Quantcast
Channel: TwoCircles.net - हिन्दी
Viewing all articles
Browse latest Browse all 597

और फिर याद आने लगे मुसलमान...

$
0
0

अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

पटना: बिहार-उत्तर प्रदेश में मुस्लिम सबसे मलाईदार वोट बैंकों में से एक रहा है. इस मलाई को काटने के लिए सभी राजनीतिक दलों में होड़ रही है. इस बार बिहार में भाजपा जैसी दक्षिणपंथी पार्टी भी इस खेल का हिस्सा बन चुकी है. मगर बिहार में जिस लिहाज़ से मुसलमानों की वोट-बैंक की हिस्सेदारी है, उस लिहाज़ से सत्ता में उनकी भागीदारी कहीं भी नहीं ठहरती है. न कोई पूछने वाला है और न कोई हिस्सा देने वाला. बल्कि मुसलमान सिर्फ सत्ता पाने का औज़ार भर बनकर रह गया है. बिहार के इस चुनाव में भी वही पुरानी कहानी जमकर दोहराई जा रही है.


.

अभी फिलहाल सिर्फ मुसलमान उम्मीदवारों को टिकट देने की बात करें तो ‘सबका साथ –सबका विकास’ की बात करने वाली पार्टी ने अब तक जारी अपने 153 नामों में सिर्फ 2 सीटों पर ही मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया है. हालांकि पार्टी तमाम सीटों पर मुसलमानों के वोटों को हासिल करने के हर तरह के हथकंडों को अपना ज़रूर रही है.

खुद को मुसलमानों के मसीहा कहलाना पसंद करने वाले रामविलास पासवान की पार्टी ने अब तक अपने 32 उम्मीदवारों के नामों की घोषणा कर दी है. इस सूची से पता चलता है कि सिर्फ 3 सीटों पर ही इस पार्टी ने मुसलमान को अपना उम्मीदवार बनाया है.

वहीं उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी रालोसपा ने भी अब तक अपने 17 उम्मीदवारों के नामों की घोषणा की है. इन 17 नामों में 1 नाम मुसलमान का है. वहीं जीतनराम मांझी की पार्टी हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा ने अपने 21 सीटों में 4 सीटों पर मुस्लिम चेहरे को अपना उम्मीदवार बनाया है और मौजूदा सच तो यह है कि इन चारों उम्मीदवारों के सहारे ही आज मांझी सियासत के मैदान में मज़बूती के साथ खड़े हैं.

इस प्रकार देखें तो एनडीए ने अब तक 223 सीटों के लिए अपने उम्मीदवारों के नामों की घोषणा कर दी है. इन 223 नामों में सिर्फ 10 नाम मुस्लिमों के हैं. अब बात सेक्यूलर कहे जाने वाले जमाअतों की करें तो महागठबंधन अपने 242 नामों की घोषणा कर चुकी है. लालू की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल ने अपने 101 नामों में 16 मुस्लिम नामों को अपना उम्मीदवार बनाया है, वहीं जदयू के 101 नामों में सिर्फ 7 नाम मुसलमान हैं. कांग्रेस के 41 नामों की सूची में 8 नाम मुसलामानों के हैं. यानी महागठबंधन ने कुल 31 मुसलमान उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है यानी प्रतिशत की बात की जाए तो इनका प्रतिशत कुल उम्मीदवारों के मुक़ाबले सिर्फ 12.75 फीसद ही है.

आंकड़ों की बात करें तो 2011 के जनगणना के मुताबिक़ बिहार में मुसलमानों की जनसंख्या 16.87 फ़ीसद है. बिहार में मुसलमानों की जनसंख्या बढ़ रही है, लेकिन उसके विपरीत सत्ता में उनकी भागीदारी लगातार घट रही है.

आंकड़े बताते हैं कि 2001 से 2011 के बीच मुस्लिमों की आबादी 28 फीसदी बढ़ी है. (हिन्दू समुदाय की आबादी भी 24 फीसदी बढ़ी है) यानी बिहार में मुसलमानों की आबादी 1.32 करोड़ से बढ़कर 1.76 करोड़ पंहुच गई है. इस तरह से 10 सालों में 38 लाख मुस्लिम बढ़े हैं. लेकिन सत्ता में भागीदारी घटी है. साल 2000 के\ विधानसभा चुनाव में 20 मुस्लिम नेता विधायक बने थे. फरवरी 2005 में यह संख्या बढ़कर 24 हो गई लेकिन नवंबर 2005 में घटकर 16 पर आ गयी. 2010 में थोड़ी बढ़ोतरी हुई है. 19 मुसलमान चुनाव जीतकर विधायक बने थे. हालांकि 30 सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवार दूसरे स्थान पर रहे थे.\

9 विधानसभा सीटों पर मुसलमानों की आबादी 50 फीसदी से ऊपर है. वहीं 23 सीटों पर मुसलमानों की आबादी 30 फीसदी से उपर है. इसके अलावा 54 सीटों पर इनकी आबादी 16.5 से 25% है. यानी किसी भी पार्टी की जीत में मुस्लिम अहम भूमिका निभा सकते है. तो इस प्रकार यदि बिहार की कुल 243 सीटों का आंकलन करें तो 80 सीटों पर मुस्लिम वोट सीधे-सीधे नतीजों पर असर डालते हैं.

दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के शोध छात्र अभय कुमार बताते हैं, ‘सिर्फ़ बिहार में ही नहीं, बल्कि पूरे देश भर की सेकुलर पार्टियों को सिर्फ़ इनका वोट चाहिए. लेकिन सत्ता में जब भागीदारी की बात आती है तो यही पार्टियां टिकट तक देने में आनाकानी करती हैं. इसके बावजूद मुसलमान ही ऐसा वोट-बैंक है जो पूरी मुस्तैदी के साथ इन सेकुलर पार्टियों की वोट देता है.’

अभय आगे बताते हैं, ‘हैरानी की बात यह है कि देश में ऐसा माहौल बना दिया गया है कि इन सेकुलर पार्टियों के अपने कैडर व जातिगत वोटर्स भी अपने ही पार्टी के मुस्लिम उम्मीदवारों को वोट नहीं देते हैं. लेकिन मुसलमान ऐसा नहीं कर पाता है बल्कि कई बार किसी दूसरी पार्टी के मुस्लिम उम्मीदवार को वोट करने के बजाय इन पार्टियों के उन उम्मीदवारों को ही वोट करता है, जो मुस्लिम नहीं होते हैं.’

बिहार के सामाजिक संगठन ‘मुस्लिम तरक़्क़ी मंच’ के संयोजक सफ़दर अली का कहना है, ‘मुसलमानों के बारे में न तो मुसलमान खुद सोचता है और न ही कोई राजनीतिक पार्टी. ऐसे में यदि कोई मुस्लिम नेता आगे आता है तो उसे साजिशों के तहत ज़मींदोज़ कर दिया जाता है. रही बात बिहार चुनाव की तो महागठबंधन को पता है कि ये मुसलमान जाएगा कहां? हम इन्हें टिकट दें या ना दें पर ये वोट तो हमें ही देंगे. मुसलमानों को चाहिए कि वो अपना नेता पैदा करें जो उनकी बात करेगा.’

हालांकि बिहार में मुस्लिम राजनीति के इतिहास की बात की जाए तो आज़ादी के पहले 1937 में बिहार में पहली सरकार मुस्लिम इंडीपेन्डेंट पार्टी ने बनाई थी, तब बैरिस्टर मोहम्मद यूनुस प्रधानमंत्री (प्रीमियर) बने थे. बल्कि युनूस साहब ही देश के पहले प्रधानमंत्री (प्रीमियर) थे. उस समय प्रधानमंत्री (प्रीमियर) के अधिकार आज के मुख्यमंत्री के बराबर ही थे. आज़ादी के बाद अब्दुल ग़फूर बिहार के मुख्यमंत्री बने. जो अब तक के एकमात्र मुस्लिम मुख्यमंत्री हैं. ग़फ़ूर जुलाई, 1973 से अप्रैल, 1975 तक राज्य के मुख्यमंत्री रहे. 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटा दिया. उनका कार्यकाल कई मायने में राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण था, क्योंकि उन्हीं के कार्यकाल में संपूर्ण क्रांति की शुरुआत हुई थी.

खैर, सच तो यह है कि अब्दुल ग़फूर के बाद से बिहार में राज कर रही चाहे कोई भी पार्टी हो, अगर उसके राज में मुसलमानों को सरकारी नौकरियों व राजनीतिक पदों पर हिस्सेदारी का प्रतिशत निकाला जाए तो आंकड़ें होश उड़ा देते हैं. हैरानी की बात यह है कि ये तमाम राजनीतिक पार्टियां चुनाव जीतने के लिए जिस नींव का सहारा लेती हैं, चुनाव जीतते ही उनका सबसे पहला वार उसी नींव पर होता है.

Related Story:

क्या मुस्लिम तय करेंगे बिहार का विजेता?

‘मुस्लिम इंडिपेंडेंट पार्टी’ ने बनाई थी बिहार में पहली सरकार

हम के 21 प्रत्याशियों की सूची जारी, 4 मुस्लिम उम्मीदवारों को मिला टिकट

मुस्लिम वोटों की हड़बड़ी में उर्दू से खेलते मांझी

'रालोसपा'के कार्यक्रम में वीर अब्दुल हमीद का मज़ाक


Viewing all articles
Browse latest Browse all 597

Latest Images

Trending Articles





Latest Images