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कानून तोड़ते हुए योगी आदित्यनाथ ने रैली की

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By TCN News,

लखनऊ: भड़काऊ भाषण देने में जवाब तलब किए जाने और चुनाव आयोग की रोक के बावजूद भाजपा नेता योगी आदित्यनाथ ने लखनऊ की रैली में हिस्सा लिया और जनसमूह को संबोधित भी किया. लव जिहाद को लेकर भड़काऊ वक्तव्य देने के फलस्वरूप चुनाव आयोग ने योगी की इस रैली पर रोक लगा दी थी, लेकिन योगी ने कानून को धता बताते हुए न सिर्फ़ योगी आदित्यनाथ ने रैली की बल्कि उन्होंने प्रशासन पर सियासी दबाव में काम करने का आरोप भी लगा दिया.

कथित भड़काऊ बयान के बाद समाजवादी पार्टी ने आदित्यनाथ के खिलाफ चुनाव आयोग से शिकायत की थी. चुनाव आयोग ने आदित्यनाथ से जवाब मांगते हुए लखनऊ रैली पर रोक भी लगा दी थी. रैली में शिरकत करने के पहले आदित्यनाथ ने आयोग को अपना स्पष्टीकरण सौंपा, जिसमें उन्होंने कहा कि उन्होंने कोई भड़काऊ बयान नहीं दिया है और न ही चुनाव आचार संहिता का कोई उल्लंघन किया है. इस रैली में आदित्यनाथ के साथ भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी और दो सांसद भी मौजूद थे.

इतना ही नहीं, चुनाव आयोग की तल्खी के बावजूद आदित्यनाथ ने कतिपय रूप से साम्प्रदायिक साबित होता भाषण दिया. उन्होंनें प्रदेश सरकार पर आरोप लगाया कि समाजवादी पार्टी एक ख़ास सम्प्रदाय को हित पहुंचाकर अपना वोटबैंक मजबूत कर रही है. आयोग पर निशाना साधते हुए आदित्यनाथ ने कहा, ‘प्रशासन हम लोगों को नोटिस इसलिए दे रहा है क्योंकि हम समाजवादी पार्टी के साम्प्रदायिक एजेंडे को रोकने का काम कर रहे हैं. यहां मुस्लिम कन्याओं को कन्या विद्याधन मिलता है, लेकिन हिन्दू कन्याओं को नहीं. कब्रिस्तान की दीवार का निर्माण कराकर सरकार एक ख़ास समुदाय को खुश करना चाह रही है लेकिन प्रदेश में स्वास्थ्य सेवाओं का बुरा हाल है.’

यह जानने की बात है कि प्रदेश में उपचुनावों के मद्देनज़र प्रचार की प्रक्रिया कल खत्म हो जाएगी. योगी आदित्यनाथ ने कानून और आयोग के आदेश की धज्जी उड़ाते हुए जो रैली की है, उससे साफ़ ज़ाहिर है कि आदित्यनाथ ने चुनाव-प्रचार में अंतिम झोंक तक काम करने का प्रयास किया है, भले ही वह प्रयास सामाजिक तौर पर जो भी रंग ले रहा हो.


साम्प्रदायिक गठजोड़ के साये में उत्तर प्रदेश

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By राजीव यादव,

उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में जुलाई 2014 में हुई सांप्रदायिक हिंसा पर आई रिपोर्ट ने भाजपा सांसद राघव लखनपाल व प्रशासनिक अमले को जिम्मेदार ठहराया तो भाजपा ने इसे राजनीति से प्रेरित रिपोर्ट करार दे दिया. इस रिपोर्ट के आने के बाद लाल किले की प्राचीर से सांप्रदायिकता पर ‘ज़ीरो टॉलरेंस’ की बात करने वाले प्रधानमंत्री से अपनी पार्टी की स्थिति स्पष्ट करने की मांग की जा रही है. वहीं अमित शाह जब खुद कहते हैं कि यूपी में भाजपा सरकार बनाने तक उनका काम खत्म नहीं होगा और अब वह ‘मिशन यूपी पार्ट-टू’ की रणनीति पर चल रहे हैं तो ऐसे में इस रणनीति के मायने समझने होंगे कि अब वे किस नए मॉडल के निर्माण की जुगत में लगे हैं. साथ ही इसकी जाँच भी ज़रूरी है कि सत्ता प्राप्ति तक ‘संघर्ष’ जारी रखने का आह्वान करने वालों ने मिशन पार्ट वन में क्या-क्या संघर्ष किया?

बहरहाल, इस रिपोर्ट में भाजपा सांसद और प्रशासन की भूमिका को जिस तरह से कटघरे में खड़ा किया गया है, यदि उसकी रोशनी में प्रदेश में हुई अन्य सांप्रदायिक घटनाओं की तफ्तीश की जाए तो आरोप लगाने वाले और आरोपी की भूमिका की शिनाख्त में थोड़ा आसानी होगी.



File photo: Saharanpur riot

सहारनपुर के करीबी जनपद मुजफ्फरनगर और उसके आसपास के क्षेत्रों को ठीक एक साल पहले सांप्रदायिकता की आग में झोंके जाने की तैयारी पहले से ही दिखने लगी थी. 7 सितंबर 2013 को हिंदुत्ववादी संगठनों द्वारा नंगला मंदौड़ में बिना अनुमति की पंचायत के बाद पूरे क्षेत्र को सांप्रदायिक हिंसा की आग में झोंक दिया गया था. यह आश्चर्य ही है कि इस पंचायत और इससे पहले हुई कई पंचायतों की कोई वीडियो रिकार्डिंग प्रशासन ने नहीं करवाने की बात कही है. ऐसा अमूमन नहीं होता पर सबूत तो निकल ही आता है एक बड़ा सबूत कुटबा-कुटबी गांव के एक मोबाइल चिप से प्राप्त हुआ जिसे कुछ मानवाधिकार संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका में भी लगाया है. जिसमें 8 सितंबर यानी जनसंहार के दिन हमलवार आपस में किसी ‘अंकल’ की बात कर रहे हैं, जिसने गांव में पीएसी को देर से आने के लिए तैयार किया ताकि उन्हें मुसलमानों को मारने उनके घरों को जलाने का पर्याप्त समय मिल सके.

गौरतलब है कि इस साम्प्रदायिक हिंसा में सबसे अधिक प्रभावित होने वाले गांवों में से कुटबा-कुटबी - जहां आठ मुसलमानों की निर्मम हत्या कर दी गई थी - नवनिर्वाचित भाजपा सांसद व केन्द्रीय कृषि मंत्री संजीव बालियान का गांव है. मोबाईल की इस बातचीत को ‘रिहाई मंच’ द्वारा इस मामले की जांच कर रही एसआईसी को सौंपा गया लेकिन आज तक इस ‘अंकल’ की शिनाख्त नहीं की जा सकी.

ठीक यही प्रवृत्ति 24 नवंबर 2012 को फैजाबाद में हुई सांप्रदायिक हिंसा में भी देखने को मिली थी. तत्कालीन डीजीपी एसी शर्मा ने मौके पर मौजूद एसपी सिटी राम सिंह यादव को आंसू गैस छोड़ने व रबर बुलेट चलाने को कहा लेकिन आदेश को लागू करने के बजाय यादव ने अपना मोबाइल ऑफ़ कर दिया. पुलिस तीन घंटे तक मूकदर्शक बनी रही और वह फैजाबाद, जो 1992 में भी सांप्रदायिक तांडव से अछूता था, धू धू कर जलने लगा. 24 अक्टूबर की शाम 5 बजे से शुरू हुई इस सांप्रदायिक हिंसा के घंटों बीत जाने के बाद 25 अक्टूबर की सुबह 9 बजकर 20 मिनट पर कर्फ्यू लगाया गया. फैजाबाद चौक पर शाम से शुरू हुई आगजनी और लूटपाट के वीडियो और तस्वीरों में पुलिस और पूर्व विधायक व नवनिर्वाचित भाजपा सांसद लल्लू सिंह की मौजूदगी में देर रात तक दुकानों को लुटते और आगजनी के हवाले होते देखा जा सकता है. आश्चर्य की बात तो है कि कर्फ्यू सुबह घोषित किया जाता है और वहां मौजूद फायर ब्रिगेड की गाडि़यों द्वारा आग न बुझाए जाने के सवाल पर प्रशासनिक अधिकारी कहते हैं कि गाडि़यों में पानी नहीं था. प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया द्वारा गठित एकल सदस्यीय शीतला सिंह कमेटी की रिपोर्ट ने रुदौली के भाजपा विधायक रामचन्द्र यादव और पूर्व विधायक व अब भाजपा सांसद लल्लू सिंह, तत्कालीन डीएम, एसएसपी, पुलिस अधिक्षक, एडीएम समेत पूरे पुलिसिया अमले को सांप्रदायिक हिंसा में संलिप्तता के तौर पर चिन्हित किया है.

सहारनपुर सांप्रदायिक हिंसा पर आई रिपोर्ट के बाद भाजपा ने ताल ठोंकी है कि सपा सरकार मुकदमा दर्ज़ करके दिखाए. जब प्रशासनिक अधिकारियों को मालूम था कि वहां सांप्रदायिक रूप से उन्मादी भीड़ जमा हो रही है और अब जब इस संलिप्तता को सांप्रदायिक हिंसा के लिए जिम्मेदार ठहराया गया है तो क्या सरकार प्रशासनिक अधिकारियों के खिलाफ भी मुकदमा दर्ज करेगी?

इन सवालों में उलझी सरकार को पूर्ववर्ती हिंसा की घटनाओं से सबक जरूर लेना चाहिए. मुख्यमंत्री कहते हैं कि दोषी प्रशासनिक अधिकारियों को बख्शा नहीं जाएगा पर ऐसी घटनाओं के बाद कार्यवाही न करने से इन कौमी हिंसा के अपराधियों के मनोबल को बढ़ावा मिलता है. चूंकि किसी एसपी सिटी राम सिंह यादव का मोबाइल ऑफ़ कर देना कोई चूक नहीं है, उसी तरह यादवों और पिछड़े वर्ग के एक बड़े हिस्से का भाजपा की थैली में जाना.

दरअसल दलित और पिछड़ी जातियों की अस्मितावादी राजनीति ने जो गोलबंदी की थी वह जाति के नाम पर थी न कि धर्मनिरपेक्षता के नाम पर. जैसे ही ‘महिला सुरक्षा’ जैसे सवालों को आगे कर पुरुषवादी समाज का सीना 56 इंच फुला दिया गया, दलित और पिछड़ा वर्ग सांप्रदायिक राजनीति का पैदल सिपाही बन गया. अब इस अंधे कुएं से इन्हें निकालना किसी अस्मितावादी राजनीति के बस की बात नहीं है. मुजफ्फरनगर में हुई सांप्रदायिक हिंसा को जाट और मुस्लिम संघर्ष बताने और फैजाबाद में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच अविश्वास के चलते हुई साम्प्रदायिक हिंसा बताने वाली सपा सरकार को अपनी जाति आधारित अस्मितावादी राजनीति के खोल से बाहर आना होगा.

लोकसभा चुनावों के बाद प्रदेश की 600 से अधिक सांप्रदायिक घटनाओं में से 259 घटनाएँ सिर्फ पश्चिमी उत्तर प्रदेश में घटित हुई हैं और 358 घटनाएं उन 12 विधानसभा क्षेत्रों में हुई हैं, जहां पर उपचुनाव होने हैं. इससे साफ है कि यह पूरा खेल चुनावों के लिए हो रहा है. ठीक इसी तरह लोकसभा चुनावों के पहले भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक हिंसा हुई जिसके पीड़ित आज भी विस्थापित हैं, पर सांप्रदायिक हिंसा के उन आरोपियों, जिन्होंने अपने ऊपर लगे आरोपों को राजनीति से प्रेरित बताया, वह संसद की चहारदीवारी के भीतर चले गए. इस तरह से हम देखें तो पाते हैं कि भाजपा के ‘पूर्व’ सांसद या विधायक इन सांप्रदायिक हिंसा के कारकों की बदौलत ‘वर्तमान’ हो गए हैं. सपा को यह समझ लेना चाहिए कि सांप्रदायिकता से हुए ध्रुवीकरण का लाभ सिर्फ़ उसे ही नहीं मिलेगा, जिसे पिछले लोकसभा चुनाव ने लगभग सिद्ध कर दिया है क्योंकि संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के तहत उससे फिसला यादव समेत अन्य पिछड़ा वर्ग ऐसे किसी भी ध्रुवीकरण के बाद भाजपा को ही मजबूत करेगा.

सोहराबुद्दीन शेख फर्ज़ी मुठभेड़ केस में आरोपी वंजारा को ज़मानत

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By TCN News,

गुजरात पुलिस के पूर्व अधिकारी डीजी वंजारा को बॉम्बे हाईकोर्ट ने वृहस्पतिवार को सोहराबुद्दीन फर्ज़ी मुठभेड़ के मामले में जमानत दे दी.

ज्ञात हो कि डीजी वंजारा को 24 अप्रैल 2014 को दो अन्य आईपीएस अधिकारियों के साथ कथित तौर पर लश्कर-ए-तैयबा के सदस्य सोहराबुद्दीन शेख को फर्जी मुठभेड़ में मार गिराने के आरोप में गिरफ़्तार किया गया था. गुजरात पुलिस पर यह भी आरोप लगा था कि सोहराबुद्दीन की पत्नी कौसर बी की हत्या को गुजरात पुलिस ने अंजाम दिया. इस मामले के अहम गवाह तुलसीराम प्रजापति को भी फर्जी मुठभेड़ में मार देने का आरोप भी गुजरात पुलिस पर लगा है.

न्यायाधीश एएम थिपसे ने कुल जमा तीन लाख की जमानत राशि पर वंजारा को जमानत दी. जज ने वंजारा से सीबीआई के पास अपना पासपोर्ट जमा कराने और मामले की सुनवाई खत्म होने तक हर सोमवार, बुधवार और शुक्रवार अदालत में अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराने का आदेश दिया है.

अदालत ने वंजारा को सख्त निर्देश दिए हैं कि वे सबूतों और गवाहों के साथ किसी भी किस्म की छेड़छाड़ न करें और यदि वे पेशी में छूट पाना चाहते हैं तो उन्हें अदालत से इस बारे में पहले अनुमति मांगनी होगी.

हालांकि वंजारा अभी तुलसीराल प्रजापति और इशरत जहां फर्जी मुठभेड़ के मामलों के अंतर्गत साबरमती जेल में ही रहेंगे. सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ मामले में सीबीआई ने अपने चार्जशीट में कुल ३७ लोगों को नामज़द किया था, जिनमें भाजपा के वर्तमान राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह प्रमुख है. अमित शाह को इस मामले में जमानत दे गयी थी. ज्ञात हो कि गवाहों की सुरक्षा और केस की सुनवाई की शुचिता बरकरार रखने की नीयत से सर्वोच्च न्यायालय ने मामले को अहमदाबाद से बॉम्बे हाईकोर्ट स्थानांतरित कर दिया था.

