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जीत के जश्न का गवाह : वीरचंद पटेल पथ

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अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

पटना:हमेशा राजनीतिक कार्यकर्ताओं से गुलज़ार रहने वाला पटना का ‘वीरचंद पटेल पथ’ आज सुनसान है. खामोश है. शायद यह खामोशी 8 नवम्बर को इस सड़क पर आने वाले ‘सुनामी’ के पहले की खामोशी है. 8 नवम्बर को यहां जन-सैलाब उमड़ेगा और पूरे बिहार में आंधी की तरह फैल जाएगा. बिहार में जीत चाहे जिसकी भी हो, लेकिन ‘बिहार की जीत’ के जश्न का गवाह तो इसी सड़क को बनना तय है.


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ज़िला अतिथि गृह से जैसे ही आप आगे बढ़ते हैं. सबसे पहले जदयू कार्यालय नज़र आता है. ऑफिस में तो सन्नाटा ही दिखाई देता है, लेकिन हर तरफ़ रौशनी ज़रूर पसरी हुई है. इसी अतिथि गृह के बाहर आमने-सामने सड़क पर ही पूरी ज़िन्दगी गुज़ारने वाले कई ‘अतिथि’ मिल जाएंगे. 32 साल की रानी देवी बताती हैं कि वह इसी सड़क पर पली-बड़ी हैं. कई सरकारें आईं व गईं, लेकिन उनके ज़िन्दगी पर कोई फ़र्क नहीं पड़ा. अब यह सड़क ही हमारा घर है. हमारी पहचान है.

रानी से पूछने पर कि क्या 8 नवम्बर को जश्न इधर ही मनेगा या जश्न मनाने के लिए आगे जाना पड़ेगा? इस सवाल पर वह मुस्कुराने लगती हैं. उनकी यह मुस्कुराहट खुद-ब-खुद काफी कुछ बता देती है. पूछने पर कि अगर इधर ही जश्न मना तो आपको परेशानी नहीं होगी? क्या आपको अपना बोरिया-बिस्तर समेटना तो नहीं पड़ेगा? तो इस पर वह बताने लगती हैं, ‘यहां बड़ी-बड़ी रैलियां हुई हैं. खूब जश्न मना है. लेकिन हम लोगों को कभी कोई तकलीफ़ नहीं हुई है. उस दिन भी हम लोगों को कहीं जाना नहीं पड़ेगा. बस बोरिया-बिस्तर लेकर साईड पकड़ लूंगी.’


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जदयू कार्यालय से आगे बढ़ने पर राजद का कार्यालय दिखता है. आज यहां भी सन्नाटा ही पसरा हुआ है. रौशनी भी कहीं नज़र नहीं आती. पास में ही 45 साल की सईदा खातुन मिट्टी के चूल्हे बनाकर बेचती हैं. वह बताती है कि कोई जीते, कोई हारे, हम पर कौन सा फ़र्क पड़ने वाला है. हमें तो अपना काम ही करना हैं.

वह बताती हैं वो पास में ही उनका घर हैं. लेकिन रात को ज़्यादातर यहीं रहती हूं. लेकिन अगर नहीं भी रहती हूं तो भी चूल्हे ग़ायब नहीं होते. यहां कभी कोई नुक़सान नहीं पहुंचाता है.


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आगे बढ़ने पर भाजपा का दफ़्तर है. आमतौर यहां हर रोज़ काफी चहल-पहल नज़र आती है. लेकिन आज नज़र नहीं आ रही है. बाहर कुछ गाड़ियां ज़रूर खड़ी थी. अंदर भी नेता इधर-उधर बैठकर राजनीतिक चर्चा करते ज़रूर नज़र आए.

भाजपा दफ़्तर के बग़ल में ही 14 साल का रंजन लिट्ठी व समोसा आदि बेचते हैं. वह बताते हैं कि दूसरी क्लास के बाद पढ़ाई छूट गई. पढ़ाई छूटने की वज़ह पूछने पर वह खामोश हो जाता है. उनकी आंखें नम हो जाती हैं. आगे पूछने पर कि क्या चुनाव में दुकान की बिक्री बढ़ी, इस पर जवाब आता है, ‘भाई! यहां बड़े लोग आते हैं. उन्हें ये कहां से पसंद आएगा.’

जीत के जश्न की दिशा पूछने पर रंजन मुस्कुराने लगता है और फिर आंखों से इशारा करता है कि आगे की तरफ़ ज़्यादा चांस है. दरअसल, रंजन का आगे की तरफ़ का मतलब जदयू व राजद दफ़्तर से था.

यहीं से आगे मुड़ने पर सीपीआई का दफ़्तर भी है और इसी सड़क पर एनसीपी का दफ़्तर भी है. लेकिन यहां कोई जश्न होगा, इसकी संभावना फिलहाल नज़र नहीं आती. लेकिन आस-पास सड़कों पर, चाय की दुकानों पर लोग खड़े होकर चुनावी विश्लेषण करते ज़रूर नज़र आ रहे हैं.

दरअसल, पटना का ‘वीरचंद पटेल पथ’ का बिहार की राजनीति में काफी महत्व है. लोगों को अगर सियासत में क़दम रखना है तो बगैर इस सड़क पर आए कोई नेतागिरी नहीं चलने वाली. इस सड़क ने कई नेताओं को फर्श से अर्श तक पहुंचाने का भी काम किया है, तो नेताओं के अर्श से फर्श पर फिसलने का गवाह भी यही सड़क है.

यह सड़क इतिहास के उस क्षण का भी गवाह है कि जब यहीं लोकनायक जयप्रकाश नारायण पर लाठियां बरसी थी. वर्तमान में 8 नवम्बर को इस सड़क पर जीत का जश्न जमकर मनेगा. लेकिन अभी यह तय नहीं है कि पटाखें पाकिस्तान के साथ बजेंगे या सिर्फ़ अमित शाह ही पटाखें चला पाएंगे. जो भी हो, इन पटाखों की आवाज़ से आगे के विधानसभा चुनावों की हवा भी तय होगी.


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