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'ओसामा अभी मरा नहीं, सम्भल में ज़िन्दा है'

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By अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

सम्भल:पहली नज़र में यह साफ़ सुथरा और तालीम की ओर बढ़ता शहर दिखता है. सम्भल के दीपासराय को देख किसी पॉश कॉलोनी का बोध होता है. यहां पतली ही सही मगर साफ़-सुथरी पक्की सड़कें हैं, जो आमतौर पर अन्य मुस्लिम इलाक़ों में नज़र नहीं आतीं.

आलीशान मस्जिद व मदरसे, इलाक़े का पूरा आसमान मिनारों से भरा पड़ा है. सड़कों पर नक़ाशपोश बच्चियां व औरतें लेकिन ज़्यादातर बच्चियों के कंधों पर किताबों का बैग या हाथों में किताबें ही नज़र आ रही है. शायद यही सम्भल के इस मोहल्ले की अपनी पहचान है, लेकिन अचानक एक ‘झटके’ ने इस पहचान को पीछे धकेल दिया है.


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इस मुस्लिम बहुल शहर के दीपासराय मोहल्ले के दो लोगों को जांच एजेंसियों ने आतंकी समूह अलक़ायदा से जोड़ा है. यही नहीं, पुलिस का कहना है कि दीपासराय में ही अलक़ायदा के दक्षिण एशिया के प्रमुख मौलाना आसिम उमर उर्फ़ सनाउल हक़ का भी घर है. दीपासराय के मो. आसिफ़ को दिल्ली पुलिस के स्पेशल सेल ने दिल्ली में यह कहते हुए गिरफ़्तार किया है कि आसिफ़ अल-क़ायदा के भारतीय उपमहाद्वीप के संस्थापकों में से एक है.


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ज़फर मसूद को भी अलक़ायदा के लिए पैसे जुटाने के आरोप में मुरादाबाद से गिरफ्तार किया गया. जफ़र का घर भी दीपासराय में ही है. ज़फ़र पर साल 2002 में भी आतंकवादी संगठनों से जुड़े होने के आरोप लगे थे, मगर अदालत ने उन्हें निर्दोष माना था. लगभग 13 सालों के बाद ज़फर फिर से पुलिस के निशाने पर हैं.

सम्भल के दीपासराय पहुंचने पर मिलते स्थानीय लोग कहते हैं कि यह सब इस शहर को बदनाम करने की साज़िश है.

दीपासराय में रहने वाले मो. मुस्लिम गुस्से में सरकार पर आरोप लगाते हैं, 'जिस शहर में मुसलमान तरक़्क़ी करने लगता है, वहां पहले दंगा कराकर मुसलमानों को कमज़ोर बनाया जाता था. पर अब दंगा करा पाना जब संभव नहीं दिख रहा है तो सरकारों ने यह रास्ता अपनाया है. पहले यूपी के आज़मगढ़ को टारगेट किया गया था, अब निशाने पर हमारा सम्भल है.’

वे आगे बताते हैं, ‘खासतौर पर दीपासराय मोहल्ले में तालीम के प्रति लोगों में रूझान काफी बढ़ा है. लोग अब लड़कियों को भी पढ़ाने लगे हैं. वहीं पहले जहां यहां के मुसलमान खाड़ी देशों में जाकर मजदूरी करते थे, अब वे शहर में ही मेहनत करने लगे हैं. इस मोहल्ले के कई लोग अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय व जामिया मिल्लिया इस्लामिया में प्रोफ़ेसर हैं. शायद यही बात हुकूमत को पसंद नहीं आ रही है.'

यह बात दीपासराय के ज़्यादातर लोगों की समझ के बाहर है कि उनके साथ उठने-बैठने वाला आसिफ़ इतना बड़ा ‘आतंकी’ कैसे बन गया? क्या अलक़ायदा का स्तर इतना नीचा है कि उसने आसिफ़ जैसे 5वीं पास को इतना बड़ा पद दे दिया?

लोगों को चिंता इस बात की है कि हमेशा उनके साथ रहने वाला 5वीं पास आसिफ़ कैसे इंटरनेट व सोशल मीडिया का इस्तेमाल करके लोगों को अपने साथ जोड़ रहा था. यहां के स्थानीय लोगों का स्पष्ट कहना है कि मीडिया चाहे जो कहे आसिफ़ आतंकी नहीं हो सकता. यह हमारे शहर, हमारे मोहल्ले को बदनाम करने की साज़िश है.

