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‘आईएस के नाम पर बेगुनाहों को पकड़ने का खेल खेल रही है सरकार’ –रिहाई मंच

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TwoCircles.net News Desk

लखनऊ :रिहाई मंच ने आतंकवाद के नाम पर बरी हुए बेगुनाहों की रिहाई और बरी हुए बेगुनाहों को मुआवजा दिए जाने के सवाल पर अखिलेश सरकार के खिलाफ़ अभियान चलाने का निणर्य लिया है. अभियान का पहला चरण मुलायम सिंह यादव के संसदीय क्षेत्र आज़मगढ़ से 6 फरवरी को शुरू होगा.

रिहाई मंच के अध्यक्ष एडवोकेट मुहम्मद शुऐब ने सपा सरकार पर विधानसभा चुनावों के दौरान जनता से किए गए वादों से मुकर जाने का आरोप लगाते हुए कहा है कि सपा ने वादा किया था कि वह आतंकवाद के नाम पर कैद बेगुनाह मुस्लिम नौजवानों को रिहा कर देगी और अदालतों से बरी हुए युवकों को मुआवज़ा देगी और पुर्नवास कराएगी. लेकिन सपा ने न तो किसी भी बेगुनाह पर से मुक़दमा हटाया और ना ही बरी हुए बेगुनाहों को कोई मुआवज़ा ही दिया. उल्टे सरकार के मंत्री अहमद हसन इस झूठ को फैलाने में लगे हैं कि प्रदेश में एक भी बेगुनाह जेल में नहीं है. जो मुस्लिमों के ज़ख्म पर नमक छिड़कने जैसा है.

मुहम्मद शुऐब ने कहा है कि सपा सरकार केंद्र की मोदी सरकार से गुप्त समझौते के तहत प्रदेश से आईएस के नाम पर बेगुनाहों को पकड़वाने का खेल खेल रही है, ताकि समाज को साम्प्रदायिक आधार पर बांटा जा सके.

रिहाई मंच के अध्यक्ष ने कहा है कि विधानसभा चुनाव क़रीब आते ही फिर से अहमद हसन जैसे कथित मुस्लिम चेहरों को मुलायम सिंह ने मुसलमानों को बरगलाने के लिए मैदान में उतार दिया है. उन्होंने कहा कि यदि प्रदेश में एक भी बेगुनाह मुस्लिम जेल में नहीं है, तो फिर दो दिन पहले ही शामली निवासी इक़बाल आठ साल बाद जेल से कैसे बरी हो गया या फिर पिछले महीने तीन बंगाली मुस्लिम नौजवान लखनऊ जेल से कैसे आठ साल बाद अदालत द्वारा बरी कर दिए गए.

रिहाई मंच द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति में मंच के नेता राजीव यादव ने कहा है कि अहमद हसन जैसे कथित मुस्लिम नेताओं ने ही आज मुस्लिम समाज को सबसे ज्यादा नुक़सान पहुंचाया है. जो अपने समाज की तकलीफों को तो उठाने की हिम्मत नहीं रखते, उस पर नमक ज़रूर छिड़कते हैं.

उन्होंने कहा कि सपा ने इसी तरह मुसलमानों को 18 प्रतिशत आरक्षण देने वादा किया था, लेकिन आज़म खान से लेकर सपा के तमाम मुस्लिम चेहरे आज तक यह नहीं बता पाए कि यह आरक्षण क्यों नहीं दिया गया.

राजीव यादव ने कहा कि समाज में अमन और विकास के लिए ज़रूरी है कि समाज के कमजोर तबकों के साथ सरकार खड़ी दिखे. लेकिन सपा सरकार यादव सिंह जैसे महाभ्रष्ट अधिकारियों के साथ खड़ी दिखती है. ऐसे में ज़रूरी हो जाता है कि जनता प्रदेश से सपा जैसी अपराधियों, दंगाईयों और भ्रष्टाचारियों की सरकार की अंतिम विदाई की तैयारी शुरू कर दे.

उन्होंने कहा कि आतंकवाद के नाम पर फंसाए गए बेगुनाहों के छोड़े जाने और बरी हुए बेगुनाहों के मुआवज़े के सवाल पर सपा की वादा-खिलाफ़ी के खिलाफ़ रिहाई मंच 6 फरवरी से प्रदेश व्यापी अभियान का पहला चरण मुलायम सिंह यादव के संसदीय क्षेत्र आज़मगढ़ से शुरू करेगा. जिसके तहत 7 फरवरी को इलाहाबाद और 8 फरवरी को जौनपुर समेत पूरे पूर्वांचल में सभाएं और बैठकें की जाएंगी.


नीतिश सरकार अपने निज़ाम को कलंकित होने से बचाएं –भाकपा

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TwoCircles News Desk

पटना :ख़बर है कि विगत 28 जनवरी, 2016 को खगडि़या ज़िले के राहुलनगर दमहा गांव में बसे महादलित परिवारों के घरों पर दल-बल के साथ हमला बोलकर यहां के पूर्व बाहुबली विधायक के गुर्गों ने मुशहर जाति के दर्जनों महादलित परिवारों के घर उजाड़ दिए और अंधाधुंध फायरिंग की. आरोप है कि महिलाओं के साथ आपत्तिजनक एवं अश्लील व्यवहार भी किया गया.

इस घटना पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव सत्य नारायण सिंह एक प्रेस विज्ञप्ति जारी करते हुए कहा है कि –‘यह अत्यंत ही खेद की बात है कि महागठबंधन की सरकार उक्त गांव के दर्जनों महादलित परिवारों को आतंकित कर बेघर कर देने की दबंग, बाहुबली पूर्व विधायक रणवीर यादव और उनकी पत्नी वर्तमान विधायिका पूनम देवी यादव के आपराधिक कृत्य पर कठोर कार्रवाई करने और बेघरों की घर वापसी सुनिश्चित करने के मामले में कान में तेल डालकर बैठी हुई है.’

स्पष्ट रहे कि 30 जनवरी को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के एक जाँच दल ने उक्त गांव का निरीक्षण करने के क्रम में पाया कि बहादुर सदा, शिवम सदा, दामोदर सदा, जर्मन सदा, अरूण सदा, बूटन सदा, राजकुमार ठाकुर, फुलो सिंह, नेपोशर्मा के फूस के घर दरिंदों ने उजाड़ दिए. ये सभी लोग 1992 से ही वहां घर बनाकर रह रहे थे. जब भाकपा ने उस गांव को बसाया था और उसे तबसे राहुल नगर के रूप में जाना जाता है.

भाकपा नेता ने पूरी स्थिति का जायज़ा लेकर पटना लौटने के बाद प्रेस विज्ञिप्ति जारी कर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को क़ानून का राज क़ायम करने के साथ सुशासन और महादलितों को न्याय दिलाने के वादों की याद दिलाते हुए मांग की है कि –‘बेघर महादलित परिवारों को अविलंब उनके घर वापस दिलाने, क्षतिपूर्ति करने के साथ-साथ बाहुबली रणवीर यादव एवं उनके गुर्गों पर हरिजन उत्पीड़न एक्ट के तहत मामला दर्ज कर उन्हें सज़ा देने की न्यायपूर्ण कार्रवाई कर अपने निज़ाम को कलंकित होने से बचाएं और खौफ़ के माहौल से दबे कुचले समूह को सुरक्षा प्रदान करे.’

क्या आबिदा की ज़िन्दगी में सुकून लौट पाएगा?

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Saleem Ansari for TwoCircles.net

मुज़फ़्फ़रनगर : 40 साल की आबिदा ने अपनी पूरी ज़िन्दगी में स्कूल का कभी मुंह तक नहीं देखा. अनपढ़ मोमिन से शादी हुई. जैसे-तैसे मोमिन ईंट भट्टे पर मजदूरी करके अपनी ज़िन्दगी को खींच रहे थे.

लगातार मेहनत से सेहत ख़राब हो गई. इस दौरान मोमिन 5 बच्चों के पिता बने. बीमारी बढ़ती गयी. इलाज़ चलता रहा. डॉक्टर ने बताया कि दोनों फेफड़े ख़राब हो गए हैं. आख़िरकार अपनी पत्नी और बच्चों को क़र्ज़ में छोड़ कर 4 साल पहले मोमिन अल्लाह को प्यारे हो चलें.

Muzaffarnagar

हेवा गांव, बागपत में छोटा सा घर था उनका. 8 सितंबर 2013 को इस क्षेत्र में नफ़रत का ज़लज़ला आया. जिसने इस इलाक़े की तहज़ीब को तहस-नहस कर दिया.

ज़हरीली हवा की लपटें गांव हेवा तक पहुंची. दहशतज़दा आबिदा अपने बच्चों को लेकर लगातार भटकती रही. किसी तरह से जोला कालोनी, इमदाद नगर, मुज़फ्फर नगर में इनके-उनके घर रहकर अब अपने ज़िन्दगी के बाक़ी बचे दिन काट रही हैं. उनकी बदनसीब ज़िन्दगी उनको और ज्यादा रुला रही है.

ये कितना दिलचस्प है कि मुज़फ्फ़रनगर सांप्रदायिक हिंसा पर खूब सियासत हुई. पक्ष-विपक्ष के कोरे आश्वासन हवा में तैरते रहे. देश-विदेश के अख़बारों ने सुर्खी बटोरी. टीवी से लेकर प्रिंट व ऑनलाईन मीडिया, सभी मुज़फ्फ़रनगर के अखाड़ा बने थे.

उससे गंभीर व चिंतनीय बात यह है कि सामाजिक संगठनों ने रिपोर्ट लिखकर दुबारा यहां आना मुनासिब नहीं समझा. मुद्दों की तपिश कम हुई, कैमरे का आकर्षण ठप हो गया. तो सियासतदानों से लेकर सामाजिक संगठनों तक अब कहाँ किसे फुर्सत है?

अब कौन विधवा आबिदा का दुःख दर्द बांटे. तीन बेटियों और दो बेटों की मां आबिदा का कोई सहारा नही है. न घर है न राशन कार्ड. छोटा बेटा अरस डेढ़ महीने पहले बिजली की चपेट में आकर झुलस गया है.

बुढ़ाना जाकर किसी तरह इलाज हो रहा है. आबिदा को कभी-कभार किसी के घर 40-50 रूपये की मजदूरी मिल जाती है. सभी बच्चे मदरसे पढ़ने तो जाते हैं. शाम को घर आते हैं, लेकिन उन्हें यह नहीं पता की माँ खाना क्या बनाएगी? या पकाएगी खुद को? क्या आबिदा की ज़िन्दगी में सुकून लौट पाएगा? सभ्य समाज के सामने बड़ा सवाल है.

ज़रा आप एक बार सोचिएगा कि क्या हक़ीक़त में आपको अभी भी मुज़फ़्फ़रनगर के दंगे व कैम्पों में रहने वाले लोग याद हैं? कभी नफ़रत की इस आंधी में बर्बाद हुए बेघर लोगों के बारे में कभी सोचा? या आपने भी उर्दू अख़बारों के उन ख़बरों यक़ीन करके चैन की नींद सो रहे हैं, जिनमें हमारे विभिन्न मिल्ली व समाजी तंज़ीमों ने हज़ारों घर बांटने की ख़बर दी थी....

(लेखक सलीम अंसारी, खेडा मस्तान, मुज़फ्फ़रनगर में जन्मे हैं. इंटरमीडीएट के बाद जिला आईटीआई से एलेक्ट्रेशियन में डिप्लोमा हैं. इन दिनों हाशिए के समाज को अधिकार दिलाने में जी जान से जुटे हैं और मिसाल नेटवर्क का हिस्सा हैं. उनसे 09761197617, saleemansari9761@gmail.comपर संपर्क कर सकते हैं.)

हाशिम अंसारी के मौत की अफ़वाह, हालत में पहले से सुधार

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TwoCircles.net News Desk

पिछले 67 सालों से बाबरी मस्जिद मामले की पैरवी कर रहे मुख्य मुद्दई हाशिम अंसारी की मौत की अफ़वाह सोशल मीडिया में फैलाई गई है, हालांकि यह ख़बर पूरी तरह से ग़लत है. बल्कि उनके परिवार से जुड़े लोगों का कहना है कि उनकी सेहत में पहले से काफी सुधार हुआ है. वो अब लोगों से बात कर पा रहे हैं.

Hashim Ansari

स्पष्ट रहे कि 96 साल के हाशिम अंसारी को शनिवार सुबह नाश्ता करने के बाद सीने में अचानक तेज़ दर्द हुआ. इसके बाद घर के लोगों ने उन्हें पास के श्रीराम चिकित्सालय में भर्ती कराया. हालत गंभीर होने पर उन्हें फैज़ाबाद ज़िला अस्पताल के लिए रेफ़र किया गया. हालत में सुधार न होने पर डॉक्टरों ने उन्हें लखनऊ के लिए रेफ़र कर दिया. लखनऊ में उन्हें किंग जॉर्ज मेडिकल विश्वविद्यालय (केजीएमयू) के आईसीयू में उनका इलाज चल रहा है. डॉक्टरों के मुताबिक़ उनके हालत में काफी सुधार आया है.

