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बिहार की चुनाव डायरी : किन मुद्दों से नतीज़ों पर असर पड़ेगा?

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नासिरुद्दीन हैदर

चुनाव में मीडिया की भूमिका क्या है? क्या अखबारों की नजर में सभी दल और प्रत्याशी बराबर हैं?

अगर चुनाव शुरू होने से पहले के पटना के अखबार देखें तो ऐसा लगता है कि भाजपा या एनडीए की शुरुआत से ही बढ़त है. उसी की सरकार बन रही है. खबर, प्रस्तुति, कवरेज का दायरा - सब एनडीए की सरकार बनाते दिखते हैं.

चुनाव की घोषणा से पहले और आखिरी दौर के प्रचार तक कुल मिलाकर प्रधानमंत्री की तीन दर्जन सभाएं हुईं. प्रधानमंत्री की तीन दर्जन सभाएं यानी कम से कम उतने दिन प्रधानमंत्री का भाषण अखबारों की पहली खबर बनी. पहली खबर के साथ ही अंदर के पन्नों पर कभी एक तो कभी दो पन्ने अलग से दिखते हैं. यही नहीं, कुछ मौकों पर तो प्रधानमंत्री के आने की खबर दो या तीन दिन पहले से ही अखबारों की पहली खबर बनती दिख रही. यह कवरेज अखबारों के जिला संस्करणों में और बढा दिखाई देता है. इसके अलावा भाजपा/एनडीए के जितने नेता घूम रहे थे, उतने की अलग-अलग खबर और फोटो भी अखबारों में देखे जा सकते हैं. बयान, प्रेस कांफ्रेंस अलग हैं. कई बार तो अखबारों के चुनाव पन्ने पर सिर्फ एनडीए के नेताओं की ही खबर दिखाई दे रही थीं.


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इसके बरअक्स महागठबंधन के समाचार या खबर काफी कम जगह घेरते दिख रहे थे. अखबारों में उनको वैसी ही प्राथमिकता नहीं मिलती दिखती जैसी एनडीए के नेताओं को मिल रही थीं. इनके नेताओं की सभा, बयान शायद ही किसी दिन किसी अखबार में पहली खबर के रूप में दिख जाए तो दिख जाए.

कुल मिलाकर देखा जाए तो चुनाव से पहले अखबारों की प्रस्तुति के मुताबिक एनडीए (पढें भाजपा) की मजबूत बढ्त थी. ज्यादातर पत्रकार भी इस मजबूती की बात करते रहे. पहले चरण के मतदान के बाद मजबूती की बात में मामूली कमी आई. दूसरे चरण के मतदान के बाद थोडी कमी आई. मगर अखबारों के कवरेज में कोई बडा बदलाव फिलहाल नजर नहीं आया.

अखबारों में विज्ञापन भी भाजपा/एनडीए का ही दिख रहा. हर रोज कई तरह के विज्ञापन निकल रहे थे. आरोप. प्रचार. कार्यक्रम. अपील. यानी अखबारों को विज्ञापन के जरिए सबसे ज्यादा फायदा एनडीए से ही मिला है.

इस चुनाव में मुसलमान कहां हैं?

यह भी एक महत्वपूर्ण सवाल है. हर चुनाव में यह सवाल रहता है. मुसलमान किसके साथ है? किसके साथ नहीं है? वोट बैंक है? एक पार्टी को मुसलमानों का वोट मिलेगा या बंटेगा? मुसलमान अपने आप में एक अहम सवाल है.

बिहार में मुसलमान वोटों के लिए हमेशा संघर्ष होता रहा है. सेकुलर पार्टियों के बीच इस बात का संघर्ष रहता है कि कौन मुसलमानों का कितना बडा हितैषी है? और भाजपा जैसे दल इन पार्टियों पर तुष्टीकरण का आरोप लगा धार्मिक ध्रुवीकरण की कोशिश में रहते हैं.

इस बार का चुनाव मुसलमानों के लिहाज से सबसे दिलचस्प है. न तो सेकुलर पार्टियों के बीच मुसलमान वोटों के लिए मारामारी दिखती है और न ही चुनाव मैदान में मौलाना नजर आ रहे. मुसलमानों के नाम पर शुरुआत में थोडी हलचल हुई थी. वह हलचल एमआईएम नेता असदुद्दीन ओवैसी के आने से हुई. ओवैसी ने किशनगंज में धमाकेदार शुरुआत की और कहा, वे सीमांचल में चुनाव लडेंगे. जोरदार बहस शुरू हुई. ओवैसी से किसका फायदा होगा? मुसलमान बंट जाएगा. भाजपा को फायदा होगा, वगैरह, वगैरह. भाजपा के एक बडे नेता ने तो यहां तक कह दिया कि उनकी असली लडाई ओवैसी से है. लेकिन अंत में ओवैसी की पार्टी ने छह सीटों पर चुनाव लडने का फैसला किया. अब उनकी चर्चा सिर्फ उसी इलाके तक सीमित है. वे उस इलाके से बाहर सभा करने के लिए भी नहीं निकले.