“मदरसे आतंकवाद की शिक्षा देते हैं” – साक्षी महाराज

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By TCN News,

कन्नौज/ लखनऊ : भारतीय जनता पार्टी के सांसद साक्षी महाराज ने अपने विवादास्पद बयान से नयी बहस को तूल दे दिया है. साक्षी ने मदरसे को आतंकवाद की शिक्षा का गढ़ बताते हुए कहा कि हिंदू लड़कियों को फंसाने की साजिश रची जा रही है.

उत्तर प्रदेश के उन्नाव से सांसद साक्षी महाराज ने नादेमउ में आयोजित समारोहोपरांत संवाददाताओं से बातचीत के दौरान कहा कि, ‘मदरसों में राष्ट्रीयता की शिक्षा नहीं दी जाती है. मुझे एक भी मदरसा बता दें जहां 15 अगस्त 26 जनवरी को तिरंगा फहराया जाता हो.’


Sakshi Maharaj
Sakshi Maharaj

उन्होंने आगे कहा, ‘मदरसे आतंकवाद के विद्यालय हैं. वहां कुरआन की तालीम देकर बच्चों को आतंकवादी और जिहादी बनाना किसी भी दृष्टि से राष्ट्रहित में नहीं है.’

मदरसों को मिलने वाली सरकारी सहायता को प्रश्नांकित करते हुए साक्षी ने कहा, ‘हमारे अधिकांश स्कूल सरकार से कोई सहायता नहीं लेते हैं, जबकि राष्ट्रीयता से वास्ता नहीं रखने वाले सभी मदरसों को सरकारी सहायता दी जाती है.’ साक्षी महाराज ने लव जिहाद का मुद्दा उठाते हुए कहा, ‘हिन्दू लड़कियों को अरब देश के मुस्लिम पैसा लगा रहे हैं. हिन्दू, सिख, जैन आदि की लड़कियों को बहकाने के लिए ‘रेट फिक्स’ हैं.’

समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ने इन बयानों पर कड़ा ऐतराज़ जताया है और सरकार से कड़ी कार्यवाही करने की मांग की है. इस पखवारे में भाजपा सांसदों द्वारा धर्माधारित विवादास्पद बयान देना कोई नयी घटना नहीं है, लेकिन जिस तरह सरकार इन भड़काऊ बयानों के बाबत अभी तक कोई भी कार्यवाही कर पाने में विफल है, वह क़ाबिल-ए-गौर है.

उपचुनाव के नतीजे और सच का सामना

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By सिद्धान्त मोहन, TwoCircles.net,

‘अच्छे दिनों’ का बयाना लेकर आई भारतीय जनता पार्टी ने शायद सोचा भी नहीं था कि लोकसभा चुनाव में मिली इतनी करारी जीत के बाद उपचुनावों में लगभग उतनी ही करारी हार का सामना करना पड़ेगा. दस राज्यों में तीन लोकसभा और 33 विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजे सामने आ चुके हैं. इस उपचुनाव को बतौर प्रधानमंत्री, नरेन्द्र मोदी के इम्तिहान के तौर पर देखा जा रहा था. ऐसा इसलिए क्योंकि लोकसभा चुनाव में इतनी जबरदस्त जीत दर्ज करने के बाद भाजपा को उम्मीद थी कि प्रधानमंत्री की ‘करिश्माई ताकत’ की बदौलत वह इन चुनावों में कुछ कमाल कर दिखाएगी, लेकिन मौजूदा परिणाम कुछ और ही कहानी बयां कर रहे हैं.

इन चुनाव के परिणामों में जो कुछ भी दाँव पर लगा था, वह न तो किसी प्रत्याशी की जमानत थी और न साख. दांव पर लगने वाली चीज़ थी तो हाल ही में बीते लोकसभा चुनाव में भाजपा के नेतृत्व का 56 इंच का सीना. चुनाव परिणामों के मद्देनज़र बात करें तो उत्तर प्रदेश की कुल 11 सीटों में से 8 सीटों पर समाजवादी पार्टी ने झण्डा गाड़ दिया, जिसमें मैनपुरी की सबसे आसान लोकसभा सीट के साथ नरेन्द्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी का रोहनिया जैसी दुर्लभ सीट शामिल है. जिन ग्यारह सीटों पर उत्तर प्रदेश में चुनाव हुए, वे सभी सीटें 2012 में हुए चुनाव के समय से भारतीय जनता पार्टी के कब्ज़े में थीं. इस बार भी भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी ने आमचुनाव में मिली जीत के जोश में आकर दावा कर दिया कि यह सभी सीटें अविजित हैं, लेकिन उपचुनाव के नतीजों ने भाजपा पदाधिकारियों और प्रचारकों के चेहरों की हवा उड़ा दी है. बिजनौर, ठाकुरद्वार, सिराथू, चरखारी, बल्हा, हमीरपुर, निघासन और रोहनिया के साथ-साथ मैनपुरी संसदीय सीट को समाजवादी पार्टी ने अपने कब्ज़े में कर लिया है.


Bihar Assembly Election 2010

भाजपा के उत्तर प्रदेश के ‘फायर-ब्रांड’ प्रचारक योगी आदित्यनाथ ने घूम-घूमकर साम्प्रदायिक रूप से भड़काऊ वक्तव्य दिए, जिससे भाजपा को यह उम्मीद बंध गयी कि रही-सही वोटों की कसर ‘लव-जिहाद’ से भयभीत लोग पूरी कर देंगे. लेकिन प्रचार का यह निकृष्ट फंडा भी भाजपा को पुरानी साख लौटा पाने में विफल रहा. चुनाव के नतीज़े आते ही अपनी साख बचाने की नीयत से आनन-फानन में योगी आदित्यनाथ ने बयान जारी कर दिया कि जिन-जिन सीटों पर उन्होंने प्रचार किया है, उन दोनों सीटों पर भाजपा ने विजय हासिल की है. साथ ही उन्होंने आयोग और प्रशासन को आड़े हाथों लेते हुए कहा है कि यदि उन्हें प्रचार से रोका न गया होता तो वे पार्टी को बड़ी जीत दिला सकते थे. लेकिन सांसद योगी आदित्यनाथ शायद यह भूल रहे हैं कि उन्होंने ‘अपना दल’ के समर्थन में वाराणसी की रोहनिया विधानसभा सीट पर भी प्रचार किया था, जिसे वे बेतरह हार गए.

रोहनिया विधानसभा सीट को पूरे उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणामों के उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है क्योंकि बनारस से लगी हुई यह सीट भाजपा की नाक की लड़ाई थी. यह सीट भी एक रोचक किस्सा रचती है. इस सीट से एमएलए अपना दल की अनुप्रिया पटेल ने लोकसभा चुनाव के पहले भारतीय जनता पार्टी को समर्थन दे दिया. अनुप्रिया पटेल का भी ध्येय साफ़ था, उन्होंने ऐसा इसलिए किया क्योंकि उन्हें मिर्जापुर की सीट से संसदीय चुनाव लड़ना था, जिसमें उन्हें जीत भी मिली. लेकिन इसी के साथ उन्हें रोहनिया की विधानसभा सीट छोड़नी भी पड़ी, जिस पर बीती तारीख में चुनाव हुए. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की बनारस से जबरदस्त जीत के बाद अपना दल और भाजपा का गठबंधन रोहनिया में भी जीत के लिए आश्वस्त था, लेकिन अपने भौगोलिक-सामाजिक परिवेश में मूलतः ग्रामीण क्षेत्र रोहनिया ने किसी राष्ट्रीय पार्टी के बजाय प्रदेश स्तर की पार्टी का साथ थामना ज़्यादा ज़रूरी समझा जहां सपा के मंत्री सुरेन्द्र सिंह पटेल के भाई महेंद्र सिंह पटेल को विजय हासिल हुई. ऐसे में प्रश्न उठता है कि रोहनिया में भाजपा से कहां चूक हुई? रोहनिया में भाजपा ने अपना कोई प्रत्याशी खड़ा करने के बजाय अपने सहयोगी अपना दल को समर्थन दिया. भाजपा के हाई-फाई चुनाव प्रचार की हनक नगरी क्षेत्रों में ही सिमटी रही. दरअसल, कांग्रेस और भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टियों की पहुंच ग्रामीण इलाकों में है ही नहीं, और जिसके समर्थन में ये पार्टियां प्रचार करती हैं ऐसे कई इलाकों में जनता को समझ ही नहीं आता कि कैसे किसी एक के पक्ष में खड़ा हुआ जाए, क्योंकि गठबंधन का गणित आम जनता की समझ से परे है. ऐसे में ज़ाहिर है कि जनता सपा, बसपा और अपना दल जैसी क्षेत्रीय पार्टियों के साथ जाना ज़्यादा पसंद करेगी लेकिन इस होड़ में अपना दल पहले ही बाहर हो जाता है क्योंकि भाजपा से सहयोग और बीते सवा तीन महीनों में प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र में नहीं हुए किसी भी कार्य ने लोगों में थोड़ी अरुचि पैदा कर दी. कांग्रेस के प्रचार की कमी ने भी कांग्रेस को नुकसान पहुंचाने का कार्य किया. लेकिन इसी के साथ इस क्षेत्र की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी सपा ने अपना झण्डा बुलंद कर दिया. अपना दल की इस हार के बाबत हमने भाजपा के महानगर अध्यक्ष टीएस जोशी से बात की तो सुना-सुनाया बहाना सुनने को मिला. टीएस जोशी ने कहा, ‘देखिए प्रदेश सरकार सपा की है, स्थानीय प्रशासनिक महकमा सपा का है, उस इलाके के थानाध्यक्ष से लेकर चौकी इंचार्ज तक ‘यादव’ हैं, ऐसे में कैसे सही परिणाम आएंगे. इन लोगों ने पानी की तरह पैसा बहाया है, सरकारी तन्त्र का दुरुपयोग किया है. हमें खबर यह भी मिली है कि कई मशीनों के सील टूटे हुए थे, इस लिहाज़ से परिणाम तो एकतरफ़ा ही होंगे.’ फ़िर हमारे द्वारा हाल ही में जब बनारस से नरेन्द्र मोदी की जीत का हवाला दिया गया, तो टीएस जोशी कहने लगे, ‘अब देखिए हार क्यों हुई, कैसे हुई ये विचार का विषय है. अभी हम लोग पूरा समय देकर बूथवार परिणाम देखेंगे, तभी सही कारण सामने आएंगे. हमारी पार्टी का कोई भी उम्मीदवार नहीं था, फ़िर भी हम लोग पूरी मेहनत से लगे हुए थे. अब हार ही ऐसी हुई है कि हम लोग भी सकते में हैं.’ रोहनिया क्षेत्र के ही वोटर रमेश लाल से बात करने पर वे बताते हैं, ‘हम लोग तो उसी को वोट देंगे जो यहां रहकर काम करेगा. अनुप्रिया जी को दिए थे तो वो छोड़कर चली गयीं. अब किसी ऐसे आदमी को दिया जाए, जो यहां रहे.’ इलाके के अन्य वोटर भी ऐसी ही मिली-जुली राय देते हैं. जब हमने रोहनिया से पूर्व विधायक और अपना दल की अध्यक्षा अनुप्रिया पटेल से भी बात की तो लगभग वही जवाब मिला, ‘इस चुनाव परिणाम में बात करने लायक बचा ही क्या है? इस एक छोटे-से चुनाव में इतनी गड़बड़ियाँ हुई हैं कि जिनकी कोई सीमा नहीं है. एकाध मशीनों की सील टूटी होती तो हम समझते कि मानव-भूल है, लेकिन यहां कई सारी मशीनों की सील टूटी हुई थी. यह कोई छोटी-मोटी गडबड़ी नहीं थी, जानबूझकर ऐसा किया गया है. सारा कुछ हमारे पक्ष में था, वोटिंग के दिन ही हम लोगों को अपनी जीत पुख्ता हो गयी थी. लेकिन काउंटिंग के वक्त सील टूटी मशीनें देख जब हमने पर्यवेक्षक से शिक़ायत की और उन्होंने कोई कार्यवाही नहीं की, तो हम समझ गए सब कुछ पहले ही तय हो चुका है. हमने चुनाव आयोग से शिकायत की है. जनता की अदालत में हम चुनाव हार ही चुके हैं, लेकिन अब यह लड़ाई असली अदालत में लड़ी जाएगी.’ इस क्रम में रोहनिया में कांग्रेस प्रत्याशी भावना पटेल भी धांधली के आरोप लगाती हैं, ‘इस चुनाव में लोकतन्त्र की हत्या हुई है. धांधली का कोई हिसाब ही नहीं है. सारे इवीएम के सील टूटे हुए थे, काउंटिंग मशीनों के भी सील टूटे थे. काँग्रेस के परम्परागत वोट भी इवीएम से डिलीट हो गए. हम रोहनिया में पुनर्मतदान की मांग करते हैं.’


Anupriya Patel
Anupriya Patel

यदि एक बार विरोधी दल के प्रत्याशियों के धांधली वाले आरोप को सच मान भी लिया जाए तो क्या उत्तर प्रदेश के सभी आठ जिलों में इस टैम्परिंग को अंजाम दिया गया, और क्या अन्य राज्यों की उन सीटों पर जिन पर कांग्रेस ने जीत दर्ज की है, वहां भी धांधली हुई. प्रत्याशियों-पदाधिकारियों के बयान को देखते हुए यह साफ़ हो जाता है कि भाजपा ने भी ऐसी बुरी हार की कल्पना नहीं की थी. जिन बाकी सीटों पर सपा ने जीत दर्ज की, उन पर भी ग्रामीण परिवेश ने ही भाजपा का नुकसान किया. भाजपा ने राष्ट्रीय राजनीति के चक्कर में इन क्षेत्रों को दरकिनार किया, जिससे ये नौबत आ गयी.

अन्य राज्यों की ओर रुख करें तो गुजरात और राजस्थान दोनों राज्यों में कांग्रेस ने भाजपा से तीन-तीन सीटें छीन लीं. पश्चिम बंगाल को छोड़ लगभग चुनाव से गुज़रे हरेक राज्य में भाजपा का धड़ा कमज़ोर होता दिख रहा है. और पश्चिम बंगाल में जो जीत भाजपा को मिली है, वह भी दो सीटों में से सिर्फ़ एक पर. ऐसे भी भाजपा के अच्छे दिनों के गुब्बारे की हवा निकलती नज़र आ रही है. सामाजिक मुद्दों के जानकार कहते हैं कि यदि भाजपा ने इस बार भी विकास के मुद्दे को हथियार बनाया होता, तो जीत निश्चित होती. लेकिन उन्होंने उत्तर प्रदेश की जनता को मूर्ख समझते हुए ‘लव-जिहाद’ जैसे ओछे साम्प्रदायिक मुद्दों को हथियार बनाया, जिसके कारण उन्हें यह परिणाम भुगतना पड़ा. परिणामोपरांत आ रहे भाजपा के आधिकारिक बयान यह ज़ाहिर कर रहे हैं कि भाजपा अन्य राज्यों में होने वाले चुनावों के मद्देनज़र अपनी गलतियों में सुधार करना चाहती है. लेकिन इसके लिए भाजपा को सबसे पहले अपने लम्बी जीभों वाले सांसदों और पदाधिकारियों पर लगाम लगाना होगा, इसके साथ भाजपा की दलित और मुस्लिम विरोधी छवि का परिष्कार किये बगैर उत्तर प्रदेश जैसे कठिन राजनीतिक क्षेत्रफल में विजय मुमकिन नहीं है.

