में रखेगा. जब तक भाजपा साथ थी, नीतीश विकास कर रहे थे. देखिए पिछले दो साल में क्या हुआ? इनकी बातों को सुनकर लगेगा कि अगर लालू को छोड दें तो ये सब नीतीश के समर्थक हो जाएंगे.

लेकिन इसके साथ ही एक अहम सवाल है, क्या ऐसा कहने वाले अकेले चुनाव लडने पर नीतीश का समर्थन करते? अगर हां, तो लोकसभा चुनाव में क्यों नहीं किया? कुछ का कहना है कि लोकसभा और विधानसभा का चुनाव अलग-अलग होता है. विधानसभा चुनाव में तो नीतीश के साथ ही होते. वे कहते हैं, श्रीकृष्ण बाबू के बाद बिहार को ऐसा मुख्यमंत्री मिला था.

एनडीए के हाल क्या हैं?

बिहार में एनडीए यानी भारतीय जनता पार्टी, लोकजनशक्ति पार्टी, हम (सेक्यूलर) और रालोसपा का संयुक्त मोर्चा. लोकसभा चुनाव में बिहार में जबरदस्त कामयाबी मिली थी. इस लिहाज से उसका भी बहुत कुछ दांव पर है.

प्रचार में एनडीए हावी रहा. एनडीए के पास प्रचार करने वाले नेताओं की फौज है. इनमें कई स्टार प्रचारक हैं. अखबारों में छपने वाले विज्ञापनों से पता चलता है कि एनडीए का प्रचार कितना सघन है. एक-एक विधानसभा में एक ही दिन कई नेताओं ने सभाएं, रोड शो किए. ज्यादातर बड़े नेता हेलीकॉप्टर से दौरा करते रहे. अखबारों में भी रोजाना एनडीए के ही छोटे-बड़े विज्ञापन निकल रहे हैं.

इसके सबसे बडे स्टार प्रचारक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी खुद हैं. विज्ञापनों और होर्डिंग को देख किसी को भ्रम हो सकता है कि यह लोकसभा चुनाव है या विधानससभा चुनाव. मतदान के दो चरणों तक ज्यादातर विज्ञापनों में दो चेहरे थे - प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह. दूसरे चरण के बाद विज्ञापनों में एनडीए के बाकि नेताओं के चेहरे दिखने लगे. हालांकि अब भी अनुपात में वे प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह की तस्वीर के मुकाबले कहीं नहीं ठहरते. आखिरी दौर का चुनाव खत्म होने तक प्रधानमंत्री ने लगभग तीन दर्जन सभाएं कीं. उनकी सभाओं में भीड़ दिखती है. पीएम की सभा में जिले की सभी विधानसभाओं के उम्मीदवार रहते थे. लिहाजा उनके समर्थक भी होते हैं. इनमें कुछ लोग उन्हें देखने भी आते हैं. पुरुषों की तुलना में महिलाओं की तादाद कम रहती है. सभाओं में शामिल लोग मुखर मिलते हैं. इनके कपड़े लत्ते भी ठीकठाक होते हैं. चारपहिया और दुपहिया गाड़ियों की तादाद भी ठीकठाक रहती है.

प्रधानमंत्री की सभा का मैदानी दायरा बड़ा होता है. इसकी एक वजह हेलीकॉप्टर हैं. हेलीकॉप्टर आमतौर पर सभा स्थल के पास उतरता है. उसके लिए एक बडा घेरा होता है. फिर सुरक्षा का घेरा होता है. जनता इन सब घेरों के बाद होती है. मंच से जनता की दूरी ठीक-ठाक होती है. तस्वीर में सभा का दायरा बडा लगता है.

प्रधानमंत्री के साथ केन्द्रीय मंत्रियों की फौज भी प्रचार में जुटी रही. इसमें सिर्फ बिहारी मंत्री नहीं हैं. मंत्रियों के अलावा दूसरे राज्यों के भाजपा के कई नेता सक्रिय देखे जा सकते हैं.

एनडीए के नेताओं के निशाने पर नीतीश कुमार हैं. लालू-राबड़ी का 15 साल का शासन है. वे इस शासन को ‘जंगलराज’ कहते हैं. इन नेताओं का इलज़ाम है कि अगर लालू-नीतीश जीते तो दोबारा ‘जंगलराज’ आ जाएगा. एनडीए के विकास का मुद्दा वाया दरभंगा पाकिस्तान तक पहुंच गया. आगे कुछ और चर्चा होगी.

किस गठबंधन की जुगलबंदी बेहतर दिखती है?

बिहार के ज्यादातर विधानसभाओं में चुनाव दो गठबंधनों के बीच ही दिख रहा. बमुश्किल 25-30 सीटों पर ही तीन मजबूत दावेदार होंगे. यानी एनडीए और महागठबंधन में ही सीधी टक्कर है. इनमें से कौन गठबंधन आगे निकलेगा, वह इस बात पर निर्भर करेगा कि गठबंधन के सभी घटक सभी विधानसभाओं में कैसा प्रदर्शन करेंगे. यानी चक दे, वही कह पाएगा जिस गठबंधन का टीम वर्क बेहतर होगा.

रोड पर हों या सभाओं में, ज्यादातर जगहों पर महागठबंधन के तीनों घटकों के झंडे साथ दिखाई दिए. प्रचार वाहनों पर तीनों पार्टियों के झंडे साथ लहराते देखे गए. किसी क्षेत्र में प्रचार या उम्मीदवार घटक दलों में से किसी का भी हो पर तीनों के झंडे उनके साथ-साथ होने का आभास देते हैं. महागठबंधन के स्टार प्रचारक मुख्यत: दो थे - नीतीश कुमार और लालू यादव. बीच-बीच में सोनिया गांधी और राहुल गांधी आते रहे. नीतीश और लालू साथी दलों के सभी प्रत्याशियों के लिए सभाएं करते देखे गए. उनके चेहरे की तपन से उनकी इस मेहनत का अहसास हो सकता है. यही नहीं वोटरों में महागठबंधन एक इकाई के रूप में दिखता है. एक इकाई के रूप में उसकी पहचान जमीन पर महसूस की जा सकती है. जब आप किसी समर्थक से पूछें कि वह किसके साथ हैं, तो उसका जवाब तीन होता है - नीतीश या लालू या महागठबंधन. इनमें लालू वालों की तादाद कम है.

दूसरी ओर, प्रधानमंत्री की सभाओं में एनडीए गठबंधन की पूरी एकजुटता दिखती है. बडे नेता भी साथ घूमते दिखते हैं. हालांकि जमीन पर एनडीए, महागठबंधन जैसी इकाई के रूप में नहीं दिखता. लोग वोट के लिए भाजपा या मोदी का नाम लेते हैं. एनडीए का हर घटक दल का रिश्ता भाजपा से है. आपस में वह रिश्ता कैसा है, यह जमीन पर साफ नहीं हो पाता. जैसे लोजपा का हम से रिश्ता. हम का रालोसपा से रिश्ता. रालोसपा का लोजपा से रिश्ता. एक उदाहरण से इसे कुछ समझा जा सकता. वैशाली में एक ही दिन में एक ही जगह एक घंटे के अंतराल पर एनडीए के दो बडे नेताओं की सभा होती है. ये दोनों अलग-अलग आए और अलग-अलग गए. ऐसी क्या मजबूरी रही होगी? हालांकि वहां बैठी जनता को बार-बार यह कहा जाता रहा कि दोनों नेता साथ आएंगे. मुमकिन है, यह संयोग हो. पर अखबारों के विज्ञापनों में भी दोनों सभाओं के आयोजन का अलग-अलग ही जिक्र था.यह भी जरूरी नहीं कि किसी सभा में एनडीए के सभी घटक दलों के झंडे बैनर बराबर की संख्या में दिख जाएं. अगर ‘हम’ का उम्मीदवार है तो उसकी सभा में इक्का-दुक्का बाकियों के झंडे दिखते हैं. प्रधानमंत्री की सभाओं में मैदान में भाजपा का झंडा हावी रहता है. एनडीए के घटक दलों का झंडा होता है लेकिन अनुपात में काफी कम. एनडीए की चर्चा ज्यादातर प्रधानमंत्री मोदी के इर्द-गिर्द होती है. कहीं-कहीं पासवान, मांझी या कुशवाहा भी साथ में चर्चा में आते हैं.

‘जंगलराज’ क्या है?

बिहार में पिछले कई चुनावों से जंगलराज एक स्थाई मुद्दा रहा है. इस बार भी मुद्दा है. एनडीए के शब्दों में ‘जंगलराज’ यानी लालू-राबड़ी राज. एनडीए के नेता अपने भाषणों में भी इसे जोर-शोर से उठाते हैं. अब सवाल है कि यह नारा किन्हें भा रहा? यह ज्यादातर उन लोगों को अपील करता दिखता है, जो अपने को ‘ऊंची’ जाति का कहते हैं या शहरों में रहते हैं या बिजनेस करते हैं या पैसे वाले मध्यवर्ग का हिस्सा हैं. एनडीए का ‘जंगलराज’ का संदेश इनका तक पहुंचा है. यह कितना कामयाब है, पता नहीं चलता. लेकिन लोगों की बड़ी गोलबंदी इस मुद्दे के पीछे ही रही हो, ऐसा भी नहीं दिख रहा. अभी तक इसके भी संकेत नहीं मिले कि बाकि जातीय समूहों और ग्रामीण इलाकों में यह कारगर है.

...जारी

[हम आगे पढ़ेंगे कि इस चुनाव में 'विकास', 'अल्पसंख्यक'और पिछड़ी जातियों-दलितों का क्या समीकरण रहा.]


जीत के जश्न का गवाह : वीरचंद पटेल पथ

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अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

पटना:हमेशा राजनीतिक कार्यकर्ताओं से गुलज़ार रहने वाला पटना का ‘वीरचंद पटेल पथ’ आज सुनसान है. खामोश है. शायद यह खामोशी 8 नवम्बर को इस सड़क पर आने वाले ‘सुनामी’ के पहले की खामोशी है. 8 नवम्बर को यहां जन-सैलाब उमड़ेगा और पूरे बिहार में आंधी की तरह फैल जाएगा. बिहार में जीत चाहे जिसकी भी हो, लेकिन ‘बिहार की जीत’ के जश्न का गवाह तो इसी सड़क को बनना तय है.


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ज़िला अतिथि गृह से जैसे ही आप आगे बढ़ते हैं. सबसे पहले जदयू कार्यालय नज़र आता है. ऑफिस में तो सन्नाटा ही दिखाई देता है, लेकिन हर तरफ़ रौशनी ज़रूर पसरी हुई है. इसी अतिथि गृह के बाहर आमने-सामने सड़क पर ही पूरी ज़िन्दगी गुज़ारने वाले कई ‘अतिथि’ मिल जाएंगे. 32 साल की रानी देवी बताती हैं कि वह इसी सड़क पर पली-बड़ी हैं. कई सरकारें आईं व गईं, लेकिन उनके ज़िन्दगी पर कोई फ़र्क नहीं पड़ा. अब यह सड़क ही हमारा घर है. हमारी पहचान है.

रानी से पूछने पर कि क्या 8 नवम्बर को जश्न इधर ही मनेगा या जश्न मनाने के लिए आगे जाना पड़ेगा? इस सवाल पर वह मुस्कुराने लगती हैं. उनकी यह मुस्कुराहट खुद-ब-खुद काफी कुछ बता देती है. पूछने पर कि अगर इधर ही जश्न मना तो आपको परेशानी नहीं होगी? क्या आपको अपना बोरिया-बिस्तर समेटना तो नहीं पड़ेगा? तो इस पर वह बताने लगती हैं, ‘यहां बड़ी-बड़ी रैलियां हुई हैं. खूब जश्न मना है. लेकिन हम लोगों को कभी कोई तकलीफ़ नहीं हुई है. उस दिन भी हम लोगों को कहीं जाना नहीं पड़ेगा. बस बोरिया-बिस्तर लेकर साईड पकड़ लूंगी.’


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जदयू कार्यालय से आगे बढ़ने पर राजद का कार्यालय दिखता है. आज यहां भी सन्नाटा ही पसरा हुआ है. रौशनी भी कहीं नज़र नहीं आती. पास में ही 45 साल की सईदा खातुन मिट्टी के चूल्हे बनाकर बेचती हैं. वह बताती है कि कोई जीते, कोई हारे, हम पर कौन सा फ़र्क पड़ने वाला है. हमें तो अपना काम ही करना हैं.

वह बताती हैं वो पास में ही उनका घर हैं. लेकिन रात को ज़्यादातर यहीं रहती हूं. लेकिन अगर नहीं भी रहती हूं तो भी चूल्हे ग़ायब नहीं होते. यहां कभी कोई नुक़सान नहीं पहुंचाता है.


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आगे बढ़ने पर भाजपा का दफ़्तर है. आमतौर यहां हर रोज़ काफी चहल-पहल नज़र आती है. लेकिन आज नज़र नहीं आ रही है. बाहर कुछ गाड़ियां ज़रूर खड़ी थी. अंदर भी नेता इधर-उधर बैठकर राजनीतिक चर्चा करते ज़रूर नज़र आए.

भाजपा दफ़्तर के बग़ल में ही 14 साल का रंजन लिट्ठी व समोसा आदि बेचते हैं. वह बताते हैं कि दूसरी क्लास के बाद पढ़ाई छूट गई. पढ़ाई छूटने की वज़ह पूछने पर वह खामोश हो जाता है. उनकी आंखें नम हो जाती हैं. आगे पूछने पर कि क्या चुनाव में दुकान की बिक्री बढ़ी, इस पर जवाब आता है, ‘भाई! यहां बड़े लोग आते हैं. उन्हें ये कहां से पसंद आएगा.’

जीत के जश्न की दिशा पूछने पर रंजन मुस्कुराने लगता है और फिर आंखों से इशारा करता है कि आगे की तरफ़ ज़्यादा चांस है. दरअसल, रंजन का आगे की तरफ़ का मतलब जदयू व राजद दफ़्तर से था.

यहीं से आगे मुड़ने पर सीपीआई का दफ़्तर भी है और इसी सड़क पर एनसीपी का दफ़्तर भी है. लेकिन यहां कोई जश्न होगा, इसकी संभावना फिलहाल नज़र नहीं आती. लेकिन आस-पास सड़कों पर, चाय की दुकानों पर लोग खड़े होकर चुनावी विश्लेषण करते ज़रूर नज़र आ रहे हैं.

दरअसल, पटना का ‘वीरचंद पटेल पथ’ का बिहार की राजनीति में काफी महत्व है. लोगों को अगर सियासत में क़दम रखना है तो बगैर इस सड़क पर आए कोई नेतागिरी नहीं चलने वाली. इस सड़क ने कई नेताओं को फर्श से अर्श तक पहुंचाने का भी काम किया है, तो नेताओं के अर्श से फर्श पर फिसलने का गवाह भी यही सड़क है.