हाशिम के बेटे इक़बाल अंसारी के मुताबिक़ उनके पिता हाशिम अंसारी को दिल की बीमारी के चलते क़रीब 6 महीने पहले लखनऊ के लॉरी हॉस्पिटल में इलाज कराया गया था. इसके बाद से उन्हें नियमित रूप से दवाएं दी जा रही है.

हाशिम का परिवार कई पीढ़ियों से अयोध्या में रह रहा है. वो 1921 में पैदा हुए. 11 साल की उम्र में सन् 1932 में उनके पिता का देहांत हो गया.

हाशिम अंसारी ने सिर्फ दूसरी जमात तक पढ़ाई की. फिर सिलाई यानी दर्जी का कम करने लगे. यहीं पड़ोस में फैज़ाबाद में उनकी शादी हुई. उनके दो बच्चे हैं. एक बेटा और एक बेटी.

6 दिसंबर, 1992 के बलवे में बाहर से आए दंगाइयों ने उनका घर जला दिया, पर अयोध्या के हिंदुओं ने उन्हें और उनके परिवार को बचाया.

हाशिम अंसारी 1949 से बाबरी मस्जिद की पैरवी कर रहे हैं. 1961 में जब सुन्नी वक्फ़ बोर्ड ने मुक़दमा किया तो उसमें भी हाशिम एक मुद्दई बने. पुलिस प्रशासन की सूची में नाम होने की वजह से 1975 की इमरजेंसी में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और आठ महीने तक बरेली सेंट्रल जेल में रखे गए.

हाशिम अंसारी फिलहाल मौत से जंग लड़ रहे हैं. हालांकि 2010 में बीबीसी के साथ एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था –‘मैं फ़ैसले का भी इंतज़ार कर रहा हूँ और मौत का भी... लेकिन यह चाहता हूँ मौत से पहले फ़ैसला देख लूँ.’ ऐसे में अब देखना दिलचस्प होगा कि मौत पहले आती है या बाबरी मस्जिद का फैसला....

निदा फाज़ली उर्फ़ 'मुझे मालूम था तुम मर नही सकते'

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By सिद्धांत मोहन, TwoCircles.net

वाराणसी: निदा फाज़ली नहीं रहे. वही निदा जिन्होंने 'होश वालों को ख़बर क्या बेख़ुदी क्या चीज़ है'और 'तू इस तरह से मेरी ज़िन्दगी में शामिल है'जैसी नज्में और गज़लें लिखकर भारतीय सिनेमा को एक फूहड़ता से बचा रखा था. वही निदा जिनकी ग़ज़लों पर जगजीत सिंह रीझे रहते थे. वही निदा जिन्होंने कलबुर्गी की ह्त्या पर नज़्म लिखकर अपना विरोध जताया. वही निदा जिन्होंने कहा कि अब देश में सच बोलने पर मार दिए जाने का भय होता है.


NIDA

हाँ, वही निदा जिन्होंने अपनी आख़िरी सांस तक लिखा.

दिल्ली के एक कश्मीरी परिवार में पैदा हुए निदा ग्वालियर में पढ़े. विभाजन के समय उनके परिजन पाकिस्तान जा बसे, लेकिन निदा नहीं गए. पढ़ाई की और मुंबई आ गए. पत्रिकाओं के लिखा तो कमाल अमरोही की नज़र उन पर पड़ी और निदा फाज़ली को सबके सामने ला खड़ा किया. आज 78 वर्ष की आयु में हार्ट अटैक के चलते निदा फाज़ली चल बसे.

ज्यादा न कहते हुए उन्हीं की इस नज़्म से निदा को याद करें तो बेहतर...

तुम्हारी क़ब्र पर मैं
फ़ातिहा पढ़ने नही आया,

मुझे मालूम था, तुम मर नही सकते
तुम्हारी मौत की सच्ची खबर
जिसने उड़ाई थी, वो झूठा था,
वो तुम कब थे?
कोई सूखा हुआ पत्ता, हवा में गिर के टूटा था

मेरी आँखे
तुम्हारी मंज़रो मे कैद है अब तक
मैं जो भी देखता हूँ, सोचता हूँ
वो, वही है
जो तुम्हारी नेकनामी और बदनामी की दुनिया थी

कहीं कुछ भी नहीं बदला,
तुम्हारे हाथ मेरी उंगलियों में सांस लेते हैं,
मैं लिखने के लिये जब भी क़ागज़ क़लम उठाता हूं,
तुम्हें बैठा हुआ मैं अपनी कुर्सी में पाता हूं

बदन में मेरे जितना भी लहू है,
वो तुम्हारी लगजिशों नाकामियों के साथ बहता है,
मेरी आवाज़ में छिपकर तुम्हारा जेहन रहता है,
मेरी बीमारियों में तुम मेरी लाचारियों में तुम

तुम्हारी क़ब्र पर जिसने तुम्हारा नाम लिखा है,
वो झूठा है, वो झूठा है, वो झूठा है,
तुम्हारी क़ब्र में मैं दफ़न तुम मुझमें जिन्दा हो,
कभी फुरसत मिले तो फ़ातिहा पढ़ने चले आना

‘IMRC की ‘ग्रेन्स फॉर ग्रैनीज़’ कार्यक्रम : ताकि कोई भी ग़रीब व बुजुर्ग महिला भूखी न सोए...

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TwoCircles.net Staff Reporter

हैदराबाद : 70 की उम्र पार कर चुकी क़ासिम बी अब बिस्तर से उठ नहीं सकती हैं, बल्कि वे अपने हाथ पैर भी नहीं हिला सकतीं. उनके शौहर और बेटे का इंतक़ाल कुछ सालों पहले हो गया. वे अब अपने पोते के परिवार के साथ नम्पाली के एक छोटे से घर में रहती हैं. पेशे से उनका पोता ऑटो-रिक्शा चलाता है.

बहादुरपुर की 35 साला विधवा साजिदा बेगम की कहानी भी परेशान करने वाली है. लकवाग्रस्त साजिदा अपने भाई के परिवार के साथ रहती हैं. वहीं दूसरी ओर 65 साला खैरुन्निसा के पास अब कोई नहीं है. वे अपनी ज़िन्दगी के बाक़ी बचे दिन अकेले ही काट रही हैं.

IMRC

इस देश में क़ासिम बी, साजिदा और खैरुन्निसा जैसी कई औरतें हैं, जिनके पास कमाई का कोई रास्ता नहीं है. उनके लिए दो वक़्त की रोटी भी जुटा पाना किसी जंग से कम नहीं. ऐसे में ‘इन्डियन मुस्लिम रिलीफ़ एंड चैरिटीज़’ यानी IMRC इन ग़रीब, बूढ़ी और बेसहारा महिलाओं के लिए किसी सूरज के किरण से कम नहीं है.

अमेरिका स्थित इस सामाजिक संस्था ने हैदराबाद के ‘सहायता ट्रस्ट’ के साथ मिलकर ‘ग्रेन्स फॉर ग्रैनीज़’ नाम से एक कार्यक्रम की शुरूआत की है. जिसके तहत समाज के ऐसे गरीब, बूढ़ी और बेसहारा औरतों को रसद दिए जाते हैं, जिनके पास आजीविका और दो वक़्त की रोटी के साधन या तो बेहद कम हैं या नहीं हैं.

IMRC

हैदराबाद के बेहद ग़रीब आबादी वाले मुहल्लों जैसे हफ़ीज़ बाबा नगर, नम्पाली, बहादुरपुर, नया आगापुर, अफ़ज़ल सागर, मूसा नगर, नटराज नगर और अन्य कई क्षेत्रों में स्थानीय सहायकों और कार्यकर्ताओं के सहयोग से ‘सहायता ट्रस्ट’ और IMRC लगभग 1500 परिवार चिन्हित कर उनमें राशन का आवंटन किया है.

इस कार्यक्रम की सबसे ख़ास बात यह नहीं है कि इन बेसहारा महिलाओं को हर माह राशन दिया जा रहा है. बल्कि यह है कि अनाज, मसाले, खाने का तेल और ज़रूरत के अन्य सामान खरीदे जाने के बाद इन महिलाओं को 33 किलो के भार में बराबर-बराबर दे दिए जाते हैं.

IMRC

सहयता ट्रस्ट के मैनेजर वाहिद कुरैशी कहते हैं कि -‘हमने कई बार देखा है कि राशन और कपड़ों के लिए बांटे गए पैसे या तो लोग बर्बाद कर देते हैं या उनके दूसरे बेमक़सद के ज़रूरत में खर्च हो जाते हैं. ऐसे में हमने सोचा कि परिवार की सबसे बड़ी महिला को राशन का सामान दे दिया जाए ताकि वे परिवार के अन्य सदस्यों को किसी भार की तरह न लगें.’

क़ासिम बी की पोती बी पाशा बेगम इन दोनों संस्थाओं का शुक्रिया अदा करते हुए बताती हैं -‘पहले सारा बचाया पैसा महीने के राशन में ही खर्च हो जाता था, लेकिन अब राशन मिल जाने के बाद अन्य कामों के लिए भी पैसा बच जाता है. इस तरह से यह कार्यक्रम हम लोगों के लिए एक वरदान है.’

IMRC के निदेशक मंज़ूर घोरी बताते हैं कि -‘इस कार्यक्रम को हम लोगों ने 2015 के मार्च महीने में इस उद्देश्य के साथ शुरू किया था कि कोई भी अशक्त और बूढ़ी महिला भूखी न सोए और न ही अपने परिवार पर किसी भी तरह से बोझ बने.’

कार्यक्रम के भविष्य के बारे में बताते हुए मंज़ूर साहब कहते हैं, -‘हमने शुरुआत बेहद छोटे स्तर पर की थी, लेकिन अब इसे देश के अन्य इलाक़ों में भी पहुंचाने की योजना है.’

स्पष्ट रहे कि ‘इन्डियन मुस्लिम रिलीफ़ एंड चैरिटीज़’ यानी IMRC की नींव साल 1981 में रखी गयी थी. तब से लेकर आज तक अमरीका की यह चैरिटेबल संस्था अन्य लगभग 100 संस्थाओं के साथ मिलकर देश के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में कई किस्म के कार्यक्रम चला रही है.
संस्था का उद्देश्य ज़रूरतमंद तबके को शिक्षा, आपातकालीन सेवाएं, स्वास्थ्य व न्यायसम्बंधी ज़रूरतें, खाना और छत की ज़रूरतें मुहैया कराना है. असम दंगे 2012, मुज़फ्फ़रनगर दंगे 2013, 2014 की कश्मीर बाढ़ और 2015 की चेन्नई बाढ़ के वक़्त संस्था ने घरों-घरों तक जाकर लोगों को ज़रूरी सेवाएं प्रदान की हैं.

यदि आप भी IMRC केए इस मुहिम का हिस्सा बनना चाहते हैं तो imrcusa.org पर संस्था से जुड़ सकते हैं.

गुपलापुर: जहां सरकारी योजनाएं सफ़ेद हाथी की तरह हैं!

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Mohammad Aijaz for TwoCircles.net

बरेली :उत्तरप्रदेश की अखिलेश सरकार वर्ष 2016 को 'किसान वर्ष'के रूप में मना रही है. अखिलेश यादव का मानना है कि –‘प्रदेश और देश का विकास तब तक संभव नहीं है, जब तक कृषि को बढ़ावा नहीं दिया जाएगा और किसानों की खुशहाली के बिना देश खुशहाल नहीं हो सकता.’

अखिलेश यादव के इसी विचार को ध्यान में रखकर सरकार पिछले वित्तीय वर्ष में किसानों के लिए कई कार्यक्रमों व स्कीमों की शुरूआत की. लेकिन बरेली का गुपलापुर गांव की बदहाली बता रही है कि सरकार की कोई यहां पहुंचने में कामयाब नहीं हो सकी है. किसान यहां दम तोड़ने पर मजबूर हैं. यानी ‘किसान वर्ष’ की आत्मा 'किसानों की खुशहाली'सिर्फ़ सरकारी विज्ञापनों तक सीमित नज़र आ रही है.

गुपलापुर के किसान कहते हैं कि उन्हें सरकार के किसी योजना का न तो लाभ मिला है और न ही इसके बारे में कोई ठोस जानकारी है. बदहाली की दास्तान समेटे कई किसान अपना दर्द साझा करते हुए रो पड़ते हैं. उनका स्पष्ट कहना है कि –‘आख़िर हम किसान करे तो क्या करें?’

Guplapur

सरकारी योजनाओं से महरूम 51 वर्षीय किसान महमूद बताते हैं कि –‘हम चार भाई हैं. सब मिलाकर हमारी पुश्तैनी ज़मीन लगभग 18 बीघा है. यानी हमारे हिस्से में तक़रीबन 6 बीघा ज़मीन आई है. पर इतनी ज़मीन होने के बावजूद आज की महंगाई ने हमें बेदम कर दिया है. समझ नहीं आता कि चार बच्चों के पढ़ाई की फीस कहां से लाएं?’