दो चरण का चुनाव बीत चुका था और मुसलमानों को लेकर कोई गहमागहमी नहीं थी. अचानक, तुष्टीकरण का आरोप लगाने वाली भाजपा ने आरक्षण को अल्पसंख्यक रंग दे दिया. एनडीए और खासकर भाजपा ने बार-बार अल्पसंख्यकों (पढें मुसलमानों) को इशारा कर कुछ न कुछ मुद्दा उछालने की कोशिश की. पाकिस्तान, आतंक का दरभंगा माड्यूल जैसे मुद्दे भी आए. अल्पसंख्यक, बिहार में मुसलमान ही समझा जाता है. जाहिर है, ये मुद्दे मुसलमानों के लिए नहीं हैं. ये हिन्दुओं को गोलबंद करने की कोशिश है. तो सवाल है, तुष्टीकरण किसका हो रहा? वोट बैंक की राजनीति किसके लिए और कौन कर रहा?

एक और बात, आमतौर पर भाजपा समर्थकों से बात करने पर एक बात साफ होती है. उनके जेहन में मुसलमानों के वोट के लिए कोई संदेह नहीं है. वे सीधे कहते हैं, मुसलमान तो हमें वोट करेंगे नहीं. क्यों? पता नहीं. हालांकि पिछले कई चुनाव के आंकडे बता रहे कि छह से आठ फीसदी मुसलमानों की पसंद भाजपा रही है. जब यह मान कर चला जा रहा कि मुसलमानों का वोट मिलना नहीं है या लेना नहीं है तो राजनीति की भाषा कैसी होगी, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं. एक और बात गौरतलब है, रामविलास पासवान, जीतनराम मांझी और कुशवाहा जैसे लोग भी अल्पसंख्यकों को निशाना कर होने वाली टिप्पणियों पर कुछ बोलते नहीं दिखते.

हां, मुसलमान कुछ डरा-सहमा, सशंकित जरूर है. इसके बाद भी कुल मिलाकर मुसलमान इस बार चुनाव में एक आम वोटर की तरह दिख रहा. कुछ हो न हो, इस चुनाव की यह बडी उपलब्धि दिखती है.

विकास बनाम जाति बनाम मुद्दा है या नहीं?

बिहार के बारे में एक जुमला और उछाला गया - यहां तो सब जाति से ही तय होता है. यहां जैसा जातिवाद कहीं नहीं है. हालांकि इस पर कुछ राय देने से पहले सोचने वाली बात है कि देश के किस इलाके में जाति के नाम पर गोलबंदी नहीं होती? देश के अलग-अलग हिस्सों में जातियों के नाम पर नेता हैं. टिकट बंटवारे में जाति का ध्यान रखा जाता है. बिहार भी इससे अछूता नहीं है. जाति हकीकत है. जाति के आधार पर सामाजिक वर्गीकरण है. जाति के आधार पर सत्ता और ताकत है. जाति सामाजिक-आर्थिक हैसियत भी है. इसलिए इसके नाम की राजनीतिक गोलबंदी सामाजिक हैसियत को बरकरार रखने और सामाजिक हैसियत को बदलने की भी लडाई है.

बिहार के इस चुनाव में यह गोलबंदी है भी और नहीं भी. सबसे बडी बात है कि लोगों के राजनीतिक मुहावरे बदल गए हैं. वे सिर्फ जाति की ही बात नहीं करते. वे जाति के साथ सडक, बिजली, पानी, पेंशन, खेती, बाढ की बात करते हैं. पढाई और काम की बात करते हैं. वे स्कालरशिप और मिड डे मिल, वृद्धावस्था पेंशन, इंदिरा आवास की बात करते हैं. वे अपनी ख्वाहिशों की बात करते हैं. स्कूल खुलने चाहिए. कॉलेज होने चाहिए. अस्पताल बनने चाहिए.

ऐसा सोचने और बोलने वालों में स्त्री-पुरुष, नौजवान-बुजुर्ग सब शामिल हैं. जाहिर है, अगर इन सुविधाओं का बंटवारा अब तक जातिगत आधार पर होता रहा तो आज इनके विमर्श में जाति दिखेगी. वह दिखती भी है. पर उस विमर्श का आधार बराबरी और विकास की चाह है. यह विमर्श पिछले दस साल में काफी बदला है. उससे पहले यह विमर्श राजनीतिक ताकत पाने का था. अब उस राजनीतिक ताकत का इस्तेमाल सामाजिक बदलाव की चाह के साथ जुडा है.

