By सिद्धान्त मोहन, TwoCircles.net,
‘अच्छे दिनों’ का बयाना लेकर आई भारतीय जनता पार्टी ने शायद सोचा भी नहीं था कि लोकसभा चुनाव में मिली इतनी करारी जीत के बाद उपचुनावों में लगभग उतनी ही करारी हार का सामना करना पड़ेगा. दस राज्यों में तीन लोकसभा और 33 विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजे सामने आ चुके हैं. इस उपचुनाव को बतौर प्रधानमंत्री, नरेन्द्र मोदी के इम्तिहान के तौर पर देखा जा रहा था. ऐसा इसलिए क्योंकि लोकसभा चुनाव में इतनी जबरदस्त जीत दर्ज करने के बाद भाजपा को उम्मीद थी कि प्रधानमंत्री की ‘करिश्माई ताकत’ की बदौलत वह इन चुनावों में कुछ कमाल कर दिखाएगी, लेकिन मौजूदा परिणाम कुछ और ही कहानी बयां कर रहे हैं.
इन चुनाव के परिणामों में जो कुछ भी दाँव पर लगा था, वह न तो किसी प्रत्याशी की जमानत थी और न साख. दांव पर लगने वाली चीज़ थी तो हाल ही में बीते लोकसभा चुनाव में भाजपा के नेतृत्व का 56 इंच का सीना. चुनाव परिणामों के मद्देनज़र बात करें तो उत्तर प्रदेश की कुल 11 सीटों में से 8 सीटों पर समाजवादी पार्टी ने झण्डा गाड़ दिया, जिसमें मैनपुरी की सबसे आसान लोकसभा सीट के साथ नरेन्द्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी का रोहनिया जैसी दुर्लभ सीट शामिल है. जिन ग्यारह सीटों पर उत्तर प्रदेश में चुनाव हुए, वे सभी सीटें 2012 में हुए चुनाव के समय से भारतीय जनता पार्टी के कब्ज़े में थीं. इस बार भी भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी ने आमचुनाव में मिली जीत के जोश में आकर दावा कर दिया कि यह सभी सीटें अविजित हैं, लेकिन उपचुनाव के नतीजों ने भाजपा पदाधिकारियों और प्रचारकों के चेहरों की हवा उड़ा दी है. बिजनौर, ठाकुरद्वार, सिराथू, चरखारी, बल्हा, हमीरपुर, निघासन और रोहनिया के साथ-साथ मैनपुरी संसदीय सीट को समाजवादी पार्टी ने अपने कब्ज़े में कर लिया है.
भाजपा के उत्तर प्रदेश के ‘फायर-ब्रांड’ प्रचारक योगी आदित्यनाथ ने घूम-घूमकर साम्प्रदायिक रूप से भड़काऊ वक्तव्य दिए, जिससे भाजपा को यह उम्मीद बंध गयी कि रही-सही वोटों की कसर ‘लव-जिहाद’ से भयभीत लोग पूरी कर देंगे. लेकिन प्रचार का यह निकृष्ट फंडा भी भाजपा को पुरानी साख लौटा पाने में विफल रहा. चुनाव के नतीज़े आते ही अपनी साख बचाने की नीयत से आनन-फानन में योगी आदित्यनाथ ने बयान जारी कर दिया कि जिन-जिन सीटों पर उन्होंने प्रचार किया है, उन दोनों सीटों पर भाजपा ने विजय हासिल की है. साथ ही उन्होंने आयोग और प्रशासन को आड़े हाथों लेते हुए कहा है कि यदि उन्हें प्रचार से रोका न गया होता तो वे पार्टी को बड़ी जीत दिला सकते थे. लेकिन सांसद योगी आदित्यनाथ शायद यह भूल रहे हैं कि उन्होंने ‘अपना दल’ के समर्थन में वाराणसी की रोहनिया विधानसभा सीट पर भी प्रचार किया था, जिसे वे बेतरह हार गए.