वो आगे कहते हैं कि –‘कहने को तो सरकार ने हमारे लिए कई स्कीमें चला रखी हैं, लेकिन सकार के किसी भी स्कीम के तहत हमें खेती-बाड़ी के नाम पर एक फूटी कौड़ी भी नहीं मिली है.’

इस गांव के तक़रीबन सारे किसानों की हालत महमूद जैसा ही है. बल्कि कुछ तो ऐसे हैं कि उन्हें अकेले छोड़ दिया जाए तो शायद वो ज़रूर आत्महत्या कर लें.

दरअसल, गुपलापुर गांव बरेली ज़िले के उत्तर दिशा में मुख्यालय से 14 किमी दूर भोजीपुरा ब्लाक के अंतर्गत आता है. इस गांव में तक़रीबन 221 है. यहां के 60 फीसदी लोग भूमिहीन हैं, जो मजदूरी पर आश्रित हैं.

सरकारी योजनाओं का आलम यह है कि वो यहां तक पहुँचने से पहले ही दम तोड़ देती हैं. बल्कि सच तो यह है कि सरकार कागज़ों व विज्ञापनों में चाहे जितनी बड़ी-बड़ी स्कीमें बना ले, लेकिन उनकी स्कीमें आज भी गांव तक नहीं पहुंच पा रही है. गुपलापुर के लोगों में भी सरकारी स्कीमों की कोई जानकारी नहीं है.

गुपलापुर सहित सूबे में आज तक एक भी किसान मित्र भी सरकार नहीं रख पाई है. इससे ‘किसान वर्ष’ की नब्ज़ को आंका जा सकता है.

दूसरी तरफ़ इस गांव के विकास के स्थिति का अंदाज़ा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि यहां 50 फ़ीसदी से अधिक लोगों के पास राशन कार्ड नहीं है. गांव के 80 फिसद से अधिक लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं, उसके बावजूद यहां के बीपीएल कार्ड क्या होता है, शायद किसी को मालूम हो. सरकार की अनदेखी का आलम तो यह है कि यहां खेती बाड़ी के लिए लगा सरकारी नलकूप भी पिछले डेढ़ सालों से ख़राब पड़ा हैं.

यानी सूबे के मुखिया का 'किसान वर्ष'के खुशहाली की हवा यहाँ नहीं बह पा रही है. ऐसे में सवाल उठता है कि बेहतर उत्पादकता के लिए, प्रमाणित बीजों के लिए, खादों के भंडारण के लिए, मुफ्त सिंचाई के लिए, कृषि दुघर्टना के लिए, कृषि विकास के लिए जारी बजट आखिर कहां चला गया?

और सबसे ज़रुरी सवाल जो सतह पर उभर कर सामने आता है कि यहां पर तमाम सरकारी योजनाएं सफ़ेद हाथी की तरह हैं?

(लेखक मोहम्मद एजाज़ ने बरेली में जन अधिकारों की समर्पित मुहिम का हिस्सा हैं. फिलहाल मिसाल नेटवर्क से जुड़े हैं.)

पढ़िए! मोदी से मुलाक़ात के बाद क्या कह रहे हैं शाही इमाम?

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TwoCircles.net Staff Reporter

दिल्ली जामा मस्जिद के शाही इमाम सैय्यद अहमद बुखारी ने सोमवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की और हाल ही में आईएसआईएस से संबंध के आरोप में हो रही मुस्लिम नौजवानों की गिरफ्तारियों पर चिंता प्रकट की. TwoCircles.net ने इमाम बुखारी से इस मुलाक़ात के बाद बातचीत की. पेश है इस बातचीत का प्रमुख अंश:

Imam Bukhari. (Photo By Afroz Alam Sahil)

क्यों मिले पीएम से?

वो मुल्क़ के सरबराह हैं. इसलिए मिला. जामिया व एएमयू के अल्पसंख्यक किरदार के मसले पर बात की. आईएसआईएस से संबंध रखने के आरोप में पकड़े जा रहे युवकों के मसले पर बात की.

इमाम बुखारी का कहना है कि वो बजट सेशन के बाद अलीगढ़ और जामिया के मसले को लेकर फिर से एक डेलीगेशन के साथ पीएम मोदी से मुलाक़ात करेंगे.

पीएम मोदी ने क्या कहा?

आईएसआईएस के चंगुल में फंसे युवाओं की काउंसलिंग के मेरे प्रोपोजल से इत्तिफ़ाक़ व्यक्त किया. जामिया और अलीगढ़ के मसले पर गौर करने की बात की.

कैसा लगा पीएम का रुख?

पीएम ने गौर से सारी बातें सुनी. हम उन पर रद्दो-अमल का इंतज़ार करेंगे.

बेटे की ताजपोशी में न्योता नहीं दिया और अब मिलने चले गए?
वो मसला मज़हबी था. अब मसला मुसलमानों के मसाइल का है. देश का है.

क्या दूसरी मुस्लिम तंजीमों को भी मोदी से मिलना चाहिए?

दूसरी तन्जीमों की बात मैं नहीं जानता. पर मुल्क़ के प्रधानमंत्री से सभी को बात करनी चाहिए.

क्या बीजेपी का समर्थन कर सकते हैं यूपी में?

अभी इस पर कुछ नहीं कहेंगे. पर समाजवादी सरकार मुसलमानों से किये वादे पूरे करने में नाकाम रही है.

आज़म का बयान, दाऊद से मिले मोदी... इस पर आप क्या कहना चाहेंगे?

आज़म बेहूदे ब्यान देता है. मुसलमानों का दुश्मन है. मुलायम को चाहिए उसे कान पकड़कर बाहर कर दें.


निदा फ़ाज़ली, जिसकी कविता भी जैसे कोई जादू

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महेंद्र कुमार 'सानी'

हालांकि किसी शायर को शहर का शायर, गांव का शायर या जनता का शायर जैसे खानों में विभाजित करना शायर के साथ अन्याय होगा. लेकिन समाज जब ख़ुद किसी शायर को अपना शायर कहने लगे तो ये किसी शायर के लिये सौभाग्य और सम्मान की बात होगी. 12 अक्टूबर 1938 को दिल्ली में जन्मे निदा फ़ाज़ली को समस्त हिन्दोस्तान की जनता ने स्वतः ही ये ख़िताब दिया है. विभाजन के बाद उनका परिवार पाकिस्तान हिज्रत कर गया मगर निदा फ़ाज़ली ने हिन्दोस्तान में ही रहना पसंद किया. ग्वालियर कॉलेज से M.A. किया और रोज़गार की तलाश में 1964 में मुम्बई चले आये.

निदा फ़ाज़ली, जिसकी कविता भी जैसे कोई जादू

धर्मयुग में लिखा तो कभी blitz जैसी पत्रिकाओं में, मगर मुम्बई में एक अरसा सर्दो-गर्म झेलने के बाद जाकर कहीं कमाल अमरोही की फ़िल्म 'रज़िया सुल्तान'में गीत लिखने का काम मिला. गीत मशहूर हुए तो निदा फ़ाज़ली की भी मकबूलियत बढ़ी. “लफ़्ज़ों का पुल” पहला कविता संग्रह 1969 में छपा. साहिर लुधियानवी, शकील बदायूँनी, मजरूह सुल्तानपुरी जैसे प्रतिष्ठित शायर-गीतकारों के साथ उनके सम्बन्ध रहे. अपनी मिलनसारिता और ज़िंदादिली से सब का दिल जीत लेने वाले निदा की कविता आम आदमी के दुःख दर्द की आवाज़ बन जाती है. कबीर और नज़ीर की तरह कविता में लोक रचने के लिए हमें एक विशिष्ट भाषा की ज़रुरत होगी मगर निदा इनफार्मेशन के स्तर तक उतर चुकी भाषा से अपनी कविता में वह लोक रचते हैं जिसमें रस और ज्ञान दोनों समाहित रहते हैं.

मुंह की बात सुने हर कोई, दिल के दर्द को जाने कौन
आवाजों के बाजारों में, ख़ामोशी पहचाने कौन

साम्प्रदायिक सद्भावना से पगी हुई उनकी कविता किसी तत्वज्ञानी फ़क़ीर की सदा बन गयी है.

पंछी मानव, फूल, जल, अलग-अलग आकार
माटी का घर एक ही, सारे रिश्तेदार

इंसान को कोई भी सरहद नहीं बाँट सकती. एक तरफ जहाँ निदा फ़ाज़ली हिन्दोस्तान में बसते हैं तो दूसरी तरफ उनका दिल सरहद पार के लोगों के लिये दुआएं करता रहता है.

हिन्दू भी मज़े में है मुसलमां भी मज़े में
इंसान परेशान यहाँ भी है वहां भी

उनका जीवन और उनकी कविता दो अलग-अलग चीज़ें कभी नहीं रही हैं. उन्होंने जैसा जिया वैसा रचा. वह चाहे फ़िल्मी गीत हों या ख़ालिस साहित्यिक रचनाएँ हों सब में अपनी अनुभूति की छाप छोड़ते नज़र आये हैं. प्रेम और करुणा उनकी दृष्टि है.

होश वालों को ख़बर क्या बेख़ुदी क्या चीज़ है
इश्क़ कीजे फिर समझिये ज़िन्दगी क्या चीज़ है

अपनी कविता में उन्होंने उर्दू और हिन्दी की भाषाई दीवार ही गिरा दी है. निदा फ़ाज़ली संभवत: उर्दू के अकेले ऐसे लेखक हैं जिनकी रचना को उर्दू या हिंदी किसी भी भाषा में ज्यों का त्यों रखा जा सकता है.

सीधा सादा डाकिया, जादू करे महान
एक ही थैले में भरे आंसू और मुस्कान

निदा फ़ाज़ली की कविता भी जैसे कोई जादू है. सुनने व पढ़ने वालों के दिलों पर एक जैसा असर करती है.
एक बात जो मुझे उनके हवाले से सदा हैरान करती रही कि वे इतनी ऊर्जा कहाँ से लाते थे? हिन्दोस्तान, पाकिस्तान और बेरूनी मुमालिक में छपने वाले हर अच्छे रिसाले में उनका ताज़ा कलाम पढ़ने को मिलता है. हाल ही में जयपुर से छपने वाले उर्दू रिसाले “इस्तफ़सार” में उनकी कवितायेँ पढ़ीं जो आज भी उतनी ही प्रभावशाली हैं जितनी “खोया हुआ सा कुछ” की कवितायें.

1999 में कविता संग्रह “खोया हुआ सा कुछ” के लिए साहित्य अकादमी अवार्ड से सम्मानित हुए. 2013 में भारत सरकार की तरफ से “पद्म श्री” से नवाज़े गए. उनकी जीवनी के दो खंड “दीवारों के बीच” और “दीवारों के बाहर” उनकी अपनी ज़िन्दगी, साहित्य और सामाजिक परिवेश का महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ हैं. मुलाकातें (ख़ाके), आँखों भर आकाश (शायरी), आँख और ख्व़ाब के दरमियाँ (शायरी) शह्र में गाँव (शायरी) उनकी कुछ अन्य चर्चित किताबें हैं.

जगजीत सिंह और उनकी दोस्ती बहुत गहरी थी. जगजीत सिंह की आवाज़ में गाई गईं उनकी ग़ज़लें लोगों के दिलो-ज़ेहन में हमेशा ज़िन्दा रहेंगी. क्या संयोग है जब जगजीत सिंह का जन्मदिन मनाया जा रहा है, जब जगजीत सिंह को लोग निदा फ़ाज़ली की ग़ज़लों के हवाले से याद कर रहे होंगे ठीक उसी दिन निदा फ़ाज़ली को याद करेंगे मगर किसी और हवाले से.

निदा ने ही कहा है -

“दुनिया जिसे कहते हैं, जादू का खिलौना है”

[महेंद्र कुमार 'सानी'उर्दू के अध्येता हैं. पंचकूला, हरियाणा में रहते हैं. उनसे kumar.mahender07@gmail.comपर संपर्क किया जा सकता है.]

मोदी ने चुकाई दवा कम्पनियों के चंदे की क़ीमत!

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Afroz Alam Sahil, TwoCircles.net

ज़िन्दगी बचाने वाली दवाओं के दाम भी मोदी राज में सिर चढ़कर बोल रहे हैं. हैरानी की बात है कि जिन दवाओं की क़ीमत बेहद सस्ती होनी चाहिए, उनमें भी लगातार इज़ाफ़ा दर इज़ाफ़ा होता जा रहा है.

एक ख़बर के मुताबिक़ मोदी सरकार ने पिछले हफ्ते 74 दवाओं पर आयात शुल्क में छूट ख़त्म करने का फैसला किया है. इनमें जीवन रक्षक दवाओं के साथ कैंसर और डायबिटीज की दवाएं भी शामिल हैं.

इस नए आदेश के मुताबिक़ कैंसर और जीवन रक्षक दवाओं पर 22% शुल्क लगेगा. विश्लेषकों की माने तो इससे दवाएं 22 से 35% तक महंगी हो जाएंगी. जबकि इससे पूर्व की यूपीए सरकार ने 2013 में ‘नई ड्रग प्राइस कंट्रोल ऑर्डर’ को लागू किया था, जिससे उम्मीद की गई थी कि अब 348 जीवन रक्षक दवाओं की कीमत 80 फीसदी घट जाएगी. कैंसर और एंटिबायोटिक दवाएं भी 50 से 80 फीसदी सस्ती हो जाएंगी. कुछ दवाएं सस्ती भी हुईं. लेकिन वर्तमान मोदी सरकार में दवाओं की क़ीमतों में खूब इज़ाफ़ा हो रहा है.

