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महाराष्ट्र चुनाव: एमआईएम की राजनीति से मुस्लिम मतदाता दुविधा में

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By ए. मिसराब, TwoCircles.net,

मुम्बई: मुख्यतः हैदराबाद में केंद्रित राजनैतिक संगठन आल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन ने आन्ध्र और तेलंगाना के इलाकों से बाहर पाँव पसारते हुए 15 अक्टूबर को होने जा रहे महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में अपने 24 प्रत्याशी खड़े किए हैं. जैसी आशा थी, ये सारे प्रत्याशी मुस्लिम बहुल इलाकों में खड़े किए गए हैं, विशेषकर मराठवाड़ा में, जो आज़ादी के पहले हैदराबाद के निजाम के सूबे में शामिल था. अकेले मराठवाड़ा से अधिक प्रत्याशियों को खड़ा करने का कारण भी ज़ाहिर ही है क्योंकि नांदेड़ में 11 पार्षदों के साथ मुंसीपाल्टी स्तर पर एमआईएम के पैर मजबूत हैं. यही कारण है कि नांदेड़ को एमआईएम की गतिविधियों का केन्द्र माना जाता है.

जहां तक एमआईएम की प्लानिंग की बात की जाए तो एमआईएम का मकसद बहुत बड़ी जीत का नहीं है. लेकिन विधानसभा में एक सफल प्रत्याशी को भी भेजने में एमआईएम के सामने दो दिक्क़तें हैं: एक, आक्रामक हिन्दूवादी पार्टियों की उपस्थिति और हरेक सीट पर कम से कम एक मुस्लिम प्रत्याशी की उपस्थिति. इस तरह से मुस्लिम मतों का विभाजन एमआईएम के लिए एक चिंता का विषय है.



सोशल मीडिया पर एमआईएम समर्थकों द्वारा प्रसारित तस्वीर

दूसरी निगाह से देखें तो एमआईएम की उपस्थिति से कांग्रेस और राकांपा की फिक्रमंदी देखी जा सकती है. कांग्रेस-राकांपा गठबंधन टूटने के बाद मुस्लिम मतों के बिखरकर एमआईएम के पक्ष में जाने के आसार हैं. पार्टी के सूत्रों का कहना है कि प्रत्याशियों का चुनाव उनकी क्षमता, प्रतिभा, अल्पसंख्यक वर्ग के प्रति उनकी धारणा और उनके प्रति स्थानीय जनता के रुझान को ध्यान में रखकर किया जाता है. पार्टी को चुनाव चिन्ह के रूप में ‘पतंग’ का निशान मिला है.

लगभग दो दर्जन प्रत्याशियों में से तीन गैर-मुस्लिम प्रत्याशी भी हैं, जिनमें अक्कलकोटे से सुभाष आनंदराव शिन्दे, सोलापुर शहर उत्तरी से डा. विष्णुपंत गवाडे और कुर्ला, मुम्बई से अविनाश गोपीचंद बर्वे शामिल हैं. दलित वोटों का आकर्षण बढ़ाने के लिए इन तीन सीटों पर गैर-मुस्लिम प्रत्याशी खड़े किए गए हैं. एमआईएम द्वारा लड़ी जा रही कुल 24 सीटों पर यही तीन सीटें ऐसी हैं, जहां मुस्लिम मतों का प्रतिशत अन्य के मुक़ाबिले काफी कम है.

एमआईएम ने कुछेक क्षेत्रों में अपने प्रत्याशी न खड़ाकर वहां के प्रत्याशी को अपना समर्थन दिया है. इस दिशा में ताज़ा उदाहरण पैंथर रिपब्लिकन पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ रहे दलित नेता और पूर्व मंत्री गंगाधर गाडे हैं. इन सभी 24 सीटों पर कुल मिलाकर 147 मुस्लिम प्रत्याशी खड़े हैं, जो प्रति सीट 6 प्रत्याशी का औसत बनाते हैं. इस लिहाज़ से एमआईएम के लिए मुस्लिम मतों को जुटाना एक कठिन काम साबित हो सकता है.

नांदेड़ में कार्य-केन्द्र होने के कारण पार्टी ने यहां की दोनों सीटों पर प्रत्याशी खड़े किए हैं क्योंकि पार्टी का सोचना है कि भाजपा-शिवसेना के गठबंधन के टूटने से हुए गैर-मुस्लिम मतों के विभाजन से नांदेड़ में पार्टी की स्थिति और मजबूत होगी, परिणामस्वरूप दोनों सीटों पर विजय आशान्वित है.

नांदेड़ से ताल्लुक रखने वाले एक्टिविस्ट और एमआईएम समर्थक वकील एन. खान कहते हैं, ‘महाराष्ट्र के दोनों बड़े गठबंधनों के टूटने के बाद नांदेड़ में एमआईएम का पक्ष मजबूत हो गया है. नांदेड़ के मुस्लिम एमआईएम के साथ जाने के लिए एकजुट हैं, क्योंकि गैरमुस्लिम मत कांग्रेस, राकांपा, शिवसेना, भाजपा और मनसे में बँट जायेंगे.’ खुद नांदेड़ और अन्य दूसरे क्षेत्रों में अन्य पार्टियों के मुस्लिम प्रत्याशियों से टक्कर के सवाल पर खान कहते हैं, ‘यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि कई मुस्लिम एमआईएम के खिलाफ़ लड़ने की इच्छा रख रहे हैं, लेकिन मुझे नहीं लगता कि इससे हमारी पार्टी पर कोई असर पड़ेगा क्योंकि अधिकतर युवा हमारे साथ हैं, और मुस्लिमों को हमारे साथ लाने के लिए वे लगातार प्रयास कर रहे हैं.’

मराठवाड़ा के बाद मुम्बई वह जगह है, जहां एमआईएम को कड़ी टक्कर मिल रही है. मुम्बई लगभग आधी सीटों पर एमआईएम ने अपने प्रत्याशी खड़े किए हैं. यहां कि मुम्बादेवी सीट पर एकसाथ कुल 13 मुस्लिम प्रत्याशी खड़े हैं, जो कुल 24 सीटों में सबसे ज़्यादा है. यहां एमआईएम की ओर से प्रसिद्ध गायक स्व० मोहम्मद रफ़ी के बेटे मोहम्मद शाहिद रफ़ी खड़े हैं.

एमआईएम भिवंडी के ज़ुबैर खान कहते हैं, ‘बदलाव की आशा में कई युवा हमसे रोज़-ब-रोज़ जुड़ रहे हैं. मुस्लिम युवा समुदाय में जागरूकता फैलाने की दृष्टि से हमने वाट्सएप पर अभियान शुरू किया है. केवल भिवंडी से ही नहीं, मुम्बई के अन्य क्षेत्रों से भी हमें अच्छी प्रतिक्रियाएं मिल रही हैं.’

कुर्ला, वर्सोवा, कोलीवाड़ा (सभी मुम्बई), ओस्मानाबाद और अक्कलकोटे(मराठवाड़ा) ही वे सीटें हैं, जहां एमआईएम के प्रत्याशियों के खिलाफ़ सिर्फ़ एक प्रत्याशी खड़ा है. मुस्लिम मतों के बंटवारे पर एमआईएम सवालों के घेरे में खड़ी है. कई सीटों पर सपा बेहत स्थिति में है और 2009 में इन सीटों से विधायक भी चुने गए थे.

प्रतिद्वंदी प्रश्न उठा रहे हैं कि ‘मजबूत मुस्लिम प्रत्याशियों के खिलाफ़ एमआईएम उम्मीदवार क्यों खड़े कर रही है?’ अब्दुल राशिद ताहिर ने सपा के टिकट पर पिछली बार भिवंडी(पश्चिम) से चुनाव जीता था, इस दफ़ा वे राकांपा के टिकट से चुनाव लड़ रहे हैं. सपा महाराष्ट्र अध्यक्ष अबू आसिम आज़मी मनखुर्द-शिवाजी नगर से चुनाव लड़ रहे हैं. बीएमसी के विद्यालय के कर्मचारी साजिद शेख कहते हैं, ‘मैं एमआईएम को पसंद करता हूं. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मैं उन्हें उस समय वोट दूंगा जब वे उन मुस्लिम विधायकों के खिलाफ़ उम्मीदवार खड़े करते हैं, जिन्होंने पिछले पाँच सालों में समुदाय के लिए काम किया है.’

मुम्ब्रा-कलवा वह सीट है, जहां से 2009 में राकांपा के टिकट पर जितेन्द्र अवहद ने चुनाव जीता था, और इस बात भी वे इसी सीट पर चुनाव लड़ रहे हैं. इस सीट पर एमआईएम ने अशरफ़ मुलानी को खड़ा किया है. मुम्ब्रा के एडवोकेट वकील शेख कहते हैं, ‘अवहद ने बीते पाँच सालों में यहां कुछ भी काम नहीं किया. मुझे लगता है कि अब बदलाव की ज़रूरत है और एमआईएम को खुद को साबित करने का एक मौक़ा ज़रूर देना चाहिए.’ मुम्ब्रा के युवा मोहसिन शेख एमआईएम के विकास के दावों को चिन्हित करते हुए कहते हैं, ‘महाराष्ट्र में एमआईएम के बारे में हमने पहले कभी नहीं सुना. (इंटरनेट पर) विकास के दावों के मद्देनज़र मुझे कोई भी साक्ष्य नहीं मिला, जो यह साबित करता हो कि एमआईएम ने हैदराबाद में विकास कार्यों को अंजाम दिया है. हम कैसे भरोसा कर लें कि उनके दावे सच हैं?’

मराठवाड़ा की लड़ाई:

औरंगाबाद में नज़ारा एकदम उलट है. यहां की तीनों सीटों पर एमआईएम ने अपने उम्मीदवार खड़े किए हैं और एमआईएम के स्स्तार प्रचारक और सांसद ओवैसी खुद इन सीटों के लिए घर-घर जाकर प्रचार कर रहे हैं. एमआईएम के जिला अध्यक्ष जावेद क़ुरैशी ने TCN से बात करते हुए कहा, ‘हम ध्यानपूर्वक औरंगाबाद पर फोकस कर रहे हैं. असद साहब(ओवैसी) खुद पैदल प्रचार कर रहे हैं, और हरेक दरवाज़े पर जाकर हम मतदाता को मना रहे हैं. हमें ऐसा लगता है कि औरंगाबाद में हमारी उपस्थिति के चलते कांग्रेस थोड़ी परेशानी में है.’

औरंगाबाद(पूर्व) से एमआईएम के प्रत्याशी डा. अब्दुल गफ्फ़ार क़ादरी कहते हैं, ‘हम अपने आपको अल्पसंख्यकों के सामने आवाज़ उठाने के सबसे बेहतर माध्यम के रूप में रख रहे हैं. हम गैरमुस्लिमों के पास भी जा रहे हैं और उन्हें यह भरोसा दिला रहे हैं कि हम साम्प्रदायिक नहीं सेकुलर पार्टी हैं.’



सोशल मीडिया पर एमआईएम समर्थकों द्वारा प्रसारित तस्वीर

क़ादरी, जो कांग्रेस के कददावर नेता और मौजूदा विधायक राजेन्द्र दर्डा के खिलाफ़ चुनाव लड़ रहे हैं, आगे कहते हैं, ‘सभी ने देखा है कि कांग्रेस ने 60 सालों में मुस्लिमों को क्या दिया है. आज जनता जागरूक हो गयी है और सब कुछ जानती है. वह कांग्रेस के अकर्मण्य उम्मीदवार के खिलाफ़ वोट नहीं करेंगे.’ मुहम्मद, जो कादरी के बेटे हैं, कहते हैं कि एमआईएम की सोशल मीडिया पर बहुत मजबूत पकड़ है, यहां वे लोगों को अपने एजेंडे और अपनी विचारधारा से रू-ब-रू कराते हैं.

पूर्व टीवी पत्रकार सैयद इम्तियाज़ जलील ने राजनीति में आगमन एमआईएम के टिकट के ज़रिए किया है. वे औरंगाबाद(सेन्ट्रल) से चुनाव लड़ रहे हैं, जहां उन्हें सभी बड़ी पार्टियों के साथ-साथ 4 अन्य मुस्लिम प्रत्याशियों से कड़ी टक्कर मिल रही है. यह पूछने पर कि लोग उन्हें वोट क्यों दें, जलील पूरे आत्मविश्वास से TCN से कहते हैं, ‘लोगों को बदलाव चाहिए और हम उनके लिए ऐसे विकल्प हैं, जिस पर वे भरोसा कर सकते हैं.’ गैर-मुस्लिमों के समर्थन पर वे कहते हैं, ‘सब आपके व्यक्तिगत सम्बन्धों पर निर्भर करता है. हम गैर-मुस्लिम इलाकों में भी प्रच्चार कर रहे हैं.’

बिना एमआईएम का विदर्भ:

आश्चर्यजनक रूप से एमआईएम ने विदर्भ से किसी भी प्रत्याशी को नहीं खड़ा किया है, जबकि यहां के जिलों-कस्बों की मुस्लिम आबादी एक अच्छी संख्या में है. विदर्भ की कुल 60 विधानसभा सीटों में लगभग 10 सीटें ऐसी हैं, जहां मुस्लिम समुदाय का बाहुल्य है लेकिन एमआईएम ने यहां कोई उम्मीदवार नहीं खड़ा किया.

एमआईएम विदर्भ की मोहम्मद सिद्दीक ने TCN से कहा, ‘हम पूरी तरह चाहते थे कि एमआईएम विदर्भ की कम से कम 5 सीटों पर उम्मीदवार खड़ा करे, लेकिन किन्हीं कारणों के चलते पार्टी ने इस क्षेत्र को फिलहाल छोड़ रखा है. हमें चिंता है कि हमें यहां गैर-एमआईएम प्रत्याशी को वोट देना होगा लेकिन साथ ही हम लोगों को यह भरोसा भी दिला रहे हैं कि भविष्य में पार्टी पार्षदीय चुनावों के मद्देनज़र यहां भी अपने आप को विस्तार देगी.’

(अनुवाद: सिद्धान्त मोहन)


मेरी लड़ाई पूरी व्यवस्था से है – कैलाश सत्यार्थी

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नोबेल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी से TCN की बातचीत

By सिद्धान्त मोहन, TwoCircles.net,

अभी हाल ही में भारत के समाजसेवी एक्टिविस्ट कैलाश सत्यार्थी और पाकिस्तान की बेटी मलाला युसुफजई को शांति के क्षेत्र में योगदान के लिए नोबल पुरस्कार से नवाज़ा गया है. कैलाश सत्यार्थी को यह पुरस्कार उनके ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ के कार्यों के तहत दिया गया है, और मिल रही खबरें यह कह रही हैं कि कैलाश सत्यार्थी ने बाल मजदूरी के खिलाफ़ काम करते हुए लगभग 83,000 बच्चों की ज़िंदगी सुधारने का काम किया है. पूर्वी उत्तर प्रदेश वह इलाका है, जहां कैलाश सत्यार्थी ने अपने काम का एक बड़ा हिस्सा समर्पित किया है. यहां के मुख्य कालीन निर्माण के क्षेत्र मिर्ज़ापुर में कैलाश सत्यार्थी ने बाल मजदूरी उन्मूलन के लिए काफी काम किया है.

मिर्ज़ापुर में ही उन्होंने ‘रगमार्क कैम्पेन’ की शुरुआत की, जिसके तहत वे उन कालीन निर्माताओं को रगमार्क की सीलें देते थे, जिनके यहां बतौर मजदूर बच्चों का इस्तेमाल नहीं किया जाता था. सत्यार्थी का यह ‘रगमार्क’ कैम्पेन पहले दक्षिण एशिया, फ़िर बाद में विश्व के कई देशों में ‘गुडवीव इंटरनेशनल’ के नाम से प्रचलित हुआ. कुल मिलकर बाल-मजदूरी के खिलाफ़ जो माहौल कैलाश सत्यार्थी ने खड़ा किया, पूर्वी उत्तर प्रदेश के निर्माता वर्ग पर उसका पूरा प्रभाव देखने को मिला. नोबल पुरस्कारों की घोषणा के बाद हमने कैलाश सत्यार्थी से बातचीत की.


Nobel Peace Prize winner Kailash Satyarthi (Courtesy: IE)
कैलाश सत्यार्थी (साभार - इण्डियन एक्सप्रेस)

TCN:कैलाशजी, आपको नोबल पुरस्कार पर बारहा मुबारकबाद.

कैलाश सत्यार्थी:केवल मुझे मुबारकबाद मत दीजिए. यह पुरस्कार समूचे भारत के निवासियों और बालश्रम उन्मूलन के लिए लगे हुए लोगों के लिए मुबारक है. इसलिए आपको भी मेरी ओर से ढेर सारी बधाईयां.

TCN:आप बालश्रम उन्मूलन के लिए इतने दिनों से लगे रहे हैं. इस पूरे कार्य क्षेत्र में आपका अनुभव क्या रहा?

कैलाश सत्यार्थी:देखिए, बालश्रम के लिए लड़ाई के लिए कोई ज़मीन थी नहीं. बालश्रम भारत में कोई मुद्दा भी नहीं था, जिस पर विचार किया जाए. लोग सोचते थे कि गरीब बच्चे हैं, काम कर रहे हैं, दो पैसे कमा रहे हैं, कोई बात नहीं. वैसा तो लोग अभी भी सोचते हैं. बालश्रम एक सामाजिक बुराई है, यह लोगों के ज़ेहन में था ही नहीं. इसके लिए कोई कानून नहीं था. कानून क्या, एक लेख तक नहीं लिखा गया था. चूंकि कानून नहीं था, तो कोई जागरूकता भी नहीं थी कि बालश्रम एक कुकर्म है. तो, जिन मुद्दों की समझ होती है उनके समाधान के लिए आदमी रास्ते ढूँढता है. लेकिन जिन मुद्दों की समझ नहीं होती, उनके समाधान के लिए नए रास्ते बनाने पड़ते हैं. नया रास्ता बनाना कठिन काम है, बजाय पुराने रास्तों पर चलने के. हमने प्रयास किया इस दिशा में, हमने नए तरीके ढूंढे, हम सब लगे रहे तो इसका परिणाम यह है कि आज की तारीख में बालश्रम दुनिया के कुछ सबसे बड़े मुद्दों में से एक है. हम लोग पूरी एकाग्रता से इस ओर लगे रहे और काम को आगे बढ़ाया.

TCN:हमारा यह प्रश्न इसलिए ज़रूरी है कि समाज के सामने एक नोबेल विजेता के जीवन को भी रख सकें. अपने बैकग्राउंड के बारे में कुछ बताइये.

कैलाश सत्यार्थी:मेरा जन्म मध्यप्रदेश के नगर विदिशा के बहुत ही साधारण से परिवार में हुआ है. पिताजी हेड कॉन्स्टेबल थे. शुरुआती पढ़ाई-लिखाई मध्यप्रदेश में हुई. हम चार भाई और एक बहन हैं. मेरे सबसे बड़े भाई का स्वर्गवास हो गया. इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की भी पढ़ाई विदिशा में ही हुई. इंजीनियरिंग के क्षेत्र में एक समय दे देने के बाद मैंने 1980 में बंधुआ मजदूरी के खिलाफ़ एक्टिविज्म के प्रति समर्पित कर दिया और तबसे ही जो कुछ मैंने किया है, वह सब आपके सामने है.