ऐसा भी नहीं है कि एक खास जाति का होने की वजह से ही कोई उम्मीदवार सजातीय लोगों का वोट हासिल करने का दावा कर लेगा. बिहार के वोटर एक ही जाति के कई उम्मीदवारों के बीच बेहतर उम्मीदवार तलाश करते देखे जा रहे हैं. लोगों से बात करने पर यह साफ दिखता है कि ये तलाश उम्मीदवारों के काम और सोच के आधार पर हो रही है. जैसे- फलां मिलनसार है. फलां ने ये सडक बनाई. फलां तो कुछ नहीं किया.

एक और बात, नेताओं को यह पता है कि सिर्फ एक जाति या धर्म का वोट न तो किसी को जिता पाया है न जिता पाएगा. अब सवाल है, कौन-कौन सी जातियां आपस में जुड रही हैं? कौन आपस में संवाद करने को तैयार हैं? आपसी विरोध का किनका लम्बा इतिहास नहीं रहा है?

इसलिए अगर एक से ज्यादा जातियां एक साथ राजनीतिक रूप से आगे आ रही हैं तो यह उनके सामंजस्य का नतीजा है न कि आपसी प्रतियोगिता का.


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सवाल यह भी है कि कौन किस पर जातिवाद का आरोप लगा रहा है?

दिलचस्प है, तथाकथित अगड़ी जातियों की गोलबंदी कभी जातिवाद के दायरे में नहीं आती. जातिवाद के पीछे की राजनीति इससे भी समझी जा सकती है कि यह आरोप लगाने वालों की जातियां क्या हैं?

जहां पिछडे दलित गोलबंद होते हैं, उन पर जातिवाद का आरोप लगने लगता है. आरक्षण के समर्थक जातिवादी हुए और आरक्षण विरोधी जातिविरोधी! बिहार के चुनाव में भी यह साफ दिखता है. महागठबंधन जातिवादी है और एनडीए इससे बरी. हालांकि जमीनी हकीकत कुछ और कहती है. अगर जाति के नाम पर गोलबंदी है, तो उससे एनडीए भी अछूता नहीं है. सवाल फिर वही है, जातियों के बीच किसमें कितना सामंजस्य बनाने या बैठाने की ताकत और सलाहियत है?
टिकट बंटवारे में सभी दलों ने जाति का ख्याल रखा. एनडीए की रैलियों में नेताओं का परिचय जब कराया जाता है तो उनकी जाति पर खास जोर दिया जाता है. यह प्रधानमंत्री की रैली में मौजूद नेताओं के परिचय में भी देखा जा सकता है. पिछडे, दलित और महादलित नेताओं के परिचय पर खासा जोर होता है. इतना जोर अगडी जातियों के नेताओं का परिचय कराने में नहीं होता.
एक और बात, कभी किसी पार्टी या नेता को किसी जाति या धर्म का सौ फीसदी समर्थन नहीं रहता. चाहे वह कितना बडा ही नेता क्यों न हो. सवाल है, कौन कितना बडा हिस्सा खींच लेगा. सवाल यह भी है कि जाति अगर चुनाव जीतने का सबसे आसान रास्ता है तो यह रास्ता सबको पता है. फिर कामयाबी सबको क्यों नहीं मिलती? बिहार का चुनाव इन सवालों का जवाब भी तैयार कर रहा है.

क्या जातीय उभार दिख रहा?

जातीय उभार देख पाना मुश्किल है. जातियों के बीच, खुला टकराव भी नहीं दिख रहा. हां, एक चीज साफ है. कुछ जातियों के लोग काफी मुखर हैं. भूमिहार, ब्राह्मण, राजपूत, यादव और कुर्मियों में यह मुखरता सबसे ज्यादा है. यानी ये अपनी पसंदगी, नापसंदगी बिना किसी लाग-लपेट के खुलकर बताते हैं.

लोग भले ही जाति से इतर मुद्दों पर चर्चा करना भी चाहें नेता उन्हें ऐसा करने नहीं देते. इससे कोई भी दल बरी नहीं है.

मुख्यमंत्री कौन बनेगा?

महागठबंधन ने नीतीश कुमार को अपना मुख्यमंत्री घोषित कर रखा है. वहां कोई और दावेदार फिलहाल नहीं है. महागठबंधन बार-बार एनडीए पर आरोप लगा रहा कि उसके पास मुख्यमंत्री का कोई चेहरा नहीं है. यह उनका बड़ा मुद्दा भी है.