यह सड़क इतिहास के उस क्षण का भी गवाह है कि जब यहीं लोकनायक जयप्रकाश नारायण पर लाठियां बरसी थी. वर्तमान में 8 नवम्बर को इस सड़क पर जीत का जश्न जमकर मनेगा. लेकिन अभी यह तय नहीं है कि पटाखें पाकिस्तान के साथ बजेंगे या सिर्फ़ अमित शाह ही पटाखें चला पाएंगे. जो भी हो, इन पटाखों की आवाज़ से आगे के विधानसभा चुनावों की हवा भी तय होगी.

बिहार की चुनाव डायरी : किन मुद्दों से नतीज़ों पर असर पड़ेगा?

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नासिरुद्दीन हैदर

चुनाव में मीडिया की भूमिका क्या है? क्या अखबारों की नजर में सभी दल और प्रत्याशी बराबर हैं?

अगर चुनाव शुरू होने से पहले के पटना के अखबार देखें तो ऐसा लगता है कि भाजपा या एनडीए की शुरुआत से ही बढ़त है. उसी की सरकार बन रही है. खबर, प्रस्तुति, कवरेज का दायरा - सब एनडीए की सरकार बनाते दिखते हैं.

चुनाव की घोषणा से पहले और आखिरी दौर के प्रचार तक कुल मिलाकर प्रधानमंत्री की तीन दर्जन सभाएं हुईं. प्रधानमंत्री की तीन दर्जन सभाएं यानी कम से कम उतने दिन प्रधानमंत्री का भाषण अखबारों की पहली खबर बनी. पहली खबर के साथ ही अंदर के पन्नों पर कभी एक तो कभी दो पन्ने अलग से दिखते हैं. यही नहीं, कुछ मौकों पर तो प्रधानमंत्री के आने की खबर दो या तीन दिन पहले से ही अखबारों की पहली खबर बनती दिख रही. यह कवरेज अखबारों के जिला संस्करणों में और बढा दिखाई देता है. इसके अलावा भाजपा/एनडीए के जितने नेता घूम रहे थे, उतने की अलग-अलग खबर और फोटो भी अखबारों में देखे जा सकते हैं. बयान, प्रेस कांफ्रेंस अलग हैं. कई बार तो अखबारों के चुनाव पन्ने पर सिर्फ एनडीए के नेताओं की ही खबर दिखाई दे रही थीं.


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इसके बरअक्स महागठबंधन के समाचार या खबर काफी कम जगह घेरते दिख रहे थे. अखबारों में उनको वैसी ही प्राथमिकता नहीं मिलती दिखती जैसी एनडीए के नेताओं को मिल रही थीं. इनके नेताओं की सभा, बयान शायद ही किसी दिन किसी अखबार में पहली खबर के रूप में दिख जाए तो दिख जाए.

कुल मिलाकर देखा जाए तो चुनाव से पहले अखबारों की प्रस्तुति के मुताबिक एनडीए (पढें भाजपा) की मजबूत बढ्त थी. ज्यादातर पत्रकार भी इस मजबूती की बात करते रहे. पहले चरण के मतदान के बाद मजबूती की बात में मामूली कमी आई. दूसरे चरण के मतदान के बाद थोडी कमी आई. मगर अखबारों के कवरेज में कोई बडा बदलाव फिलहाल नजर नहीं आया.

अखबारों में विज्ञापन भी भाजपा/एनडीए का ही दिख रहा. हर रोज कई तरह के विज्ञापन निकल रहे थे. आरोप. प्रचार. कार्यक्रम. अपील. यानी अखबारों को विज्ञापन के जरिए सबसे ज्यादा फायदा एनडीए से ही मिला है.

इस चुनाव में मुसलमान कहां हैं?

यह भी एक महत्वपूर्ण सवाल है. हर चुनाव में यह सवाल रहता है. मुसलमान किसके साथ है? किसके साथ नहीं है? वोट बैंक है? एक पार्टी को मुसलमानों का वोट मिलेगा या बंटेगा? मुसलमान अपने आप में एक अहम सवाल है.

बिहार में मुसलमान वोटों के लिए हमेशा संघर्ष होता रहा है. सेकुलर पार्टियों के बीच इस बात का संघर्ष रहता है कि कौन मुसलमानों का कितना बडा हितैषी है? और भाजपा जैसे दल इन पार्टियों पर तुष्टीकरण का आरोप लगा धार्मिक ध्रुवीकरण की कोशिश में रहते हैं.

इस बार का चुनाव मुसलमानों के लिहाज से सबसे दिलचस्प है. न तो सेकुलर पार्टियों के बीच मुसलमान वोटों के लिए मारामारी दिखती है और न ही चुनाव मैदान में मौलाना नजर आ रहे. मुसलमानों के नाम पर शुरुआत में थोडी हलचल हुई थी. वह हलचल एमआईएम नेता असदुद्दीन ओवैसी के आने से हुई. ओवैसी ने किशनगंज में धमाकेदार शुरुआत की और कहा, वे सीमांचल में चुनाव लडेंगे. जोरदार बहस शुरू हुई. ओवैसी से किसका फायदा होगा? मुसलमान बंट जाएगा. भाजपा को फायदा होगा, वगैरह, वगैरह. भाजपा के एक बडे नेता ने तो यहां तक कह दिया कि उनकी असली लडाई ओवैसी से है. लेकिन अंत में ओवैसी की पार्टी ने छह सीटों पर चुनाव लडने का फैसला किया. अब उनकी चर्चा सिर्फ उसी इलाके तक सीमित है. वे उस इलाके से बाहर सभा करने के लिए भी नहीं निकले.

दो चरण का चुनाव बीत चुका था और मुसलमानों को लेकर कोई गहमागहमी नहीं थी. अचानक, तुष्टीकरण का आरोप लगाने वाली भाजपा ने आरक्षण को अल्पसंख्यक रंग दे दिया. एनडीए और खासकर भाजपा ने बार-बार अल्पसंख्यकों (पढें मुसलमानों) को इशारा कर कुछ न कुछ मुद्दा उछालने की कोशिश की. पाकिस्तान, आतंक का दरभंगा माड्यूल जैसे मुद्दे भी आए. अल्पसंख्यक, बिहार में मुसलमान ही समझा जाता है. जाहिर है, ये मुद्दे मुसलमानों के लिए नहीं हैं. ये हिन्दुओं को गोलबंद करने की कोशिश है. तो सवाल है, तुष्टीकरण किसका हो रहा? वोट बैंक की राजनीति किसके लिए और कौन कर रहा?

एक और बात, आमतौर पर भाजपा समर्थकों से बात करने पर एक बात साफ होती है. उनके जेहन में मुसलमानों के वोट के लिए कोई संदेह नहीं है. वे सीधे कहते हैं, मुसलमान तो हमें वोट करेंगे नहीं. क्यों? पता नहीं. हालांकि पिछले कई चुनाव के आंकडे बता रहे कि छह से आठ फीसदी मुसलमानों की पसंद भाजपा रही है. जब यह मान कर चला जा रहा कि मुसलमानों का वोट मिलना नहीं है या लेना नहीं है तो राजनीति की भाषा कैसी होगी, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं. एक और बात गौरतलब है, रामविलास पासवान, जीतनराम मांझी और कुशवाहा जैसे लोग भी अल्पसंख्यकों को निशाना कर होने वाली टिप्पणियों पर कुछ बोलते नहीं दिखते.

हां, मुसलमान कुछ डरा-सहमा, सशंकित जरूर है. इसके बाद भी कुल मिलाकर मुसलमान इस बार चुनाव में एक आम वोटर की तरह दिख रहा. कुछ हो न हो, इस चुनाव की यह बडी उपलब्धि दिखती है.

विकास बनाम जाति बनाम मुद्दा है या नहीं?

बिहार के बारे में एक जुमला और उछाला गया - यहां तो सब जाति से ही तय होता है. यहां जैसा जातिवाद कहीं नहीं है. हालांकि इस पर कुछ राय देने से पहले सोचने वाली बात है कि देश के किस इलाके में जाति के नाम पर गोलबंदी नहीं होती? देश के अलग-अलग हिस्सों में जातियों के नाम पर नेता हैं. टिकट बंटवारे में जाति का ध्यान रखा जाता है. बिहार भी इससे अछूता नहीं है. जाति हकीकत है. जाति के आधार पर सामाजिक वर्गीकरण है. जाति के आधार पर सत्ता और ताकत है. जाति सामाजिक-आर्थिक हैसियत भी है. इसलिए इसके नाम की राजनीतिक गोलबंदी सामाजिक हैसियत को बरकरार रखने और सामाजिक हैसियत को बदलने की भी लडाई है.

बिहार के इस चुनाव में यह गोलबंदी है भी और नहीं भी. सबसे बडी बात है कि लोगों के राजनीतिक मुहावरे बदल गए हैं. वे सिर्फ जाति की ही बात नहीं करते. वे जाति के साथ सडक, बिजली, पानी, पेंशन, खेती, बाढ की बात करते हैं. पढाई और काम की बात करते हैं. वे स्कालरशिप और मिड डे मिल, वृद्धावस्था पेंशन, इंदिरा आवास की बात करते हैं. वे अपनी ख्वाहिशों की बात करते हैं. स्कूल खुलने चाहिए. कॉलेज होने चाहिए. अस्पताल बनने चाहिए.

ऐसा सोचने और बोलने वालों में स्त्री-पुरुष, नौजवान-बुजुर्ग सब शामिल हैं. जाहिर है, अगर इन सुविधाओं का बंटवारा अब तक जातिगत आधार पर होता रहा तो आज इनके विमर्श में जाति दिखेगी. वह दिखती भी है. पर उस विमर्श का आधार बराबरी और विकास की चाह है. यह विमर्श पिछले दस साल में काफी बदला है. उससे पहले यह विमर्श राजनीतिक ताकत पाने का था. अब उस राजनीतिक ताकत का इस्तेमाल सामाजिक बदलाव की चाह के साथ जुडा है.

ऐसा भी नहीं है कि एक खास जाति का होने की वजह से ही कोई उम्मीदवार सजातीय लोगों का वोट हासिल करने का दावा कर लेगा. बिहार के वोटर एक ही जाति के कई उम्मीदवारों के बीच बेहतर उम्मीदवार तलाश करते देखे जा रहे हैं. लोगों से बात करने पर यह साफ दिखता है कि ये तलाश उम्मीदवारों के काम और सोच के आधार पर हो रही है. जैसे- फलां मिलनसार है. फलां ने ये सडक बनाई. फलां तो कुछ नहीं किया.

एक और बात, नेताओं को यह पता है कि सिर्फ एक जाति या धर्म का वोट न तो किसी को जिता पाया है न जिता पाएगा. अब सवाल है, कौन-कौन सी जातियां आपस में जुड रही हैं? कौन आपस में संवाद करने को तैयार हैं? आपसी विरोध का किनका लम्बा इतिहास नहीं रहा है?

इसलिए अगर एक से ज्यादा जातियां एक साथ राजनीतिक रूप से आगे आ रही हैं तो यह उनके सामंजस्य का नतीजा है न कि आपसी प्रतियोगिता का.


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सवाल यह भी है कि कौन किस पर जातिवाद का आरोप लगा रहा है?

दिलचस्प है, तथाकथित अगड़ी जातियों की गोलबंदी कभी जातिवाद के दायरे में नहीं आती. जातिवाद के पीछे की राजनीति इससे भी समझी जा सकती है कि यह आरोप लगाने वालों की जातियां क्या हैं?

जहां पिछडे दलित गोलबंद होते हैं, उन पर जातिवाद का आरोप लगने लगता है. आरक्षण के समर्थक जातिवादी हुए और आरक्षण विरोधी जातिविरोधी! बिहार के चुनाव में भी यह साफ दिखता है. महागठबंधन जातिवादी है और एनडीए इससे बरी. हालांकि जमीनी हकीकत कुछ और कहती है. अगर जाति के नाम पर गोलबंदी है, तो उससे एनडीए भी अछूता नहीं है. सवाल फिर वही है, जातियों के बीच किसमें कितना सामंजस्य बनाने या बैठाने की ताकत और सलाहियत है?
टिकट बंटवारे में सभी दलों ने जाति का ख्याल रखा. एनडीए की रैलियों में नेताओं का परिचय जब कराया जाता है तो उनकी जाति पर खास जोर दिया जाता है. यह प्रधानमंत्री की रैली में मौजूद नेताओं के परिचय में भी देखा जा सकता है. पिछडे, दलित और महादलित नेताओं के परिचय पर खासा जोर होता है. इतना जोर अगडी जातियों के नेताओं का परिचय कराने में नहीं होता.
एक और बात, कभी किसी पार्टी या नेता को किसी जाति या धर्म का सौ फीसदी समर्थन नहीं रहता. चाहे वह कितना बडा ही नेता क्यों न हो. सवाल है, कौन कितना बडा हिस्सा खींच लेगा. सवाल यह भी है कि जाति अगर चुनाव जीतने का सबसे आसान रास्ता है तो यह रास्ता सबको पता है. फिर कामयाबी सबको क्यों नहीं मिलती? बिहार का चुनाव इन सवालों का जवाब भी तैयार कर रहा है.

क्या जातीय उभार दिख रहा?

जातीय उभार देख पाना मुश्किल है. जातियों के बीच, खुला टकराव भी नहीं दिख रहा. हां, एक चीज साफ है. कुछ जातियों के लोग काफी मुखर हैं. भूमिहार, ब्राह्मण, राजपूत, यादव और कुर्मियों में यह मुखरता सबसे ज्यादा है. यानी ये अपनी पसंदगी, नापसंदगी बिना किसी लाग-लपेट के खुलकर बताते हैं.

लोग भले ही जाति से इतर मुद्दों पर चर्चा करना भी चाहें नेता उन्हें ऐसा करने नहीं देते. इससे कोई भी दल बरी नहीं है.

मुख्यमंत्री कौन बनेगा?

महागठबंधन ने नीतीश कुमार को अपना मुख्यमंत्री घोषित कर रखा है. वहां कोई और दावेदार फिलहाल नहीं है. महागठबंधन बार-बार एनडीए पर आरोप लगा रहा कि उसके पास मुख्यमंत्री का कोई चेहरा नहीं है. यह उनका बड़ा मुद्दा भी है.

