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आज भी ख़ौफ़ज़दा है आज़मगढ़ का संजरपुर

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Afroz Alam Sahil, TwoCircles.net

आज़मगढ़ के संजरपुर में घुसते हुए कहीं से भी नहीं लगता कि यह अलग गांव है. वैसे ही चौड़ी सड़कें, लहलहाती फ़सलें, मिठाई की दुकानें, बाज़ार में दुकानदारों का शोर, खेल के मैदानों में क्रिकेट टूर्नामेंट खेलते नौजवान और इस खेल को देखने के लिए हज़ारों की भीड़…

Sanjarpur

यानी सबकुछ वैसा ही है, जैसा किसी बड़े गांव में होता है. बल्कि कुछ मामलों में संजरपुर देश के बाक़ी गांव से काफ़ी आगे मालूम पड़ता है. यहां बात करने पर लोग भी बड़ी बेतकल्लुफ़ी से जवाब देते हैं. कहीं से भी यह नहीं लगता कि यहां लगभग 8 साल पहले कुछ असामान्य हुआ था.

लेकिन हम जैसे ही संजरपुर के भीतरी हिस्सों में दाख़िल होते हैं. इस गांव के माथे पर लगे दाग़ का असर भी महसूस होने लगता है. छिपी हुई हक़ीक़त आंखों में चुभने लगती है. संजरपुर की हक़ीक़त यही है कि यहां का युवा आज भी ख़ौफ़ व दहशत के माहौल में उम्र काट रहे हैं. यहां के बुजुर्ग अपने उन बच्चों के बारे में बेहद फ़िक्रमंद और डरे हुए हैं, जो ‘आतंक’ के ‘कनेक्शन’ में पकड़े गए और सालों से अदालत के फैसले के इंतज़ार में जेल के सलाखों के पीछे सड़ रहे हैं.

Sanjarpur

स्पष्ट रहे कि आज़मगढ़ के 2 लड़के बटला हाउस ‘एनकाउंटर’ में मारे गए. उसके बाद कुल 15 लड़के गिरफ़्तार हुए. पहले 7 फ़रार थे, लेकिन 2012 में एनआईए ने एक एफ़आईआर में दो को और फ़रार घोषित किया. संजरपुर की विडंबना ये है कि बटला हाउस ‘एनकाउंटर’ में जितने युवक मारे गए, उसके बाद जितने पकड़े गए और जितने फ़रार बताए गए हैं उनमे से अधिकांश यहीं के रहने वाले हैं.

पीड़ित परिवार से जुड़े शादाब अहमद उर्फ मिस्टर भाई TwoCircles.netसे एक लंबी बातचीत में बताते हैं कि –‘पहले जब केस दिल्ली के तीस हज़ारी कोर्ट में था, तब उसकी रफ़्तार तेज़ थी, लेकिन एक साल पहले जबसे स्पेशल सेल से जुड़े केसों को पटियाला कोर्ट में शिफ्ट कर दिया गया है, तब से हमारे केस की रफ़्तार काफी धीमी हो गई है.’

वो बताते हैं कि –‘सुनवाई की रफ़्तार इतनी धीमी है कि फैसले की उम्मीद दूर-दूर तक नज़र नहीं आ रही है.’ उनके मुताबिक़ अभी 300 से 400 गवाहियां होनी बाक़ी हैं.

मिस्टर भाई सीने में दबे अपने ग़म को छिपाने के लिए चेहरे पर हर समय मुस्कुराहट रखते हैं, लेकिन बात करते हुए उनके सीने का दर्द साफ़ झलक रहा है. उनके दर्द का अंदाज़ा आप इस बात से ही लगा सकते हैं कि जहां एक तरफ़ छोटा लड़का सैफ़ जेल के सलाखों के पीछे बंद है, वहीं बड़ा लड़का डॉक्टर शाहनवाज़ फ़रार बताया जा रहा है. एक तरफ़ बेटा सैफ़ सलाखों के अंदर पुलिस का ‘टार्चर’ झेल रहा है, तो बाहर पिता समाज व खुफिया विभाग व पुलिस का ‘टार्चर’ झेल रहे हैं.

यह कहानी सिर्फ़ सैफ़ के परिवार की ही नहीं है. बल्कि संजरपुर में कई ऐसे परिवार हैं, जिनके घर के युवाओं के ख़िलाफ़ दिल्ली, अहमदाबाद और जयपुर में हुए बम धमाकों में हाथ होने के आरोप है.