सेना-भाजपा का गठबंधन सबसे कमज़ोर दौर में, सीटों पर स्थिति स्पष्ट नहीं

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By TCN News,

महाराष्ट्र में विधानसभा सीटों के बंटवारे को लेकर जारी तनाव के कारण भाजपा-शिवसेना का पच्चीस साल पुराना गठबंधन बेहद कमज़ोर दौर में पहुंच गया है. शिवसेना के तेवर यदि गर्म हैं तो भाजपा भी तनाव की स्थिति में है. इस बीच एक और कोशिश करते हुए भाजपा ने सीट बंटवारे का नया फॉर्मूला पेश किया है, जिसमें वह 135 के बजाय 128 सीटों की मांग पर आ गई है.

शुक्रवार को भाजपा कोर कमेटी की बैठक के बाद पार्टी ने गठबंधन बनाए रखने का रुख जताया. सीट बंटवारे के नए फार्मूले के तहत शिवसेना को 142, भाजपा को 128, शेतकरी संगठन को 8, आरपीआई को चार, रासप को चार और शिव संग्राम को दो सीटें देने का प्रस्ताव रखा गया है. भाजपा इस प्रस्ताव को शिवसेना के पास भेजने की तैयारी मं है.


Shiv Sena, BJP

सीटों के बंटवारे के लिए भाजपा द्वारा अल्टीमेटम दिए जाने के कुछ ही घंटों बाद शिवसेना ने ऐलान किया कि वह किसी दबाव में निर्णय नहीं लेगी. शिवसेना सांसद संजय राउत ने कहा कि हम अपने आत्मसम्मान पर कोई समझौता नहीं करेंगे. हमने पार्टी अध्यक्ष उद्धव ठाकरे से मुलाकात कर गठबंधन पर चर्चा की है. शिवसेना किसी किस्म के अल्टीमेटम को नहीं मानती. इस विषय में अंतिम फैसला केवल उद्धव ठाकरे ही लेंगे.

ज़ाहिर है कि यदि भाजपा और शिवसेना का यह गठबंधन टूटता है तो परिणामों को भाजपा को ही भुगतना होगा, क्योंकि भाजपा के मुक़ाबिले शिवसेना महाराष्ट्र में ज़्यादा मजबूत स्थिति में है.

‘भाजपा केवल मुसलमानों के लिए नहीं, पूरे समाज के लिए हानिकारक है’ : गौतम नवलखा

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By TCN News,

लखनऊ : बाटला हाउस फर्जी मुठभेड़ की छठवीं बरसी पर समूचे मामले की न्यायिक जांच की मांग को लेकर रिहाई मंच द्वारा ’सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति और खुफिया एजेंसियों की भूमिका’ विषयक गोष्ठी का आयोजन यूपी प्रेस क्लब में शुक्रवार को किया गया. बतौर प्रमुख वक्ता प्रख्यात पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता गौतम नवलखा ने इस मामले के बरअक्स कई बातों पर प्रकाश डाला.

गौतम नवलखा ने कहा कि, ‘इस मुल्क में फर्जी एनकाउंटरों का सिलसिला बाटला हाउस से नहीं शुरू होता है. यह अमरीका में हुई 29 सितंबर 2001 की घटना के बाद भी भारत में नही शुरू होता. इसका एक पुराना इतिहास रहा है और हर राज्य में यह हुआ है. आपातकाल के दौरान सबसे ज़्यादा फर्जी एनकाउंटर आंध्र प्रदेश में हुए.’


Gautam Navkhala

गौतम नवलखा ने कहा कि, ‘उत्तर प्रदेश उपचुनाव में भाजपा के हिंदूवादी एजेंडे को एक धक्का भले लगा है, लेकिन यह तय है कि उनकी विषैली और विभाजनकारी राजनीति अभी खत्म होने वाली नहीं है. संघ और विश्व हिंदू परिषद आज भी उसी राजनीति पर कायम हैं. कई राज्यों मे उनकी सरकारें हैं. आज उनके लिए प्रशासन ‘सॉफ्ट’ हो गया है, उनकी मदद कर रहा है. पहले की एनडीए सरकार द्वारा तैयार किया हुआ पुलिस तंत्र वर्तमान भाजपा सरकार की मुट्ठी में है.’ साम्प्रदायिक हिंसा के इतिहास की ओर बढ़ते हुए उन्होंने कहा कि, ‘भारत में आतंकवाद की लड़ाई सन् 1980 में ही ’खालिस्तान’ के खात्मे के नाम पर शुरू हो चुकी थी. इस दौर में इंदिरा गांधी ने झूठ का सहारा लिया था और बेगुनाह नौजवानों पर जुल्म करवाए थे. उस दौरान कई युवकों पर फर्जी मुक़दमे भी दर्ज हुए और कई फर्जी एनकाउंटर भी हुए थे लेकिन दोषियों पर कोई कार्यवाही नहीं हुई. बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद पुलिस और प्रशासन के लोगों ने सांप्रदायिक तरीके से एक समुदाय विशेष के आम लोगों का फर्जी एनकाउंटर किया था.’

तमाम सुरक्षा तंत्रों के बाबत गौतम नवलखा ने कहा कि, ‘हिन्दुस्तान की न्यायप्रणाली में पिछले तीस सालों में बदलाव आए हैं. इस दौरान पुलिस और खुफिया एजेंसियों को व्यापक अधिकार दिए गए हैं. अपने ज़्यादतियों और धर्मरक्षित कामकाज के बाबत जब भी वे अदालत में खींचे गए, उनके मनोबल गिरने की दुहाई दी गई. सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भी कालांतर में इस ’मनोबल’ पर मुहर लगाई गयी थी. ऐसे में सुरक्षा बलों पर मुक़दमा तब तक नहीं चलाया जा सकता जब तक सरकार इसकी अनुमति न दे दे. इस लिहाज़ से यह प्रश्न उठता है कि आखिर यह ’मनोबल’ है क्या?’

बाटला हाउस फर्जी मुठभेड़ का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा, ‘इस घटना में मारे गए पुलिस अधिकारी मोहन चन्द्र शर्मा बिना बुलेटप्रूफ जैकेट के वहां कैसे पहुंच गए, यह एक बड़ा सवाल है. पुरस्कार की लालसा पुलिस वालों को अपने ही साथियों की हत्या करने के लिए ख़ूब उकसाती है.’ इस क्रम में कश्मीर पर आते हुए उन्होंने कहा, ‘पुरस्कार की होड़ भी एक कारण है कि आज पुलिस और खुफिया विभाग के लोग कश्मीर में फर्जी मुठभेड़ों को बेधड़क अंजाम दे रहे हैं.’

आतंकवाद की राजनीति के मद्देनज़र उन्होंने कहा, ‘बाबरी मस्जिद के विध्वंस के साथ ही ‘मुस्लिम आतंकवाद’ का कॉन्सेप्ट गढ़ा गया. यूएपीए और आतंक से लड़ने के नाम पर बनाए गए अन्य कानून अपने मूल में ही विभेदकारी हैं और उनका खात्मा करना सबसे बड़ी ज़रूरत है. मुसलमानों के मामले में हम साफ अंतर पाते हैं. यह संविधान की समता की भावना के खिलाफ है.’

बकौल गौतम नवलखा, ‘सुरक्षा एजेंसियों पर राजनैतिक दबाव होता है जो इस समस्या को और विकराल बना देता है. आज विभाजनकारी राजनीति ही भाजपा की कथित विकास की राजनीति का हिस्सा है. बड़े आर्थिक बदलावों से उपजने वाले विरोधों से ध्यान हटाने के लिए भी आतंकवाद का इस्तेमाल होता है. उत्तर प्रदेश में सपा सरकार खुद विहिप और संघ के लोगों की मदद कर रही है.’ वे आगे कहते हैं, ‘इस देश के मुसलमानों के लिए यह एक भयावह वक्त है. भाजपा केवल मुसलमानों के लिए नहीं, पूरे समाज के लिए हानिकारक है.

इसके बाद गोष्ठी के मूल एजेंडे के तौर पर निम्न पांच सूत्रीय प्रस्ताव पारित करते हुए मांग की गई -
1- बाटला हाउस फर्जी मुठभेड़ की न्यायिक जांच कराई जाए.
2- खुफिया एजेंसियों को संसद के प्रति जवाबदेह बनाया जाए.
3- बेगुनाह नौजवानों को आतंकवाद के फर्जी मामलों में फंसाने वाले पुलिस व खुफिया अधिकारियों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाए.
4- आतंकवाद के आरोप में बेगुनाह साबित हुए लोगों के लिए पुर्नवास और मुआवजा नीति घोषित की जाए.
5- सभी आतंकी घटनाओं की न्यायिक जांच कराई जाए.

पूर्व आईपीएस अधिकारी एसआर दारापुरी ने कहा, ‘राज्य तंत्र का जो पूरा ढांचा ही विभेदकारी है. उसमें दलितों, अल्पसंख्यकों और आदिवासियों की कोई भागीदारी नहीं है, जो कि फाशीवादी राजनीति की मददगार है.’

अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ पत्रकार अजय सिंह ने कहा, ‘आज देश की एकता बचाने के लिए ज़रूरी है कि हाशिए की आवाज उठाने वाले सभी लोग एक मंच पर आएं. फाशीवाद के निशाने पर सिर्फ मुसलमान ही नहीं हैं बल्कि आदिवासी, महिलाएं और दलित भी हैं. इनके बीच एकता तोड़ने के लिए साम्प्रदायिकता का इस्तेमाल हो रहा है.’

गरबा पर घमासान जारी, दोतरफ़ा ज़ुबानी जंग तेज़

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By TCN News,

विश्व हिन्दू परिषद् ने नवरात्र के अवसर पर गरबा आयोजकों और गुजरात सरकार को खुली चुनौती देते हुए कहा है कि ‘या तो सरकार गरबा में मुसलमानों के अआने पर प्रतिबन्ध लगाए, या तो हम अपने तरीके से रोक लगाएंगे’. इसके पहले भी खांटी हिंदूवादी संगठनों ने मुसलमानों के गरबा उत्सव में प्रवेश को लेकर कड़ी आपत्ति जताई है. इस स्तर के भी बयान आ चुके हैं कि ‘जो मुसलमान गरबा के उत्सवों के आना चाहते हैं वे अपनी माँ-बहनों के साथ आएं.’

सांप्रदायिक रूप से तंग होते इस माहौल में सूफी इमाम मेहंदी हुसैन ने भी विवादास्पद बयान देकर मामले को और गंभीर बना दिया है. 2011 में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को इस्लामी टोपी पहनने को देने वाले सूफी इमाम मेहंदी हुसैन ने कहा है कि गरबा का उत्सव राक्षसों के कब्ज़े में है.



मेहंदी हसन और तत्कालीन गुजरात मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी (फ़ाइल फोटो, साभार - इण्डियन एक्सप्रेस)

अपनी बात को और स्पष्ट करते हुए इमाम ने रविवार को कहा, “गरबा में साधु और संत तो नज़र नहीं आते. इनमें फिल्मब कलाकार और आपराधिक पृष्ठाभूमि के लोग नज़र आते हैं.” इमाम ने आगे कहा, “लोग कहते हैं कि साढ़े चार लाख हिंदू लड़कियों को मुस्लित‍म युवा अपनी ओर रिझा रहे हैं और कुछ दूसरे कहते हैं कि मुस्लिं‍म युवकों की गरबा में एंट्री बैन होनी चाहिए. क्याप धार्मिक त्योमहारों को लेकर इस तरह की भावनाएं जाहिर करना उचित है?”

बहरहाल, इस ज़ुबानी जंग के मद्देनज़र पुलिस ने मामले की संवेदनशीलता को भांपते हुए नवरात्र से जुड़े आयोजनों की सुरक्षा पुख्तान कर दी है और प्रशासन की तरफ़ से अभी तक दोनों पक्षों के खिलाफ़ कोई भी अनुशासनात्मक कार्यवाही नहीं की गयी है.


पाठ्यपुस्तक में मुस्लिम शिक्षाविदों को शामिल किए जाने पर महाराष्ट्र में बवाल

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By मोहम्मद इस्माईल खान, TwoCircles.net,

महाराष्ट्र इन दिनों कई किस्म के घमासानों का घर बना हुआ है. इस क्रम में नया बवाल हुआ है राज्य सरकार की उर्दू में प्रकाशित एक किताब को लेकर. किताब में कुछेक मराठी शिक्षाविदों के स्थान पर मुस्लिम शिक्षाविदों का नाम शामिल किए जाने से राज्य में नए विवाद ने जन्म ले लिया है. कट्टर मराठा समुदाय के लिए यह घटना उनकी अस्मित पर चोट सरीखा है. इसके उलट उर्दू विभाग और अध्यापकों ने इस घटना को एक समावेशी क़दम करार दिया है.

राज्य शिक्षा मंत्रालय के अधीन स्थित निकाय बाल भारती राज्य पाठ्य-पुस्तक ब्यूरो द्वारा प्रकाशित पर्यावरण विज्ञान की पुस्तक ‘माहौल का मुतला’ में समाजशास्त्र की मूलभूत जानकारी भी दी गयी है. पाठ्यपुस्तक में निहित एक अध्याय में चुनिंदा शिक्षाविदों और उनके द्वारा चलाए गए तमाम सुधार कार्यक्रमों के बारे में जानकारी दी गयी है. इस ब्यूरो में प्राथमिक कक्षाओं के उर्दू विभाग में कार्य करने वाले एकमात्र व्यक्ति खान नावेद उल हक़ ने इस किताब के ड्राफ्ट पर गौर किया कि उक्त अध्याय में दिए गए तमाम शिक्षाविदों में एक भी मुस्लिम शामिल नहीं था. इसके बाद उन्होंने मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, ज़ाकिर हुसैन, बदरुद्दीन तयाबजी, सर सैयद अहमद खां, फातिमा शेख, हकीम अब्दुल हमीद के नाम इस किताब में प्रविष्ट करवाने का निर्णय लिया. ज्ञात हो कि उक्त सभी नामों ने शिक्षा के क्षेत्र में अपना-अपना अप्रतिम योगदान दिया है.


Cover page of the text book.
पाठ्यपुस्तक का मुखपृष्ठ

इन नामों को प्रविष्ट करने के लिए नावेदउल हक़ ने सयाजीराव गायकवाड़, शाहो महाराज, पंडिता रामबाई, करमवीर बहुराव पाटिल और पंजाबराव देशमुख के नामों को हटाने का निर्णय लिया. किसी तरीके से महाराष्ट्र राज्य तकनीकी शिक्षा बोर्ड और मराठी अखबार लोकसत्ता की नज़र इस कार्यकलाप पर गयी. इसी के साथ लोकसत्ता ने १९ जुलाई को इस खबर को प्रमुखता व मराठी अस्मिता पर साम्प्रदायिकता की आंच के साथ प्रकाशित किया, जिसके बाद मामले को मराठा संगठनों ने आड़े हाथों लेने में कोई कसर नहीं छोड़ी.

