अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
पटना में चुनाव : कैमरे की नज़र में...
मोतिहारी के साम्प्रदायिक सौहार्द्र से खेलते मीडिया व पुलिस

अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
मोतिहारी:चुनावी मौसम में चुनाव जीतने के ख़ातिर राजनीतिक दल तो हर तरह के हथकंडे अपनाते ही हैं. लेकिन ज़रा सोचिए कि इन्हीं राजनीतिक दलों के नक़्शे-क़दम पर पुलिस-प्रशासन और लोकतंत्र का चौथा खंभा यानी हमारी मीडिया भी चलने लगे तो फिर क्या होगा? चुनाव के चंद रोज़ पहले कैसे पुलिस व मीडिया माहौल को साम्प्रदायिक बना सकती है. इसका जीता-जागता उदाहरण बिहार के पूर्वी चम्पारण जिले के शहर मोतिहारी में देखने को मिला.

आमतौर पर पुरानी रिवायत के मुताबिक़ हर साल मुहर्रम के मौक़े पर हर मुस्लिम इलाक़ों में इस्लामी झंडा लगाया जाता है. जिस पर अरबी भाषा में क़लमा लिखा होता है. जिसका रंग हरा होता है. चांद-तारे भी बने होते हैं. यहां यह भी स्पष्ट कर देना चाहिए कि कुछ ऐसी ही रिवायत नागपंचमी के मौक़े पर निकलने वाले महावीरी अखाड़े या हिन्दुओं के अन्य त्योहारों में भी यहां देखने को मिलता है, जिसमें भगवा झंडों से पूरा इलाक़ा पाट दिया जाता है.
ठीक उसी रिवायत के मुताबिक़ इस बार भी चम्पारण में मुहर्रम के मौक़े पर हरे रंग के झंडे शहर में जगह-जगह लगाए गए थे. मुस्लिम समुदाय ने अपना मुहर्रम का अखाड़ा भी काफी शांति के साथ निकाल कर लोगों को साम्प्रदायिक सदभाव बनाए रखने का पैग़ाम दिया. इस्लामिक गानों की जगह ज़्यादातर आखाड़ों में देशभक्ति गाने बजे. खासतौर पर ‘मेरे देश-प्रेमियो! आपस में प्रेम करो...’ गाना तो लगभग हर अखाड़े में गाया जा रहा था. ‘भारत मां की सुरक्षा करते मुस्लिम जवान’ वाली झांकियां भी निकाली गई थी.

अखाड़े से जुड़े लोगों को लगा था कि कल के अख़बार में इन तमाम चीजों का ज़िक्र होगा. लेकिन अगले दिन उन्होंने जैसे अख़बार उठाया. एक ख़बर ने सबके होश उड़ा दिये. ख़बर की हेडिंग थी – 'मोतिहारी में लहराया पाकिस्तानी झंडा'यह ख़बर हिन्दी भाषा के लगभग सारे अख़बारों में थी. ख़बर पुलिस के एफआईआर के हवाले से लिखी गई थी.
ख़बर में बताया गया था - ‘मोतिहारी शहर के हनुमानगढ़ी मोहल्ले में एक पोल पर पाकिस्तानी झंडा लहराते मिला. पुलिस ने उस झंडे को ज़ब्त कर लिया. झंडे पर अरबी भाषा में कुछ लिखा हुआ था.’इस ख़बर में यह भी लिखा हुआ था - ‘पुलिस भाषा विशेषज्ञ से जानकारी ले रही है. नगर पुलिस ने अज्ञात लोगों के ख़िलाफ़ राष्ट्रद्रोह का मामला दर्ज कर लिया है.’

खबर के मुताबिक़ ‘शुक्रवार की देर शाम नाका-एक के प्रभारी ओपी राम गश्त पर थे. उन्होंने झंडे को देखा और ज़ब्त कर लिया. झंडे की लंबाई साढ़े तीन फीट व चौड़ाई सवा दो फीट है. नगर थानाध्याक्ष अजय कुमार ने बताया कि झंडा लगाने वाले की तलाश की जा रही है.’
इस ख़बर ने पूरे पूर्वी चम्पारण में लोगों को हरकत में ला दिया. एक तरफ़ लोग यह बताने की कोशिश में जुटे हुए थे कि वो झंडा पाकिस्तानी नहीं हो सकता. क्योंकि पाकिस्तान के झंडे पर किसी भी तरह का कोई क़लमा अरबी भाषा में लिखा हुआ नहीं होता और झंडे का रंग हरे के साथ-साथ थोड़ा सफेद भी होता है. लेकिन दूसरी तरफ़ इस बात को प्रचारित किया जाने लगा कि मुसलमानों का मनोबल बढ़ गया है. वे मोतिहारी को पाकिस्तान बनाना चाहते हैं.

इस बाबत मो. आलम बताते हैं, ‘ये मीडिया की साम्प्रदायिकता नहीं तो और क्या है. जहां मुहर्रम के अखाड़े में तिरंगा लहराया गया. उसकी किसी ने कोई ख़बर नहीं की, लेकिन इस झूठे मामले को तूल दे दिया गया. पुलिस ने आख़िर वह झंडा मीडिया के लोगों को दिखाया क्यों नहीं?’
आलम आगे बताते हैं कि एक ख़ास पार्टी के लोगों ने इस ख़बर की ज़ेराक्स कराकर लोगों में बांटने का काम किया और लोगों को इस बात से भ्रमित किया कि देखो! चुनाव से पहले जब ये पाकिस्तान का झंडा लहरा रहे हैं, तो अगर ग़लती से नीतीश कुमार की सरकार फिर से बन गई तो ये मुसलमान इसे पूरा पाकिस्तान बना देंगे.
इस तरह की कई अफ़वाहें अपने सियासी फ़ायदे को लेकर चम्पारण के गांव-देहातों में फैलाई गई. हालांकि आज एक ऐसा ही बयान भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने भी एक रैली ने दिया, ‘भाजपा हारी तो पाकिस्तान में पटाख़े फूटेंगे.’ खैर, जब इस झंडे पर खूब राजनीति हो गई. जिसे जो फ़ायदा लेना था, मिल गया तब फिर बुधवार को उसी पुलिस प्रशासन ने यह स्पष्ट किया, ‘पुलिस जांच में ज़ब्त झंडा पाकिस्तान का नहीं पाया गया.’
लेकिन अब इस ख़बर को सिर्फ़ एक अख़बार ने छोड़कर (8वें पृष्ठ पर) किसी भी अख़बार ने कोई ख़बर प्रकाशित नहीं की. दिलचस्प बात यह है कि जिस पुलिस को यह झंडा पाकिस्तानी नज़र आ रहा था. अब वही पुलिस प्रशासन बता रही है कि वह झंडा पाकिस्तान का नहीं था. क्योंकि झंडा एक ही रंग का है. उस पर स्लोगन लिखा गया है और चांद के साथ कई सितारे बनाए गए हैं. जबकि पाकिस्तान के झंडे में पहले उजले रंग की पट्टी और उसके बाद गहरे हरे रंग पर एक चांद व सितारा रहता है.’
पूर्वी चम्पारण में पत्रकार अक़ील मुश्ताक़ का इस पूरे मामले पर कहना है, ‘यह कितना अजीब है कि कोई फोन करके पुलिस को सूचना देता है. पुलिस आनन-फानन में झंडा उतार लेती है. बल्कि झंडे को ज़ब्त कर लेती है. एफ़आईआर भी दर्ज कर लेती है. जबकि पाकिस्तान के झंडे को आसानी से पहचाना जा सकता है. ऐसे में तो यही कहा जा सकता है कि पुलिस भी कहीं न कहीं इस झंडे के बहाने माहौल को साम्प्रदायिक रंग में रंगने की कोशिश कर रही थी.’
पिछले पांच साल से रूकी हुई है भाजपा की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रेणु देवी की उम्र
अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
बेतिया: देश के नेता हमेशा ही अपनी राजनीतिक उम्र लंबी करने की दुआएं मांगते हैं. तमाम तिकड़में भिड़ाते हैं. जी तोड़ मेहनत करते हैं. मगर अपनी असली उम्र का कोई हिसाब नहीं रखते.
नेताओं के घटती-बढ़ती उम्र पर हमने तो कहानियां खूब लिखी हैं, लेकिन यह पहला मामला सामने आया है, जहां एक एक नेता जी उम्र पिछले सालों से ठहरी हुई है. और दिलचस्प बात यह है कि यह कहानी किसी ऐसे नेता की नहीं है, बल्कि भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष की है.
यह राष्ट्रीय उपाध्यक्ष इन दिनों बेतिया की विधायक हैं और पिछले चार बार से जीत दर्ज कर रही हैं. इन विधायक का नाम है रेणु देवी... रेणु देवी को अमित शाह का क़रीबी माना जाता है. इनके समर्थक बताते हैं कि अगर इस बार एनडीए चुनाव जीत जाती है तो रेणु देवी को भी मुख्यमंत्री बनाया जा सकता है.
रेणु देवी ने चुनाव आयोग को दिए खुद के हलफ़नामें ही यह बताया है कि 2015 में उनकी उम्र सिर्फ़ 52 साल है. जबकि यही जानकारी उन्होंने चुनाव आयोग को 2010 विधानसभा चुनाव में भी दिया था. यानी पांच साल पहले भी वो 52 साल की ही थी.
कहानी यहीं ख़त्म नहीं. अक्टूबर 2005 में रेणु देवी चुनावी हलफ़नामे में अपनी उम्र 46 साल बताई थी. यानी अक्टूबर 2005 से सितंबर 2010 के बीच उनकी उम्र 6 साल बढ़ गई. जबकि जनवरी 2005 चुनाव में इन्होंने अपनी उम्र 47 साल बताई थी.
रेणु देवी की उम्र भले ही रूकी गई लेकिन सम्पत्ति चुनाव के बाद बढ़ी हुई ज़रूर दिखी. 2005 चुनाव में रेणु देवी के पास सम्पत्ति के नाम पर 41.31 लाख रूपये था. लेकिन 2010 चुनाव में ज़बरदस्त उछाल आया. इनकी सम्पत्ति इतनी तेज़ी से बढ़ी कि आप सोच भी नहीं सकते. यानी अब वो 2.11 करोड़ की मालकिन बन चुकी थी. जबकि 2015 में इनकी सम्पत्ति 2.45 करोड़ हो चुकी है.
चम्पारण : चौथे चरण का सबसे महत्वपूर्ण जिला
अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
चंपारण:बिहार विधानसभा के चौथे चरण के लिए चुनाव प्रचार शुक्रवार शाम समाप्त हो गया. 01 नवम्बर को सात ज़िलों में 55 विधानसभा सीट के लिए मतदाता मतदान करेंगे. इन सात ज़िलों में सबसे महत्वपूर्ण इस समय चम्पारण बन गया है, क्योंकि चम्पारण के दो ज़िलों यानी पूर्वी व पश्चिमी चम्पारण में कुल 21 सीटें हैं और दोनों ही गठबंधनों का मानना है कि ये 21 सीटें सत्ता की फ़सल काटने के लिए हर लिहाज़ से ज़रूरी है. इसलिए इन सीटों को किसी भी तरह से हथियाने के तमाम हथकंडे जमकर अपनाए जा रहे हैं.

