Mahmood for TwoCircles.net
दंगे का ज़ख़्म कैसे नासूर बन जाता है इसे बिहार के भागलपुर दंगा पीड़ितों से बेहतर कौन समझेगा.
24 अक्टूबर 1989... इतिहास के पन्नों में दर्ज वह दिन है जब भागलपुर सांप्रादायिक दंगों की आग में भभक उठा. हज़ारों की तादाद में आबाद बस्ती बर्बाद होने लगी. 15 जनवरी 1990 तक दंगों का यह हैवानी खेल बदस्तूर जारी रहा.
सैकड़ों बेगुनाह दीन और दुनिया दोनों से अलविदा हो गए. जो बचे अब उनके इम्तेहान की बारी थी. दंगों की मार खाए कई परिवार दर-बदर हो गए. कुछ ऐसे भी थे जिन्हें न भागने की जगह मिली न छिपने का ठौर. देखते-देखते वो दिन भी आ गया जब इस खूनी खेल से आजिज़ आकर लोगों को मजबूरी में अपना घर-बार भी छोड़ना पड़ा.
जो दंगे की इस आग से बच निकले वो आज भी मंज़र भूलते नहीं. दंगों के दौरान विस्थापित हो गए परिवारो में से दर्द में लिपटी एक परिवार की ऐसी ही कहानी जो आपके रोंगटे खड़े कर देगी...
एक आबाद, खुशहाल और रेशम के काम में डूबा हुआ मख़मली शहर यह नहीं जानता था कि एक दिन उसे भी हिंदू-मुस्लिम दंगे की आग में सुलगना होगा. इस क़दर लोग मजबूर होंगे कि बरसो की मेहनत से बने घर को भी हमेशा के लिए छोड़ देना होगा. जिस आंगन में बचपन बीता वह भी पराया हो जाएगा.
भागलपुर के सलामपुर में पले-बढ़े क़रीब 44 वर्षीय फ़रीद दंगे के भुक्तभोगी रहे हैं. दंगे के दौरान फ़रीद की उम्र महज़ 19 साल थी. पूरे परिवार का जिम्मा उन्हीं के कंधों पर था. दंगे के दौरान फ़रीद और उनकी पत्नी फ़ातिमा व बच्चों सहित पूरा परिवार डर के साए में एक-एक पल गुज़ार रहे थे. दंगे से उठी आग की लपट उनके घर को भी झुलसा रही थी. मजबूरन फ़रीद और उनके परिवार को विस्थापित होने का फैसला करना पड़ा.
यह आलम सिर्फ फ़रीद के लिए नहीं था, हर कोई गांव छोड़ देना चाहता था क्योंकि जिंदगी बचाने के लिए इसके अलावा दूसरा और कोई रास्ता ही न था.
दंगा पीड़ित फ़रीद कहते हैं कि –‘अपना घर भला कौन छोड़ना चाहता है, अगर हम वहां से न निकले होते तो ज़रूर इस दुनिया से रुख्सत हो जाते.’
फ़रीद की आंखों में आंसू छलक आए हैं... वो घड़ी बहुत मुश्किल थी जब हमने घर छोड़ने का फैसला किया. साहब हम क्या करते... ऐसी घड़ी थी कि दंगाई एक दूसरे का खून पीने को अमादा थे. हम लोग गरीब-गुरबा हैं. रोज़ कुआं खोदते हैं और रोज पानी पीते हैं. नन्हें बच्चों की फिक्र मुझे खाए जा रही थी.
फ़रीद सवाल करते हैं कि आखिर हमारा कसूर क्या था... फ़रीद का गला रूंध गया और बोले कि दंगे ने हमसे हमारा सब कुछ छीन लिया... अल्लाह...
लिखा-पढ़ी के लिए जिन हर्फों की ज़रूरत पड़ती है फ़रीद और उनका परिवार इससे महरूम है. फ़रीद फैसला तो कर चुके थे कि परिवार बचाना है तो घर छोड़ना होगा, लेकिन इससे भी मुश्किल सवाल उनके सामने खड़ा था कि जाएं तो जाएं कहां...
डूबते को तिनके का सहारा मिला. फ़रीद बांका ज़िले के हसनपुर गांव में पहुंच गए. यह गांव अमरपुर ब्लॉक में मौजूद है. पहले यह हलका भागलपुर के ही दायरे में था. अब यह गांव ज़िला बांका के दायरे में है.