एनडीए ने मुख्यमंत्री के लिए किसी के नाम का एलान नहीं किया. एनडीए के नेता भले ही यह कहते रहें कि हम चुनाव बाद नेता चुनेंगे लेकिन हवा में कई नाम तैर रहे हैं. अगर यही सवाल एनडीए समर्थकों से किया जाए तो अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग नाम सुनने को मिलेंगे. राजेन्द्र सिंह, प्रेम कुमार, सुशील कुमा मोदी, नंद किशोर यादव, शाहनवाज हुसैन, रविशंकर प्रसाद, जीतन राम मांझी … जैसा वोटर, वैसा नाम.

मुद्दा क्या है? विकास या पाकिस्तान?

बिहार के इस चुनाव ने एक महीने में कई मुद्दे देख लिए. चुनाव की आहट विकास के नारे के साथ शुरू हुई. ये लगा कि चुनाव का मुहावरा बदल गया है. चुनाव विकास के नाम पर ही होगा. नीतीश का विकास बनाम प्रधानमंत्री मोदी का विकास ही चुनाव की धुरी बनेगी. दोनों खेमों ने अपने अपने ढंग से विकास होने और न होने के तर्क दिए. मोदी के सवा लाख करोड देने की घोषणा और उसके सच पर चर्चा हुई. एनडीए कहता रहा कि हम तो विकास की की राजनीति करते हैं, महागठबंधन जातिवाद कर रहा. हालांकि यह समझ से परे रहा कि एनडीए का बिजली, पानी, सडक, स्वास्थ्य, शिक्षा पर बात करना अगर विकास है तो इन्हीं पर महागठबंधन की बात जातिवादी कैसे हो जाती है.

लेकिन चुनाव के परवान चढने के साथ साथ बिहार की राजनीति ने खुले रूप में वह देखा, जो अब तक उसने कभी नहीं देखा था. देखते ही देखते विवादास्पद मुद्दों का दौर शुरू हो गया. हजार किलोमीटर दूर दादरी में हुई घटना के बाद गो मांस, गोहत्या का मुद्दा उठा. फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत की तरफ से एक मुद्दा उछला- आरक्षण पर विचार का. महागठबंधन की तरफ से लालू प्रसाद यादव ने आरक्षण से जुड़ा यह मुद्दा पुरजोर तरीके से उठाया. मतदान के पहले चरण के बाद एनडीए की तरफ से आरक्षण के बारे में संघ प्रमुख के बयान पर सफाई आने लगी. ध्यान रहे, खंडन नहीं आया. आश्चर्यजनक तरीके से पटना के अखबारों में संघ ने भी इसकी सफाई पेश की. मोदी को नौबतपुर में अपनी रैली में कहना पडा कि आरक्षण पर जैसी सोच नीतीशजी और लालूजी की है, वही सोच उनकी है. और इसके बाद बक्सर की रैली में उन्होंने आरोप लगाया कि नीतीश-लालू दलितों, आदिवासियों और पिछडों के आरक्षण में कटौती कर अल्पसंख्यकों को देना चाहते हैं. इसके बाद भाजपा की हार पर पाकिस्तान में पटाखे फूटने वाला अमित शाह का बयान आया. फिर आतंक का दरभंगा माड्यूल. वगैरह वगैरह. ये सारे मुद्दे क्यों उठाए गए और यह चुनाव को किस दिशा में ले जाने की कोशिश है, बताने की जरूरत नहीं. ऐसा लगता है कि आरक्षण के मुद्दे का असर रहा है.

विकास से शुरू हुआ चुनाव पाकिस्तान तक जा पहुंचा. भूलना नहीं चाहिए कि गुजरात विधानसभा का एक चुनाव ‘मियां मुशर्रफ’ के नाम पर भी लडा गया है. यह भी देखना दिलचस्प है कि क्यों बिहार में एनडीए को अपना मुद्दा बदलना पडा या नए मुद्दे लाने पडे? अब यह भी देखना दिलचस्प होगा कि बिहार की जनता ने इन मुद्दों पर कैसी प्रतिक्रिया दी.

अगर गौर करें तो चुनाव में एक के बाद एक मुद्दे उछालने का काम एनडीए करता रहा दूसरी ओर महागठबंधन ने अपने प्रचार को शुरू से अंत तक आमतौर पर एक जैसा रखा. महागठबंधन के हिस्से कोई बडा विवादास्पद मुद्दा भी नहीं आया. देखना यह है कि इन मुद्दों के बीच बिहार की जनता किसके साथ खडी होती है.

एनडीए बीच-बीच में बिजली पानी सडक का मुद्दा भी उठा रहा है. महागठबंधन का कहना है कि इस मामले में पहले ही काफी कुछ हुआ है. आगे और करने का वादा है. हालांकि इन मुद्दों की जमीनी हकीकत भी जानना जरूरी है. जैसे-जिन इलाकों में शाम होते ही बाजारों में जनरेटर का धुआं भरा होता था, वहां अब जनरेटर कम चलते हैं. पहले से बिजली की हालत बहुत बेहतर हुई है. अररिया जैसे छोटे शहर में रात में भी पूरा परिवार बाजार में आइसक्रीम खाते देखा जा सकता है. सडक पहले से काफी बेहतर हुई है. कम से कम शहरों को जोडने वाली सडकें बेहतर हुईं हैं. बिहार से वास्ता रखने वाले लोग बेहतर बता सकते हैं कि क्या ये तीनों बिहार में कोई बडा मुद्दा बन पाएंगे.
एक और बात, बिहार के कई इलाकों में पार्टी और जाति से इतर उम्मीदवार भी बडा मुद्दा हैं. इसमें जातियों का भेद नहीं है. इसलिए मुमकिन है, कि कई लोगों के हारने जीतने की वजह वे खुद हों.

कौन जीत रहा?

यह सबसे ज्यादा पूछा जाने वाला सवाल है. सब नतीजे पर पहुंचना चाहते हैं. चुनाव इतना आसान होता नहीं. इतना आसान रह नहीं गया. 1995 के बाद पत्रकारों के लिए भी चुनाव काफी चुनौती भरा रहा है. 1995 में ही इक्का दुक्का लोगों को छोड सभी लालू यादव के हारने की घोषणा कर चुके थे. नतीजा क्या आया? इसलिए बेहतर है कि नतीजे पर बात न की जाए. नतीजों पर असर डालने वाले कारकों पर जरूर बात की जा सकती है.

कौन सी चीजें नतीजों पर असर डालेंगी?

मेरी राय में ये मुद्दे बिहार के नतीजे पर असर डाल सकते हैं-

नीतीश कुमार के प्रति माहौल क्या है?

महागठबंधन के प्रति लोगों की क्या राय है?

क्या महागठबंधन के सभी घटक एक-दूसरे को वोट दिलवाने में कामयाब हुए?

लालू प्रसाद यादव कितना कारगर रहे?

क्या नरेन्द्र मोदी के प्रति आकर्षण 2014 जैसा ही है?

क्या एनडीए गठबंधन के सभी घटक एक दूसरे को वोट दिलवाने में कामयाब हुए?

मुसलमानों ने किन मुद्दों पर वोट डाला?

असदुद्न ओवैसी और पप्पू यादव कितने असरदार साबित हुए?

विकास का मुद्दा कितना और किसके पक्ष में चला?

आरक्षण का मुद्दा कितना चला?

आरक्षण पर प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा का आरोप कितना असरदार दिखा?

क्या गोमांस, गोहत्या, आतंक का दरभंगा माड्यूल असरदार दिखा?

जंगलराज का आरोप कितना असरदार दिखा?

क्या जीतनराम मांझी के साथ महादलित वोटर गए?

पिछडी मानी जाने वाली जातियों की गोलबंदी किसके तरफ ज्यादा हुई?

क्या अगडी मानी जाने वाली जातियां शत प्रतिशत एकजुट हुईं?

क्या युवाओं ने जाति-सम्प्रदाय से अलग वोट किया?

जैसा माना जा रहा, क्या सभी युवाओं का रुझान नरेन्द्र मोदी या भाजपा की तरफ रहा?

क्या महिलाएं मुद्दों पर वोट कर रही हैं? क्या महिलाएं एक अलग वोट बैंक के रूप में हो गई हैं?

क्या जातियों की गोलबंदी हुई? अगर हुई तो कितनी असरदार है?

क्या बिजली-पानी-सड़क बडा मुद्दा है? अगर हां, तो इस मुद्दे ने किसे फायदा पहुंचाया?

उम्मीदवार की छवि कैसी है? उसकी पकड कितनी है?

क्या धर्म के नाम पर हिन्दुओं की गोलबंदी हुई?

अंत में, इतना तय है कि नतीजे चाहे जो हों, चुनाव में उठे विवादास्पद मुद्दे बिहार को मथते रहेंगे. ये नतीजे न सिर्फ बिहार की राजनीतिक दिशा तय करेंगे बल्कि देश की राजनीतिक दिशा पर भी असर डालेंगे.

जीत का जश्न मीठा होना चाहिए, कड़वा नहीं!

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अफ़रोज़ आलम साहिल,

बिहार विधानसभा चुनाव ख़त्म हो चुका है. कल चुनाव के नतीजे भी आ जाएंगे. हालांकि इसको लेकर सबके अपने-अपने क़यास हैं, अपने-अपने एक्जिट पोल... लेकिन सच तो यह है कि जीत उसी की होनी है, जिसे बिहार की जनता का प्यार अधिक मिला होगा. और वो कहते हैं ना –जीत हमेशा सच्चाई की ही होती है. लेकिन मौजूदा हालात में इस बात से भी रूबरू रहना बहुत ज़रूरी है कि कभी-कभी सच हार भी जाता है.

यह बात किसी से छिपा नहीं है कि बिहार के इस चुनाव में धर्म, सम्प्रदाय और जाति के आधार पर लोगों को बांटने की हर मुमकिन कोशिश की गई है. कुछ राजनीतिक दलों ने तो इसमें अपनी समूची ताक़त झोंक दी. ऐसे में इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि धर्म के आधार पर वोटों की फ़सल काटने की इन कोशिशों से कहीं न कहीं समाज में कड़वापन अधिक छा गया है.

‘कड़वापन’ की बात पर ज़रूरी नहीं है कि आप भी सहमत हों. ये बात अपने खुद के तजुर्बे के आधार पर कह रहा हूं, क्योंकि पिछले तीन महीनों से TwoCircles.net के लिए बिहार चुनाव के रिपोर्टिंग के दौरान बिहार के लोगों के दिलों-दिमाग़ में ज़हर को घुलते बहुत क़रीब से देखा है. मज़हब के नाम पर लोगों को नफ़रत की खेती करते भी देखा है. ‘हिन्दुत्व’ के नाम पर पनपने वाले ज़ख़्मों को भी देखा है. देखा है कि किस प्रकार चुनावी लाभ के लिए दो भाईयों को आपस में लड़ाया जा सकता है. दो धर्म के लोगों को कैसे आमने-सामने किया जा सकता है.

पिछले तीन महीनों में देखा है कि कैसे राम-सेना, हनुमान सेना जैसी कई नए-नए सेनाएं बनाई गई हैं, जो बात-बात पर समाज को बांटने का काम करते हैं. बहाना गाय के रक्षा की होती है, लेकिन असल मक़सद इस ‘गौ–माता’ के नाम पर समाज का माहौल ख़राब करना होता है.

हैरानी इस बात पर होती है कि इस काम में सबसे अधिक मुसलमान लड़कों को ही इस्तेमाल किया गया. गाय को लेकर उनकी भड़काउ, गंदी व भद्दी बातों का वीडियो वाट्सअप पर खूब फैलाया गया. और सबसे हैरानी की बात यह है कि ये वीडियो मुस्लिम वोटरों के बजाए वाट्सअप के ज़रिए हिन्दू वोटरों के नंबरों पर अधिक पहुंचा है.

खासतौर पर यहां के दलितों को एक खास तबक़े के खिलाफ़ खूब भड़काया गया. उनको तरह-तरह की लालच दी गई. बताया गया कि अगर हमें वोट दोगे तो हम यहां से मुसलमानों को पाकिस्तान भगा देंगे और उनकी ज़मीनें आप सब लोगों में बांट दी जाएगी. साथ ही उन्हें डराया भी गया कि अगर वोट नहीं दिए और हमारी सरकार नहीं बनी तो मोदी जी जहां-जहां बीजेपी की सरकार है, वहां से तुम्हारे बच्चों को भगवा देंगे.

इन तीन महीनों में छोटे-छोटे साम्प्रदायिक तनाव फैलाने वाले हादसे भी खूब हुए. बल्कि चुनाव के बाद भी ऐसे हादसे रूके नहीं हैं. शुक्रवार को ही गोपालगंज के कटिया थाना क्षेत्र में मीर गयास चक गांव के एक युवक को बीजेपी कार्यकर्ताओं ने बंदुक के बट से पीटकर जान से मारने की कोशिश की.

स्थानीय अख़बार के ख़बर के मुताबिक़ उस दरम्यान बीजेपी एम.एल.सी. आदित्य पांडे व एलजेपी उम्मीदवार काली पांडे भी पहुंचे. लेकिन उन्होंने भी उस युवक को जान से मारने का ही हुक्म दिया. पुलिस ने इस घटना को दर्ज कर लिया है. लेकिन इलाक़े में इस घटना को लेकर काफी तनाव है.

औरंगाबाद ज़िला के मदनपुर थाना क्षेत्र के खिरियावां गांव में भी शुक्रवार को दो समुदाय के लोगों के बीच किसी बात को लेकर तनाव उत्पन्न हो गया. इस घटना में जमकर पथराव भी हुआ. मौक़े पर पुलिस ने पहुंच कर दोनों पक्षों को समझा बुझा कर शांत करा दिया है, लेकिन कहीं न कहीं तनाव अभी भी बरक़रार है.

नवादा के छोटकी पाली गांव में भी पिछले दिनों एक धार्मिक स्थल में बीफ़ के टुकड़े को फेंक कर तनाव फैलाने की कोशिश की गई थी. पुलिस ने उस समय मामले को नियंत्रण में ले लिया था, लेकिन उस घटना के बाद तनाव लगातार बना हुआ है.

ऐसे अनेकों उदाहरण हैं. लेकिन यहां यह बात भी ज़रूर कहना चाहुंगा कि ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती. कई मामलों में पहल मुसलमानों के तरफ़ से भी की गई हैं. शायद मुस्लिम नौजवान अपने जज़्बात को क़ाबू में नहीं रख पा रहे हैं. तो ऐसे में हमारे बुज़ुर्गों का फ़र्ज़ बनता है कि वो इन्हें अपने कंट्रोल में रखने की कोशिश करें. संयम बरतने की हिदायत दें.

लेकिन हां! इस चुनाव में यह बात स्पष्ट तौर पर सामने आ गई है कि बीजेपी वोटों की फ़सल काटने के लिए इस देश में कुछ भी कर सकती है. बल्कि यह बात भी खुलकर सामने आ चुकी है कि अख़बारों को विज्ञापन देकर इस देश में लोगों को आपस में लड़वाया जा सकता है.