कभी गांधी का कर्मभूमि रहा यह चम्पारण हमेशा से राजनीतिक रूप से समृद्ध रहा है. हमेशा से यहां के लोग वैचारिक स्वतंत्रता से अपनी महत्वाकांक्षा के आधार पर फैसले लेते रहे हैं. चम्पारण का चप्पा-चप्पा ऐतिहासिक, पौराणिक और आज़ादी के आंदोलन के स्वर्णिम अध्यायों से अटा पड़ा है. कभी इस धरती से मुस्लिम इंडीपेंडेन्ट पार्टी के टिकट से हाफ़िज़ मुहम्मद सानी पहले विधायक बने थे और 1937 की मो. युनूस की सरकार में काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. पीर मुहम्मद मुनिस जैसे लोग यहां आज़ादी के पूर्व भी साम्प्रदायिकता का विरोध करते रहे हैं.

लेकिन अब चम्पारण की ज़मीन इन दिनों अजीब साज़िश की शिकार हो चुकी है. यह साज़िश यूं तो बेहद ही चुनावी है, लेकिन है बेहद ही घातक. चुनावी मौसम में यहां हिन्दू-मुसलमान के नाम पर इस ज़मीन को सुलगाने की जमकर कोशिश की जाती रही. हाल में हुई कई घटनाएं इस बात का ज़िन्दा सबूत हैं. पिछले एक महीने में यहां छोटी-छोटी बातों को साम्प्रदायिक रंग देने की कोशिश की गई. यह तमाम सबूत इस तथ्य की ओर इशारा भी करते हैं कि ये छिटपुट या अनायास घटनाएं नहीं हैं, बल्कि एक संघटित तरीक़े से हिन्दू-मुसलमानों को आमने-सामने कर वोटों की मोटी फसल काटने की तैयारी थी. लेकिन चम्पारण की जनता पर शायद ही इन घटनाओं का कोई असर हो.
यदि आंकड़ों की बात करें तो 9 सीटें पश्चिम चम्पारण में हैं और 12 सीटें पूर्वी चम्पारण में. इस प्रकार दोनों चम्पारण को मिलाकर कुल 21 सीटें हैं. इन 21 सीटों पर यदि चुनावी समीकरण की बात करें तो 2010 के विधानसभा चुनाव में यहां भाजपा को 10 सीटें हासिल हुई थीं. वहीं जदयू की 8 सीटों पर जीत हुई थी. इसके अलावा 3 सीटों पर निर्दलीय उम्मीदवारों ने बाज़ी मारी थी.

राजद या कांग्रेस को एक भी सीट हासिल नहीं हुई थी. लेकिन राजद यहां 9 सीटों पर दूसरे नंबर ज़रूर रही थी. 4 सीटों पर लोजपा तो 2 सीटों पर कांग्रेस नंबर दो पर रही थी. जदयू भी 3 सीटों पर दूसरे स्थान पर थी.
लेकिन यह भी जानना ज़रूरी है कि तब चुनावी समीकरण अलग था. उस समय भाजपा व जदयू एक साथ थे. राजद व लोजपा ने साथ मिलकर चुनाव लड़ा था. कांग्रेस अकेले दम पर अपनी किस्मत आज़मा रही थी. पर अब समीकरण बिल्कुल अलग है. जदयू अब जहां राजद व कांग्रेस के साथ है, तो वहीं लोजपा अब भाजपा के साथ है. ऐसे इस नए समीकरण में लड़ाई काफी दिलचस्प बन गई है.
जहां महागठबंधन को खासतौर पर कांग्रेस को गांधी की कर्मस्थली चम्पारण से आस है, वहीं यहां भगवा पक्ष की सक्रियता को भी नहीं नकारा जा सकता है. इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि कभी जनसंघ भी यहां मज़बूत दावेदारी पेश करती रही है. पर सच यह भी है कि पिछले चुनाव में जिन सीटों पर भाजपा जीती थी, आज उन्हीं सीटों पर उसकी पकड़ काफी धीली पड़ चुकी है. खासतौर पर पश्चिम चम्पारण में जिन चार सीटों पर भाजपा की जीत हुई थी, उन सीटों पर इस बार महागठबंधन भाजपा को काफ़ी कड़ा टक्कर दे रहा है.
हालांकि पिछले चुनाव में कांग्रेस व राजद इस जिले में एक सीट के लिए तरस कर रह गई थीं. पर इस बार लड़ाई महागठबंधन बनाम एनडीए के हो जाने से स्थिति काफी बेहतर है. महागठबंधन के नेताओं का मानना है कि इस बार क़िला फ़तह होना लगभग तय है. भविष्य में क्या होगा, यह 8 नवम्बर को आने वाले नतीजे ही बेहतर बताएंगे.
बेतिया : इस बार होगी कांटे की लड़ाई!
अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
पश्चिम चम्पारण का ज़िला मुख्यालय की बेतिया विधानसभा सीट पर इस बार कांटे की लड़ाई नज़र आ रही है. एनडीए गठबंधन के साथ-साथ महागठबंधन के नेताओं ने भी अपनी पूरी ताक़त यहां झोंक दी है. महागठबंधन व स्थानीय नेताओं का स्पष्ट तौर पर कहना है कि –अभी नहीं तो कभी नहीं...
दरअसल, बेतिया बिहार के पश्चिमी चंपारण ज़िले का एक अहम शहर है. यह पश्चिमी चंपारण ज़िला का मुख्यालय भी है. कहा जाता है कि ब्रिटिश शासनकाल में ‘बेतिया राज’ भारत की दूसरी सबसे बड़ी ज़मींदारी थी. उस समय अंग्रेज़ों को 20 लाख रूपये तक लगान में मिलता था.
आज़ादी के बाद भी यह शहर देश के लिए काफी अहम रहा. कभी जवाहरलाल नेहरू तक ने कहा था कि यह शहर भारत के महानगर वाला शहर हो सकता है. 1974 के संपूर्ण क्रांति में भी बेतिया की अहम भुमिका थी. लेकिन लोग बताते हैं कि जेपी आन्दोलन के बाद से इस शहर की हालत बेहतर होने के बजाए लगातार बिगड़ती रही. गांधी के इस ज़मीन पर गांधी के हत्यारे ही काबिज़ हो गए. गांधी से जुड़े धरोहरों को भी धीरे-धीरे ख़त्म कर दिया गया. कभी इस ज़मीन पर जनसंघ यहां सक्रिय हुआ करती है. लेकिन अब यहां बीजेपी का राज है.
1996 से बेतिया लोकसभा सीट पर बीजेपी की जीत हो रही है. बस 2004 में यहां राजद जीत पाई थी. फिर से यह लोकसभा सीट बीजेपी को ही चली गई. उसी प्रकार सन् 2000 से यहां के विधानसभा पर भी बीजेपी की रेणु देवी ही क़ाबिज़ हैं.
स्पष्ट रहे कि 2010 विधानसभा चुनाव में यहां रेणु देवी ने निर्दलीय उम्मीदवार अनिल कुमार झा को 28,789 वोटों से हराया था. अनिल झा अब जदयू हैं और कांग्रेस के प्रत्याशी मदन मोहन तिवारी के लिए इस बार मेहनत कर रहे हैं, जबकि मदन मोहन तिवारी 2010 में तीसरे नम्बर पर थे.
पन्नालाल राकेश कुमार का मानना है कि इस बार यहां बीजेपी का जीतना काफी मुश्किल है. वो बताते हैं कि –‘इस बार जातिय समीकरण महागठबंधन के साथ है. ऐसे में कांग्रेस का पलड़ा भारी दिख रहा है. इस बार बीजेपी धाराशाई हो सकती है.’
वहीं तारिक़ अनवर का कहना है –‘अभी नहीं तो कभी नहीं... इस बार बीजेपी का हारना लगभग तय है. यहां के सारे मुसलमान और यादव के साथ-साथ दलित व पिछड़े भी कांग्रेस प्रत्याशी के साथ हैं.’ स्पष्ट रहे कि यहां लगभग 27 फीसदी मुस्लिम वोटर्स हैं. वहीं लगभग 12 फीसदी दलित वोटर्स भी हैं. यादव व पिछड़े समुदाय के वोटर्स की भी अच्छी-खासी तादाद है.
लेकिन सोनू का कहना है कि चाहे लोग कुछ बी कर लें, लेकिन जीत तो यहां से बीजेपी की ही होगी. वहीं अजय प्रकाश का कहना है कि रेणु देवी व उसके भाई के आतंक से लोग परेशान हो चुके हैं, इसिलए इस बार यहां परिवर्तन तय है. खुद बीजेपी के नेता इस बार अंदर ही अंदर उनके ख़िलाफ़ हैं.
विजय दूबे का कहना है कि रेणु देवी ने ज़्यादा काम भले ही न किया हो. लेकिन बेतिया के विकास पर उनका सदा ध्यान रहा है. यहां की जनता इस बार फिर विकास के नाम उन्हें ही वोट करेगी. उनकी जीत तय है. जो भी चुनावी मुद्दे होंगे, रेणु देवी जीत के बाद सब दूर कर देंगी.
चुनावी मुद्दा के तौर यहां मेडिकल कॉलेज एक अहम मुद्दा है. 2007 में ही मेडिकल कॉलेज की स्थापना हो गई, एमसीआई से स्वीकृति भी मिल गई. पढ़ाई भी चालू है. लेकिन अब तक कॉलेज के भवन के लिए एक भी ईंट नहीं जोड़ा जा सका है. बेरोजगारी भी यहां के लोगों के लिए एक अहम मुद्दा है. जिला मुख्यालय बेतिया में पिछले दस सालों में एक भी नए उद्योग धंधे नहीं लग सके. जिसके कारण युवकों को रोजगार के लिए दूसरे राज्यों में पलायन करना पड़ रहा है.
हालांकि बेतिया के वोटर्स काफी सजग और जागरूक हैं. हमेशा से वैचारिक स्वतंत्रता से अपनी महत्वकांक्षा के आधार पर फैसला लेते रहे हैं. यही कारण है कि पिछले विधानसभा में यहां मतदान का प्रतिशत 55.26 रहा और इस बार इसमें और इज़ाफ़ा होने की उम्मीद है. यहां 16 उम्मीदवार मैदान में हैं. लड़ाई में विजय का सेहरा किसके सर होगा,ये 8 नवम्बर को आने वाला नतीजा ही बताएगा.