यह इज़ाफ़ा उस सरकार के दौर में हो रहा है, जो गरीबों के उत्थान के मक़सद से आई थी. जबकि पीएम मोदी यह सच्चाई जानते हैं कि महंगी दवाओं के कारण देश के करोड़ों लोग हर साल गरीबी रेखा के नीचे जा रहे हैं.

रिसर्च एजेंसी अर्नेस्ट एंड यंग व भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग महासंघ (फिक्की) की ओर से कुछ सालों पहले जारी की गई एक रिपोर्ट बताती है कि देश की बीमार स्वास्थ्य व्यवस्था प्रत्येक साल तीन करोड़ साठ लाख लोगों को गरीब बना रही है.

2008 में किए गए एक अध्ययन के आधार पर जारी इस रिपोर्ट में सबसे चौंकाने वाला तथ्य यह है कि स्वास्थ्य सेवाओं से संबंधित खर्च के कारण भारत की आबादी का लगभग 3 फीसदी हिस्सा हर साल गरीबी रेखा के नीचे फिसल जाता है. यानी एक ओर जहां सरकार गरीबी ख़त्म करने की बात कर रही है, वहीं स्वास्थ्य सेवाओं पर ध्यान नहीं देने के कारण देश में गरीबी लगातार बढ़ रही है.

जबकि इन गरीबों की क़ीमत पर दवा कम्पनियां लगातार अमीर हो रही हैं. कोरपोरेट मामलों के मंत्रालय द्वारा दवाओं के सम्बन्ध में कराए गए शोध में यह पाया गया कि देश-विदेश की जानी-मानी दवा कंपनियां भारतीय बाज़ार में 203% से 1123% तक मुनाफ़ा कमा रही हैं. और इस खेल में कम्पनियों के साथ-साथ डॉक्टर्स, हॉस्पीटल व दवा दुकानदार भी शामिल हैं.

लेकिन इस खेल-तमाशे की एक बड़ी वज़ह बीजेपी के चंदे की सूची में छिपी हुई है. ये चौंकाने वाली बात है कि लोकसभा चुनाव के पहले बीजेपी को अधिकतर चंदा बड़ी-बड़ी दवा कम्पनियों से ही हासिल हुआ है. अब इसी मलाईदार चंदे के एवज़ में ये कम्पनियां जीवन-रक्षक दवाओं तक की क़ीमतें बढ़ाकर आम आदमी की ज़िन्दगी से खेल रही हैं और सरकार हाथ पर हाथ धरे तमाशा देख रही है.

हालांकि इस खेल में कांग्रेस भी ज़्यादा पीछे नहीं है. यानी आम आदमी की बात करने वाले राहुल गांधी भी गरीब-बीमार लोगों के पैसे से ही अपना करियर चमका रहे हैं.

इधर ग़रीबों के नाम पर मोदी सरकार ने न सिर्फ़ वोट बटोरे, बल्कि ‘मन की बात’ जैसे कार्यक्रमों में भी वे इसकी मार्केटिंग करते नहीं थकते हैं. मगर हक़ीक़त कुछ और ही है. यह हक़ीक़त इस ख़तरनाक सच से पर्दा हटाती है कि जब सरकारें ही आम आदमी के हितों से खिलवाड़ करने लगे तो बड़ी-बड़ी दवा कम्पनियों के हाथों में स्वाभाविक तौर पर गला काटने की तलवार आ जाती है.

TwoCircles.netको चुनाव आयोग से मिले दस्तावेज़ के मुताबिक देश के कई दवा कम्पनियां देश के दोनों बड़ी राजनीतिक पार्टियों को चंदा देती हैं, ताकि उनकी मनमानी वो खामोश ही रहे. सिर्फ दवा कम्पनियां ही नहीं, बल्कि डॉक्टर्स और दवा दुकानदार भी दानदाताओं की सूची में शामिल हैं. राजनीतिक दलों को चंदा देने वाली दवा कम्पनियों के कुछ नाम आप नीचे की सूची में देख सकते हैं.

BJP Funding List

BJP Funding List

BJP Funding List

BJP Funding List

BJP Funding List

Congress Funding List

Congress Funding List

यह तो वो रक़म है जो दवा कम्पनियों ने घोषित तौर पर राजनीतिक दलों को दी है. अब आप खुद ही अंदाज़ा लगा लीजिए कि अपनी मनमानी जारी रखने के लिए दवा कम्पनियां पीछे के दरवाज़े कितना पैसा इन राजनीतिक दलों को पहुंचाती होंगी?

AMU के अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर छात्रों ने शुरू की ऑनलाईन मुहिम

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TwoCircles.net News Desk

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) के अल्पसंख्यक दर्जा दिलाने की मुहिम अब ज़ोर पकड़ती नज़र आ रही है. देश में अलग-अलग संस्थाओं, नेताओं व लोगों के बयानों के बाद अब एएमयू के छात्र भी इस मुहिम में पूरी तरह से कुद गए हैं.

छात्रों की इसी मुहिम को आगे बढ़ाते हुए एएमयू में मेडिकल की पढ़ाई करने वाले मशकूर अहमद उस्मानी नामक एक छात्र ने एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जा की बहाली के लिए एक ऑनलाइन याचिका शुरू की है.

Screen Shot of Petition

www.change.orgपर शुरू किया गया ये याचिका भारत के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी, भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी, सुप्रीम कोर्ट के रजिस्ट्रार और प्रधानमंत्री कार्यालय को संबोधित है.

मशकूर उस्मानी ने उन सभी छात्रों, शिक्षकों, कर्मचारियों, पूर्व छात्र सहित विश्वविद्यालय के शुभचिंतकों से, जो एएमयू के अल्पसंख्यक स्वरूप की बहाली चाहते हैं, से अपील की है कि इस ऑनलाइन याचिका का समर्थन करते हुए अधिक से अधिक ऑनलाईन हस्ताक्षर करें.

आप ऑनलाईन हस्ताक्षर यहां कर सकते हैं…

बीजेपी के अकाउंट में मोदी का चंदा

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Afroz Alam Sahil, TwoCircles.net

भारतीय जनता पार्टी यानी बीजेपी उद्योगपतियों, कारोबारियों व व्यापारियों की पार्टी कही जाती है. बड़े-बड़े उद्योगपति, कारोबारी और व्यापारी हमेशा से इस पार्टी को चंदा देते आए हैं. क्योंकि कांग्रेस की तरह यहां पार्टी के नेताओं द्वारा चंदा देने की रिवायत बिल्कुल न के बराबर है. लेकिन इस ‘न’ देने की रिवायत के विपरित नरेन्द्र मोदी ने गुजरात का सीएम रहते हुए पार्टी को न सिर्फ गुजरात से चंदा दिलवाया है, बल्कि खुद कई बार चंदा भी दिया है.

TwoCircles.netको चुनाव आयोग से मिले बीजेपी के चंदे की सूची बताती है कि नरेन्द्र मोदी ने लोकसभा चुनाव के पूर्व साल 2013-14 में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के दो चेकों के माध्यम से 1.42 लाख का चंदा अपनी पार्टी को दिया है. इससे पूर्व साल 2012-13 में नरेन्द्र मोदी ने 5.5 लाख का चंदा अपनी पार्टी के अकाउंट में डाला था.

Modi Donation to BJP

हैरान कर देने वाली बात यह है कि 2009-10 में गुजरात सरकार ने भी स्टेट ऑफ इंडिया के चेक नम्बर 482811 के ज़रिए 25 हज़ार का चंदा बीजेपी के खाते में दिया है. यहां सवाल यह पैदा होता है कि क्या कोई सरकार किसी पार्टी को चंदा दे सकती है? चाहे चंदे की रक़म छोटी ही क्यों हो.

एक सच यह है कि पार्टी में चाहे किसी बड़े लीडर ने कभी कोई चंदा न दिया हो, लेकिन गुजरात की मुख्यमंत्री आनन्दीबेन पटेल पीएम मोदी की परम्परा को आगे ज़रूर बढ़ाने का काम किया है. उन्होंने भी साल 2013-14 में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के दो चेकों के माध्यम से 1.42 लाख का चंदा अपनी पार्टी को दिया है.

हालांकि 2014-15 के चंदे की सूची में बीजेपी के किसी बड़े नेता का नाम नज़र नहीं आता. लेकिन 2013-14 के दानदाताओं की सूची में वर्तमान केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी का नाम ज़रूर नज़र आता है. स्मृति ईरानी ने अपनी पार्टी को साल 2013-14 में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के दो चेकों के माध्यम से 1.60 लाख का चंदा अपनी पार्टी को दिया है.

स्पष्ट रहे कि बीजेपी को लोकसभा चुनाव के पूर्व दूसरे राष्ट्रीय दलों के तुलना में सबसे अधिक चंदा मिला था. 2014-15 में सभी दलों को 622.38 करोड़ रुपये चंदा मिला, जिसमें से 437.35 करोड़ रुपये सिर्फ़ बीजेपी को मिले हैं.

लेकिन दिलचस्प बात यह है कि बीजेपी के नियमित दानदाता बहुत कम हैं. अर्थात जो एक बार दे दिया दुबारा देना मुनासिब नहीं समझता. पार्टी ज्यादातर अपना चंदा देश भर के बिल्डर और उससे जुड़े उद्योगों, कारोबारियों व व्यापारियों से ही प्राप्त करती है. यदि कभी सच सामने आ सके तो यह जानना दिलचस्प होगा कि जिस-जिस साल में जो बड़ा व्यापारी चंदा देता है, वह उस साल क्या फायदा हासिल करता है?

दरअसल, बीजेपी 'पार्टी विथ द डिफ्रेंस'का नारा देती रही है. लेकिन जब हम इस पार्टी को मिलने वाले चंदे की सूची देखते हैं तो 'पार्टी विथ द डिफ्रेंस'की पोल खुल जाती है. विचारधारा, दृष्टिकोण और नीतियों की बात करने वाली इस पार्टी को पार्टी को कभी बीफ़ से परहेज़ था, लेकिन इस पार्टी को चंदे मिलने वाली चंदे की सूची बताती है कि बीफ़ एक्सपोर्ट कम्पनी से भी चंदा लेने में कोई परहेज़ नहीं है.

‘शाहिद आज़मी और रोहित वेमुला की हत्या लोकतंत्र की हत्या है’

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TwoCircles.net News Desk

लखनऊ :‘शाहिद आज़मी और रोहित वेमुला की हत्या लोकतंत्र की हत्या है, जिसे लोकतंत्र विरोधी हमारी व्यवस्था ने अंजाम दिया है. इसलिए ऐसी शहादतें लोकतंत्र पसंद अवाम के लिए संकल्प का समय होती हैं.’

ये बातें आज लखनऊ के जयशंकर प्रसाद हॉल में शाहिद आज़मी की 6वीं शहादत दिवस के अवसर पर रिहाई मंच द्वारा आयोजित कायक्रम ‘इंसाफ़ के लिए संघर्षरत दोस्तों की मुलाक़ात’ में एडवोकेट शुऐब ने शाहिद आज़मी व रोहित वेमुला को एक साथ याद करते हुए कहा.

Rihai Manch Program

इस अवसर पर रिहाई मंच के अध्यक्ष मुहम्मद शुऐब ने कहा कि –‘रिहाई मंच के इस आयोजन से हमने यह संकल्प लिया है कि शाहिद और रोहित की शहादतें बेकार नहीं जाने दी जाएंगी. लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता की रक्षा हर क़ीमत पर की जाएगी.’

रिहाई मंच आज़मगढ़ प्रभारी मसीहुद्दीन संजरी ने कहा कि –‘जो खुफिया एजेंसियां और सरकारें हमारे जिले आज़मगढ़ के मुस्लिम युवकों पर आरोप लगा रही हैं कि वो आईएस के नाम पर लड़ते हुए सीरिया और ईराक में मारे जा रहे हैं, उनके मुंह पर संवैधानिक मूल्यों पर संघर्षरत शाहिद आज़मी की शहादत तमाचा है. जिसकी हत्या खुफिया और सुरक्षा एजेंसियों की साजिश का नतीजा था.’

उन्होंने कहा कि –‘आज रोहित वेमुला जैसे नौजवान जो कि याकूब मेमन की फांसी और दलितों के उत्पीड़न पर सवाल उठाते थे, उन्हें जिस तरह से आत्महत्या करने पर मजबूर होना पड़ा, वो हमारी पूरी व्यवस्था के इंसाफ़ विरोधी चरित्र को उजागर करता है.’

