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ग़ालिब की दिल्ली का दंगल

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By सिद्धांत मोहन, TwoCircles.net,

नई दिल्ली: किरण बेदी एसयूवी की छत पर खड़े होकर लोगों को स्याही से रंगी ऊँगली और विजय चिन्ह दिखा रही हैं. वे चारों दशरथ पुत्रों की तरह भरत-मिलाप के बाद आठों दिशाओं को अपने दर्शन मुहैया करा रही है. एसयूवी के सबसे करीब एबीपी न्यूज़ का संवाददाता है, लिहाज़न एबीपी न्यूज़ का माइक कमोबेश सभी न्यूज़ चैनलों के फ्रेम में दिख रहा है. पीछे से किसी कैमरामैन के चिल्लाने की आवाज़ आती है, ‘अरे, माइकवाले’. इसके साथ माइक नीचे आ जाता है और सभी को सुलभ दर्शन होने लगते हैं. कार के बोनट से सरकते हुए किरण बेदी नीचे उतरती हैं, सारे माइक धकेलते हुए कार की अगली सीट पर आ बैठती हैं, तभी फ़िर से एबीपी न्यूज़ का कैमरा ड्राईवर की खिड़की से घुसता है, और संवाददाता कहता है – ‘मैडम, दो सवाल हैं बस’. मैडम ध्यान नहीं देती हैं, तभी इंडिया न्यूज़ का माइक फ्रेम में दिखता है और एबीपी का कैमरामैन चीख उठता है – ‘अबे, इंडिया न्यूज़’.

बात बस इतनी न थी, संवाददाता ने पूछा, ‘मैडम, क्या आपको रातभर नींद आई?’

कहां है नींद, क्यों किरण बेदी से नींद के मुताल्लिक सवाल रखे गए, अपने जीवन का पहला चुनाव लड़ रही बेदी – जो ज़ाहिर है कि बेहद बड़े पद के लिए है – की नींद क्यों हराम होने लगी? नींद हराम होने का असल वक्त क्या है, चुनाव के एक रात पहले या चुनाव नतीज़ों के बाद आने वाली रात.



हम ओखला का सफ़र करते हैं, यहां एक पोलिंग बूथ पर मुस्लिम समुदाय के कई वोटर खड़े हैं. लगभग दस लोगों से बात होती है. दस में से चार कहते हैं – ‘हम फ़िरकापरस्ती के खिलाफ़ मत दे रहे हैं.’ अगले दो कहते हैं – ‘हम जनता के बीच के आदमी के लिए वोट कर रहे हैं.’ अगले तीन कहते हैं – ‘हमने उसे वोट दिया है जो हमारे बीच मौजूद रहा है, जो समय-समय पर मिलता करता रहा है’. आखिरी एक कहता है – ‘हम सभी के विकास के लिए वोट देंगे.’ वोटरों के इन बगैर नामोल्लेख के बयानों के कई मानी हैं, लेकिन कौन-कौन है जो इतने विशाल मतसंग्रह को एड्रेस कर रहा है.

अरविन्द केजरीवाल अपने पोलिंग बूथ पर मतदान करने पहुंचे और उन्होंने ज़्यादा कुछ नहीं कहा. थोड़ा मुखातब हुए और चलते बने. यह बात गौर करने की है कि वे इस बार वैगनआर के बजाय इनोवा से आए. कुछ के लिए यह तथ्य बहस का भी विषय हो सकता है. राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी सामने आती हैं. इनके बारे में यह कहा मशहूर था कि चूंकि राष्ट्रपति और नरेन्द्र मोदी के अच्छे संबंध हैं, इसलिए भाजपा ने शर्मिष्ठा मुखर्जी की सीट पर कोई ताकतवर उम्मीदवार नहीं खड़ा किया है. इसके साथ शर्मिष्ठ मुखर्जी कहती हैं, ‘चूंकि मैं राष्ट्रपति की बेटी हूं इसलिए मुझे मीडिया कवरेज फ्री में मिला है.’

ज़ी न्यूज़ ने मतदान के दिन ‘नसीबवाला vs मफलरवाला’ नाम से कार्यक्रम चला रखा है. वे गिने-चुने ट्वीट और फेसबुक कमेन्ट पढ़-पढ़कर दर्शकों को सुना रहे हैं. इस सारी सुनवाई का एक ही मकसद है, किसी भी तरीके से भाजपा के खिलाफ़ कोई भी माहौल न खड़ा होने दिया जाए. दो दिनों से ‘डेली न्यूज़ एंड एनालिसिस’ में सुधीर चौधरी तमाम किस्म की बातें कर रहे हैं. आशीष खेतान को उनकी औकात याद दिलाने के बाद अंजना ओम कश्यप ने फ़िर से सुर्ख़ियों में जगह बनायी है. ‘आज तक’ पर एक मिलाजुला माहौल है. सभी की बात और सभी का हिसाब.