मो. शाकिर जो फ़रार घोषित हुए बड़ा साजिद के भाई हैं, का कहना है कि –‘बार-बार साजिद के मरने की ख़बरें अख़बारों में आती हैं, तो कम से कम पुलिस उसकी लाश को ही हमें सौंफ देती, ताकि हमें तसल्ली तो हो जाती.’

वहीं मो. राशिद जो फ़रार घोषित हुए मो. खालिद के बड़े भाई हैं, बताते हैं कि –‘खालिद का तो कुछ अता-पता नहीं है, लेकिन अख़बारों में इसके कभी यहां कभी वहां होने की ख़बरें छपती रहती हैं. अभी ख़बर आई थी कि वो सीरिया में हैं. अब आप ही सोचिए, अगर वो पुलिस की गिरफ़्त में नहीं होता तो घर से सम्पर्क तो ज़रूर करता.’

संजरपुर की हालत यह है कि इस गांव के लोगों को आतंक के ठप्पे के चलते वो बुनियादी हक़ व हक़ूक़ भी नसीब नहीं है, जो इस देश के आम नागरिकों को हासिल है. आज भी यहां के युवक पासपोर्ट के ख़ातिर तरस रहे हैं. राशन कार्ड से लेकर वोटर आईडी कार्ड तक बनवाने में इन्हें अपनी ज़ेहनियत साबित करने के लिए तमाम तरह के सबूतों की दरकार होती है. क्योंकि सरकारी एजेंसियां इन्हें हमेशा शक की निगाह से देखती हैं.

सामाजिक कार्यकर्ता मसीहुद्दीन संजरी बताते हैं कि –‘जिन परिवारों के बच्चों के नाम किसी भी रूप में तथाकथित ‘आतंक’ के साथ जुड़ गया है, उनके यहां पासपोर्ट बनना लगभग नामुमकिन सा है. लेकिन उसके अलावा यहां के अन्य लोगों से भी एक्सट्रा डॉक्यूमेंट्स मांगे जाते हैं, जो आमतौर पर दूसरे ज़िलों में नहीं मांगा जाता’

संजरी बताते हैं कि –‘आज भी देश के अन्य भागों में आज़मगढ़ के बच्चों को परेशान किया जाता है. यहां के बच्चों का तालीम काफी ज़्यादा मुतासिर हुआ है. अब कोई भी अपने बच्चों को पढ़ने के लिए बाहर भेजना नहीं चाहता. वहीं रोज़गार भी खासा असर पड़ा है. युवाओं में बेरोज़गारी बढ़ी है. पासपोर्ट न बनने की वजह से कोई विदेश भी नहीं जा पा रहा है.’

हैरानी इस बात की है कि इनके हक़ में शोर करने वाली तमाम आवाज़े भी अब ख़ामोश हो चुकी हैं. न कोई इन्हें देखने आता है और न कोई इन्हें सुनने आता है. दूसरी तरफ़ आईएस जैसी आसमानी आफ़त इनके उपर साये की तरह मंडराने लगी है. क्योंकि खुफ़िया एजेंसिया इस ‘आफ़त’ को इनके सर पर मढ़ने की क़वायद में जुट चुकी हैं. अख़बार के रंगीन पन्नों में अभी से इन साज़िश की बू साफ़ दिखाई दे रही है.

Sanjarpur

संजरी बताते हैं कि –‘एक बार फिर आज़मगढ़ को बदनाम करने की साज़िशें सामने आने लगी हैं. हिन्दी अख़बारों में आज़मगढ़ से संबंधित तरह-तरह की ख़बरें आ रही हैं. 2015 -सितम्बर के महीने में यह ख़बर यहां के अख़बारों में आई कि आज़मगढ़ का एक लड़का आईएस के लिए लड़ रहा है, पर अब वो वापस आना चाहता है. जब इस संबंध में यहां के अधिकारियों से सम्पर्क किया गया तो उन्होंने इस बात से इंकार दिया कि किसी ने उनसे कोई सम्पर्क किया है. अख़बार में छपे इस ख़बर की पुष्टि अब तक नहीं हो पाई है कि वो लड़का कौन है? आज़मगढ़ में कहां का रहने वाला है?’

संजरपुर के बुजुर्गों की विडंबना यह है कि उन्हें जिस न्याय-तंत्र से उम्मीद है, उसकी रफ़्तार इतनी धीमी है कि उन्होंने यह उम्मीद भी छोड़ दिया है कि उनके ज़िन्दा रहते अदालत का कोई फैसला आ पाएगा.


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