इंडियन नेशनल लीग के राष्ट्रीय अध्यक्ष मोहम्मद सुलेमान ने कहा कि –‘इंसाफ़ के लिए चलाया जा रहा रिहाई मंच का आंदोलन इंसाफ़ के सवाल को राजनीति का केन्द्र बिन्दु बनाने की क्षमता रखता है. इसलिए इंसाफ़-पसन्द अवाम के बीच इस आंदोलन का आकर्षण तेज़ी से बढ़ा है और लोग इंसाफ़ के सवाल पर राजनीतिक दलों से सवाल पूछने लगे हैं.’

आगे उन्होंने कहा कि –‘आज जब आतंकवाद के नाम पर मुसलमानों पर और जाति के नाम पर दलितों के ऊपर सत्ता संरक्षित हमले बढ़े हैं, तब यह ज़रूरी हो जाता है कि लोग अपनी दल-गत सीमाओं से उठकर इंसाफ़ के इस अभियान को निर्णायक दिशा दें.’

इस कार्यक्रम में गोण्डा से आए रिहाई मंच नेता रफीउद्दीन ने कहा कि –‘आज मुस्लिम युवा घर से निकलने से डरने लगा है कि कब उसे कहीं से उठाकर किसी फर्जी मुक़दमें में न फंसा दिया जाए. रिहाई मंच गांव-क़स्बे तक पहुंचकर इस दहशत को ख़त्म कर लोकतंत्र को मज़बूत बनाएगा.’

सिद्धार्थनगर से आए डा. मज़हर ने कहा कि सांप्रदायिक शक्तियों ने देश को आतंरिक तौर पर कई टुकड़ों को बांट दिया है. आज ज़रुरत लोगों को जोड़ने की है.

फैज़ाबाद से आए अतहर शम्सी ने कहा कि जिस तरह से चुनाव की आहट होते ही मुस्लिमों पर हमले बढ़ जाते हैं, वो साफ़ करता है कि वोटों के ध्रुवीकरण के लिए ऐसा राजनीतिक दल करते हैं. आगामी समय में चुनाव फिर होना है, ऐसे हमें यह तय करना होगा कि अब कोई अख़लाक न मारा जाए.

उन्नाव से आए ज़मीर ख़ान ने कहा कि ने कहा कि –‘पिछले दिनों मुलायम सिंह ने बयान दिया था कि अगर प्रधानमंत्री कहेंगे तो मैं मुज़फ्फ़रनगर और दादरी के हत्यारों का नाम बता दूंगा. सवाल उठता है कि मुलायम सिंह इस सूबे की जनता और देश के संविधान के प्रति जवाबदेह हैं या उस नरेन्द्र मोदी के, जो आरएसएस के एजेण्डे को बढ़ाने के लिए 2002 में मुसलमानों का क़त्लेआम करा चुके हैं.’

बलिया से आए बलवंत यादव ने कहा कि –‘जब तक बांटो और राज करो की सियासत का खात्मा नहीं होता, तब तक इस देश की अवाम मरती रहेगी. आज ज़रूरत इंसाफ़ के सवाल पर पूरे समाज को लेकर राजनीतिक पहल करने की है.’

Rihai Manch Program

‘इंसाफ़ के लिए संघर्षरत दोस्तों की मुलाक़ात’ का संचालन राजीव यादव ने किया. जिसमें मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित सामाजिक कार्यकर्ता संदीप पांडेय, मुरादाबाद से सलीम बेग, गोण्डा से आए अब्दुल हादी, डा. एम. डी. खान, रफ़त फ़ातिमा, ताहिरा हसन, रामकृष्ण, के.के. शुक्ला, आदियोग, बलिया से जय प्रकाश मौर्या, बांदा से धनंजय चौधरी, जैद अहमद फारुकी, फ़रीद खान, लक्ष्मण प्रसाद, अमित मिश्रा, दिनेश चौधरी, फ़तेहपुर से संजय विद्यार्थी, उन्नाव से संजीव श्रीवास्तव, प्रतापगढ़ से आए शम्स तबरेज़ खान, मोहम्मद हाफिज़, मोहम्मद कलीम, शरद जायवाल, गुंजन सिंह, गाजीपुर से तुफैल खान और सरताज खान, पीसी कुरील, अख्तर, मो. मसूद, वसी, सीमा चंन्द्रा, आलोक, जाहिद अहमद, जुहैर तुराबी, फैजान मुसन्ना, मऊ आईमा से आए मोहम्मद उमर, शाहनवाज़ आलम, अनिल यादव, शबरोज़ मुहम्मदी, शकील कुरैशी, लक्ष्मण प्रसाद, खालिद सिद्दीकी आदि ने शिरकत की.

विनोद यादव –सताए हुए तबक़े की एक मज़बूत आवाज़

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Afroz Alam Sahil, TwoCircles.net

आज़मगढ़ :इस देश में कई नाम ऐसे हैं, जो एक कोने में चुपचाप पड़े रहते हैं और लोगों के हक़ के लिए अपना सबकुछ निछावर कर देते हैं. लेकिन संसार उनके विषय में कुछ नहीं जान पाता. गुदड़ी के इन लालों का जितना कम नाम होता है, उनका काम उतना ही बड़ा... इन्हीं गुदड़ी के लालों में एक नाम जो उत्तरप्रदेश के आज़मगढ़ की ज़मीन पर इन दिनों दलितों व अल्पसंख्यकों के मानवाधिकार और इंसाफ़ की लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाने में जी-जान से जुटा हुआ है. वो नाम विनोद यादव का है.

Vinod Yadav

विनोद यादव एक ऐसी शख़्सियत, जिसने दिल्ली में हुए बटला हाउस ‘एनकाउंटर’ से लेकर दूसरे उन तमाम मामलों में, जिनमें मानवाधिकार का उल्लंघन हो रहा है, जिसने खासकर बेकसूर मुस्लिम नौजवानों की गिरफ़्तारी पर आवाज़ बुलंद करने में ज़मीन-आसमान एक कर दिया है.

विनोद यादव के लिए दूसरों के मानवाधिकार व इंसाफ़ की जंग लड़ना इतना आसान नहीं रहा है. इन्हें अपने इस लड़ाई का खामियाजा भी उठाना पड़ा है. पुलिस ने इन्हें उठाकर न सिर्फ जेल में ठूंस दिया, बल्कि तरह-तरह से टार्चर भी किया. बावजूद इसके वो अभी भी पूरे जज़्बे व साहस के साथ उन बेक़सूरों व गुमनाम आवाज़ों को ज़बान देने की कोशिश में डटे हुए हैं, जिन्हें पूछने वाला कोई नहीं है.

आज़मगढ़ में जन्में 38 साल के विनोद की प्रारंभिक शिक्षा यूपी के सिद्धार्थनगर से हुई, लेकिन पांचवी के बाद वो आरएसएस द्वारा संचालित ‘सरस्वती विहार’ नामक स्कूल में पढ़ने के लिए वो नैनिताल चले गए. दसवीं तक की पढ़ाई के बाद वो आज़मगढ़ लौट आए.

उसके बाद बारहवीं और स्नातक की पढ़ाई आज़मगढ़ शहर से ही हुई. उनके पिता सरकारी इंजीनियर और मुलायम यादव के समर्थक थे. कल्याण सिंह के दौर में इनके पिता पर कुछ गंभीर आरोप लगें. उसके बाद इनका पूरा परिवार बीजेपी व आरएसएस विरोधी हो गया. इसका असर विनोद यादव पर भी पड़ा.

खैर, घर वालों की ख्वाहिश थी कि विनोद पढ़-लिखकर एमबीबीएस डॉक्टर बने, लेकिन विनोद का स्पोर्ट्स में दिलचस्पी थी, वो तैराकी में माहिर थे और क्रिकेट से खासा लगाव था. इसलिए घर वालों के कोशिशों के बावजूद वो डॉक्टर बनने के लिए खुद को तैयार नहीं कर पाएं. लेकिन स्नातक की पढ़ाई के दौरान वो ‘सामाजिक डॉक्टर’ बनकर समाज की सेवा ज़रूर करना चाहते थे. इसी चाहत में वो स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर छात्र-संघ का चुनाव भी लड़ें, लेकिन हार गए.

फिर स्नातक के बाद उन्होंने वकालत करने की ठानी और अब वकील बनकर दलितों-अल्पसंख्यकों के मामलों की पैरवी करते रहते हैं. ज़रूरतमंदो को निशुल्क क़ानूनी सलाह व उनके समस्याओं के निवारण के तरीक़े बताते रहते हैं. साथ ही समाज में जो बुराईयां हैं, उसको दूर करने के प्रयास में लगे रहते हैं. इस तरह से वो विनोद यादव 2001 से सामाजिक कार्य में सक्रिय हैं.

विनोद यादव बताते हैं कि दिल्ली में बटला हाउस एनकाउंटर के बाद वो आज़मगढ़ में सक्रिय हुए. क्योंकि आज़मगढ़ को मीडिया ‘आतंकगढ़’ बनाकर पेश कर रही थी, जो मुझे किसी भी रूप में बर्दाश्त नहीं था. हमने बाहर से आने वाले उन मीडियाकर्मियों की मदद करनी शुरू की, जो ज़ेहनियत से साम्प्रदायिक नहीं थे. हम और हमारे कुछ साथी आज़मगढ़ से आतंकवादी बताकर उठाये गए मुस्लिम युवकों के परिजनों को कानूनी सहायता दिलाने का प्रयास भी कर रहे थे. इतना ही नहीं, आज़मगढ़ में एक हमने एक सम्मेलन भी कराया, जिसका विषय था –‘आज़मगढ़ साम्प्रदायिकता का गढ़ नहीं है.’ कुछ लोगों ने इसका विरोध भी किया. इसके बाद साम्प्रदायिक पुलिस व एजेन्सियों के ख़िलाफ़ एक धरना भी दिया, जिसे आज़मगढ़ पुलिस ने रोका था.

वो बताते हैं कि मेरे इन्हीं सब कार्यों को लेकर 23 अक्टूबर 2008 को फैजाबाद रेलवे स्टेशन पर ट्रेन में पुलिस व एसटीएफ के लोगों ने मेरे साथ मेरे एक दोस्त सरफ़राज़ को किडनैप किया. कई दिनों तक अवैध हिरासत में रखा. फिर मुझ पर ‘आतंक’ से जुड़े परिवार की मदद करने का आरोप लगा. 14 दिन की ज्यूडिशियल कस्टडी में रखा गया. इस दौरान मुझसे बार-बार एक ही सवाल पूछा जाता था –कि हिन्दू होकर मुसलमानों की मदद क्यों करते हो? उनके लिए क्यों बोलते हो? आदि-अनादि...

विनोद यादव बताते हैं कि इस गिरफ़्तारी के बाद मालूम हुआ कि पुलिस व एजेन्सियां पिछले 8 महीने से मुझ पर नज़र रखे हुए थीं. यहां तक कि हमारे घर के बच्चों पर भी वो नज़र रख रहे थे. आगे वो बताते हैं कि इस गिरफ़्तारी के बाद अहसास हुआ कि मुसलमान होना इस देश में कितनी बड़ी परेशानी है. सिर्फ मुसलमानों के हक़ की आवाज़ उठाने के लिए पुलिस ने मेरे साथ न जाने कितने प्रकार से टार्चर किया, लेकिन अगर मैं मुसलमान होता तो यह पुलिस वाले मेरे साथ क्या करते...

विनोद यादव अल्पसंख्यकों के अधिकारों की लड़ाई के अलावा इन दिनों दलितों में मुसहर समुदाय को लेकर आन्दोलन चला रहे हैं. राष्ट्रीय स्तर के वो भले ही तैराक न बन पाए हों, लेकिन विनोद इन दिनों पानी की समस्या को लेकर लोगों को जागरूक ज़रूर कर रहे हैं. उत्तरप्रदेश में नहर के मसले को लेकर कई आरटीआई भी डाल चुके हैं. इतना ही नहीं, अपने दादा जी के नाम पर ‘चौधरी-मौलवी देवश्री वेलफेयर एसोसियशन’ नामक एक संस्था बनाकर सामाजिक कार्य में लागातर लगे हुए हैं.

विनोद यादव मुल्क के वर्तमान हालात पर चिंता व्यक्त करते हुए बताते हैं कि इनके पीछे राजनीतिक साज़िश है. साम्प्रदायिक राजनीतिक पार्टियां हम लोगों को लड़ाने का काम कर रही हैं. ऐसे में हम सब लोगों को आपस में मिलकर रहने की ज़रूरत है. साम्प्रदायिकता के ख़िलाफ़ संघर्ष करने की ज़रूरत है. खासकर दलित-मुस्लिम नौजवान अब अपनी समस्याओं को लेकर आगे आएं.

विनोद यादव की दिनचर्या इंसाफ़ की लड़ाई की जीती-जागती एक तस्वीर है. वे सुबह से लेकर रात तक दलितों, मज़लूमों, अल्पसंख्यकों और समाज के सताए हुए तबक़ों के हक़ में पूरी शिद्दत से खड़े रहते हैं. उनका सपना एक ऐसी व्यवस्था को जन्म देने में सहयोग करने का है, जहां इंसाफ़ की आवाज़ झूठी एफआईआर और फ़र्ज़ी चार्जशीटों के जुतों तले कुचली न जाती हों. उम्मीद की जानी चाहिए कि एक दिन उनका ये सपना साकार होकर रहेगा.