पटना की मस्जिद में फेंके गए पटाखे, लिखी गयी गालियां
सिद्धांत मोहन, TwoCircles.net
पटना:आज रविवार की सुबह पटना की न्यू मिल्लात कॉलोनी के फुलवारी शरीफ में अराजक तत्वों ने दस्तक दी, और पिछले सवा-डेढ़ साल से चला आ रहा सम्प्रदायवाद भी इस अराजकता का एक उदाहरण साबित हुआ.
फुलवारी शरीफ स्थित मिल्ली मस्जिद में जब आज सुबह भोर की नमाज़ अता की जा रही थी, उसी वक़्त तड़के 5:30 बजे मस्जिद के भीतर प्रांगण में जोरदार धमाका हुआ. नमाजियों ने आनन-फानन में उठकर देखा तो मस्जिद के भीतर सुतलियों से बना हुआ बम फेंका गया था, जिसके फटने से यह धमाका हुआ था. चश्मदीदों और मस्जिद के आसपास रहने वालों का कहना है कि धमाका इतना तेज़ था कि आसपास के घरों में सो रहे लोग जग गए और किसी अनिष्ट की आशंका से दहशतज़दा हो गए.
यही नहीं, मस्जिद की दीवार पर मोहल्ले के कोचिंग संस्थान ‘रज़ा क्लासेज़’ के बारे में माँ-बहन की भद्दी-भद्दी गालियां लिखकर चिपका दी गयी थीं. स्ट्रीट लाईट से पहचान न हो सके इसके लिए पास में ही मौजूद स्ट्रीट लाईट के स्विच को भी तोड़ दिया गया था.
लेकिन राहत की बात यह है कि इस धमाके में कोई भी इंसान घायल नहीं हुआ है. मस्जिद के ठीक सामने रहने वाले चश्मदीद 30 वर्षीय आज़ाद बताते हैं, ‘जिस वक़्त धमाका हुआ, मैं तुरंत उठकर बाहर आया. उस समय दो लड़कों को मैंने भागते हुए देखा. वे दोनों भागते हुए फुलवारी शरीफ के ठीक पीछे स्थित बिड़ला कॉलोनी में चले गए.’ आज़ाद बताते हैं, ‘रज़ा क्लासेज़ को लेकर पहले भी एक दफ़ा लड़ाई-झगड़ा हो चुका है, लेकिन इस बार निशाने पर साफ़ तौर पर मस्जिद थी. यह साफ़ है कि मामला इस बार कुछ और ही है.'
मस्जिद के बगल में रहने वाले मुदस्सिर रिज़वान बताते हैं, ‘जिस समय धमाका हुआ उस वक़्त अंधेरा था. लेकिन धमाका इतना ज़बरदस्त था कि हमारे घर के सभी लोग घबराकर उठ गए.’ मुदस्सिर आगे बताते हैं, ‘कोई चोटिल नहीं हुआ है, लेकिन लोगों में दहशत फ़ैल गयी है.’
मस्जिद में नमाज़ अता कर रहे लोग बाहर की सचाई से कुछ पल बाद ही परिचित हो सके.
मामले की जांच कर रहे फुलवारी शरीफ थाने के सब-इंस्पेक्टर एकराम ने स्वीकार किया है कि यह सब दहशत फैलाने के लिए किया जा रहा है. एकराम ने कहा, ‘अच्छी बात यह है कि कोई हताहत नहीं हुआ है. हमने मस्जिद के लोगों से सीसीटीवी लगवाने के लिए कहा है ताकि ऐसी घटनाओं में संदिग्धों की तुरंत पहचान की जा सके. हम अपने स्तर पर कार्रवाई कर रहे हैं लेकिन लोगों से कहा है कि वे सतर्क रहें.’
अल्पसंखयकों पर अब बड़े हमले नहीं हो रहे हैं. छोटी-छोटी छिटपुट कार्रवाईयां हो रही हैं. फुलवारी शरीफ के नागरिक भी मान रहे हैं कि बिहार चुनाव में फायदे के लिए एक ख़ास साम्प्रदायिक दल द्वारा इस घटना को अंजाम दिया जा रहा है. इसकी सचाई जो भी जो लेकिन यह सच है कि पिछले कुछ समय में चाहे लेखकों की ह्त्या हो, अल्पसंख्यकों की हत्या हो, उनके प्रति हिंसा हो या कुछ भी, राजनीतिक-सामाजिक स्तर पर हिंसक रूप से सक्रिय लोगों के हौसले बुलंद हुए हैं.
चौथे चरण का मतदान जारी, चम्पारण में खास उत्साह
अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
चम्पारण:आज बिहार के 7 ज़िलों में चौथे चरण के लिए मतदान जारी है. राज्य चुनाव आयोग के अनुसार दिन के 12 बजे तक 35.68 फ़ीसदी मतदान होने की ख़बर है.

चुनाव आयोग के आंकड़े बताते हैं कि दिन के 12 बजे तक सबसे अधिक मतदान पश्चिम चम्पारण ज़िला में हुआ है. यहां मतदान का प्रतिशत 40.03 दर्ज किया गया है. सबसे कम मतदान अभी शिवहर ज़िला में हुआ है. यहां मतदान का प्रतिशत सिर्फ़ 13.5 है. इसके पीछे अहम कारण बूथ नंबर 50 पर हम और समाजवादी पार्टी के समर्थकों में झड़प होना है.

इस झड़प में पुलिस को लाठीचार्ज करना पड़ा. इस कारण क़रीब दो घंटे मतदान भी रोकना पड़ा. उसके बाद कम मतदान का दर सीवान जिले में है. यहां दिन के 12 बजे तक 31.24 प्रतिशत मतदान हुआ है.
TwoCircles.net की टीम इस समय पश्चिम चम्पारण में है. यहां के लोगों में मतदान को लेकर काफी उत्साह है. सुबह सात बजे से ही ज़्यादातर मतदान केन्द्रों पर लंबी क़तारे नज़र आईं. युवाओं के साथ-साथ बुगुर्ग भी जोश में दिखें.
95 साल के वचनदेव कुंवर पूरी ज़िन्दगी मतदान करने के लिए वचनबद्ध हैं. वो बताते हैं कि जब से बिहार में वोट हो रहा है, तब से वोट दे रहे हैं. पॉलिटिक्स के बारे में बताते हैं कि पहले के नेता अलग थे. अब के नेताओं में वो बात नहीं है.

इंडियन आर्मी से रिटार्यड 50 साल के जटाशंकर जो फिलहाल एसएसएफ में हैं. खासतौर पर वोट करने अपने गांव आए हैं. वो बताते हैं कि अपने नई पीढ़ी के उज्जवल भविष्य के लिए हमें वोट ज़ररू करना चाहिए.
चुहरी गांव के 75 साल की राजकुमारी कुंवर चल-फिर नहीं सकतीं. फिर भी उन्होंने वोट करने की इच्छा दिखाई तो उनके बेटे अपने गोद में लेकर उन्हें मतदान केन्द्र पहुंचे.
इस बार खास तौर पर महिलाओं में मतदान को लेकर काफी जोश है. यही जोश पश्चिम चम्पारण में भी दिखा. हर गांव-देहातों में महिलाओं की लंबी-लंबी क़तारें दिखीं.

चुहरी गांव में ही एक निर्दलीय प्रत्याशी ने कई मतदान केन्द्रों के बाहर अपने हक़ में पोस्टर लगा रखा है. TwoCircles.net की टीम ने इसकी शिकायत प्रशासन से की. प्रशासन तुरंत हरकत में आया और सारे पोस्टरों को हटाने की कार्रवाई की गयी.

पश्चिम चम्पारण को छोड़ कुछ ज़िलों से मतदान के दौरान झड़प की ख़बर आ रही है. इसके अलावा कुछ इलाकों में वोटिंग का बहिष्कार भी हुआ. पूर्वी चम्पारण के मोतिहारी में 'बिजली पोल नहीं तो चुनाव में पोल भी नहीं'का नारा लगाकर लोगों ने चुनाव का बहिष्कार कर दिया.

कई क्षेत्रों में हवाई निगरानी के लिए हेलीकॉप्टर और ड्रोन भी लगे हुए हैं. इस चुनाव में भी कई क्षेत्र नक्सल प्रभावित हैं. इसको देखते हुए 43 विधानसभा में शाम पांच बजे तक, 8 सीटों पर मतदान शाम चार बजे तक जबकि चार सीटों पर मतदान सिर्फ तीन बजे तक चलेगा. नक्सल प्रभावित मतदान केंद्रों की संख्या 3043 है. सुरक्षा के लिए केंद्रीय अर्धसैनिक बलों की 1163 कंपनियां (एक कम्पनी में 100 जवान) तैनात की गई हैं. नदियों के रास्ते पेट्रोलिंग के लिए 38 मोटरबोट भी तैनात हैं.

स्पष्ट रहे कि सात ज़िलों के इन 55 सीटों पर महागठबंधन की ओर से राजद 26, जदयू 21 और कांग्रेस 8 मैदान में हैं. एनडीए की ओर से भाजपा 42, एलजेपी 5, हिंदुस्तान अवामी मोर्चा और लोक समता पार्टी 4-4 सीटों पर ताल ठोंक रही हैं.
पूर्व के आंकड़े बताते हैं कि 2010 विधानसभा चुनाव में जदयू के साथ लड़ते हुए भाजपा ने मुज़फ़्फ़रपुर, पूर्वी चंपारण, पश्चिमी चंपारण, सीतामढ़ी, शिवहर, गोपालगंज और सीवान की 55 सीटों में से 26 सीटें जीती थीं. जदयू तब 24 सीटों पर विजयी रहा था. राजद को दो और तीन सीटें निर्दलीय उम्मीदवारों के खाते में गई थीं. लेकिन इस बार समीकरण काफी बदला हुआ नज़र आ रहा है
कैमरे की नज़र में चौथे चरण का मतदान
अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
बिहार : आज बिहार के सात ज़िलों में चौथे चरण के लिए मतदान समाप्त हो चुका है. राज्य चुनाव आयोग के अनुसार इस चरण में 57.59 फ़ीसदी मतदान हुआ है. सबसे अधिक मतदान चम्पारण (पश्चिमी व पुर्वी) ज़िला में हुआ है. यहां मतदान का प्रतिशत तक़रीबन 60 फीसदी से ऊपर दर्ज किया गया है. सबसे कम मतदान सीवान ज़िला में हुआ है. यहां मतदान का प्रतिशत 54.31 है.
TwoCircles.net की टीम आज चम्पारण के मतदान को कैमरे में क़ैद दिया. इन तस्वीरों में यहां के लोगों के उत्साह को साफ़ तौर पर देखा जा सकता है.
4.
वह फिल्म जो आपको नहीं देखनी चाहिए : ‘कास्ट ऑन द मेन्यू कार्ड’
सिद्धांत मोहन, TwoCircles.net
वाराणसी:देश में दिनोंदिन माहौल ऐसा होता जा रहा है, जिससे लगातार एक अनुभूति मजबूत होती जा रही है कि अगले ही क्षण कुछ घट जाएगा. मीडिया और राजनीति में इस बात को लेकर एकतरफा और बेमक़सद बहस हो रही है कि क्या देश में असहिष्णुता बढ़ गयी है.

