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‘जनता दल’ के अवतरण में अल्पसंख्यक समुदाय की निर्णायक भूमिका

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By सिद्धान्त मोहन, TwoCircles.net,

नई दिल्ली : आज नरेन्द्र मोदी और भाजपा के विजय रथ पर लगाम लगाने के लिए जनता दल के पुनर्गठन और सक्रिय राजनीति में साझा रूप से प्रवेश करने के कयासों को पुख्ता कर दिया गया. सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव के साथ हुई बैठक में सपा, राजद, जदयू, जदस और आईएनएलडी ने फ़िर से एक होकर जनता दल को उसकी पुरानी शक्ल लौटाने का प्रयास करने का वादा किया.

सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव आज इन सभी दलों के मुखियाओं के साथ नई दिल्ली स्थित अपने आवास पर मीटिंग कर रहे थे. सूत्रों के मुताबिक इस नवगठित जनता दल का नाम ‘समाजवादी जनता दल’ रखा जा रहा है, जिसका मुखिया सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव को बनाया जाएगा. इस मीटिंग में जनता दल यूनाटेड के अध्यक्ष शरद यादव और नीतिश कुमार, राष्ट्रीय जनता दल के लालू प्रसाद यादव, जनता दल (एस) के एचडी देवगौड़ा, इंडियन नेशनल लोकदल के दुष्यंत चौटाला, समाजवादी जनता पार्टी के कमल मोरारका तथा समाजवादी पार्टी के रामगोपाल यादव और शिवपाल यादव ने भाग लिया.



जनता परिवार (file photo, साभार - Niticentral.com)

मीटिंग के बाद नीतीश कुमार ने संवाददाताओं से बातचीत में कहा कि सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव के निमंत्रण व आह्वान पर हम सभी जुटे. उन्होंने कहा कि ‘साथ में काम करने को सहमति पहले ही हो गयी थी. अब हमने मुलायम जी को सभी को एक दल में समेटने का दायित्व सौंपा है. हम एक दल बनने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं.’

चुनाव के वक्त तीसरे मोर्चे के गठन की बात ज़ोर पर थी लेकिन दलों की आपसी सहमति में यह तय किया गया कि मोर्चा बनाए जाने पर दलों की आपसी एकता की कोई गारंटी नहीं रहती है. जनता और वोटर को लगता रहता है कि कोई भी दल अपने फ़ायदे के लिए कभी भी मोर्चे को छोड़कर जा सकता है. सन् 1989 में जनता परिवार के विघटन के बाद कई बार तीसरे मोर्चे और जनता दल के पुनर्गठन के मौके आए लेकिन आपसी मतों में भिन्नता और कुशल नेतृत्व के अभाव के चलते उन मौकों पर कोई सफलता हासिल नहीं हुई.

मोर्चे के रूप में इन दलों में अब तक तीन बार मिलाप हुआ – 1989 में राष्ट्रीय मोर्चा के रूप में जो सन् 1991 तक चला, फ़िर 1991 से 1996 तक संयुक्त मोर्चा के रूप में और अंतिम बार 2008 में यूएनपीए के रूप में. लेकिन राजनीतिक जंग के हरेक मोर्चे पर यह मिलाप कमोबेश विफल ही नज़र आया.

बिहार के मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी पहले ही भाजपा से लड़ाई के लिए इस महागठबंधन की ज़रूरत पर बयान दे चुके हैं.

छः महीनों पहले संपन्न हुए लोकसभा चुनावों में कांग्रेस की दुर्गति, जो राज्यों के विधानसभा चुनावों में अब तक जारी है, के बाद भाजपा के खिलाफ़ किसी मजबूत नेतृत्व की कमी लगातार बनी हुई है, जिसे अविलम्ब पूरा करना होगा. इस लिहाज़ से नवसंभावित जनता दल के सभी नेता मिलकर जनता को एक मजबूत विकल्प देने की तैयारी में दिख रहे हैं.

इसके अलावा एक और तथ्य है, जिस ओर ध्यान दिया जाना चाहिए क्योंकि राजद और सपा की करीबी का यह भी एक कारण हो सकता है. सूत्रों की मानें तो सपा प्रमुख के पौत्र तेज प्रताप के साथ राजद प्रमुख लालू यादव की बेटी की शादी तय होने की खबरों ने भी इस करीबी को बढ़ाने में संभावित मदद की है.

अल्पसंख्यकों का भरोसा:

पहले के समीकरण देखें तो कांग्रेस के बाद इन्हीं क्षेत्रीय पार्टियों को अल्पसंख्यकों और दलितों का समर्थन मिलता रहा है. ये पार्टियां जातिगत समीकरणों को भुनाकर राजनीति करने में माहिर हैं, चाहे वह उत्तर प्रदेश में मुस्लिम वोटों को सपा द्वारा अपने पक्ष में करना हो या बिहार में राजद द्वारा भी यही करना.

