Quantcast
Channel: TwoCircles.net - हिन्दी
Viewing all articles
Browse latest Browse all 597

बीता साल: साक्षर भारत के सपनों को तोड़ती मोदी सरकार

0
0

शारिक़ अंसर,

मौजूदा केंद्र सरकार ने सत्ता में आने से पहले शिक्षा जैसे ज़रूरी मुद्दे पर कई सारे वादे किए थे. सत्ता में आने के बाद यह सारे वादे उदासीनता के पिटारे में बंद रहे. देश के एक अहम मंत्रालय की मुखिया स्मृति ईरानी खुद अपनी फर्जी डिग्री विवाद के चलते हमेशा सुर्ख़ियों में रहीं. सरकार पर शिक्षा बजट में कटौती, उच्च शिक्षा का बाज़ारीकरण, संस्थानों में दखलंदाजी, शोध छात्रों की स्कालरशिप और एक ही विचारधारा के लोगों के प्रभाव में काम करने और उनके अनुकूल फैसले लेने का आरोप लगते रहे.

दरअसल मोदी सरकार के कार्यकाल में शिक्षा के अहम सवाल या तो गायब हो गए या तो उन पर ध्यान नहीं दिया गया. शिक्षा बजट में ज़बरदस्त कटौती की गई जिससे प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा. नरेंद्र मोदी ने छात्रों के बीच अपने 'मन की बात'तो की लेकिन वे उनके बुनियादी प्रश्नों पर चुप्पी साध गए. कुल मिलाकर अभी तक शिक्षित और साक्षर भारत के स्वप्न को फलीभूत करने के लिए कोई भी ठोस कदम उठते हुए नहीं दिखे.

बिखरता बजट शिक्षा का
सत्र 2014-15 में शिक्षा का कुल बजट 82,771 करोड़ रूपए का था जिसे अगले सत्र 2015-16 में घटाकर 69,707 करोड़ कर दिया गया. यानी एक वित्तीय वर्ष में शिक्षा बजट में 13,064 करोड़ की कटौती कर दी गयी. यानी कुल बजट का क़रीब 16.5 प्रतिशत. करोड़ों छात्रों को देश की बुनियादी शिक्षा उपलब्ध कराने वाले सर्वशिक्षा अभियान में 2375 करोड़ की कटौती की गई. मिड डे मील योजना में भी करीब 4000 करोड़ की कटौती की गई. माध्यमिक शिक्षा में भी 85 करोड़ की कटौती की गई.देश की शिक्षा व्यवस्था की बुनियाद इन्ही प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के कन्धों पर टिकी हुई है लेकिन मोदी सरकार ने इस ढांचे को कमज़ोर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. आज़ादी के 67 साल बाद भी आज 60 लाख से ज़्यादा बच्चे स्कूल से वंचित हैं. हज़ारों की संख्या में शिक्षकों की कमी है. स्कूलों में बुनियादी चीज़ों का अभाव है.

शौचालय,पक्की छत, डेस्क बेंच, लैब और किताबों के बगैर हम गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की उम्मीद नहीं कर सकते. शिक्षा अधिकार अधिनियम - 2009 को लागू हुए 6 साल से अधिक हो चुके हैं लेकिन अब भी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है. सरकारी स्कूलों में करीब 6 लाख शिक्षकों के पद अब भी रिक्त हैं. उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, उड़ीसा, राजस्थान, मध्य प्रदेश आदि राज्यों की स्थिति अब भी दयनीय है लेकिन सरकारों के बदलने के बाद भी कोई बदलाव की उम्मीद करना बेमानी लगता है.

उच्च शिक्षा की गिरावट
मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया, स्टार्टअप इंडिया जैसी लुभावनी योजनाओं के बीच उच्च शिक्षा की हालत पर भी उदासीनता की झलक साफ़ दिखती है. उच्च शिक्षा में सरकार की असहयोगात्मक रवैया और व्यवसायीकरण की नीति का खामियाज़ा छात्रों को उठाना पड़ रहा है. पहले तो उच्च शिक्षा के बजट में 400 करोड़ रूपए की कमी की गई और फिर नॉननेट छात्रों की फेलोशिप को ही ख़त्म कर दिया गया. 20 अक्टूबर 2015 को जब UGC ने नॉननेट फेलोशिप को लेकर फैसला लिया था तो पैसों की कमी का ही रोना रोया गया था. आज तक़रीबन 35 हज़ार छात्र इस निर्णय से प्रभावित है, जिनके लिए आगे पढ़ाई जारी रखना बहुत मुश्किल हो गया है. आज हज़ारों छात्र इस निर्णय के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं. कॉलेज और लाइब्रेरियों में रहने की जगह छात्र अपनी मांगों को लेकर यूजीसी मुख्यालय के सामने सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. पिछले 70 दिनों से लगातार चल रहे #OccupyUGC आंदोलन के बाद शिक्षामंत्री स्मृति ईरानी ने एक कमिटी का गठन किया है लेकिन अब भी नॉननेट फेलोशिप की राशि में कटौती के निर्णय से हज़ारों छात्रों को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है. सरकार के इस उदासीन रवैये से इसका अंदाज़ लग जाता है कि वह उच्च शिक्षा को लेकर कितनी गंभीर है?