TCN से बातचीत में नावेदउल हक़ ने कहा कि ऐसा करने के पीछे उनका मकसद किसी किस्म का साम्प्रदायिक तनाव बढ़ाना नहीं था, वे बस मुस्लिम समुदाय के बच्चों को उनके समुदाय के लोगों के योगदान से परिचित कराना चाहते थे. वे कहते हैं, ‘बच्चे प्राथमिक शिक्षा के दौरान ही सबसे बुनियादी सबक लेते हैं. यदि उन्हें अभी इन चीज़ों के बारे में नहीं बताया गया तो आगे भी उन्हें कोई जानकारी नहीं हासिल होगी.’ यह जानते हुए कि नावेदउल को उनका पद ऐसा परिवर्तन करने का अधिकार नहीं देता और उन्हें कड़ी कार्यवाही का शिकार होना पड़ सकता है, वे कहते हैं, ‘मैंने एक कड़ा कदम उठाया. मैं अपनी जानकारी में अपने समुदाय को गलत शिक्षा नहीं प्रसारित होने दे सकता. लेकिन मैं शायद असफल रहा.’ नावेदउल के इस कदम के बाद भी किसी भी मुस्लिम नेता ने कोई पहल नहीं की. शिक्षा मंत्रालय के इतिहास प्रभाग की कार्यप्रणाली को देखते हुए स्पष्ट हो जाता है कि वे इन सभी किताबों को वापिस लेना और पुनः संशोधन – यानी मुस्लिम शिक्षाविदों के चित्र हटाकर – छापना चाहते हैं.


Amended chapter with images of Muslim educationists.
मुस्लिम शिक्षाविदों की तस्वीरों के साथ संशोधित संस्करण.

अखिल राज्य उर्दू शिक्षक संगठन, महाराष्ट्र के अध्यक्ष आसिफ़ इकबाल कहते हैं, ‘इन जानकारियों और चित्रों को काफी पहले ही शामिल कर देना चाहिए था. यह क़दम सराहनीय है. इन शिक्षाविदों को हिन्दी और मराठी पाठ्यपुस्तकों में भी शामिल किया जाना चाहिए और कोई सवाल ही नहीं है कि इन्हें उर्दू पाठ्यपुस्तकों से हटाया जाए.’

उर्दू कमेटी के अफ़सर नावेदउल हक़ ने TCN से बातचीत में खुलासा किया कि अकादमिक निदेशक और सचिव कोई बीच का रास्ता निकालने की तैयारी में थे. उनसे और इतिहास विभाग से मुलाक़ात के बाद दोनों ने कहा कि इन चित्रों को तब हटाना गलत है, जब क़िताबें लगभग छप चुकी हैं. नावेदउल के अनुसार विभाग अपनी योजनानुसार पाठ्यपुस्तकों को इस शैक्षिक सत्र में रहने देना चाहता था, जबकि अगले साल से सिर्फ़ कुछ मुस्लिम शिक्षाविदों के चित्र हटाकर मराठी और मुस्लिम शिक्षाविदों में साम्य बैठाने का प्रयास करता.


Lok Satta news.
लोकसत्ता में प्रकाशित खबर

नावेदउल हक़ ने आरोप लगाया है कि इतिहास समिति मराठी मीडिया और नौकरशाहों के साथ लॉबिंग के परिणामस्वरूप उर्दू किताबों को वापिस लाकर पुनः प्रकाशित करने की तैयारी में है. महाराष्ट्र राज्य उर्दू शिक्षक संगठन ने कहा कि यदि वे बाल भारती पाठ्यपुस्तक ब्यूरो को ऐसा करने से रोकने में असफल रहे तो शिक्षा की सभी इकाइयों में सेकुलरिज़्म की समावेशी संस्कृति का लोप होना तय है.

(अनुवाद: सिद्धान्त मोहन)

अमरीकी कोर्ट ने गुजरात दंगा मामले में नरेन्द्र मोदी को समन जारी किया

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By TCN News,

भारत की नयी-नयी चुनी गयी और विदेशी सम्बन्धों को प्रगाढ़ करने में जुटी भारत सरकार को भान भी न था कि भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी का अमरीका में स्वागत एक अदालती समन के साथ होगा. प्रधानमंत्री द्वारा अमरीका की मिट्टी पर पांव रखने के पहले ही एक अमरीकी अदालत ने 2002 में हुए गुजरात दंगों में कथित संलिप्तता के आरोप में नरेन्द्र मोदी को समन जारी कर दिया है.

यह घटना इसलिए और भी विचारणीय है कि गुजरात में नरसंहार के आरोप में नरेन्द्र मोदी के वीज़ा पर अमरीकी सरकार ने पिछले नौ सालों से प्रतिबन्ध लगाया हुआ था, और उस प्रतिबन्ध के हटने और प्रधानमंत्री की पांच-दिनी अमरीका यात्रा के दरम्यान ही यह समन जारी किया गया.


Narendra Modi

अमेरिका की एक संघीय अदालत ने मोदी के खिलाफ यह समन मानवाधिकार संगठन ‘अमेरिकन जस्टिस सेंटर’ (एजेसी) की याचिका पर 2002 में हुए गुजरात दंगों में उनकी कथित भूमिका के लिए जारी किया है. इस मानवाधिकार संगठन की पहचान बरास्ते सन् 2002 में हुए भयावह गुजरात नरसंहार के दो उत्तरजीवियों के की गयी है. कोर्ट में दर्ज़ 28 पृष्ठों की शिक़ायत में मुआवज़े के साथ दंडात्मक कार्रवाई की मांग की गई है. इसमें मोदी के ऊपर मानवता के खिलाफ़ अपराध, हत्याृएं, टॉर्चर और दंगा पीड़ितों पर मानसिक और शारीरिक यंत्रणा पहुंचाने का आरोप लगाया गया है.

इस समन के जारी होने के 21 दिनों के भीतर एलियन टॉर्ट क्लेम्स एक्ट(एटीसीए) और टॉर्चर विक्टिम प्रोटेक्शन एक्ट(टीवीपीए) के तहत नरेंद्र मोदी को जवाब देना ज़रूरी है. अदालत ने यह भी कहा है कि यदि मोदी तयशुदा समय के भीतर इसका जवाब नहीं देते हैं तो फिर उनके खिलाफ़ ‘डिफॉल्टप जजमेंट’ का इस्ते माल किया जा सकता है.

गौरतलब है कि इस तरह के जजमेंट का प्रयोग तब होता है, जब किसी मामले में कोई एक पक्ष तय वक्त के भीतर जवाब नहीं दे पाता. ज़्यादातर मामलों में जब प्रतिवादी समन का जवाब देने में नाकाम रहता है तो फैसला वादी के पक्ष में जाता है.

अंग्रेज़ी अखबार ‘द हिन्दू’ को भेजे गए मेल में याचिका दायर करने वाले संगठन के वकील गुरपतवंत सिंह ने बताया कि वादी की ओर से जवाब नहीं मिलने पर ‘डिफॉल्ट जजमेंट’ अमेरिकी कानून के तहत फेडरल अदालत साल 2002 की हत्याओं को मुसलमानों का नरसंहार करार दे सकती है. इसके तहत यह संभव है कि दंगा पीड़ितों के पक्ष में आर्थिक और दंडात्मक मुआवज़े के फैसले की घोषणा अदालत करे.

फ़िर फ़िसली साक्षी महाराज की ज़ुबान

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By TCN News,

यह विरोधाभासी समय खबरों की दुनिया में एक लंबे समय तक बना रहेगा. एक तरफ़ जहां प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपनी साम्प्रदायिक छवि को छोड़कर सद्भाव और सेकुलर छवि बनाना चाह रहे हैं, वहीं दूसरी ओर उन्हीं की पार्टी के नेता और सांसद साक्षी महाराज उनकी अधर में पड़ी लुटिया को डुबोने में लगे हैं. साक्षी महाराज अपने बयानों से बाज़ नहीं आ रहे. पहले उन्होंने मदरसों और लव-जिहाद पर बयान देकर ‘राष्ट्रवादी’ वाहवाही तो लूट ही ली थी, लेकिन अपने बयान पर कायम होने की बात और मोदी के कथन की अपने ही तरीके से ‘समीक्षा’ करने के बाद उन्होंने संभवतः और भी क़ाबिल-ए-गौर काम किया है.



साक्षी महाराज

भारतीय जनता पार्टी के सांसद सच्चिदानन्द साक्षी महाराज ने कहा है कि मदरसों के सम्बंध में दिए गए बयान पर वह आज भी कायम हैं. साक्षी ने कहा कि उनका बयान अगर गलत है तो उनके खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं की जा रही है? बयान सही है इसीलिए उनके खिलाफ किसी किस्म की कार्यवाही नहीं हो रही है. उन्होंने अपने बयान का बचाव करते हुए कहा, ‘मदरसों की पढ़ाई का क्या पाठ्यक्रम होता है? मदरसों की क़िताबें बाज़ार में क्यों नहीं बिकतीं. यदि मदरसों में पवित्र किताब पढ़ाई जाती है तो स्कूलों में गीता को दो अध्याय पढ़ा दिए जाएं तो इससे किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए.’ थोड़ा और उग्र होते हुए साक्षी ने कहा, ‘मदरसों में आतंकवादी तैयार किये जाते हैं और मैं अपने बयान पर कायम हूं.’

ज्ञात हो कि अमरीका जाने से पहले सीएनएन को दिए गए साक्षात्कार में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि भारत का मुसलमान किसी के बहकावे में नहीं आएगा. इस वक्तव्य की ‘विवेचना’ करते हुए साक्षी महाराज ने कहा, ‘मोदी के यह कहने का मतलब कि मुसलमान किसी के बहकावे में नहीं आएंगे, यह है कि मुसलमान पहले से बहके हुए हैं.’ उन्होंने कहा कि मोदी ने गेंद मुसलमानों के पाले में फेंक दी है अब उन्हें उसमें खरा उतरना है. साक्षी ने मुसलमानों पर राष्ट्रविरोधी ताक़तों के साथ मिला होने का आरोप फ़िर से लगाया.

गरबा पर पहले से चल रहे घमासान में अपना योगदान देते हुए साक्षी ने कहा कि गरबा में उन्ही लोगों को जाना चाहिए जो महिलाओं की पूजा करते हैं. जो लोग महिलाओं को पैर की जूती और बच्चा पैदा करने की मशीन समझते हैं, ऐसे लोगों को गरबा के आयोजनों नहीं जाना चाहिए.

ज्ञात हो कि साक्षी महराज ने हाल ही में अपने एक विवादास्पद बयान में कहा था कि मदरसों से आतंकवादी निकलते हैं. यह मुद्दा अभी भी विचारणीय है कि अपने सांसदों और पार्टी सदस्यों के इन बयानों के बावजूद, सरकार कोई अनुशासनात्मक कार्यवाही क्यों नहीं कर रही है? कई समाजशास्त्रियों ने सरकार के इस रवैये पर बार-बार ऊँगली उठायी है.

अस्मानामा : मैं तो चार से निक़ाह करूंगा, लेकिन तुम्हारा क्या?

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By अस्मा अंजुम खान, TwoCircles.net,

(अंग्रेज़ी पढ़ाती हैं और ढेर सारी बातें करती हैं.)

शनिवार का दिन मेरे लिए एक मशक्क़त से भरे हफ़्ते के अंत का सूचक होता है. पिछले छः दिनों के भीतर किए गए कामों के बाद मिलने वाला आराम मुझे अपने आगोश में लेने लगता है. इसी बीच एक शनिवार को एक बहन आती है और मुझे गले से लगाकर फूट-फूटकर रोने लगती है. उसने बताया कि आयशा और अन्य उम्माहतुल मोमिनीन के बारे में मेरी बातों ने उसके दिल को छू लिया. लेकिन अपनी उस रुलाई के बारे में पूछे जाने पर उसने जो बताया, उससे मैं न सिर्फ़ चकित हुई बल्कि अगले कुछ हफ़्तों तक मेरे भीतर डर बैठ गया था.

“बहन! आज मेरे शौहर का वलीमा है” उसने कहा था.

उसकी आवाज़ शान्त थी. इसके बाद किसी व्याख्या की ज़रूरत नहीं थी. मैं समझ गयी थी.
मैं भी एक पत्नी हूं. एक औरत हूं. दुनिया पूछेगी कि मुझे कैसा लगा, मैं चकित हुई, मुझे धक्का लगा, आश्चर्य हुआ, परेशान हुई या भयभीत हुई?



मेरे साथ सब कुछ एक साथ हुआ. मैं मौन थी और मुझे उस वक्त यूजीन आनेस्को की बात याद आई, ‘एक समय की बाद शब्द आपको विफल कर देते हैं.’

हां, उस समय भी शब्दों ने मुझे विफल कर दिया था.

बहुविवाह एक गंभीर और संवेदनशील मुद्दा है. बनाने वाले ने सब जानते हुए भी इसकी इजाज़त दे दी है, फ़िर भी इसमें कुछ पेंच हैं. इनके बारे में ज़्यादा बातें होती नहीं सुनाई देती हैं, अलबत्ता सोशल मीडिया पर भी मैंने अपने भाईयों द्वारा बहुविवाह पर के पक्ष में की गईं भयानक बहसें देखी हैं.

यदि बहुविवाह को सही तरीके से जीवन में लागू किया जाए तो हमारे समाज की बहुत सारी समस्याओं का अंत हो सकता है. लेकिन खुद की बीवियों में निर्णय करना एक बेहद कठिन, या लगभग असंभव कार्य है,

मुझे जो इस मामले का सबसे रोचक पहलू लगता है कि मर्द जात किस मूर्खतापूर्ण तरीके से बहुविवाह का पक्ष ले रही है, यह सोचे बिना कि उसके पास औरतों से जुड़े ज़्यादा गंभीर मुद्दे – जैसे विधवा विवाह, औरत को संपत्ति का हक़ और उसके खुलेपन की बहसें – ज़रूरी और आकस्मिक हैं.

मैं तो चार से शादी करूंगा. लेकिन तुम्हारा क्या?