अब जहां इस तरह के निर्णय भी लिए जाने लगे हैं कि किसकी थाली में क्या होना चाहिए और क्या नहीं, ऐसे में हिन्दू कट्टरपंथियों के लिए दादरी के मोहम्मद अखलाक़ का मारा जाना बड़ी बात नहीं होगी. वायुसेना में कार्यरत मोहम्मद अखलाक़ के बेटे को टीवी की बहसों में हर बार यह साबित करना पड़ रहा है कि वह भी भारत का नागरिक है.
‘बीफ’ यानी ‘गोमांस’ की उठा विवाद अब ज्यादा व्यापक रूप ले चुका है. इस बहस ने एक और बड़ी बहस को जन्म दे दिया है, जिसके उत्तर में साहित्यकार, फिल्मकार और वैज्ञानिक अपने-अपने पुरस्कार वापिस करने लगे हैं. महाराष्ट्र की सरकार ने सबसे पहले गोमांस की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया, लेकिन वहीँ महाराष्ट्र से सटे गोवा में गोमांस की कटाई और बिक्री धड़ल्ले से जारी है. गोवा में धार्मिक आस्थाओं के ऊपर विदेशी सैलानियों से होने वाली कमाई ज्यादा वजन रखती है, इसलिए दोहरी राजनीति का एक कुशल परिचय देते हुए गोवा की भाजपा सरकार ने देश में उठे बवाल के बावजूद अपने राज्य में बीफ पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया.
कास्ट ऑन द मेन्यू कार्ड.
सनद रहे कि बीत रहा साल 2015 आपकी-हमारी थाली से उठी हिंसा से चिन्हित किया जाएगा. टाटा इन्स्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज़, मुंबई के कुछ मीडिया छात्रों द्वारा एक फिल्म बनाई गयी है. फिल्म का नाम है ‘कास्ट ऑन द मेन्यू कार्ड’. शीर्षक से ज़ाहिर है कि यह फिल्म कई संगठनों को नहीं पचेगी. खबरें यह भी हैं कि इस फिल्म के सार्वजनिक प्रदर्शन की मांग को कई जगहों पर रद्द कर दिया गया. लेकिन खुशखबरी यह है कि फिल्म मुफ्त में यूट्यूब पर उपलब्ध है.
फिल्म में अल्पसंख्यकों से बात की गयी है. यहां ज़ाहिर होता है कि मुंबई जैसे महानगर में भी भोजन के नाम पर किस तरीके से धर्म के आधार पर छुआछूत पसरा हुआ है. फिल्म में बात कर रहे जानकार कह रहे हैं कि कोई क्या खा रहा है, इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ना चाहिए? फिल्म में बीच-बीच में कई सारे उद्धरण आते हैं, जहां कई लोगों के माध्यम से यह कहा जा रहा है कि गाय को लेकर की जा रही बहस कितनी गैर-ज़रूरी है?
बहरहाल, फिल्म का लिंक नीचे है. एक बार भी यह मालूम नहीं होता कि फिल्म छात्रों ने बनायी है. इसे वक़्त रहते देख लें, असहिष्णुता के दौर में कोई गारंटी नहीं है.
दलित हत्याओं के खिलाफ़ जंतर-मंतर पर प्रदर्शन
By TCN News,
नई दिल्ली:हरियाणा के फरीदाबाद में 20 अक्टूबर 2015 को दबंगों ने रात में सोते हुए एक दलित परिवार पर पेट्रोल डालकर जला देने की घटना को अंजाम दिया जिसमे दो मासूम बच्चो की जलकर दर्दनाक मौत हो गई. इसके साथ पति पत्नी गंभीर रूप से जल गए. इस घटना के दो रोज़ बाद 23 अक्टूबर को हरियाणा के जिला सोनीपत के गोहाना में पुलिस की बर्बरता के कारण एक दलित युवक की मौत हो गई.

आए दिन देशभर में दलितों के साथ इस प्रकार की दर्दनाक घटनाये होती रहती है और हर रोज़ इस प्रकार की घटनाओ में बढ़ोतरी हो रही है. फरीदाबाद व गोहाना की इन अमानवीय घटनाओ को लेकर देश भर के दलित समाज में रोष व्याप्त है.
दलितों के साथ हुई इन अमानवीय घटनाओं के विरुद्ध 'भारतीय समन्वय संगठन (लक्ष्य)'के हजारों कार्यकर्ताओ ने रविवार, 1 नवंबर को दोपहर 2 बजे दिल्ली के जंतर मंतर पर एक विरोध प्रदर्शन रैली की. इस रैली में हरियाणा, दिल्ली, उत्तराखंड व उत्तर प्रदेश के लोगो ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और पीड़ित परिवारों ने भी रैली में सहभागिता प्रदर्शित की.

'लक्ष्य'की फरीदाबाद टीम ने दिल्ली कूच करते वक्त हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर का पुतला फूंककर विरोध प्रकट किया.

रैली में वक्ताओं ने केंद्रीय राज्य मंत्री वी. के. सिंह की टिप्पणी पर रोष प्रकट किया और लोगो ने उनके इस बयान के खिलाफ नारे लगाये. रैली में उपस्थित लोगों ने हरियाणा सरकार के खिलाफ भी नारे लगाये. रैली के समापन पर महामहिम राष्ट्रपति व माननीय प्रधानमंत्री के नाम ज्ञापन दिया गया.
क्या राजद सांसद तस्लीमुद्दीन भी ओवैसी के साथ हैं?
अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
सीमांचल:सोशल मीडिया पर, खासतौर से वाट्सअप, यह ख़बर फैली हुई है कि अररिया से राजद सांसद तस्लीमुद्दीन सीमांचल में कुछ सीटों पर असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (मजलिस) के साथ हैं.

हालांकि इस ख़बर की पुष्टि अभी तक नहीं हो सकी है. TwoCircles.netने इस बाबत मो. तस्लीमुद्दीन से सम्पर्क करने की कोशिश की, लेकिन वे पार्टी नेता लालू प्रसाद यादव के साथ रैली में व्यस्त थे. इसलिए इसकी कोई आधिकारिक पुष्टि नहीं हो सकी है. लेकिन सूत्र बताते हैं कि सांसद मो. तस्लीमुद्दीन ने उन सीटों पर अपने कार्यकर्ताओं को मजलिस का साथ देने को कहा है, जहां से राजद ने अपना उम्मीदवार नहीं उतारा है.
स्पष्ट रहे कि इससे पूर्व भी मीडिया में भी इस बात को हवा मिली थी कि सीमांचल के बाहुबली मुस्लिम नेता तस्लीमुद्दीन भी ओवैसी के समर्थन में जा सकते हैं. मीडिया के इस ख़बर में इस बात की भी चर्चा की गई थी कि वो लालू के नीतिश के साथ गले मिलने से न सिर्फ नाराज़ थे, बल्कि लालू को नीतीश से हाथ मिलाने पर खमियाजा भुगतने की चेतावनी भी दी थी. वे यह भी बयान दे चुके हैं कि ‘बिहार के मुसलमानों का वोट इस बार के चुनाव में बीजेपी को भी मिलेगा.’
तस्लीमुद्दीन 2014 लोकसभा चुनाव में राजद की टिकट पर बिहार के अररिया से चुनाव जीते थे. उसके पहले वह विधायक भी रह चुके हैं. बताया जाता है कि तस्लीमुद्दीन का सीमांचल में लोगों में खासा दबदबा माना जाता है. समर्थकों की भीड़ देखकर उन्हें सीमांचल गांधीके नाम से भी जाना जाता है. हालांकि तस्लीमुद्दीन राजद से पहले जदयू में ही थे.
सोशल मीडिया पर दौड़ने वाला यह संदेश अगर सच साबित हुआ तो फिर यह ख़बर बिहार चुनाव में पहली बार उतरी असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी के लिए हौसला बढ़ाने वाली ख़बर है. हालांकि ओवैसी का मानना है कि उनकी पार्टी चौंकाने वाली रिजल्ट देने को तैयार है. पार्टी से जुड़े नेताओं का कहना है कि मजलिस 6 सीटों में से चार सीटों पर लड़ाई में है और सबको पटखनी देकर चुनाव जीत भी सकती है.
मांझी ने शुरू कर दी है भाजपा के ख़िलाफ़ बग़ावत!
By TwoCircles.net Staff Reporter
पटना:अभी बिहार विधानसभा चुनाव का पांचवा चरण ख़त्म भी नहीं हुआ है कि एनडीए गठबंधन में विरोध की चिंगारी शोला बनकर भड़क उठी है. इसके साथ ही साथ भाजपा व हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा (सेकुलर) के बीच तलवारें खींच गई हैं.

एक ख़बर के मुताबिक़ हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा (सेकुलर) के राष्ट्रीय अध्यक्ष जीतनराम मांझी ने भाजपा पर आरोप लगाया है कि भाजपा गठबंधन धर्म का पालन नहीं कर रही है, बल्कि साथ रहकर भी दगा कर रही है. जिससे हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा को ही नहीं, बल्कि पूरे एनडीए गठबंधन को ज़बरदस्त नुक़सान हो रहा है.
मांझी ने आरोप लगाया है कि भाजपा सांसद कीर्ति आज़ाद पार्टी के विरूद्ध कामों में शामिल हैं और उनकी पत्नी पूनम आज़ाद दरभंगा के देहाती इलाक़ों में आंचल फैलाकर राजद प्रत्याशी ललित कुमार यादव के हक़ में लोगों से वोट मांग रही हैं.
मांझी ने यह भी आरोप लगाया कि समाज के सबसे निचले पायदान और आख़िरी पंक्ति में शामिल महादलित तबके से ताल्लुक रखने की वज़ह से स्थानीय ब्राह्मण सांसद व भाजपा नेता उन्हें नज़रअंदाज़ कर रहे हैं.
जीतनराम मांझी ने इस संबंध में सीधे तौर पर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से शिकायत करने की धमकी भी दी है और कहा है कि एक तरफ़ भाजपा सत्ता पर कब्जे के लिए पूरी ताक़त झोंक रही है तो दूसरी तरफ़ पार्टी के बड़े नेता ही विरोधी ताक़तों से खुफ़िया समझौता करके उनकी मदद भी कर रहे हैं.
स्पष्ट रहे कि दरभंगा (ग्रामीण) से हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा (सेकुलर) के प्रत्याशी नौशाद अहमद एनडीए गठबंधन की ओर चुनाव लड़ रहे हैं. नौशाद अहमद बिहार सरकार अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री थे. जीतनराम मांझी इससे पूर्व भी वी.के. सिंह के बयान के बाद बीजेपी पर अपनी नाराज़गी व्यक्त कर चुके हैं. ज्ञात हो कि जीतनराम मांझी की भाजपा से बढ़ती नज़दीकी और उनके बागी तेवर को लेकर TwoCircles.net ने पहले ही आशंका ज़ाहिर की थी. (बिहार चुनाव: जीतनराम मांझी का भगवा चोला)
बिहार के श्रम संसाधन मंत्री दुलाल चन्द्र गोस्वामी की उम्र का तिलिस्म
अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
पटना:देश के नेता हमेशा ही अपनी राजनीतिक उम्र लंबी करने की दुआएं मांगते हैं. तमाम तिकड़में भिड़ाते हैं. जी-तोड़ मेहनत करते हैं. मगर अपनी असली उम्र का कोई हिसाब नहीं रखते.
नेताओं की उम्र के मसले मीडिया में हमेशा उठते रहे हैं, लेकिन यह ऐसा अनूठा मामला सामने आया है, जहां एक नेता जी उम्र पिछले चार सालों में अधिक बढ़ गई और वापिस घट गई. दिलचस्प बात यह है कि यह कहानी किसी ऐसे-वैसे नेता की नहीं है, बल्कि बिहार के श्रम संसाधन मंत्री की है. यह श्रम संसाधन मंत्री इन दिनों कटिहार के बारसोई-बलरामपुर के विधायक है. इन विधायक का नाम है –दुलाल चन्द्र गोस्वामी.
दुलाल चन्द्र गोस्वामी 2005 में भाजपा के उम्मीदवार के तौर पर चुनाव में कूदे थे, तब वो 37 साल के थे. चुनाव हार गए तो 2010 में उन्होंने निर्दलीय अपने क़िस्मत की आज़माईश की और कामयाब रहे. नीतीश कुमार की कैबिनेट में श्रम संसाधन मंत्री बने. तब उनकी 42 साल थी, लेकिन 2014 में मंत्री रहते हुए उन्होंने जो हलफ़नामा दिया उसमें उनकी 4 साल बढ़ने के बजाए 6 साल बढ़ गई. लेकिन इस बार जब वह जदयू के उम्मीदवार है, तो उन्होंने चुनाव आयोग को दिए खुद के हलफ़नामें में यह बताया है कि 2015 में उनकी उम्र सिर्फ़ 42 साल है. जबकि यही जानकारी उन्होंने चुनाव आयोग को 2010 विधानसभा चुनाव में भी दी थी. यानी पांच साल पहले भी वे 42 साल के ही थे. बीच में 6 साल बड़े हुए थे, लेकिन फिर वापस अपने पहली वाली उम्र पर ही आ गए.
दुलाल चन्द्र गोस्वामी की उम्र भले ही घट गई हो, लेकिन सम्पत्ति चुनाव के बाद बढ़ी हुई ज़रूर दिख रही है. 2005 चुनाव में दुलाल चन्द्र गोस्वामी के पास सम्पत्ति के नाम पर मात्र 2.63 लाख रूपये थे. 2010 चुनाव में वह 32.07 लाख के मालिक हो गए. लेकिन मंत्री बनने के बाद 2014 में उनकी सम्पत्ति में ज़बरदस्त उछाल आया. इनकी सम्पत्ति इतनी तेज़ी से बढ़ी जिसकी कल्पना भी मुश्किल है. यानी अब वो 1.04 करोड़ की मालिक बन चुके थे. जबकि 2015 में इनकी सम्पत्ति थोड़ी घटकर 96.14 लाख हो चुकी है.
कहानी यहीं ख़त्म नहीं होती. दुलाल चन्द्र गोस्वामी के डिग्री पर भी उनके विरोधी सवाल उठाते हैं. 2015 के हलफ़नामें ने उन्होंने बताया है कि उन्होंने आर.डी.एस. कॉलेज से 1989 में बी.ए. किया है. जबकि 2005 व 2010 में उन्होंने बताया था कि उन्होंने 1988 में बी.ए. किया है.
बिहार चुनाव : मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में उर्दू में वोटर-लिस्ट जारी
अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
सीमांचल: 5 नवम्बर को होने वाले पांचवे चरण के चुनाव के लिए चुनाव आयोग ने 18 विधानसभा सीटों पर उर्दू में वोटर-लिस्ट जारी कर दी है, इनमें ज़्यादातर सीमाचंल की विधानसभा सीटें हैं.

