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क्यों हाशिमपुरा नरसंहार पर आए फ़ैसले से उपजी असहमतियां?

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By सिद्धान्त मोहन, TwoCircles.net,

नई दिल्ली/ मेरठ: सोलह के सोलह अभियुक्तों को दिल्ली की अदालत ने शनिवार को दोषमुक्त करार देकर रिहा कर दिया. ये सोलह अभियुक्त पीएसी के जवान थे, ये सोलह पीएसी के जवान सन् 1987 के हाशिमपुरा क़त्ल-ए-आम के मुख्य अभियुक्त थे और पाठकों को यह भी याद दिला देना चाहिए कि इन सोलह अभियुक्तों पर 40 मुस्लिमों की हत्या करने का आरोप था.

27 साल से चले आ रहे हाशिमपुरा क़त्ल-ए-आम के मुक़दमे में मुख्य अभियुक्तों को बरी करते हुए एडिशनल सेशन जज संजय जिंदल की अदालत ने कारण बताते हुए कहा कि अभियोजन पक्ष दोषी पुलिसवालों की पहचान सिद्ध कर पाने में असफल रहा है.



(सौजन्य: इंडियन एक्सप्रेस )

यही कारण था कि अदालत ने सबूतों की कमी और संदेह-लाभ के ज़रिए सभी अभियुक्त पीएसीकर्मियों को बरी कर दिया. अपना फ़ैसला सुनाते हुए अदालत ने मामले को दिल्ली लीगल सर्विस अथॉरिटी को रेफर कर दिया ताकि सभी दोषमुक्त अभियुक्तों के पुनर्वास के प्रयास किये जा सकें.

हुआ कुछ यूं था...

अप्रैल में बाबरी मस्जिद के मसले पर उत्तर प्रदेश में साम्प्रदायिक दंगे भड़क गए. उत्तर प्रदेश का शहर मेरठ भी उनमें से एक था. प्रदेश प्रशासन ने स्थिति को काबू में करने के लिए जिले में पीएसी बल की तैनाती कर दी. साम्प्रदायिक तनाव काबू में आ जाने के बाद पीएसी को हटा लिया गया. बाद में 19 मई 1987 को मेरठ में फ़िर से दंगे भड़क गए. इसके बाद जिले में सीआरपीएफ की 7 व पीएसी की 30 टुकड़ियों की तैनाती फ़िर से कर दी गयी. स्थिति में कोई सुधार नहीं होता दिख रहा था. 20 मई को ‘देखते ही गोली मार देने’ के आदेश दे दिए गए.

22 मई 1987 को प्लाटून कमांडर सुरिंदर पाल सिंह की अगुआई में पीएसी की 41वीं बटालियन के 19 जवान मेरठ जिले के हाशिमपुरा मोहल्ले में जमा हो गए. बूढों और बच्चों को अलग करने के बाद उन्होंने लगभग 45 मुस्लिम लोगों को, जिनमें दिहाड़ी मजदूर और कामगार शामिल थे, गाज़ियाबाद के पास ले जाकर गोलियों से मार दिया गया. इस गोलीबारी में चार-पांच मुस्लिम अपनी जान बचा पाने में सफल रहे.

अगले ही दिन से मीडिया में बात आ जाने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और मुख्यमंत्री वी.बी. सिंह के दौरे के फलस्वरूप 1988 में उत्तर प्रदेश सरकार ने मामले की सीबीसीआईडी जांच के लिए कमेटी का गठन किया. इस कमेटी की सिफारिशों के आधार पर साल 1996 में गाज़ियाबाद जिला न्यायालय में चार्जशीट दाखिल की गयी और मामला दर्ज़ किया गया.

इस मामले को बाद में साल 2002 में मरने वालों के परिजनों की सिफारिश पर उत्तर प्रदेश से दिल्ली स्थानांतरित कर दिया गया. कुल 19 पीएसी के जवान इस मामले में अभियुक्त बनाए गए, जिसमें से तीन जवानों की ट्रायल के दौरान मौत हो गयी. बचे हुए सोलह जवानों को 21 मार्च को दोषमुक्त कर दिया गया.

मामले से जुड़े लोगों का क्या कहना है?...

मामले से जुडी हुई वकील और एक्टिविस्ट वृंदा ग्रोवर ने TwoCircles.net के संवाददाता मोहम्मद रेयाज़ से बातचीत में कहा, ‘केस को कमज़ोर करने और दोषियों को बचाने के लिए सरकार और पुलिस ने मिलकर जांच के दौरान लीपापोती की है. अभी पूरा फ़ैसला नहीं आया है. लेकिन माननीय जज ने अपना फ़ैसला पढ़ते वक्त यह कहा कि 42 मुसलामानों का बेरहमी से क़त्ल किया गया और यह राज्य सरकार व उत्तर प्रदेश पुलिस की जिम्मेदारी थी कि जांचकर दोषियों को कटघरे में खड़ा करे.’

