By अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
अमरोहा:‘हिन्दुस्तान के मुसलमानों की दो सबसे बड़ी ज़रूरतें हैं. सबसे पहली सब्र और दूसरी इल्म.’
ऐसा कहना है मास्टर क़ासिम अली तुर्क का, जिन्होंने उत्तर प्रदेश के अमरोहा ज़िले के अपने गांव में शिक्षा की मशाल जलाकर हज़ारों ज़िंदगियां रोशन की हैं. मास्टर क़ासिम कहते हैं, “सब्र सबसे पहली ज़रूरत इसलिए हैं ताक़ि मुसलमानों में अपने साथ भेदभाव की जो भावना है, उसे शांत किया जा सके. और सब्र के बाद इल्म इसलिए क्योंकि तरक़्क़ी इल्म के बिना मुमकिन नहीं है और इल्म शांत मन से ही आता है.”
47 वर्षीय मास्टर क़ासिम अमरोहा ज़िले के फ़तेहपुर गांव में रहते हैं. यहीं पैदा हुए और अमरोहा से ही उच्च शिक्षा हासिल कर तुर्की इंटर कॉलेज, पलौला में अध्यापक की नौकरी हासिल की.
इसके साथ ही अपने पारिवारिक इंट के भट्ठे के कार्य में हाथ बंटाते रहे लेकिन सितंबर 2011 में एक हादसे ने उनके चार भाइयों के संयुक्त परिवार की ज़िंदग़ी बदल दी.
उनके सबसे बड़े भाई हाज़ी तसव्वुर हुसैन के बड़े बेटे वसीम तुर्की की 26 साल की उम्र में एक सड़क हादसे में मौत हो गई. परिवार उनकी यादों को ज़िंदा रखने के लिए उनके नाम से कुछ करना चाहता था.
मास्टर क़ासिम ने अपने भतीजे की याद को ज़िंदा रखने के लिए शिक्षा का रास्ता चुना. हालांकि उनके परिवार व खानदान से जुड़े लोगों की कई बातें भी सुननी पड़ी, क्योंकि किसी को भी ईंट का भट्टा बंद करके कॉलेज खोलने का आईडिया पसंद नहीं था. बावजूद इसके मास्टर क़ासिम ने इनके विरोध पर कोई ध्यान नहीं दिया और अपने इरादे को और मज़बूत करते गए.
बहुत सीमित संसाधनों के साथ साल 2004 में वे अपने गांव में डिग्री क़ॉलेज खोलने का सपने को साकार करने में लग गए. मास्टर क़ासिम बताते हैं, “डिग्री कॉलेज खोलने की सबसे बड़ी वजह यह थी कि इलाक़े की लड़कियां उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए शहर नहीं जा पाती थीं. अधिकतर लड़कियों की पढ़ाईं बारहवीं पास करने के बाद छूट जाती थी. जो समाज लड़कियों को कॉलेज नहीं भेज सकता था, उसमें हमने कॉलेज को लड़कियों तक लाने की कोशिश की.”
मास्टर क़ासिम की कोशिश रंग लाई और साल 2005 में बरेली यूनिवर्सिटी ने उन्हें बीए की क्लासेज़ चलाने की अनुमति दे दी. इस तरह वसीम तुर्की मुस्लिम डिग्री कॉलेज अस्तित्व में आया.
पहले साल दाख़िला लेने वाले छात्रों में अधिकतर लड़कियां थी. 2005 में सिर्फ़ कला संकाय के साथ शुरू होने वाले डब्ल्यूटीएम डिग्री कॉलेज में विज्ञान और वाणिज्य संकाय भी जुड़ गए और अब यहां एमए, एमएससी और बीकॉम की क्लासेज भी चलती हैं.
साथ ही उन्होंने गांव में ही तकनीक और रोज़गारपरक शिक्षा देने के लिए एक पॉलीटेक्निक संस्थान की स्थापना भी की. डब्ल्यूटीएम ग्रुप ऑफ़ कॉलेजेज़ अब फतेहपुर में ही एक बीएड कॉलेज भी संचालित करता है. इसके साथ ही बच्चों में मेडिकल एजुकेशन की ओर बढ़ते रुझान और क्षेत्र की ज़रूरत के मद्देनज़र एक आर्युवैदिक मेडिकल कॉलेज की स्थापना की दिशा में भी काम शुरू कर दिया गया है.