जम्मू-कश्मीर के बाद बिहार दूसरा ऐसा राज्य है, जहां पहली बार अंग्रेज़ी, हिन्दी के साथ-साथ उर्दू में वोटर-लिस्ट जारी किया जा रहा है. स्पष्ट रहे कि बिहार में 243 विधानसभा क्षेत्रों में 18 विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं, जहां उर्दू बोलने वालों की जनसंख्या कुल जनसंख्या के 20 फीसदी से अधिक है. इसी को ध्यान में रखते हुए चुनाव आयोग ने संबंधित निर्वाचन क्षेत्रों में उर्दू में भी वोटर-लिस्ट प्रकाशित करने का निर्देश दिया था.
आयोग ने पिछले दिनों भेजी गई मुख्य निर्वाचन विभाग की सूचना के आधार पर ही यह क़दम उठाया है. उसमें यह बताया गया था कि वर्ष 2001 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार 18 विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं, जहां उर्दू बोलने वालों की आबादी कुल जनसंख्या के 20 फीसदी अधिक है.
इन 18 ज़िलों में किशनगंज ज़िला का बहादुरगंज, ठाकुरगंज, किशनगंज, कोचाधामन विधानसभा क्षेत्र, अररिया ज़िला का रानीगंज, फारबिसगंज, अररिया, जोकीहाट, सिकटी विधानसभा क्षेत्र, पूर्णिया ज़िला का अमौर, वायसी, कसबा,पूर्णिया विधानसभा क्षेत्र और दरभंगा जिला का गौड़ा बौराम, अलीनगर, दरभंगा ग्रामीण, केवटी और जाले विधानसभा क्षेत्र शामिल है.
वोटिंग के दिन बूथ पर उर्दू भाषा में वोटर-लिस्ट की एक कॉपी उपलब्ध रहेगी. मतदाता बीएलओ से उर्दू भाषा में वोटर-लिस्ट या पर्ची मांग सकते हैं. लेकिन किसी विवाद की स्थिति में हिन्दी वाली वोटर-लिस्ट को ही प्रामाणिक माना जाएगा.
सुन लो मोदी! पटाखे हम फोड़ेंगे - ओवैसी
अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
किशनगंज:बिहार चुनाव के पांचवे व आख़िरी चरण के चरण के लिए प्रचार-अभियान ज़ोरों पर है. चार चरणों के लिए अलग-अलग जिलों में रैली व सभा करने के बाद अब एनडीए व महागठबंधन दोनों के नेताओं को सीमांचल की याद आ गई है. लेकिन उनको यह मालूम नहीं कि जब वे बिहार के बाकी ज़िलों में वोट मांग रहे थे, तब तक हैदराबाद के असदुद्दीन ओवैसी अपनी पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (मजलिस) के लिए ज़मीन तैयार कर चुके थे.

असदुद्दीन ओवैसी ने मीडिया के कैमरों से दूर रहते हुए पहले तो धीरे-धीरे सीमांचल के लोगों के बीच अपनी बनाने की कोशिश की. सीमांचल के विकास की बात की. मुसलमानों के शिक्षा के सहारे उत्थान की बात की, लेकिन अब जब सभी अपनी ताक़त झोंक रहे हैं, तब ओवैसी भी मैदान में कूद पड़े हैं. अपनी पुराने अंदाज़ पर फिर से लौटते हुए मोदी पर हमले तेज़ कर दिए हैं.
रविवार को असदुद्दीन ओवैसी ने किशनगंज में भाजपा के अमित शाह व मोदी पर हमला बोलते हुए कहा है, ‘अमित शाह कहता है कि कोचाधामन से अख़्तरूल ईमान की जीत होगी तो पाकिस्तान की कामयाबी होगी. ये क्या बक-बक कर रहा है? ये इलेक्शन बिहार का हो रहा है, पाकिस्तान का नहीं. और हमको पाकिस्तान से क्या लेना-देना? हमारे बुजुर्ग पाकिस्तान नहीं गए. हम हिन्दुस्तान में 1200 साल से रहते हैं और रहेंगे. हम पाकिस्तान नहीं जाएंगे. अमित शाह को पाकिस्तान से मुहब्बत है तो जा सकता है.’
ओवैसी अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं, ‘इंशाल्लाह! 8 तारीख़ को कोचाधामन का अख्तरूल ईमान भी जीतेगा और किशनगंज का तसीर उद्दीन भी कामयाब होगा. किशनगंज के लोग सबसे पहले दो रकअत नमाज़ पढ़ेंगे और फिर इतना पटाखें फोड़ेंगे कि उसकी आवाज़ तुम्हें दिल्ली व पटना में भी सुनाई देगी.’
ओवैसी के भाषण में निशाने पर मोदी भी रहें. मोदी पर निशाना साधते हुए ओवैसी ने कहा, ‘मोदी ये कह रहा है कि बिहार में दो दिवाली मनाएंगे. लेकिन सुन लो मोदी! किशनगंज के लोगों ने फैसला कर लिया है. यक़ीनन हमारी कामयाबी होगी. पटाखें हम फोड़ेंगे मोदी, धमाके की आवाज़ तुम्हें सुनाई देगी.’
हालांकि ओवैसी के निशाने पर कांग्रेस व नीतीश कुमार भी रहते हैं. ओवैसी इन दिनों अपने भाषण में दादरी की घटने का ज़िक्र करना नहीं भूलते. वो अख़लाक़ के बेटे व उनकी मां की बातों का भी ज़िक्र ज़रूर करते हैं. वो कहते हैं, ‘अख़लाक़ की मां ने कहा कि तुम मेरी मदद को आए, अल्लाह तुम्हारी मदद करेगा.’
ओवैसी मोदी सरकार को ललकारते हुए कहते हैं, ‘ये मुल्क में कैसी सरकार है. अख़लाक़ को मार दिया जाता है. हमारी बहन को क़ब्र से निकालकर मुंह काला करते हो. और मोदी चुप रहता है.’
ओवैसी आरएसएस पर भी चुटकी लेते हैं. वो कहते हैं कि आरएसएस को चिंता है कि मुसलमान बहुत बच्चा पैदा कर रहा है. आरएसएस को हमारी बढ़ती आबादी पर चिंता है. अरे तो तुम भी पैदा करो बच्चे. तुम्हें रोका किसने है? खुद तो शादी नहीं करते और बग़ैर शादी के बच्चे कहां से आएंगे?
स्पष्ट रहे कि ओवैसी पिछले एक महीने किशनगंज के चंचल पैलेस होटल में डेरा डाले हुए हैं. एक महीने पहले तक यहां ओवैसी को ज़्यादातर लोग जानते नहीं थे, लेकिन आज बच्चा-बच्चा ओवैसी से रूबरू है. मंगलवार यानी 03 नवम्बर को ओवैसी की बाईक रैली के बाद ओवैसी का प्रचार-अभियान थम जाएगा और ओवैसी हैदराबाद रवाना हो जाएंगे.
यहां यह भी बताते चलें कि ओवैसी की पार्टी मजलिस सीमांचल के 24 सीटों में से सिर्फ 6 सीटों पर चुनाव लड़ रही है. राजनीतिक जानकारों का मानना है कि 6 में से 4 सीटों पर ओवैसी के उम्मीदवार महागठबंधन के उम्मीदवारों को टक्कर दे रहे हैं. लड़ाई कांटे की होगी. लेकिन यहां पटाखें कौन फोड़ेगा, यह 8 नवम्बर को आने वाला रिजल्ट ही बेहतर बताएगा.
कोचाधामन - जहां ओवैसी को फायदा मिलेगा
By अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
कोचाधामन:बिहार राज्य का एक ऐसा विधानसभा क्षेत्र, जहां सबसे अधिक मुस्लिम वोटर्स हैं. यहां लगभग 75 फीसदी मुस्लिम वोटर्स हैं. इसके अलावा यहां दलित व आदिवासियों की भी खासी तादाद है. यह विधानसभा क्षेत्र कोचाधामन प्रखंड की सभी पंचायतों के साथ किशनगंज प्रखंड की छह पंचायतों को जोड़कर 2010 में अस्तित्व में आया.