TCN:इस नोबेल पुरस्कार का आपके लिए क्या मतलब है?

कैलाश सत्यार्थी:मैंने यह कई जगह कहा है और आपके माध्यम से पुनः दोहराना चाहूंगा कि यह पुरस्कार मेरा नहीं मेरे सवा सौ करोड़ देशवासियों का सम्मान है. इस पुरस्कार के हकदारों में सभी जाति, सभी वर्ग, सभी सम्प्रदाय के सभी लोग शामिल हैं. मैं तो यह कहूँगा कि सभी राजनीतिक दलों और सभी सामाजिक संगठनों के लोग इस सम्मान के लिए हक़दार हैं. मैं किसी दल की राजनीति नहीं करता, मैं किसी सम्प्रदाय, धर्म या वर्ग की व्यवस्था में विश्वास नहीं करता, इसलिए यह सभी के लिए है. यह देश का सम्मान है. और यह मिर्ज़ापुर के सभी लोगों और कालीन निर्माताओं के लिए है, जो कालीन उद्योग करते हैं और बाल मजदूरी नहीं कराते हैं. लेकिन जो बाल-मजदूरी कराते हैं, यह उनका भी सम्मान है और यह उनकी जिम्मेदारी है कि वे सभी उद्योगों के बालश्रम को खत्म करने के लिए ज़रूरी क़दम उठाएं. यह पुरस्कार मुझे नहीं, मेरे प्रयासों को मिला है. हमारी सभी कोशिशों के लिए यह एक पड़ाव है.

TCN:भारत में किसी बड़े पुरस्कार से सम्मानित व्यक्ति को सेलिब्रिटी बना देने की परम्परा चली आ रही है और आपने तो नोबेल पुरस्कार प्राप्त किया है. आपको क्या लगता है, कि आगे क्या परेशानियां आ सकती हैं?

कैलाश सत्यार्थी:आप मुझे पहले बताइये कि मैं आपसे बात कर रहा हूं तो क्या मैं आपको सेलिब्रिटी लग रहा हूं? कहीं से मेरे हाव-भाव आपको सेलिब्रिटी परम्परा की ओर जाते दिख रहे हैं? आपके पास मेरा पर्सनल मोबाइल नम्बर है, आप सभी लोगों की पहुंच में हूं. सोच के बताइये कि क्या मैं सेलिब्रिटी लग रहा हूं?

TCN:एकदम नहीं, लेकिन भारत में मीडिया ने इस परम्परा को बहुत वायरल तरीके से फैलाया है. सम्भव है कि कल आपका बाहर निकलना मुश्किल हो जाए.

कैलाश सत्यार्थी:आप भी तो मीडिया से जुड़े हैं. आप मत बनाइये उन लोगों जैसा मुझे. वरना मुझे काम करने में दिक्क़त होने लगेगी. जब आपका काम ज़मीन से जुड़ा होता है तो आपको ज़मीन पर ही रहना होता है. आसमान पर रहकर ज़मीन का काम नहीं किया जा सकता है. लोगों के फ़ोन आ रहे हैं, मैं उनसे कह रहा हूं कि आप मुझे अपना बड़ा या छोटा भाई समझिए. वे मुझे बार-बार ‘सर’ कहकर संबोधित कर रहे हैं.

TCN: फ़िर भी कोई बदलाव, जो इस पुरस्कार के बाद आया हो?

कैलाश सत्यार्थी:अभी तो यही समझ आ रहा है कि व्यस्तता बेहद बढ़ गयी है. बहुत सारे काम यूं ही पड़े हुए हैं. फ़ोन दिनभर घनघना रहा है. थोड़ी व्यस्तता बढ़ी है, लेकिन काम तो करना ही है.

TCN:बंधुआ मजदूरी और बालश्रम के अलावा किसी अन्य इतनी ही महत्वपूर्ण समस्या के निवारण के लिए आपने काम क्यों नहीं किया?

कैलाश सत्यार्थी:देखिए, मेरी समझ से बालश्रम से बड़ी दूसरे कोई समस्या नहीं है. यह कई बचपनों से जुड़ा है. बचपन सपने देखने, खुलकर खेलने, पढ़ने और आगे बढ़ने से जुड़ा समय है. जब बचपन ही गुलाम होकर खरीद-फ़रोख्त का शिकार हो जाता है, तो उस हाल में इससे बड़ी समस्या क्या हो सकती है? इसके पीछे सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक सारी विडंबनाएं हैं. मैं जब किसी बचपन को बचाता हूं तो इन सारी विडम्बनाओं, परम्पराओं, बुराईयों और आर्थिक गैरबराबरी के खिलाफ़ खड़ा होता हूं क्योंकि इनके चलते ही भारत के लाखों-करोड़ों बच्चे गुलामी के शिकार बने बैठे हैं. एक तरह से देखें तो पूरी मानव जाति ही फ़िर गुलाम है. इस लिहाज़ से मेरी लड़ाई पूरी व्यवस्था से ही है. व्यवस्था का मतलब उस पूरे सेटअप से है, जहां इस तरीके की बुराईयां पैदा हो रही हैं.

TCN:लोग जानना चाहेंगे कि महिलाओं और ट्रैफिकिंग से जुड़े बहुत सारे मुद्दे हैं, जहां ध्यान देना ज़रूरी है. बालश्रम के क्षेत्र में इतनी जागरूकता लाने के बाद क्या लोग आपसे ऐसी आशा नहीं करते कि अन्य क्षेत्रों में भी आप कुछ समर्थ प्रयास करें?

कैलाश सत्यार्थी:एक कहावत आपने सुनी होगी कि ‘एक साधे सब सधे, सब साधे सब जाय’. मुझे लगता है कि यह कहावत मेरी बात कह देती है. कह सकते हैं कि मैंने अर्जुन की तरह चिड़िया की आँख पर ही निशाना साधा हुआ है. बीच में मुझे राजनीतिक, आर्थिक और दूसरे किस्म के प्रलोभन मिले. कई मौके आए जब मुझे दूसरे मुद्दों के लिए प्रेरित करने का प्रयास किया गया. लोग अभी भी पूछते ही हैं. लेकिन मैंने उन सभी को विनम्रतापूर्वक मना कर दिया है. ऐसा नहीं है कि मेरी उनमें कोई रूचि नहीं. मुझे पता है कि अन्य कई समस्याएँ भी हैं, लेकिन मैं पहले-पहल एक की तरफ़ अपना फोकस सेट करना चाहता था, जो मैंने किया.


Nobel Peace Prize winner Kailash Satyarthi

TCN:जो माहौल देखने को मिल रहा है, उससे तो यह पता चल रहा है कि भारत की जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा आपको नोबेल मिलने के पहले तक नहीं जानता था. क्या लगता है, आपको और आपके काम को अपने ही देश में पहचाने जाने में इतनी देर क्यों हुई?

कैलाश सत्यार्थी:अब सैकड़ों सालों से चली आ रही बुराई इतनी जल्दी थोड़े ही खत्म होगी, उसी तरह काम को पहचान इतनी जल्दी कैसे मिल जाएगी. मेरी पहचान का क्या, हम सभी के प्रयासों को समाज में जगह मिलनी चाहिए जो देर-सबेर मिली ही है. पहचान का सवाल तो फ़िर उसी सेलिब्रिटी परम्परा की ओर ले जाता है, जिसकी बात अभी कुछ देर पहले आप कर रहे थे. इस तरीके से पहचाना जाना किसी ‘पहचान’ का बनना नहीं है, यह प्रयासों की सराहना है. सवा सौ करोड़ की जनसंख्या में से 80-90 हज़ार बच्चों को सुरक्षित करने का मतलब है कि दिल्ली अभी बहुत दूर है. हम तो लगे रहेंगे, यही ठाना है.

TCN:क्या देश की युवा पीढ़ी को कुछ बोलना चाहेंगे?

कैलाश सत्यार्थी:यही कहना चाहूंगा कि देश की युवा पीढ़ी अपनी समर्थता ज़ाहिर करे. बालश्रम उन्मूलन जैसी समस्याओं के लिए काम करे. मैं सभी के साथ लगातार बना रहूंगा. अपने क्षेत्र में ज़रूर कुछ न कुछ हासिल करे लेकिन समाज के प्रति अपने कर्तव्य और समाज में प्रेरणा के विकास के लिए काम करे.

कैप्टन अब्बास अली- एक शख्स जिसने सियासत के मेयार को बुलंद रखा

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By शेष नारायण सिंह,

कैप्टन अब्बास अली 94 साल की उम्र में अलविदा कह गए। कप्तान साहेब एक बेहतरीन इन्सान थे। आज़ाद हिन्द फौज का यह कप्तान जब अपनी बुलंदी पर था तो उसने किसी तरह का समझौता नहीं किया। और यह बुलंदी उनकी ज़िंदगी में हमेशा बनी रही। उनकी एक ही तमन्ना थी कि ज़िंदगी भर किसी पर आश्रित न हों। उम्र के नब्बे साल पूरे होने पर उनकी आत्मकथा को दिल्ली में प्रकाशित किया गया था। शायद इस किताब का शीर्षक यही सोच कर रखा गया होगा। शीर्षक है, “ न रहूँ किसी का दस्तनिगर” और 11 अक्टूबर को कप्तान साहेब ने आख़िरी सांस ली उसके एक दिन पहले तक अपने हाथ पाँव से चलते रहे और शान से चले गए। 94 साल की उम्र में कप्तान साहेब जब गए तो किसी के सहारे नहीं रहे। उनके बेटे कुर्बान अली हमेशा उनको अपने साथ दिल्ली में रखना चाहते थे लेकिन कप्तान साहेब अपनी कर्मभूमि अलीगढ़ और बुलंदशहर को कभी नहीं भूलते थे। मौक़ा लगते ही अलीगढ़ चले जाते थे। उनकी ज़िंदगी के बारे में शायद बहुत कुछ नहीं लिखा जाएगा क्योंकि वे डॉ राम मनोहर लोहिया की उस राजनीतिक परंपरा के अलमबरदार थे जिसमें सरकारी ओहदे के लिए राजनेता को कोशिश न करने की हिदायत है। लेकिन इस बहादुर इंसान की ज़िंदगी को कलमबंद होना चाहिए ताकि आने वाली नस्लों को मालूम रहे कि खुर्जा कस्बे के पास के गाँव कलंदर गढ़ी में एक ऐसा इंसान भी रहता था जिसने मानवीय आचरण की हर बुलंदी को नापा था।

समाजवादी विचारक स्वर्गीय मधु लिमये उनकी बहुत इज्ज़त करते थे। 1988 में पहली बार मधु लिमये के पंडारा रोड वाले फ़्लैट में कप्तान साहेब से मुलाक़ात हुयी थी। राजीव गांधी का राज था और विश्वनाथ प्रताप सिंह उनको चुनौती दे रहे थे। उत्तर प्रदेश में सब कुछ कांग्रेसमय था, कांग्रेस के विरोध के नाम पर कुछ नहीं था लेकिन कप्तान साहेब को भरोसा था कि सब कुछ बदल जाएगा। कांग्रेस की हार की इबारत उनको साफ़ नज़र आ रही थी। कैप्टन अब्बास अली को एक ऐसे इंसान के रूप में याद किया जाना चाहिए जिसने कभी भी उम्मीद नहीं छोड़ी और उसी रास्ते पर चले जिसको सही समझते रहे। शायद इसी लिए उन्होंने नौजवानों से अपील की थी। अब्बास अली को नौजवान पीढ़ी से बहुत उम्मीदें थीं। आपने फरमाया था, “बचपन से ही अपने इस अजीम मुल्क को आजाद व खुशहाल देखने की तमन्ना थी, जिसमें जाति-बिरादरी, मजहब व जबान या रंग के नाम पर किसी तरह का शोषण न हो। जहां हर हिंदुस्तानी सिर ऊंचा करके चल सके। जहां अमीर-गरीब के नाम पर कोई भेद-भाव न हो। हमारा पांच हजार साल का इतिहास जाति-मजहब के नाम पर शोषण का इतिहास रहा है। अपनी जिंदगी में अपनी आँखों के सामने अपने इस अजीम मुल्क को आजाद होते हुए देखने की ख्वाहिश तो पूरी हो गई, लेकिन अब भी समाज में गैर बराबरी, भ्रष्टाचार, ज़ुल्म-ज्यादती व फिरकापरस्ती का जो नासूर फैला हुआ है, उसे देखकर बेहद तकलीफ होती है। दोस्तों, उम्र के इस पड़ाव पर हम तो चिराग-ए-सहरी (सुबह का चिराग) हैं, न जाने कब बुझ जाएं। आपसे और आने वाली नस्लों से यही गुजारिश और उम्मीद है कि सच्चाई व ईमानदारी का जो रास्ता हमने अपने बुजुर्गों से सीखा, उसकी मशाल अब तुम्हारे हाथों में है। इस मशाल को कभी बुझने मत देना।”



Late Captain Abbas Ali

डॉ राम मनोहर लोहिया ने एक बार कप्तान साहेब से कहा था कि “कैप्टन, आने वाली नस्लों के लिए खाद बनो”। उन्होंने पूरी ज़िंदगी इस बात को पकड़े रखा। शायद इसीलिये जब इमरजेंसी के बाद वे जेल से बाहर आये और चौधरी चरण सिंह ने कहा कि बुलंदशहर से लोकसभा चुनाव लड़ जाओ तो उन्होंने मना कर दिया क्योंकि उनको तो औरों को लड़ाना था और जिताना था। 1977 में कप्तान साहेब उत्तर प्रदेश जनता पार्टी के अध्यक्ष थे।

उनकी उम्र के आख़िरी पड़ाव पर जब भी उनसे मुलाकात हुयी एक बात बिलकुल साफ़ समझ में आती थी कि उनको नौजवानों से बहुत उम्मीद थी। जब वे खुद नौजवान थे और गुलाम देश के नागरिक थे तब भी उन्होंने इन्हीं सपनों के साथ ज़िंदगी जीने का फैसला किया था।

मार्च 1931 में जब सरदार भगत सिंह को अंग्रेजों ने लाहौर में फांसी दे दी तो पूरे देश में उसकी राजनीतिक धमक महसूस की गयी थी। बालक अब्बास अली उन दिनों खुर्जा में पढ़ते थे। खुर्जा में भी सरदार भगत सिंह की फांसी पर लोगों ने अपने गम-ओ-गुस्से का इज़हार किया था और जुलूस निकाला था। 9 साल के अब्बास अली उस जुलूस में शामिल हो गए। और मन में मुल्क को आज़ाद कराने का सपना पाल लिया। बाद में वे अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़ने गए जहां उनकी मुलाक़ात कम्युनिस्ट नेताओं से हुयी। उस दौर के मशहूर कम्युनिस्ट नेता कुंवर मोहम्मद अशरफ से मुलाकात हुयी। वहीं पर साम्राज्यवाद के विरोध की ट्रेनिंग ली और कुंवर साहेब की प्रेरणा से 1939 में फौज में भर्ती हो गए। दूसरा विश्वयुद्ध शुरू हो चुका था। ब्रिटिश इन्डियन आर्मी के अधिकारी के रूप में उनकी तैनाती मलाया में हुयी। मलाया में तैनाती के समय जापानियों द्वारा युद्धबंदी बनाए गए। बाद में जब जनरल मोहन सिंह ने आज़ाद हिन्द फौज का गठन किया तो उसमें शामिल हो गए और अंग्रेज़ी हुकूमत को चुनौती देने के अभियान में लग गए। ऐसा करने के लिए उन्होंने ब्रिटिश सेना से बगावत की और आजाद-हिन्द-फौज के अधिकारी बन गए। जब दूसरा युद्ध खत्म हुआ तो अंग्रेजों ने इन लोगों को युद्ध बंदी बना लिया और देशद्रोह का केस बनाया, जबकि सच्चाई यह है कि आज़ाद हिन्द फौज के लोग देशद्रोही तो कतई नहीं थे। हाँ उनको ब्रिटश साम्राज्यवाद का द्रोही ज़रूर कहा जा सकता है। बहरहाल ब्रितानी फौज ने उनको 1946 में युद्धबंदी बनाया और पंजाब के मुल्तान ( अब पाकिस्त्तान ) के किले में बंदी बनाकर रखा। ब्रिटिश सेना द्वारा कोर्टमार्शल किया गया और सजा-ए-मौत सुनाई गई। लेकिन इस बीच देश आज़ाद हो गया और 1947 में देश का विभाजन होने के बाद जेल से रिहा किए गए। लेकिन इस बहादुर इंसान की ज़िंदगी में मुसीबतों ने डेरा डाल दिया था। भारत के बंटवारे के साथ साथ उनका परिवार भी बंट गया। उनके पिताजी, मां, भाई और बहन पाकिस्तान चले गए। उन पर भी दबाव था कि पाकिस्तान जाएँ लेकिन उन्होंने कहा कि अपना देश नहीं छोड़ूँगा क्योंकि इसकी आज़ादी के लिए हमारी पीढ़ी ने कुर्बानी दी है और अपना गाँव नहीं छोड़ूँगा क्योंकि यहाँ हमारे बुजुर्गो की हड्डियां दफ़न हैं और उनकी हिफाज़त के लिए मैं ज़िम्मेदार हूँ और यह कर्त्तव्य भी पूरा करूंगा।

परिवार बिखर चुका था लेकिन कैप्टन अब्बास अली टूटे नहीं। ज़िंदगी को नए सिरे से जीने का फैसला किया। आधे परिवार के पाकिस्तान चले जाने के बावजूद अपनी जन्मभूमि भारत में ही रहना पसंद किया।

1948 में जब आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण और डॉ राममनोहर लोहिया ने कांग्रेस पार्टी छोड़कर सोशलिस्ट पार्टी का गठन किया तो अब्बास अली उसके संस्थापक सदस्य के रूप में उस पार्टी में शामिल हो गए। डॉ. लोहिया के बहुत करीबी दोस्त के रूप में काम करते रहे। अंगेज़ तो चले गए थे लेकिन 1948 से लेकर 1 मई 1977 तक सोशलिस्ट पार्टी में रहते हुए पचास से ज्यादा बार सिविल नाफरमानी आंदोलनों के तहत कांग्रेसी हुकूमत की जेलों की हवा खाई। जून 1975 में आपातकाल लगने के बाद मीसा के तहत बंदी बनाए गए और बुलंदशहर, बरेली तथा नैनी सेंट्रल जेल में 19 माह तक रहे। 1966 और 1974 में दो बार उत्तर प्रदेश संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी के राज्य सचिव चुने गए। 1967 में संयुक्त विधायक दल का गठन किया। चौधरी चरण सिंह उन दिनों कांग्रेस पार्टी के विधायक हुआ करते थे। चौधरी चरण सिंह को तोड़कर उन्हें उत्तर प्रदेश का पहला गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री बनवाया। इस प्रोजेक्ट में कैप्टन अब्बास अली की खासी बड़ी भूमिका थी।