फिलहाल डब्ल्यूटीएम परिसर में एक सौ बेड का अस्पताल स्थापित करने के लिए निर्माण कार्य किया जा रहा है, जो आगामी साल में पूरा कर लिया जाएगा. उच्च शिक्षा से शुरुआत करने वाले मास्टर क़ासिम ने अपने गांव में ही सीबीएसई से संबद्ध एक इंटर कॉलेज भी स्थापित किया है, जो अंग्रेज़ी माध्यम में शिक्षा देते हैं. इसका नाम डब्ल्यूटीएम हाईटेक स्कूल रखा गया है. मास्टर क़ासिम कहते हैं, “डिग्री कॉलेज स्थापित करने के एक-दो सालों के अंदर ही हमें अहसास हो गया था कि अगर बच्चों की नींव मज़बूत हो तो उच्च शिक्षा की ऊंची इमारत उस पर खड़ी की जा सकती है.”
वह बताते हैं, “स्कूल खोलने का उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय स्तर की अंग्रेज़ी शिक्षा को बेहद कम फ़ीस में आसपास के लोगों को उपलब्ध करवाना था, ताक़ि आसपास के ग़रीब किसानों के बच्चे भी अच्छी शिक्षा हासिल कर सके.”
हाईटेक स्कूल में पढ़ने वाले क़रीब सात सौ बच्चे आसपास के गांवों के ही हैं और इनमें से अधिकतर के परिजन किसान हैं. मास्टर क़ासिम कहते हैं, “हमारे समूह की उपलब्धि यही है कि अब लोग अपने बच्चों की शिक्षा पर ज़्यादा से ज़्यादा ज़ोर दे रहे हैं.”
जब उनसे पूछा कि एक बेहद ग़रीब परिवार में पैदा होने और गांव से बाहर निकले बिना वो इतना सब कैसे हासिल कर पाए तो उन्होंने कहा, “सब्र और लगन सफलता की सबसे बड़ी कुंजी है. अगर लगन और पक्का इरादा हो तो ग़रीबी या और कोई मुश्किल रास्ते में नहीं आती.” वे कहते हैं, “हमारे चार भाइयों के संयुक्त परिवार का मुझे भरपूर साथ मिला. ऐसा भी वक़्त आया जब हमें कॉलेज स्थापित करने के लिए रोज़ाना की ज़रूरतों से भी समझौता करना पड़ा. यही तो सब्र होता है.”
उनका कहना है कि सब्र ही इल्म के लिए रास्ता खोलता है, क्योंकि इल्म हासिल करने के लिए मन का शांत और स्थिर होना बेहद ज़रूरी है.
उनके बाक़ी तीनों भाई ज़्यादा पढ़े-लिखे नहीं हैं. लेकिन उन्होंने कॉलेज की स्थापना के बाद संचालन में पूरा सहयोग किया. चुनौतियों के सवाल पर मास्टर क़ासिम कहते हैं, “सबसे बड़ी चुनौती यह है कि ज़्यादातर बच्चे ग़रीब और किसान परिवारों से हैं. फ़सल ख़राब या कम हो तो बहुत से बच्चे फीस भी नहीं भर पाते. लेकिन शिक्षा की लौ को जलाए रखने के लिए इतना समझौता तो करना पड़ता है.”
मास्टर क़ासिम उन हज़ारों भारतीय मुसलमानों में शामिल हैं, जिन्होंने अपनी कोशिशों से सकारात्मक बदलाव समाज को दिया है. डब्ल्यूटीएम समूह की सबसे बड़ी उपलब्धि यही है कि उसने शैक्षिक तौर पर पिछड़े और मुस्लिम बहुल आबादी वाले इलाक़े में न सिर्फ़ शिक्षा की एक लौ जलाई है बल्कि इलाक़े के लोगों में इल्म के प्रति एक ललक भी पैदा की है.
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