पहले आरक्षण के नाम पर दो सम्प्रदाय के लोगों को बांटने की कोशिश की गई. फिर आतंकवाद को लेकर नीतिश-लालू पर निशाना साधा गया, लेकिन असल निशाना कुछ और था. गाय पर खूब राजनीति की गई. ‘गौ- रक्षा’ के नाम पर बिहार में जगह-जगह खूब मार-पीट की गई. फिर बिहार की पॉलिटिक्स पाकिस्तान भी पहुंच गई. जेल में बंद शहाबुद्दीन भी चर्चे में रहें. अमित शाह का यह दोनों बयान उनकी मानसिकता को दर्शाने और ‘पार्टी विथ द डिफ्रेंस’ की क़लई खोलने के लिए भी काफी है.

ख़ैर, कल जब चुनाव के नतीजे पूरी तरह से आ जाएंगे, तो सिर्फ़ बिहार ही नहीं, बल्कि सारा देश जश्न में डूब जाएगा. पर मुझे यहां एक बात ख़ास तौर पर कहनी है कि जीत चाहे जिसकी भी हो, जश्न मीठा होना चाहिए, कड़वा नहीं. ऐसे में आज ख़ास तौर पर लोगों को संयम बरतने की ज़रूरत है. सब्र से काम लेने की ज़रूरत है. ऐसा न हो कि जश्न में फोड़े गए पटाखों से कहीं हमारे समाज में ही आग न लग जाए.

क्योंकि राजनीतिक जीत या हार या आर्थिक विकास से ज़्यादा अहम सामाजिक भाईचारा है. पटरी से उतरी अर्थ-व्यवस्था को दुबारा लाईन पर लाया जा सकता है, लेकिन समाज अगर एक बार पटरी से उतर जाए तो दुबारा विश्वास पैदा करने में बहुत वक़्त लगता है. आज आप आपसी सौहार्द बनाए रखें और लोकतंत्र के पर्व के इस सबसे जश्न में समाज को पटरी में उतारने का मौक़ा न दें. वैसे बिहार दिवाली के साथ-साथ ईद का जश्न मनाने की भी पूरी तैयारी कर चुका है.

नोट: भाई... फोटो पुराने फाईल से कोई भी लगा दीजिएगा. मुमकिन हो तो पहले कुछ स्टोरी को इस के साथ लिंकअप कर दीजिएगा...

जीत के ‘जश्न’ पर पाबंदी, धारा-144 लागू

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By अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

बेतिया : अगर आप पश्चिम चम्पारण के ज़िला के किसी गांव या शहर में रहते हैं. अगर आप आज अपनी पार्टी की जीत पर जश्न मनाने के लिए सोच रहे हैं, तो यह ख़बर आपके दुखद हो सकता है. सड़क पर जीत का जश्न मनाना आपके लिए भारी पड़ सकता है. कहीं ऐसा न हो कि जीत की खुशी आपको जेल के अंदर मनाना पड़े.

पश्चिम चम्पारण के ज़िला प्रशासन ने ज़िला के वर्तमान माहौल को देखते हुए पूरे ज़िले में धारा-144 के तहत निषेधाज्ञा लागू कर दी है. साथ ही यह स्पष्ट आदेश दिया है कि इसका उल्लंघन करने वालों को बख़्शा नहीं जाएगा.

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ज़िला प्रशासन की ओर से इस बात का भी ऐलान किया गया है कि आज बिहार विधानसभा चुनाव के मतगणना परिणाम आने के बाद जीतने वाले प्रत्याशी या उनके समर्थकों द्वारा विजय जुलूस निकालने की अनुमति नहीं दी जाएगी. ज़िला प्रशासन की ओर से विजय जुलूस निकालने पर पूर्ण प्रतिबंध रहेगा. इतना ही नहीं, सड़क पर नारेबाज़ी करने पर भी प्रतिबंध है.

पश्चिम चम्पारण के ज़िला अधिकारी सह ज़िला निर्वाचन पदाधिकारी लोकेश कुमार ने कहा है कि ऐसा ज़िला में विधि व्यव्सथा बनाए रखने के लिए किया जा रहा है. जीत के बाद प्रत्याशी व उसके समर्थक अति-उत्साह में सड़क पर तमाम मर्यादाओं को भूल जाते हैं, जिससे ज़िला में विधि व्यवस्था की समस्या उत्पन्न होने की आशंका बनी रहती है. बस इसी ध्यान में रखते हुए किसी भी प्रकार के विजय जुलूस निकालने पर पाबंदी लगाई गई है.

आगे लोकेश कुमार सिंह ने यह भी बताया कि राजनीतिक प्रतिद्वंदता व प्रतिस्पर्धा के मद्देनज़र विजयी प्रत्याशी व अन्य प्रत्याशियों के समर्थकों के बीच आपसी तनाव बढ़ने, वोटरों को डराने-धमकाने, जाति व साम्प्रदायिक विद्वेष फैलाने की संभावना बनी रही है. लिहाज़ा असामाजिक तत्वों की गतिविधियों को रोकने के लिए ज़िला में अगले 48 घंटे के लिए धारा-144 लागू किया जा रहा है.

वो बताते हैं कि इसके लिए यहां चुनाव लड़ने वाले तमाम राजनीतिक दलों के ज़िलाध्यक्ष व सचिव के साथ मीटिंग भी आयोजित की गई थी. राजनीतिक दलों ने इसमें पूरा सहयोग का आश्वासन दिया है. इस बैठक में बेतिया एसपी विनय कुमार, उप निर्वाचन पदाधिकारी, डीपीआरओ सहित राजनीतिक दलों से बीजेपी, जदयू, कांग्रेस, एनसीपी, रालोसपा आदि के जिलाध्यक्ष और सचिव मौजदू थे.

स्पष्ट रहे कि ज़िला में धारा-144 मतगणना शुरू होने के साथ ही अगले 48 घंटे के लिए लागू हो गई है. ऐसे में आपके लिए मुनासिब यही होगा कि जीत का जश्न आप अपने घर में अपने परिवार के साथ ही मनाएं.

अमित शाह: भाजपा की हार का एकमात्र चेहरा

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सिद्धांत मोहन, TwoCircles.net

पटना:आज का दिन बिहार के निवासियों के लिए रोज़ की सुबह ही है. उनका मुख्यमंत्री नहीं बदला. जिस दल को वे समर्थन देते हैं, वह दल नहीं बदला. नीतीश कुमार के लिए भी यह दिन नहीं बदला है. लेकिन यह दिन सिर्फ दो दलों या दो लोगों के लिए बदला है, राजद या लालू यादव और भाजपा या अमित शाह. लालू की बात फिर कभी, अभी हारी हुई भाजपा और उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह पर बातें.

इस चुनाव के बाद अमित शाह को हार का ठीकरा फोड़ने के बजाय जिम्मेदारी लेनी होगी . (तस्वीर साभार - अमर उजाला)

साल 2014 जिस कदर भाजपा के लिए अच्छा और शुभ साबित हुआ, उसे देखकर लगा कि भगवा रंग धीरे-धीरे समूचे देश पर छा जाएगा. पहले लोकसभा चुनाव और फिर दो-दो राज्यों के विधानसभा चुनाव, जहां बिना किसी संदेह के भाजपा विजयी रही. लेकिन 2015 शुरू होते-होते भाजपा का विजय रथ सबसे पहले तब रुका जब अरविन्द केजरीवाल की ‘आम आदमी पार्टी’ ने दिल्ली विधानसभा चुनावों में 70 विधानसभा सीटों में से सिर्फ 3 सीटें भाजपा को लेने दीं, शेष सभी 67 सीटों पर ‘केजरीवाल-कंपनी’ ने झंडा फहरा दिया.

सितम्बर से बिहार में चल रही चुनावी गहमागहमी रविवार 8 नवम्बर को महागठबंधन के हाथों एनडीए की करारी हार के साथ ख़त्म हुई. जहां सभी चैनल यह दावा कर रहे थे कि बिहार में एनडीए और महागठबंधन में कांटे की लड़ाई होगी और जीतने वाला बेहद कम वोटों के अंतर से जीतेगा, वहीँ इन सभी कयासों को धता बताते हुए महागठबंधन ने दोपहर्र होते-होते यह स्पष्ट कर दिया कि बिहार में उनकी ही सरकार बनेगी. लालू-नीतीश की पत्रकार वार्ता में यह भी साफ़ हो गया कि बजाय इस तथ्य के कि राजद को जदयू से भी अधिक मत मिले हैं, महागठबंधन बरकरार रहेगा और नीतीश ही मुख्यमंत्री होंगे.

भाजपा की हार का ठीकरा खुद अमित शाह ने रामविलास पासवान के सिर फोड़ा है, वहीं भाजपा का करीबी माने जाने वाले समाचार चैनल जी न्यूज़ ने भाजपा को छोड़ राजग गठबंधन के तीनों दलों को दोषी ठहरा दिया है. लेकिन चुनावी कार्रवाई और प्रक्रिया को देखते हुए भाजपा को हार की तरफ धकेलने का श्रेय सिर्फ एक व्यक्ति को जाता है, अमित शाह. अमित शाह के राज में भाजपा ने पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र और जम्मू-कश्मीर में जीत दर्ज की, लेकिन गठबंधनों पर बनी इन सरकारों का प्रतिफल बिहार में नहीं नज़र आया.

जहां बिहार एनडीए में भाजपा जैसी शक्तिशाली पार्टी के अलावा लोजपा, रालोसपा और हम जैसी नयी पार्टी व छोटी पार्टियों को शामिल करना एक गलत फैसला था, उससे भी ज्यादा भयानक गलत फैसला बिहार में ग्राउंड वर्कर की कमी थी.

TwoCircles.net की टीम ने चुनाव में पूरा वक़्त बिहार में गुज़ारा है. इस चुनाव में ऐसा कोई भी ऐसा स्थानीय शख्स मिलना नामुमकिन था, जिस पर पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी भरोसा करती हो. बिहार में एनडीए को दिशा देने के लिए ज़ाहिर था कि सुशील कुमार मोदी को भरसक जगह दी जा सकती थी. लेकिन पटना स्थित भाजपा कार्यालय जाने पर यह साफ़ हो जाता था कि बिहार में भाजपा अधिकतर मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की टीम के भरोसे चल रही है. व्यापमं मामले में विवादित बयान देने और हाल में ही शाहरूख़ खान के खिलाफ़ ट्वीट करने वाले कैलाश विजयवर्गीय बिहार में चुनाव की कमान सम्हालते देखे गए. हमसे बातचीत में कैलाश विजयवर्गीय ने यह कहा कि बिहार में भाजपा पूरी तरह से मजबूत है, लेकिन मौजूदा नतीजे कुछ और ही कहते हैं. ज़ाहिर है कि इस चुनाव में यदि एनडीए के पास वोट मांगने के लिए एक भी बड़ा और स्थानीय चेहरा होता तो आज की यह बाजी बिलकुल पलट सकती थी.

बिहार के ग्राउंड सर्वे के दौरान लोगों ने यह बात स्वीकार की थी कि नीतीश ने अच्छा काम किया है, लेकिन अब किसी नए को आना चाहिए. लेकिन जनता को यह ‘नया’ चेहरा मुहैया कराने में भाजपा पूरी तरह से विफल है. चुनाव के दौरान भाजपा के पटना स्थित कार्यालय में जश्न का माहौल रहता था लेकिन राजद और जद(यू) के दफ्तर मरघट सरीखे लगते थे. एकबानगी यह लगता था कि महागठबंधन यह जंग पहले ही हार चुका है, लेकिन यह बाद की तफ्तीश में पता चला कि एक तरफ जहां भाजपा हेडक्वार्टर स्थापित करके काम को अंजाम देना चाहती है, वहीँ राजद और जद(यू) जैसे समाजवादी दल ज़मीन पर ज्यादा वक़्त देते हैं.

इस चुनाव के बाबत यह बात भी कई बार उठकर आ रही है कि संभवतः अमित शाह को पूर्वी राज्यों की राजनीति के बारे में कोई ज्ञान नहीं है. हम इस बात की तस्दीक नहीं करते लेकिन दिल्ली और बिहार के चुनावों के नतीजे कुछ और ही कहते हैं. चुनाव के आखिरी दौर में जिस तरह से भाजपा ने साम्प्रदायिकता का खेल खेलना शुरू कर दिया, उससे यह भी ज़ाहिर हो गया कि भाजपा एक हारी हुई लड़ाई लड़ रही थी.

ऐसे में भाजपा को एक ऐसे नेतृत्व की दरकार है, जो गुजरात या मध्य प्रदेश के अलावा भी अन्य राज्यों की परिस्थितियों को भी समझे. अमित शाह इस मामले में किंचित अक्षम नज़र आ रहे हैं. कल दोपहर 12 बजे भाजपा के संसदीय बोर्ड की मीटिंग है, इस मीटिंग में लोजपा और ‘हम’ पर हार का ठीकरा फोड़ा जाएगा लेकिन उसके बाद भी खुद की लगभग 50 प्रतिशत सीटों पर जीत दर्ज करने वाली भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह की जवाबदेही बनी रहेगी.

बिहार चुनाव के नतीजों में भाकपा(माले)

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सिद्धांत मोहन, TwoCircles.net

पटना:बिहार में आए नतीजे जहां भाजपा के लिए परेशानी बनकर आए हैं, वहीँ ये नतीजे कईयों के लिए अच्छी खबर हैं. इनमें एक नाम है भारत के प्रमुख कम्युनिस्ट दल 'भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी(मर्क्सिस्ट-लेनिनिस्ट) लिबरेशन'का.

(Courtesy:wikipedia)

आज के चुनाव नतीजों में भाकपा(माले) ने तीन सीटों पर जीत हासिल की है. इन सीटों में बलरामपुर, तरारी और दरौली विधानसभा सीटें हैं. यदि मतों के अंतर की बात की जाए तो बलरामपुर विधानसभा सीट पर पार्टी ने 22 हजार मतों से जीत दर्ज की है. इसके बाद दरौली में लगभग दस हजार वोटों से पार्टी ने जीत दर्ज की है और तरारी में चार सौ वोटों से. शाम ढलते-ढलते कयास लगाए जा रहे थे कि तरारी विधानसभा सीट पर भाकपा(माले) लोजपा और कांग्रेस से पिछड़ सकती है, लेकिन यह बात कोरी क़यास ही रह गयी.