एनडीए ने मुख्यमंत्री के लिए किसी के नाम का एलान नहीं किया. एनडीए के नेता भले ही यह कहते रहें कि हम चुनाव बाद नेता चुनेंगे लेकिन हवा में कई नाम तैर रहे हैं. अगर यही सवाल एनडीए समर्थकों से किया जाए तो अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग नाम सुनने को मिलेंगे. राजेन्द्र सिंह, प्रेम कुमार, सुशील कुमा मोदी, नंद किशोर यादव, शाहनवाज हुसैन, रविशंकर प्रसाद, जीतन राम मांझी … जैसा वोटर, वैसा नाम.

मुद्दा क्या है? विकास या पाकिस्तान?

बिहार के इस चुनाव ने एक महीने में कई मुद्दे देख लिए. चुनाव की आहट विकास के नारे के साथ शुरू हुई. ये लगा कि चुनाव का मुहावरा बदल गया है. चुनाव विकास के नाम पर ही होगा. नीतीश का विकास बनाम प्रधानमंत्री मोदी का विकास ही चुनाव की धुरी बनेगी. दोनों खेमों ने अपने अपने ढंग से विकास होने और न होने के तर्क दिए. मोदी के सवा लाख करोड देने की घोषणा और उसके सच पर चर्चा हुई. एनडीए कहता रहा कि हम तो विकास की की राजनीति करते हैं, महागठबंधन जातिवाद कर रहा. हालांकि यह समझ से परे रहा कि एनडीए का बिजली, पानी, सडक, स्वास्थ्य, शिक्षा पर बात करना अगर विकास है तो इन्हीं पर महागठबंधन की बात जातिवादी कैसे हो जाती है.

लेकिन चुनाव के परवान चढने के साथ साथ बिहार की राजनीति ने खुले रूप में वह देखा, जो अब तक उसने कभी नहीं देखा था. देखते ही देखते विवादास्पद मुद्दों का दौर शुरू हो गया. हजार किलोमीटर दूर दादरी में हुई घटना के बाद गो मांस, गोहत्या का मुद्दा उठा. फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत की तरफ से एक मुद्दा उछला- आरक्षण पर विचार का. महागठबंधन की तरफ से लालू प्रसाद यादव ने आरक्षण से जुड़ा यह मुद्दा पुरजोर तरीके से उठाया. मतदान के पहले चरण के बाद एनडीए की तरफ से आरक्षण के बारे में संघ प्रमुख के बयान पर सफाई आने लगी. ध्यान रहे, खंडन नहीं आया. आश्चर्यजनक तरीके से पटना के अखबारों में संघ ने भी इसकी सफाई पेश की. मोदी को नौबतपुर में अपनी रैली में कहना पडा कि आरक्षण पर जैसी सोच नीतीशजी और लालूजी की है, वही सोच उनकी है. और इसके बाद बक्सर की रैली में उन्होंने आरोप लगाया कि नीतीश-लालू दलितों, आदिवासियों और पिछडों के आरक्षण में कटौती कर अल्पसंख्यकों को देना चाहते हैं. इसके बाद भाजपा की हार पर पाकिस्तान में पटाखे फूटने वाला अमित शाह का बयान आया. फिर आतंक का दरभंगा माड्यूल. वगैरह वगैरह. ये सारे मुद्दे क्यों उठाए गए और यह चुनाव को किस दिशा में ले जाने की कोशिश है, बताने की जरूरत नहीं. ऐसा लगता है कि आरक्षण के मुद्दे का असर रहा है.

विकास से शुरू हुआ चुनाव पाकिस्तान तक जा पहुंचा. भूलना नहीं चाहिए कि गुजरात विधानसभा का एक चुनाव ‘मियां मुशर्रफ’ के नाम पर भी लडा गया है. यह भी देखना दिलचस्प है कि क्यों बिहार में एनडीए को अपना मुद्दा बदलना पडा या नए मुद्दे लाने पडे? अब यह भी देखना दिलचस्प होगा कि बिहार की जनता ने इन मुद्दों पर कैसी प्रतिक्रिया दी.

अगर गौर करें तो चुनाव में एक के बाद एक मुद्दे उछालने का काम एनडीए करता रहा दूसरी ओर महागठबंधन ने अपने प्रचार को शुरू से अंत तक आमतौर पर एक जैसा रखा. महागठबंधन के हिस्से कोई बडा विवादास्पद मुद्दा भी नहीं आया. देखना यह है कि इन मुद्दों के बीच बिहार की जनता किसके साथ खडी होती है.