आसिफ़ का भाई सादिक़ इसी मोहल्ले में लेडिस टेलर का दुकान चलाते हैं. लेकिन उनकी दुकान अभी बंद है. वे बताते हैं, ‘इन दिनों मोहल्ले में शादियां खूब हैं. इसलिए काम भी बहुत था, लेकिन क्या करें? सारे काम लौटा दिए.’

यहां के लोगों की पहली शिकायत मीडिया से है. स्थानीय लोगों का कहना है कि मीडिया बिला वजह उनका वक़्त बर्बाद करती है. उनकी दलील है कि सचाई दिखाने की हिम्मत तो किसी मीडिया में है नहीं. दिखाना उन्हें वही है जो उनकी मर्जी है या जो प्रशासन द्वारा कहा जाता है.’ ज़फ़र मसूद की बीवी भी मीडिया के सवालों से अब इतनी परेशान हो चुकी हैं कि वह अब किसी से मिलना नहीं चाहतीं.


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आसिफ़ का भाई सादिक़ भी मीडिया से नाराज़ है. वह प्रश्न करते है, ‘आख़िर आप लोग इतनी नफ़रत लाते कहां से हो? क्या इल्ज़ाम लगने भर से कोई मुजरिम हो जाता है? मुजरिम तो कोई तब होता है, जब हमारी अदालत साबित कर देती है. लेकिन आप उससे पहले ही उसे आतंकवादी और न जाने किन-किन शब्दों से नवाज़ना शुरू कर देते हो.’

सादिक़ उदासी में कहते है, ‘मीडिया ने इस तरह से मेरे भाई को यह कहकर खड़ा कर दिया है कि ओसामा शायद मरा नहीं है, सम्भल में ज़िन्दा है.’ सादिक़ रोते-रोते आगे कहते है,‘कोई भी मज़हब इसांनियत के ख़िलाफ़ नहीं होता. आप चाहे जिस मज़हब के हो, कम से कम इंसानियत तो रखों.’ आसिफ़ का दर्द उसकी बातों में साफ़ झलकता है. सादिक़ आगे कहते हैं, ‘मेरे वालिद का अब क्या होगा? वालिद की हालत ख़राब हो गई है. बुढ़ापे में इस सदमे को वह कैसे बर्दाश्त कर पा रहे होंगे. नींद की गोली देकर उन्हें सुलाया है.’


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सादिक़ बताते हैं, ‘पुलिस या एजेंसी की ओर से कोई सूचना आज तक नहीं दी गयी है. सारी जानकारियां हमें मीडिया से ही मिल रही हैं.’

सादिक़ के दर्द को इस बात से भी समझा जा सकता है, डॉक्टर कहते हैं कि एड्स छूने से नहीं फैलता, लेकिन हमारा मामला तो एड्स से भी ज़्यादा खतरनाक है. हम जिसके पास भी जाते हैं, वह अजीब नज़रों से हमें देखता है. अब आप ही बताईए कि हम क्या करें? हमारे पास तो केस लड़ने के भी पैसे नहीं हैं. हम तो रोज़ कुंआ खोदते हैं और पानी पीते हैं.’

आसिफ़ की बीवी का भी कहना है, ‘पता नहीं, यह सब हमारे साथ ही क्यों हो रहा है. मेरे पति आतंकी नहीं हो सकते.’

आसिफ़ की गिरफ्तारी के सम्बन्ध में वे कहती हैं,‘संडे को वो सुबह ही उठकर दिल्ली गए थे. जब दिन में मैंने फोन किया तो वो बंद आ रहा था. शाम में उनका फोन आया. वो बता रहे थे कि फोन बंद हो गया था. घर पर उनका एक टच वाला मोबाईल रखा हुआ था. बोले कि वो मोबाईल अभी एक आदमी घर जाएगा, उसे दे देना. तुरंत ही एक आदमी आया, जिसे मेरे बच्चे ने मोबाईल दे दिया. उसके बाद से उनसे कोई बात नहीं हुई. टीवी पर ख़बरों से मालूम हुआ कि उन्हें पुलिस ने पकड़ा है.’