पार्टी के राष्ट्रीय सचिव दीपांकर भट्टाचार्य ने चुनाव के इन नतीजों के बाबत बयान जारी करते हुए कहा है कि पार्टी का यह प्रदर्शन वाम शक्तियों की एकता है. पत्र में दीपांकर भट्टाचार्य ने बिहार के लोगों का धन्यवाद देते हुए कहा है कि वाम दलों को पार्टी विधानसभा में वापिस लाने के हम बिहार का शुक्रियादा करते हैं.

इस बयान में मोदी और भाजपा की कथित विभाजनकारी राजनीति की भर्त्सना करते हुए कहा गया है कि इस जनादेश से बिहार की जनता ने मोदी और भाजपा की इस राजनीति को करारा जवाब दिया है. यहां यह भी कहा गया है कि बिहार के इन परिणामों से देश की राजनीति पर असर पड़ेगा, साथ ही साथ मजदूरों, छात्रों, लेखकों, विचारकों और वैज्ञानिकों के चल रहे संघर्ष को आवाज़ मिलेगी. महागठबंधन की तारीफ़ करते हुए कहा गया है कि महागठबंधन और बिहार की जनता बिहार में इस ऐतिहासिक जीत के श्रेय के झंडाबरदार हैं.

9.5 लाख वोटरों को न महागठबंधन पसंद है और न एनडीए

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अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

पटना:बिहार विधानसभा चुनाव के परिणाम आ चुके हैं. महागठबंधन ने इस बार पिछले सारे रिकार्ड तोड़ दिए हैं. इस महागठबंधन को बिहार के 243 सीटों में से 178 सीटें हासिल हुई, तो वहीं एनडीए मात्र 58 सीटों पर सिमट गई.

इस स्पष्ट बहुमत के आधार पर यह ज़रूर कह सकते हैं कि बिहार की अधिकतर जनता ‘विकास पुरूष’ की छवि रखने वाले नीतीश कुमार को ही फिर से मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहती थी.

(Courtesy: dnaindia)

लेकिन बिहार में एक बड़ी आबादी ऐसी भी है, जिसे न जदयू, राजद या कांग्रेस पसंद है और न ही भाजपा, लोजपा, रालोसपा, हम या कोई दूसरी पार्टी पसंद है. यहां तक कि इनका भरोसा इस चुनाव में खड़े निर्दलीय उम्मीदवारों पर भी नहीं है. ऐसे मतदाता बिहार में एक-दो नहीं, सैकड़ों नहीं, हज़ारों नहीं, बल्कि लाखों में हैं.

चुनाव आयोग के आंकड़ें बताते हैं कि ऐसे मतदाताओं की संख्या पूरे बिहार में तकरीबन 947276 है, जिसने ‘इनमें से कोई नहीं’ यानी ‘नोटा’ बटन का प्रयोग किया. यानी ये बिहार के कुल मतदाताओं का 2.5 फीसद है.

अगर राष्ट्रीय स्तर की बात करें तो 2014 लोकसभा लोकसभा चुनाव में नोटा दबाने वाले मतदाताओं की संख्या 5997054 थी. वहीं दिल्ली विधानसभा चुनाव में यह संख्या सिर्फ 35924 रही थी.

गौरतलब है कि उच्चतम न्यायालय ने 2013 के सितंबर महीने में ईवीएम में ‘नोटा’ का बटन शामिल करने का आदेश दिया था, ताकि मतदाताओं को यह अधिकार मिले कि वे इस बटन को दबाकर चुनाव में शामिल सभी उम्मीदवारों को खारिज कर सके. उच्चतम न्यायालय के आदेश पर ही चुनाव आयोग ने 2013 में ही मिजोरम, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और नई दिल्ली विधानसभा चुनावों में नोटा के विकल्प की शुरुआत की थी. हालांकि निर्वाचन आयोग के अनुसार नोटा विकल्प के अंतर्गत प्राप्त मतों की गणना अवैध मतों के रूप में की जाएगी.


महागठबंधन की लहर में खो गया ओवैसी का ‘करिश्मा’!

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अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

पटना:बिहार चुनाव में ‘ओवैसी फैक्टर’ बुरी तरह फ्लॉप रहा. मुस्लिम तबक़े का वोट बटोरकर इस चुनाव में अपनी क़िस्मत चमकाने की ओवैसी की चाहत अधूरी रह गई. बिहार के मतदाताओं ने न सिर्फ़ उनकी पार्टी को बुरी तरह से नकार दिया बल्कि यह संदेश भी दे दिया है कि यह चुनाव आपके लिए एक ‘सबक़’ है.

दरअसल, बिहार की जनता ने ओवैसी की पार्टी को वह सफलता नहीं दी, जिसकी एमआईएम को उम्मीद थी. जीत न सही, मगर जीत के क़रीब भी पहुंचते तो दावा करने को बहुत कुछ होता. लेकिन ज़िला किशनगंज के कोचाधामन की सीट को छोड़कर यह हक़ भी कहीं ओवैसी का पार्टी को नहीं मिला.


Asaduddin Owaisi

ओवैसी की पार्टी इस बिहार विधानसभा चुनाव में पहली बार उतरी थी और 6 सीटों पर अपने क़िस्मत की आज़माईश कर रही थी. लेकिन चुनावी आंकड़े बताते हैं कि इन सीटों को मिलाकर ओवैसी की पार्टी को सिर्फ 80248 वोट मिलें, जो कुल मतदान प्रतिशत का मात्र 0.2% ही है.

सिर्फ़ कोचाधामन से पार्टी के बिहार की ज़िम्मेदारी संभाल रहे अख़्तरूल ईमान 37086 वोट लाकर दूसरे नंबर पर ज़रूर रहें, लेकिन यहां भी हार का अंतर काफी अधिक रहा. इस सीट से जदयू के मोजाहिद आलम 18843 वोटों के अंतर से चुनाव जीतें.

कोचाधामन सीट छोड़कर बाकी तमाम जगहों पर पार्टी काफी पीछे नज़र आई. रानीगंज से डॉ. अमित कुमार मात्र 1669 वोट ही हासिल कर पाए. अमौर से नवाज़िश आलम 1955 वोट लाकर पांचवे स्थान पर रहें. बलरामपुर विधानसभा सीट से 6375 वोट लाकर छठे स्थान पर रहे. तो वहीं किशनगंज से तसीरउद्दीन 16440 वोट लाकर तीसरे स्थान पर ज़रूर नज़र आएं. बायसी से ग़ुलाम सरवर भी 16723 वोट लाकर चौथे स्थान पर नज़र आएं.

इस प्रकार बिहार में सिर्फ 6 सीटों पर 80 हज़ार वोट पाकर ओवैसी की पार्टी ने इस बात के संकेत ज़रूर दिए कि उसकी झोली में चाहे कुछ फीसदी ही सही, पर मतदाताओं के एक तबक़े का भरोसा ज़रूर है.

स्पष्ट रहे कि बिहार के बाद यूपी के चुनाव होने वाले हैं. ओवैसी का पार्टी वहां भी मैदान में उतरने की तैयारी कर रही है. ऐसे में बिहार का तजुर्बा उनके लिए एक सबक़ ज़रूर हो सकता है. ज़रूरत इस सबक़ से सीखने और सकारात्मक दिशा में क़दम बढ़ाने की है

अब्दुल बारी सिद्दीक़ी हो सकते हैं बिहार के डिप्टी सीएम!

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अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net,

पटना::इस बार बिहार चुनाव में महागठबंधन को प्रचंड बहुमत हासिल हुआ है. महागठबंधन के इस जीत में मुसलमानों का रोल भी काफी अहम माना जा रहा है. महागठबंधन के 33 उम्मीदवारों का प्रदर्शन भी काफी ज़बरदस्त रहा. 33 में से 23 सीटों पर महागठबंधन के मुस्लिम उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की है. सबसे अधिक वोटों से जीतने वाले विधायकों में भी कई मुस्लिम उम्मीदवार भी शामिल हैं.



(तस्वीर साभार - www.images99.com)

महागठबंधन के इस जीत से देश में यह चर्चा आम हो गया है कि ये जीत साम्प्रदायिक राजनीति के मुंह पर एक ज़ोरदार तमाचा है. ऐसे में देश में बढ़ती साम्प्रदायिक माहौल के ख़िलाफ़ इस जीत ने एक नई उम्मीद दी है. ऐसे माहौल में ख़बर है कि राजद के वरिष्ठ नेता अब्दुल बारी सिद्दीक़ी को इस नए सरकार में काफी अहम पद मिल सकता है.

सुत्रों के मुताबिक़ अब्दुल बारी सिद्दीक़ी को बिहार का डिप्टी सीएम बनाया जा सकता है. हालांकि इस ख़बर की अभी आधिकारिक पुष्टि नहीं हुई है. लेकिन सुत्र बताते हैं कि पार्टी में इस बात की चर्चा है कि अब्दुल बारी सिद्दीक़ी के वरियता को देखते हुए उन्हें डिप्टी सीएम बनाया जा सकता है.

अब्दुल बारी सिद्दिक़ी का नाम इससे पहले भी इस पद के लिए आ चुका है. फरवरी 2005 में भी जब रामविलास पासवान ने मुस्लिम मुख्यमंत्री की बात की थी तब अब्दुल बारी सिद्दीक़ी के नाम पर ही विचार किया गया था. और खुद अब्दुल बारी भी कई बार अपना दावा पेश कर चुके हैं. इसके पहले वो यह भी कह चुके हैं कि जब जीतन राम मांझी मुख्यमंत्री हो सकते हैं तो मैं क्यों नहीं.

हालांकि अटकलें यह भी है कि इस पद के लिए लालू प्रसाद यादव अपने बेटे का नाम आगे कर सकते हैं. लेकिन इसकी पुष्टि खुद लालू यादव ने ही एक टीवी चैनल के इंटरव्यू में कर दिया कि अभी वो राजनीति सीखेंगे.

स्पष्ट रहे कि वर्ष अब्दुल बारी सिद्दिकी 1977 में बहेड़ा विधानसभा क्षेत्र से पहली बार विधायक बने. 1992 में एमएलसी चुने गये. 1995 में फिर विधायक बने. इसके बाद लगातार 2000, 2005 और 2010 में विधानसभा का चुनाव जीत चुके हैं.

इस बार भी अलीनगर सीट से बीजेपी के मिश्री लाल यादव को 13460 वोटों से पराजित किया है. सिद्दिकी बिहार सरकार में वर्षों तक कई विभागों के मंत्री भी रहे हैं. विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता भी रह चुके हैं.

सबसे अधिक वोटों से जीतकर विधायक बनने वाले 10 उम्मीदवार

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अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

वारिसनगर:इस विधानसभा सीट से जदयू उम्मीदवार अशोक कुमार लोजपा के चंद्रशेखर राय को 58573 वोटों से हराकर इस बिहार विधानसभा चुनाव में सबसे अधिक वोटों से जीतने वाले उम्मीदवार बन गए हैं.

तो वहीं जदयू के ही सरफ़राज़ आलम जोकीहाट से निर्दलीय प्रत्याशी रंजीत यादव को 53980 वोटों से हराकर दूसरे नम्बर पर हैं. अधिक वोटों से जीतने वाले विधायकों की सूची में तीसरे नंबर पर जदयू के ही रतनेश सदा हैं. इन्होंने सोनबरसा सीट पर लोजपा के सरिता देवी को 53763 वोटों से हराया है.

चौथे स्थान पर जदयू की ही वीणा भारती हैं. जिन्होंने त्रिवेणीगंज सीट से लोजपा के अनंत कुमार भारती को 52400 वोटों से हराया है, तो वहीं पांचवे स्थान पर कांग्रेस के अब्दुल जलील मस्तान का नाम आता है. अब्दुल जलील ने अमौर सीट पर भाजपा के सबा ज़फ़र को 51997 वोटों से पटखनी दी है.


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बिहार की चुनाव डायरी : महागठबंधन का जिन्न, लालू और मीडिया

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नासिरूद्दीन हैदर

यह जिन्न है, जो महागठबंधन के वोटों के रूप में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों से निकला. महागठबंधन में शामिल पार्टियों का जिन्न आमतौर पर प्रबुद्ध समाज और मीडिया को नहीं दिखता. शायद वह देखना भी नहीं चाहते. याद है, ऐसा ही जिन्न 1995 में भी निकला था. उस वक्त भी प्रबुद्ध समाज और मीडिया को यह नहीं दिखा था. इस बार जिन्न जिन वजहों से निकला, वह थोड़ी-सी मेहनत से दिख जा रहा था.


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एक) अभी हम भले ही जदयू, राजद या कांग्रेस के सीटों की बात कर रहे हों लेकिन चुनाव मैदान में ये एक इकाई के रूप में महागठबंधन थे. यह उनकी सभाओं और प्रचार में साफ दिख रहा था. इनके नेता एक-दूसरे के इलाके में प्रचार कर रहे थे. महागठबंधन के तीनों घटकों के उम्मीदवारों की जीत इसका प्रमाण है. इसके बरअक्स एनडीए की पार्टियों में यह तालमेल नहीं दिख रहा था. सभी पार्टियों का रिश्ता भाजपा से था. जमीन पर इनका संवाद कम था. एनडीए की बाकि पार्टियां भाजपा की छाया में सिमटी दिख रही थीं.

दो) नीतीश कुमार इस चुनाव की धुरी थे. लगभग दस साल मुख्यमंत्री रहने के बाद भी उनके खिलाफ कोई मजबूत इलजाम कहीं नहीं दिखता था. लोग उनकी तुलना श्रीकृष्ण बाबू से करते मिलते हैं. आज राजद की सीटें भले ज्यादा दिख रही हैं मगर इसमें नीतीश की छवि का बहुत बड़ा योगदान है. राजद के खिलाफ ‘जंगलराज’ के प्रचार पर नीतीश की छवि काफी भारी पड़ी. ऐसा कहने का कतई अर्थ नहीं है कि लालू की मेहनत कम थी. इस चुनाव ने सालों बाद लालू को पुराने रंगत में लौटते देखा है.

तीन) इस जीत की अहमियत कम करने के लिए बार-बार अंकगणित की बात की जा रही है. शायद इस जीत को जाति-आधारित बनाने के लिए भी इस बात का सहारा लिया जा रहा है. अगर, अंकगणित से चुनाव जीते जाते तो सभी चुनाव जीत जाते. यह इससे आगे की जीत है. इसे सामाजिक न्याय या विकास का बिहारी मॉडल कहा जा सकता है. चुनाव प्रचार के दौरान लोगों के विमर्श में जाति भले ही मन के अंदर हो, लेकिन मुखर रूप में सडक, बिजली, स्कूल, अस्पताल ही आते थे. और जाहिर है जब तक जातियों के आधार पर समाज में विकास के फायदे और नुकसान तय होंगे, विकास के विमर्श में भी जाति रहेगी. नीतीश कुमार के पीछे लामबंदी, क्या इस जातीय राजनीति को तोड़ने की कोशिश नहीं है? बिल्कुल है.