दरअसल, सीमांचल के ज़िला किशनगंज का यह क्षेत्र किशनगंज के बदहाल इलाक़ों में से एक है. पक्की सड़कों के किनारे बसे कच्चे मकान इस इलाक़े के बदहाली के दास्तान सुनाने के लिए काफ़ी हैं. शायद यही वजह है कि जब किसी भी मुसलमान रहनुमा को नेता बनने की ख्वाहिश जगती है, तो वह यहीं का रूख़ करता है. यहां के लोगों को विकास के सपने दिखाता है, फिर सांसद बनकर दोबारा नज़र नहीं आता. यहां पूरा इतिहास ऐसी मिसालों से भरा पड़ा है.
शायद यही वजह है कि इसी बदहाली का फायदा उठाने की नीयत से हैदराबाद के अससुद्दीन ओवैसी ने भी यहीं का रूख किया. लेकिन लोगों को इन पर भरोसा इसलिए है कि बाकी नेताओं की तरह वे खुद चुनाव लड़ने नहीं आए हैं, बल्कि यहां के नेताओं के दम पर ही अपनी पार्टी को खड़ा करना चाहते हैं. जिसमें यहां के लोगों को कुछ ज़्यादा गड़बड़ नहीं दिखती.

इस इलाके के 50 वर्षीय अताउर रहमान कहते हैं, ‘हमने सारी पार्टियों को आजमाया है. बिहार के सारे नेताओं ने हमारी वोटों से सत्ता की मलाई खायी है और देश में बड़े नेता के तौर पर स्थापित हुए हैं, लेकिन हमारे लिए किया कुछ नहीं. ऐसे में कोई हैदराबाद से आकर हमारी बदहाली की बात कर रहा है, तो एक बार इसको आज़मा लेते हैं. और वैसे भी वोट हम अख़्तरूल ईमान को दे रहे हैं. वह तो यहीं का है.’
मो. नसीम का भी कहना है, ‘सीमांचल का शेर मतलब - अख़्तरूल ईमान. वही एक मात्र नेता है, जो हमारे मसलों पर विधानसभा में गरजता है. सूर्य नमस्कार का विरोध करने की ताक़त सिर्फ अख्तरूल ईमान में ही है. और यदि विकास की बात करें तो उन्होंने काम भी खूब किया है.’
अफ़ज़ल व खुर्शीद मजलिस के असदुद्दीन ओवैसी से प्रभावित नज़र आते हैं. उनका कहना है कि भारत में मुस्लिमों के नेता तो ओवैसी ही हैं. वही हमारे मसलों पर खुलकर बोलते हैं. बाकी सब तो अपने पार्टी की दलाली करते हैं. उनका यह भी कहना है कि ओवैसी की तरह अख़्तरूल ईमान भी बिहार का शेर है. मुसलमानों के मसलों को बिहार विधानसभा में उससे अधिक किसी ने नहीं उठाया. उन्हें तो सांसद बनने का भी मौक़ा मिला, लेकिन उन्होंने कुर्बानी की जो मिसाल पेश की, वो शायद ही भारत की राजनीति में देखने को मिले.

अख़्तरूल ईमान की कुर्बानी के बारे में बताते चलें कि पिछले दो कार्यकालों से ईमान राजद के टिकट से विधायक थे. लेकिन 2014 लोकसभा चुनाव में वह राजद को अलविदा कहकर जदयू में शामिल हो गए. जदयू ने उन्हें लोकसभा प्रत्याशी बनाया, लेकिन आख़िरी समय में नामांकन के बाद अख़्तरूल ईमान ने चुनाव लड़ने से इंकार कर दिया. अख़्तरूल ईमान का मानना था तो उनके चुनाव लड़ने से कांग्रेस का वोट बंट जाएगा, जिसका डायरेक्ट फायदा भाजपा को मिलेगा. ऐसा वह हरगिज़ नहीं चाहते. हालांकि इस क़दम को कई लोगों ने गलत तौर पर भी देखा तो ज़्यादातर आवाम ने इसे अब तक का सबसे बड़ी क़ुर्बानी माना.
स्पष्ट रहे कि 2014 लोकसभा चुनाव के समय इस्तीफ़ा के बाद यह सीट खाली हो गयी. तब ऐसे यहां से जदयू के प्रत्याशी मास्टर मुजाहिद आलम की जीत हुई. कांग्रेस प्रत्याशी सादिक़ समदानी 10,238 वोटों से चुनाव हार गए. मुजाहिद को 41288 वोट हासिल हुए, जबकि सादिक़ समदानी को 31,050 वोट मिल पाए थे. वहीं भाजपा प्रत्याशी अब्दुर्रहमान 28924 वोट हासिल कर तीसरे स्थान पर नज़र आए.
स्थानीय लोगों का कहना है कि मास्टर मुजाहिद ने जीत के बाद विकास के कई काम किए. उनका वही काम अख्तरूल ईमान के 9 सालों के काम पर भारी पड़ रहा है. स्कूल भवनों का निर्माण, कुछ सड़कों और पुल-पुलियों का निर्माण हुआ और विद्युतीकरण कार्य ने गति पकड़ी. कुछ गांव प्रखंड मुख्यालय से जुड़े और पावर ग्रिड की स्थापना का कार्य निर्माणाधीन है.
ऐसे में मुजाहिद के समर्थकों की भी यहां अच्छी-खासी तादाद है. 22 साल के मो. सद्दाम कहते हैं, ‘नीतीश कुमार ने बिहार में विकास किया है, तो मुजाहिद ने कोचाधामन में विकास किया है. 15 महीनों में कोई क्या कर सकता है, फिर भी विकास के काम काफी हुए हैं. ऐसे में यहां के लोगों को फिर से उन्हें ही मौक़ा देना चाहिए.’
नसीम अख़्तर का मानना है कि इस बार तो लड़ाई एनडीए और महागठबंधन में ही है. इसलिए हम लोगों को नीतीश कुमार को ही मज़बूत करने के बारे में सोचना चाहिए. वो बताते हैं, ‘लालू भले ही गैर क़ौम के हैं, पर हमारी बात तो करते हैं. और नीतीश कुमार सबको लेकर चलते हैं. ऐसे में यहां ओवैसी का दाल नहीं गलने वाली.’
लेकिन यहां ऐसे लोगों की संख्या भी काफी अधिक है जो मानते हैं कि इस बार ओवैसी को मौक़ा देना चाहिए. उनका यह भी तर्क है कि अख्तरूल ईमान जीत के बाद अपना समर्थन तो महागठबंधन को ही करेंगे. और अख़्तरूल ईमान ने भी यहां काफी काम किया है. इस बार भी उन्हें मौक़ा ज़रूर मिलना चाहिए.
अख़्तरूल ईमान का पलड़ा यहां इसलिए भी भारी नज़र आ रहा है, क्योंकि 2014 उपचुनाव में 31 हज़ार वोट लाने वाले कांग्रेस के सादिक़ समदानी अब अपनी पूरी टीम के साथ अख़्तरूल ईमान के लिए मेहनत कर रहे हैं.

दरअसल, हैदराबाद के बैरिस्टर असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस इत्तेहादुल मुस्लिमीन का बिहार में आने का श्रेय भी अख्तरुल ईमान को ही जाता है. ओवैसी ने अख्तरुल ईमान को बिहार में पार्टी का अध्यक्ष घोषित किया है. बिहार में मजलिस का भविष्य काफी हद तक अख्तरूल ईमान के जीत पर टिका हुआ है. शायद वही वजह है कि असदुद्दीन ओवैसी भी पिछले एक महीने से यहीं अधिक मेहनत करते नज़र आए.
ऐसे में कहना उचित होगा कि यहां जदयू व मजलिस में आरपार की लड़ाई है. लेकिन इस बीच स्थानीय लोगों का यह भी मानना है कि कहीं इन दो दोस्तों की लड़ाई में भाजपा का अब्दुर्रहमान बाज़ी न मार ले, क्योंकि 2014 के उपचुनाव में भाजपा यहां तकरीबन 28 हज़ार से अधिक वोट लाने में कामयाब रही थी.
यहां मतदान 5 नवम्बर को होना है. 2010 विधानसभा चुनाव में यहां मतदान का प्रतिशत 58.34 रहा था. इस बार इसमें और इज़ाफ़ा होने की संभावना दिख रही है.

