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दिल्ली चुनाव : छोटी गलती पर बड़ी पकड़

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By मो. आसिफ़ इक़बाल,

देश की राजधानी दिल्ली फ़िलहाल सियासी पार्टियों और उनके प्रत्याशियों का अखाड़ा बनी हुई है. हर तरफ शोर-शराबा, जलसे-जुलूस, भाषण और घोषणाएं मौजूद हैं, जिन्होंने दिल्ली में एक विचित्र माहौल पैदा कर दिया है. ऐसा नहीं है कि दिल्ली में पहली बार चुनाव होने जा रहे हैं. लेकिन इसके बावजूद देश की दो बड़ी राजनीतिक पार्टियां - सत्तारूढ़ भाजपा और पिछले पंद्रह साल दिल्ली में सरकार में रहने वाली कांग्रेस - दोनों ही कुछ हैरान-परेशान दिख रही हैं. इन दो सबसे बड़ी राजनीतिक दलों की इस परेशानी दिल्लीवाले पहली बार महसूस भी कर रहे हैं.

इस पृष्ठभूमि में अगर साल 2013 में हुए चुनाव को याद किया जाए, तो उस समय भी दिल्ली में राजनीतिक बिसात बिछी थी और उस समय भी यह राजनीतिक दल एक दूसरे के सामने थे. इसके बावजूद न उस समय इतनी अधिक परेशानी दिखाई दी थी और न ही इतना हो-हल्ला. तो फ़िर ऐसा क्या हुआ कि दिल्ली चुनावों के मद्देनज़र एक दूसरे को काट खाने को दौड़ रही कांग्रेस व भाजपा आज एक ही नाव में सवार दिख रही हैं. अब न तो कांग्रेस भाजपा के खिलाफ़ बहुत खुलकर सामने आ रही है और न ही भाजपा ‘कांग्रेस मुक्त दिल्ली’ का नारा देती दिख रही है.



दिल्ली वही और दिल्लीवाले भी वही, इसके बावजूद एक बड़ा परिवर्तन है, जो करीब और दूर से भी सबको बहुत अच्छी तरह नज़र आ रहा है. साल 2013 में एक नए राजनीतिक दल ‘आम आदमी पार्टी’ ने दिल्ली विधानसभा चुनाव में हिस्सा लिया. उस समय न लोगों को, न भाजपा व कांग्रेस को और न ही खुद उस नयी-नयी आयी पार्टी और उसके प्रतिनिधियों को ही यक़ीन था कि वह दिल्ली की राजनीति में एक बड़ी तब्दीली का माध्यम बन जाएंगे.

चूंकि उस समय माहौल शांत था और कांग्रेस अपने कुव्वत से अधिक का शासन कर चुकी थी इसलिए उसे सत्ता को लेकर कोई खास चिंता नहीं थी. लेकिन भाजपा इस दफ़ा अपनी पारी लेने के लिए तैयार थी. समस्या तो तब पैदा हुई, जब कांग्रेस को उम्मीद से बहुत कम सीटें मिलीं और अपनी पारी के लिए घात लगाए बैठी भाजपा के सामने से आम आदमी पार्टी अपने बहुतेरे प्रत्याशियों को सफ़लता का स्वाद चखा गयी. इसके साथ ही यह बात साफ़ होने में देर नहीं लगी कि दिल्ली के बाशिंदे परिवर्तन चाहते थे. वे न कांग्रेस पर आंखबंद भरोसा करते हैं और न भाजपा से कोई विशेष संबंध. और अब तो मसला यह है कि चूंकि ‘आप’ जैसा प्रतिद्वंदी खुलकर सामने आ चुका है, तो क्यों न लोकतांत्रिक व्यवस्था में शक्ति, धन, संसाधन, कैडर और वह सबकुछ - जो कुछ भी हो - वह सब दांव पर लगा दिया जाए.

लोकतंत्र के कई आयाम हैं. उन आयामों में यह भी है कि जनता द्वारा चुने गए सार्वजनिक प्रतिनिधि चाहे कितने ही दागी क्यों न हों, जनता उनके पक्ष में और उनके खिलाफ़ फैसला करने के लिए हक़दार हैं. लेकिन कल्पना करें एक ऐसे लोकतंत्र की, जहां हर तरफ बड़ी संख्या में आपराधिक चरित्र वाले और दागी उम्मीदवार मौजूद हों, ऐसे लोकतंत्र में जनता अपनी पसंद और नापसंद का निर्णय कैसे लेगी? संभव है कभी जनता यह देखे कि कम दागी कौन है? तो कभी क्षेत्र और जाति के आधार पर पसंद और नापसंद का फैसला हो, तो यह भी संभव है कि पसंद कोई हो ही नहीं. एकदम मुमकिन है कि कुछ नोट और कुछ शराब की बोतलें, उम्मीदवार की सफलता का स्रोत बन जाएं.