चार) एनडीए के प्रचार की कमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के हाथों में थी. इन्होंने विकास के नाम पर प्रचार शुरू किया लेकिन जल्द ही वे आरक्षण के साम्प्रदायिकरण पर उतर आए, पाकिस्तान पहुंच गए, गाय और गोमांस का मुद्दा उठाया. हर चरण के बाद उनके मुद्दे बदलते रहे. विकास गुम हो गया. इन मुद्दों ने माहौल को डरावना बनाया लेकिन इनका फायदा सीटों के रूप में नहीं मिल पाया. हालांकि एक अहम सवाल है कि क्या डर की राजनीति पर अब विराम लगेगा? इसके बरअक्स नीतीश ने अपने प्रचार की दिशा शुरू से लेकर आखिर तक एक जैसी रखी और इसका फायदा दिख रहा है.

पाँच) इस चुनाव पर पूरे मुल्क की नजर थी. इस रिजल्ट के साथ ही महागठबंधन और नीतीश कुमार देश की राजनीति का अहम हिस्सा बन गए हैं. मुमकिन है, आने वाले दिनों में इनके इर्दगिर्द एक मजबूत लामबंदी हो.

छः) एक बात और, इस चुनाव में ज्यादातर मीडिया ने एनडीए और खासकर भाजपा की पैरवी करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. उन्होंने क्या-क्या किया, यह वे बेहतर जानते हैं. महागठबंधन के हक में आया जनता का फैसला, उनके लिए आईना है. सवाल है, क्या वे इस आईने में अपनी शक्ल देखेंगे? या 1995, 2015 की तरह आगे भी जानबूझकर गलती करते रहेंगे.

ज़बरदस्त रहा बिहार में मुस्लिम उम्मीदवारों का प्रदर्शन

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अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

पटना:भारत में मुसलमानों के लिए कठिन राजनीतिक दौर है. मुसलमान और मुस्लिम राजनीति लगातार हाशिए पर जा रहा हैं. लेकिन बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे भारतीय मुसलमानों के लिए उम्मीद की एक नई किरण साबित हो सकते हैं. मुस्लिम उम्मीदवारों का प्रदर्शन इस चुनाव में काफी ज़बरदस्त रहा है.

महागठबंधन ने इस चुनाव में कुल 33 मुस्लिम उम्मीदवार मैदान में उतारे थे, जिनमें से 23 ने शानदार जीत हासिल की है. यानी महागठबंधन के 75 फीसदी से अधिक मुस्लिम उम्मीदवार इस चुनाव में कामयाब हुए.

वहीं कटिहार के बलरामुर सीट पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मर्क्सिस्ट-लेनिनिस्ट) लिबरेशन के महबूब आलम ने 20419 वोटों से बीजेपी के उम्मीदवार को हराकर संख्या में एक का इज़ाफ़ा कर दिया है.

बिहार में अगर सबसे अधिक वोटों से जीतने वाले उम्मीदवारों की बात की जाए तो ‘टॉप फाईव’ में दो मुस्लिम उम्मीदवार शामिल हैं. जोकीहाट विधानसभा सीट से जदयू उम्मीदवार सरफ़राज़ निर्दलीय प्रत्याशी रंजीत यादव को 53980 वोटों से हराकर इस बिहार विधानसभा चुनाव में सबसे अधिक वोटों से जीतने वाले उम्मीदवारों की सूची में दूसरे नम्बर पर हैं. तो वहीं पांचवे स्थान पर कांग्रेस के अब्दुल जलील मस्तान का नाम आता है. अब्दुल जलील ने अमौर सीट पर बीजेपी के सबा ज़फ़र को 51997 वोटों से पटखनी दी है.

इतना ही नहीं, जीतने वाले 24 उम्मीदवारों के अलावा दूसरे पर रहने वाले मुस्लिम उम्मीदवारों की संख्या अच्छी-खासी है. इस बार 15 मुस्लिम उम्मीदवार दूसरे स्थान पर हैं. कुछ सीटों पर तो काफी कम वोटों के अंतर से हार हुई है. यहां यह भी स्पष्ट रहे कि मुसलमानों की पार्टी कहलाने वाली ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन का यहां कुछ खास प्रदर्शन नहीं रहा. हालांकि इस पार्टी ने बिहार में पहली बार चुनाव के मौसम में ही कदम रखा था और सिर्फ 6 सीटों पर चुनाव लड़ रही थी.

राजद ने अपनी 101 सीटों में से 17 मुस्लिम प्रत्याशी को मैदान में उतारा था. और इन 17 में से 12 उम्मीदवार कामयाब हो गए. इसके अलावा राजद के 3 मुस्लिम उम्मीदवार दूसरे नम्बर पर रहकर बीजेपी को टक्कर देते नज़र आएं.कांग्रेस ने अपने 41 सीटों में से 09 मुस्लिम उम्मीदवारों पर भरोसा किया था, जिसमें से 6 ने जीत दर्ज की और बाकी के 3 दूसरे नम्बर पर रहकर लोहा लेते नज़र आए. जदयू ने अपने 101 नामों में से 07 मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारा था. इनमें से 5 ने जीत दर्ज की और बाकी के 2 दूसरे नम्बर पर नज़र आए.

यानी पार्टीवार लड़ी गयी सीटों के आधार पर बात करें तो कांग्रेस मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट देने में सबसे आगे हैं, फिर राजद और आखिर में जदयू.

एनडीए की ओर से बीजेपी ने सिर्फ़ 02 मुस्लिम प्रत्याशी मैदान में उतारे थे और दोनों का प्रदर्शन बेहतर रहा. एक दूसरे नम्बर पर तो दूसरा तीसरे नंबर पर नज़र आया. मांझी की ‘हम’ ने अपने 04 मुस्लिम उम्मीदवार दिए थे. इनमें से कोई जीत दर्ज नहीं कर सका. लेकिन 2 उम्मीदवार दूसरे नंबर पर ज़रूर थे. लोजपा ने 3 मुस्लिम उम्मीदवार दिए थे और तीनों दूसरे नम्बर पर ज़रूर रहें.


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अमित शाह ने पूरी की शहाबुद्दीन की मुराद!

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अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

पटना:यह सुनने में थोड़ा अजीब ज़रूर लगेगा. मगर यह बिहार के नतीजे का बेहद दिलचस्प सच है. भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने सीवान की ज़मीन पर एक रैली को संबोधित करते हुए शहाबुद्दीन का नाम लिया था. कहा था कि अगर भाजपा हारी तो जेल में शहाबुद्दीन बहुत ही खुश होंगे.

जेल में महागठबंधन के इस शानदार और भाजपा की शर्मनाक हार पर शहाबुद्दीन की प्रतिक्रिया क्या है, यह तो पता नहीं चल पाया. मगर अमित शाह का कहा सच हो गया, क्योंकि उनकी पार्टी सीवान में भी बुरी तरह से हारी है.



8 नवम्बर को आए नतीजे बताते हैं कि सीवान के 8 विधानसभा सीटों में सिर्फ़ एक सीट पर ही बीजेपी कामयाब हो पाई है. जबकि 2010 विधानसभा चुनाव में बीजेपी को यहां 5 सीटें मिली थी. उस समय बीजेपी जदयू के साथ थी और उसने 3 सीटों पर जीत दर्ज की थी. यानी 8 सीटों पर गठबंधन ही कामयाब हुआ था. राजद का यहां खाता भी नहीं खुला था.

लेकिन इस बार जदयू 4 सीटों पर तो राजद ने 2 सीटों पर जीत दर्ज की है. एक सीट भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मर्क्सिस्ट-लेनिनिस्ट) लिबरेशन ने भी जीत दर्ज की है, जबकि 2010 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माले) लिबरेशन 3 सीटों पर दूसरे नम्बर पर थी.

इस बार यहां राजद ने सिर्फ 2 सीटों पर चुनाव पर लड़ा था और दोनों सीटों पर जीत दर्ज कर लिया है. शहाबुद्दीन भी कभी राजद के सक्रिय नेता रहे हैं. ऐसे में अगर यह कहा जाए कि अमित शाह की ज़बान शहाबुद्दीन की खुशी का सबब बन गई है तो कोई ग़लत नहीं होगा.

बीजेपी की तीन रेणु, तीनों हारीं

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TwoCircles.net Staff Reporter,

पटना: भाजपा ने इस बार बिहार चुनाव में रेणु नाम की तीन महिला उम्मीदवारों को चुनाव में उतारा था, लेकिन यह तीनों रेणु चुनाव हार गईं.

पहली रेणु के रूप में बीजेपी की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष व अमित शाह की करीबी माने जाने वाली रेणु देवी ज़िला पश्चिम चम्पारण के बेतिया विधानसभा सीट से चुनाव हार चुकी हैं. इन्हें इस बार कांग्रेस के मदन मोहन तिवारी ने पराजित किया है. रेणु देवी लगातार चार बार चुनाव जीत चुकी हैं, लेकिन पांचवी बार क़िस्मत ने साथ नहीं दिया.

दूसरी रेणु के रूप में पश्चिम चम्पारण ज़िला से ही नरकियागंज की रेणु देवी थीं. वह इस बार नरकियागंज विधानसभा सीट से चुनाव लड़ रही थी, लेकिन चुनाव हार गईं. यहां भी कांग्रेस प्रत्याशी विनय वर्मा ने जीत हासिल की है. रेणु देवी यहां तीसरे स्थान पर रहीं.

तीसरे रेणु के रूप में समस्तीपुर की रेणु कुमारी कुशवाहा हैं. इन्हें राजद के अख्तरूल इस्लाम शाहीन ने पटखनी दी है. शाहीन ने इन्हें 31 हज़ार से अधिक वोटों से हराया है.


आख़िर कैसे चम्पारण में जीत सकी भाजपा?

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अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

चम्पारण:बीजेपी बिहार में हार गई, मगर चम्पारण में उसका दबदबा क़ायम रहा. चम्पारण में भाजपा का न सिर्फ़ वोट शेयर बढ़ा है, बल्कि दूसरे ज़िलों की तुलना में अच्छी-ख़ासी सीटों पर सफलता भी मिली है.

यह राजनीतिक विश्लेषकों के लिए हैरानी की बात हो सकती है. सूबे में चारों ओर मात खाने वाली पार्टी आख़िर एक विशेष हिस्से में क्यों तन कर खड़ी हो गई?



लेकिन चम्पारण के स्थानीय राजनीतिक विश्लेषक बताते हैं कि इसकी वज़ह इस इलाक़े में भाजपा को मिला संघ का आशीर्वाद है. संघ और उसके सहयोगी संगठनों ने चम्पारण के इलाक़े में अरसे से एक उपजाऊ ज़मीन तैयार की है. ऐसे में भाजपा को सिर्फ़ ज़मीन पर पौधा लगाना था और नतीजे में वोटों का लहलहाता खेत उसकी झोली में आ गया.

पश्चिम चम्पारण में रहने वाले पन्नालाल राकेश कुमार का मानना है कि भाजपा के ‘कम्यूनल कार्ड’ ने यहां काफी अच्छे से काम किया. एक सचाई यह भी है कि चम्पारण के लोगों में साम्प्रदायिकता काफ़ी तेज़ी से बढ़ी है. संघ व उसके सहयोगी संगठन यहां हमेशा से सक्रिय रहे हैं. दूसरा कारण यहां कई जगह महागठबंधन का अपने उम्मीदवार का सही चयन न कर पाना भी है. कई सीटों पर महागठबंधन के बाग़ी उम्मीदवार ही उनके हार का कारण बने हैं.

वहीं अरविन्द कुमार मानते हैं कि खासतौर पर राधामोहन सिंह की टीम ने यहां काफी मेहनत की थी. उनका बूथ मैनेजमेंट काफ़ी ज़बरदस्त रहा. महागठबंधन अति-आत्मविश्वास के कारण यहां बेहतर नहीं कर पाई. बूथ मैनेजमेंट काफ़ी कमज़ोर रहा. जबकि इस मैनेजमेंट के लिए संघ व सहयोगी दल पिछले एक-डेढ़ साल से यहां लगे हुए थे. लोगों को ‘हिन्दुत्व’ के नाम पर एकजुट करने की कोशिश काफी हद तक यहां कामयाब दिखी.

पूर्वी चम्पारण में रहने वाले पत्रकार अक़ील मुश्ताक़ का भी मानना है कि महागठबंधन कई सीटों पर जातीय समीकरण समझने में पीछे रह गई. जहां महागठबंधन ने एक मुस्लिम उम्मीदवार उतारा था, वहां यादव ने उन्हें वोट नहीं दिया क्योंकि वहां दूसरे पार्टी से एक यादव उम्मीदवार भी मैदान में था. यादवों ने उसे ही वोट किया.

वह बताते हैं कि मोतिहारी शहर का उम्मीदवार मोतिहारी का रहने वाला भी नहीं था. उसे किसी और जिले से लाकर यहां का उम्मीदवार बनाया गया था. उसके अलावा यहां भाजपा का ‘साम्प्रदायिक कार्ड’ जमकर चला. अख़बार में छपी पाकिस्तानी झंडा लहराने वाली ख़बरका इन्हें खूब लाभ मिला.

यदि आंकड़ों की बात करें तो भाजपा इस बार पूरे बिहार में सिर्फ़ 53 सीटों पर ही जीत दर्ज कर पाई है और इन 53 सीटों में 12 सीटें भाजपा को चम्पारण में मिली हैं. उसी प्रकार लोजपा को सिर्फ़ दो सीटों पर ही सफलता मिली है, जिसमें उसे एक सीट चम्पारण से ही मिली है.

पश्चिम व पूर्वी चम्पारण जिले में कुल 21 सीटें हैं. इन 21 सीटों में 12 बीजेपी व एक लोजपा को मिली है. वहीं एक सीट पर निर्दलीय उम्मीदवार ने चुनाव जीता है. जबकि जदयू सिर्फ़ एक सीट पर जीत दर्ज कर पाई है. हालांकि राजद को यहां 4 सीटें मिली हैं तो वहीं 2 सीटों पर कांग्रेस भी कामयाब रही है. अगर बात 2010 विधानसभा चुनाव की करें तो यहां 21 सीटों में से 10 सीटें बीजेपी को मिली थी. 8 सीटों पर जदयू की जीत हुई थी और 3 सीटें निर्दलीय उम्मीदवारों के झोली में गई थी.