बलरामपुर : ओवैसी और नीतीश की सीधी टक्कर की जगह
अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
बलरामपुर : बिहार-बंगाल की सीमा पर स्थित बलरामपुर विधानसभा क्षेत्र सीमांचल के कटिहार जिले का एक बदहाल इलाक़ा है. आज भी यहां गांव में बसने वाले लोग मीडिया व देश-दुनिया की ख़बरों से काफी दूर हैं. उनकी अपनी एक अलग दुनिया है. उनके इस दुनिया से दूर होने का अंदाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि गांव में बसने वाले अधिकतर लोगों को पता नहीं कि असदुद्दीन ओवैसी कौन हैं? लेकिन हां! यहां के युवा सानिया मिर्जा को ज़रूर जानते हैं, क्योंकि वे भोजपुरी गानों में सानिया मिर्ज़ा का नाम खूब सुनते हैं.
यहां रहमानपुर स्थित खानकाह सिर्फ़ इस क्षेत्र की ही नहीं, बल्कि राज्य की पहचान है. यहां सालाना आयोजित उर्स में बाहर से भी बड़ी संख्या में लोग आते हैं. तो वहीं गोरखनाथ मंदिर भी क्षेत्र की विशेष पहचान रखता है. पहले इस विधानसभा क्षेत्र का नाम बारसोई था, लेकिन 2010 के परिसीमन में इसे बदलकर बलरामपुर कर दिया गया.
कहने को तो यह मुस्लिम बहुल इलाक़ा है, जहां लगभग 66 फिसदी मतदाता मुसलमान हैं. दलित भी यहां तक़रीबन 10 फीसदी हैं. उसके बावजूद यहां भाजपा कई बार जीत चुकी है.
इस बार यहां लड़ाई त्रिकोणीय नज़र आ रही है. यूं तो यहां 17 प्रत्याशी मैदान में हैं. लेकिन स्थानीय लोगों की मानें तो लड़ाई सिर्फ नेताओं के बीच ही है. सीपीआई (एमएल) (एल) के महबूब आलम, ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (मजलिस) के मो. आदिल हसन आज़ाद और जदयू से बिहार के श्रम संसाधन मंत्री दुलालचन्द्र गोस्वामी के बीच कांटे की लड़ाई फंसी हुई है.
बारसोई में पान की दुकान चलाने वाले नुरूल इस्लाम बताते हैं, ‘इस बार लड़ाई तीन लोगों में है. लोगों में कंफ्यूज़न है कि कौन जीत रहा है. बस चुनाव के पहले वाली रात जिसकी हवा उड़ जाए, वह जीत जाएगा.’
लेकिन इमदाद अहमद का कहना है, ‘लड़ाई तो आदिल और महबूब में ही है. सांप्रदायिक आदमी सेकुलरिज़्म का अंगोछा डाल ले तो सेकुलर थोड़े ही न हो जाएगा. अब हमलोग सब समझ गए हैं. दुलालचन्द्र अब लड़ाई से बाहर हैं.’
स्थानीय लोग बताते हैं कि दुलालचन्द्र गोस्वामी की पॉलिटिक्स बाबरी मस्जिद के साथ जुड़ी हुई है. तब उन्होंने बाबरी मस्जिद गिराने पर फ़क्र करते हुए उसकी ईंट दिखाकर लोगों से वोट की मांग की थी और कामयाब हुए थे. गोस्वामी ने 1995 में भाजपा के उम्मीदवार के रूप में जीत हासिल की और दिलचस्प बात यह है कि वह मुसलमानों के वोट से ही जीते. उसके बाद लोगों को उनकी असलियत का पता चला तो वह कामयाब नहीं हुए, लेकिन फिर 2010 में निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर गोस्वामी ने जीत दर्ज की और बिहार के श्रम संसाधन मंत्री बने.
पेशे से किसान ज़मीरूद्दीन का कहना है, ‘यहां लड़ाई महागठबंधन और वामदल के बीच ही है. ओवैसी के भाषण का यहां कोई खास असर होने वाला नहीं है. उनकी बातें हिन्दुस्तान को बांटने वाली हैं. इस बार हमारी मजबूरी है कि हमें नीतीश को किसी भी हाल में बचाना है.'
फरीद का मानना है, ‘यहां से दुलालचंद गोस्वामी और महबूब दोनों लोग विधायक रह चुके हैं, लेकिन इलाक़े के लिए कुछ भी नहीं किया. ऐसे में इस बार यहां ‘जय मीम-जय भीम’ और ‘बदलेगा बलरामपुर-बढ़ेगा बलरामपुर’ का नारा कामयाब रहेगा.’ दरअसल, ‘जय मीम-जय भीम’ का नारा असदुद्दीन ओवैसी ने चंद महीनों पहले महाराष्ट्र में दिया था, तो ‘बदलेगा बलरामपुर-बढ़ेगा बलरामपुर’ का नारा उनके प्रत्याशी आदिल हसन का है.
सीपीआई (एमएल)(एल) के महबूब आलम साल 2000 में यहां से विधायक रह चुके हैं. स्थानीय लोगों का आरोप है कि उन्होंने भी इलाक़े की बदहाली दूर करने के लिए कुछ खास काम नहीं किया, बल्कि लोगों की समस्याओं में इज़ाफ़ा ही किया. यहां एक ऐसा तबक़ा भी है, जो इन्हें हराने के लिए वोट करता है. उनके आपराधिक रिकार्ड की भी यहां खूब चर्चा रहती है. इस बार खुद उन्होंने अपने हलफ़नामें में बताया है कि उनके उपर 13 मामले दर्ज हैं और ज़्यादातर हत्या जैसे गंभीर मामले हैं.
मो. आदिल हसन आज़ाद की पॉलिटिकल करियर की शुरूआत रामविलास पासवान की पार्टी लोजपा से हुई. लोजपा के टिकट से पिछली बार चुनाव भी लड़े. लेकिन इस बार वह ओवैसी के साथ हैं. लोगों का मानना है कि आज़ाद सीमांचल के सबसे युवा उम्मीदवार हैं. उनके पिता ने बलरामपुर, खासतौर पर अपने गांव अझरैल, के लिए काफी कुछ किया है. वैसे पेशे से आदिल वकील हैं.
40 साल के मो. उस्मान का कहना है कि इस बार आदिल को मौक़ा देना चाहिए. वह युवा है. काम करने का जज़्बा है. बाकी दोनों उम्मीदवारों की छवि के मुक़ाबले उसकी छवि काफी बेहतर है. लोग वोट उसे ही करेंगे.
हालांकि यहां के लोग राजनीतिक रूप से परिपक्व हो चुके हैं. ज़्यादातर लोगों ने बातचीत में अपनी जागरूकता का परिचय दिया और किसे वोट करेंगे, इसका खुलासा करने से हर समय बचते रहें.
यदि आंकड़ों की बात करें तो स्पष्ट रहे कि यहां 2010 विधानसभा चुनाव में दुलालचंद गोस्वामी ने निर्दलीय चुनाव लड़कर सीपीआई (एलएल) के महबूब आलम को 2704 वोटों से मात दी थी.लेकिन इस बार यहां कौन किसे मात देगा, यह बात अभी तक स्पष्ट नहीं है. पिछले विधानसभा में यहां मतदान का प्रतिशत 63.27 रहा था. इस बार इसमें और इज़ाफ़ा होने की संभावना नज़र आ रही है.

बिहार में भाजपा के साम्प्रदायिक विज्ञापन
अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
बिहार की राजनीति अब काफी दूर पहुंच गई है. अब चर्चा ‘चाय’ व ‘बिहारिस्तान’ पर नहीं, बल्कि ‘गाय’ से चल कर ‘पाकिस्तान’ पहुंच चुकी है और अब फिर वापस ‘गाय’ पर लौट गई है. यह भी कितना अजीब है कि जो पार्टी अब तक विकास के नाम पर वोट मांग रही थी, अब वही पार्टी अपने इस मुद्दे से भटकते हुए गाय, आरक्षण, आतंकवाद और अब पाकिस्तान पहुंच गई है.
शायद भाजपा को यह समझ में आ गया है कि बिहार की जनता उनके विकास के मुद्दे को गंभीरता से नहीं ले रही थी, बल्कि लोग कालाधन की तरह इसे भी महज़ ‘चुनावी जुमला’ समझ रहे हैं. ख़ास तौर पर बिहार के पिछड़े-दलित वोटर तो इनको बिल्कुल भी सीरियसली नहीं ले रहे हैं.
ऐसे में अब आख़िरी बचे एक चरण में इस पार्टी के पास एक ही मुद्दा बच गया है कि किसी तरह से हिन्दू व दलितों को लामबंद किया जाए और उनका वोट किसी भी तरह से हासिल करके सत्ता की फ़सल काटने की कोशिश की जाए. क्योंकि अगले इस आख़िरी चरण में जहां मतदान होने हैं, वहां अधिकतर विधानसभा सीटों पर दलितों-पिछड़ों और मुसलमानों की ही जनसंख्या अधिक है, बल्कि अधिकांश सीट मुस्लिम बहुल हैं. इस पार्टी को यह पता है कि मुसलमान उनके हाथ बेहद मुश्किल से आएगा. ऐसे में बस एक ही चारा बचता है कि किसी भी तरह से दलितों-पिछड़ों को अपने साथ किया जाए. और इनको साथ लाने का बस यही मुद्दा बचता है - आरक्षण, आतंकवाद, पाकिस्तान और गाय.
बस फिर क्या था. आनन-फानन में आरक्षण के मसले पर सारे अख़बारों को विज्ञापन दे दिए गए. विज्ञापन के ज़रिए बिहार के दलितों-पिछड़ों को यह बताने की कोशिश की गई कि लालू-नीतिश दलितों-पिछड़ों की थाली खींचकर अल्पसंख्यकों को आरक्षण परोसने का षड़यंत्र कर रहे हैं. विज्ञापन में नीतीश कुमार के सामने यह भी सवाल खड़ा किया गया कि ‘मुख्यमंत्री जी, ज़रा बताइये. दलितों-पिछड़ों का हक़ काटकर, अल्पसंख्यकों को बांटने का कपट कब तक करते रहेंगे?’
लेकिन आरक्षण का यह मुद्दा ज़मीन पर असर करता नहीं दिखा तो अगले दिन आतंकवाद को एक ख़ास मज़हब के साथ जोड़ते हुए विज्ञापन के ज़रिए कहा गया कि लालू-नीतीश वोटों के खेती के लिए आतंक की फ़सल सींच रहे हैं. इस विज्ञापन में यह भी सवाल खड़ा किया गया - ‘मुख्यमंत्री जी, ज़रा बताइये... कब तक समाज विशेष के वोटों की ख़ातिर देश की सुरक्षा से समझौता करते रहेंगे?’

और अब ताज़ा विज्ञापन में भाजपा ने फिर से गौमाता का सहारा लिया है. संभवतः उनको पता है कि बस गौमाता ही अब बिहार चुनाव में हमारी डूबती नैय्या को पार लगा सकती हैं. विज्ञापन में मतदाताओं को यह बताने की कोशिश की गई है कि मुख्यमंत्री के साथी हर भारतीय की पूज्य गाय का अपमान बार-बार करते रहे और आप चुप रहे! साथ ही यह सवाल खड़ा किया गया - 'वोट बैंक की राजनीति बंद कीजिए और जवाब दीजिए, क्या आप अपने साथियों के इन बयानों से सहमत हैं?’
भाजपा सिर्फ़ इस बयान तक ही महदूद नहीं रही. पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने दो क़दम और आगे बढ़ते हुए यह भी कह डाला कि अगर गलती से भाजपा हारती तो शहाबुद्दीन जैसे लोग खुश होंगे. और जीत की खुशी में पटाखें पाकिस्तान में चलेंगे. सिर्फ़ अमित शाह ही नहीं, बल्कि सुशील कुमार मोदी भी खुलकर आरक्षण, आतंकवाद और पाकिस्तान वाले मुद्दे पर अमित शाह का समर्थन करते हुए अपने बयान में नीतीश कुमार को कोस रहे हैं. हद तो यह है कि सुशील मोदी बयान देते हुए यह भी भूल जा रहे हैं कि वो भी लगभग 8 साल बिहार के उप-मुख्यमंत्री और वित्त मंत्री रहे हैं. कई अहम मंत्रालय उनके पार्टी के नेताओं के हाथ में रहे हैं.
शायद बयान या विज्ञापन देते समय भाजपा के नेता या फिर बक्सर में प्रधानमंत्री मोदी धार्मिक आधार पर आरक्षण दिए जाने का विरोध करते समय या कहते समय कि भाजपा की सरकारों ने आरक्षण नीति में कभी बदलाव का प्रयास नहीं किया, यह भूल गए कि खुद गुजरात में अपने शासनकाल में दलितों-पिछड़ों का हक़ काटकर मुसलमानों व ईसाईयों को इस आरक्षण का लाभ दिया था.