1977 में लोकसभा चुनावों के दौरान जनता पार्टी ने बुलंदशहर से आपको अपना उम्मीदवार बनाना चाहा, लेकिन मना कर दिया। इसी वर्ष आप उत्तर प्रदेश जनता पार्टी के पहले अध्यक्ष बनाए गए। 1978 में उत्तर प्रदेश विधान परिषद के लिए निर्वाचित हुए। 1984 में विधान परिषद से रिटायर हुए। आज़ाद भारत में कैप्टन अब्बास अली ने अगर कांग्रेस का साथ पकड़ लिया होता तो सरकारी पदों ओहदों की भरमार हो जाती लेकिन उन्होंने डॉ राम मनोहर लोहिया का साथ किया और उसको ज़िंदगी भर निभाया। डॉ राम मनोहर लोहिया के वे निजी मित्र भी थे और राजनीतिक मित्र भी थे। डॉ लोहिया की तरह कैप्टन अब्बास अली भी अपनी राजनीति कभी नहीं छोड़ते थे। एक बार इलाहाबाद के हिन्दू महासभा के नेता प्रभुदत्त ब्रह्मचारी मथुरा जेल में बंद थे। जेल में उन्होंने आमरण अनशन का फैसला किया। वे जवाहरलाल नेहरू के घोर विरोधी थे। 1957 में फूलपुर से नेहरू के खिलाफ चुनाव भी लड़ चुके थे। उनके अनशन को सरकार ने कोई तवज्जो नहीं दी। प्रभुदत्त ब्रह्मचारी ने कहा वे अनशन तभी तोड़ेगें जब डॉ राम मनोहर लोहिया उनको मुसम्मी का जूस पिलायेंगे। डॉ लोहिया पहुंच गए लेकिन उन्होंने शर्त लगा दी कि किसी मुसलमान के हाथ से जूस पिलाऊँगा। कैप्टन अब्बास अली उनके साथ थे। इन दोनों ही नेताओं में राजनीतिक सिद्धांतों को ज़मीन पर लागू करने की अजीब बेचैनी थी।

अब्बास अली जीवन भर इंसानी बुलंदी और सामाजिक बराबरी की लडाई लड़ते रहे। उनका अपना परिवार राजपूतों की उस परम्परा से ताल्लुक रखता था जिसकी जड़ें अयोध्या के राजा रामचंद्र तक जाती थीं। उनका पालन पोषण सामन्ती माहौल में हुआ था। उनके अपने गाँव कलंदर गढ़ी में भी बहुत अधिक खेती थी लेकिन उन्होंने समाजवाद की लड़ाई का मन बनाया और आखीर तक उसी मुहिम में शामिल रहे। लेकिन उनकी राजनीतिक ज़िंदगी में सामन्ती संस्कारों के लिए कोई जगह नहीं थी।

कप्तान साहेब में राजनीतिक टैलेंट के पहचान की लाजवाब क्षमता थी। एक ही उदाहरण काफी होगा। 1967 में कप्तान साहेब अपनी पार्टी की उत्तर प्रदेश इकाई के सेक्रेटरी थे। उन दिनों सेक्रेटरी के पास ही पार्टी के महत्वपूर्ण फैसले लेने की शक्ति होती थी। आजकल की तरह राजनीतिक पार्टियों में सैकड़ों की तादाद में सेक्रेटरी नहीं होते थे। टिकट देने का काम भी सेक्रेटरी को ही करना होता था। 1967 में इटावा में मुलायम सिंह यादव नाम के एक मामूली कार्यकर्ता को उन्होंने बरगद निशान वाली संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी ( संसोपा ) का टिकट दे दिया और अपने साथी राजनेताओं को बताया कि इस लड़के में वह चिंगारी है जो समाजवाद को आगे ले जायेगी। सभी जानते हैं कि कांग्रेस और बीजेपी के सभी हमलों में मुलायम सिंह यादव लड़ते रहे। कहीं हारे तो दूसरी जगह जीते लेकिन समाजवादी झंडे को हमेशा ऊंचा रखा।

इतने बुलंद इंसान के जाने के बाद आम आदमी की बराबरी की लड़ाई में एक खालीपन तो ज़रूर आया है। यह देखना दिलचस्प होगा कि वक़्त उसको कब पूरा करता है।

(Courtsey: Hastakshep.com)

अच्छे दिनों के साथ अच्छी दीवाली आई है : राम नाईक

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By TCN News,

लखनऊ: उत्तर प्रदेश के राज्यपाल राम नाईक ने अपने हालिया बयान से प्रदेश की राजनीति में एक भूचाल ला दिया है. अपने ताज़ा बयान में श्री नाईक ने कहा है कि उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था में सुधार लाने की ज़रूरत है. उनके इस बयान के बाद समाजवादी पार्टी ने कहा है कि राज्यपाल उत्तर संवैधानिक सत्ता के रूप में व्यवहार कर रहे हैं.

कार्यभार सम्हालने के तीन महीनों के पूरे होने पर अपनी बेटी विशाखा कुलकर्णी के सम्पादन में ‘राज्यभवन में राम नाईक’ शीर्षक के अंतर्गत रिपोर्ट कार्डनुमा बुकलेट राज्यपाल ने जारी किया. इस मौके पर राज्यपाल अपनी कार्यप्रणाली में पारदर्शिता की वकालत कर दिखे.



राम नाईक

प्रदेश की कानून व्यवस्था के बारे में राम नाईक ने कहा, “मैंने मुख्यमंत्री से बात की है और इस बाबत उन्हें मैंने पत्र भी लिखा है, जिसके जवाब में वे कहते हैं कि कानून व्यवस्था सुधारने के लिए प्रशासन आवश्यक कदम उठा रहा है.”

यह पूछने पर कि क्या वे राज्य सरकार के प्रयासों से संतुष्ट हैं, नाईक ने कहा, “कानून व्यवस्था में सुधार कोई प्रयोगशाला का कार्य नहीं है. इसके प्रयासों को निरंतर बनाए रखना होगा. मैं अन्य राज्यों को भी यह कहता हूं कि वे भी अपने क्षेत्र में कानून व्यवस्था के लिए ज़रूरी प्रयास करें.”

राम नाईक ने कहा, “राज्यपाल का काम यह सुनिश्चित करना है कि प्रदेश सरकार संविधान के अंतर्गत शासन करे. और इस समय में जब आरटीआई जैसा अधिनियम पूरे ज़ोर पर है, मैं अपनी ओर से अधिक से अधिक जानकारियों को जनता के सामने रखने का प्रयास कर रहा हूं.”

अपने अधिकार क्षेत्र को और लक्षित करते हुए राम नाईक ने कहा, “आमतौर पर जनता सोचती है कि राज्यपाल राज्यभवन में आरामतलबी करते हैं और किसी काम में कोई भूमिका नहीं अदा करते. मैं इस सोच को बदलना चाहता हूं. मैं राज्य सरकार की मदद से संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों के अंतर्गत प्रदेश के लिए काम करना चाहता हूं.”

ज्ञात हो कि प्रदेश के राज्यपाल के खिलाफ़ समाजवादी पार्टी की त्यौरियां तब से चढ़ी हुई हैं, जब से उन्होंने संघ प्रमुख मोहन भागवत को भोज पर आमंत्रित किया है. राम नाईक ने लखनऊ मेट्रो प्रोजेक्ट पर चुटकी लेते हुए यह भी कहा कि भूमिपूजन कराना अलग बात है, लेकिन काम को अंजाम देना दूसरी बात है. इसके साथ राम नाईक ने केन्द्र सरकार के कामों की तारीफ़ों के पुल बांधते हुए कहा कि ‘अच्छे दिनों के साथ अच्छी दिवाली आई है.’

समाजवादी पार्टी के महासचिव नरेश अग्रवाल ने राज्यपाल पर हमला करते हुए उन्हें नसीहत दे डाली कि वे अपनी हद में रहें, नहीं तो पार्टी उनके खिलाफ़ हल्ला बोल देगी.

दस से अधिक बच्चों वाले हिन्दू परिवारों को पैसे देगी शिवसेना

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By TCN News,

लखनऊ: हिंदूवादी राष्ट्र के शोर के बीच देश की दक्षिणपंथी पार्टी शिवसेना ने उत्तर प्रदेश के हिन्दू परिवारों को 21 हजार रूपए कैश देने का वादा किया है. शिवसेना की प्रदेश ईकाई ने कहा है कि शिवसेना उन हिन्दू परिवारों को 21 हज़ार रूपए देने की घोषणा करती है, जिन परिवारों में दस या उससे अधिक बच्चे हैं. शिवसेना ने कहा है कि ऐसा क़दम दूसरे संप्रदायों द्वारा हिन्दू धर्म पर बढ़ रहे खतरे से बचने के लिए किया जा रहा है.

शिवसेना के प्रदेश अध्यक्ष ने कहा है कि टमा जिला ईकाईयों को ऐसे प्ररिवारों को चिन्हित करने का आदेश डे दिया गया है. प्रदेश अध्यक्ष अनिल सिंह ने साथ में यह भी कहा है कि नवंबर के आखिर तक ऐसे परिवारों को धनराशि के साथ प्रमाण-पत्र भी दिया जाएगा, जिस पर ‘राष्ट्रहित में हिन्दूओं की जनसंख्या बढ़ाने के लिए’ का सन्देश लिखा होगा.



[Courtesy: dailyindia.org]

शिवसेना एक नवंबर से परिवार नियोजन के खिलाफ़ प्रदेशव्यापी अभियान चलाने की तैयारी में है, जिसके तहत प्रदेश भर के राजकीय स्वास्थ्य केन्द्रों को बंद कर दिया जाएगा.

अनिल सिंह ने कहा कि सिर्फ़ हिन्दू ही नसबंदी के लिए जाते हैं जबकि अन्य सम्प्रदाय देश में अपनी संख्या बढ़ाने की नीयत से अपना परिवार बढ़ा रहे हैं. अनिल सिंह ने कहा, “हम हिन्दूओं से अपील करते हैं कि समय की मांग है कि हम अपनी जनसंख्या बढ़ाएं अन्यथा कुछ साल बाद हम नगण्य हो जाएंगे.”

अनिल सिंह ने कहा कि शिवसेना ने मेरठ में कुछ दिनों पहले मेरठ में ऐसे आंदोलन को अंजाम दिया था. इस बार भी हम 1 नवंबर को राजकीय स्वाश्टी केन्द्रों को कुछ घंटों के लिए बंद कर देंगे और चरणबद्ध तरीके से इस अभियान को अन्जाम दिया जाएगा.

सिंह ने कहा कि ऐसा अभियान सात साल पहले लखनऊ में भी किया गया था, जहां दस से अधिक बच्चों वाले परिवारों को ११ हजार रूपए इनामस्वरूप दिए गए थे. उस दफ़ा कुल 120 परिवार इस अभियान के तहत लाभान्वित हुए थे, जिनमें से अधिकांशतः पूर्वी और पश्चिमी उत्तर प्रदेश से आते थे.

जानकारों का मानना है कि शिवसेना का यह कदम आगे आने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में होने वाले ध्रुवीकरण की ओर इशारा कर रहा है.

(इनपुट साभार – इण्डियन एक्सप्रेस)

काले धन से जुड़े तीन खाताधारकों के नाम उजागर हुए

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By TCN News,

नई दिल्ली: केन्द्र सरकार आज शीर्ष अदालत में काला धन मामले में विदेशी बैंकों में पैसा जमा करने वाले तीन खाताधारकों के नाम उजागर कर दिए हैं. सरकार ने आज सुप्रीम कोर्ट में दाखिल किए गए ताज़ा हलफनामे में यह फ़ैसला लिया है.

जिन तीन खाताधारकों का नाम केन्द्र सरकार ने उजागर किया है उनमें राजकोट स्थित बुलियन ट्रेडर पंकज चिमनलाल लोढिया, डाबर ग्रुप के डायरेक्टर प्रदीप बर्मन और गोवा स्थित माईनिंग कम्पनी टिम्बलो प्राइवेट लिमिटेड के राधा एस टिम्बलोशामिल हैं. यह सूची जारी होते ही डाबर ग्रुप की तरफ़ से यह स्पष्टीकरण आया है कि प्रदीप बर्मन ने यह खाते तब खोले थे जब वे देश के बाहर रहते थे. स्पष्टीकरण में यह भी कहा गया है कि हरेक आवश्यक क्षेत्र के तहत आयकर का भुगतान किया गया था लेकिन ऐसा लगता है कि विदेश में खाता खोलने वाले सभी लोगों को एक ही ब्रश से पेंट किया जा रहा है.


Black Money

आश्चर्य का विषय यह बना हुआ है कि कालेधन से जुड़े खाताधारकों में राजनीति से जुड़े एक भी व्यक्ति का नाम नहीं है. इस बाबत अरुण जेटली ने टाइम्स नाउ को दिए अपने इंटरव्यू में पहले ही कह दिया था कि भाजपा उन नामों का खुलासा राजनीतिक लाभ के लिए नहीं करेगी. लेकिन यह भी इशारा दिया था कि पिछली यूपीए सरकार के एक मंत्री का नाम इस फ़ेहरिस्त में शामिल हो सकता है. ऐसे में यह भ्रम की स्थिति बनी हुई है कि इस मामले में केन्द्र सरकार की असल मंशा क्या है?

जेटली के बयान पर पूर्व वित्तमंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी चिदंबरम ने कहा था कि काला धन रखने वालों की सूची का ‘बड़ा नाम’ कांग्रेस को कतई शर्मिंदा नहीं करेगा. चिदंबरम ने यह कहा था कि कालेधन की सूची में किसी नेता का नाम उसका निजी अपराध होगा और इसे किसी पार्टी से नहीं जोड़ सकते हैं.

गौरतलब है कि केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय से कहा था कि दूसरे देशों के साथ संधि होने के कारण वह विदेशी बैंकों मे खाताधारकों के नामों का खुलासा नहीं कर सकती. ज्ञात हो कि किसी विदेशी बैंक में खाता खोलना अवैध नहीं है, इसके लिए रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया की अनुमित लेना भी जरूरी नहीं है. आरबीआई के नियमों के मुताबिक़ कोई शख्स अपने विदेशी खाते में एक साल में सिर्फ़ सवा लाख डॉलर भेज सकता है. यदि इन खातों में जमा की गयी राशि सवा लाख डॉलर के ऊपर है, तो ही उसे काला धन के दायरे में गिना जा सकता है.

सुप्रीम कोर्ट ने राम जेठमलानी द्वारा दायर की गयी याचिका के आधार पर सरकार को निदेशित किया था कि वह कालेधन की दिशा में कार्य करने के लिए पुख्ता प्रयास करे. इसके बाद ही कुछ मजबूत कदम उठने शुरू हुए. बीच-बीच में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार और मंत्रालयों को फटकार भी लगाई और पूछा कि इस दिशा में क्या कार्य हुआ? नाम न उजागर करने के फैसले ने भाजपा सरकार की बहुत किरकिरी भी करवाई. इस मामले में देखना शेष है कि राजनीतिज्ञों के नामों के फैसले पर केन्द्र सरकार का क्या रुख है?

तो क्या हैदर टोकेनिज्म से सुलह की शिकार है?

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By उमंग कुमार,

विशाल भारद्वाज की फिल्म ‘हैदर’ के मामले में दर्शकों की प्रधानता दो रायें उभर के आ रही हैं - एक यह कि हिंदी सिनेमा या फिर बॉलीवुड-जगत में हैदर जैसी बहादुरी का चित्रण सचमुच अद्वितीय है और दूसरा, जो प्रायः पहले का विपरीत मत है कि हैदर ने कश्मीर मसले में बस एक ऊपरी कोशिश मात्र की है. उसका प्रयास भले ही सराहनीय ज़रूर कहा जा सकता है लेकिन उसमें गहरायी नहीं है. आखिर तौर पर एक सुनहरा मौका गंवाया गया है. हैदर के दांत खाने के और व दिखाने के कुछ और हैं, यानी कि हैदर का हस्तक्षेप निमित्तमात्र है.

पहली राय रखने वालों का कहना है कि हैदर ने कई ऐसे मुद्दे उठाए हैं जो काफी जटिल, नाज़ुक और राजनीतिक दृष्टि से जोखिम से भरे भी हैं. कश्मीर में सेना द्वारा वहाँ की आम जनता के उत्पीड़न - जिनमें विशेषतः जेलों में क्रूर टार्चर, संदिग्ध-असंदिग्ध व्यक्तियों को लापता करना या फिर खत्म करना शामिल था - का जो ब्यौरा हैदर में हमारे सामने आता है, उसे पहले कभी बॉलीवुड सिनेमा ने प्रदर्शित नहीं किया है. अफ्स्पा (‘आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट’) कानून की चर्चा ही नहीं बल्कि उसकी भरे चौक में निंदा दीगर क़दम है. लापता लोगों की कहानियाँ, उनकी बीवियों या ‘हाफ़ विडोज़’ की कहानी और समूचे समाज की पीड़ा को बड़े परदे पर लेकर आना एक अपूर्व और बेमिसाल वाक़या है. इस हौसले और सरासर ज़ुर्रत से लबरेज़ क़दम की सराहना होनी ही चाहिए.


Haider

दूसरी राय वालों का यह मानना है कि मुद्दे तो कई सारे उछाले गए हैं, लेकिन उन मुद्दों से कोई गहरा संघर्ष नहीं है, कोई सार्थक सम्वाद या विश्लेषण नहीं है. ऐसा लगता है कि मानो मुद्दों की गिनती करा दी गयी हो. इस मत को समर्थन देता ठोस सबूत तब सामने आता है जब फ़िल्म में मध्यांतर के बाद कहानी से सेना तो लगभग हट जाती है. उसके उपरांत कहानी शेक्सपियर के नाटक हैमलेट के अनुरूप आगे बढती है. फिर अफ्स्पा जैसे मसले उतने प्रधान नहीं रहते. नाटक के अनुसार कहानी एक इन्तक़ाम की हो जाती है. उस इन्तेकाम तक कैसे पहुंचा जायेगा और अंत तक क्या हल होगा, दर्शक इसी गुत्थी में फंसा रहता है.

शेक्सपियर की नाट्यकृति हैमलेट मूलतः यूरोप के देश डेनमार्क के एक राजपरिवार में षड़यंत्र की कहानी है. कहानी मुख्य पात्रों व उनके कारनामों पर काफी संकीर्ण एवं तीव्र रूप से केंद्रित है, वहां किसी बड़ी राजनीतिक छवि की आवाजाही नही है.

विशाल भारद्वाज एक मंजे हुए निर्देशक हैं. जिन्होंने उनकी शेक्सपियर की कृति ‘मैकबेथ’ पर बनी ‘मक़बूल’ और ‘ओथेलो’ पर बनी ‘ओमकारा’ जैसी फ़िल्में देखी हैं, ज़रूर प्रभावित हुए होंगे. शेक्सपियर की कहानियों का भारत के मंच पर रूपांतरण कौशल के साथ हुआ है, ऐसा साफ़ प्रतीत होता है. दर्शकों की प्रतिक्रियाएं अक्सर किरदारों की भूमिका पर, उनके बीच के ताल-मेल और एक यूरोपीय कहानी के अत्यंत रचनात्मक देशात्मक अनुवाद पर लुटी हुई आती हैं कि किस तरह मैकबेथ को मुंबई के गैंग्स के विभिन्न समीकरणों के बीच लाया गया या फिर कैसे उत्तर-भारतीय देहात की पृष्ट-भूमि पर ओथेलो की नींव रखी गयी?