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TwoCircles.net News Desk

नई दिल्ली :जेएनयू में ‘अफ़ज़ल गुरू को शहीद बताने’ और ‘देश-विरोधी नारे लगाने’ का विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है.

इस सिलसिले में दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार की ताज़ा गिरफ़्तारी के बाद अब सोशल मीडिया पर कोहराम मचा हुआ है.

सोशल मीडिया पर कन्हैया के गिरफ़्तारी को लोकतंत्र का हत्या बताया गया है. वहीं कई लोग इस मामले में मीडिया के रोल पर भी सवाल खड़े कर रहे हैं. हालांकि कई ऐसे लोग भी हैं, जो इस गिरफ़्तारी को सही बताते हुए कन्हैया को सज़ा देने की मांग कर रहे हैं.

पत्रकार शाहनवाज़ मलिक अपने फेसबुक टाईमलाईन पर लिखते हैं –

Screen Shot on Kanhaiya Kumar

वहीं वीनित कुमार मीडिया पर सवाल खड़े करते हुए लिखते हैं –

Screen Shot on Kanhaiya Kumar

मानवाधिकार कार्यकर्ता महताब आलम कन्हैया कुमार का वीडियो शेयर किया है, जिसमें कन्हैया अपने भाषण में यह बोलते हुए सुनाई दे रहे हैं कि –‘हमको देशभक्ति का सर्टिफिकेट आरएसएस से नहीं चाहिए...’ इस वीडियो में कन्हैया आरएसएस के देशभक्ति पर सवाल उठाते हुए नज़र आते हैं.

Screen Shot on Kanhaiya Kumar

वहीं सामाजिक कार्यकर्ता काशिफ़ अहमद फ़राज़ ने लिखा है –

Screen Shot on Kanhaiya Kumar

दिलीप खान मीडिया के रोल पर सवाल उठाते हुए लिखते हैं –

Screen Shot on Kanhaiya Kumar

वहीं जेएनयू के छात्र सैय्यद मोहम्मद राग़िब अपने मित्र सुयश सुप्रभ का पोस्ट शेयर करते हुए लिखते हैं –

Screen Shot on Kanhaiya Kumar

वहीं आशीष कुमार का सवाल है –

Screen Shot on Kanhaiya Kumar

सुयश दीप राय कन्हैया के हौसले पर सवाल खड़े करते हुए लिखते हैं –

Screen Shot on Kanhaiya Kumar

सोशल मीडिया की इस जंग में वाम दलों के कई नेता भी कुद पड़े हैं. सीपीएम के महासचिव सीताराम येचुरी ने ट्वीट कर गिरफ़्तारी की इमरजेंसी जैसे हालात से तुलना की.

Screen Shot on Kanhaiya Kumar

सोशल मीडिया से अलग कन्हैया कुमार की इस गिरफ़्तारी पर वाम दलों के कई नेताओं ने गिरफ़्तारी का विरोध किया है और इसे 'इमरजेंसी जैसे हालात'बताए हैं.

सीपीआई के नेशनल सेक्रेटरी डी राजा ने कहा कि –‘हम भारत विरोधी किसी भी नारे की निंदा करते हैं. अगर ऐसे तत्वों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करना है तो क़ानून के अनुसार किया जाना चाहिए.’

वहीं आम आदमी पार्टी के नेता कुमार विश्वास ने गिरफ़्तारी को सही ठहराया है. विश्वास ने ट्वीट कर कहा है कि केंद्र को 'राष्ट्र विरोधियों'के ख़िलाफ़ 'कड़ी'कार्रवाई कर एक उदाहरण पेश करना चाहिए.

उन्होंने एक के बाद एक किए गए अपने ट्वीट में कहा है कि –‘जेएनयू में जिन लोगों ने भारत विरोधी नारे लगाए या इसका समर्थन किया उन्हें सज़ा देकर एक उदाहरण पेश करने का यही सही समय है.’

Screen Shot on Kanhaiya Kumar

स्पष्ट रहे कि कन्हैया कुमार को तीन दिन के ज्यूडिशियल कस्टडी में भेज दिया गया है. उन पर आरोप है कि उन्होंने जेएनयू के एक कार्यक्रम में भारत विरोधी नारे लगाए गए थे. पूर्वी दिल्ली से भाजपा सांसद महेश गिरी की शिकायत पर पुलिस ने कई लोगों के ख़िलाफ देशद्रोह का मामला दर्ज किया था. हालांकि इससे पहले शुक्रवार सुबह ही केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा था कि भारत विरोधी नारे लगाने वालों के ख़िलाफ़ कड़ी कार्रवाई की जाएगी.

वहीं जेएनयू में कार्यक्रम आयोजित करने वालों का कहना है कि उन्हें संविधान के तहत मिले अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार के तहत अपनी बात कहने का हक़ है.


जेएनयू अध्यक्ष कन्हैया कुमार को सम्मानित करेगा रिहाई मंच

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TwoCircles.net News Desk

लखनऊ :रिहाई मंच ने जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किए जाने की कड़ी निंदा की है और इसे लोकतंत्र की हत्या बताते हुए जेएनयू अध्यक्ष को सम्मानित करने का ऐलान किया है.

मंच ने लखनऊ स्थित स्टूडेन्ट फेडरेशन ऑफ इंडिया (एसएफ़आई) के दफ्तर पर एबीवीपी के गुण्डों द्वारा हमले को संघ परिवार की दहशतगर्दी का एक और उदाहरण बताया है.

रिहाई मंच के प्रवक्ता शाहनवाज़ आलम ने कहा कि अफ़ज़ल गुरू की फांसी जिसपर पूरी दुनिया में देश की न्यायपालिका की बदनामी हो चुकी है, पर अगर किसी विश्वविद्यालय में छात्र बहस करते हैं, तो इसे उनके लोकतांत्रिक अधिकार के तहत जोड़कर देखा जाना चाहिए. दिल्ली में झंडेवालान में जिस तरह से महिला प्रदर्शनकारियों को पुलिस के साथ मिलकर संघी गुण्डों ने मारा-पीटा जिसके वीडियो होने के बावजूद आजतक कोई कार्रवाई नहीं हुई, वो साबित करता है कि राज्य की पूरी मशीनरी संघ के एजेण्डे पर काम कर रही है.

आगे उन्होंने कहा कि जिस संघ परिवार का आजादी की लड़ाई में अग्रेजों के साथ मिली भगत का इतिहास रहा है, जिसका सिद्धांतकार माना जाने वाला सावरकर अंग्रेजों से माफी मांग कर जेल से रिहा हुआ हो. कांग्रेस में रहने के दौरान जेल जाने पर जब सभी कांग्रेसी हफ्तों आमरण अनशन पर बैठे हों, जिसके कारण उनक वज़न कम हो चुका हो, तब हेडगेवार का जेलर से मिली भगत करके खाना खाना और अपना वज़न 8 किलो बढा़ लिया हो और जिसके नेता अटल बिहारी वाजपेई ने 1942 में पुलिस की मुख़बिरी करके क्रांतिकारी नेता लीलाधर वाजपेई को जेल भेजवा दिया हो, उनसे बड़ा देशद्रोही आतंकी संगठन कोई नहीं है. इसलिए अफ़ज़ल गुरू की फांसी पर बहस करने वाले छात्रों के बजाए संघियों को देश द्रोह के आरोप में जेल में ठूंसा जाना चाहिए.

रिहाई मंच नेता राजीव यादव ने कहा कि जिस संघ परिवार के लोगों का नाम देश भर में हुए आतंकी घटनाओं में नामजद है, जिसके नेता मोदी की तस्वीर असीमानंद जैसे दुर्दांत आतंकी के साथ सार्वजनिक हो चुकी हो, जिसके पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष और गृहमंत्री राजनाथ सिंह की महिला आतंकी साध्वी प्रज्ञा के साथ गोपनीय बैठक की तस्वीर हो, जिसके लोग राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के हत्यारे गोडसे की पूजा करते हों, उस संगठन का सामाजिक बहिष्कार किया जाना चाहिए.

उन्होंने कहा कि इस देशद्रोही विचारधारा का विरोध करने वाला हर व्यक्ति देश भक्त है. जेएनयू अध्यक्ष ने फासिस्ट निजाम के खिलाफ़ जो संघर्ष किया है, उसके लिए रिहाई मंच कन्हैया कुमार का नागरिक अभिनंदन कर सम्मानित करेगा.

रिहाई मंच नेता शकील कुरैशी और अनिल यादव ने लखनऊ विधानसभा स्थित एसएफ़आई कार्यालय पर एबीवीपी द्वारा किए गए हमले को पूरे देश पर हो रहे भगवा हमले का ताज़ा उदाहरण बताया है. जिस तरह एबीवीपी के गुण्डों ने एसएफ़आई दफ्तर में लगी शहीद-ए-आज़म भगत सिंह, अशफाक़ उल्ला खान और राम प्रसाद बिस्मिल की तस्वीरें तोड़ीं, वह साबित करता है कि स्वतंत्रता आंदोलन में अंग्रेज़ों की दलाली करने वाले संघी उस आंदोलन के नायकों से कितना नफ़रत करते हैं.

उन्होंने कहा कि इस घटना ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि वे अग्रेजों से माफी मांगने वाले संघी सावरकर की असली औलाद हैं. भारतीय संस्कृति और महिलाओं की बड़ी-बड़ी बात करने वाले लोगों ने महिला नेता सीमा राना के साथ मारपीट करके अपने महिला विरोधी चरित्र को फिर उजागर किया है.

घटना के बाद एसएफ़आई के कार्यकताओं से मुलाक़ात करके लौटे रिहाई मंच नेता शकील कुरैशी और अनिल यादव ने कहा कि ठीक विधानसभा के सामने स्थित एसएफ़आई कार्यालय पर संघी गुण्डों द्वारा किया गया हमला बताता है कि सपा सरकार इन दहशतगर्दों को संरक्षण दे रही है.

मंच ने मांग की कि दोषियों को तत्काल गिरफ्तार किया जाए. उन्होंने मांग की है कि विधानसभा के ठीक सामने स्थित भाजपा कार्यालय को तत्काल वहां से हटाकर विधानसभा की सुरक्षा को पुख्ता किया जाए.

उन्होंने मांग की कि प्रदेश में संघ व भाजपा कार्यालयों पर सरकार सीसीटीवी कैमरा लगवाकर उनकी गतिविधियों पर नज़र रखे. क्योंकि इन्हीं दफ्तरों से पूरे सूबे में सांप्रदायिक दहशतगर्दी और दंगों की रणनीति रची जाती है.

‘कन्हैया उस संगठन के नेता हैं, जो ब्रिटिश साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन के गर्भ से पैदा हुआ है’ –भाकपा

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पटना :दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र-संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार की सनसनीखेज़ गिरफ्तारी को लोकतंत्र की हत्या की संज्ञा देते हुए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के बिहार राज्य सचिवमंडल ने कड़ी निंदा की है.

आज जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में भाकपा के बिहार राज्य सचिवमंडल ने कहा है कि –‘कन्हैया कुमार को साज़िशपूर्वक केन्द्रीय गृहमंत्री के आदेश पर गिरफ्तार कर उन पर देशद्रोह का आरोप मढ़ने की कार्रवाई की जितनी भर्त्सना की जाए वह कम है. वास्तव में यह लोकतंत्र की हत्या करने वाली फासीवादी कार्रवाई है.’

राज्य सचिवमंडल का कहना है कि –‘कन्हैया कुमार देश के सर्वप्रमुख छात्र संगठन एआईएसएफ़ के नेता हैं, जो संगठन ब्रिटिश साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन के दौर में उसी के गर्भ से पैदा हुआ और देश को बहुतेरे प्रगतिशील, राष्ट्रवादी, वामपंथी रूझान वाले नेता दिए और संघर्षों की उसी परम्परा को आज भी वह आगे बढ़ाने में अनवरत जुटा हुआ है. ऐसे संगठन के नेता को महात्मा गाँधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे के राजनीतिक वारिसों से देशभक्ति का प्रमाण-पत्र लेने की आवश्यकता नहीं है.’

आगे राज्य सचिवमंडल का कहना है कि –‘वैसे नेता और वैसी पार्टियों जिनके पुरखों ने अग्रेजों की दलाली का काम किया, राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन का भीतरघात किया, उनसे बड़ा देशद्रोही भला दूसरा कौन हो सकता है? दिल्ली की गद्दी पर क़ब्जा हो जाने मात्र से ऐसे लोगों को देश-प्रेम का सर्टिफिकेट देने का अधिकार नहीं मिल जाता.’