ऐसे में सम्भव है कि भाजपा की हुक्मरानी से असंतुष्ट अल्पसंख्यक समुदाय अपने विकास और दूसरी सम्भावनाओं के लिए इस संयुक्त समाजवादी जनता दल के ज़रिए अपना विकल्प तलाशने की कोशिश करेगा. उत्तर प्रदेश और बिहार की अल्पसंख्यक आबादी हाशिए से बाहर आने के लिए राष्ट्रीय पार्टियों की ओर देखती है, लेकिन कांग्रेस की पतली हालत ने उनके पास क्षेत्रीय पार्टियों के अलावा कोई विकल्प नहीं छोड़ा था.

इस लिहाज़ से उत्तर भारत व अन्य राज्यों को अपने ज़द में लेता यह जनता दल इस अल्पसंख्यक समुदाय को मौजूं विकल्प के रूप में उपलब्ध हो सकता है. लेकिन इसके लिए यह ज़रूरी है कि इनेलो की प्रो-जाट छवि को भी थोड़ा तोड़ा जाए ताकि पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यकों को इस मुहिम से जुड़ने में थोड़ी खाली जगह मिल सके. इसके साथ यह भी ज़रूरी है कि इस जनता दल को पूरे जोश और एकाग्रता से राजनीति के खांचे में रखा जाए ताकि वक्त दर वक्त इसके टूटकर बिखर जाने का खतरा न रहे.

चुनावी विश्लेषकों ने भी लोकसभा चुनाव में भाजपा को मिले भारी बहुमत के लिए अल्पसंख्यक, पिछड़ी जातियों और दलितों के वोटों के एक बड़े हिस्से का भाजपा में चले जाने को भी जिम्मेदार बताया था. जातीय राजनीति के फ़लक पर सक्रिय उत्तर प्रदेश और बिहार में बिना वोटबैंक साढ़े सरकार बना पाना लगभग दुर्लभ है. ऐसे में इस नवगठित जनता दल ने उस दिशा में कदम बढ़ाए हैं जिससे उनके हिस्से आने वाले सूबों के जातीय समीकरणों को साधा जा सके.

सूबों के उस्तादों का विलय:

इस गठबंधन पर यदि एक सरसरी निगाह डालें तो शामिल दलों की शक्ति का अंदाज़ भी लग जाता है. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की यादवों, मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों पर मजबूत पकड़ है. जनता दल (यूनाइटेड) की बिहार के कुर्मी और दलित वोटों पर मजबूत पकड़ है और जदयू से बिहार के मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी अपने प्रो-दलितवादी वक्तव्यों के कारण लगातार सुर्ख़ियों में बने रहते हैं. बिहार सरकार को बाहर से समर्थन दे रही राष्ट्रीय जनता दल ने भी प्रदेश के मुस्लिमों और यादवों के बीच खुद की अच्छी साख स्थापित कर रखी है.

इसके बाद हरियाणा के जाट समुदाय के बीच मजबूत पकड़ रखने वाले इण्डियन नेशनल लोक दल और कर्नाटक के जनता दल (सेकुलर) को गिना जाए तो एक मजबूत समीकरण बनता दिख रहा है. इस स्थिति में उत्तर भारत के सभी प्रमुख राज्यों के साथ-साथ कर्नाटक और हरियाणा में राजनीतिक समीकरणों का एकदम नया रूप आने वाले समय में देखने को मिल सकता है.

सूत्रों के हवाले से आ रही खबर भाजपा को और चिंताग्रस्त कर सकती है कि संभवतः नवगठित जनता दल आगामी दिल्ली विधानसभा चुनाव में अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी को सहयोग दे सकती है.

राज्यसभा का अंकगणित:

यदि चुनावों की बात न भी करें तो राज्यसभा में सांसदों की उपस्थिति से भी बाजी पलटती दिख रही है. वर्तमान में राज्यसभा में कांग्रेस के 68 सांसदों के मुक़ाबिले भाजपा के पास 43 सांसदों का साथ है. इस महागठबंधन के गठन के बाद शरद यादव खेमे में और 24 सांसदों के आवक की सम्भावना भी बनी है. यदि इस संख्या के साथ किसी सूरते-हाल में तृणमूल कांग्रेस और सीपीआई के क्रमशः 12 और 11 सांसदों ने भी साथ दे दिया, तो भाजपा के लिए किसी बिल को पास कराना गले की हड्डी सरीखा बन जाएगा.

इस मौके पर कांग्रेस के नेता शकील अहमद ने चुटकी लेते हुए कहा है कि पुराने समाजवादियों की एक विशेषता है कि वे एक दूसरे के बिना ज़्यादा दिन तक नहीं रह सकते, लेकिन इसके साथ कठोर सच यह भी है कि वे एक दूसरे के साथ एक साल से ज़्यादा नहीं रह सकते. भाजपा इस गठबंधन को मौक़ापरस्ती की तरह देख रही है. लेकिन अधिकांश राजनीतिक विश्लेषक इस बात से कमोबेश रूप से सहमत हैं कि इस गठबंधन के पूरे तरीके से रंग में आने के बाद भाजपा को मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है.


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