कश्मीर घाटी में तो बॉलीवुड की मौजूदगी बरसों से रही है और फिर शम्मी कपूर ने तो अपने अनोखे अंदाज़ से कश्मीर का अक्स बहुत पहले ही ओकर दिया था. तो फिर हैदर में ऐसा क्या विचित्र है जिसने लोगों को इतना व्यापक रूप से प्रतिक्रिया देने को बाध्य किया?

जिस समय यह घोषणा हुई थी कि हैदर की शूटिंग कश्मीर में होगी और कहानी कश्मीर की पृष्टभूमि पर और कश्मीर के हालातों को दर्ज करते हुए आगे बढ़ेगी, तभी से यह फ़िल्म जिज्ञासा का आधार बन गयी. शेक्सपियर की कहानियां खुद में ही काफी पेंचदार, घुमावदार और जज़्बाती होती हैं. इसके साथ हैदर के मामले में यह लग रहा था कि सहलेखक बशरत पीर के माध्यम से कश्मीर की आवाज़ या कहिए कश्मीर की सचाई शेक्सपियर और विशाल भारद्वाज के कहानी-कथन में शामिल हो रही थी.

कश्मीरी पत्रकार और लेखक बशरत पीर ने अपने उपन्यास ‘करफ्यूड नाइट्स’ में कश्मीर के हालातों का अत्यंत मार्मिक व सजीव चित्रण किया है. इस उपन्यास ने सेना द्वारा रोज़मर्रा की जिंदगी का कठोर नियंत्रण (रोज कर्फ्यू, जगह-जगह चुन्गियां, जहां पहचान-पत्रों की जांच की जाती थी) और संदिग्ध उग्रवादियों को पकड़ने के बहाने से आम लोगों का उत्पीडन व उन्हें दी जा रही यातना, ऐसे गंभीर मुद्दों को अपने उपन्यास के माध्यम से जनता के बीच पहुंचाया है. इस वर्णन से प्रभावित होकर विशाल ने नाट्यकृति ‘हैमलेट’ को कश्मीर में शूट करना तय किया था. इस स्थिति में लगता है कि विशाल ने एक समझौता-सा कर लिया था कि हैमलेट की त्रासदी कश्मीर घाटी में ही अभिनीत होगी और इसके फलस्वरूप जितने कश्मीरी मुद्दे लपेट में आते हैं, उतना अच्छा.

हैमलेट, जो कि मुख्यपात्र हैमलेट के निजी मसलों की कहानी है, की पटकथा से अधिक पृथकता संभव नहीं है. आजतक विशाल ने अपनी फिल्म की कहानी को प्रायः पूरी तरह से मूल कहानी के करीब ही रखा है, तो इस मर्तबा कोई अपवाद ज़ाहिर करने का उनका इरादा नहीं था, ऐसा हम मान सकते हैं. कहीं न कहीं फिल्म निर्देशक कहानी को उसके प्रमुख मार्ग की दिशा में मोड़ता, और लगभग ऐसा विशाल भारद्वाज ने इंटरवल के बाद कर दिया.

इससे एक असर यह ज़रूर होता है कि जैसे-जैसे कहानी बढती है, वैसे वैसे कश्मीर के अहम मुद्दे, कश्मीर के वर्तमान की कहानी दूर होती जाती है. बस कश्मीर का परिवेश ओझल नहीं होता लेकिन यह बात साफ़ हो जाती है कि अब संघर्ष एक निजी मामले में इन्तक़ाम के लिए है. पात्र, माहौल, मसाला सब वही हैं, कुछ आतंकवाद और सरहद-पार उग्रवाद के संकेत भी हैं पर यह लड़ाई अब कश्मीर की नहीं, यह हैमलेट-रुपी-हैदर की निजी लड़ाई है.

इतना तो दर्शकों को मालूम ही है कि यह बॉलीवुड के दायरे में बनी हुई एक फिल्म है, कोई डाक्युमेंट्री तो है नहीं लेकिन इसी कारण जो फार्मुला है, जो एक रीती है वह आखिरकार लागू तो होगा ही. इन सबके साथ सेंसर बोर्ड भी बैठा है, जिसके सन्दर्भ में यह सुनने में आया कि इस फ़िल्म को ६० से ऊपर कट्स झेलने पड़े. इस लिहाज़ से देखा जाए तो फ़िल्मकार को फ़िल्म की कहानी के अंतिम आकार व रूप में समझौता तो करना ही पड़ा होगा.

लेकिन प्रश्न यह भी उठता है कि बशरत पीर को भी किस प्रकार का समझौता करना पड़ा होगा, आखिरकार पटकथा लेखकों में उनका नाम विशाल के नाम के साथ है. क्या उन्होंने भी एक तरह के टोकेनिज्म से सुलह कर ली?

हेट स्पीच के बरअक्स सामाजिक समीकरण

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By राजीव यादव,

चुनाव आए और गए, पर सवाल उन विवादास्पद बयानों का है जिनसे ‘हेट स्पीच’ के नाम से हम परिचित होते हैं. ऐसा नहीं है कि हेट स्पीच से हमारा वास्ता सिर्फ चुनावों में होता है पर यह ज़रूर है कि चुनावों के दरम्यान ही उनका मापन होता है कि वो हेट स्पीच के दायरे में हैं. हम यहां इस पर कतई बात नहीं करेंगे कि ऐसे मामलों में क्या कार्रवाई हुई? पर इस पर ज़रूर बात करेंगे कि उस हेट स्पीच का हम पर क्या असर हुआ, वहीं उनके बोलने वालों की प्रवृत्ति में क्या कोई बदलाव आया?

अगर हम हेट स्पीच की शिकायतों का अध्ययन करें तो वे ज़्यादातर अल्यपसंख्यक विरोधी या फिर मुस्लिम विरोधी होती हैं. पिछले दिनों का जो भी मसला उठा लें, चाहे वह ‘लव जिहाद’ का हो या फिर धर्मांतरण का, चुनाव के अंत तक पहुंचते-पहुंचते ऐसे मुद्दों की जो बाढ़-सी आ गई थी. अब उनके समाचारों में भी काफी कमी आई है जो लगभग न के बराबर हो गई है. ऐसे में सवाल उठता है कि समाज में जिन ‘जिहादियों’ की बात की जा रही थी, वो एकाएक कहां चले गए?



योगी आदित्यनाथ

मिसाल के तौर पर मुजफ्फरनगर को ही लें जहां अगस्त-सितंबर 2013 में इसी मुद्दे के इर्द-गिर्द सांप्रदायिक तनाव का पूरा खाका रचा गया. बीते 2014 उपचुनाव के पहले भी एक बार फिर धर्मांतरण और ‘लव जिहाद’ का माहौल बनाया गया. दरअसल, हमारे समाज का पूरा ढांचा सामंती, पुरुषवादी सत्ता के सांचे पर गढ़ा गया है. उसमें वो सभी चीज़ें शामिल हैं, जो आज किसी भी फासीवादी राजनीति की ज़रूरत होती है. इसका मतलब कि हमारे समाज की पूरी बनावट और उसको उद्वेलित करने वाली राजनीति एक दूसरे का इस्तेमाल करती है, न कि राजनीति ही सिर्फ समाज का इस्तेमाल करती है.

समाज और उसमें पल-बढ़ रहे प्रेम संबन्धों पर अगर गौर किया जाए तो जो लोग इन दिनों इस बात का आरोप लगा रहे थे कि मुस्लिम समाज के लड़के हिंदू समाज की लड़की को प्रेम में फंसाकर धर्मांतरण और विवाह करते हैं, उनकी प्रेम और विवाहो पर स्थिति का भी आकलन किया जाना चाहिए कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि समाज का सामंती ढांचा एक तीर से दो निशाने कर रहा है और बड़ी खूबसूरती से यह कह भी दे रहा है कि हमारी तो मेल-जोल की संस्कृति थी?

अगर मेल-जोल की संस्कृति थी तो वह संस्कृति किसी एक चुनाव या फिर किसी हिन्दुत्वादी संगठन के प्रभाव में बदल जाती है तो इतनी आसानी से बदलने वाली ऐसी ‘संस्कृति’ भी संदेह के घेरे में आ जाती है. इसका आकलन सिर्फ़ हिंदू-मुस्लिम लड़की और लड़के के मामले से हटकर अगर किया जाए तो देखने को मिलता है कि महिला हिंसा की वारदातों के बाद समाज उद्वेलित होता है, पर जैसे ही सवाल लड़की-लड़के के प्रेम संबन्धों पर आकर टिकता है, समाज उससे पीछे भागने लगता है या फिर अन्य जाति या समुदाय की उस लड़की के चरित्र पर ही सवाल उठाने लगता है.

उत्तर प्रदेश का बदायूं प्रकरण ख़ासी चर्चा में रहा, जहां दो लड़कियों के शव पेड़ पर टंगे मिले. इस मामले की राष्ट्रीय ही नहीं अन्र्तराष्ट्रीय स्तर पर भी दलित संगठनों ने भर्त्सना की, पर जैसे ही मामला सामने आया कि लड़कियां पिछड़ी जाति की थीं तो विरोध की ‘दलित आवाजें’ गायब होने लगी. दरअसल, समाज में लड़की के साथ हुई हिंसा को लड़की के साथ हुई हिंसा न मानकर हमारे जाति या हमारे समुदाय के साथ हिंसा होना मानकर चला जाता है. अगर इसी बीच कहीं यह बात सामने आ जाए कि लड़की के प्रेम संबंध थे तो विरोध के स्वर और धीमे हो जाते हैं. वही समाज जो लड़की के मेधावी छात्रा होने जैसे गुणों पर समाज गर्व करता है, उससे किनारा करने लगता है. इसे पिछले दिनों अमानीगंज, फैजाबाद में हुई घटना में भी देख सकते हैं, जिसमे ‘लव जिहाद’ का वितंडावाद खड़ा किया गया, पर जैसे ही यह बात साफ हुई कि लड़की और लड़का बहुत दिनों से एक दूसरे को न सिर्फ़ जानते थे बल्कि उनके बीच प्रेम भी था और उनकी आपसी बातचीत के 1600 मोबाइल कॉल के रिकार्ड और ऐसी बातों के आने के बाद मामला शांत हो गया. ‘ये तो होना ही था’ मानने वाला समाज ‘ऐसी लड़की’ से कोई रिश्ता नहीं रखना चाहता है और ‘जो उसके साथ हुआ, ऐसा ही कुछ वो भी करता’ का भी साफ संकेत देता है।

मतलब साफ़ है कि समाज लड़की के साथ हुई हिंसा के खिलाफ़ नहीं खड़ा हुआ था, वह तो अमुक जाति और समुदाय के खिलाफ़/साथ खड़ा हुआ था. पर जैसे ही उसे पता चला कि उसके प्रेम संबंध थे, वह उससे रिश्ता तोड़ लेता है. इसका मतलब कि लड़के-लड़कियों को लेकर हो रहे तनाव के लिए सिर्फ फासीवादी राजनीति ही नहीं जिम्मेदार है बल्कि हमारा समाज भी बराबरी का दोषी है, जो अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए ऐसे अवसरों की तलाश करता है.

अब बात अगर हेट स्पीच से जुड़े लोगों की करें तो बीते दिन ख़ासी चर्चा में रहे जब भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ का आजमगढ़ जिले में 2008 उपचुनाव के दौरान दिए गए भाषण का वह वीडियो फुटेज के सामने आया, जिसमें वो एक हिंदू लड़की को मुसलमान बनाने के बदले के बदले सौ मुस्लिम लड़कियों को हिंदू बनाने की बात कर रहे हैं. डाक्यूमेंट्री फिल्म ‘सैफ्रन वार’ के इस वीडियो फुटेज, जिसको आजमगढ़ जिला प्रशासन ने नकार दिया था कि ऐसा कोई भाषण आदित्यनाथ ने दिया ही नहीं, उसे न सिर्फ आदित्यनाथ ने अपना माना बल्कि उससे बढ़कर उसे सही ठहराने की भी कोशिश की. यहां सवाल है कि अगर उस वीडियो फुटेज में ऐसा कुछ आपत्तिजनक नहीं था तो उस पर क्यों बहस हो रही थी? मतलब कुछ न कुछ था, जिससे आदित्यनाथ को बचाने के लिए प्रशासन ने झूठ बोला. वहीं आदित्यनाथ उससे एक कदम आगे बढ़कर सार्वजनिक रूप से और अधिक आक्रामक साबित हुए. आखिर यह हौसला उन्हें कहां से मिला, इसके लिए सिर्फ चुनाव आचार संहिता के दरम्यान उनको दी गई चुनावी छूट ही नहीं जिम्मेदार थी बल्कि आचार संहिता की छूट की भी आपराधिक भूमिका थी.

संभवतः यही कारण हैं कि आज यह कहा जाता है कि सांप्रदायिकता के सवाल को मत उठाइए क्योंकि इससे सांप्रदायिक ताकतों को ही लाभ मिल जाएगा. दरअसल ऐसा इसलिए है क्योंकि हमारे समाज में सांप्रदायिकता निहित है, जो बाहर आने के लिए बस एक चिंगारी की बाट जोहती है.


पंडित जवाहरलाल नेहरू की 125वीं जयंती पर ‘बाल स्वच्छता अभियान’ की शुरुआत

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By TCN News,

नई दिल्ली: प्रधानमंत्री नरेन्द्रय मोदी ने आज पंडित जवाहरलाल नेहरू की 125वीं जयंती मनाने के लिए गठित राष्ट्री य समिति की बैठक की अध्य्क्षता की. प्रधानमंत्री ने उम्मी द जतायी कि इस संबंध में तमाम कार्यक्रम कुछ इस तरह से तय किए जाएंगे कि आम आदमी भी खुद को इन समारोहों का हिस्साप मान सके. प्रधानमंत्री ने कहा कि इस अवसर का उपयोग निश्चित तौर पर युवा पीढ़ी के बीच ‘चाचा नेहरू’ के बारे में जागरूकता बढ़ाने और उनके जीवन तथा कार्यों से प्रेरणा लेने के लिए किया जाना चाहिए. उन्होंरने समिति के सदस्योंढ से विभिन्नध कार्यक्रमों का स्पनष्ट खाका तैयार करने के लिए कहा.

प्रधानमंत्री ने देश भर में फैले स्कू लों में 14 नवंबर से 19 नवंबर के बीच आयोजित किए जाने वाले प्रस्ता्वित ‘बाल स्वच्छता अभियान’ और जवाहरलाल नेहरू की 125वीं जयंती को ‘बाल स्वेच्छकता वर्ष’ के रूप में मनाने की संभावनाओं को ज़ाहिर किया. उन्होंकने कहा कि इस कार्यक्रम के तहत होने वाले समारोहों का मुख्यि उद्देश्य् बच्चों में वैज्ञानिक मनोवृत्ति को बढ़ावा देना होगा.


Jawaharlal Nehru
पंडित जवाहरलाल नेहरू

विभिन्नि सदस्यों़ ने नरेन्द्र मोदी द्वारा ज़िक्र किए गए उद्देश्यों का स्वाेगत करते हुए उसकी सराहना की. उन्हों ने तरह-तरह के विचार व्य‍क्त किए और एजेंडे पर अपने रचनात्मेक सुझाव दिए. प्रधानमंत्री ने कहा कि श्री राजनाथ सिंह की अध्यतक्षता वाली कार्यकारी समिति इन सुझावों पर गौर करेगी और कार्यकारी समिति पूरे वर्ष के लिए कार्य योजना तैयार करेगी.

इन समारोहों के एक हिस्से के तहत पंडित नेहरू पर स्मा रक सिक्के् भी जारी किए जाएंगे. इस बैठक में राजनाथ सिंह, अरुण जेटली, स्मृडति इरानी, श्रीपद नाइक और प्रकाश जावडेकर ने शिरकत की.

जिस समिति में इस कार्ययोजना को अंजाम दिया गया, उसे पिछली मनमोहन सिंह की सरकार ने गठित किया था और कांग्रेस अध्यक्षा इसकी सदस्या भी थीं. चुनावों के बाद इस मोदी सरकार ने इस समिति का पुनर्गठन किया और समिति में गांधी परिवार के किसी भी सदस्य की अनुपस्थिति के कारण इस मामले ने विवाद को जन्म दे दिया है.

एकता से पहले विविधता के लिए दौड़ें

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By रवीश कुमार,

राजनीति में जो लोग परिवारवाद में लिंग-आधारित प्रगतिशीलता खोज रहे हैं, उन्हें इस मसले को ठीक से देखना चाहिए. राहुल गांधी के उपाध्यक्ष बनाए जाने पर कई लोगों को लिखते बोलते सुना है कि सोनिया ने भी बेटे पर ही भरोसा किया. बेटी प्रियंका को आगे नहीं बढ़ाया. जैसे प्रियंका गांधी वाकई किसी हाशिये पर रह रही हों. सोनिया गांधी प्रियंका गांधी को ही कांग्रेस अध्यक्ष बनातीं तो क्या परिवारवाद प्रगतिशील हो जाता? लोकतांत्रिक हो जाता? सिंधिया परिवार के नाम पर तो वसुंधरा राजे और ज्योतिरादित्य दोनों हैं. गोपीनाथ मुंडे की दो-दो बेटियां राजनीति में हैं. उसी बीजेपी के टिकट पर जो परिवारवाद को अपनी सुविधा के अनुसार मुद्दा बना देती है मगर इस चतुराई से कि वो सिर्फ गांधी परिवार तक सीमित रहे. महाराष्ट्र चुनाव में एक बेटी को विधायक का टिकट और एक को सांसदी का टिकट देती है. सवाल कांग्रेस को गांधी परिवार से आज़ाद कराने का तो है ही लेकिन क्या इससे कांग्रेस वो कांग्रेस बन जाएगी? क्या हिन्दुस्तान की कोई पार्टी आज़ादी के पहले की कांग्रेस बन सकती है? किस पार्टी में तब की कांग्रेस की तरह नेतृत्व और विचारधारा के स्तर पर इतनी विविधता बची है?

इस सवाल को आप दलीय निष्ठा से ऊपर उठकर देखेंगे तो बहुत कुछ दिखाई देगा. आज़ादी से पहले की कांग्रेस आज के कांग्रेस या बीजेपी या किसी भी दल से अलग थी. आज के दलों से तुलना करेंगे तो बहुत मामलों में इतनी आदर्शवादी कि उसके नज़दीक कोई पहुंच भी नहीं सकता. कांग्रेस एक विचारधारा वाली पार्टी नहीं थी. आज हर पार्टी एक विचारधारा वाली पार्टी बन गई है. कांग्रेस में समाजवाद, वामपंथ, दक्षिणपंथ सब टकरा रहे थे लेकिन असहमतियां टकराव की उस सीमा पर नहीं जा रही थीं कि कोई कांग्रेस से निकल रहा था. शायद उस वक्त का संदर्भ ही ऐसा था कि आप आज़ादी के लक्ष्य को हासिल कर दो दल नहीं बना सकते थे. इसलिए हर दल कांग्रेस में थे और कई दलों के नेता कांग्रेस के नेता थे. जब तक आप इस बुनियादी असहमति-सहमति को नहीं समझेंगे, आप गांधी-नेहरू-पटेल-आज़ाद से लेकर बोस, राजेंद्र प्रसाद जैसे नेताओं के रिश्तों और निष्ठाओं को नहीं समझ पायेंगे.