दिल्ली के हालिया विधानसभा चुनाव ने बहुत सारे रंग बिखेरे हैं. इस पूरी लड़ाई का फल जैसा अपेक्षित था, वैसा ही मिला. आम आदमी पार्टी ने 70 में से सिर्फ़ तीन सीटों पर भाजपा को आने दिया, बाक़ी सभी पर वे खुद ही कब्जा कर गए. ‘आप’ की इस जीत को लेकर बहुत सारी बहसें हो रही हैं. थोड़ा और खुलकर कहें तो ‘आप’ की जीत से ज़्यादा भाजपा की हार बहस का मुद्दा बनी हुई है. भाजपा, जो लोकसभा चुनाव में खुद की घर-वापसी करने के बाद राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी अपनी जगह धीरे-धीरे बनाती जा रही थी, के लिए भी यह चुनावी रिज़ल्ट अप्रत्याशित था.

हुआ दरअस्ल यूं कि लोकसभा चुनाव में बुरी तरह से पिट जाने के बाद आम आदमी पार्टी ने दिल्ली की जनता से माफ़ी माँगी. अनुनय-विनय के बाद अरविन्द केजरीवाल और उनकी टीम ने ज़मीनी स्तर पर प्रचार शुरू किया. दिल्ली में पूरा पैसा, समूचा पार्टी कैडर और समस्त उपलब्ध संसाधनों को झोंक देने के बाद ‘आप’ को यह जनादेश प्राप्त हुआ है. ज़ाहिर है कि कांग्रेस और भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टियों ने राज्य दर राज्य विधानसभा चुनावों में अपना सारा समय लगा दिया. कांग्रेस की हर जगह जो भद्द हुई उससे सभी वाकिफ़ हैं लेकिन भाजपा इस शिगूफ़े का साफ़ शिकार हो गयी कि प्रचार का अल्पजीवी और हवाई तरीका दिल्ली विधानसभा में भी कारगर साबित होगा.

भगवा दामन पर दाग

दिल्ली चुनाव के नतीज़ों में ‘आप’ की ज़मीनी मेहनत के साथ-साथ भारतीय जनता पार्टी की गलतियां-बेवकूफियां भी शामिल हैं. आगे से पीछे की ओर चलें तो जिस गलती ने ‘ताबूत पर आखिरी कील’ की तरह काम किया वह था किरण बेदी को बतौर मुख्यमंत्री प्रत्याशी उतारना. प्रत्याशी बनने के ठीक एक दिन पहले किरण बेदी भाजपा की सदस्या बनी थीं. राजनीतिक अर्थों में कहें तो दिल्ली में मतदाताओं के लिए किरण बेदी पैराशूट कैंडिडेट थीं. उन्हें मुख्यमंत्री पद की दावेदार घोषित करने की पीछे संभावित मंशा अरविन्द केजरीवाल के ‘एंटी-करप्शन’ स्टैण्ड को काउंटर करने वाले चेहरे की ज़रूरत थी. अरविन्द केजरीवाल के साथ अन्ना आंदोलन में सहयोगी और बीते कुछ समय से मोदी की प्रशंसक रहीं किरण बेदी से मुफ़ीद प्रत्याशी भाजपा के लिए सुलभ नहीं था. लेकिन अपने नादानी से भरे बयानों, ‘सेल्फ प्रोजेक्शन’, राजनीतिक अनाड़ीपन, ताज़ातरीन और बचकानी बदलाववादी सोच के चलते किरण बेदी ने भाजपा की हालत और पतली कर दी.

घटनाक्रम में थोड़ा और पीछे चलें तो मोदी सरकार आने के तुरंत बाद ही हिन्दूवादी स्वर प्रबल हो गए. साक्षी महाराज, साध्वी निरंजन ज्योति, योगी आदित्यनाथ, मोहन भागवत और इनके साथ और कई लोगों ने कई विवादास्पद और गैर-सामाजिक बयान दिए. घर-वापसी और गोडसे के महिमामंडन ने भाजपा के मौजूदा लाइनअप के खिलाफ़ माहौल तैयार करने में रही-सही कसर पूरी कर दी, ऐसे में क्यों कोई कट्टरपंथ को सहारा दे रही और गवर्नेन्स के नाम पर छल रही पार्टी को अपना अमूल्य मत देगा?