यह भी याद दिलाना चाहिए कि राजनाथ सिंह ने 2001 में उत्तर प्रदेश की तत्कालीन भाजपा सरकार में बतौर मुख्यमंत्री मौजूदा आरक्षण नीति में बदलाव का प्रयास किया था. सुप्रीम कोर्ट ने राजनाथ सरकार की कोशिशों पर पानी फेर उनके प्रस्ताव को रद्द कर दिया था. आज भी राजनाथ सिंह की निजी वेबसाइट पर ये मामला एक उपलब्धि के रूप में दर्ज है. और शायद देश के मौजूदा हुक्मरान यह भूल रहे हैं कि उनकी सरकार में गौ-मांस का निर्यात पहले के मुक़ाबले काफी तेज़ी के साथ बढ़ा है.
सबसे बड़ा सवाल तो इस देश के आम नागरिकों व अख़बार के सम्पादकों से पूछना चाहिए कि क्या विज्ञापन देकर दो धर्मों के बीच दीवार खड़ी की जा सकती है? अगर ऐसा है तो इसमें अख़बार के सम्पादकों की क्या भूमिका है? क्या उनके पास कोई सम्पादकीय अधिकार इस बात को लेकर नहीं है कि अख़बार में क्या विज्ञापन छपना चाहिए और क्या नहीं? भाजपा तो राजनीतिक पार्टी है, वह तो हर हाल में राजनीति करेगी, भले ही वह लोगों को धर्म के आधार पर बांटना ही क्यों न हो. लेकिन यह सवाल उन सम्पादकों से क्यों नहीं किया जाना चाहिए, जिन्होंने यह विज्ञापन जाने दिया? जबकि पहले ही झलक में यह विज्ञापन साफ़ तौर पर आरक्षण के नाम पर दो समुदाय के लोगों को बांटने वाला है. धर्म के आधार पर एक दूसरे के ख़िलाफ़ करने वाला है. तो सवाल है कि क्या अख़बार में कुछ भी विज्ञापन के रूप में छपवाया जा सकता है? क्या देश के सम्पादकों ने भी नेताओं की तरह धर्म के नाम पर लोगों को बांटने की क़सम खा ली है. अगर ऐसा नहीं है तो फिर हर सम्पादक को इस बात पर ज़रूर सोचना चाहिए कि ये विज्ञापन कैसे छप गया, वह भी उस दिन जब बिहार के 6 ज़िले के लोग मतदान कर रहे थे.
सवाल आम नागरिकों से भी है कि क्या एक राष्ट्र के रूप में हमारी समझदारी ख़त्म हो चुकी है? क्या हमें कोई भी पार्टी बरगला सकती है? कोई भी जब चाहे विज्ञापन देकर लोगों को आपस में लड़वा सकता है? इतिहास में ऐसा उदाहरण शायद ही मिले कि जब राजनीतिक लाभ के लिए खुलेआम इतना नीचे आकर लोगों को बांटा जा रहा था.
तो क्या गठबंधनों के लिए निर्णायक है आज का मतदान?
अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
सीमांचल:पिछले 33 दिनों से चल रही चुनावी जंग आज शाम पांच बजे थम जाएगी. 9 ज़िलों के 57 सीटों के लिए उम्मीदवारों के भविष्य भी ईवीएम क़ैद हो चुके होंगे. इनके भविष्य का फैसला 8 नवम्बर को होगा.
आज ख़त्म हो रहा बिहार विधानसभा चुनाव का पांचवा व आख़िरी चरण कई मायनों में महत्वपूर्ण है. राजनीतिक जानकार बताते हैं कि जो इस चरण में आगे निकल गया, समझो वह बहुत आगे निकल गया. शायद तब उसे गद्दी पर बैठने से कोई नहीं रोक पाएगा. यानी आज का मतदान बिहार की राजनीति की दिशा तय करने वाला है.

जानकार यह भी मानकर चल रहे हैं कि यह चरण महागठबंधन के पक्ष में अधिक रहेगा, क्योंकि जिन सीटों पर आज मतदान हो रहा है, वहां मुस्लिम वोटरों की संख्या काफी अधिक है. आंकड़े बताते हैं कि आज की 57 सीटों में 27 सीटें ऐसी हैं, जहां मुसलमान मतदाता 25 फीसदी से भी अधिक हैं. और इन 27 सीटों में से 13 सीटें ऐसी हैं, जहां मुस्लिम वोटरों की तादाद 40 फीसद से ऊपर है.
लेकिन इन सबके बावजूद 2010 विधानसभा चुनाव के आंकड़े बताते हैं कि उस समय भाजपा ने इन 57 सीटों में से 23 सीटों पर अपना क़ब्ज़ा जमाया था. जदयू को 20 सीटें हासिल हुई थी (हालांकि फिलहाल जदयू के कब्जे में 25 सीटें हैं, क्योंकि राजनीतिक उठापटक में कई विधायक जदयू में शामिल हुए थे). जबकि राजद 8 और कांग्रेस 3 सीटों पर ही कामयाब हो सकी थी. तो वहीं लोजपा व एक निर्दलीय उम्मीदवार की झोली में एक-एक सीट गई थी.

आंकड़े यह भी बताते हैं कि राजद को भले ही 8 सीटों पर जीत हासिल हुई हो, लेकिन वह 20 सीटों पर दूसरे स्थान पर थी और जदयू-भाजपा को टक्कर दे रहा थी. ज़्यादातर सीटों पर हार का अंतर भी काफी कम ही रहा था. 8 सीटों पर जदयू तो 8 सीटों पर कांग्रेस भी दूसरे स्थान पर रही थी. वहीं लोजपा 10 सीटों पर भाजपा-जदयू को टक्कर दे रही थी. एनसीपी भी 4 सीटों पर दूसरे स्थान पर नज़र आई.
एक तथ्य यह भी ध्यान में रखना ज़रूरी होगा कि तब जदयू व भाजपा एक साथ थे. तो राजद व लोजपा में भी गहरी दोस्ती थी. कांग्रेस अकेले के दम पर चुनाव लड़ रही थी. लेकिन अब समीकरण अलग है. जदयू, राजद व कांग्रेस जहां एक साथ हैं, तो वहीं लोजपा अब भाजपा के साथ है.
इतिहास की बात छोड़कर अब वर्तमान पर आते हैं. इस चरण में महागठबंधन की ओर से जदयू ने 25, राजद ने 20 और कांग्रेस ने 12 उम्मीदवार मैदान में उतारे हैं, जबकि एनडीए की ओर से भाजपा ने 38, लोजपा ने 11, रालोसपा ने पांच और हम ने 3 प्रत्याशी खड़े किये हैं. वहीं इस क्षेत्र में पहली बार असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन और पप्पू यादव की पार्टी जन अधिकार लोकतांत्रिक भी पहली बार अपनी क़िस्मत की आज़माईश कर रही है. ओवैसी ने जहां सिर्फ 6 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे हैं तो वहीं पप्पू यादव के 46 प्रत्याशी मैदान में हैं. इस बार यहां एनसीपी भी महागठबंधन से अलग होकर 12 विधानसभा क्षेत्रों में चुनाव लड़ रही है. ऐसे में देखना दिलचस्प होगा कि ये तीनों किसका फायदा कराते हैं, और किसको नुक़सान पहुंचाते हैं.
सीमांचल में ओवैसी की पार्टी एमआईएम रणनीतिक रूप से सिर्फ 6 सीटों पर उतरी है तो यह भी सम्भव है कि उसे लाभ मिले. मुस्लिम मतदाताओं के वोट महागठबंधन और एमआईएम के बीच बंट जाने के आसार हैं. इस इलाके के सेकुलर विचारक लोगों को नीतीश कुमार के विकास कार्यों का हवाला देते हुए उन्हें 'जांचे-परखे'प्रत्याशी को वोट देने के लिए कह रहे हैं. करीब हफ्ते भर से अखबारों में आ रहे भाजपा के साम्प्रदायिक विज्ञापनों ने ध्रुवीकरण को जितना अंजाम दिया, उससे ज्यादा अपने खिलाफ़ माहौल तैयार कर दिया है. भाजपा के विकास कार्यों का हवाला देने वाले लोग अब यह कह रहे हैं कि भाजपा को यह दांव खेलना ही था तो वह विकास की बातें क्यों की जा रही हैं? ऐसे में यह देखना रोचक होगा कि मतदाता किस ओर जाते हैं?
प्रधानमंत्री! आज आपकी पार्टी कौन सा चेहरा दिखाएगी?
By अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net,
कलकत्ता के एक प्रसिद्ध अंग्रेज़ी अख़बार ‘टेलीग्राफ़’ ने आज अपने पहले पन्ने पर पहली ख़बर के ज़रिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से पूछा है कि –‘प्रधानमंत्री, आज आपकी पार्टी कौन सा चेहरा दिखाएगी?’
इस ख़बर में बीजेपी के बुरे व अच्छे दोनों चेहरों को दिखाया गया है. शाहरूख़ खान के मसले पर बीजेपी नेताओं के आए बयानों के आधार पर बीजेपी की रणनीति भी दिखाई गई कि कैसे पार्टी के नेता पहले भड़काउ बयान देते हैं, फिर दूसरे नेता आकर उसे नीजि बयान बताकर उसकी निन्दा कर देते हैं. लेकिन तब तक वो ‘भड़काउ’ बयान अपना काम कर चुका होता है. जो लाभ उनको चाहिए वो उन्हें मिल चुका होता है.

इस ख़बर को राजनीति के जानकार बिहार चुनाव से भी जोड़कर देख रहे हैं. साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए एक के बाद एक आए विज्ञापन से भी इसे जोड़ कर देखा जा रहा है कि कैसे बीजेपी पहले ‘विकासवाद’ को चुनावी मुद्दा बताती है, लेकिन जब बिहार की जनता इनके इस मुद्दे को महज़ ‘चुनावी जुमला’ समझकर सिरियसली नहीं लेती है तो यह विकास का यह मुद्दा गायब हो जाता है. सारी पॉलिटिक्स ‘गौ-माता’ के इर्द-गिर्द घूमने लगती है. लेकिन जब इससे काम नहीं बनता तो आखिरी बचे चरणों में इस पार्टी के पास एक ही मुद्दा बच जाता है कि कैसे हिन्दू व दलितों को लामबंद किया जाए और उनका वोट किसी भी तरह से हासिल करके सत्ता की फ़सल काटने की कोशिश की जाए.
क्योंकि अब इस आख़िरी चरण में जहां मतदान होने थे, वहां अधिकतर विधानसभा सीटों पर दलितों-पिछड़ों और मुसलमानों की ही जनसंख्या अधिक थी, बल्कि अधिकांश सीट मुस्लिम बहुल थे. इस पार्टी को यह पता है कि मुसलमान तो किसी तरह से उनके साथ आएगा नहीं. ऐसे में किसी भी तरह से दलितों-पिछड़ों को अपने साथ करना ही अधिक लाभदायक होगा.
फिर बीजेपी आतंकवाद को मुद्दा बनाती है. पर जब इसे भी सिरियसली नहीं लिया जाता है तो पॉलिटिक्स में ‘पाकिस्तान’ आ जाता है. लेकिन इन सबसे जब कोई खास लाभ नहीं दिखता तो सबसे आखिर में फिर से ‘गौ-माता’ का ही सहारा लेना मुनासिब समझा जाता है.
ऐसे में किसी अख़बार के पहले पन्ने पर पहली खबर के रूप में प्रधानमंत्री से इस तरह का सवाल कई तरह के सवालों को जन्म देता है. साथ ही इस बात का भी आशंका व्यक्त करता है कि कैसे बीजेपी सत्ता के लिए कुछ भी कर सकती है.
आज ख़त्म हो रहा बिहार विधानसभा चुनाव का पांचवा व आख़िरी चरण कई मायनों में महत्वपूर्ण है. राजनीति के जानकार बताते हैं कि जो इस चरण में जो आगे निकल गया, समझो वो बहुत आगे निकल गया. शायद तब उसे गद्दी पर बैठने से कोई नहीं रोक पाएगा. यानी आज का मतदान बिहार की राजनीति की दिशा तय करने वाला है.
इस बीच आज के आखिरी चरण का मतदान अपने आखिरी पायदान पर है. बिहार के लोगों में मतदान को लेकर ज़बरदस्त उत्साह है. खास तौर पर महिलाएं काफी संख्या में घर से निकल कर मतदान कर रही हैं. चुनाव आयोग के आंकड़ें बताते हैं कि दोपहर 12 बजे तक 32 फीसदी मतदान हो चुका है.