आप लोग बहुविवाह की वक़ालत करते हैं, मंज़ूर है. लेकिन क्या आपको सबको ऐसा नहीं लगता कि सबसे पहले एक ऐसे बराबर समाज का निर्माण किया जाना चाहिए, जहां औरतों को उनका हक़ और उनका अधिकार मिले? यह ‘मिले’ और ‘मिलना चाहिए’ का लहज़ा मुझे भी बहुत पुरानी बीमारी सरीखा लगता है. इस ‘मिले’ का मतलब क्या है? हमारा अधिकार तो हमारा है और हम अपने अधिकारों के पक्ष में आवाज़ उठाने के लिए स्वतंत्र हैं. क़ुरआन और सुन्ना द्वारा दिए गए अधिकारों के लिए औरतें तक़ाज़ा क्यों नहीं करतीं? इसे क्यों पितृसत्तात्मक रूप दे दिया गया है? एक ऐसे समाज का निर्माण, जहां औरतें अपने अधिकारों और ज़रूरतों को सहज तरीके से पा सकें, एक स्वप्न के साकार होने सरीखा है. मेरा अंदेशा है कि ऐसे समाज में बहुविवाह जैसी रीति को ज़्यादा सहजता और आसानी से जज़्ब किया जा सकेगा. मेरी इस बात का मतलब यह नहीं कि मैं बहुविवाह की वक़ालत कर रही हूं. मेरी शिक़ायत इस बात को लेकर है कि आखिर कब हम महिलाओं की शिकायतों के बाबत बात रखना शुरू करेंगे.

यदि बहुविवाह के सन्दर्भ में इतने शोरगुल से भरे चर्चा-सत्र, वर्कशॉप, वीडियो लेक्चर और सोशल मीडिया पर विवाद हो रहे हैं, तों यही सारी चीज़ें विधवा-विवाह के लिए, महिलाओं के अधिकार के लिए, ख़ुला के लिए और सम्पत्ति में औरतों के अधिकार के लिए यह सारी बहसें क्यों नहीं हो रहीं हैं?

हमें बाक़ायदे मालूम है कि पैगम्बर मुहम्मद ने कहा था कि तीन चीज़ों में कभी देर नहीं करनी चाहिए, और उन तीन में से एक है विधवा-विवाह. लेकिन फ़िक्र किसे है?

हमें अपनी बहुत सारी बहनों के बारे में पता है जो अपनी शादी में गर्दन तक बोझ और परेशानियों से दबी हुई हैं, लेकिन ख़ुला की मांग करने का डर उन्हें और घुटन में धकेल देता है. इस प्रकरण से एक विराट सामाजिक समस्या का जुड़ाव है – क्या इस बारे में हम बात करें? कितनी ही बहनों-बेटियों के बारे में हम जानते हैं जिन्हें संपत्ति में बाप-भाईयों ने कोई हिस्सा नहीं दिया. वे लगभग हरेक परिवार में हैं. इन मामलों में कोई विकास नहीं है लेकिन मुझे विकास दिखता है तो सिर्फ़ उस बहस के रूप में जहां बहुविवाह के पक्ष में हमारे भाईयों द्वारा निम्न कारण गिनाए जा रहे हैं; एक, ऐसा सुन्नाह के तहत मंज़ूर है (हालांकि मुझे इस पर भी शक है कि दावा करने वाले लोगों में से कितनों ने असल में सुन्नाह को ज़िंदगी में उतारा होगा); मर्दों को मजबूत बनाया गया, यह उनकी ‘ज़रूरत’ है. और तीसरा कारण तो सबसे ज़्यादा रोचक है, आज के ज़माने में नज़र नीचे होना नामंज़ूर है, इसलिए चौथा कि मर्द प्रकृति द्वारा बहुविवाही बनाया गया है...और भी फलां फलां कारण हैं.

ईमान यानी अपने शौहर को दूसरी शादी के लिए प्रोत्साहित करना.

मुझे एक वाकये ने बेहद गुस्से से भर दिया था. इस मसले के सन्दर्भ में मेरे एक भाई ने कहा था कि यदि एक औरत के अंदर भरोसा और ईमान है तो उसे अपने शौहर को दूसरी शादी के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए. जी हां, आपने कुछ भी गलत नहीं पढ़ा है. तो इस तरह से हमारे भाई हमें समझते हैं. यदि मैं दूसरे निकाह के लिए अपनी शौहर की हौसलाफजाही करूँ तो ही मैं वफ़ादार हूं. समर्थक कहते हैं कि यदि मुझे अपनी बहनों की सचमुच फ़िक्र है तो इसमें उन औरतों का साथ देना चाहिए.

मेरे भाईयों, मैं आप सब से कुछ बातें साझा करना चाहती हूं.

मेरी वफ़ादारी दूसरे निकाह के लिए मेरे पति की हौसलाफ़जाही पर निर्भर नहीं करती. मेरा भरोसा मेरे और मेरे परवरदीगार के बीच का आपसी मसला है. वैसे मैं यहां जोड़ दूं कि हम पत्नियां अपने पतियों को रोज़ फज्र सलाह के लिए जगाती हैं, कुरआन पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करती हैं, किसी अनाथाश्रम जाकर अच्छे सामाजिक काम करने की सलाह देती हैं. लेकिन मुझे तो लगता है कि हमारे प्यारे और शरारती पतियों को एक बार और निकाह के लिए उत्साहवर्धन की ज़्यादा ज़रूरत है. मुझे नहीं समझ आता कि हमेशा औरतों से सबसे कठिन और नामुमकिन कामों की मांग क्यों की जाती है? जब अल्लाह ने लोगों पर उनकी अपनी कुव्वत से अधिक काम करने के लिए ज़ोर नहीं डाला तो ऐसी जोर-ज़बरदस्ती कोई नहीं कर सकता. इन बातों का मकसद है कि बेचारी बीवी पर जिम्मेदारियों का बोझ डाल दिया जाए और मस्तमौला पति जब चाहे एक बार और निकाह कर ले. यदि एक पुरुष एकाधिक निकाह करना चाहता है, तो बेशक कर सकता है लेकिन यह कैसी समझदारी है कि उसकी पहली बीवी से यह अपेक्षा की जाए कि नए निकाह में अपने पति का साथ दे?

यह अपेक्षा तो लगभग वैसी ही है कि इज़राइल से अपेक्षा की जाए कि वह फिलिस्तीन की मदद करे. और इस अपेक्षा में जो भी परिणाम सामने आएगा वह अमरीका की विदेश नीति सरीखा होगा, जिसका खामियाजा कमोबेश अमरीका को ही भुगतना पड़ता है. यदि लोगों को हमारी ईमानदारी पर इस बिना पर भरोसा करना हो कि हम दूसरे निकाह के लिए अपने शौहर की हौसलाफ़जाही करूँ तो यह गलत है. एक औरत की क्षमता का कमोबेश सभी को भान है, इसके बावजूद उससे उसकी क्षमता और कुव्वत से अधिक कार्य और योगदान की इच्छा रखना तो सरासर ज़ुल्म है. अल्लाह भी इस बात को जानता है. जब अल्लाह ने हमें अपनी कुव्वत से आगे जाकर कार्य करने को नहीं कहा, तो कोई और कैसे कह सकता है.

बहुविवाह की इजाज़त होते हुए भी सिर्फ़ एक से ही निकाह और उसे ताज़िंदगी निबाहने का विकल्प ज़्यादा उत्कृष्ट है. अल्लाह ने पैगम्बर मुहम्मद पर ताजिंदगी सिर्फ़ एक औरत से निकाह करने के लिए रोक लगा दी थी. पैगम्बर मुहम्मद ने ख़दीजा से तब निक़ाह किया जब वे २५ बरस के थे, और पैगम्बरी के दसवें साल में ख़दीजा की मौत तक यह निक़ाह चला, यानी लगभग २५ साल तक. उनके दोनों चर्चित दामादों, उथमान इब्न अफ्फां और अली भी उनके क़दम पर आगे बढ़े. अली को लगभग दो बार दिबारा निक़ाह करने से रोका गया. सम्भव है कि इसे एक अपवाद करार दे दिया जाए, लेकिन उसके पहले इस घटना के पीछे बसी भावनाओं को समझ कुछ सबक लिए जा सकते हैं. इस बारे में व्यापक हदीस भी लिखी गयी है. ऐसा नहीं है कि पैगम्बर मुहम्मद, उनके दामादों और अन्य दो सहयोगियों ने दोबारा निक़ाह नहीं किया, उन्होंने किया लेकिन पहली बीवी की मृत्यु के बाद. इसके साथ उन्होंने यह भी ज़ाहिर कर दिया कि सिर्फ़ एक निक़ाह के साथ भी मुस्लिम पुरुष शान से जीवन व्यतीत कर सकता है.



आज की तारीख में असल में दूसरा निक़ाह करने का मतलब क्या है? क्या यह मजबूर औरत को और ज़्यादा सताने का हथियार सरीखा नहीं है? ऐसे अधिकतर मामलों में दूसरी पत्नी अमूमन आर्थिक रूप से मजबूत पायी जाती है. इस राउंड के लिए धनी, विधवा, बढ़िया तनख्वाह वाली तलाकशुदा औरतें ‘चुनी’ जाती हैं. मेरी दृष्टि से मुझे तो यही दिखता है, मुमकिन है कि आप लोगों का नज़रिया कुछ और हो. दोबारा निकाह करते अपने भाईयों को देख – जो कमज़ोर नहीं ताक़तवर हैं – कभी ही पता चला कि उन्होंने गरीब, दो बच्चों की विधवा माँ, परित्यक्ता, आर्थिक रूप से कमज़ोर व तलाकशुदा लोगों से निकाह किया. क्या आपको नहीं लगता कि हमारे इन भाईयों को खुद को इतना ताक़तवर क़रार देने के पहले किसी कमज़ोर और सामाजिक हाशिए पर चली गयी औरत से निकाह करना चाहिए? यदि आयशा को अपवाद रखें, तो पैगम्बर ने भी बेवाओं और तलाकशुदा औरतों से निकाह किया. बहरहाल, मुझे समझ में बिलकुल नहीं आता कि दूसरी बीवी के तौर पर आर्थिक रूप से मजबूत औरत को चुनने के पीछे सही तर्क क्या है? दूसरे निकाह के लिए ऐसी औरतें पहली पसंद होती जा रही हैं.

इस समय में बेवा से निकाह और खुला के मुद्दे पर किसी किस्म का दाग लगा है, जो इसे मुख्यधारा में आने से रोकता है. मेरे भाईयों को इसे प्रमुखता से लागू करने की दिशा में कार्य करना चाहिए. ऐसा करना कुछ हद तक दुर्भाग्य झेल रही इन औरतों के लिए किसी तोहफे से कम नहीं होगा. तलाक़ मांगने और ऐसे ही कई सारे अधिकारों को जीवन में कई सारी औरतें अपना जीवन अकेले और परेशानियों के साए में बिता देती हैं. ऐसी कई सारी महिलाओं की गिनती भी अब मुझे भूल चुकी है. यदि एक औरत उम्र के किसी भी पड़ाव में विधवा हो जाती है तो उसके लिए लगभग सारे रास्ते बंद हो जाते हैं, लेकिन जब किसी मर्द की बीवी मरती है तो उसके लिए सारे रास्ते खुले होते हैं. औरतें अपनी भीतर के कुदरती विनयभाव के चलते अपनी इच्छाओं के मद में कोई आवाज़ नहीं उठा पाती हैं, जिसका खामियाजा आखिर में उन्हें ही भुगतना होता है. इस मामले में यदि कोई मिसाल रखनी हो तो सहाबियात के बारे में बात की जा सकती है, जिन्होंने तलाक़ और बेवा होने के बाद न सिर्फ़ एक बार बल्कि कई बार निक़ाह किया.

हमारे कुछ भाई कहते हैं कि महिलाओं का एक निक़ाह करना संस्कृति के साथ चलने का चिन्ह है. मैं विनयपूर्वक उनसे पूछना चाहूंगी कि यदि कोई लगभग 65 वर्ष की माँ, बहन, विधवा फ़िर से निकाह करने की इच्छा रखती है तो क्या उसे संस्कृति के खिलाफ़ जाता करार देकर भौहें नहीं तिरछी की जाएँगी? मैं ऐसे एक मामले की गवाह हूं जहां 55 साल की विधवा और तीन लड़कों की माँ ने फ़िर से निकाह करने का फ़ैसला किया. इस फैसले के बाद जो भी हुआ, वह ‘ऐतिहासिक’ था. उस औरत को कोसा गया, उसकी भर्त्सना की गयी और पूरे जोशोखरोश के साथ उसके चरित्र का हनन कर दिया गया. मुझे नहीं लगता कि इन दुर्भावनाओं का असल मतलब समझने के लिए आपको औरत होने की आवश्यकता है. यदि पुरुषों को जीवनसाथी की आवश्यकता है, तो महिलाओं को भी है. इस बात को पूरे जोश के साथ प्रचार के दायरे में लाना चाहिए. लेकिन यहां महिला अधिकारों पार कोई सार्थक पहल होते हुए दिख ही नहीं रही है.

यह बात तो ज़ाहिर है कि यह मसला ज़रूरी है और इसके पक्ष में प्रबलता से खड़ा होना होगा. लेकिन हम औरतों के बजाय अपने भाईयों की भागेदारी भी इस मामले में सुनिश्चित करनी होगी ताकि हमें वह मिल सके जो कानूनन हमारा है. वे कहते हैं कि मैं तो चार निकाह कर सकता हूं लेकिन तुम्हारे बारे में नहीं पता. वे बड़ी मासूमियत से पूछते हैं, ‘आपका क्या?’

एक संतुलित समाज के निर्माण के लिए हमारे प्रयास और नीतियां भी संतुलित होने चाहिए. महिलाओं की समस्याओं पर सार्थक विमर्श इस दिशा में पहला क़दम साबित हो सकता है. फ़िर भी आखिर में यह प्रश्न उठता है कि क्या कोई सुन भी रहा है? इतना सन्नाटा क्यों है?

(अनुवाद: सिद्धान्त मोहन)

धर्मनिरपेक्ष ‘महागठबंधन’ और साम्प्रदायिक गुत्थियां

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By राजीव यादव,

बिहार उपचुनाव में नीतीश-लालू के महागठबंधन को ६ सीटें और राजग को ४ सीटें मिलने के बाद पूरे देश में इस किस्म के गठबंधन बनने-बनाने के गुणा-गणित शुरु हो गए है. महागठबंधन को मिली सफलता से उत्साहित शरद यादव ने कहा कि “भाजपा को रोकने के लिए अगले चुनाव में अब देश भर में महागठबंधन करेंगे.” सांप्रदायिक ताकतों को शिकस्त देने वाले इस महागठबंधन के मद्देनज़र इस बात को जेहन में रखना चाहिए कि इस महागठबंधन के दोनों मुस्लिम प्रत्याशियों - नरकटिया गंज से कांग्रेस के फखरुद्दीन और बांका से राजद के इकबाल हुसैन अंसारी - की हार हुई है. बांका में कड़ी टक्कर देते हुए इकबाल मात्र ७११ मतों से हारे हैं पर इससे यह भी साफ़ है कि जातीय समीकरणों से ऊपर उठकर भाजपा को हिंदू वोट मिले हैं. महागठबंधन ने मुस्लिम वोटों को तो समेट लिया पर हिंदू वोटों को अब भी समेट नहीं पाया, जो एक जेहनियत है, जिससे लड़ने का वायदा महागठबंधन कर रहा है.