रोहनिया विधानसभा सीट को पूरे उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणामों के उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है क्योंकि बनारस से लगी हुई यह सीट भाजपा की नाक की लड़ाई थी. यह सीट भी एक रोचक किस्सा रचती है. इस सीट से एमएलए अपना दल की अनुप्रिया पटेल ने लोकसभा चुनाव के पहले भारतीय जनता पार्टी को समर्थन दे दिया. अनुप्रिया पटेल का भी ध्येय साफ़ था, उन्होंने ऐसा इसलिए किया क्योंकि उन्हें मिर्जापुर की सीट से संसदीय चुनाव लड़ना था, जिसमें उन्हें जीत भी मिली. लेकिन इसी के साथ उन्हें रोहनिया की विधानसभा सीट छोड़नी भी पड़ी, जिस पर बीती तारीख में चुनाव हुए. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की बनारस से जबरदस्त जीत के बाद अपना दल और भाजपा का गठबंधन रोहनिया में भी जीत के लिए आश्वस्त था, लेकिन अपने भौगोलिक-सामाजिक परिवेश में मूलतः ग्रामीण क्षेत्र रोहनिया ने किसी राष्ट्रीय पार्टी के बजाय प्रदेश स्तर की पार्टी का साथ थामना ज़्यादा ज़रूरी समझा जहां सपा के मंत्री सुरेन्द्र सिंह पटेल के भाई महेंद्र सिंह पटेल को विजय हासिल हुई. ऐसे में प्रश्न उठता है कि रोहनिया में भाजपा से कहां चूक हुई? रोहनिया में भाजपा ने अपना कोई प्रत्याशी खड़ा करने के बजाय अपने सहयोगी अपना दल को समर्थन दिया. भाजपा के हाई-फाई चुनाव प्रचार की हनक नगरी क्षेत्रों में ही सिमटी रही. दरअसल, कांग्रेस और भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टियों की पहुंच ग्रामीण इलाकों में है ही नहीं, और जिसके समर्थन में ये पार्टियां प्रचार करती हैं ऐसे कई इलाकों में जनता को समझ ही नहीं आता कि कैसे किसी एक के पक्ष में खड़ा हुआ जाए, क्योंकि गठबंधन का गणित आम जनता की समझ से परे है. ऐसे में ज़ाहिर है कि जनता सपा, बसपा और अपना दल जैसी क्षेत्रीय पार्टियों के साथ जाना ज़्यादा पसंद करेगी लेकिन इस होड़ में अपना दल पहले ही बाहर हो जाता है क्योंकि भाजपा से सहयोग और बीते सवा तीन महीनों में प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र में नहीं हुए किसी भी कार्य ने लोगों में थोड़ी अरुचि पैदा कर दी. कांग्रेस के प्रचार की कमी ने भी कांग्रेस को नुकसान पहुंचाने का कार्य किया. लेकिन इसी के साथ इस क्षेत्र की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी सपा ने अपना झण्डा बुलंद कर दिया. अपना दल की इस हार के बाबत हमने भाजपा के महानगर अध्यक्ष टीएस जोशी से बात की तो सुना-सुनाया बहाना सुनने को मिला. टीएस जोशी ने कहा, ‘देखिए प्रदेश सरकार सपा की है, स्थानीय प्रशासनिक महकमा सपा का है, उस इलाके के थानाध्यक्ष से लेकर चौकी इंचार्ज तक ‘यादव’ हैं, ऐसे में कैसे सही परिणाम आएंगे. इन लोगों ने पानी की तरह पैसा बहाया है, सरकारी तन्त्र का दुरुपयोग किया है. हमें खबर यह भी मिली है कि कई मशीनों के सील टूटे हुए थे, इस लिहाज़ से परिणाम तो एकतरफ़ा ही होंगे.’ फ़िर हमारे द्वारा हाल ही में जब बनारस से नरेन्द्र मोदी की जीत का हवाला दिया गया, तो टीएस जोशी कहने लगे, ‘अब देखिए हार क्यों हुई, कैसे हुई ये विचार का विषय है. अभी हम लोग पूरा समय देकर बूथवार परिणाम देखेंगे, तभी सही कारण सामने आएंगे. हमारी पार्टी का कोई भी उम्मीदवार नहीं था, फ़िर भी हम लोग पूरी मेहनत से लगे हुए थे. अब हार ही ऐसी हुई है कि हम लोग भी सकते में हैं.’ रोहनिया क्षेत्र के ही वोटर रमेश लाल से बात करने पर वे बताते हैं, ‘हम लोग तो उसी को वोट देंगे जो यहां रहकर काम करेगा. अनुप्रिया जी को दिए थे तो वो छोड़कर चली गयीं. अब किसी ऐसे आदमी को दिया जाए, जो यहां रहे.’ इलाके के अन्य वोटर भी ऐसी ही मिली-जुली राय देते हैं. जब हमने रोहनिया से पूर्व विधायक और अपना दल की अध्यक्षा अनुप्रिया पटेल से भी बात की तो लगभग वही जवाब मिला, ‘इस चुनाव परिणाम में बात करने लायक बचा ही क्या है? इस एक छोटे-से चुनाव में इतनी गड़बड़ियाँ हुई हैं कि जिनकी कोई सीमा नहीं है. एकाध मशीनों की सील टूटी होती तो हम समझते कि मानव-भूल है, लेकिन यहां कई सारी मशीनों की सील टूटी हुई थी. यह कोई छोटी-मोटी गडबड़ी नहीं थी, जानबूझकर ऐसा किया गया है. सारा कुछ हमारे पक्ष में था, वोटिंग के दिन ही हम लोगों को अपनी जीत पुख्ता हो गयी थी. लेकिन काउंटिंग के वक्त सील टूटी मशीनें देख जब हमने पर्यवेक्षक से शिक़ायत की और उन्होंने कोई कार्यवाही नहीं की, तो हम समझ गए सब कुछ पहले ही तय हो चुका है. हमने चुनाव आयोग से शिकायत की है. जनता की अदालत में हम चुनाव हार ही चुके हैं, लेकिन अब यह लड़ाई असली अदालत में लड़ी जाएगी.’ इस क्रम में रोहनिया में कांग्रेस प्रत्याशी भावना पटेल भी धांधली के आरोप लगाती हैं, ‘इस चुनाव में लोकतन्त्र की हत्या हुई है. धांधली का कोई हिसाब ही नहीं है. सारे इवीएम के सील टूटे हुए थे, काउंटिंग मशीनों के भी सील टूटे थे. काँग्रेस के परम्परागत वोट भी इवीएम से डिलीट हो गए. हम रोहनिया में पुनर्मतदान की मांग करते हैं.’
Anupriya Patel
यदि एक बार विरोधी दल के प्रत्याशियों के धांधली वाले आरोप को सच मान भी लिया जाए तो क्या उत्तर प्रदेश के सभी आठ जिलों में इस टैम्परिंग को अंजाम दिया गया, और क्या अन्य राज्यों की उन सीटों पर जिन पर कांग्रेस ने जीत दर्ज की है, वहां भी धांधली हुई. प्रत्याशियों-पदाधिकारियों के बयान को देखते हुए यह साफ़ हो जाता है कि भाजपा ने भी ऐसी बुरी हार की कल्पना नहीं की थी. जिन बाकी सीटों पर सपा ने जीत दर्ज की, उन पर भी ग्रामीण परिवेश ने ही भाजपा का नुकसान किया. भाजपा ने राष्ट्रीय राजनीति के चक्कर में इन क्षेत्रों को दरकिनार किया, जिससे ये नौबत आ गयी.
अन्य राज्यों की ओर रुख करें तो गुजरात और राजस्थान दोनों राज्यों में कांग्रेस ने भाजपा से तीन-तीन सीटें छीन लीं. पश्चिम बंगाल को छोड़ लगभग चुनाव से गुज़रे हरेक राज्य में भाजपा का धड़ा कमज़ोर होता दिख रहा है. और पश्चिम बंगाल में जो जीत भाजपा को मिली है, वह भी दो सीटों में से सिर्फ़ एक पर. ऐसे भी भाजपा के अच्छे दिनों के गुब्बारे की हवा निकलती नज़र आ रही है. सामाजिक मुद्दों के जानकार कहते हैं कि यदि भाजपा ने इस बार भी विकास के मुद्दे को हथियार बनाया होता, तो जीत निश्चित होती. लेकिन उन्होंने उत्तर प्रदेश की जनता को मूर्ख समझते हुए ‘लव-जिहाद’ जैसे ओछे साम्प्रदायिक मुद्दों को हथियार बनाया, जिसके कारण उन्हें यह परिणाम भुगतना पड़ा. परिणामोपरांत आ रहे भाजपा के आधिकारिक बयान यह ज़ाहिर कर रहे हैं कि भाजपा अन्य राज्यों में होने वाले चुनावों के मद्देनज़र अपनी गलतियों में सुधार करना चाहती है. लेकिन इसके लिए भाजपा को सबसे पहले अपने लम्बी जीभों वाले सांसदों और पदाधिकारियों पर लगाम लगाना होगा, इसके साथ भाजपा की दलित और मुस्लिम विरोधी छवि का परिष्कार किये बगैर उत्तर प्रदेश जैसे कठिन राजनीतिक क्षेत्रफल में विजय मुमकिन नहीं है.