भाकपा बिहार राज्य सचिवमंडल ने अपने प्रेस विज्ञप्ति में कहा है कि –‘वास्तविकता तो यह है कि भाजपा-आरएसएस द्वारा देश की राजनीति के मोदीकरण की फासीवादी योजना के तहत शिक्षण संस्थानों के भगवाकरण की जो प्रक्रिया चलायी जा रही है, उसके मार्ग में जेएनयू जैसा प्रगतिशील रूझान वाला संस्थान सांप्रदायिक कट्टरपंथी भाजपाईयों की आंखों में किरकिरी बन अवरोध का काम कर रहा है. इसलिए उसकी प्रगतिषील विरासत को ध्वस्त कर एबीवीपी का परचम लहराने की कुत्सित साजिश के तहत लोकतांत्रिक मूल्यों और उक्त संस्थान के आदर्शों को धत्ता बताते हुए विश्वविद्यालय को पुलिस छावनी में तब्दील करके, छात्रावासों में घुस-घुस कर आतंक-राज क़ायम करने की घृणित कार्रवाई को अंजाम दिया जा रहा है. कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी और ताज़ा पुलिसिया कार्रवाइयां इसी का ज्वलंत नमूना है.’

इस प्रेस विज्ञप्ति में आगे कहा गया है कि –‘भाकपा का राज्य सचिवमंडल भारत विरोधी समस्त शक्तियों और तत्वों के खिलाफ़ कठोरतम कार्रवाई की हमेशा से पक्षधर रहा है और भाजपा सरकार द्वारा प्रगतिशील जनवादी विचारधारा के खिलाफ़ छेडे़ गये जेहाद को ‘राष्ट्रद्रोह’ की शर्मनाक कायरतापूर्ण कार्रवाई मानता है. सभी देशभक्तों को इसके प्रतिकार के लिए एकजुट होकर आगे बढ़ने का मौका सामने आ गया है.’

हेडली और उज्जवल निकम का झूठ यानी ‘राष्ट्रद्रोह’!

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By सिद्धांत मोहन, TwoCircles.net

वाराणसी:बात को रखने से पहले हेडली और उज्जवल निकम की वह बातचीत पढ़ लेते हैं जिसे आप सभी लगभग कई जगहों पर पढ़ चुके होंगे.

निकम – क्या लश्कर में कोई महिला विंग है?
हेडली – हाँ, है.
निकम – उसका हेड कौन है?
हेडली – अबू अमान की माँ
निकम – लश्कर में महिला मानव बम हैं?
हेडली – मुझे नहीं पता
निकम – तुम किसी महिला मानव बम का नाम बता सकते हो?
हेडली – मुझे नहीं पता
निकम – क्या भारत में किसी ऑपरेशन की तैयारी थी?
हेडली – हां एक था जिसके बारे में मुझे तब पता चला था जब ज़किउर्रह्मान लखवी इस बारे में मुज़म्मिल भट से बात कर रहा था. मुज़म्मिल से मैंने पूछा तो उसने कहा कि लश्कर की एक महिला सदस्या थी जिसे पुलिस ने एक नाके पर एनकाउन्टर में मार दिया था. पुख्ता जगह मुझे नहीं पता.
निकम – मैं तुम्हें तीन ऑप्शन देता हूँ. नूर बेगम, इशरत जहां और xxx?
हेडली – इशरत जहां

ऊपर लिखी बातचीत को पढ़कर यह तथ्य लगभग साफ़ हो जाता है कि किस तरह से सरकारी वकील उज्जवल निकम ने डेविड हेडली को इशरत जहां का नाम लिवाया है. ‘पुटिंग वर्ड्स इन माउथ’...इसे शायद यही कहेंगे क्योंकि निकम ने हेडली से वही बात कहवाई जिसकी पैरवी गुजरात सरकार करती आ रही है. यह वही थ्योरी का एक अध्याय है, जिसकी वकालत भाजपा हमेशा से करती रही है.

Isharat janah Case

Photo By OneIndia

फिर से जानिए इशरत जहां फर्जी मुठभेड़ काण्ड को

15 जुलाई 2014 को अहमदाबाद के बाहर एक पुलिस चेकपोस्ट पर गुजरात पुलिस ने इशरत जहां को एक ‘मुठभेड़’ में मार गिराया. बाद में सीबीआई और गुजरात हाईकोर्ट के आदेश पर गठित एसआईटी ने अपनी जांच के आधार पर इस मुठभेड़ को फर्जी करार दिया. इस मामले में सीबीआई द्वारा दाखिल की गयी चार्जशीट में गुजरात पुलिस के कई आला अधिकारी और गुजरात गृह मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले खुफिया विभाग के अधिकारी नामज़द किए गए.

इशरत जहां के फर्जी मुठभेड़ के बाद गुजरात पुलिस के कुछ अधिकारियों से पूछताछ हुई जिसमें यह बात खुलकर सामने आई कि ‘काली दाढ़ी और सफ़ेद दाढ़ी’ वाले के कहने पर ऐसा किया जा रहा है. बाद में तत्कालीन गृहमंत्री अमित शाह पर जांच की आंच आई लेकिन भारतीय न्याय प्रक्रिया की ‘खूबसूरती’ यहीं से शुरू होती है कि इस फर्जी मुठभेड़ का ट्रायल शुरू ही नहीं किया गया.

इशरत जहां मुठभेड़ में घटनास्थल की जांच में जिन प्रमुख बातों से फर्जी मुठभेड़ की पुष्टि हुई थी, वह इस प्रकार हैं –
• जिस कार से इशरत जहां व अन्य सहयोगियों की लाश बरामद की गयी थी, उस कार में से मिले हथियार एक साफ़-सुथरे और नए जैसे थे. ऐसे जैसे गोली मारने के बाद रखे गए हों.
• बरामद की गयी पिस्टल और मैगज़ीन एक दूसरे से मेल नहीं खा रही थीं. इससे यह साफ़ हो रहा था कि वे दोनों बाद में रखे गए थे
• कार की बाईं ओर से कार में गोली अन्दर जाने के निशान नहीं थे, लेकिन दाहिनी ओर से गोली बाहर निकलने के निशान मौजूद थे. इससे यह ज़ाहिर हो रहा था कि मारे गए सभी लोगों को खिड़की से बंदूकें अन्दर डालकर मारा गया था.
• जीएल सिंघल द्वारा दायर किए गए एफआईआर में पुलिस पार्टी की पोजीशन से संभावित दिशा और सीबीआई की जांच में मिली असली दिशा में ज़मीन आसमान का फर्क है.

नवम्बर 2011 में गुजरात उच्च न्यायालय में दायर की गयी अपनी रिपोर्ट में एसआईटी ने यह माना कि इशरत जहां की ह्त्या फर्जी मुठभेड़ में की गयी थी और गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह को इसकी पूरी जानकारी थी.

Ujjawal Nikam

Photo By OneIndia

लेकिन मुद्दा उठता है उज्जवल निकम का. सरकारी वकील उज्जवल निकम और इस पूरे प्रकरण के बारे में कुछ बातें जान लेनी चाहिए –
• 26/11 मुंबई हमलों में जिंदा पकड़े गए आतंकी अजमल कसाब के बारे में उज्जवल निकम ने झूठ कहा था कि कसाब बिरयानी मांग रहा था. बाद में निकम ने यह खुद स्वीकार किया था. निकम ने ऐसा कसाब की मौत की सजा की प्रक्रिया और तेज़ बनाने के लिए किया था.
• उज्जवल निकम को कुछ दिनों पहले ही भाजपा की केंद्र सरकार ने पद्म पुरस्कार से नवाज़ा गया है.
• डेविड हेडली से पूछताछ करते समय उज्जवल निकम यह भूल गए कि वे 26/11 मुंबई हमलों की जांच में जुटे हुए थे न कि साल 2004 के फर्जी मुठभेड़ की जांच में.
• हेडली के बयान से साफ़ है कि निकम उसे इशरत जहां का नाम लेने पर मजबूर कर रहे थे, जबकि हेडली को इशरत का नाम ही नहीं मालूम है. न्यायपालिका में ऐसे बयान को आधार नहीं बनाया जा सकता है, जिसमें पूछताछ करने वाले ने बयान देने वाले शख्स को विकल्प देकर नाम लिवाया हो या किसी तरीके से बाध्य किया हो.
• यह भी एक तथ्य है कि निकम गुजरात हाईकोर्ट द्वारा गठित एसआईटी की फाइंडिंग पर सवाल उठा रहे हैं.
• निकम की कार्यशैली पर सवाल इसलिए भी उठाए जा सकते हैं कि इसी केस की तफ्तीश में निकम कसाब और बिरयानी को लेकर एक बड़ा झूठ बोल चुके हैं.

इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए देखें तो सरकारी वकील उज्जवल निकम की कार्यशैली और उनकी पारदर्शिता पर गहरे सवालिया निशान लग रहे हैं. कुछ ही देर पहले महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस ने यह कहा कि डेविड हेडली के बयान पर सवाल उठाना राष्ट्र-विरोधी गतिविधि है. यानी किसी आतंकी और फिक्सर के बयान पर सवाल उठाना अब एक लोकतांत्रिक जुर्म घोषित किया जा रहा है. ऐसे में यह प्रश्न उठना लाज़िम है कि सरकारी वकील उज्जवल निकम की इस कारस्तानी को किस घेरे में रखा जाए.

गर्त में गिरती नौकरशाही

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By सिद्धांत मोहन, TwoCircles.net

नई दिल्ली/ लखनऊ:भारत में नौकरशाही को अहम जिम्मेदारियों का पेशा माना जाता है. हर साल लाखों युवा केन्द्रीय लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित की जाने वाली परीक्षाओं में बैठते हैं. लेकिन मुद्दा यह है कि ब्यूरोक्रेसी के गलियारों की हालिया उथलपुथल इतनी सतही, बेबुनियादी और भ्रष्ट हो चुकी है, जिससे आने वाले समय में इस पेशे को संभवतः हमेशा संदेह की नज़रों से देखा जाएगा.

देश के कुछेक ‘ईमानदार’ नौकरशाहों के उदाहरण देखने होंगे ताकि मुद्दे को गहराई से समझा जा सके.

नंबर एक – अमित कटारिया

छत्तीसगढ़ के माओवादग्रस्त इलाके बस्तर में जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पहुंचे तो प्रदेश के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने बेहद गर्मजोशी के साथ मोदी की मुलाक़ात बस्तर के जिलाधिकारी अमित कटारिया से करायी. युवा जिलाधिकारी अमित कटारिया ने काला चश्मा लगाकर मोदी से हाथ मिलाया और यह तस्वीर सोशल मीडिया पर वायरल हो गयी. डिपार्टमेंट ऑफ पर्सनल एंड ट्रेनिंग यानी डीओपीटी(DoPT) ने तुरंत अमित कटारिया को नोटिस जारी किया और उन्हें कोड और प्रोटोकॉल की हिदायत दी गयी. इसके बाद अमित कटारिया को सोशल मीडिया पर ज़बरदस्त सपोर्ट मिला. लोग कहने लगे कि मोदी को कटारिया का चश्मा पहनना नागवार गुज़रा.

गर्त में गिरती नौकरशाही

अमित कटारिया

मामला यहीं नहीं रुका. अमित कटारिया की ईमानदारी की दुहाईयाँ दी जाने लगीं. यह बात सामने आयी कि कटारिया तनख्वाह के रूप में मात्र एक रूपए की टोकन राशि लेते हैं. जगदलपुर की पोस्टिंग के दौरान भी उनके यही चर्चे थे लेकिन अमित कटारिया की ईमानदारी की कहानी खुलने में देर नहीं लगी.

साल 2011 में छत्तीसगढ़ के रायगढ़ में अपनी पोस्टिंग के दौरान अमित कटारिया की पत्नी अस्मिता हांडा को जिंदल समूह की एयरलाईन इन्डियन फ्लाईसेफ़ एवियेशन लिमिटेड (इफ्साल) ने व्यावसायिक पायलट के पद पर नौकरी दे दी. अस्मिता हांडा की यह तैनाती तब हुई जब पर्यावरण मंत्रालय से मंजूरी मिल जाने के बाद जिंदल समूह इस क्षेत्र में 13 हजार करोड़ के बिजलीघर को लेकर जनसंघर्षों का सामना रहा था.

बाद में यह बात खुलकर सामने आई कि अस्मिता हांडा को नौकरी या तो अमित कटारिया की कोशिशों की वजह से मिली या उनके प्रभाव के कारण. मीडिया में आई खबरों का कटारिया ने एक दफा भी खंडन नहीं किया, अलबत्ता अपने सोशल सर्किल को और सिमटा लिया. ‘राजस्थान पत्रिका’ की तहकीकात का भरोसा करें तो रायगढ़ में कटारिया की पोस्टिंग के महज़ छः महीने बाद ही जिंदल समूह ने अस्मिता हांडा को नौकरी दे दी.

यह लोकसेवा की नियमावली कहती है कि केन्द्रीय संघ लोकसेवा आयोग का कोई भी प्रशासनिक अधिकारी किसी क्षेत्र में अपनी सेवा के दौरान अपने किसी रिश्तेदार को कहीं नौकरी नहीं दिलवा सकता है. यदि वह किसी सरकारी या गैर-सरकारी उपक्रम में अपने किसी रिश्तेदार को नौकरी दिलवाता है, तो उसे स्पष्टतः पद का दुरुपयोग माना जाएगा. यानी इस बात को जोर देकर कहा जा सकता है की अमित कटारिया ने अपने पद का दुरुपयोग किया.