Patel, Gandhi, Nehru
नेहरू, गांधी और पटेल

नेहरू के अध्यक्ष बनने पर एक जगह पटेल कहते हैं कि कांग्रेस अध्यक्ष के पास कोई तानाशाही शक्तियां नहीं हैं. वे एक सुगठित संगठन के अध्यक्ष होते हैं. कांग्रेस किसी व्यक्ति को निर्वाचित करके, चाहे वह कोई भी हो, अपनी प्रचुर शक्तियों को नहीं छोड़ देती है. नेहरू ने इस बात के लिए पटेल के खिलाफ कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं की. न पटेल के इस्तीफे की मांग हुई. पटेल और नेहरू के बीच कई बातों को लेकर मतभेद थे और वो मतभेद इतिहास का हिस्सा हैं जिन पर इतिहास में काफी कुछ लिखा गया है. क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि कोई पटेल जैसी बात आज बीजेपी में कह दें? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ़ या अध्यक्ष अमित शाह के खिलाफ़, या यही बात कोई आज के कांग्रेस में राहुल या सोनिया गांधी के खिलाफ कह सकता है? समाजवादी पार्टी में कह सकता है या बसपा में कह सकता है? कहां कह सकता है? इतिहास के नेताओं के मतभेदों के नाम पर रिश्तों की नई व्याख्या हो रही है लेकिन उनकी इस प्रवृत्ति से भाषण देने वाले नेता क्या कुछ सीख रहे हैं? पटेल ने तो सुभाष चंद्र बोस को कांग्रेस अध्यक्ष पद के उम्मीदवार के रूप में पसंद नहीं किया था. तो क्या इतिहास के इस तथ्य को बंगाल की राजनीति में बोस को नायक और पटेल को खलनायक बनाने का खेल चल दिया जाए?

नेशनल बुक ट्रस्ट ने ‘गांधी पटेल - पत्र और भाषण, सहमति के बीच असहमति’ नाम से एक पुस्तक प्रकाशित की है. डा नीरजा सिंह ने गांधी और पटेल के बीच हुए पत्र व्यवहारों का संकलन किया है. हिन्दी में है और मात्र नब्बे रुपये की है. इन पत्रों को आप पढ़ेंगे तो लगेगा कि आज पटेल की याद में इंडिया गेट पर दौड़ा ही जा सकता है, पटेल नहीं बना जा सकता. कोई सरदार पटेल जैसा साहसिक होगा तो वो पार्टी से निकाल दिया जाएगा. सरदार पटेल तमाम मुद्दों पर अपनी स्पष्टता व्यक्त करने वाले राजनीति के वे प्रतीक हैं, जिनके जैसा वही बन सकता है जो दूसरों को भी सरदार की पगड़ी पहने देख बर्दाश्त कर सकता है. अपने विचार को हर कीमत पर कहना और विपरीत दिशा में जाने का साहसिक फैसला कर पाने की क्षमता सिर्फ और सिर्फ सरदार पटेल में दिखती है. लेकिन सरदार पटेल ने इसी के साथ एक और बेमिसाल उदाहरण पेश किया है, वो है संबंधों को विचार से अलग रखना.

गांधी से असहमत होते हुए भी गांधी के प्रति श्रद्धा और सेवा करने की मिसाल पेश की है. एक बार दोनों जेल में साथ हो गए. गांधी जो खाते थे, वही पटेल खाने लगे. उनके लिए दातुन बनाने की ज़िम्मेदारी ले ली. किसी नेता को इस किताब से दोनों के बीच हुए पत्राचार को दे दें तो वो राजनीति में ऐसे पेश करेगा जैसे आज आप सोचने लगेंगे कि पटेल और गांधी दुश्मन थे. सिर्फ पटेल ने नहीं, बल्कि गांधी ने भी पटेल से असहमत होते भी हुए भी उनके प्रति अपना विश्वास कभी नहीं खोया. सम्मान में कोई कमी नहीं आई. गांधी भी असहमत होते हुए कहते थे कि अगर आपका मन कह रहा है तो वही कीजिए. ऐसा ही नाज़ुक और स्मरणीय रिश्ता पटेल और नेहरू का रहा है. विरोध के बावजूद कोई पटेल और नेहरू को सार्वजनिक रूप से एक दूसरे से लड़ा नहीं सका लेकिन आज की राजनीति दोनों की मूर्तियों को एक दूसरे से भिड़ा रही है. पटेल जब बहुत बीमार हो गए तो दिल्ली से जाने लगे. जाते वक्त उन्होंने किसी बड़े नेता(नाम याद नहीं आ रहा) का हाथ पकड़ कर कहा कि मैं अब बहुत बीमार रहने लगा हूं. दिल्ली नहीं लौट पाऊंगा. तुम नेहरू का साथ कभी मत छोड़ना. जवाहर मेरे बिना अकेला पड़ जाएगा.

इतिहास को याद रखने का तरीका दौड़ में शामिल होना नहीं है. वह एक अच्छा प्रतीक है लेकिन इतिहास को उसके संदर्भों और यात्राओं में ही देखना चाहिए. जवाहर और सरदार की जोड़ी को उनके योगदानों के सहारे अलग किया जा रहा है. कोई सरदार की सख्ती और उदारता तो दिखाए और यह भी तो सोचे कि हर फैसला अपनी मर्जी और साहस से लेने वाले सरदार कांग्रेस से बाहर क्यों नहीं गए क्योंकि तब कांग्रेस में हर कोई रह सकता था और वो कांग्रेस गांधी-नेहरू से नहीं बनती थी बल्कि सरदार पटेल और सुभाषचंद्र बोस से भी बनती थी, जिन्हें चुने जाने के बाद हटा दिया गया. 1936 में सरदार जिस मुद्दे पर नेहरू को नहीं चाहते थे कि वे फिर चुने जाए, उसी मुद्दे पर बोस का विरोध कर रहे थे कि कहीं कांग्रेस वामपंथ की तरफ न झुक जाए. पटेल का विरोध विचारधारा को लेकर था न कि जवाहर या बोस नाम के व्यक्ति से. पटेल को लगता था कि बोस ने आईएनए बनाने से पहले कभी कोई जनआंदोलन नहीं किया है. वे कहा करते थे कि इस वक्त आज़ादी का आंदोलन ज़रूरी है या गांव चलो टाइप के समाजवादी आंदोलन चलायें. पटेल कहते थे कि आप अपना आंदोलन चलाइये मगर कांग्रेस के प्लेटफार्म का इस्तेमाल मत कीजिए. 1940 तक आते-आते बोस भी कहने लगे कि कांग्रेस अंग्रेजों से मिलकर सरकार बनाने का जुगाड़ करने लगी है. आचार्य नरेंद्रदेव ने सुभाष चंद्र बोस के खिलाफ कड़े शब्दों का इस्तेमाल किया है. आज दक्षिणपंथ के इतिहासकार उन्हीं नरेंद्रदेव का इस्तेमाल नेहरू के खिलाफ़ करने लगे हैं.

वल्लभभाई पटेल, राजगोपालाचारी, गांधी, राजेंद्र प्रसाद और जवाहरलाल नेहरू. ये पांचों कांग्रेस की धुरी थे. पटेल, गोपालाचारी और प्रसाद कांग्रेस में आने से पहले स्वतंत्र रूप से क्षेत्रीय नायक के रूप में स्थापित हो चुके थे. आज की राजनीति इन सभी को एक दूसरे के खिलाफ पेश कर रही है. पटेल और नेहरू को जितना भी एक दूसरे के खिलाफ़ पेश कर लिया जाए लेकिन नेहरू पटेल के विरोध के बाद भी बिना पटेल के न तो कांग्रेस अध्यक्ष बन सकते थे न प्रधानमंत्री. क्या आज इतनी लोकतांत्रिक विविधता किसी दल में है? इसका जवाब खोजेंगे तो आपको ‘रन फॉर यूनिटी’ में नहीं मिलेगा. प्रधानमंत्री ने ठीक कहा कि जो देश इतिहास को भूल जाता है वो इतिहास का निर्माण नहीं कर सकता. उन्हें यह भी कहना चाहिए कि जो देश इतिहास को उसके संदर्भों और बारीक विवरणों में जाकर नहीं देखता, वो इतिहास का कूड़ा कर देता है या फिर उसे एक मार्केटिंग इवेंट में बदल देता है. जिस संकीर्णता से किसी को याद करने के नाम पर राजनीति हो रही है, वह दिनोंदिन विकृत होती चली जाएगी. कल कोई बिहार से उठेगा और दावा करने लगेगा कि राजेंद्र प्रसाद को भुला दिया गया. कोई कहेगा मज़हरूल हक़ को भुला दिया गया. कोई राजगोपालाचारी को भुला देने की दावेदारी पर राजनीति करेगा और ‘रन फॉर गोपालाचारी’ करने लगेगा. राजेंद्र प्रसाद ने तो अपनी वकालत दांव पर लगाकर गांधी के साथ चंपारण गए थे. अंग्रेजों से उनके ताल्लुक़ात काफी अच्छे थे. मगर राजेंद्र प्रसाद और हक़ ने तो अपना तब दांव पर लगाया जब आंदोलन शुरुआती दौर में था. आज कोई राजेंद्र प्रसाद की चिट्ठियां निकालकर जातिवादी और घोर सांप्रदायिक तत्व भी साफ-साफ ढूंढ सकता है. अगर आप समय के हिसाब से देखेंगे तो तब नेताओं में जातिवाद और संप्रदाय को लेकर बहुत स्पष्ट मत नहीं थे. तो क्या आज का वर्तमान इस हिसाब से उन्हें शूली पर लटकाये या फूलों का माला पहनाये?

ज़रूरी है कि हम अपने ऐतिहासिक नायकों को इतिहास के बिना न देखें. यह एक ख़तरनाक प्रवृत्ति है. आज़ादी के दौर को लेकर भावुक होने से काम नहीं चलेगा. लोकतांत्रिक विविधता के बारे में सोचिये. आज किसी पार्टी में आंतरिक चुनाव नहीं होते. क्या पटेल को याद करने वाली बीजेपी में हुआ? दो नेताओं के विरोध को पार्टी अनुशासन के खिलाफ़ बता दिया जाता है और कोई नागपुर से परिवार का मुखिया आकर फैसला कर देता है. बीजेपी ही क्यों किसी दल में है? क्या बीजेपी कभी शिवसेना और अकाली दल के परिवारवाद पर बोलेगी? क्या उसने अपने भीतर और बाहर परिवारवाद पर समझौते नहीं किये हैं? राहुल गांधी ने जब पार्टी में आंतरिक चुनाव का काम शुरू किया तो कांग्रेस में ही विरोध हो गया? लोकतंत्र के गैरकांग्रेसी चिन्तकों ने भी इसका मज़ाक उड़ाया. क्या पता एक दिन संगठन में चुनाव की स्थिति उनके पद पर पहुंच जाए, जहां वे परिवार की वजह से बिठाये गए हैं. राहुल नौटंकी कर रहे हैं तो बाकी दलों ने इस प्रक्रिया को अपने यहां क्यों नहीं अपनाया. बसपा में तो परिवारवाद नहीं है तो क्या वहां लोकतंत्र है. क्या अध्यक्ष पद की दावेदारी कई नेता कर सकते हैं? कोई दल अपवाद नहीं है. किसी दल में अध्यक्ष पद के लिए चुनाव नहीं होते. मनोनयन होता है.

मैंने बात की शुरूआत वर्तमान के प्रसंगों से की थी लेकिन इतिहास में चला गया. आज के इंडियन एक्सप्रेस में अपना दल पर एक अच्छी रिपोर्ट छपी है. आप देखिये कि वहां सत्ता संघर्ष की कैसी नई कहानी बन रही है. मां अपना दल की अध्यक्ष हैं. मां ने अपनी बेटी और सांसद अनुप्रिया पटेल को महासचिव पद से हटा दिया है. अनुप्रिया की जगह उनकी बड़ी बहन पल्लवी को उपाध्यक्ष बना दिया है. इस चार नवंबर को मां और बेटी अलग अलग रैलियां करेंगे. भारतीय राजनीति का यह अद्भुत नज़ारा है. यहां बेटे विरासत पर दावेदारी नहीं कर रहे बल्कि मां और बेटियों में बखरा लग रहा है. परिवारवाद की दावेदारी ज़मीन के बंटवारे जैसी हो गई है. पंकजा मुंडे के उभार को मैंने भी महिला नेतृत्व की दावेदारी की नज़र से प्रगतिशील नज़र से देखा था लेकिन इससे तो परिवारवाद ही मजबूत हो रहा है. किसी सांसद के बेटे को सांसद बनने से नहीं रोक सकते. बनना भी चाहिए लेकिन पार्टी संगठन में वो थोपा क्यों जाता है? उसके खिलाफ़ कोई चुनाव क्यों नहीं लड़ता? आज़ादी के पहले के कांग्रेस में ये सब होता था. आज किसी पार्टी में नहीं होता. सरदार पटेल को याद करना आसान है. उनकी याद में आप और हम दौड़ तो गए पर क्या पता चला कि हम कहां से दौड़े और कहां पहुंचे? एकता बिना विविधता के नहीं हो सकती. उस विविधता के लिए इन महान राजनीतिक दलों में कितनी जगह है. खुद से भी पूछिये कि आप अपने विरोधी का सरदार पटेल की तरह सम्मान कर सकते हैं, क्या आप जिस नेहरू से सरदार पटेल की तरह प्रचारित कथित नफ़रत करते हों उन्हें प्रधानमंत्री का पद सौंप सकते हैं. इतना लोड मत लीजिए. बेहतर है दौड़ ही आइये. मगर अगली बार विविधता के लिए भी दौड़ियेगा, तभी आप एकता का मर्म समझ पायेंगे.

(कस्बा से साभार)

ख़ालिद मुजाहिद हत्याकांड में फाइनल रिपोर्ट का ख़ारिज होना सपा सरकार के मुंह पर तमाचा - रिहाई मंच

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By TCN News,

लखनऊ: बुधवार को रिहाई मंच ने ख़ालिद मुजाहिद हत्या मामले में विवेचना अधिकारी की फाइनल रिपोर्ट के बाराबंकी मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी द्वारा ख़ारिज किए जाने का स्वागत किया. रिहाई मंच के अध्यक्ष मोहम्मद शुऐब ने कहा है कि इस रपट का ख़ारिज होना उत्तर प्रदेश सरकार के मुंह पर एक तमाचा है. ज्ञात हो कि इस मामले आरोपियों में पूर्व डीजीपी विक्रम सिंह, पूर्व एडीजी कानून व्यवस्था बृजलाल, मनोज झा समेत कई आला पुलिस अधिकारी और अन्य गुप्तचर विभाग के अधिकारी भी शामिल हैं.

ख़ालिद मुजाहिद हत्याकांड की जांच में वादी ज़हीर आलम फ़लाही के अधिवक्ता मोहम्मद शुऐब और रणधीर सिंह सुमन ने बताया कि 18 मई 2013 को हुई ख़ालिद की हत्या के मामले में उनके चाचा ज़हीर आलम फलाही ने बाराबंकी कोतवाली में मुक़दमा दर्ज़ कराते हुए सीबीआई जांच की मांग की थी लेकिन विवेचना अधिकारी ने पूरे मामले में बिना आरोपियों से पूछताछ किए ही 12 जून 2014 को अपनी फाइनल रिपोर्ट लगा दी. इस रपट को ख़ारिज करने की मांग के साथ ज़हीर आलम फलाही ने 20 अक्टूबर 2014 को वाद दाखिल किया था. इसमें उन्होंने प्रार्थना की थी कि विवेचना अधिकारी द्वारा वादी का 161 सीआरपीसी के तहत बयान दर्ज़ नहीं किया गया और अभियुक्तों का नाम मामले में होने के बावजूद विवेचना अधिकारी द्वारा उन्हें अज्ञात लिखा गया. इसके साथ ही विवेचना अधिकारी मोहन वर्मा, कोतवाल, बाराबंकी ने ख़ालिद की कथित गिरफ्तारी के समय उनके अपहरण, अवैध हिरासत के आरोपों की जांच नहीं की, जिससे बाद में उनकी हत्या का उद्देश्य स्पष्ट हो जाता है. चूंकि इस मामले के प्रभावशाली आरोपियों विक्रम सिंह और बृजलाल के प्रभावछेत्र में ही विधि विज्ञान प्रयोगशाला भी आती है इसलिए विसरा की जांच भी उचित तरीके से नहीं की गयी. प्रार्थनापत्र में ज़हीर आलम ने सवाल उठाया था कि चूंकि उन्हें ऐसा प्रतीत होता है कि विवेचनाधिकारी ने अपने उच्च अधिकारियों को बचाने के लिए साक्ष्य एकत्र करने के बजाय उन्हें नष्ट करने का कार्य किया और हत्या के उद्देश्य के संबंध में कोई जांच करने की कोशिश ही नहीं की, इसलिए पूरे मामले की फिर से जांच कराई जाए.


Khalid Mujahid
ख़ालिद मुजाहिद

इस पर फैसला सुनाते हुए मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी बृजेन्द्र त्रिपाठी ने वादी से सहमत होते हुए कहा कि सभी साक्ष्यों के आधार पर यह स्पष्ट है कि मामले की सही ढंग से विवेचना नहीं की गयी. सही बयान भी अंकित नहीं किए गए हैं, जिसके समर्थन में वादी ने शपथ पत्र भी लगाया है. दण्डाधिकारी ने आगे कहा है कि पत्रावली से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि प्रकरण में विवेचक का आचरण जल्दबाजी का प्रतीत हो रहा है इसलिए उक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए मामले की अग्रिम विवेचना कराया जाना न्यायोचित है. इस मामले में दण्डाधिकारी ने थाना प्रभारी कोतवाली बाराबंकी को निर्देशित किया है कि इस पूरे मामले की विवेचना के प्रति सभी तथ्य संज्ञान में लेकर पुलिस अधीक्षक बाराबंकी इसकी जांच सुनिश्चित करें तथा दो महीने के अंदर परिणाम से अवगत कराएं.

रिहाई मंच के आजमगढ़ प्रभारी मसीहुद्दीन संजरी ने कहा कि ख़ालिद मुजाहिद की हत्या प्रकरण में विवेचनाधिकारी पर उठते सवालों के मद्देनज़र यह साफ है कि डीजीपी-एडीजी स्तर के अधिकारी इस पूरे मामले को दबाने में लगे हैं, जिसमें यूपी की अखिलेश सरकार भी उनके साथ है. ख़ालिद मुजहिद हत्या प्रकरण सिर्फ हत्या तक सीमित नहीं है बल्कि यह तारिक-ख़ालिद की गिरफ्तारी से भी जुड़ा है, जिस पर आरडी निमेष जांच आयोग ने संदेह व्यक्त करते हुए दोषी पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की सिफारिश की है. उन्होंने कहा कि दरअस्ल तारिक-ख़ालिद की गिरफ्तारी के समय उनके पास से बरामद दिखाए गए हथियार व विस्फोटक उनकी गिरफ्तारी और पुलिस व खुफिया विभाग को संदेह के घेरे में लेते हैं कि इतने बड़े पैमाने पर उनके पास विस्फोटक व हथियार कहां से आए. यह पूरा मामला पुलिस-खुफिया विभाग और आतंकवाद के बीच के गठजोड़ का है, जिसे हरसंभव कोशिश कर प्रदेश की सपा सरकार उन्हें बचाकर छुपाना चाहती है क्योंकि इससे आतंकवाद की पूरी राजनीति का पर्दाफाश हो जाएगा जिसमें मुस्लिम समुदाय मुख्य निशाने पर है.

