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पहला कैप्टन अब्बास अली स्मृति व्याख्यान आज

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By TCN News,

नई दिल्ली: देश के जाने माने इतिहासकार और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के पद्मभूषित प्रोफेसर इरफान हबीब 7 मार्च शनिवार, यानी आज सुबह 11 बजे दिल्ली के इंडिया इस्लामिक कल्चर सेंटर में पहला कैप्टन अब्बास अली स्मृति व्याख्यान देंगे. उनके व्याख्यान का विषय होगा ‘इंडियन नेशनल आर्मी अथवा आज़ाद हिंद फौज की विरासत’.

आज़ाद हिंद फौज का गठन द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान 1942 में सिंगापुर और मलाया अब मलेशिया में जनरल मोहन सिंह औऱ नेताजी सुभाष चंद्र बोस द्वारा किया गया था. इस फौज में अविभाजित भारत के 60 हज़ार नागरिक शामिल थे, जिनमें 45 हज़ार वे भारतीय सैनिक थे जो पहले ब्रिटिश फौज का हिस्सा थे और 1942 में आत्मसमर्पण करने के बाद जापानियों द्वारा युद्धबंदी बना लिए गए थे. बाद में यही सैनिक जापानियों द्वारा हथियार डालने के बाद ब्रिटिश फौज द्वारा युद्धबंदी बना लिए गए. आज़ाद हिंद फौज के इन सेनानियों पर ब्रिटिश हुकूमत ने सैनिक अदालतों में मक़द्दमे चलाए, उनका कोर्ट मार्शल किया गया औऱ सज़ा-ए-मौत सुनाई गईं.

Veteran INA member Capt. Abbas Ali passes away
Veteran INA member late Capt. Abbas Ali

ऐसे ही 45 हज़ार सैनिकों में कैप्टन अब्बास अली अकेले अभागे थे जिन्हें मुल्तान के क़िले में रखा गया और कोर्ट मार्शल के बाद सज़ा-ए-मौत सुनायी गयी. लेकिन उसी समय देश आज़ाद हो जाने के कारण वह सज़ा से बच गए. मगर तकलीफदेह बात यह है कि देश की आज़ादी के लिए लड़ने वाले इन मुजाहिदों को देश आज़ाद हो जाने के बाद भारतीय सेना में वापस नहीं लिया गया.

यहां यह भी उल्लेखनीय है कि आज़ाद भारत के पहले भारतीय सेनाध्यक्ष जनरल करियप्पा ने यह कहकर इन सैनिकों को भारतीय सेना में वापस लेने से इंकार कर दिया था कि ये अनुशासित सिपाही नहीं हैं और अपनी फौज के ख़िलाफ बग़ावत कर चुके हैं. जबकि करियप्पा समेत उस समय के बहुत से जनरल ब्रिटिश हुकूमत के वफादार रहे थे.

दूसरी तकलीफदेह बात यह है की देश आज़ाद हो जाने हो जाने के लगभग तीस साल बाद तक इन सेनानियों को स्वतंत्रता सेनानी नहीं माना गया. 1975 में विपक्षी दलों के भारी दबाव के कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बमुश्किल आज़ाद हिंद फौज के इन सेनानियों को स्वतंत्रता सेनानी माना, उस समय तक आईएनए के 45 हज़ार सैनिकों में से अधिकतर की मौत हो चुकी थी.

बाद में कैप्टन अब्बास अली ने समाजवादी आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई और पचास से अधिक बार सिविल नाफ़रमानी करते हुए समाजवादी आंदोलनों में जेल गए और आपातकाल के दौरान 1975-77 में उन्नीस माह तक बुलंदशहर, बरेली और नैनी-इलाहबाद जेल मैं बंद रहे. पिछले वर्ष यानी 2014 में 11 अक्टूबर को 94 वर्ष की उम्र में अलीगढ में उनका निधन हो गया था.


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