सामाजिक गठजोड़ के दबाव से बना राजनीतिक गठजोड़ तभी तक सत्ता के वर्चस्व को तोड़ पाएगा जब तक सामाजिक गठजोड़ बरकरार रहेगा. रही बात इस सामाजिक गठजोड़ की तो यह जातीय गिरोहबंदी है जो अभी कुछ ही महीने पहले ‘कम्युनल’ से ‘सेक्युलर’ हुआ है. बहरहाल, अभी कमंडल से मंडल बाहर नहीं निकल पाया है. नीतीश ने दलित-महादलित और पिछड़े-अति पिछड़े की जो रणनीतिक बिसात बिछाई, उसके कुछ मोहरे अभी भी दूसरे खेमें में बने हैं. इसे मंडल का बिखराव भी कहा गया जिसकी परछाई उत्तर प्रदेश में भी पड़ी. बिहार में जहां कुशवाहा व पासवान तो वहीं उत्तर प्रदेश में पटेल, शाक्य, पासवान समेत अति पिछड़ी-दलित जातियां भगवा खेमें में चली गयीं. पर ऐसा भी नहीं है कि इन जातियों के बल पर सिर्फ भाजपा मजबूत हुई. उदाहरण के तौर पर पटेल जाति के प्रभुत्व वाला अपना दल इसके पहले भी भाजपा से गठजोड़ कर चुका है. इसका अर्थ यह है कि बड़़ी संख्या में उन पिछड़ी जातियों का भी मत भाजपा में गया, जिन पर अति पिछड़ी-दलित जातियों के हिस्से की भी मलाई खाने का आरोप था.


Nitish Kumar and Lalu Prasad Yadav (तस्वीर साभार - हेडलाइंस टुडे)
नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव (तस्वीर साभार - हेडलाइंस टुडे)

यादव जाति के बाहुल्य और इस जाति से ही नाता रखने वाले मुलायम सिंह यादव के निर्वाचन क्षेत्र आज़मगढ़ से इस गणित को समझने की कोशिश की जा सकती है. इस निर्वाचन क्षेत्र के बारे में चौधरी चरण सिंह का कहना था कि अगर उन्हें आज़मगढ़ और बागपत में चुनना होगा तो वह आजमगढ़ को चुनेंगे. फिलहाल मुलायम सिंह ने मैनपुरी को छोड़कर आजमगढ़ को चुना है. जब नरेन्द्र मोदी ने वाराणसी से लोकसभा चुनाव लड़ने का फैसला किया तो आजमगढ़ से सांप्रदायिक ताकतों को मुंहतोड़ जवाब देने के दावे के साथ मुलायम अखाड़े में उतर गए. मुलायम के दांव और दावों का जब परिणाम आया तो पैरों तले जमीन खिसक गई. सपा से ही कभी सांसद रहे तत्कालीन भाजपा सांसद रमाकांत यादव दूसरे स्थान पर रहे तो बसपा के शाहआलम तीसरे पर रहे. इस परिणाम ने जहां यह साफ़ कर दिया कि प्रदेश के यादवों के सबसे बड़े नेता कहे जाने वाले मुलायम को एक यादव ने कड़ी टक्कर दी तो यहीं यह भी साफ हुआ की यादवों ने एक मुश्त वोट उन्हें नहीं दिया. वहीं तीसरे स्थान पर बसपा के शाहआलम का जाना यह साफ़ करता है कि उन्हें दलितों का वोट तो मिला पर मुसलमानों का नहीं क्योंकि अगर मुस्लिम वोट उन्हें मिलता तो मुलायम हार जाते क्योंकि जहां मुस्लिम वोट १९ फीसदी है तो यादव वोट २१ फीसदी है. ऐसे में मुस्लिमों ने मुलायम को वोट तो दिया पर मुलायम की अपनी ही जाति ने खुलकर ऐसा नहीं किया. ठीक इसी तरह जहां-जहां मुस्लिम प्रत्याशी रहे वहां कुछ ज्यादा ही जातिगत और सामाजिक समीकरणों से ऊपर उठकर मताधिकार किया गया. जिसका परिणाम संसद में उनकी कम संख्या है.

लोकसभा चुनाव में हार के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय लोकदल ने मेरठ को केन्द्र बनाकर अब जाट-मुस्लिम गठजोड़ के भरोसे न रहते हुए अतिपिछड़ों व अतिदलितों को जोड़ने की बात कही है. निस्संदेह अतिपिछड़ी व दलित जातियों को जोड़ा जाए लेकिन इस गठजोड़ का आधार क्या हो, इसे भी स्पष्ट किया जाना जरूरी है क्योंकि पश्चिमी यूपी में जो सांप्रदायिक गोलबंदी हुई है, उसमें बह जाने का खतरा भी कम नहीं है. यह हालत सिर्फ यहीं नहीं बल्कि पूरे प्रदेश में है, मुलायम का गढ़ माने जाने वाले मैनपुरी के अलीपुर खेड़ा कस्बा हो या फिर अवध का फैजाबाद या शाहजहांपुर.

मुख्यमंत्री अखिलेश यादव सांप्रदायिकता फैलाने वालों से ज़रूर पूछें कि क्या मोहब्बत पर पाबंदी लगा दी जाएगी, पर इस बात का भी पुख्ता इंतिज़ाम करें कि सांप्रदायिक अफवाह तंत्र का खात्मा होगा. मेरठ, जिसे लव जिहाद व धर्मांतरण की प्रयोगशाला बताया जा रहा है, वहां इस साल बलात्कार के ३७ मामले आए हैं, जिनमें ७ में आरोपी मुस्लिम हैं और ३० में हिंदू हैं. ठीक इसी तरह मेरठ जोन के मेरठ, बुलंदशहर, गाजियाबाद, गौतमबुद्ध नगर, बागपत, हापुड़, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर और शामली में कुल ३३४ बलात्कार के मामले सामने आए हैं. जिनमें २५ में आरोपी मुस्लिम और स्त्री हिंदू, २३ में आरोपी हिंदू और स्त्री मुस्लिम, ९६ में दोनों मुस्लिम और १९० में दोनों हिंदू हैं. इस तरह देखा जाए तो यूपी में निःसदेह सरकार महिला हिंसा रोकने में विफल है पर स्त्री हिंदू या मुस्लिम से नहीं बल्कि अपने ही समाज के पुरुषों से ज्यादा उत्पीडि़त है.

जैसा कि राजनीतिक विश्लेषक भी मान रहे हैं कि बिहार के नतीजे भाजपा को और तीखे ध्रुवीकरण की तरफ ले जाएंगे, जिसकी तस्दीक बिहार से आने वाली सांप्रदायिक तनाव की खबरें कर रही हैं. लालू-नीतीश हों या फिर माया-मुलायम, सबने जातीय अस्मिता व अवसरवादी गोलबंदी करते-करते ऐसा समाज रच डाला है. अब सिर्फ इनके रिवाइवल या सर्ववाइवल से अधिक इस बात की चिंता की जानी चाहिए कि यह अविश्वास का सांप्रदायिक ढांचा कैसे ढहेगा. क्योंकि जातियों का जो स्ट्रक्चर है, वह धर्म से निकलता है और वहीं समाहित हो जाता है. इसीलिए इनकी अपनी ही जातियां लव जिहाद जैसे हिंदुत्ववाद प्रचार के प्रभाव में आकर इनसे बिखर जाती हैं.

आने वाले दौर में अगर सांप्रदायिकता जैसे सवालों को हल नहीं किया गया तो फिर जो मुस्लिम इसे रोकने के नाम पर वोट देता है वह भी अपने और पराए का निर्णय समुदाय के आधार पर लेने लगेगा. ऐसे में न तो यह कथित धर्म निरपेक्ष पार्टियां बचेंगी और धर्म निरपेक्षता भी संकट में आ जाएगी. सिर्फ यह कह देने से कि ‘मुस्लिमों ने हमें वोट नहीं दिया इसलिए हार हुई’ नहीं चलेगा. क्योंकि भाजपा की जीत ने अल्पसंख्यक वोट बैंक को नकारते हुए बहुंख्यक के बल पर सत्ता हासिल की है. ऐसे में सामाजिक न्याय के पैरोकार बहुसंख्यक को अपने पाले में लाकर दिखाएं. बिहार उपचुनाव में १० में से महागठबंधन के ४ व भाजपा के एक सवर्ण प्रत्याशी की जीत हुई है. ऐसे में क्या यह कहा जा सकता है कि जिस तरह से महागठबंधन के सवर्ण प्रत्याशी के पक्ष में पिछड़ों-अतिपिछड़ों, दलित-महादलित और मुस्लिमों के मत पड़े हैं, क्या सवर्ण मतदाता भविष्य में इन समाज से जुड़े महागठबंधन प्रत्याशियों को अपना मत देगा. जो भी हो पर चुनाव के ऐन पहले कम्युनल से सेक्युलर बनाने का सर्टीफीकेट बांटना बंद करना होगा, क्योंकि इससे धर्मनिरपेक्षता आहत होती है.

सांप्रदायिक हिंसा के ख़ात्मे के लिए सख़्ती की ज़रूरत

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By TCN News,

नई दिल्ली: सामाजिक संगठनों के कार्यकर्ताओं व अल्पसंख्यक समुदायों के प्रतिनिधियों ने केंद्र तथा राज्य सरकारों से देश के कई भागों में कस्बों व गाँवों में अल्पसंख्यक संप्रदायों को निशाना बनाने व बलपूर्वक दबाने वाले तथा सांप्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ने वाले संगठित घृणा और हिंसा अभियानों के ख़ात्मे के लिए त्वरित कार्यवाही की मांग की है.

पिछले कुछ दिनों में ख़ासतौर पर उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में मुसलमानों और ईसाईयों के खिलाफ़ संगठनों द्वारा ‘शुद्धिकरण’ और ‘घर वापसी’ के सैकड़ों मामले सामने आये हैं. इन क्षेत्रों में तथाकथित ‘लव जिहाद’ के नाम पर हुए ध्रुवीकरण को लेकर भी वहां के युवा काफ़ी आतंकित हैं. इन असामाजिक संगठनों को केंद्र और स्थानीय राजनेताओं से मिल रहे भारी समर्थन के कारण कई स्थानों पर हिंसा की घटनाएं हुई हैं. 16 मई 2014 को आम चुनावों के परिणाम घोषित होने के बाद से अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ़ हिंसा की 600 से अधिक घटनाएं मीडिया द्वारा प्रकाशित की जा चुकी हैं. राज्य सरकारों ने दोषियों के खिलाफ़ कार्यवाही करने में बहुत सुस्ती दिखाई है. सरकारों के इस सुस्त व नरम रवैये से ऐसे गैरसंवैधानिक तत्वों को और प्रोत्साहन मिला है.



अल्पसंख्यकों पर हो रहे हमलों और तेज़ी से बिगड़ते इन हालात की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित करने के उद्देश्य से कल जंतर मंतर पर एक विरोध जनसभा का आयोजन किया गया. इस जनसभा में वक्ताओं ने प्रधानमंत्री, केंद्र सरकार तथा राज्य सरकारों से सांप्रदायिक घृणा फैलाने वालों और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने वाले लोगों के खिलाफ़ सख़्त कानूनी कार्यवाही करने की मांग की.

अल्पसंख्यकों के अधिकारों की सुरक्षा, सम्मान से जीने का अधिकार तथा भारत के समान नागरिक होने के अधिकार जैसे मुद्दों को उठाने के लिए 30 नागरिक व संवैधानिक अधिकार संगठनों और अल्पसंख्यक संप्रदाय अधिकार संगठनों द्वारा आयोजित इस सभा में अल्पसंख्यकों पर हो रहे हमलों पर एक रिपार्ट जारी की गई. कई वक्ताओं का मानना है कि देश में सांप्रदायिक व संगठित हिंसा को किसी हालत में बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए. ऐसे मामलों को वर्षों तक लंबित रखने की बजाय उन पर त्वरित कार्यवाही की जानी चाहिए.

सम्मेलन में कई वक्ताओं ने कहा कि उन्हें यह आशा थी कि चुनाव के परिणाम आने और केंद्र में सरकार बनने के बाद चुनाव अभियान में चली तीखी बयानबाज़ी बंद हो जाएगी. परंतु नई सरकार के पहले 100 दिनों के शासन में मुसलमानों और ईसाईयों के खिलाफ़ बयानों की आवाज़ और बुलंद हुई है, उनकी पहचान का उपहास किया गया है, उनकी देशभक्ति पर प्रश्न चिन्ह लगे हैं, उनकी नागरिकता पर सवाल उठाए गये हैं, उनके विश्वास का मज़ाक उड़ाया गया है, वह शोचनीय है. इस तरह बलपूर्वक भयपूर्ण विभाजनकारी और अविश्वास का माहौल बनाया जा रहा है. यह माहौल तेज़ी से देश के गाँवों और कस्बों में फैलता जा रहा है. इससे शांति और भाईचारे के सूफ़ी संतों के पैग़ामों और महात्मा गांधी के नेतृत्व में स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वाले क्रांतिकारियों के प्रयासों से जन्मी, सदियों से चली आ रही सांप्रदायिक सौहार्द की भावना को गहरी ठेस पहुँच रही है.

उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में ख़ासतौर पर मुसलमानों और उनके धार्मिक स्थलों पर हिंसा की अनेक घटनाएं हुई हैं. इन हिंसा की घटनाओं में देश के विभिन्न भागों में अल्पसंख्यक ईसाई संप्रदाय पर हुए कमोबेश 36 हमलों की ज्ञात घटनाएं भी शामिल हैं. उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ में ईसाई समुदाय, इसके धर्मगुरू, प्रार्थना करने वालों और गिरजाघरों पर भीड़ द्वारा हिंसा करने के दर्जनों मामले सामने आए तथा सरकार का दंगाईयों के प्रति रवैया काफी सुस्त और नरम रहा.

जनसभा में इस बात पर आश्चर्य और निराशा ज़ाहिर हुए कि संयुक्त राष्ट्र अमरिका के सदर्न यूनिवर्सिटी सिस्टम ऑफ़ लुसिआना ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को समेकित विकास और सामाजिक परिवर्तन, विशेषतः गुजराती महिलाओं और अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों के विकास के लिए किये गये उनके कार्यों को सम्मानित करने के लिए उन्हें डॉक्टरेट उपाधि देने का निर्णय लिया है. हालांकि वास्तविक स्थिति इससे बिल्कुल अलग है.

जनसभा से संतुलित समाज के विकास हेतु निम्न मांगें सामने आईं,
१. सांप्रदायिक, सुनियोजित व लक्षित हिंसा को किसी हालात में बर्दाश्त नहीं किया जाए.
२. केन्द्र और राज्य सरकारों को ऐसे लोगों के खिलाफ़ त्वरित कार्यवाही करनी चाहिए जो अपने बयानों से अल्पसंख्यकों में तनाव की स्थिति पैदा करते हैं.
३. केंद्र तथा राज्यों के गृह मंत्रालयों द्वारा सभी पुलिस अधिकारियों को निर्देश दिया जाए कि वे देश के सभी नागरिकों के साथ समान व्यवहार करें और किसी विशेष समूह के दबाव में ना आएं व अल्पसंख्यकों का शोषण न करें.
४. सरकार को सभी नागरिकों को आगे बढ़ने के लिए एक समान माहौल और संसाधन देने और अल्पसंख्यकों के अधिकारों की सुरक्षा व समानता के अधिकार की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए एक तंत्र विकसित करना चाहिए.