रिहाई मंच ने मांग की है कि प्रदेश को खुफिया विभाग-पुलिस और आतंकवाद के गठजोड़ से पैदा होने वाली खतरनाक राजनीतिक खेल में न फंसाकर सपा सरकार ख़ालिद मुजाहिद हत्याकांड की सीबीआई जांच कराए और तत्काल प्रभाव से निमेष जांच आयोग रिपोर्ट पर अमल करते हुए दोषी पुलिस अधिकारियों के खिलाफ़ कार्रवाई करे. स्पष्ट विवेचना न्याय का आधार होती है, जिसकी जिम्मेदारी विवेचनाधिकारी पर होती है पर विवेचनाधिकारी ने जिस तरीके से इस मामले में पुलिस के आला अधिकारियों को बचाने की कोशिश की, उसके खिलाफ़ न सिर्फ़ कार्रवाई की जाए बल्कि आतंकवाद के नाम पर झूठी बरामदगी, गिरफ्तारी व हत्या कराने वाले पुलिस अधिकारियों की इस पूरे गठजोड़ की जांच कराई जाए.

किस पर बरसेंगे ये बाण?

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By उमंग कुमार,

८००० मिसाइलों का कोई क्या कर सकता है​ ​? कहाँ-कहाँ तैनात होंगे इतने मिसाइल​ ​? किन-किन दुश्मनों के सिरों, ज़मीनों, घरों, अस्पतालों​ इत्यादि ​पर गिरेंगे यह अस्त्र? ​कितने बड़े या व्यापक युद्ध की आकांशा की जा रही है​ ​? ​यह पूछना वा​जिब ​​​ है ​क्योंकि अभी हाल ही में, अक्टूबर की खबर के मुताबिक़, भारत ने इस्रायल से ३२,००० करोड रुपयों की लागत से ८,००० से अधिक "स्पाइक"नामक मिसाइलों की खरीद पक्की की है | वैसे, यह ८,००० मिसाइल तो पूर्ती मात्र हैं - भारत के सेना की ज़रूरत ४०, ००० मिसाइलोंकी बताई गयी है | आप ही अंदाजा लगाइए की कितना भारी इंतज़ाम है यह |

चूँकि ये अस्त्र ​इस्रायल ​से खरीदे जा रहें हैं, ​इतना तो दावे के साथ कहा जा सकता है की यह ​अस्त्र ​एक व्यवहारिक गारंटी के साथ ही नहीं, ​परन्तु ​पूरी तरह से प्रमाणित ("टेस्टेड") आते हैं | और ​कोई ​​ ​ऐसे वैसे प्रमाणित नहीं​ - ​यानी, नाम के वास्ते, किसी कृत्रिम प्रयोगशाला में ​प्रमाणित ​नहीं ​- ​बल्कि एकदम ​असली, जीते-जागते​​, हांड-मांस वाले प्राणियों से परिपूर्ण​ प्रयोगशाला ​​में लेटेस्ट प्रमाण​ ​​का सर्टिफिकेट लेकर आते हैं ये अस्त्र | ​इस्रायल की प्रयोगशाला गाज़ा और अन्य फलस्तीनी कब्ज़ा किये हुए इलाके ("ओकुपाइड टेरिटोरी़ज़") ​रही है |


Union Home Minister, Rajnath Singh and Israeli Prime Minister, Benjamin Netanyahu, during a meeting, at Tel Aviv, Israel on November 06, 2014.
Union Home Minister, Rajnath Singh and Israeli Prime Minister, Benjamin Netanyahu, during a meeting, at Tel Aviv, Israel on November 06, 2014.

विश्वास नहीं होतो आपको ? इस साल के ​जुलाई-अगस्त में ​इस्रायल-द्वारा गाज़ा आक्रमण - "ऑपरेशन प्रोटेक्टिव एज" - के बारे में लिखते हुए मानव-अधिकार संस्था, ह्यूमन राईट्स वांच​ (ह.र.व​) ​ने यह पायाकी कई आक्रमण स्पाइक मिसाइल के माध्यम से हुए | और शायद पाठकों को याद होगा के एक ही दिन में, समुद्र-किनारे एक ही परिवार के चार बच्चे मारे गए थे​ ​| ह.र.व का अनुमान है की वह वार उन बच्चों पर स्पाइक​ मिसाइल से ही संपन्न हुआ |

भारत इस्रायल से ड्रोन हवाई-यान भी खरीदता है जो की छत्तीसगढ़ जैसे इलाकों में तथाकथित नक्सलियों को निशाना बनाने के लिए हैं या फिर हमारी सीमाओं पर निगरानी रखने के लिए होते हैं | ​ यह कोई इत्तेफाक की बात नहीं है की भारत के खरीदे हुए ड्रोन - जो की "हेरोन"के नाम से जाने जाते हैं - इस्रायल द्वारा लेबनान एवं गाजा में इस्तेमाल किये जा चुके हैं | और इस बार के इस्रायली धावे में इस्रायल ने "हर्मीज़"नामक ड्रोन से ​​स्पाइक मिसाइल​ चलाये थे | ​इस पुस्तकके मुताबिक़, इस्रायल "हर्मीज़"​ व "हेरोन"​ दोनों ड्रोन विमानों में ​​स्पाइक मिसाइल​ लगा कर उनका इस्तेमाल करता है | ​

​फलस्तीन के लोगों का दमन इस्रायल बेरहमी और बिना किसी अंजाम के डर से करता है | प्राय नियमित रूप पर, नाना प्रकार के विधानों और तिकडमों से इस्रायल फलस्तीनी क्षेत्रों - जैसे गाज़ा और वेस्ट बैंक - पर हमला बोल देता है | यह कहा जाता है की गाजा क्षेत्र में ८ साल से बड़े किसी भी बच्चे ने इस ग्रीष्म-काल जैसे ४ आक्रमण देख लिए हैं |

​इन आक्रमणों में ​​इस्रायल नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र इस्तेमाल करता है - विभिन्न प्रकार के ​मिसाइल​, अत्यंत घातक विस्फोटक, हानिकारक या ज़हरीली गैस और अन्य कई परिबद्ध अस्त्र | कई डॉक्टरों व विशेषज्ञों ने ऐसे अस्त्रों के बारे में लिखा है और फलस्तीनी आम जनता के ऊपर उनके असरों के बारे में ब्यौरा दिया है | ​और तो और हरेक नए आक्रमण में ​​​इस्रायल​ नए नए अस्त्रों का प्रयोग करता है | ​

​इस बार के आक्रमण में भी ​​इस्रायल ने कई नए अस्त्र आजमाए जिनकी खुली चर्चाहुई | इन अस्त्रों के नियमित इस्तेमाल से ​​इस्रायल के अस्त्र-निर्माताओं को खूब फायदाहोता हैं |
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​भारत अपनी सुरक्षा एवं प्रबलता के लिए आज दुनिया भर में सबसे बड़ा हथियारों का खरीददार है | मोदी सरकार ने इस बार के बजट में रक्षा क्षेत्र में विदेशी​ भागीदारी ​ २६% से ४९% कर ​दी ​ है |

संसार ​भर में फलस्तीन की मुक्ति के लिए और इस्रायल के दमन के खिलाफ "बीडीएस" (बायकाट, डाइवेस्ट्मेंट, सैन्क्शुन्स) आंदोलन चल रहा है | इस आंदोलन का एक लक्ष्य इस्रायली वस्तुओं का बहिष्कार - "बायकॉट" - है | ​जिस देश ने अपनी आज़ादी की लड़ाई में "बायकॉट"​ जैसी रणनीति को इतनी अहमियत दी, वह अस्त्रों के मामले में एक आधुनिक, विश्वव्यापी पुकार की साफ़ अव्हेलना कर रहा है | यही नहीं, इन अस्त्रों को खरीद कर एक तो भारत इस्रायल​ द्वारा फलस्तीनियों के खिलाफ मानवाधिकार उल्लंघनों को नज़रंदाज़ कर रहा है, ऊपर से भारत ऐसे अस्त्रों के निर्माण और इस्तेमाल के चक्र को बरक़रार रख रहा है | ​

तत्कालीन ​आवश्यकता यह है की भारत ​​​इस्रायल​ द्वारा अन्याय को रोके और शस्त्रीकरण की होड़ में ​​इस्रायल​ के "मिलिट्री-इंडस्ट्रियल​ कॉम्प्लेक्स"​​​ (सैन्य-शक्ति और उद्योग का सांठ-गाँठ) को बढ़ावा न दें | ​

भारत ​बहुत कोशिश कर रहा है अपने को एक उभरते हुए देश के रूप में प्रस्तुत करने के लिये | ​लेकिन अभी भी मानवीय विकास मापदंड में बहुत सुधार की ज़रूरत है - संयुक्त राष्ट्र ("यूनाइटेड नेशंस") की २०१४​ रिपोर्टके मुताबिक ​भारत​ ​दुनिया में १३५​ ​वे स्थान पर है | ​इस रिपोर्ट में हर देश के कई आंकड़े मापे जाते हैं - आर्थिक व सामाजिक | हमें भली-भाँती मालूम है की ​​भारत में कितने ही वर्गों का आर्थिक एवं सामजिक उद्धार कितना अनिवार्य है |

भारत ​चीन से जिस होड़ में लगा है - इस बात से अवगत रहना चाहिए की चीन ने बहुत सालों से सामाजिक मुद्दों पर बहुत ध्यान दिया है - शिक्षा, स्वास्थ्य , खाद्य आपूर्ति​ जैसी मामलों में उसने कई दशकों से भारी पूँजी-निवेष किया है | भारत अभी बहुत पीछे है उन महत्वपूर्ण इलाकों में |

अस्त्र-शास्त्र का विश्व में सबसे अधिक आयात करना कौन से गर्व की बात है जब आपके घर में प्राय सभी बुनियादी ज़रूरतों का अभी तक कोई इंतज़ाम या हल नहीं हुआ है? और ​वह ​​ आ​यात ​भी ऐसे देशों/विक्रेताओं से जो इन अस्त्रों से नियमित रूप से किसीका दमन करता हो - जिसमे खासकर असैनिक बच्चेऔर औरतें होती हैं |

ऐसे अत्याचार में भागी होने के बजाये हमें हर कोशिश करनी चाहिए की हम इस भयानक दमन और नाइंसाफी को पूरी तरह से रोक दें ​और फलस्तीनी मुक्ति संघर्ष का समर्थन करें ​|

जन आंदोलनों की व्यापक एकता पूंजीवाद के खात्मे के लिए ज़रूरी - वर्कर्स काउंसिल

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By TCN News,

लखनऊ: ऑल इंडिया वर्कर्स काउन्सिल के तीसरे राष्ट्रीय अधिवेशन के दूसरे दिन देश के विभिन्न भागों से आए प्रतिनिधियों ने मजदूर वर्ग की समस्याओं से निपटने और देश में चल रहे जन आंदोलनों की व्यापक एकता के सहारे पूंजीवाद के खात्मे के लिए रणनीतिक खाका तैयार करने की दिशा में गहन चर्चा की.

सत्र में बोलते हुए पश्चिम बंगाल के मजदूर नेता सुरंजन भट्टाचार्य ने कहा, “संघर्ष के रास्तों पर बहस और विमर्श के लिए आज हम यहां पर जुटे हैं. जिन लोगों का यह सोचना है कि मार्क्सवाद के ज़रिए बदलाव नही लाया जा सकता, वे कुंठित और निराश हैं. इस देश का मजदूर तबका और उसका स्तर ही पूरी इंडस्ट्री के चेहरे को दिखा देता है. हमें अपने दायरे को और आगे ले जाने की जरूरत है. बिना इसके हम किसी बड़ी सफलता की आशा नही कर सकते. हमें अपने संगठन को देशभर के मजदूरों की एकजुट आवाज़ बनाना चाहिए. हमें यह भी निश्चित करना होगा कि हम कामगार जनता की आवाज कैसे बनें?” सुरंजन भट्टाचार्य ने सुझाव दिया कि वर्कर्स काउन्सिल को सदस्यता फार्म लाना चाहिए और उसके पीछे उद्देश्य भी निर्धारित कर तय समय पर उसकी सफलता या चुनौतियों की समीक्षा भी करनी चाहिए.


Workers council

बलिया के एक मजदूर यूनियन के अध्यक्ष जी.पी. वर्मा ने कहा, “आज के दौर में श्रमिक संगठनों का क्या दायित्व बनता है, इस पर विचार करने की जरूरत है.” उन्होंने यह सवाल किया कि अन्य संघर्ष में लगे हुए लोगों के साथ किस रणनीति के तहत खड़ा हुआ जाए? और देश के बंद उद्यागों को फिर से कैसे शुरू कराया जाए?

सम्मेलन में बोलते हुए अवधेश सिंह ने कहा, ‘मजदूर और किसान दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं. उनकी समस्याएं भी एक दूसरे की पूरक हैं और इसीलिए उन्हें साथ आना ही होगा. देश, जाति और संप्रदायवाद के प्रभुत्व ने हमारे सामने मुश्किलों का अंबार खड़ा कर दिया है, लेकिन इससे घबराने की ज़रूरत नही है.’ उन्होंने आगे कहा, ‘विकास की असमानता ने भी मजदूरों के सामने चुनौतियां पेश की हैं. विकास की असमानता पूंजीवाद की आवश्यक देन है और पूंजीवाद के बढ़ रहे प्रभाव से यह और तेजी से बढ़ेगा. इस चुनौती के खिलाफ़ भी संघर्ष करना होगा. इसके लिए मजदूरों चेतना से लैस करना ही होगा.


Workers council

उदय ने सम्मेलन में बोलते हुए कहा कि वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य किसके ज़रिए देश में आया है, इस पर भी विचार करने की आवश्यकता है. अपनी बात पहुंचाने के लिए हमें अपने खुद के साधन विकसित करने ही होंगे. हमें इस पर विचार करना ही होगा कि क्या अब सभ्यताओं के संघर्ष का प्रचार होगा या फिर वर्ग संघर्ष होगा. उन्होंने कहा कि वर्तमान दौर में हमें गेट से एनजीओ तक पर चोट करनी है. हमारी असफलता के एक बड़े कारण में पहचान की राजनीति रही है. उन्होंने यह सुझाव भी दिया कि काउन्सिल में होल टाइमर कार्यकर्ताओं की एक बॉडी बनानी चाहिए.

केरल से आए एम. राजन ने देश और दुनिया की वर्तमान परिस्थिति पर एतिहासिक दृष्टिकोणों से प्रकाश डालते हुए कहा कि आज पूरी दुनिया में जन पक्ष धर शक्तियों के आंदोलन की भूमिका तैयार हो चुकी है. यह सम्मेलन भी उसी का एक अभिन्न हिस्सा है.

‘कविता: १६ मई के बाद’ यानी कॉरपोरेट लूट और फासीवाद के खिलाफ़ खड़ा होता कवि

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By TCN News,

लखनऊ: अच्छे दिनों का वादा कर आई नई सरकार ने जिस तरह सांप्रदायिकता और कॉरपोरेट लूट को संस्थाबद्ध करके पूरे देश में अपने पक्ष में जनमत बनाने की आक्रामक कोशिश शुरू कर दी है, उसके खिलाफ़ जनता भी अलग-अलग रूपों में अपनी चिन्ताओं को अभिव्यक्ति दे रही है. जिस तरह आदतन चुनावों के दरम्यान सांप्रदायिक माहौल ख़राब किया जा रहा है, कहीं ‘लव जिहाद’ को चुनावी हथियार बनाया जा रहा है तो कहीं मॉरल पुलिसिंग. इन सभी बर्बरताओं के खिलाफ़ देश की कविता भी मुखरता से सामने आ रही है. इन कविताओं को एक मंच पर लाने के लिए कल लखनऊ के सीपीआई कार्यालय में ‘कविता: 16 मई के बाद’ श्रृंखला के तहत कविता-पाठ का आयोजन प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, जन संस्कृति मंच, इप्टा, जर्नलिस्ट्स यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी ने संयुक्तं रूप से किया.


‘कविता: १६ मई के बाद’ यानी कॉरपोरेट लूट और  फासीवाद के खिलाफ़ खड़ा होता कवि

संचालन का प्रभार सम्हालते हुए संस्कृसतिकर्मी आदियोग ने शाद की नज़्म से शुरुआत करते हुए कवियों को अपनी बात कहने के लिए पांच मिनट का वक्तक दिया और आयोजन में आधार वक्तोव्या रखने के लिए कवि रंजीत वर्मा को आमंत्रित किया. रंजीत वर्मा ने आयोजन की पृष्ठंभूमि पर प्रकाश डालते हुए बताया कि 16 मई 2014 को लोकसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद जो फाशीवाद नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में इस देश में आया है और उसके बाद इस देश में जैसी राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियां बनी हैं, उसमें एक अहम सांस्कृसतिक हस्तणक्षेप की ज़रूरत आन पड़ी है. ऐसे में ज़रूरी है कि कविता को राजनीतिक औजार बनाकर एक प्रतिपक्ष का निर्माण किया जाए. इसी उद्देश्यर से बीते 11 अक्टूनबर को दिल्लीष से यह आयोजन शुरू हुआ और यह कविता यात्रा देश भर में अगले एक साल में ले जाई जाएगी.

कविता-पाठ के क्रम में सुभाष राय की एक लंबी के बाद अजय सिंह ने अपनी बहुचर्चित कविता ‘राष्ट्रतपति भवन में सुअर’ का पाठ किया. चंद्रेश्वनर ने अफ़वाहों के फैलने पर एक ज़रूरी कविता सुनाई. मंच पर मौजूद ब्रजेश नीरज, हरिओम, ईश मिश्र, किरन सिंह, नरेश सक्सेना, नवीन कुमार, प्रज्ञा पाण्डेय, पाणिनि आनंद, रंजीत वर्मा, राहुल देव, राजीव प्रकाश गर्ग ’साहिर’, संध्या सिंह, सैफ बाबर, शिवमंगल सिद्धान्तकर, तश्ना आलमी, उषा राय़, अभिषेक श्रीवास्त व ने अपनी सशक्तई कविताओं के माध्यबम से अपने-अपने हिस्से का प्रतिरोध दर्ज किया. कार्यक्रम की अध्यकक्षता वरिष्ठम कवि नरेश सक्सेअना ने की.

नसबंदी शिविर की लापरवाही में आम सवाल

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By मनोज मिश्रा,

शनिवार को बिलासपुर, छत्तीसगढ़ से दस किलोमीटर दूर पेंडारी के नेमीचंद जैन अस्पताल में सरकार की तरफ़ से महिलाओं के लिए नसबंदी शिविर आयोजित किया गया. इस शिविर को लगाने का मक़सद महिलाओं के स्वास्थ्य की चिंता नहीं था. बल्कि शिविर इसलिए लगाया गया था ताकि सरकार अपना एक कोटा पूरा कर सके और सर्वे में यह दर्शा सके कि उसने एक साल में इतनी नसबंदियों को अंजाम दिया है. ऐसा इसलिए ताकि उन्हें पिछले कुछ वर्षो की तरह इस बार भी नंबर एक मुख्यमंत्री का ख़िताब मिल जाए.