स्पष्ट रहे कि कभी गांधी का कर्मभूमि रहा यह चम्पारण हमेशा से राजनीतिक रूप से समृद्ध रहा है. हमेशा से यहां के लोग वैचारिक स्वतंत्रता से अपनी महत्वाकांक्षा के आधार पर फैसले लेते रहे हैं. चम्पारण का चप्पा-चप्पा ऐतिहासिक, पौराणिक और आज़ादी के आंदोलन के स्वर्णिम अध्यायों से अटा पड़ा है. कभी इस धरती से मुस्लिम इंडीपेंडेन्ट पार्टी के टिकट से हाफ़िज़ मुहम्मद सानी पहले विधायक बने थे और 1937 की मो. युनूस की सरकार में काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. पीर मुहम्मद मुनिस जैसे लोग यहां आज़ादी के पूर्व भी साम्प्रदायिकता का विरोध करते रहे हैं.

लेकिन अब चम्पारण की ज़मीन इन दिनों अजीब साज़िश की शिकार हो चुकी है. यह साज़िश यूं तो बेहद ही चुनावी थी, लेकिन थी घातक. चुनावी मौसम में यहां हिन्दू-मुसलमान के नाम पर इस ज़मीन को सुलगाने की जमकर कोशिश की जाती रही. हाल में हुई कई घटनाएं इस बात का ज़िन्दा सबूत हैं. पिछले एक महीने में यहां छोटी-छोटी बातों को साम्प्रदायिक रंग देने की कोशिश की लागातार की जाती रही हैं. अब यह तमाम कोशिशें इस तथ्य की ओर इशारा करती हैं कि ये छिटपुट या अनायास घटनाएं नहीं थी, बल्कि एक संघटित तरीक़े से हिन्दू-मुसलमानों को आमने-सामने कर वोटों की मोटी फसल काटने की तैयारी थी, जिसका फ़ायदा भरपूर ढंग से इस चुनाव में यहां भाजपा को मिला है. यहां यह भी बताते चलें कि पश्चिम चम्पारण कभी जनसंघ का भी गढ़ रहा है, लेकिन जनसंघ कभी कामयाब नहीं हो सकी थी, लेकिन उन्हीं के राह पर बीजेपी आज ज़रूर कामयाब है.

सीमांचल में क्यों ध्वस्त हुआ भाजपा का सपना

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अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

सीमांचल में भाजपा का शो बुरी तरह फ्लॉप रहा. ओवैसी, पप्पू यादव, सपा या एनसीपी के मैदान में उतरने से बड़े फ़ायदे की उम्मीद कर रही भाजपा को सीमांचल की ज़्यादातर सीटों पर धूल फांकनी पड़ गई.

भाजपा ने इस बात की कल्पना भी नहीं की थी कि नतीजे ऐसे आएंगे. मगर नतीजों ने साफ़ कर दिया कि बिहार की जनता ‘कम्यूनल पॉलिटिक्स’ और उसके ‘पोलराईजेशन’ दोनों को लेकर पूरी तरह से आगाह दिखें.

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सीमांचल में चार ज़िले आते हैं. किशनगंज, कटिहार, अररिया व पूर्णिया... इन चार ज़िलों में कुल 24 विधानसभा क्षेत्र हैं. अगर 2010 चुनाव के नतीजों की बात करें तो इन 24 विधानसभा क्षेत्रों में भाजपा ने 13 सीटों पर जीत हासिल की थी और इस बार उम्मीद थी कि इन सीटों में और इज़ाफ़ा होगा. लेकिन 2015 चुनाव के नतीजे बताते हैं कि भाजपा की उम्मीदों पर पानी फिर गया. ज़िला किशनगंज में तो पार्टी का खाता भी नहीं खुल सका. तो वहीं अररिया में सिर्फ़ 2 सीटें ही पार्टी की झोली में आईं, जबकि 2010 चुनाव में भाजपा ने यहां 4 सीटें हासिल की थीं. पूर्णिया में भी 2 सीटों पर ही भाजपा जीत दर्ज कर सकी, जबकि 2010 में यहां भी भाजपा को 4 सीटें मिली थीं. 2010 चुनाव में कटिहार ज़िले में बीजेपी को 5 सीटें मिली थीं, लेकिन इस बार यह आंकड़ा 2 सीटों पर ही सिमट गया.

भाजपा को इस बार सीमांचल के 24 सीटों में से सिर्फ 6 सीटों पर ही कामयाबी मिल सकी है. हालांकि 11 सीटों पर वो दूसरे नम्बर की पार्टी ज़रूर रही. हालांकि इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि पूर्णिया के बनमनखी विधानसभा सीट पर पप्पू यादव की पार्टी जन अधिकार पार्टी (लोकतांत्रिक) की वज़ह से ही कहीं न कहीं फायदा हासिल हुआ है. उसी तरह कटिहार ज़िला के कटिहार विधानसभा सीट व प्राणपुर विधानसभा सीट पर एनसीपी के कारण जीतने में आसानी हुई है, अन्यथा भाजपा सीमांचल में तीन सीटों पर ही सिमट जाती.

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सीमांचल में इस बार कांग्रेस का जलवा देखने लायक़ रहा. कांग्रेस को यहां 8 सीटों पर सफलता मिली है. तो वहीं जदयू ने 6 और राजद ने 3 सीटों पर जीत दर्ज की है. वहीं एक सीट सीपीआई (एम) के खाते में आई है.

ऐसे में अगर देखा जाए तो भाजपा ने ओवैसी, पप्पू यादव, सपा या एनसीपी से सीमांचल में जिन फायदों की उम्मीद की थी, वो उसे ज़्यादा मिलता नहीं दिखा. राजनीतिक जानकारों की मानें तो अगर इस चुनाव में बीजेपी को सीमांचल में सफलता मिल जाती तो पार्टी इस राजनीतिक गणित व दांव को आगे आने वाले चुनाव में भी इस्तेमाल करती, मगर बिहार के नतीजों ने यह गणित भी फेल साबित कर दिया

बिहार के फुलवारी शरीफ़ में साम्प्रदायिक तनाव फैलाने की कोशिश नाक़ाम

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अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

यहां गंगा जमुनी संस्कृति वाले फुलवारी शरीफ़ का एक लंबा धार्मिक इतिहास रहा है. कहा जाता है कि प्राचीन समय में फुलवारी शरीफ़ एक ऐसा क्षेत्र था, जहां सूफ़ी संतों ने अपने धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक कृत्यों द्वारा प्रेम और सहनशीलता का संदेश फैलाया था. लेकिन आज यह इलाक़ा पिछले एक साल से लगातार हो रहे साम्प्रदायिक तनाव वाले हादसों से परेशान है.


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गुरूवार रात फुलवारी शरीफ़ थाना से सटे इलाक़ा इसापुर में साम्प्रदायिक तनाव फैलाने का मामला प्रकाश में आया. दीवाली के अगले दिन देवी लक्ष्मी के प्रतिमा विसर्जन के दरम्यान जमकर मारपीट व पथराव हुआ, जिसमें तीन पुलिसकर्मी सहित कई घायल हो गए. इस घटना में कई दुकान व वाहन भी क्षतिग्रस्त हुए. पुलिस-प्रशासन के सूझबूझ से इस घटना पर तुरंत काबू पा लिया गया. स्थिति अभी नियंत्रण में है. पुलिस अभी भी इलाक़े में तैनात है और अधिकारी लोगों में फिर से शांति का पैग़ाम देकर शांति व सौहार्द बनाए रखने की अपील कर रहे हैं.


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दरअसल, इस घटना के पीछे कई कहानियां हैं. कुछ लोग इस घटना को राजनीति के साथ जोड़कर भी देख रहे हैं तो कुछ का कहना है कि यह अचानक हो जाने वाली घटना है, जिसके लिए कुछ शरारती तत्व ज़िम्मेदार हैं.


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मंगलेश राम व सुमित कुमार बताते हैं कि रात के 8 बजे के आस-पास मूर्ति विसर्जन के लिए जा रहे थे कि अचानक पानी टंकी के पास आते ही पथराव शुरू हो गया. उन्हें कुछ समझ ही नहीं आया कि क्या अचानक क्या हो गया. मंगलेश का यह भी आरोप है कि जब वो पीछे मस्जिद के तरफ़ भागे तो वहां भी पथराव हुआ.

लेकिन पानी टंकी के पास रहने वाले लोगों की शिकायत है कि उनका अखाड़ा जब वहां आया तो सब वहीं रूक कर आपस में लड़ रहे थे. अधिकतर लोग दारू पिए हुए थे. पास के ही चाय वाले दुकान से उसी आखाड़े में शामिल एक लड़के ने शराब पीने के लिए गिलास मांगी तो दुकानदार ने मना कर दिया. बस मना करते ही उन्हें हॉकी से मारने लगे और उनकी दुकान को पूरी तरह से तोड़ दिया. पास की और भी कई दुकानों को उन्होंने क्षतिग्रस्त किया.

स्थानीय लोगों का कहना था कि इस विसर्जन करने जा रहे हर लोगों के हाथ में तलवार, हॉकी, लाठी आदि कई हथियार थे. जबकि पूरे पटना में कल विसर्जन हुआ, किसी भी विसर्जन में ऐसा देखने को नहीं मिला.

मो. इरशाद की कहानी थोड़ी अलग है. वो बताते हैं कि मूर्ति विसर्जन करने वाले दो गुटों में ही पहले लड़ाई हुई. पुलिस ने जब उन्हें रोका तो उन्होंने पुलिस वाले पर पथराव करना शुरू कर दिया. जिससे पूरे इलाक़े में अफ़रातफ़री मच गई और लोग अपने दुकानों के शटर गिराकर भागने लगे. बस यहीं से उन्होंने इस घटना को साम्प्रदायिक रंग दे दिया. दुकानों में तोड़फोड़ शुरू कर दी.

लेकिन मोनू का कहना है कि वो मूर्ति-विसर्जन करने जा रहे अखाड़े में एक गाना बज रहा था. गाने के बोल थे –‘कश्मीर रहेगा, पाकिस्तान नहीं रहेगा... हिन्दुस्तान रहेगा, मुसलमान नहीं रहेगा...’ इसके अलावा शराब के नशे में मुसलमानों को गालियां भी दे रहे थे. इसी बात पर उन्हीं में से एक लड़के ने उन्हें मना किया तो पहले उसे उन लोगों ने मारना शुरू किया. इसे देखकर पास खड़े कुछ मुस्लिम लड़के उसे बचाने गए तो उन्होंने उसे छोड़कर इस मुस्लिम लड़कों से लड़ाई शुरू कर दी.

इस बीच इस घटना की ख़बर मिलते ही फुलवारी शरीफ़ थाने की पुलिस ने मौक़े पर पहुंच कर लोगों को खदेड़ दिया. हालात बिगड़ता देख पटना ज़ोन डीआईजी शालीन, डीएम प्रतिमा वर्मा, एसएसपी विकास वैभव, एसडीओ रेयाज व बीडीओ शमशेर मल्लिक़ समेत आधा दर्जन थाने की पुलिस वहां कुछ ही देर में पहुंच गई. रैपिड एक्शन फोर्स ने भी यहां मोर्चा संभाल लिया. इसके बाद उपद्रवी पथराव करते रहें. हालांकि पुलिस ने उसी समय अपनी देखरेख में मूर्ति का विसर्जन भी करवाया.

घटनास्थल पर स्थानीय विधायक श्याम रजक भी पहुंचे और लोगों से शांति व सौहार्द बनाए रखने की अपील की.

हालांकि राकेश कुमार का इस पूरे घटनाक्रम पर मानना है कि यह पूरा मामला राजनीतिक था. बल्कि ये कह सकते हैं कि क्रिया का प्रतिक्रिया था. उनके मुताबिक़ तीन दिन पहले यहां श्याम रजक की जीत पर खूब जश्न मना था. मुसलमान लड़कों ने खूब पटाखें छोड़े थे और विरोधी दल के लड़कों को खूब चिढ़ाया था. बस वहीं बात हारने वाले दल के कार्यकर्ताओं को नागवार गुज़री. पहले तो वो शराब के नशे में आपस में ही लड़ रहे थे, लेकिन उसमें कुछ मुस्लिम लड़के घुस गए तो बस मौक़े का फायदा उठा लिया गया.


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इन सब बातों के बीच अभी यहां माहौल शांत है. अभी भी कई मूर्तियां पंडालों में हैं. उसके अलावा सड़कों पर लोग आराम से भईयादूज के मौक़े से पूजा करते दिखे.

पुलिस बल को भी काफी मात्रा में तैनात किया गया है. इलाक़े में दंगा नियंत्रण गाड़ी को घुमाया जा रहा है. पटना शहर के तमाम आला अधिकारी फिलहाल इलाक़े में घूमकर लोगों को शांति बनाए रखने की अपील करते नज़र आएं. एक पुलिस अधिकारी के मुताबिक़ इस पूरे घटनाक्रम की अभी तक कोई एफआईआर दर्ज नहीं हुई है. इस संबंध में हमने थानाध्यक्ष दीवान एकराम से भी बात करने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने व्यस्तता के कारण फिलहाल यह कहते हुए टाल दिया कि अभी मीटिंग में हैं. बाद में इस बारे में बात करेंगे.


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हालांकि इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि यहां यह पहली घटना नहीं है. स्थानीय लोगों का कहना है कि हर महीने किसी न किसी बात पर यहां झगड़ा होना अब आम बात हो गई है. इसके पूर्व इसी फुलवारी शरीफ़ इलाक़े की एक मस्जिद में सुबह-सुबह एक पटाखा फेंकने का मामला प्रकाश में आया था.

दिलचस्प बात यह है कि यहां एक लड़ाई इस इलाक़े के नाम को लेकर भी है. मुस्लिम लोग इस इलाक़े का नाम ईसापुर बताते हैं, लेकिन बाकी लोगों का कहना है कि यह इशोपुर है.... खैर, नाम जो भी हो, बस यहां के लोगों पर ईसा व इशो की कृपा बनी रहे.

इस शुक्रवार को पेरिस ही नहीं, लेबनान में भी गयीं मासूम जानें

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TwoCircles.net Staff Reporter,

नई दिल्ली:आज जब समूची दुनिया पेरिस में ISIS का निशाना बने 150 मासूम लोगों की मौत पर दुखी हो रही है, तो ये बहुत कम लोगों को पता है कि पेरिस सरीखे बड़े हादसे को ISIS ने लेबनान की राजधानी बेरुत में भी अंजाम दिया है.

शुक्रवार का दिन बेरुत के लिए किसी दुर्दिन से कम नहीं रहा जब दो मोटरसाइकिल सवाल मानव बमों ने कम से कम 43 लोगों को मौत की नींद सुला दिया. इन 43 के अलावा कम से कम 200 लोग ज़ख़्मी हो गए हैं. इस घटना को दक्षिणी बेरुत के शिया समुदाय प्रधान इलाके में अंजाम दिया गया. इस हमले में एक तीसरा मानवबम भी शरीक़ था, जिसकी मौत दूसरे धमाके से हुई. किंचित राहत की बात यह है कि तीसरे मानव बम को खुद को उड़ाने का मौक़ा ही नहीं मिला, जिससे और भी कई जानें बच गयीं.