वक्ताओं में जेडीएस के कुँवर दानिश, कांग्रेस के मनीष तिवारी, जदयू के अली अनवर, सीपीआई के अमरजीत कौर, अपूर्वानंद, आर्कबिशप अनिल जेटी काउटो, आर्कबिशप कुरियाकोस भरनीकुलंघरा, बिशप सिमोन जॉन, डॉ. ज़फ़रूल इस्लाम खान, हर्ष मंडेर, हरविंदर सिंह सरन, जॉन दयाल, किरण शाहीन, मनीषा सेठी, मौलाना नियाज़ फ़ारूकी, मोहम्मद नसीम, नावेद हमीद, नूर मोहम्मद, पॉल दिवाकर, सेहबा फ़ारूकी, शबनम हाशमी, सईदा हमीद, ज़ाकिया सोमन शामिल थे.

मुस्लिम समीकरण साधने में जुटी शिवसेना

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By ए. मिरसाब, TwoCircles.net,

महाराष्ट्र में जब सारी बड़ी राजनीतिक पार्टियां महाराष्ट्र में बिना किसी गठजोड़ के अपने बूते पर चुनाव लड़ने जा रही हैं, ऐसे में वे छोटे-बड़े किसी भी वर्ग को नज़रंदाज़ नहीं करना चाह रही हैं. कठिन रस्साकशी के बीच टूटे २५ साल पुराने भाजपा-शिवसेना गठबंधन से शिवसेना को अपना वोटबैंक बनाने में कड़ी मशक्क़त का सामना करना पड़ रहा है. एक अल्पज्ञात मुस्लिम संगठन ‘महाराष्ट्र मुस्लिम एकता परिषद्’ ने उद्धव ठाकरे द्वारा नीत शिवसेना को अपना समर्थन देने का फ़ैसला किया है. परिषद् के अनुसार यह फैसला साम्प्रदायिक विषयों पर उद्धव ठाकरे की राय जानने के बाद यह फैसला लिया गया.

महाराष्ट्र मुस्लिम एकता परिषद् द्वारा यह घोषणा तब की गयी है, जब राज्य में चुनाव प्रचार पूरे ज़ोर पर है और सभी पार्टियां इस बात को साबित करने में तुली हैं कि उन्हें चुनना यानी समाज के हर तबके के विकास और लाभ को चुनना है. यह भी बात क़ाबिल-ए-गौर है कि इस ज़हीन होती जा रही लड़ाई में, सभी पार्टियों के लिए एक-एक मत का नुकसान बड़ा नुकसान साबित हो सकता है.



परिषद् के अध्यक्ष आकिफ़ दाफेदार ने कहा कि मुस्लिम की चार मूलभूत समस्याओं पर उद्धव ठाकरे के जवाब और उन जवाबों से संतुष्ट होने के बाद ही शिवसेना को समर्थन देने का निर्णय लिया गया है. आकिफ़ के अनुसार, परिषद् ने उद्धव ठाकरे से कहा कि दूसरे संस्थानों द्वारा अतिक्रमित की गयी वक्फ़ बोर्ड की ज़मीनों को पुनः हासिल किया जाए, आतंक की घटनाओं में फास्ट-ट्रैक कोर्ट का गठन किया जाए, आतंक के मामलों से बाइज्ज़त बरी हुए लोगों को मुआवज़ा दिया जाए और मौलाना आज़ाद फाइनेंस कार्पोरेशन के फंड को बढ़ाकर ४००० करोड़ कर दिया जाए.

सूत्रों के अनुसार, उद्धव ठाकरे नी इन बातों को ध्यानपूर्वक सुना और यह आश्वासन दिया कि यदि महाराष्ट्र में शिवसेना की सरकार बनती है तो उनकी इन मांगों को अमल में लाने के लिए ज़रूरी क़दम उठाए जायेंगे. उद्धव ठाकरे ने यह भी आश्वासन दिया कि शिवसेना महाराष्ट्र में साम्प्रदायिक सौहार्द्र बनाए रखेगी, मुस्लिमों के साथ बुरा बर्ताव नहीं किया जाएगा और समाज के हर तबके को उचित न्याय मिलेगा.

कुछ दिनों पहले मुस्लिम नेता और राज ठाकरे के संगठन महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) के उपाध्यक्ष हाजी अराफ़ात शेख ने मनसे पर मुस्लिमों के साथ उचित व्यवहार न करने का आरोप लगाते हुए शिवसेना का हाथ थाम लिया था. शिवसेना पार्टी में शेख के दाखिले को एक उपहार और मौके की तरह देख रही है, क्योंकि इससे दूसरे मुस्लिम समुदायों में भी पकड़ बनाने का मौक़ा मिल सकता है. ऐसा इसलिए है क्योंकि अराफ़ात शेख के साथ सूबे के लगभग ३० लाख क़ुरैशी बंधु जुड़े हुए हैं, जो कमोबेश पूरे प्रदेश में फैले हैं.

(अनुवाद: सिद्धान्त मोहन)


स्वच्छ भारत अभियान के समानांतर

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By सिद्धान्त मोहन, TwoCircles.net,

साल 2012 के अक्तूबर महीने में तत्कालीन केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने कहा था कि देवालयों के निर्माण से ज़्यादा ज़रूरी है कि शौचालयों का निर्माण कराया जाए. इस बयान के परिणामस्वरूप हुए विरोध प्रदर्शनों को भारतीय लोकतंत्र बेहद अचकचाई निगाहों से देखता है, जहां कुछ भाजपा कार्यकर्ताओं को जयराम रमेश के आवास के मुख्यद्वार पर नारेबाज़ी के साथ पेशाब किया.

इसे लगभग विरोधाभासी सचाई ही माना जाना चाहिए कि इस घटना के लगभग दो साल बाद, आज, यानी 2 अक्टूबर 2014, से पूरे देश में एक वृहद् स्वच्छता अभियान की शुरुआत की गयी है. इस अभियान का आह्वान खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 15 अगस्त को लाल किले से अपने भाषण के दौरान किया था. वे सफ़ाई पसंद राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को एक स्वच्छ राष्ट्र उपहारस्वरूप देने की मंशा से आए हैं. इस बाबत हरेक सरकारी निकाय में राष्ट्रीय छुट्टी होने के बावजूद सभी स्तरों के कर्मचारियों को आना पड़ा, शपथ लेनी पड़ी और सफ़ाई अभियान में अपना योगदान देना पड़ा. संभवतः इस ‘देना पड़ा’ या ‘करना पड़ा’ के लहज़े की कोई ज़रूरत न होती, यदि आज गांधी जयंती सरीखा राष्ट्रीय अवकाश न होता.


अभियान की सफलता प्रदर्शित करता वाराणसी का चौक इलाका, जो नगर का आर्थिक केंद्र है.
अभियान की सफलता प्रदर्शित करता वाराणसी का चौक इलाका, जो नगर का आर्थिक केंद्र है.

इस अभियान के मद्देनज़र TCNने कुछ लोगों से इस स्वच्छता अभियान के बारे में बात की. सबसे पहले हिन्दी के वामपंथी युवा आलोचक हिमांशु पंड्याने इस ‘स्वच्छ भारत अभियान’ की प्रासंगिकता पर अपने कुछ मौजूं विचार व्यक्त किए. हिमांशु पंड्या ने इसे शुरू करने की तारीख पर बात करते हुए कहा, ‘चूंकि आपकी लड़ाई सीधे नेहरू से थी और आप यह चाहते थे कि नेहरू के विचार और उनकी नीतियां पहले की तरह प्रसारित होना बंद हो जाए तो आपने शिक्षक दिवस को एक नए बाल दिवस के रूप में ढाल दिया, ताकि 14 नवंबर को मनाए जाने वाले बाल दिवस की प्रासंगिकता कम हो जाए. ठीक इसी तरह अब आपने गांधी पर निशाना साधा है. 2 अक्टूबर को मनाए जा रहे अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस पर आप स्वच्छ भारत अभियान लॉन्च करते हैं, इस तरह से आप गांधी जयंती के संदेश को धूमिल करने की फ़िराक में हैं.’


मुस्लिम बहुल क्षेत्र मदनपुरा, जहां कई स्थानों पर कूड़े को ढेर बनाकर यूं छोड़ दिया गया था
मुस्लिम बहुल क्षेत्र मदनपुरा, जहां कई स्थानों पर कूड़े को ढेर बनाकर यूं छोड़ दिया गया था

हिमांशु आगे कहते हैं, ‘आपके दामन पर जो 2002 के दाग हैं, दरअसल आप उन्हें साफ़ करना चाहते हैं. इसके लिए आपका सबसे बड़ा सहारा गांधी बनते हैं. आप गांधी के विचारों को तोड़-मरोड़कर भौतिक कूड़े तक समेट देते हैं, जबकि गांधी ने हमेशा साम्प्रदायिकता, ऊंच-नीच और हिंसा को साफ़ करने पर बल दिया. लेकिन लगता है कि उन विचारों से आपका कोई वास्ता नहीं.’


मुस्लिम बहुल क्षेत्र नईसड़क, जहां रोज़ाना सब्जी और कपड़ों का फुटकर बाज़ार लगता है.
मुस्लिम बहुल क्षेत्र नईसड़क, जहां रोज़ाना सब्जी और कपड़ों का फुटकर बाज़ार लगता है.

युवा पत्रकार और जनपथ.कॉम के संचालक अभिषेक श्रीवास्तवकहते हैं, ‘मैं ज़्यादा विषयविद् होते हुए बात नहीं करूंगा. मेरा प्रश्न तो सिर्फ़ यह है कि यदि कूड़ा है तो वह क्यों है? आपके लिए ‘कूड़ा-कचरा’ शब्द के क्या मानी हैं? उनके अर्थ कितने वृहद-संकुचित हैं? अब से कुछ दिनों बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ स्वामी श्रद्धानंद जयंती से शुद्धिकरण अभियान शुरू करने जा रहा है. संघ के घोर हिंदूवादी रवैये को देखते हुए यह स्पष्ट है कि यह अभियान पहले ईसाईयों और फ़िर मुस्लिमों को अपना निशाना बनाएगा.’


मरकाज़ी दारुल उलूम के पास रेवड़ी तालाब का इलाका.
मरकाज़ी दारुल उलूम के पास रेवड़ी तालाब का इलाका.

अभिषेक समाज में व्याप्त अंतर के बारे में बात करते हुए कहते हैं कि, ‘अब देखने की बात यह है कि आगे चलकर इस सफ़ाई अभियान और शुद्धिकरण अभियान में कितनी दूरी बनी रह पाती है? जैसा आप (TCN) अपनी पड़ताल के बारे में बता रहे हैं, उससे एकदम सम्भव है कि मामला आगे चलकर जब ‘कूड़े’ से ‘कूड़ा फैलाने वाले’ पर आएगा, तब तक आप(भाजपा) एक बहुत बड़े जनसमूह को किसी ख़ास समुदाय या तबके के खिलाफ़ मोड़ चुके होंगे. जनता तो कहने ही लगेगी कि भाई मुस्लिम या ईसाई कूड़ा फैला रहे हैं, इन्हें यहां से हटना होगा.’


दारुल उलूम के मुख्यद्वार व बाउंड्री से सटाकर नालियों के कचरे के कई सारे ढेर इस भांति लगा दिए गए.
दारुल उलूम के मुख्यद्वार व बाउंड्री से सटाकर नालियों के कचरे के कई सारे ढेर इस भांति लगा दिए गए.

हरिजनों और दलितों के प्रश्न पर हिमांशु पंड्या कहते हैं, ‘हमारे प्रधानमंत्री कहते हैं कि वाल्मीकि समाज ने आजीविका के लिए नहीं बल्कि समाज को साफ़ करने की नीयत से इस काम को चुना. इसके साथ आप गांधी को पूरी तरह तजकर सिर्फ़ उस गांधी को पकड़ते हैं, जो वर्णाश्रम की बात करता है. आप अमरीका जाकर नवरात्र को पब्लिक प्रोपेगेंडा बना देते हैं. यानी आप जब दलित समाज और हरिजनों की तारीफ़ करते हैं, तो उन्हें सबकुछ बता देते हैं लेकिन उनके उत्थान के लिए कुछ नहीं करते हैं. गुजरात में अब भी मैनुअल स्कैवेंजिंग हो रही है, लेकिन इस दिशा में कोई कार्य नहीं.’


रेवड़ी तालाब के पास मुख्यसड़क पर फैला कूड़ा
रेवड़ी तालाब के पास मुख्यसड़क पर फैला कूड़ा

इन बातों पर गौर करें तो गुजरात के हालातों पर विचार करने के कई बिंदु मिलते हैं. कुछ समय पहले सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरमेंट (सीएसइ) की पड़ताल के बहाने बात करें तो साबरमती नदी पर रिवरफ्रंट के विकास के बावजूद कई जगहों पर साबरमती का पानी यमुना से भी ज़्यादा प्रदूषित है. ऐसे में यह प्रश्न उठना लाज़िम है कि भौतिक कूड़े से जुड़ा यह ‘सफ़ाई अभियान’ क्या पहले गुजरात में ‘मॉडल’ के रूप में विकसित नहीं किया जा सकता था? प्रधानमंत्री और केन्द्रीय मंत्रिमंडल के लगभग सभी सदस्यों ने झाड़ू लगाते हुए तस्वीरें खिंचवाई हैं, लेकिन जानकार प्रश्न उठाते हैं कि देश की नदियों में लगातार हो रहे प्रदूषण को रोकने के लिए क्या कोई ठोस नीति अभी तक नहीं बन पायी है? और कूड़े के अर्थ को इतना सीमित करना किस बात की निशानी है?


थाना भेलूपुर से बमुश्किल ५० मीटर की दूरी पर रेवड़ी तालाब की गली का मुहाना
थाना भेलूपुर से बमुश्किल ५० मीटर की दूरी पर रेवड़ी तालाब की गली का मुहाना

हमने प्रसिद्ध गांधीवादी लेखक और पर्यावरण एक्टिविस्ट अनुपम मिश्र ने बात करने का प्रयास किया, लेकिन छुट्टी और तकनीकी समस्या के चलते कोई बात सम्भव न हो सकी.


रेवड़ी तालाब स्थित नगर निगम का कूड़ाखाना, जहां आसपास के इलाकों के कचरे ढेर किए जा रहे थे.
रेवड़ी तालाब स्थित नगर निगम का कूड़ाखाना, जहां आसपास के इलाकों के कचरे ढेर किए जा रहे थे.