इस नसबंदी शिविर में 83 महिलाओं को नसबंदी के लिए तैयार किया गया. इन महिलाओं की नसबंदी आनन-फानन में की गई, जिनमें से 11 महिलाएं मौत का शिकार बन चुकी हैं. इसके अलावा लगभग 55 महिलाएं गंभीर रूप से संक्रमण से ग्रस्त बतायी जा रही हैं. मीडिया में बात को फैलता देख सरकार ने पीड़ितों को मुआवज़ा देने की बात कहीं है. इसके अलावा कांग्रेस ने हमेशा की तरह इस मामले में राजनीतिक फायदा उठाने के आरोप को केन्द्र में रखते हुए मुख्यमंत्री और स्वास्थ्य मंत्री के इस्तीफे की मांग की है.



Treatment of filling quota

इन बातों और घोषणाओं से इतर सवाल यह है कि क्या ये मुआवज़े या सरकार के इस्तीफे की मांगें उन ज़िंदगियों के साथ सही इन्साफ कर सकती हैं, क्या उन्हें वापिस ला सकती हैं, क्या मासूमों से हमेशा के लिए बिछड़ चुके सहारे को वापस दिला सकती है, जिनकी मौते सिर्फ़ डाक्टरों की लापरवाही की वजह से हुई है? और यह बात तो ध्यान दिलाने की नहीं है कि ये वही डाक्टर हैं जिन पर हम अपने को दुरस्त करने की ज़िम्मेदारी सौंपते हैं.

यह पहली बार नहीं है जब किसी सरकारी विभाग द्वारा ऐसी लापरवाही को अंजाम दिया गया हो. इससे पहले 2011 में दुर्ग के बालोद में 64 और 2013 में मोतियाबिंद ऑपरेशन के दौरान 6 लोगों की मौत हो गई थी. यदि हम इतिहास के पन्नों को खोलकर देखें तो ऐसी घटनाएं अब समाज के लिए बहुत आम बात हो गई हैं. इन मासूमों की मौत की जिम्मेदारी लेने के लिए न डॉक्टर तैयार है और न ही सरकार. यह समय ऐसे बीतेगा कि कुछ पता ही नहीं चलेगा. जब तक प्रधानमंत्री का विदेश दौरा खत्म होगा, तब तक मीडिया वाले शांत हो चुके होंगे और लोगों को उनकी मौत के बदले मुआवज़े ‘मिल चुके’ होंगे.

दुःख की बात तो यह है कि इस तरह की घटनाओं के बावजूद स्थानीय संगठनों के द्वारा कोई विरोध प्रदर्शन नहीं किया जाता है, अधिकांश संगठन तो सिर्फ़ जातिगत मुद्दों, जिनमें विशेषकर हिन्दूवाद के मुदद्दे हैं, के विषय में ही आवाज़ खोलते है. इंसानो के हक़ से उन्हें कोई लेना-देना नहीं है. जिन लोगों की मौते हुई हैं, उनके पक्ष में या सरकार के खिलाफ़ वे कुछ भी कहने से घबराते है, बाकी विरोध प्रदर्शन की बात तो बहुत दूर की है.

इन महिलाओं की मौत सिर्फ़ लापरवाही नहीं है. ये मौतें समाज के लिए एक सन्देश हैं कि किसी भी पार्टी या सरकार के पास आवाम की फ़िक्र करने का कोई मसविदा नहीं है और इंसानियत के प्रति वो अपने जुल्म अलग-अलग तरीके से ढाते रहेंगे. इन सबके बावजूद हम सबका फ़र्ज़ बनता है कि हम इस किस्म की अमानवीय घटनाओं के दौरान एकजुट होकर इन सरकारी तंत्रों के खिलाफ़ खड़े रहें. यदि ऐसा नहीं हो पाया तो ज़ाहिर है कि धीरे-धीरे हम मिट्टी के गीले लोंदे से बढ़कर कुछ भी नहीं रह पाएंगे, जिसे ज़रूरत के माफ़िक किसी भी सूरत में ढाल लो.


सलमान खुर्शीद का सवाल, मोदी के कार्यक्रमों में भीड़ कितनी असली?

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By TwoCircles.net Staff Reporter,

फर्रुखाबाद: पूर्व विदेश मंत्री और कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के विदेशी कार्यक्रमों में जुट रही भीड़ पर सवालिया निशान लगाया. सलमान खुर्शीद ने प्रश्न उठाया है कि इन कार्यक्रमों में जुट रही भीड़ कितनी असली है? सलमान खुर्शीद ने यह भी कहा है कि प्रधानमंत्री नारे लगवाने के लिए भारत से लोगों को लेकर जाते हैं. अपने देश से लोगों को ले जाने के बजाय प्रधानमंत्री को उस देश की आवाम पर भरोसा करना चाहिए.


Salman Khurshid
सलमान खुर्शीद

मीडिया से बातचीत में खुर्शीद ने कहा कि मोदी यहां लोगों को ले जाकर नारे लगवा रहे हैं. आप जिस भी देश में जाएं, उस देश की जनता को प्रभावित करें. तब असल अर्थों में भारत मजबूत होगा. उन्होंने आगे कहा है कि प्रवासी भारतीयों द्वारा प्रधानमंत्री का स्वागत किया जाना कोई बड़ी बात नहीं है. ज़रूरी तो यह है कि मोदी राष्ट्राध्यक्षों और अन्य नेताओं को भी प्रभावित करें, तब भारत का सम्मान होगा.

प्रधानमंत्री के बयान को आड़े हाथ लेते हुए खुर्शीद ने कहा कि मोदी तो कहा करते थे कि जी-ट्वेंटी क्या होता है, जी-ऑल होना चाहिए, अब उनका नज़रिया कैसे बदल गया? प्रधानमंत्री के म्यांमार दौरे के बाबत सलमान खुर्शीद ने कहा कि मैं दो बार म्यांमार गया हूं, वहां आपको सडकों पर लोग नहीं दिखेंगे लेकिन यह ताज्जुब की बात है कि प्रधानमंत्री ने 20 हज़ार की भीड़ कैसे जुटाई.

इस लम्बी बातचीत के दौरान सरकार के कामकाज के मद्देनज़र सलमान खुर्शीद ने कहा कि मोदी सरकार की क़ामयाबी और नाक़ामयाबी की समीक्षा करना जल्दबाजी भरा निर्णय होगा. मोदी को इतना जबर्दस्त समर्थन मिला है कि उनके कामों के बारे में कुछ भी कहने के लिए अभी और समय चाहिए.

एक सवाल के जवाब में पूर्व विदेश मंत्री ने कहा कि कांग्रेस शासन में जब कभी चीनी अतिक्रमण की घटना होती थी तो भाजपा द्वारा सरकार को डरपोक और न जाने क्या-क्या करार दिया जाता था, लेकिन जिस समय प्रधानमंत्री मोदी चीन के राष्ट्रपति के साथ गुजरात में मीटिंग कर रहे थे, उस समय चीनी सैनिकों ने भारतीय सीमा के भीतर घुसकर जो उपद्रव किया, उसपर बीजेपी या सरकार के किसी नेता ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की. अलबत्ता विदेश मंत्री ने यह कहा कि यह छोटी बात है. सलमान खुर्शीद ने आगे कहा कि सरकार सीमा पर हो रही गोलीबारी का क्या ‘मुंहतोड़ जवाब’ दे रही है, यह साफ़ करे. सिर्फ़ कहने से क्या होगा? जब बात देश की शुचिता पर आएगी, तो कांग्रेस पार्टी हमेशा सरकार के साथ खड़ी रहेगी.

देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के जयंती समारोह में कांग्रेस द्वारा मोदी को आमंत्रित नहीं किए जाने के बारे में सवाल पूछे जाने पर खुर्शीद ने कहा कि जो व्यक्ति कांग्रेस को नेस्तनाबूत करने का संकल्प करे, उसके प्रति कांग्रेस की क्या प्रतिक्रिया होनी चाहिए?

दिल्ली में चुनाव के पहले फेरबदल का दौर, शोएब इकबाल होंगे कांग्रेस में शामिल

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By TwoCircles.net staff reporter,

दिल्ली में विधानसभा चुनावों की घोषणा के बाद चुनावी उठापटक शुरू हो चुकी है. कई उलटबांसियों और कयासों के बीच लगता है पूर्व विधायक अपने लिए नई-नई जगह तलाशने में लगे हुए हैं.

दिल्ली के मटिया महल विधानसभा क्षेत्र से लगातार पांच बार विधायक चुने गए जदयू नेता शोएब इकबाल कांग्रेस में शामिल होने जा रहे हैं. आज उन्होंने पार्टी में बदलाव के कयासों को पुख्ता कर दिया है. शोएब इकबाल ने कहा है कि वे कल कांग्रेस में शामिल होंगे.


Shoaib Iqbal
शोएब इकबाल

कांग्रेस की उपलब्धियों के मद्देनज़र शोएब ने कहा, ‘कांग्रेस एक सेकुलर पार्टी है और इस पार्टी ने देश के लिए बहुत काम किये हैं. पिछले 15 सालों में दिल्ली में जो भी ऐतिहासिक बदलाव आए, उनका श्रेय सिर्फ़ कांग्रेस को जाता है.’

आगामी विधानसभा चुनाव के बाबत इकबाल ने कहा कि इस वक्त दिल्ली में कांग्रेस को मजबूत करने की बहुत ज़रूरत है, इसलिए उन्होंने कांग्रेस में शामिल होने का निर्णय लिया है. उन्होंने आगे कहा, ‘पिछले चुनाव में भाजपा को हरियाणा में सिर्फ़ चार सीटें मिली थीं, फ़िर भी वह सत्ता में आ गयी. राजनीति में कुछ भी मुमकिन है. ऐसा दिल्ली में भी हो सकता है. हम अच्छा प्रदर्शन करेंगे और ज़्यादा से ज़्यादा सीटें लाने का प्रयास करेंगे.’

ज्ञात हो कि शोएब इकबाल 1993 से लगातार विधानसभा चुनाव जीत रहे हैं. क़ाबिल-ए-गौर बात है कि वे भिन्न-भिन्न पार्टियों से चुनाव लड़कर जीत रहे हैं. सबसे पहले उन्होंने जनता दल से, फिर कांग्रेस से, एक बार लोक जनशक्ति पार्टी और पिछली बार जद(यू) से भी चुनाव लड़ा और जीते.

बीच में यह अपुष्ट खबरें भी आ रही थीं कि शोएब संभवतः एमआईएम के टिकट पर चुनाव लड़ सकते हैं, लेकिन ऐसा कुछ होता दिख नहीं रहा है. सूत्रों की मानें तो एमआईएम के कुछ लोगों ने इस बाबत शोएब से मुलाक़ात भी की थी लेकिन शोएब इकबाल की तरफ़ से उन्हें कोई जवाब नहीं मिला. ऐसे में दिल्ली में वोटों का बँटवारा और दुरूह होता दिख रहा था. बुधवार को शोएब ने कांग्रेस में शामिल होने की बात कहकर सभी चर्चाओं को दरकिनार कर दिया. यदि एमआईएम में शामिल होने की खबरों पर विश्वास किया जाए, तो शोएब इक़बाल के इस कदम से एमआईएम की रणनीति बिगड़ती नज़र आ रही है.

हालांकि इन कयासों के बारे में पूछे जाने पर शोएब ने कहा, ‘लोगों की सलाह थी कि दिल्ली में सेकुलर वोटों का बंटवारा न हो. हमने भी उसी दिशा में कार्य किया. उस दिशा में हमने भाजपा को टक्कर देने के लिए विश्वास से कांग्रेस का चुनाव किया. आम आदमी पार्टी का इस मामले में कोई भरोसा नहीं है. वे भगोड़े हैं.’

खबर यह भी है कि वृहस्पतिवार को कांग्रेस मुख्यालय में शोएब अपने पार्षद बेटे आले मुहम्मद इकबाल और पार्षद भतीजे खुर्रम इकबाल के साथ कांग्रेस की सदस्यता लेंगे. कांग्रेस के कुछ बड़े नेताओं के भी मौजूद रहने की संभावनाएं भी व्यक्त की जा रही हैं.

जानकारों का कहना है कि पिछले विधानसभा और लोकसभा चुनाव में दिल्ली में हुई दुर्दशा से कांग्रेस ने सबक लेने की कोशिश की है. कांग्रेस और शोएब इकबाल के इस कदम से राजधानी में पार्टी की स्थिति मजबूत होगी, क्योंकि शायद मुस्लिम वोट वापिस कांग्रेस की झोली में गिरें.

मुलायम सिंह आपराधिक तत्वों के हितों को साधने की कोशिश कर रहे हैं - रिहाई मंच

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By TCN News,

लखनऊ: मुलायम सिंह यादव द्वारा आजमगढ़ के मुस्लिम आबादी विहीन तमौली गांव को गोद लिए जाने पर रिहाई मंच ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा है कि मुलायम सिंह भी मोदी की राह पर चल रहे हैं. मंच ने आरोप लगाया है कि आरएसएस के सर्वे के आधार पर मोदी ने जिस तरह से वाराणसी के मुस्लिम आबादी विहीन जयापुर गांव को गोद लिया, ठीक उसी सर्वे के मुताबिक मुलायम ने भी मुस्लिम विहीन आबादी वाले गांव को ही चुना.



Mulayam Singh Yadav (Photo courtesy: The Hindu)

रिहाई मंच के अध्यक्ष मोहम्मद शुऐब ने कहा कि, ‘सपा मुखिया और आजमगढ़ से सांसद मुलायम सिंह यादव द्वारा सांसद आदर्श योजना के तहत गोद लिए गांव तमौली में कुल 3632 लोगों की आबादी है लेकिन इसमें एक भी मुस्लिम परिवार नहीं रहता है. जबकि मुलायम सिंह यादव खुद को धर्मनिरपेक्ष और मुसलमानों के विकास के लिए समर्पित होने का दावा करते हैं.’ उन्होंने कहा कि, ‘पिछले दिनों आए एक सर्वे में इस बात का खुलासा हुआ है कि भाजपा सांसदों ने संघ परिवार के सर्वे के आधार पर ऐसे ही गांव को गोद लिया है जिसमें मुस्लिम बिल्कुल नहीं हैं. ऐसे में मुलायम सिंह यादव द्वारा भी मुस्लिम विहीन गांव को गोद लेने से स्पष्ट हो जाता है कि मुलायम सिंह भी मोदी और आरएसएस की राह पर चल रहे हैं.’ उन्होंने कहा कि, ‘मुलायम सिंह को अब छुप कर संघ परिवार का एजेंडा लागू करने के बजाय संघ परिवार द्वारा मुस्लिम विहीन गावों के चयन वाले सर्वे को खुद जारी कर एक बार में ही अपने धर्मनिरपेक्ष होने के भ्रम को तोड़ देना चाहिए.’

रिहाई मंच के सदस्यों ने मुलायम सिंह द्वारा अपने 75वें जन्मदिन पर मुस्लिम आबादी विहीन तमौली गांव को गोद लेने को संघ परिवार को तोहफ़ा करार दिया. रिहाई मंच आजमगढ़ के प्रभारी मसीहुद्दीन संजरी ने कहा कि मुलायम सिंह को जवाब देना चाहिए कि संघ परिवार के सर्वे पर गांव को गोद लेकर क्या वे आरएसएस के हिन्दू राष्ट्रवादी एजेंडे से से सहमत हैं? उन्होंने कहा कि, ‘मुस्लिम विहीन गांव को गोद लेकर मुलायम ने साबित कर दिया है कि वे अकारण ही आडवानी की तारीफ नहीं करते हैं और उनकी मंशा भी पूरी तरह से संघ परिवार के सांप्रदायिक एजेण्डे को लागू करना है. जिस तरह से मुलायम सिंह ने मुस्लिम आबादी विहीन गांव को चुना है, उससे साफ है कि अगर सपा अपने विकास का खाका पेश करेगी तो ऐसी अल्पसंख्यक विरोधी उसकी और बहुत-सी योजनाएं जनता के सामने आ जाएंगी और सरकार की बची-खुची कलई भी खुल जाएगी.’ अपनी बात को आगे बढाते हुए संजरी ने कहा, ‘सपा सरकार ने गांवों का कैसा विकास किया है, उसे हम सबने मुजफ्फरनगर-शामली में हुई सांप्रदायिक हिंसा में देखा है.’

रिहाई मंच के नेता राजीव यादव ने कहा, ‘आजमगढ़ के जिस गांव तमौली को गोद लिया गया है, वह आजमगढ़ शहर से मात्र पांच किलोमीटर दूर है और आजमगढ़ के सैकड़ों पिछड़े गांवों से ज्यादा विकसित है. गौरतलब है कि तमौली गांव कभी भी पिछड़ेपन के कारण चर्चा में नहीं रहा है बल्कि पिछले कुछ सालों में आपराधिक गतिविधियों से जुड़े कुछ लोगों के कथित एनकाउंटर के कारण सुर्खियों में रहा है. जिससे सपा सरकार के प्रति उपजी नाराज़गी को संतुलित करने की यह कोशिश मात्र है. यानी विकास के नाम पर मुलायम सिंह आपाराधिक तत्वों के हितों को साधने का काम कर रहे हैं, जैसा कि उन्होंने सपा के शुरुआती दिनों में रमाकांत यादव, दुर्गा यादव, उमाकांत यादव, अंगद यादव जैसे आपराधिक छवि के नेताओं को सामाजिक न्याय के नाम पर पाला पोस कर किया था, जिसने रमाकांत जैसे साम्प्रदायिक तत्वों को जन्म दिया.’ राजीव ने आगे कहा कि, ‘सपा के मुख्य जनाधार यादवों को समझ लेना चाहिए कि मुलायम तमौली गांव को विकास के लिए नहीं बल्कि अपनी जातीय आपराधिक राजनीति को साधने के लिए कर रहे हैं जिसका नुकसान उन्हें ही उठाना पड़ेगा.’

क्या बनारस में फर्जी वोटों पर चुनी गयी सरकार?

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By सिद्धान्त मोहन, TwoCircles.net,

वाराणसी: हाल ही में बीते लोकसभा चुनाव में जिस वाराणसी संसदीय सीट से नरेंद्र मोदी ने भारी बहुमत से जीत दर्ज की, उस सीट के बारे में एक चौंका देने वाला खुलासा सामने आया है. भारतीय निर्वाचन आयोग द्वारा आदेशित जाँच के दौरान अब तक बनारस में 3,11,057 मतदाता फर्जी साबित हो चुके हैं.

ज्ञात हो कि बनारस यानी वाराणसी ही वह लोकसभा सीट है, जहां से नरेन्द्र मोदी ने चुनाव लड़ा और आम आदमी पार्टी के अरविन्द केजरीवाल को 3,71,784 वोटों से पराजित किया था. जिला प्रशासन का अनुमान है कि यह गिनती 6 लाख से ऊपर पहुंच सकती है.


Narendra Modi

इन फर्जी वोटरों का खुलासा तब हुआ, जब भारत निर्वाचन आयोग के निर्देश पर जिला प्रशासन ने मतदाता सूची का पुनरीक्षण अभियान शुरू किया. बनारस के सभी 8 विधानसभा क्षेत्रों में 11 मतदान केन्द्रों पर बने 2553 बूथों के अफ़सरों द्वारा घर-घर जाकर मतदाताओं का सत्यापन करवाने के बाद इन फर्जी मतदाताओं का खुलासा हुआ है.

