Quantcast
Channel: TwoCircles.net - हिन्दी
Viewing all articles
Browse latest Browse all 597

लाठियां खाते छात्र और दक्षिणपंथी बाजारू शिक्षा की समस्याएं

$
0
0

By अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

9 दिसम्बर की इस घटना की रिपोर्ट शायद ही पाठकों तक पहुंच पाई हो. जब संसद मार्च को निकले विभिन्न विश्वविद्यालयों के छात्रों को रायसीना रोड पर रोक कर उनको तितर-बितर करने के लिए पानी की बौछारे और आंसू गैस के गोले छोड़े गए. फिर भी इन जब छात्रों के हौसले पस्त नहीं हुए तो उन पर लाठियां बरसाई गईं. उनके साथ अभद्र बरताव किया गया.

दरअसल ये छात्र नॉन नेट फ़ेलोशिप के लिए और डब्लूटीओ में शिक्षा को बेचे जाने के ख़िलाफ़ यूजीसी दफ़्तर से संसद मार्च के लिए निकले थे. इनमें ही कुछ छात्र पिछले 50 दिनों से दिल्ली में स्थित यूजीसी दफ़्तर के बाहर धरने पर बैठे हैं. दिल्ली के सर्द रातों में भी ये पूरी रात सड़क पर ही गुज़ारते हैं.


E1

लेकिन सवाल यह है कि जिन छात्रों को क्लास रूम में होना चाहिए वह सड़कों पर क्यों हैं? तो इसका जवाब है कि पहले तो वे अपनी नॉन नेट फ़ेलोशिप को बचाने के लिए बैठे हैं, वही फ़ेलोशिप जिसके कारण इस देश के ग़रीब और आम घरों से आने वाले छात्र भी उच्चतर शिक्षा हासिल करने का सपना देख पाते हैं, क्योंकि इस फ़ेलोशिप में एम. फिल. करने वाले को 5 हज़ार व पीएचडी करने वाले छात्रों को 8 हज़ार रूपये मिलते हैं. लेकिन सरकार ने पिछले 7 अक्टूबर को इसे बन्द कर देने का ऐलान किया. हालांकि छात्रों के व्यापक विरोध के बाद मानव संसाधन मंत्री स्‍मृति ईरानी ने यह साफ़ किया कि नॉन नेट फेलोशिप को बंद नहीं किया जाएगा. बल्कि सरकार नेट और नॉन नेट फेलोशिप दोनों को लेकर एक समीक्षा समिति गठित कर चुकी है. यह समीक्षा समिति दिसंबर 2015 तक मंत्रालय को अपनी रिपोर्ट देगी.

लेकिन छात्रों को सरकार की नीयत साफ़ नज़र नहीं आ रही है. इसलिए छात्रों की मांग है कि इसे दोबारा शुरू करके इसकी रक़म को और बढ़ाया जाए. साथ ही इसे राज्य के दूसरे विश्वविद्यालयों में भी विस्तारित किया जाए और किसी भी ऐसी शर्त को न जोड़ा जाए जिससे कुछ छात्र छंट जाएं –जैसे ‘मेरिट’ का मापदंड.


E2

धरने पर बैठे इन छात्रों की इस फ़ेलोशिप के साथ-साथ और भी कई मांगे व सवाल हैं. सबसे बड़ा सवाल है कि शिक्षा के क्षेत्र में बजट कटौती और ‘शिक्षा का बाज़ारीकरण’.

सच तो यही है कि हमारे देश में शिक्षा जगत इन दिनों बड़े ख़तरे से दो-चार हो रहा है. यह ख़तरा शिक्षा के बाज़ारीकरण के हाथों में चले जाने का है और सरकार के धीरे-धीरे हाथ खींचते जाने का है. मोदी की अगुवाई वाली सरकार ने कभी जीडीपी का 6 फ़ीसदी हिस्सा शिक्षा पर खर्च करने का वादा किया था, मगर आज ज़मीनी हालत यह है कि जितना पहले खर्च होता था, उसमें भी भारी कटौती कर दी गई है. दरअसल इस पूरी क़वायद का मतलब शिक्षा के क्षेत्र में पहले से बैठे मगरमच्छों को और भी ज़्यादा फ़ायदा पहुंचाना है और आम ग़रीब जनता के बच्चों को शिक्षा से महरूम करके उन्हें ग़रीबी की ओर धकेल देना है.

पहले तो इस सरकार ने शिक्षा के निजीकरण के एजेंडे को अपनाते हुए शिक्षा बजट में 16.5 प्रतिशत की कटौती करते हुए इसे 83,000 करोड़ से घटाकर 69,000 हजार करोड़ रुपये कर दिया गया. और अब सरकार देशी-विदेशी पूंजीपतियों को फ़ायदा पहुंचाने की पूरी कोशिश में है.