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आसिफ़ की वीबी के मुताबिक़ इन दिनों पैसे की काफी तंगी चल रही है. आज तक उनका घर नहीं बन पाया. वे किराए के घर पर रह रहे थे. 1500 रूपये हर महीने किराया देना पड़ता है. बच्चों के स्कूल की फीस भी नहीं हो पा रही थी. इसलिए उन्होंने लड़के की पढ़ाई छुड़वा दी. लड़की अभी भी पढ़ रही है. लड़का अभी दस साल का है.

इस पूरे मामले में स्थानीय पुलिस के पास कुछ भी जानकारी नहीं है. नखाशा पुलिस चौकी के इंचार्ज आदित्य सिंह बताते हैं. ‘हमें इस घटना के संबंध में कोई जानकारी नहीं है.’ आदित्य सिंह सवालिया अंदाज़ में यह भी कहते हैं, 'यहां का हर व्यक्ति कहता है कि वह बेगुनाह हैं, लेकिन उन्हें क्या मालूम कि वह दिल्ली में क्या करता था? आख़िर इंटेलीजेंस के पास कुछ होगा तब ही तो गिरफ़्तार किया है.’

आदित्य सिंह बताते हैं कि दीपासराय में सिर्फ़ मुसलमान ही रहते हैं. लेकिन जब हमने पूछा कि आपके इस चौकी में कितने मुसलमान हैं तो उनका स्पष्ट जवाब था कि ‘एक भी नहीं.’ फिर वह आगे बताते हैं कि 'पहले दो थे, पर अब नहीं हैं.’ आदित्य सिंह के मुताबिक़ रात में गश्त बढ़ा दी गई है. बाहर से आने वाले लोगों पर नज़र रखी जा रही है. हालांकि पहले ऐसा नहीं था लेकिन स्थानीय लोगों का कहना है कि कोई गश्त उन्हें अभी भी नज़र नहीं आती.

पूरे सम्भल में तकरीबन 50 से भी अधिक मदरसे हैं. इसके इंग्लिश मीडियम स्कूलों की भी कोई कमी नहीं है. दीपासराय के ही मदरसे ‘मदीनतुल ऊलूम’ की देखभाल करने वाले फैज़ल बताते हैं ‘सम्भल के मदरसों में ज़्यादातर छात्र स्थानीय या यूपी के दूसरे ज़िलों से हैं. किसी दूसरे राज्य के छात्र यहां बहुत कम हैं.’ हम यहां छात्रों से मिलने की कोशिश में थे, लेकिन फैजल के मुताबिक़ हम अध्यापकों की मौजूदगी में ही मिल सकते हैं. शायद पिछले कुछ दिनों में उन्होंने मीडियावालों के रवैये को देखा था और नहीं चाहते थे कि बच्चे भी वही चीजें झेलें.

सम्भल की यह खूबसूरती ही है कि एक तरफ़ जहां शहर में आरएसएस कार्यकर्ताओं द्वारा ‘आतंकवाद’ का पुतला फूंका जा रहा था, वहीं कोतवाली में अमन कमेटी की बैठक चल रही थी, वह भी इस फ़िक्र में कि ईद-मिलादुन्नबी का जुलूस शांति से गुज़र जाए. कैसे लोगों में फिर से इंसानित बहाल की जाए.

सम्भल के जितने भी लोगों से हमने बात की, उनमें शहर की नई पहचान को लेकर चिंता नज़र आई. इन घटनाओं के बाद सम्भल के लोगों के दिलो-दिमाग में डर है और इस डर को साफ़ देखा जा सकता है. डर इस बात का कि कहीं सम्भल एक नया आजमगढ़ न हो जाए.

इन सबके बीच यह सोचना भी ग़लत नहीं होगा कि सम्भल फिर से अपने पुराने दिनों में लौटना चाहता है. अपने अतीत से पूरी दुनिया को रूबरू कराना चाहता है. बताना चाहता है कि हिन्दुस्तान के ‘जंग-ए-आज़ादी’ में इसका क्या रोल रहा है? सादिक़ के मुताबिक़ इस शहर में दीपासराय की एक अलग अहमियत है, क्योंकि इस मोहल्ले का नाम 16वीं सदी के राजा दीप चंद के नाम पर रखा गया है. मुल्क की आज़ादी में हिस्सा लेने वाले मुस्लिम क्रांतिकारियों की सबसे अधिक संख्या इसी मोहल्ले से थी.

यहां की नई पीढ़ी को दीपासराय का यह इतिहास भले ही मालूम न हो, लेकिन वे दीपासराय के भविष्य को लेकर चिंतित ज़रूर हैं.


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