हमने इस बाबत कांग्रेस के नगर अध्यक्ष प्रजानाथ शर्मा से बात की. प्रजानाथ शर्मा ने कहा, ‘देखिए, भाजपा और आरएसएस जहां-जहां होंगी, वहां यह स्थिति उभरेगी. यह इनका देशव्यापी अभियान है कि जीत दर्ज करने के लिए फर्जी वोटर जोड़ दिए जाएं. इन्होंने यहां प्रशासन को भी दबाव में ले लिया. इन घटनाओं के मद्देनज़र प्रशासन को भी सचेत रहना चाहिए.’ उन्होंने आगे कहा कि, ‘आप लिख लीजिए, चाहे तो आप सर्वे करवा लें. जिन-जिन जगहों पर इनकी सरकार है, वहां-वहां उन्होंने इस काम को अंजाम दिया है.’ भाजपा के चुनावी एजेंडे पर आते हुए प्रजानाथ शर्मा ने कहा, ‘यदि इनका ध्यान सचमुच विकास पर होता तो इन्हें जीत के लिए इन सब हथकंडों की ज़रूरत नहीं होती. ये ऐसे ही चुन लिए जाते. इन्होंने सीधे तौर पर इन फर्जी वोटरों का फायदा उठाया है, जो शायद नहीं होते तो नरेन्द्र मोदी को जीतने में काफी मशक्क़त करनी पड़ती. हमारी और कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ताओं की गलती भी है कि हम इन सब चीज़ों को लेकर सचेत नहीं थे.’

जिला प्रशासन की जांच की मानें तो पिंडरा में 1,12,160; अजगरा में 1,01,456; शिवपुर में 87,140; रोहनिया में 84,757; शहर उत्तरी में 61,795; शहर दक्षिणी में 42,866; कैंट में 65,969 व सेवापुरी में 90,942 फर्जी वोटरों की संभावना अभी भी बनी हुई है.

वाराणसी संसदीय सीट पर हुए चुनाव में भाजपा उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल को 3,71,784 वोटों के अंतर से हराया था. कांग्रेस उम्मीदवार अजय राय 75,614 मतों के साथ तीसरे स्थान पर, बसपा के विजय प्रकाश जायसवाल 60,579 वोटों के साथ चौथे और सपा के कैलाश चौरसिया 45,291 वोट हासिल कर पांचवे स्थान पर अपनी जगह बना पाए.

मतदाताओं को भिन्न-भिन्न तरीकों से प्रभावित करने और घोषणा पत्र में पत्नी जशोदा बेन के आय का ब्यौरा न देने का आरोप लगाते हुए कांग्रेस के प्रत्याशी और पिंडरा के विधायक अजय राय ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वाराणसी से निर्वाचन को चुनौती देते हुए याचिका दायर की थी, जिस पर अभी भी सुनवाई जारी है.

हुआ यूं कि निर्वाचन आयोग के निर्देश पर 1 जनवरी 2015 को 18 साल की उम्र पूरी करने वाले युवाओं का नाम वोटर लिस्ट में जोड़ने के साथ-साथ पुराने मतदाताओं के सत्यापन का काम शुरू हुआ. आगे 5 जनवरी 2015 को भारत निर्वाचन आयोग के निर्देश पर नई वोटर लिस्ट प्रकाशित होगी, जिसमें से इन फर्जी मतदाताओं को गायब कर दिया जाएगा.

एक ओर जहां कांग्रेस इन फर्जी वोटों को भाजपा का जनाधार बता रही है, वहीं भाजपा इसे अन्य पार्टियों के पाले में डालकर शायद बचने का प्रयास कर रही है. भाजपा के नगर अध्यक्ष टी.एस. जोशी ने कहा, ‘पहले हम एक बात साफ़ करना चाहते हैं कि यह सारे वोट फर्जी नहीं हैं, ये बोगस हैं. सालों से कोई सुधार ही नहीं हुआ है वोटर लिस्ट में. जो जहां है, वह चला आ रहा है.’ हमने उन्हें बताया कि यह तो बूथ-लेवल पर सर्वे के आधार पर बनी लिस्ट है तो उन्होंने कहा, ‘पहले जिस तरह से मैनुअल लिस्ट बनती थी, वह ज़्यादा प्रामाणिक थी. उसी आधार पर काम किया जाना चाहिए.’ भाजपा को मिले संभावित फ़ायदे के बारे में जोशी कहते हैं, ‘हम एक बात साफ़ कर देना चाहते हैं कि यदि मतदाता सूची सही होती तो श्री नरेन्द्र मोदी जी पाँच लाख से भी ज़्यादा मतों से जीतते. यह निर्वाचन आयोग की गलती है.’ फर्जी वोटर के प्रश्न को फर्जी वोटिंग से जोड़ते हुए उन्होंने कहा, ‘आपको क्या लगता है फर्जी वोटिंग आसान है? एकदम भी आसान नहीं है. कोई नहीं डाल सकता. जिनके नाम थे, वे तो वोट डाल नहीं पा रहे थे, फर्जी वोट कैसे पड़ेगा? यह सम्भावना ज़रूर हो सकती है कि यदि यह वोटर नहीं होते तो अन्य पार्टियों को बेहद कम वोट गए होते.’


AAP Fake Voter

इस फर्जीवाड़े के बाबत आम आदमी पार्टी ने अपने फेसबुक पेज पर पोस्टर लगाया है और लिखा है कि 'यह सवाल दिलचस्प है कि फर्जी वोटरों की इतनी बड़ी संख्या कहां से और किस मकसद से आई? निर्वाचन आयोग ने लोकसभा चुनाव से पहले इतनी बड़ी धांधली को क्यों नही पकड़ा?’

आम आदमी पार्टी का युवा चेहरा अलका लाम्बा TCN से बातचीत में कहती हैं, ‘यह गड़बड़ी बनारस के वोटर के साथ धोखा और फ्रॉड है. यह चुनाव आयोग का काम है. अब यह काम किसे फायदा पहुंचाने के लिए किया गया, उसकी जांच होनी चाहिए.’ सुश्री लाम्बा ने आगे कहा, ‘अनुमान के आधार पर मैं कह सकती हूं कि भाजपा की पूरी प्रतिष्ठा इस चुनाव से जुडी हुई थी. वे तो खुलेआम कहते थे कि हर हाल में हमें यह चुनाव जीतना है. इस हिसाब से भाजपा पर पूरा ध्यान जाता है.’ वे आगे कहती हैं, ‘लोगों को ईमानदारी और निष्पक्षता से अपनी सरकार चुनने का अधिकार होना चाहिए. यह लोकल वोटर के साथ धोखा है. यह पार्टी का नहीं बल्कि मेरा अपना निजी मत है कि चुनाव रद्द किए जाने चाहिए और फ़िर से वोटिंग कराई जानी चाहिए.’

सहायक जिला निर्वाचन अधिकारी दया शंकर उपाध्याय के अनुसार सबसे ज्यादा फर्जी वोटर कैंट विधानसभा क्षेत्र में मिले हैं. इनका नाम वोटर लिस्ट से बाहर किया जा रहा है. बीते लोकसभा चुनाव की सबसे हाई-प्रोफ़ाइल सीट बनारस में इतनी भयानक धांधली का पकड़ा जाना एक बड़ी घटना की तरह देखा जा रहा है.

नसबंदी का समाजशास्त्र

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By मोहम्मद आसिफ़ इक़बाल,

पिछले दिनों छत्तीसगढ़ बिलासपुर में केंद्रीय परिवार नियोजन कार्यक्रम के तहत नसबंदी कैंप लगाया गया. सभी को पता है कि सिर्फ़ छः घंटों में लगभग 83 महिलाओं की नसबंदी कर दी गयी, जिसका अंतिम अंजाम क्या हुआ, वह भी किसी से छिपा नहीं है. कई महिलाएं मारी गयीं और अन्य औरतों की हालत बिगड़ती चली गई. वहीं दूसरी तरफ़ इस घटना में इस्तेमाल एन्टीबायोटिक की प्रारंभिक जांच में चूहे मारने वाला केमिकल पाया गया है.

ज्ञात हो कि उक्त दवा बनाने वाली कंपनी को दो साल पहले ब्लैकलिस्ट किया जा चुका था, मगर प्रदेश सरकार उक्त निर्माता कम्पनी से अब भी दवाएं ख़रीद रही थी. एन्टीबायोटिक सिप्रोफ्लॉक्सासिन 500 मिलीग्राम की जांच से पता चला कि इसमें ज़िंक-फॉसफ़ाइड मिला हुआ था, जो चूहे मारने के लिए इस्तेमाल में लाया जाता है. दुर्घटना के बाद स्थानीय नागरिकों और विरोधी दल कांग्रेस के लोगों ने राज्य के स्वास्थ्य मंत्री अमर अग्रवाल की रिहायश बिलासपुर में घेराबंदी की. दूसरी तरफ सरकार ने कैंप में 83 से ज़्यादा महिलाओं का नसबंदी ऑपरेशन करने वाले डॉ. आरके गुप्ता और सीएमएचओ डॉ. भागे को बरतरफ़ कर दिया.


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Courtesy: TOI

नसबंदी का वाक़या और इसमें ग़ैरजिम्मेदाराना किरदार अदा करने वाले डॉक्टर के ताल्लुक़ से सवाल यह नहीं है कि सत्तारूढ़ और विपक्ष का मामला क्या है, बल्कि हमारी समझ के मुताबिक़ इस अवसर पर अवश्य यह सवाल उठना चाहिए कि नसबंदी की ज़रूरत किसको है और क्यों? वे कौन-से उद्देश्य हैं, जिनके अंतर्गत परिवार नियोजन के यह और इस तरह के अन्य प्रोग्राम चलाए जाते हैं? क्योंकि मामला परिवार नियोजन का नहीं है बल्कि मामला है कि ग़रीबों और जरूरतमंदों के अधिकार का किस तरह हनन किया जाए? महिलाओं पर जारी उत्पीड़न को कैसे जारी रखा जाए और वो आदरणीय महिला जिस को आज समाज ने अपमानजनक स्थान दिया है, वह किस तरह बाक़ी रहे? यदि ऐसा नहीं है, तो फिर क्यों जन्म से पूर्व भ्रूण हत्या की घटनाएं तेज़ी से बढ़ती जा रही हैं? क्यों महिलाओं का मान-सम्मान चोट खा रहा है और क्यों महिला उत्पीड़न में दिनोंदिन इज़ाफ़ा हो रहा है? ये वो प्रश्न हैं जो इस घटना और इस पर जारी सियासत की बाआसानी नज़र तो हो सकते हैं लेकिन ना विपक्ष और ना ही सत्तारूढ़ इन सवालों का पोस्टमार्टम करेंगे और ना ही किसी जांच की ओर कदम बढ़ाया जाएगा. इस अवसर पर उन लोगों को अवश्य आकर्षित होना चाहिए जो या तो राजनीति से ख़ुद को ऊपर समझते हैं या वो लोग जो मूल्यों पर आधारित राजनीति के इच्छुक हैं. लेकिन अगर ये दोनों ही किस्म के लोग और समूह ख़ामोशी इख्तियार करते हैं तो फिर यह बात स्पष्ट हो जाएगी कि दरअसल भाषण विशेषज्ञ न्याय की स्थापना में गंभीर नहीं हैं.

दरअसल परिवार नियोजन का मक़सद नस्ल की रोकथाम है. प्राचीनकाल में भी इसका अस्तित्व था लेकिन उस समय यह आंदोलन ज़्यादा संगठित नहीं था. उस दौरान नस्ल की वृद्धि को रोकने के लिए गर्भपात, बच्चों की हत्या और अन्य तरीक़े इख्तियार किए जाते थे. यूरोप में इस आंदोलन की शुरुआत अठारहवीं सदी के आख़िर में हुई. इसका पहला मुहर्रिक शायद इंग्लिस्तान का मशहूर अर्थशास्त्री माल्थस था. माल्थस के दौर में अंग्रेज़ी राष्ट्र की दिन-ब-दिन ख़ुशहाली की वजह से इंग्लिस्तान की आबादी तेज़ी के साथ बढ़नी शुरू हुई. माल्थस ने हिसाब लगाया कि यदि नस्ल अपनी स्वाभाविक रफ़्तार के साथ बढ़ती रहे तो ज़मीन इस आबादी के लिए तंग हो जाएगी, रोज़गार के संसाधन कम पड़ जाएंगे और इसलिए ज़रूरी है कि आबादी को आगे ना बढ़ने दिया जाए. इसके लिए माल्थस ने चर्च के पुराने तरीक़े इस्तेमाल में लाने का सुझाव दिया, यानी बड़ी उम्र में शादी की जाए और वैवाहिक जीवन में ज़बत से काम लिया जाए. इन ख़्यालात का इज़हार माल्थस ने अपनी पत्रिका ‘आबादी और समाज के विकास पर इसके प्रभाव’ में किया था. इसके बाद फ्रैन्चेज़ प्लास ने नैतिक स्रोत छोड़कर दवाओं और उपकरण के ज़रिए गर्भावस्था में रुकावट का सुझाव पेश किया. इस राय के समर्थन में 1833 में एक मशहूर डाक्टर चार्ल्स नौ लिटन ने प्लास का समर्थन किया और गर्भपात के चिकित्सकीय तरीक़ों की व्याख्या की और उनके फायदों पर ज़ोर दिया. उन्नीसवीं सदी के अंतिम तिमाही में एक नया आंदोलन उठा जो नवमाल्थियन आंदोलन कहलाता है. 1877 में एक संगठन की स्थापना हुई, जिसने गर्भनिरोधन के समर्थन में प्रसारण और प्रकाशन शुरू किया. इसके दो साल बाद मिसेज सेंट की किताब ‘जनसंख्या कानून’ प्रकाशित हुई. 1881 में यह आंदोलन बेल्जियम, फ़्रांस और जर्मनी में पहुंचा और इसके बाद धीरे-धीरे यूरोप और अमरीका में फैल गया. इसके लिए संगठनों की स्थापना हुई जो ज़बत विलादत के लाभ और व्यावहारिक तरीक़ों से अवगत किया करती थीं. दूसरी ओर भारत-पाक महाद्वीप में पिछले दशक से गर्भावस्था में रुकावट आन्दोलनों ने ज़ोर पकड़ा. सन् 1931 के जनगणना कमिशनर डॉक्टर हटन ने अपनी रिपोर्ट में भारत की बढ़ती आबादी को ख़तरनाक ज़ाहिर करने के लिए गर्भनिरोधन के प्रचार पर ज़ोर दिया और कुछ ज़्यादा समय नहीं बीता था कि हिन्दुस्तान ने इस आंदोलन को एक राष्ट्रीय नीति की तरह जज़्ब कर लिया.

हालांकि परिवार नियोजन के मुतल्लिक़ दुनिया के तमाम धर्मों में स्पष्ट आदेश और रोक मौजूद नहीं है, लेकिन फिर भी हरेक धर्म में अधिक संतान होने की प्रेरणा की गई है. इस्लाम, चूँकि सार्वभौमिक धर्म है, इसलिए क़ुरआन हकीम में एक से ज़्यादा मुक़ाम पर अल्लाह ताला फ़रमाता है कि: ‘औलाद को गरीबी के डर से क़त्ल ना करो’, इसी तरह इस्लामी विद्वान ‘अज़ल’ के ताल्लुक़ से लिखते हैं कि उसकी इजाज़त के मुतल्लिक़ जो रवायत हैं उनकी हक़ीक़त बस यह है कि किसी अल्लाह के बंदे ने महज़ अपनी मजबूरी और हालात बयान किए और आप सल्लाहो-अलाह-वस्सलम ने उस मसले को अपने सामने रख कर कोई मुनासिब जवाब दे दिया. उनका ताल्लुक़ सिर्फ़ व्यक्तिगत ज़रूरत और दुर्लभ स्थिति से था. गर्भनिरोधन की आम दावत-ओ-तहरीक हरगिज़ पेशे नज़र ना थी. ना ऐसे आन्दोलनों का मख़सूस फ़लसफ़ा था, जो अवाम में फैलाया जा रहा हो. ‘अज़ल’ से मुतल्लिक़ जो बात आप से मनक़ूल हैं उनसे अगर अज़ल का जवाज़ भी मिलता था तो हरगिज़ जनसंख्या नियंत्रण की इस आम के आंदोलन के हक़ में इस्तिमाल नहीं किया जा सकता, जिसके पीछे एक बाक़ायदा ख़ालिस भौतिकवादी फलसफा है. ऐसा कोई आंदोलन अगर आप सल्लाहो-अलाह-वस्सलम के सामने उठता तो यक़ीनन आप उस पर लानत भेजते. मौलाना मुफ़्ती मुहम्मद शफ़ी ‘ولا تقتلوا اولادکم خشیتہ املاق’ (औलाद को गरीबी के डर से क़तल ना करो) के ताल्लुक़ से लिखते हैं: “इस आयत-ए-करीमा से इस मामले पर भी रोशनी पड़ती है, जिस में आज की दुनिया गिरफ़्तार है.”

वो जनसंख्या बढ़ने के ख़ौफ़ से रोगाणुनाशन, वंध्यीकरण और जनसंख्या नियंत्रण को रिवाज़ दे रही है, उसकी बुनियाद भी इस जाहिलाना फलसफ़े पर है कि रिज़्क (खाना) का ज़िम्मेदार अपने को समझ लिया गया है, ये मामला भ्रूण हत्या के बराबर ना सही मगर इसके गलत होने में कोई संदेह नहीं है. तथ्य यह है कि नसबंदी हो या भ्रूण हत्या ये दोनों ही मामले समाज की इस ख़स्ताहाली को पेश करते हैं, जिसमें लड़की को एक बोझ समझा जाता है. लड़की की लड़के से कम स्थिति के कारण ही शादी के वक़्त बड़ी-बड़ी रकमें दहेज़ की शक्ल में दी जाती हैं. जबकि समस्याओं के समाधान और नवजात बच्ची की जान की हिफ़ाज़त के लिए हुकूमत विभिन्न योजनाएं चला रही है, इसके बावजूद आंकड़े बताते हैं कि हिन्दुस्तान में 1981 में जन्म से 6 साल की उम्र की बच्चों का औसत जो 1000: 962 था वो 1991 में 945, 2001 में 927 और 2011 में 914 ही रह गया है. वास्तव में भ्रूण हत्या, नसबंदी और परिवार नियोजन का यह एक पहलू है. जबकि दूसरी तरफ़ इसके आर्थिक व सामाजिक और नैतिक और संस्कृति खतरनाक प्रभाव क्या हैं? अगर वो भी जान लिए जाएं तो यह हक़ीक़त पूरी तरह सामने आ जाएगी कि इस नसबंदी के परिणाम में मुल्क अज़ीज़ विकास और समृद्धि की ओर नहीं बल्कि गिरावट और संकट में बुरी तरह घिरता जा रहा है. इस पूरी बातचीत की पृष्ठभूमि में ज़रूरत है कि नसबंदी के वाकये को हरसंभव पहलू से चर्चा के केन्द्र में रखा जाए.

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