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घटना के कुछ देर बाद भी ISIS के घटक ISIL ने एक बयान जारी करके इस घटना की जिम्मेदारी ली है.

बेरुत के हवाईअड्डे के रास्ते पर स्थित बुर्ज-अल-बराजनेह नामक इलाके में यह धमाके हुए. यह इलाका बेरुत के ख़ास आर्थिक और रिहायशी इलाकों में शुमार है, सूत्रों और एजेंसियों की खबरों का सहारा लें तो धमाकों से इस इलाके में खासा नुकसान हुआ है.

जांच एजेंसियों और बचाव दलों का दावा है कि जैसे-जैसे मलबे साफ़ किए जाएंगे, भीतर के इलाकों में जाने पर और भी जान-माल के नुकसान के मिलने की संभावना है.

25 साल पहले ख़त्म हुए सिविल युद्ध के बाद बेरुत में हुआ यह धमाका अब तक का सबसे भयावह हमला है. प्रधानमंत्री तमाम सलाम ने इस हमले की कड़ी निंदा की है और यह भी कहा है कि लेबनान की जनता इस हमले के खिलाफ एक साथ खड़ी है.

भले ही यह घटना ऊपरी तौर पर एक हमले की तरह दिखे लेकिन इसे सीरियाई युद्ध में शिया समुदाय के संगठन ‘हिज़बुल्ला’ और सुन्नी समुदाय के संगठन आईएसआईएस के बीच हाल में पनपे संघर्ष के एक अध्याय के रूप में देखा जा रहा है, जिसमें शिया समुदाय की निर्दोष और मासूम जानें चली गयीं हैं.

हाल में ही हिज़बुल्ला ने सीरिया में शिया लड़ाकों को भेज आईएसआईएस से लोहा लिया था, इससे आईएसआईएस को खासा नुकसान पहुंचा था. माना जा रहा है कि बेरुत में हुआ यह हमला उसी नुकसान का बदला है.

पहले हिज़बुल्ला के हिंसक कदमों से बेरुत के मुस्लिम समुदाय में खासा रोष था. लोगों का कहना था कि हाल में ही सम्हले देश को फिर से युद्ध की आंच में झोंकना सही नहीं है. लेकिन शुक्रवार को घटी इस घटना के बाद लोग अब हिज़बुल्ला संगठन की कार्रवाईयों के समर्थन में खड़े होते दिख रहे हैं.

(तस्वीरें Independent व DailyStar से साभार)

मुस्लिमों के आईने से बिहार चुनाव

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अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

पटना:बिहार का यह चुनाव मुस्लिम मतदाताओं के लिए एक ‘लिटमस टेस्ट’ की तरह था. नतीजों ने यह साबित कर दिया है कि मुस्लिम मतदाताओं ने भी चुनाव की दिशा तय की है.

बिहार के राजनीतिक मामलों के जानकार व अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के एसोसिएट प्रो. मो. सज्जाद बताते हैं, ‘इस बार का बिहार चुनाव पहले के चुनावों से काफी अलग था. बिहार के इतिहास में यह पहला चुनाव था, जिसमें भाजपा ने नफ़रत की सियासत की. ख़ौफ़ की सियासत की. इस ख़ौफ़ व नफ़रत के माहौल में मुसलमानों ने ख़ामोशी अख़्तियार की और यह ख़ामोशी महागठबंधन के लिए अच्छी मसलहत साबित हुई.’

सज्जाद बताते हैं, ‘मुसलमानों ने अपने किसी भी सवाल को अहम नहीं माना. अपने किसी भी मुद्दे पर बात नहीं की. अपने तमाम सवालात व परेशानियों को भूल गए. यहां तक मीडिया के लोगों के सामने भी वे नहीं खुले. असल में बिहार के मुस्लिम नफ़रत की सियासत के खिलाफ लामबंद होते रहे. उनकी यह कवायद सफल साबित हुई.’



मुस्लिम भले ही सत्ता के केन्द्र में न रहा हो, लेकिन एक सच यह भी है कि सियासत के केन्द्र में हमेशा मुसलमान ही रहा है. इस बार भी आरंभ में सभी दलों में होड़ मची रही कि मुसलमानों के चक्रव्यूह को कौन भेद पाएगा. खुद को मुस्लिमों का रहनुमा साबित करने वाली ऑल इण्डिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लीमीन यानी 'एमआईएम'ने भी बिहार में घुसपैठ करने की कोशिश की. सभी पार्टियां मुस्लिम वोटरों में पैठ बनाने की भरपूर कोशिश करती नज़र आईं. यहां तक कि भाजपा व उनके घटक दल भी. कभी ‘शहीद अब्दुल हमीद के शहादत दिवस’ के बहाने तो कभी गुजराती मुसलमानों के तरक़्क़ी के बहाने. कभी भागलपुर दंगोंके बहाने तो कभी मुस्लिम मुख्यमंत्री के बहाने.

इन सबके बावजूद इस बार के नतीजों की खासियत यह रही कि मुस्लिम वोट न बंटे न भटके, बल्कि एकजुट होकर एक जगह पड़े और नतीजे में महागठबंधन को अप्रत्याशित सफलता मिली. हालांकि एक सचाई यह भी है कि राज्य में मुसलमानों की आबादी के प्रतिशत के लिहाज़ से उनकी भागीदारी बेहद कम है.

जीते हुए मुस्लिम उम्मीदवारों की संख्या इस बार बेहतर ज़रूर हुई है, मगर चुनावी समीकरण बदलने में उनका जो योगदान है, उस लिहाज़ से यह भागीदारी फिर भी कम है.

आंकड़ों की बात करें तो 2011 की जनगणना के मुताबिक़ बिहार में मुसलमानों की जनसंख्या 16.87 फ़ीसद है. आंकड़े बताते हैं कि बिहार में मुसलमानों की जनसंख्या बढ़ रही है, उसके विपरित सत्ता में भागीदारी लगातार घट रही है. 2001 से 2011 के बीच मुसलमानों की आबादी 28 फीसदी बढ़ी है. (हिन्दुओं की भी 24 फीसदी बढ़ी है) यानी बिहार में मुसलमानों की आबादी 1.32 करोड़ से बढ़कर 1.76 करोड़ पहुंच गई है. इस तरह से 10 सालों में 38 लाख मुस्लिम बढ़े हैं. लेकिन सत्ता में भागीदारी घटी है. साल 2000 के विधानसभा चुनाव में 20 मुस्लिम नेता विधायक बने थे. फरवरी 2005 में यह संख्या बढ़कर 24 हो गई, लेकिन नवंबर 2005 में घटकर 16 पर आ गया. 2010 में थोड़ी बढ़ोत्तरी हुई है. 19 मुसलमान चुनाव जीत कर विधायक बने थे. हालांकि 30 सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवार दूसरे स्थान पर रहे थे.

इस बार की बात करें तो 2015 बिहार चुनाव में महागठबंधन ने कुल 33 मुस्लिम उम्मीदवार मैदान में उतारे थे, जिनमें से 23 ने शानदार जीत हासिल की है. यानी महागठबंधन के 70 फीसदी मुस्लिम उम्मीदवार इस चुनाव में कामयाब हुए. वहीं कटिहार के बलरामुर सीट पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मर्क्सिस्ट-लेनिनिस्ट) लिबरेशन के महबूब आलम ने जीत दर्ज कर संख्या में एक का इज़ाफ़ा कर दिया है. ऐसे में इस बार कुल 24 मुस्लिम उम्मीदवार विधायक बने हैं.

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जीतने वाले 24 उम्मीदवारों के अलावा दूसरे पर रहने वाले मुस्लिम उम्मीदवारों की संख्या अच्छी-खासी है. इस बार 15 मुस्लिम उम्मीदवार दूसरे स्थान पर हैं. कुछ सीटों पर तो काफी कम वोटों के अंतर से हार हुई है.

इतना ही नहीं, बिहार में अगर सबसे अधिक वोटों से जीतने वाले उम्मीदवारों की बात की जाए तो ‘टॉप फाईव’ में दो मुस्लिम उम्मीदवार शामिल हैं. जोकीहाट विधानसभा सीट से जदयू उम्मीदवार सरफ़राज़ निर्दलीय प्रत्याशी रंजीत यादव को 53980 वोटों से हराकर इस बिहार विधानसभा चुनाव में सबसे अधिक वोटों से जीतने वाले उम्मीदवारों की सूची में दूसरे नम्बर पर हैं. तो वहीं पांचवे स्थान पर कांग्रेस के अब्दुल जलील मस्तान का नाम आता है. अब्दुल जलील ने अमौर सीट पर भाजपा के सबा ज़फ़र को 51997 वोटों से पटखनी दी है.

एक बात यहां और ग़ौर करने की है. बिहार में कुल 38 सीटें एससी/एसटी के लिए आरक्षित हैं. लेकिन जब वहां मुस्लिमों की आबादी पर ग़ौर करते हैं तो कई सीटों पर मुस्लिमों का आबादी अधिक दिखाई पड़ता है. कटिहार के मनिहारी विधानसभा सीट पर मुस्लिम मतदाताओं की जनसंख्या तक़रीबन 42 फ़ीसद है. लेकिन यह सीट एसटी उम्मीदवार के लिए आरक्षित है, जबकि आदिवासी वोटरों की संख्या 12 फ़ीसद के आस-पास है. वहीं दलित वोटर 8 फ़ीसदी हैं.

कुछ ऐसी ही कहानी कोढ़ा विधानसभा सीट की भी है. यहां तक़रीबन 34 फ़ीसद मुस्लिम मतदाता हैं. लेकिन यह सीट एससी उम्मीदवार के लिए आरक्षित है. जबकि यहां दलित वोटरों की संख्या 13.5 फ़ीसद के आस-पास है. आदिवासी मतदाताओं की संख्या लगभग 8 फ़ीसदी है. अररिया के रानीगंज में भी मुस्लिम मतदाता 28 फीसद हैं. उसी तरह से पश्चिम चम्पारण के रामनगर सीट पर 21 फ़ीसद मुसलमान हैं और पूर्वी चम्पारण के हरसिद्धी सीट पर लगभग 20 फ़ीसदी आबादी है, लेकिन यह तमाम सीटें आरक्षित हैं.

बहरहाल, इस बार चुनाव में ध्रुवीकरण की तमाम कोशिशें हुईं लेकिन एनडीए की ओर से वोटों के ध्रुवीकरण के तमाम साज़िशों को दरकिनार करते हुए मुस्लिमों ने इस चुनाव के ज़रिए पूरे देश भर के अल्पसंख्यकों को एक स्पष्ट संदेश दे दिया है. संदेश साफ़ है कि एकजुट हो जाओ और अपने हक़ और इंसाफ़ की बात करने वाली ताक़तों पर दांव लगाओ. लेकिन एक बात यह भी ध्यान में रखने की है कि बिहार के मुसलमानों ने कभी अपने मुस्लिम के हैसियत से वोट नहीं किया, बल्कि देश का जैसा माहौल रहा, वो उसी के साथ गए.

बकौल प्रो. सज्जाद, '1977 लोकसभा चुनाव में जब लोग कांग्रेस के ख़िलाफ़ हुए तो मुसलमान भी कांग्रेस के ख़िलाफ़ गया. बोफोर्स कांड या भ्रष्टाचार जैसे मसलों से मुसलमान भी नाराज़ होता है. ऐसे में यह कहना है कि मुसलमानों का वोटिंग पैटर्न औरों से अलग है तो यह ग़लत है. 1967, 1990, 1995 के बिहार चुनाव में भी मुसलमान बिहार के बहुंसख्यक वोटरों के साथ ही गया. जब नीतीश कुमार भाजपा के साथ थे, तब भी मुसलमानों ने नीतीश की पार्टी को वोट दिया है.’

दरअसल, बिहार के इस चुनाव में मुस्लिम वोटरों की एकजुटता ने भाजपा के साथ-साथ ओवैसी के खेमे की नींदे उड़ा दीं. नतीजे में भाजपा ने भी जमकर ध्रुवीकरण करने की कोशिश की. गौ-हत्या से लेकर मुसलमानों के आरक्षण तक तमाम मुद्दों के ज़रिए भाजपा ने मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिन्दुओं को बहकाने का करारा दांव खेला लेकिन इस दांव में करारी मात मिली.

वैसे यहां यह भी स्पष्ट रहना चाहिए कि बिहार में यह बात भी सामने आई कि यहां के अधिकतर मुसलमानों ने कभी इस बात पर वोट नहीं किया कि फलां उम्मीदवार अपने मज़हब का है. मुसलमान है. बल्कि इस बात पर किया कि कौन उसकी आवाज़ को उठा रहा है. कौन उन्हें सुरक्षा मुहैया करा रहा है. जिसने भी यह काम किया, मुसलमानों ने उन्हें ही अपना लीडर मान लिया. हालांकि कई बार ठगे भी जाते रहे हैं. दिलचस्प बात तो यह है कि यहां ज़्यादातर मुस्लिम विधायक भी जीतने के बाद सबसे पहले मुसलमानों को ही भूलते हैं और दूसरे समुदाय के लोगों को खुश करने में लग जाते हैं. वैसे यह भी सही है कि उसे सिर्फ़ मुसलमानों का नेता नहीं होना चाहिए, उसे सबको लेकर चलना चाहिए.

ऐसे में मुस्लिम वोटरों की सबसे बड़ी शिकायत यही रही है कि उनको सिर्फ़ चुनाव के समय ही सिर्फ़ वोटबैंक की तरह इस्तेमाल किया जाता है.सरकार चुनने में उनके वोटों की अहम हिस्सेदारी होती है. लेकिन सरकार बनने के बाद उनके हक़ व हक़ूक़ की बात करने वाला कोई नहीं रहता. नीतीश कुमार के साथ-साथ वामदलों पर भी यह नज़र है कि मुस्लिम मतदाताओं के योगदान को वह भविष्य में किस ओर ले जाते हैं?

उम्मीद है कि बिहार के इस चुनाव में उनके इस योगदान को पार्टियां नहीं भूलेंगी. चुनाव के बाद भी उनकी दिक़्क़तों, उनकी प्राथमिकताओं और उनकी ज़रूरतों का बुनियादी तौर पर पूरा ख़्याल रखा जाएगा. ऐसा न हुआ तो आने वाले दूसरे प्रदेशों में भी चुनाव है. वहां मुस्लिम मतदाता एक बार फिर से अपने मुस्तक़बिल के हिसाब से पलट भी सकता है.

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