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नसबंदी शिविर की लापरवाही में आम सवाल

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By मनोज मिश्रा,

शनिवार को बिलासपुर, छत्तीसगढ़ से दस किलोमीटर दूर पेंडारी के नेमीचंद जैन अस्पताल में सरकार की तरफ़ से महिलाओं के लिए नसबंदी शिविर आयोजित किया गया. इस शिविर को लगाने का मक़सद महिलाओं के स्वास्थ्य की चिंता नहीं था. बल्कि शिविर इसलिए लगाया गया था ताकि सरकार अपना एक कोटा पूरा कर सके और सर्वे में यह दर्शा सके कि उसने एक साल में इतनी नसबंदियों को अंजाम दिया है. ऐसा इसलिए ताकि उन्हें पिछले कुछ वर्षो की तरह इस बार भी नंबर एक मुख्यमंत्री का ख़िताब मिल जाए.

इस नसबंदी शिविर में 83 महिलाओं को नसबंदी के लिए तैयार किया गया. इन महिलाओं की नसबंदी आनन-फानन में की गई, जिनमें से 11 महिलाएं मौत का शिकार बन चुकी हैं. इसके अलावा लगभग 55 महिलाएं गंभीर रूप से संक्रमण से ग्रस्त बतायी जा रही हैं. मीडिया में बात को फैलता देख सरकार ने पीड़ितों को मुआवज़ा देने की बात कहीं है. इसके अलावा कांग्रेस ने हमेशा की तरह इस मामले में राजनीतिक फायदा उठाने के आरोप को केन्द्र में रखते हुए मुख्यमंत्री और स्वास्थ्य मंत्री के इस्तीफे की मांग की है.



Treatment of filling quota

इन बातों और घोषणाओं से इतर सवाल यह है कि क्या ये मुआवज़े या सरकार के इस्तीफे की मांगें उन ज़िंदगियों के साथ सही इन्साफ कर सकती हैं, क्या उन्हें वापिस ला सकती हैं, क्या मासूमों से हमेशा के लिए बिछड़ चुके सहारे को वापस दिला सकती है, जिनकी मौते सिर्फ़ डाक्टरों की लापरवाही की वजह से हुई है? और यह बात तो ध्यान दिलाने की नहीं है कि ये वही डाक्टर हैं जिन पर हम अपने को दुरस्त करने की ज़िम्मेदारी सौंपते हैं.

यह पहली बार नहीं है जब किसी सरकारी विभाग द्वारा ऐसी लापरवाही को अंजाम दिया गया हो. इससे पहले 2011 में दुर्ग के बालोद में 64 और 2013 में मोतियाबिंद ऑपरेशन के दौरान 6 लोगों की मौत हो गई थी. यदि हम इतिहास के पन्नों को खोलकर देखें तो ऐसी घटनाएं अब समाज के लिए बहुत आम बात हो गई हैं. इन मासूमों की मौत की जिम्मेदारी लेने के लिए न डॉक्टर तैयार है और न ही सरकार. यह समय ऐसे बीतेगा कि कुछ पता ही नहीं चलेगा. जब तक प्रधानमंत्री का विदेश दौरा खत्म होगा, तब तक मीडिया वाले शांत हो चुके होंगे और लोगों को उनकी मौत के बदले मुआवज़े ‘मिल चुके’ होंगे.

दुःख की बात तो यह है कि इस तरह की घटनाओं के बावजूद स्थानीय संगठनों के द्वारा कोई विरोध प्रदर्शन नहीं किया जाता है, अधिकांश संगठन तो सिर्फ़ जातिगत मुद्दों, जिनमें विशेषकर हिन्दूवाद के मुदद्दे हैं, के विषय में ही आवाज़ खोलते है. इंसानो के हक़ से उन्हें कोई लेना-देना नहीं है. जिन लोगों की मौते हुई हैं, उनके पक्ष में या सरकार के खिलाफ़ वे कुछ भी कहने से घबराते है, बाकी विरोध प्रदर्शन की बात तो बहुत दूर की है.

इन महिलाओं की मौत सिर्फ़ लापरवाही नहीं है. ये मौतें समाज के लिए एक सन्देश हैं कि किसी भी पार्टी या सरकार के पास आवाम की फ़िक्र करने का कोई मसविदा नहीं है और इंसानियत के प्रति वो अपने जुल्म अलग-अलग तरीके से ढाते रहेंगे. इन सबके बावजूद हम सबका फ़र्ज़ बनता है कि हम इस किस्म की अमानवीय घटनाओं के दौरान एकजुट होकर इन सरकारी तंत्रों के खिलाफ़ खड़े रहें. यदि ऐसा नहीं हो पाया तो ज़ाहिर है कि धीरे-धीरे हम मिट्टी के गीले लोंदे से बढ़कर कुछ भी नहीं रह पाएंगे, जिसे ज़रूरत के माफ़िक किसी भी सूरत में ढाल लो.


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