दंगे के दौरान विस्थापित होकर यहां बसने वालों में फ़रीद और उनका परिवार अकेला नहीं था. क़रीब 32 गांवों से दंगा पीड़ित अपनी जिंदगी और दर्द का मंज़र साथ लेकर इस गांव में ठौर की तलाश में पहुंचे थे.
बंजर पड़ी ज़मीनों पर फ़रीद और दूसरे दंगा पीड़ितों ने अस्थाई डेरा जमाया. जब दंगे की आग शांत हुई तो दंगा पीड़ित फ़रीद सरीखों ने सलामपुर में अपने वालिदैन की खून-पसीने से बनाई गई ज़मीनों और घरों को औने-पौने दामों पर बेच दिया.
कम्बख्त जिंदगी रूकती नहीं... हसनपुर में अस्थाई डेरे को स्थाई बनाना था तो फ़रीद और उन जैसे दंगा पीड़ितों ने मुंह मांगी कीमतों पर एक से डेढ़ कट्ठा ज़मीनें खरीदीं. डेरा स्थाई हुआ लेकिन घर का ढांचा बनाने में भी पैसा लगता है, वह कहां से आता?
यह दौर 1995 का था. सियासत भी गर्म थी और फिज़ा में वादे ही वादे थे. निज़ाम और हुक्काम से मदद की आस में दंगा पीड़तों की उम्र गुज़रती रही, कैलेंडर बदलते रहे. और अब भी कहने को यही है कि अब तक कुछ न हुआ...
यह 2016 है. नए निज़ाम हैं. हिंदुस्तान की नई ईबारत लिखी जा रही है... सब कुछ नया-नया है. फ़रीद और उनके ज़ख्म 25 साल से भी ज्यादा पुराने हैं... बिना छत वाले घर में, खुले आसमां में फ़रीद और नौ बच्चों के साथ उनका परिवार डेढ़ कट्ठे की ज़मीन पर अपने दर्द को बयां करने के लिए तस्वीर खिंचवा रहे हैं.
पूछने पर फ़रीद कहते हैं कि देश के अर्थ-व्यवस्था में भले ही निखार हो. आप खुद हमारी माली हालत देख लें. साल की शुरुआत में ही 1 जनवरी, 2016 को सुबह आठ बजे मेरी पत्नी फ़ातिमा हादसे का शिकार हो गई.
इतने में फ़ातिमा कहती हैं कि हमारे इस घर के ऊपर से ये जो हाईटेंशन का तार है, यह टूट कर गिर गया था. इससे घर में आग लग गई और मैं बुरी तरह से झुलस गई...
फ़रीद टोकते हुए कहते हैं कि बताइए साहब! हमने इस बिजली का सुख कभी नहीं जाना, भले ही यह दूसरे का घर रोशन कर रही हो, लेकिन इसने हमारा घर तो जला दिया...
इस दंगे को लेकर सरकारी आंकड़े बताते हैं कि इस घटना में 1123 लोगों का क़त्ल-ए-आम हुआ था. परंतु गैर-सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़ कम-से-कम दो हज़ार लोगों का खून, पानी की तरह सड़कों पर बहा था.
हत्याओं, दंगा भड़काने और उसके बाद राज्यतंत्र की भूमिका पर कई गहरे सवाल उठाए जाते हैं, लेकिन इन सवालों का जवाब सरकार कभी आम जनता को नहीं देना चाहती है.
भागलपुर और उससे टूटकर बने नए ज़िलों के सैकड़ों भुक्तभोगी न्यायालय से आने वाले हर नए फैसले की ओर इस उम्मीद से निगाहें लगाए रहते हैं कि उन्हें देर-सबेर इंसाफ़ ज़रूर मिलेगा.
लेखक महमूद भागलपुर में जन्मे हैं. तिलकामाझी विश्वविद्यालय से स्नातक करने के बाद हाशिए के समाज को अधिकार दिलाने में जी जान से जुटे हैं और इस समय वो ‘मिसाल नेटवर्क’ का हिस्सा हैं. उनसे 8757947756 पर सम्पर्क किया जा सकता है.