एनडीए बीच-बीच में बिजली पानी सडक का मुद्दा भी उठा रहा है. महागठबंधन का कहना है कि इस मामले में पहले ही काफी कुछ हुआ है. आगे और करने का वादा है. हालांकि इन मुद्दों की जमीनी हकीकत भी जानना जरूरी है. जैसे-जिन इलाकों में शाम होते ही बाजारों में जनरेटर का धुआं भरा होता था, वहां अब जनरेटर कम चलते हैं. पहले से बिजली की हालत बहुत बेहतर हुई है. अररिया जैसे छोटे शहर में रात में भी पूरा परिवार बाजार में आइसक्रीम खाते देखा जा सकता है. सडक पहले से काफी बेहतर हुई है. कम से कम शहरों को जोडने वाली सडकें बेहतर हुईं हैं. बिहार से वास्ता रखने वाले लोग बेहतर बता सकते हैं कि क्या ये तीनों बिहार में कोई बडा मुद्दा बन पाएंगे.
एक और बात, बिहार के कई इलाकों में पार्टी और जाति से इतर उम्मीदवार भी बडा मुद्दा हैं. इसमें जातियों का भेद नहीं है. इसलिए मुमकिन है, कि कई लोगों के हारने जीतने की वजह वे खुद हों.

कौन जीत रहा?

यह सबसे ज्यादा पूछा जाने वाला सवाल है. सब नतीजे पर पहुंचना चाहते हैं. चुनाव इतना आसान होता नहीं. इतना आसान रह नहीं गया. 1995 के बाद पत्रकारों के लिए भी चुनाव काफी चुनौती भरा रहा है. 1995 में ही इक्का दुक्का लोगों को छोड सभी लालू यादव के हारने की घोषणा कर चुके थे. नतीजा क्या आया? इसलिए बेहतर है कि नतीजे पर बात न की जाए. नतीजों पर असर डालने वाले कारकों पर जरूर बात की जा सकती है.

कौन सी चीजें नतीजों पर असर डालेंगी?

मेरी राय में ये मुद्दे बिहार के नतीजे पर असर डाल सकते हैं-

नीतीश कुमार के प्रति माहौल क्या है?

महागठबंधन के प्रति लोगों की क्या राय है?

क्या महागठबंधन के सभी घटक एक-दूसरे को वोट दिलवाने में कामयाब हुए?

लालू प्रसाद यादव कितना कारगर रहे?

क्या नरेन्द्र मोदी के प्रति आकर्षण 2014 जैसा ही है?

क्या एनडीए गठबंधन के सभी घटक एक दूसरे को वोट दिलवाने में कामयाब हुए?

मुसलमानों ने किन मुद्दों पर वोट डाला?

असदुद्न ओवैसी और पप्पू यादव कितने असरदार साबित हुए?

विकास का मुद्दा कितना और किसके पक्ष में चला?

आरक्षण का मुद्दा कितना चला?

आरक्षण पर प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा का आरोप कितना असरदार दिखा?

क्या गोमांस, गोहत्या, आतंक का दरभंगा माड्यूल असरदार दिखा?

जंगलराज का आरोप कितना असरदार दिखा?

क्या जीतनराम मांझी के साथ महादलित वोटर गए?

पिछडी मानी जाने वाली जातियों की गोलबंदी किसके तरफ ज्यादा हुई?

क्या अगडी मानी जाने वाली जातियां शत प्रतिशत एकजुट हुईं?

क्या युवाओं ने जाति-सम्प्रदाय से अलग वोट किया?

जैसा माना जा रहा, क्या सभी युवाओं का रुझान नरेन्द्र मोदी या भाजपा की तरफ रहा?

क्या महिलाएं मुद्दों पर वोट कर रही हैं? क्या महिलाएं एक अलग वोट बैंक के रूप में हो गई हैं?

क्या जातियों की गोलबंदी हुई? अगर हुई तो कितनी असरदार है?

क्या बिजली-पानी-सड़क बडा मुद्दा है? अगर हां, तो इस मुद्दे ने किसे फायदा पहुंचाया?

उम्मीदवार की छवि कैसी है? उसकी पकड कितनी है?

क्या धर्म के नाम पर हिन्दुओं की गोलबंदी हुई?

अंत में, इतना तय है कि नतीजे चाहे जो हों, चुनाव में उठे विवादास्पद मुद्दे बिहार को मथते रहेंगे. ये नतीजे न सिर्फ बिहार की राजनीतिक दिशा तय करेंगे बल्कि देश की राजनीतिक दिशा पर भी असर डालेंगे.


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