By TCN News,
लखनऊ : बाटला हाउस फर्जी मुठभेड़ की छठवीं बरसी पर समूचे मामले की न्यायिक जांच की मांग को लेकर रिहाई मंच द्वारा ’सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति और खुफिया एजेंसियों की भूमिका’ विषयक गोष्ठी का आयोजन यूपी प्रेस क्लब में शुक्रवार को किया गया. बतौर प्रमुख वक्ता प्रख्यात पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता गौतम नवलखा ने इस मामले के बरअक्स कई बातों पर प्रकाश डाला.
गौतम नवलखा ने कहा कि, ‘इस मुल्क में फर्जी एनकाउंटरों का सिलसिला बाटला हाउस से नहीं शुरू होता है. यह अमरीका में हुई 29 सितंबर 2001 की घटना के बाद भी भारत में नही शुरू होता. इसका एक पुराना इतिहास रहा है और हर राज्य में यह हुआ है. आपातकाल के दौरान सबसे ज़्यादा फर्जी एनकाउंटर आंध्र प्रदेश में हुए.’
गौतम नवलखा ने कहा कि, ‘उत्तर प्रदेश उपचुनाव में भाजपा के हिंदूवादी एजेंडे को एक धक्का भले लगा है, लेकिन यह तय है कि उनकी विषैली और विभाजनकारी राजनीति अभी खत्म होने वाली नहीं है. संघ और विश्व हिंदू परिषद आज भी उसी राजनीति पर कायम हैं. कई राज्यों मे उनकी सरकारें हैं. आज उनके लिए प्रशासन ‘सॉफ्ट’ हो गया है, उनकी मदद कर रहा है. पहले की एनडीए सरकार द्वारा तैयार किया हुआ पुलिस तंत्र वर्तमान भाजपा सरकार की मुट्ठी में है.’ साम्प्रदायिक हिंसा के इतिहास की ओर बढ़ते हुए उन्होंने कहा कि, ‘भारत में आतंकवाद की लड़ाई सन् 1980 में ही ’खालिस्तान’ के खात्मे के नाम पर शुरू हो चुकी थी. इस दौर में इंदिरा गांधी ने झूठ का सहारा लिया था और बेगुनाह नौजवानों पर जुल्म करवाए थे. उस दौरान कई युवकों पर फर्जी मुक़दमे भी दर्ज हुए और कई फर्जी एनकाउंटर भी हुए थे लेकिन दोषियों पर कोई कार्यवाही नहीं हुई. बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद पुलिस और प्रशासन के लोगों ने सांप्रदायिक तरीके से एक समुदाय विशेष के आम लोगों का फर्जी एनकाउंटर किया था.’
तमाम सुरक्षा तंत्रों के बाबत गौतम नवलखा ने कहा कि, ‘हिन्दुस्तान की न्यायप्रणाली में पिछले तीस सालों में बदलाव आए हैं. इस दौरान पुलिस और खुफिया एजेंसियों को व्यापक अधिकार दिए गए हैं. अपने ज़्यादतियों और धर्मरक्षित कामकाज के बाबत जब भी वे अदालत में खींचे गए, उनके मनोबल गिरने की दुहाई दी गई. सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भी कालांतर में इस ’मनोबल’ पर मुहर लगाई गयी थी. ऐसे में सुरक्षा बलों पर मुक़दमा तब तक नहीं चलाया जा सकता जब तक सरकार इसकी अनुमति न दे दे. इस लिहाज़ से यह प्रश्न उठता है कि आखिर यह ’मनोबल’ है क्या?’
बाटला हाउस फर्जी मुठभेड़ का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा, ‘इस घटना में मारे गए पुलिस अधिकारी मोहन चन्द्र शर्मा बिना बुलेटप्रूफ जैकेट के वहां कैसे पहुंच गए, यह एक बड़ा सवाल है. पुरस्कार की लालसा पुलिस वालों को अपने ही साथियों की हत्या करने के लिए ख़ूब उकसाती है.’ इस क्रम में कश्मीर पर आते हुए उन्होंने कहा, ‘पुरस्कार की होड़ भी एक कारण है कि आज पुलिस और खुफिया विभाग के लोग कश्मीर में फर्जी मुठभेड़ों को बेधड़क अंजाम दे रहे हैं.’
आतंकवाद की राजनीति के मद्देनज़र उन्होंने कहा, ‘बाबरी मस्जिद के विध्वंस के साथ ही ‘मुस्लिम आतंकवाद’ का कॉन्सेप्ट गढ़ा गया. यूएपीए और आतंक से लड़ने के नाम पर बनाए गए अन्य कानून अपने मूल में ही विभेदकारी हैं और उनका खात्मा करना सबसे बड़ी ज़रूरत है. मुसलमानों के मामले में हम साफ अंतर पाते हैं. यह संविधान की समता की भावना के खिलाफ है.’
बकौल गौतम नवलखा, ‘सुरक्षा एजेंसियों पर राजनैतिक दबाव होता है जो इस समस्या को और विकराल बना देता है. आज विभाजनकारी राजनीति ही भाजपा की कथित विकास की राजनीति का हिस्सा है. बड़े आर्थिक बदलावों से उपजने वाले विरोधों से ध्यान हटाने के लिए भी आतंकवाद का इस्तेमाल होता है. उत्तर प्रदेश में सपा सरकार खुद विहिप और संघ के लोगों की मदद कर रही है.’ वे आगे कहते हैं, ‘इस देश के मुसलमानों के लिए यह एक भयावह वक्त है. भाजपा केवल मुसलमानों के लिए नहीं, पूरे समाज के लिए हानिकारक है.
इसके बाद गोष्ठी के मूल एजेंडे के तौर पर निम्न पांच सूत्रीय प्रस्ताव पारित करते हुए मांग की गई -
1- बाटला हाउस फर्जी मुठभेड़ की न्यायिक जांच कराई जाए.
2- खुफिया एजेंसियों को संसद के प्रति जवाबदेह बनाया जाए.
3- बेगुनाह नौजवानों को आतंकवाद के फर्जी मामलों में फंसाने वाले पुलिस व खुफिया अधिकारियों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाए.
4- आतंकवाद के आरोप में बेगुनाह साबित हुए लोगों के लिए पुर्नवास और मुआवजा नीति घोषित की जाए.
5- सभी आतंकी घटनाओं की न्यायिक जांच कराई जाए.
पूर्व आईपीएस अधिकारी एसआर दारापुरी ने कहा, ‘राज्य तंत्र का जो पूरा ढांचा ही विभेदकारी है. उसमें दलितों, अल्पसंख्यकों और आदिवासियों की कोई भागीदारी नहीं है, जो कि फाशीवादी राजनीति की मददगार है.’
अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ पत्रकार अजय सिंह ने कहा, ‘आज देश की एकता बचाने के लिए ज़रूरी है कि हाशिए की आवाज उठाने वाले सभी लोग एक मंच पर आएं. फाशीवाद के निशाने पर सिर्फ मुसलमान ही नहीं हैं बल्कि आदिवासी, महिलाएं और दलित भी हैं. इनके बीच एकता तोड़ने के लिए साम्प्रदायिकता का इस्तेमाल हो रहा है.’