इस देश में पिछले साठ साल में ऐसा पहली बार हुआ, जब शिक्षा के बजट में बढ़ोतरी की बजाय इसे घटा दिया गया. इतना ही नहीं, शिक्षा जगत के जानकारों का कहना है कि अब यह सरकार मौजूदा शिक्षा बजट को खर्च करने में भी पिछड़ रही है.

हैरानी की बात है कि यह हालत तब है, जब देश में 60 लाख बच्चे आज भी स्कूल से वंचित हैं और शिक्षा का अधिकार कानून लागू हुए पांच साल हो चुके हैं. इस कानून में निजी स्कूलों में भी 25 प्रतिशत सीटों को आरक्षित करने का प्रावधान था, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने भी अनिवार्यता से लागू करने का आदेश दिया. इसके बावजूद क्रियान्वयन के अभाव में 21 लाख सीटों में से सिर्फ 29 प्रतिशत सीटें ही भरी गईं हैं. खुद मानव संसाधन विकास मंत्रालय यह मानती है कि 2009 के मुक़ाबले 2014 के अंत तक 26 प्रतिशत नामकंन में गिरावट दर्ज की गई है.

मौजूद आंकड़े बताते हैं कि इस समय देश में तीन लाख स्कूल भवनों और क़रीब 12 लाख शिक्षकों की दरकार है. इस कमी के चलते कई स्कूल खुले में चल रहे हैं. जबकि नियम के अनुसार 30 बच्चों पर एक शिक्षक का होना अनिवार्य है, लेकिन देश के लगभग सभी स्कूलों में 100 से अधिक बच्चों पर सिर्फ एक शिक्षक है. जिसका सीधा असर शिक्षा की गुणवत्ता पर पड़ रहा है. इसके अलावा शिक्षा भगवाकरण भी देश में शिक्षा के गुणवत्ता को बर्बाद करने पर तुला हुआ है.

आंकड़े यह भी बताते हैं कि भवन व शिक्षकों की कमी की वजह से स्कूलों पर ताले तक लग रहे हैं. राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, उत्तराखंड सहित कई राज्यों में एक लाख से अधिक स्कूलों में ताले पड़ चुके हैं लेकिन सरकार उदासीन है. सरकार की उदासीनता का सीधा फ़ायदा निजी स्कूलों को मिल रहा है.

अब अगर फिर से उच्चतर शिक्षा की बात करें तो सरकार इसे पूरी तरह से पूंजीपतियों के हाथों बेच देने की तैयारी में है. एक ख़बर के मुताबिक़ 15-18 तक नैरोबी में दुनिया भर के पूंजीपति व्यापारियों के संगठन यानी ‘विश्व व्यापार संगठन’ की बैठक होने वाली है. जिसमें पीएम मोदी शामिल होंगे. शिक्षा के जानकारों के मुताबिक़ पीएम मोदी इस बैठक में शिक्षा के क्षेत्र में रोज़गार करने के लिए दुनिया भर के पूंजीपतियों को न्योता देंगे. यदि ऐसा सच में हुआ तो इस देश में आम जनता से शिक्षा का अधिकार हमेशा के लिए छिन जाएगा और हमारे बच्चों के लिए अच्छी शिक्षा और उच्चतर शिक्षा महज़ एक सपना बनकर रह जाएगा. इसीलिए इसका भी विरोध यूजीसी के दफ़्तर के बाहर बैठे छात्र कर रहे हैं, लेकिन इनकी कोई सुनने वाला नहीं है. न सरकार और न ही मीडिया इनकी ओर तवज्जो दे रही है.

ऐसे में यह पूरी क़वायद कई बड़े सवालों को जन्म देती है. क्या एक सुनियोजित साज़िश के तहत शिक्षा पर इस किस्म के हमले किए जा रहे हैं? क्या दक्षिणपंथी ताक़तें और कारपोरेट जगत की बड़ी ताक़तें दोनों ही अपने फ़ायदे एक मंच पर खड़ी हो गई हैं? और सबसे बड़ा सवाल यह है कि अगर यही सिलसिला चलता रहा तो क्या यह देश फिर से किन्हीं आदर्श व्यक्तित्वों को देख सकेगा, जो बेहद ही विपरित हालातों में पढ़-लिख कर इतने बड़े ओहदे पर पहुंचे और आज भी ग़रीब युवाओं के आदर्श हैं.


Viewing all articles
Browse latest Browse all 597

Latest Images

Trending Articles





Latest Images