नंबर दो – बी. चंद्रकला
उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर की डीएम बी. चंद्रकला को कौन नहीं जानता? सड़कों पर ईंटे बिछाने वाले ठेकेदार की क्लास लगाना हो या प्राथमिक विद्यालय में बच्चों के विकास को देखते हुए अध्यापकों की क्लास लगाना हो, हर जगह बी. चंद्रकला की ईमानदारी की दुहाई दी जाती रही है और उनकी पारदर्शिता के दाद दी जाती रही है.

गर्त में गिरती नौकरशाही

बी. चंद्रकला

लेकिन कुछ रोज़ पहले अपने साथ सेल्फ़ी लेने के बाद एक युवक को गिरफ्तार करवा देने के बाद बी. चंद्रकला फिर से सुर्ख़ियों में आ गयीं. हालांकि मामला यहीं नहीं रुका. जब बुलंदशहर के एक अखबार के पत्रकार ने बी. चंद्रकला को फोन किया और मामले पर उनका पक्ष जानना चाहा तो चंद्रकला अपना आपा खो बैठीं. चंद्रकला ने फोन करने वाले पत्रकार को ‘समझाया’ कि यदि उस पत्रकार की माँ-बहन के साथ कोई सेल्फी ले ले तो वह क्या करेगा? चंद्रकला यहीं नहीं रुकीं. इस बातचीत में चंद्रकला पत्रकार से यह कह रही हैं कि ‘भेजूं कुछ लोगों को आपके घर? लोग हैं हमारे यहां? वे जाएंगे तब आपको समझ में आएगा.’बी. चंद्रकला पत्रकार को पत्रकारिता भी सिखा रही हैं. यह बातचीत सोशल मीडिया पर वायरल हो चुकी है. लोग व्हाट्सऐप पर शेयर कर रहे हैं.

अगले दिन जब अखबार ने इस पूरे वाकये को प्रमुखता से प्रकाशित किया तो बी. चंद्रकला का पारा सातवें आसमान पर पहुंच गया. ब्यूरोक्रेट बी. चंद्रकला ने अखबार के ऑफिस के सामने दो ट्रक भरकर कूड़ा फिंकवा दिया. अखबार ने इसे भी पहले पेज की खबर बनाया और अब मामले में कोई नई गतिविधि नहीं है.

सोशल मीडिया पर सक्रिय प्रशासनिक अधिकारियों और सरकारी कर्मचारियों के साथ-साथ उत्तर प्रदेश पर राज कर रही समाजवादी पार्टी के समर्थकों ने बी. चंद्रकला की इन हरक़तों को जायज़ बताया है और मीडिया को आईना दिखाने वाला बताया है, लेकिन कई बुद्धिजीवियों और मीडियाकर्मियों ने इस घटना को नौकरशाही के लिए एक शर्मनाक वाकया बताया है. इस वाकये को ख़त्म करते-करते यह बता देना चाहिए कि बी. चंद्रकला की कुल संपत्ति महज़ दो साल में दस लाख से बढ़कर एक करोड़ से महज़ कुछ हज़ार कम रह गयी है.

अमित कटारिया और बी. चंद्रकला के वाकये कुछ ऐसे उदाहरण हैं, जिनसे देश में नौकरशाही की परिभाषा तय हो रही है. भले ही ब्यूरोक्रेसी को बेहद सम्मानजनक और ईमानतलब पेशा माना जाता हो, लेकिन नौकरशाही के ऐसे वाकयों से इस मान्यता पर एक काला धब्बा लग जाता है. जिस अखबार के खिलाफ बी. चंद्रकला ने कार्रवाई की है, उस पर लम्बे समय से एकतरफा पत्रकारिता के आरोप लगते रहे हैं लेकिन एरिस्टोक्रेसी का पाठ पढ़ने वाले नौकरशाहों को कूड़ा फेंकने और ‘लोग भेजने’ की धमकी देने से अलग कोई कानूनी और सार्थक रास्ता देखना चाहिए, ऐसा जानकारों का कहना है. लेकिन अमित कटारिया और बी. चंद्रकला के विरोध में खबरें लिखने और पोस्ट लगाने वाले लोगों को समर्थकों से दो टूक बातें सुनने को मिल रही हैं.

अमित कटारिया और बी. चंद्रकला ने अपने फेसबुक पेज बना रखे हैं. हालांकि वे ऐसे अकेले नहीं हैं, कई आईएएस अधिकारियों ने अपनी लोकप्रियता की नुमाईश के लिए ऐसे फेसबुक पेज बनाए हैं. फेसबुक के साथ-साथ ऐसे सभी अधिकारियों के विकिपीडिया पेज भी बने हुए हैं, जिन पर उनके बारे में जानकारियां, उनके जीवन से जुड़े तथ्य और कुछ घटनाएं शामिल हैं.

गर्त में गिरती नौकरशाही

पूर्व नौकरशाह डीपी बागची इस बारे में मौजूदा अधिकारियों से अलग राय रखते हैं. वे कहते हैं, ‘किसी भी प्रशासनिक अधिकारी को कार्यक्षेत्र में एक जिम्मेदारी के साथ पेश आना चाहिए. ज़रूरी है कि वह ज़मीन से जुड़ा रहे और अपने काम से ही मतलब रखे.’

गर्त में गिरती नौकरशाही

नौकरशाहों के सोशल मीडिया पर संलिप्तता के बाबत बागची कहते हैं, ‘मुझे तो हंसी आ रही है सोचकर कि आईएएस अधिकारियों के फेसबुक पेज और फैन पेज बने हुए हैं. ये किसी भी हाल में स्वीकार्य नहीं है. मानता हूं कि सोशल मीडिया के आने के बाद इस पर रोकथाम बेहद मुश्किल है लेकिन किसी ब्यूरोक्रेट को बेहद लो-प्रोफाइल रहकर काम करना होगा. वो कोई फिल्म स्टार तो है नहीं जो अपने फैन बनाए. माने कि किसी भी संजीदा व्यक्ति को इस कृत्य पर हंसी आ सकती है.’

बी. चंद्रकला की कमोबेश सभी कार्रवाईयों के दौरान एक व्यक्ति मौजूद रहता है जो उनकी कार्रवाई का वीडियो बनाता है. बी. चंद्रकला के साथ पहले रह चुके एक सहायक नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि उस आदमी का काम ही वीडियो बनाना है, नहीं तो प्राइमरी स्कूल की कक्षा में कौन-सा बच्चा भला स्मार्टफोन या कैमरे से वीडियो बनाता फिरेगा. यहां यह प्रश्न उठता है कि अपनी कार्रवाईयों का वीडियो बनवाने वाले एक नौकरशाह को – जिसे उसके शहर के लोग हीरो की तरह मानते हैं – एक सेल्फी पर इतना बिफरना चाहिए कि सेल्फी लेने वाले व्यक्ति को जेल भेज दे. वह भी तब जब देश का प्रधानमंत्री सेल्फी लेने के लिए पूरी दुनिया में मशहूर हो गया हो.

चूंकि बी. चंद्रकला का मुद्दा एकदम ताज़ा और नया है, इसलिए हमने बी. चंद्रकला का पक्ष जानने के लिए उन्हें फोन किया. तकरीबन दस बार फोन करने पर भी हर दफा चंद्रकला का सरकारी नंबर हर बार उनका कर्मचारी ही उठा रहा था और ‘मैडम से कुछ देर में बात हो पाएगी की दुहाई दे दे रहा था.’

हालांकि इन घटनाओं से इन नौकरशाहों के अपने काम के प्रति संजीदगी को नहीं नकारा जा सकता है. बागची कहते हैं, ‘मुझे भरोसा है कि ये लोग युवा हैं और अपने क्षेत्र में काम करके नयी मिसाल कायम करेंगे.’ लेकिन मीडिया में आने वाली रिपोर्ट इस सेवा में आगे आने की इच्छा रखने वाले युवाओं को ज़रूर भ्रमित कर सकती हैं.

IMRC की मुहिम : दस विदेशी डॉक्टरों के साथ भारत के गांवों तक पहुंचेगी स्वास्थ्य सेवाएं

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By TCN News

लखनऊ: भारत के कोनों-कोनों तक पहुंचकर राहत कार्य करने वाली अमरीका संस्था इन्डियन मुस्लिम रिलीफ एंड चैरीटीज़ यानी IMRC के सातवें सालाना स्वास्थ्य जागरूकता अभियान में इस साल अमरीका के १० चिकित्सक शिरकत करेंगे. 20 फरवरी से 6 मार्च तक होने वाला यह अभियान लखनऊ, हैदराबाद और केरल में आयोजित होगा.

इन दस डाक्टरों में महिला रोग, शिशु रोग, सर्जरी, जनरल मेडिसिन के साथ अलग-अलग क्षेत्रों के विशेषज्ञ शामिल हैं.


6th India Health Initiative of IMRC concluded in Karnataka

अभियान से जुड़ी डा. फरीदा घोगावाला बातचीत में बताती हैं, 'इसके पहले ज़रूरतमंद लोगों की मदद के लिए कोई मंच की तलाश में थी. उसके बाद मेरा संपर्क IMRC और संस्था के इस मुहिम से हुआ. मुझे पता चला कि संस्था भारत में ज़रूरतमंद लोगों के लिए किस तरह से काम कर रही है.'

वे आगे बताती हैं, 'अब मुझे चार साल हो गए हैं. इन चार सालों में मैंने असम, उत्तर प्रदेश और हैदराबाद में संस्था के साथ मिलकर अपने मक़सद को अंजाम दिया है.'
डा. जॉन रॉज़ेन्बर्ग का मानना है कि यह मुहिम ज़रुरतमंदों को जीवनदान और ज़रूरी स्वास्थ्य सुविधाएं दे रही है. वे कहते हैं,'ये कोई छोटा और आसान काम नहीं है. लेकिन हम लगे हुए हैं कि ज्यादा से ज्यादा लोगों तक मुक़म्मिल सुविधाएं पहुंचा सकें.'

लखनऊ के पास बाराबंकी रोड पर स्थित जहांगीराबाद इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में 20 फरवरी से 23 फरवरी तक लगाए जाने वाले कैम्प से इस अभियान की शुरुआत होगी.

लखनऊ के बाद हैदराबाद में ब्राईट फ्यूचर स्कूल(हसन नगर), इंडो-यूएस स्कूल(किशन बाग़), शाहीन नगर मरकाज़ और बाबा नगर इंडो-यूएस स्कूल में 26-29 फरवरी तक यह मेडिकल जागरूकता अभियान चलाया जाएगा.

इसके बाद केरल के कोझिकोड शहर के कूदारंजी, मुक्कम और कोडियाथूर गाँवों में 3 मार्च से लेकर 6 मार्च तक अभियान का अंतिम सत्र चलेगा.

IMRC की यह स्वास्थ्यसंबंधी पहल साल 2010 में शुरू हुई थी. तब से लेकर आजतक कम से कम छः बार इस मुहिम के दम पर IMRC ने भारत के गाँवों, बस्तियों और शहरों में घूम-घूमकर ज़रूरतमंदों को स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा दी है. इस अभियान की ख़ास बात यह है कि इस सालाना कार्यक्रम से लोगों और क्षेत्र के लोकल डॉक्टरों को स्वास्थ्य सेवाओं की बारीक और मौलिक जानकारी दी जाती है. इसके साथ ही लोगों को हेल्थ केयर की मौलिक जानकारी से रूबरू कराया जाता है. बीते साल हैदराबाद, बीजापुर और बांगरपेट में मिलाकर लगभग दस हजार मरीजों को स्वास्थ्य सेवाएं दी गयी थीं.

संस्था के निदेशक मंज़ूर घोरी कहते हैं, 'इस मुहिम के बाद से हमें पता चला कि गरीबों को होने वाली कई असाध्य बीमारियां एकदम लाइलाज नहीं हैं. ये बीमारियां गरीबी, गन्दगी और लापरवाही से लाइलाज हो जाती थीं. थोड़ी जानकारी और सावधानी से उनका इलाज किया जा सकता है.'

IMRC के बारे में बात करें तो संस्था की नींव साल 1981 में रखी गयी थी. तब से लेकर आज तक अमरीका की यह चैरिटेबल संस्था अन्य लगभग 100 संस्थाओं के साथ मिलकर देश के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में कई किस्म के कार्यक्रम चला रही है. संस्था का उद्देश्य ज़रूरतमंद तबके को शिक्षा, आपातकालीन सेवाएं, स्वास्थ्य व न्यायसम्बंधी ज़रूरतें, खाना और छत की ज़रूरतें मुहैया कराना है. असम दंगे 2012, मुज़फ्फरनगर दंगे 2013, 2014 की कश्मीर बाढ़ और 2015 की चेन्नई बाढ़ के वक़्त संस्था ने घरों-घरों तक जाकर लोगों को ज़रूरी सेवाएं प्रदान की हैं. संस्था की लोगों से अपील है कि वे यदि भोजन या पैसों के रूप में IMRC को चन्दा देना चाहते हैं तो वे www.imrcusa.orgपर जाकर साथ निबाह सकते हैं.

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