आगे जो तस्वीरें हम आपको दिखा रहे हैं, वे 2 अक्टूबर की दोपहर ली गयी प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी की तस्वीरें हैं. शहर की प्रमुख सड़कें साफ़ कर दी गयी थीं, लेकिन मुस्लिम बहुल इलाकों में या तो कूड़ा उठाया ही नहीं गया था अथवा अन्य इलाकों का कूड़ा भी इन इलाकों में लाकर पटक दिया गया था. कुछ तस्वीरें शहर के भीड़भाड़ वाले इलाकों की भी हैं, जहां कूड़े को रोज़ के बहाने की तरह इस्तेमाल में लाया जा सकता है. एक सफ़ाई कर्मचारी रोशनलाल ने बताया कि, ‘हम लोगों को बताया गया था कि मेनरोड का कूड़ा सबसे पहले उठेगा. ‘अंदर के इलाकों’ में कोई जाता नहीं, इसलिए उधर ज़्यादा ज़रूरत नहीं है.’ इन तस्वीरों के साथ मोहल्लों और उनके संक्षिप्त ब्यौरे दिए गए हैं, जिससे इस ‘स्वच्छ भारत अभियान’ की असल नब्ज़ को टटोला जा सके.

समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अधिवेशन में शरद यादव

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By TCN News,

आज से शुरू हो रहे समाजवादी पार्टी के तीन-दिवसीय राष्ट्रीय अधिवेशन में सपा समर्थकों और कार्यकर्ताओं की भारी भीड़ के बीच समाजवादी पार्टी मुलायम सिंह यादव को अपना मुखिया चुनने की औपचारिकता निभा चुकी है.
बकौल राष्ट्रीय महासचिव रामगोपाल यादव, इस प्रकार मुलायम सिंह यादव लगातार नौवीं बार सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने गए हैं, जिस पर अगले तीन साल तक के लिए वे बने रहेंगे. मुलायम सिंह यादव ने केन्द्र सरकार को लगभग ललकारते हुए कहा कि सीमापार से हो रही फायरिंग के बाद भी सरकार चुप बैठी है. इसके जवाब के लिए मोदी के पास सचमुच का 56 इंच का सीना होना चाहिए.

सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने कार्यकर्ताओं को विजय मन्त्र देते हुए कहा कि कार्यकर्ता किसी भी सूरत में जनता की उपेक्षा न करें. उन्होंने कार्यकर्ताओं को यह भी नसीहत दी कि वे अपने आचरण में सुधार लाएं.


Lalu,Mulayam and Sharad Yadav
मुलायम, लालू और शरद यादव (फ़ाइल फोटो, साभार - द हिन्दू)

लेकिन इन सभी खबरों से अधिक जिस घटना ने खबरनवीसों और सरकारी गलियारों का ध्यान खींचा है, वह है इस अधिवेशन में जनता दल यूनाइटेड के मुखिया शरद यादव की उपस्थिति. इस उपस्थिति से कयास लगाए जा रहे हैं कि शायद जल्द ही मुलायम और शरद एक हो सकते हैं. इसका संकेत शरद यादव की बात से भी मिल जाता है कि हम दोनों (मुलायम और शरद) बहुत अच्छे दोस्त हैं. हम शुरू से ही साथ रहे हैं और इस समय के राजनीतिक हालातों और उनसे उपजे संवैधानिक संकट को हमें बचाना है.

हालांकि शरद यादव ने सपा से हाथ मिलाने की बात पर कोई बयान देने से इनकार कर दिया. बिहार में पहले ही राजद और जदयू ने गठबंधन बना लिया है, जिसका खुशहाल परिणाम हाल में ही हुए चुनावों में भी देखने को मिल गया. इस दशा में यह संभावना एकदम मजबूत है कि जनता परिवार को साथ में लाने की बात करने वाले शरद यादव भविष्य में समाजवादी पार्टी के साथ खड़े होंगे. सूत्रों की मानें तो इस अधिवेशन में एचडी देवगौड़ा और नवीन पटनायक के शिरक़त करने की भी संभावनाएं हैं.

प्रश्न उठता है कि क्या समाजवादी पार्टी अपनी इस शिकस्त से कोई सबक सीख पायी है? इसका जवाब देना मुश्किल है, क्योंकि हाल ही में हुए उपचुनावों में पार्टी की शानदार जीत के बावजूद उत्तर प्रदेश में दिनों-दिन मटियामेट होती कानून व्यवस्था में कोई सुधार नहीं है. अभी तक प्रदेश सरकार विद्युत व्यवस्था में कोई भी सुधार ला पाने में सफल रही है. ऐसे में यह देखने की बात होगी कि लोकसभा चुनावों में इतनी बुरी हार का सामना करने वाली समाजवादी पार्टी राष्ट्रीय स्तर और कुछ साल बाद होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में क्या रंग दिखा पाती है?

मोदी सरकार सो रही है कुम्भकर्ण की नींद – सर्वोच्च न्यायालय

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By TCN News,

अपने वजूद को मजबूत और क़ाबिल मानकर आगे बढ़ रही मोदी सरकार के दावे चाहे जो भी हों, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि मोदी सरकार कुम्भकर्ण की नींद सो रही है. सुप्रीम कोर्ट ने अपनी फटकार से केन्द्र सरकार को शर्मसार करते हुए गुरुवार को कहा कि मोदी सरकार कुम्भकर्ण की माफ़िक व्यवहार कर रही है, जो लम्बी नींद में सोया रहता था. इतना ही नहीं, सुप्रीम कोर्ट ने सरकार की तुलना 19वीं सदी के काल्पनिक पात्र ‘रिप वान विंकल’ से भी की, जो अपने स्वभाव में बेहद काम चोर था.

‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ में छपी खबर के मुताबिक़ जस्टिस दीपक मिश्रा और जस्टिस आर.एफ. नरीमन की बेंच ने केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय को डांट पिलाने के दौरान केन्द्र सरकार को भी इन विशेषणों से विभूषित किया. सर्वोच्च न्यायालय केन्द्र सरकार और केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की लापरवाही से काफ़ी नाराज़ है.



दरअसल मामला एक रपट से जुड़ा है. सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय से दो महीनों के भीतर भागीरथी और अलकनंदा पर चल रही सभी जलविद्युत परियोजनाओं द्वारा बायोडायवर्सिटी पर पड़ रहे प्रभावों के मद्देनज़र एक रिपोर्ट मांगी थी. इस रिपोर्ट के आने तक सभी परियोजानों पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी थी.

सर्वोच्च न्यायालय ने जलविद्युत परियोजनाओं और जैवविविधता के बीच के संतुलन को बल दिया है. यह प्रश्न अदालत ने सरकार से भी पूछा कि इन दोनों पक्षों के बीच संतुलन कैसे विकसित किया जाए?

गुरुवार, यानी तयशुदा समय, तक रिपोर्ट पेश नहीं होने पर सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने सरकार से कड़े शब्दों में कहा, ‘रिपोर्ट को यहां होना चाहिए था. आप (केंद्र सरकार) कुंभकर्ण की तरह व्यवहार कर रहे हैं. हम नहीं समझ पा रहे हैं कि आखिर केंद्र सरकार ने हमारे सामने रिपोर्ट पेश क्यों नहीं की? आपकी (केंद्र) मंशा क्या है? आपको काफ़ी समय दिया जा चुका है. आप ‘रिप वान विंकल’ जैसे ही हैं.’

मौका मिला तो समाजवादी पार्टी महाराष्ट्र के विकास मे अपना योगदान देगी : अब्दुल कादिर चौधरी

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By TCN News,

मुम्बई: गुरुवार को समाजवादी पार्टी प्रदेश कार्यालय मे आयोजित पत्रकार सभा में आगामी महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के लिए पार्टी की तरफ़ से चुनावी घोषणापत्र जारी किया गया. इस मौके पर मीडिया को संबोधित करते हुये पार्टी के प्रवक्ता अब्दुल क़ादिर चौधरी ने कहा कि यदि मौका मिला तो समाजवादी पार्टी महाराष्ट्र के विकास में अपना योगदान देगी. इस अवसर पर पार्टी के प्रदेश महासचिव तथा प्रवक्ता अब्दुल क़ादिर चौधरी, महाराष्ट्र प्रदेश उपाध्यक्ष तथा अनुसूचित जाति विभाग के अध्यक्ष अशोक गायकवाड, महाराष्ट्र्र/मुम्बई प्रदेश उपाध्यक्ष प्रदीप दीक्षित भी उपस्थित थे.

समाजवादी पार्टी ने अपने चुनावी घोषणापत्र में कई मूलभूत सुविधाओं को चुनावी मुद्दों का आधार बनाया है. इस चुनावी घोषणा पत्र में पीने के पानी, बिजली किल्लत, निर्धनों के लिए स्वास्थ्य बीमा के मुद्दे प्रमुखता के साथ शामिल किए गए हैं.


Samajwadi Party

इनके साथ ही साथ न्यूनतम खर्चों में उच्च शिक्षा, वक़्फ़ लॉ प्रोटेक्शन एंड डेवलपमेंट कार्पोरेशन का गठन, वक़्फ़ जायदाद की हिफाज़त और तरक्की, मानवाधिकार और नागरिक आज़ादी की सुरक्षा, धार्मिक आज़ादी, सांप्रदायिक फसादों व आतंकवादी घटनाओं में मृतकों के परिवार को अतिरिक्त मुआवज़ा, फर्जी एन्काउंटर के सभी मामलों की न्यायिक जांच, पुलिस कर्मचारियों को मुआवज़ा, उर्दू भाषा का सम्मान, एससी-एसटी अत्याचार विरोधी कानून का कड़ाई से पालन, इस्माईल यूसुफ़ कॉलेज की वापसी, मुसलमानों को 10 फीसद आरक्षण, मुस्लिम महिलाओं और बच्चों के लिए आरक्षण, पावरलूम सेक्टर के विकास हेतु उचित कदम, पावरलूम-लैस शहरों का विकास आदि मुद्दो का समावेश है.

पार्टी के प्रवक्ता अब्दुल क़ादिर चौधरी ने बताया कि समाजवादी पार्टी ने हमेशा से ही दलित, पीड़ित, शोषित, पिछड़ों व अल्पसंख्यकों की लड़ाई लड़ी है. सपा डॉ.लोहिया की विचारधारा को मानती है. लोहिया ने हमेशा पीड़ितों, शोषितो की आवाज़ को बुलंद करने का काम किया और इसी नक्शे-क़दम पर पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अबू असीम आज़मी ने अपने विधानसभा सदस्यता कार्यकाल मे समाज के हर तबके की आवाज़ को बुलंद करने का काम किया.

चौधरी ने आगे बताया कि चुनाव पूर्व सपा ने कांग्रेस-राकांपा सहित सभी सेकुलर दलों को एकजुट करने का भरकस प्रयास किया लेकिन अन्य पार्टियों की हठधर्मिता के चलते इस मंसूबे में समाजवादी पार्टी नाकाम साबित हुई. पार्टी की रणनीति के बारे में बात करते हुए चौधरी ने बताया कि समाजवादी पार्टी ने विधानसभा चुनाव में २४ सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए हैं, और ज़्यादा से ज़्यादा सफलता पाने के लिए मेहनत कर रही है.

प्रधानमंत्री मोदी ने महाराष्ट्र की जनता से दागी प्रत्याशियों को वोट देने का आग्रह किया

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By ए. मिसराब, TwoCircles.net,

मुम्बई: “तुम कमल का बटन दबाओगे. तो वोट मुझे ही जाएगा”, ऐसा कहना है नरेन्द्र मोदी का, जिसे उन्होंने लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान बार-बार दोहराया और अब महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में भी वे यही बात कह रहे हैं. आश्चर्य की बात तो ये है कि मोदी इस बात को उस वक्त भी दुहराते हैं जब वे महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में खड़े हो रहे आपराधिक वारदातों के आरोपी और विवादास्पद प्रत्याशियों के पक्ष में चुनाव प्रचार कर रहे हैं.

लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान मोदी ने अपने सारे भाषणों को भ्रष्टाचार से घिरी कांग्रेस और दूसरे नेताओं की मुखालफत में केंद्रित कर दिया था. इसके साथ उन्होंने यह भी दावा किया था कि सत्ता में आने के बाद आपराधिक छवि वाले सारे नेताओं को वे सलाखों के पीछे भेज देंगे. इसके बाद लोगों ने उनके वादों पर भरोसा कर उन्हें चुना, इसके बाद मोदी अपने वादों को भूल गए और अब वे अपनी ही पार्टी के दागी प्रत्याशियों के पक्ष में मतदान करने के लिए प्रचार कर रहे हैं.



राहुरी विधानसभा क्षेत्र में दागी प्रत्याशी शिवाजी कर्दिले (घेरे में) के समर्थन में प्रचार करते हुए (तस्वीर साभार - एचटी मीडिया)

अहमदनगर के राहुरी विधानसभा क्षेत्र में गुरुवार को प्रचार करते हुए मोदी ने भाजपा के प्रत्याशी शिवाजी कर्दिले, जिनके खिलाफ़ हत्या और धनउगाही समेत लगभग 12 आपराधिक मुकदमे दर्ज़ हैं, को वोट देने के लिए लोगों से आग्रह किया.

आश्चर्य की बात तो यह है कि ठीक एक दिन पहले मोदी ने कांग्रेस-राकांपा जैसी पार्टियों पर आपराधिकता को बढ़ाने का आरोप लगाते हुए कहा था, ‘अगर वे आपकी घर या दुकान खाली कराना चाहते हैं तो वे आपको घरों पर बाहुबली भेजते हैं. अब समय आ गया है कि ऐसे बाहुबलियों को जेल भेज दिया जाए.’

गुरुवार को नरेन्द्र मोदी के साथ मंच साझा करने वाले भाजपा प्रत्याशी और मौजूदा विधायक कर्दिले २००२ में नगर कोऑपरेटिव बैंक जालसाज़ी के आरोप में एक साल की जेल काट चुके हैं. इसी केस में उन्हें न्यायिक मजिस्ट्रेट (प्रथम) एम.एस. तोड़कर द्वारा जुलाई में सजा सुनाई जा चुकी है.

२०११ में हत्या, धमकी, जालसाजी और हत्या के प्रयास के साथ कर्दिले पर आरोप भी तय हो चुके हैं. अहमदनगर के अशोक लेनदे की हत्या के केस में भी आरोपी हैं, जिसका ट्रायल नासिक जिला स्तर न्यायालय में अभी भी चल रहा है.

बीते दो नामांकनों के दौरान दिए गए संपत्ति के ब्यौरे में 14 करोड़ का इज़ाफा हुआ है. 2009 के चुनावों में दौरान कर्दिले के घोषित संपत्ति लगभग दो करोड़ तैतीस लाख थी, जो इस साल बढ़कर सोलह करोड़ तिरासी लाख हो गयी.

इस तरह कर्दिले वे दूसरे आपराधिक छवि वाले नेता हो गए हैं जिनका प्रचार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने किया है. कर्दिले के लिए प्रचार करने के ठीक दो दिनों पहले मोदी ने अनिल गोटे के लिए प्रचार किया जिन पर २००२ में अदुल करीम तेलगी के साथ कई करोड़ों के स्टैम्प स्कैम केस में मकोका लगाया गया, और उन्होंने जमानत मिलने के पहले कुछ महीने जेल में भी बिताए हैं.

(अनुवाद: सिद्धान्त मोहन)

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