उम्मीदवार की सफलता का कारण कुछ भी हो लेकिन यह लोकतंत्र की ही खूबी है कि वह राज्य को एक ‘स्थिर सरकार’ प्रदान करता है. दिल्ली में प्रत्याशियों को एकबानगी देखने पर कई सारे समीकरण साफ़ हो जाते हैं. विधानसभा चुनाव में उतरे 673 उम्मीदवारों द्वारा नामांकन के दौरान दिए गए शपथनामों के आधार पर दिल्ली इलेक्शन वॉच और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म ने रिपोर्ट जारी की है. जिसमें 673 उम्मीदवारों की वित्तीय, आपराधिक और अन्य विवरण का विश्लेषण किया गया है. रिपोर्ट के अनुसार चुनाव में भाग लेने वाले कुल 673 उम्मीदवारों में से 117 ऐसे हैं, जिनके खिलाफ़ अलग-अलग थानों में आपराधिक मामले दर्ज हैं. 74 प्रत्याशियों के खिलाफ़ गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं. 8 उम्मीदवारों ने महिलाओं पर अत्याचार करने से संबंधित मामलों की जानकारी शपथपत्र में दी है. एक उम्मीदवार ने खुद पर हत्या और 5 उम्मीदवारों ने हत्या के प्रयास से संबंधित मामलों के दर्ज़ होने की घोषणा की है.

वहीं दूसरी ओर चुनाव में शामिल प्रमुख राजनीतिक दलों की बात की जाए तो भाजपा के कुल 69 उम्मीदवारों में 27 के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं, जिनमें 17 ऐसे हैं जिनके खिलाफ़ गंभीर मामले दर्ज़ हैं. आम आदमी पार्टी के कुल 70 उम्मीदवारों में से 23 के खिलाफ़ आपराधिक मामले दर्ज हैं, जिनमें से 14 गंभीर धाराओं के तहत मामलायाफ़्ता हैं. कांग्रेस के कुल 70 में से 21 के खिलाफ़ आपराधिक मामले दर्ज हैं, जिनमें 11 उम्मीदवार ऐसे हैं जिनके खिलाफ गंभीर मामले दर्ज हैं. यह वह स्थिति है जिसके होते हुए हम अपना प्रतिनिधि ‘अपनी पसंद से’ तय करेंगे, और यही खूबी लोकतंत्र के अस्तित्व की पहचान भी है.

दिल्ली की वर्तमान राजनीति और उसकी पृष्ठभूमि में कुछ मुख्य विशेषताएं सामने आ गई हैं. अब देखना यह है कि विधानसभा चुनाव क्या परिणाम देते हैं? परिणाम जो भी हों लेकिन यह बात तय है कि दिल्ली चुनाव की सफलता और विफलता के प्रभाव आगामी दिनों बिहार और उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों पर भी पड़ेंगे. यही कारण है कि एक तरफ सत्तारूढ़ भाजपा अपनी पूरी ताकत लगाए हुए है कि किसी तरह दिल्ली में वह बहुमत हासिल कर ले तो दूसरी तरफ आम आदमी पार्टी भी संघर्ष में पीछे नहीं है. कांग्रेस को उम्मीद है कि इस बार वही पुराना रिजल्ट उनके पास आएगा. सबके बावजूद कैडर और जनता पसोपेश में है. सर्वे के रुझान बता रहे हैं कि आम आदमी पार्टी सरकार बनाने के काफ़ी करीब है.

सभी बातों और रुझानों के साथ यह बात भी खूब अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि सरकार चाहे किसी की भी बने लेकिन विपक्ष भी मजबूत होना चाहिए क्योंकि लोकतंत्र में एक मजबूत विपक्ष बहुत महत्व रखता है, और यदि ऐसा न हो तो देश अराजकता का शिकार हो जाता है. वहीं दूसरी ओर अगर ऐसा हो कि एक नए शासन का वादा करने वाले दिल्ली की बागडोर पूरे पांच साल सम्हालें तो उन्हें भी सचाई से परखने का मौका मिल जाएगा. जो कल ही राजनीति में आए हों, उनकी गलतियों पर बड़ी पकड़ नहीं होनी चाहिए. पकड़ तो उनकी होनी चाहिए जो एक लंबे समय से राजनीतिक क्षेत्र में कार्य करते हुए लोक कल्याण की बात करते हैं, इसके बावजूद वह कभी भी अपनी व्यक्तिगत दुनिया संवारने से नहीं चूके.

(यह लेखक के अपने विचार हैं. उनसे maiqbaldelhi@gmail.comपर संपर्क किया जा सकता है.)
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