यह पूछने पर कि क्या सपा सरकार से इस मामले में मदद की गुंजाइश बनती है, वृंदा कहती हैं, ‘चाहे कोई भी राजनीतिक दल हो, उन्हें मुस्लिम समाज की याद सिर्फ़ चुनावों के वक्त ही आती है.’ वे आगे कहती हैं, ‘दंगों या झूठी मुठभेड़ संबंधी मामलों में बेहद कम लोगों को ही इन्साफ मिल पाया है.’

वृंदा ग्रोवर के नज़रिए से देखें तो बात सही भी लगती है. गुजरात के फर्जी मुठभेड़ संबंधी मामलों में न्यायिक प्रक्रिया जिस तरीके से चल रही है, उसके बारे में सभी जानते हैं. भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की संलिप्तता मामले की सुनवाई करने वाले जज का स्थानांतरण कर दिया गया, उसके बाद एक के बाद एक सभी आरोपी दोषमुक्त कर दिए गए.

इस घटना में बचे हुए ज़ुल्फीकार नासिर इस फैसले के बाबत कहते हैं, ‘हमारी नज़र में यह फ़ैसला बिलकुल गलत है. हम 28 साल से इस उम्मीद में बैठे थे कि हमारे शहीद भाईयों को इन्साफ और उनकी रूह को सुकून मिलेगा.’ वे आगे कहते हैं, ‘जिस तरह से प्रदेश सरकार और पीएसी मिलकर मामले को कमज़ोर करने पर तुली हुई थीं, हमें डर तो था लेकिन उम्मीद नहीं थी कि ऐसा फ़ैसला आएगा.’

पूछने पर कि केस के दौरान सरकारी महक़मे का क्या रवैया था, ज़ुल्फीकार कहते हैं, ‘केस तो 2002 तक गाज़ियाबाद जिला न्यायालय में ही अटका रहा. हमनें याचिका दायर की तो सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद इसे तीस हज़ारी अदालत में स्थानांतरित किया गया. जो पहला सरकारी वकील मुहैया कराया गया वह भी लापरवाह था और वह इतना लापरवाह था कि अदालत ने भी उस पर 5000 रुपयों का जुर्माना ठोंक दिया. अब इस पूरे रवैये को आप क्या समझेंगे?’

‘आगे क्या’ के सवाल पर ज़ुल्फीकार व वृंदा, दोनों ही कहते हैं, ‘पूरा फ़ैसला आने के बाद हम ऊपरी अदालत में अपील करेंगे.’

जनता की आवाज़

रिहाई मंच के नेता राजीव यादव ने कहा कि हाशिमपुरा के आरोपियों के बरी हो जाने के बाद यह साफ हो गया है कि, ‘इस मुल्क की पुलिस मशीनरी तथा न्यायिक तंत्र दलितों-आदिवासियों तथा अल्पसंख्यकों के खिलाफ़ खड़ा है. चाहे वह बथानीटोला का जनसंहार हो या फिर बिहार के शंकरबिगहा में दलितों की सामूहिक हत्या, इस मुल्क के लोकतंत्र में अब दलितों-आदिवासियों और मुसलमानों के लिए अदालत से इंसाफ पाने की उम्मीद रखना ही बेमानी है.’

सोशल एक्टिविस्ट शबनम हाशमी का कहना है, ‘इस किस्म के फैसलों से मायूसी होती है. एक तो आप इन्साफ के लिए इतने सालों तक इन्तिज़ार करते हैं, और इन्साफ आता है तो पता चलता है कि इंसाफ़ मिला ही नहीं.’ वे आगे कहती हैं, ‘मेरे भाई को मारा गया, लेकिन लड़ाई लड़ते रहने के बाद कम से कम मुझे इतना तो संतोष है कि दोषियों को सजा मिली. यहां तो इतने इंतज़ार और लड़ाई के बाद भी सारे आरोपी दोषमुक्त साबित कर दिए गए. सोचकर ही डर लगता है कि कैसा लगता होगा मारे गए लोगों के परिजनों को.’

यह लड़ाई अकेली लड़ाई नहीं है, यह समाज के उस एक बड़े हिस्से की लड़ाई है जिसे हर बार घसीटने की क़वायद चली आ रही है. यह न्याय में भरोसा करके हर क़दम रखने वाले लोगों की लड़ाई है. समय बीतने के साथ ऊपरी अदालतों में अपीलें रखी जाएंगी, लेकिन जब तक प्रशासनिक स्तर पर कोई बड़ा खेल नहीं होगा, किसी संतोषजनक फैसले की गुंज़ाइश बेईमानी होगी.


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