हालांकि गलतियों का सिलसिला यहां ही नहीं खत्म होता है. पिछले विधानसभा चुनाव में विधानसभा भंग हो जाने के बाद दिल्ली राष्ट्रपति शासन के अधीन रही. मई में नई केन्द्र सरकार आने के बाद बेतहाशा अराजकता, अद्वितीय बिजली कटौती और आलस्य के चलते भाजपा दिल्ली में अपनी पकड़ धीरे-धीरे खोने लगी थी, जिसका उसे बिलकुल भी भान नहीं था.

कांग्रेस के उड़ते तोते

अपनी बची-खुची साख की लड़ाई लड़ रही कांग्रेस के लिए भी दिल्ली का चुनावी अध्याय बेहद बुरे सपने के सच होने सरीखा था. मटियामहल और ग्रेटर कैलाश, इन दो सीटों पर खड़े अपने उम्मीदवारों से कांग्रेस को एक छोटे-मोटे कमबैक की आशा थी. मटियामहल सीट पर हाल ही में जद(यू) से कांग्रेस में आए शोएब इकबाल चुनाव लड़ रहे थे, जबकि ग्रेटर कैलाश की सीट पर राष्ट्रपति की बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी लड़ रही थीं. शोएब इकबाल नतीज़ों में पहले रनर-अप रहे लेकिन शर्मिष्ठा मुखर्जी वह दर्जा भी हासिल नहीं कर पायीं. बल्लीमारान और ओखला की सीटों पर भी कांग्रेस को थोड़ा विश्वास था, लेकिन वहां भी क्रमशः हारून यूसुफ़ और आसिफ मोहम्मद खान जैसे नामों के होते हुए हार का ही सामना करना पड़ा. ओखला सीट पर अप्रत्याशित रूप से भाजपा के गैर-मुस्लिम प्रत्याशी ब्रह्म सिंह ने दूसरे स्थान पर कब्जा किया था. इस तरह से पूरी सत्तर सीटों की दिल्ली में सिर्फ़ चार सीटों पर ही कांग्रेस ने दूसरा स्थान हासिल किया. यह कहना गलत न होगा कि दिल्ली ने अपने लिए एक नया सेकुलर, ईमानदार और उपलब्ध शासन चुना है.

लोक का तंत्र

चुनाव नतीज़ों के पहले सभी टीवी चैनलों पर आ रहे एग्ज़िट पोलों में ‘आप’ चालीस के भीतर सीटें समेटती दिख रही थी, ‘आप’ के प्रवक्ता भी पूरे साहस के साथ और दस सीटों की बढ़त को अपने सर्वे में शामिल कर रहे थे, इसलिए मौजूदा नतीज़े ‘आप’ के लिए भी अप्रत्याशित हैं. इतने बीहड़ जनादेश के बाद अब अरविन्द केजरीवाल यह बहाना भी नहीं कर सकते कि सदन में बिल पास करने में विपक्षी दल सहयोग नहीं कर रहे हैं. उनके पास पूर्ण बहुमत है, वे इस परिस्थिति से भी काफी दूर हैं जब उनके विधायक टूटकर भाजपा में शामिल हो जाएं तो उनकी सरकार असंतुलित होने लगे.

लोकतंत्र की अपनी कलाबाज़ियाँ हैं, केन्द्र सरकार से पूर्ण सहयोग का आश्वासन मिलने के बाद भी सरकार के बारे में कोई खुशफहमी पालना एक मूर्खतापूर्ण जल्दबाज़ी होगी. ऐसा कहने का आधार यह भी हो सकता है कि चुनाव के नतीज़ों के ठीक अगले दिन आयकर विभाग ने ‘आप’ को पार्टी फंडिंग के मुद्दे पर नोटिस भेज दी है. अजय माकन ने हार की जिम्मेदारी लेते हुए पार्टी पद से इस्तीफा दे दिया है. किरण बेदी ने यह कह दिया है उनकी हार के जिम्मेदार इमाम बुखारी के फतवे हैं. चुनाव आयोग और प्रशासन को इमाम बुखारी के खिलाफ़ जल्द से जल्द कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए. इस चुनाव के बाद अरविन्द केजरीवाल का असल इम्तिहान होगा, उन्हें जनता की मांगों, अपने वायदों और समाज की हरेक तबके को फोकस में रखकर दिल्ली को पांच साल तक स्थायी और मजबूत सरकार का साथ देना होगा.


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