उच्च शिक्षा के केन्द्रीयकरण की नीति के तहत 'कॉमन यूनिवर्सिटी बिल'को जिस तेज़ी में सरकार लाने का प्रयास कर रही है, उससे शिक्षा जगत चिंतित है.

‘रंगदार’ शिक्षा नीतियां
नई शिक्षा नीति 2015 को लेकर किए जा रहे प्रयासों के बीच यह सवाल भी उभर रहे हैं कि इस शिक्षा नीति के बहाने मोदी सरकार शिक्षा का भगवाकरण का प्रयास तो नहीं करने वाली है? यह सवाल इसलिए भी उभर रहे हैं क्योंकि इससे पहले भी एनडीए सरकार के समय भी शिक्षा मंत्री रहे मुरली मनोहर जोशी ने शिक्षा के भगवाकरण का प्रयास किये थे लेकिन गठबंधन सरकार और लोगों के विरोध के कारण उनकी नीतियां ज्यादा सफल नहीं हो पायीं. दरअसल मोदी सरकार के अब तक के कार्यकाल का अगर विश्लेषण किया जाये तो इसमें कहीं 'सबका साथ सबका विकास'वाली बात नहीं दिखती बल्कि कारपोरेट घरानों और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नीतियों का अनुसरण ही दिखता है. शिक्षा नीतियों पर भाजपाशासित राज्यों का जो मनमाना रवैया रहा है, उससे नीतियों पर एक संदेहास्पद प्रश्न उठते हैं.

पिछले साल केंद्र सरकार ने शिक्षा नीति का फ्रेमवर्क तैयार करने के लिए बनारस में एक बैठक आयोजित की थी जिसमे संघ के शैक्षणिक विंग विद्या भारती, अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान जैसे संस्थान के 170 से ज़्यादा लोगों ने हिस्सा लिया था जिसमे नई शिक्षा नीति को लेकर विस्तृत चर्चा की गई थी. शिक्षा पर लम्बे समय से काम कर रहे संघ से जुड़े दीनानाथ बत्रा जैसे लोग अब नई शिक्षा नीति को लेकर सरकार पर दबाव बना रहे हैं. हालांकि मानव संसाधन विकास मंत्रालय हर क़दम बहुत फूंक-फूंक कर रख रही है ताकि कोई विवाद न हो सके और सरकार पर कोई उंगली न उठा सके. इसलिए इसको लेकर आम लोगों, संस्थानों, बुद्धिजीवी, स्कूल आदि से बड़े पैमाने में सुझाव मांगे जा रहे हैं. वेबसाइट से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार 31 अक्टूबर तक मंत्रालय को 29,109 सुझाव मिल चुके हैं साथ ही ग्राम स्तर, प्रखंड, जिला स्तर पर भी सैकड़ों बैठको का आयोजन किया जा चुका है.

स्वायत्ता का सवाल और संघ का एजेंडा
कयासों के मुताबिक़ आज मंत्रालय में संघ का हस्तक्षेप काफी बढ़ गया है. मानव संसाधन विकास मंत्रालय में संघ और अनुसांगिक इकाईयों की मैराथन बैठकों पर सब चिंतित हैं. शिक्षक संस्थानों में नियुक्ति से लेकर, पाठ्यक्रम और अन्य मुद्दों पर शिक्षा मंत्रालय केवल रबर स्टाम्प की तरह काम कर रहा है. आज अकादमिक स्वायत्ता और स्वतंत्रता खतरे में दिखाई पड़ रही है. सरकार और संघ मानो पूरक की तरह काम कर रहे हैं.

बीते साल जनवरी में व्यापक रूप से प्रतिष्ठित भौतिक वैज्ञानिक डॉ. संदीप त्रिवेदी को टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ फंडामेंटल रिसर्च का निदेशक नियुक्त किया गया. प्रधानमंत्री कार्यालय से त्यागपत्र का दबाव आने के कारण उन्हें पद छोड़ना पड़ा. आईआईटी दिल्ली के निदेशक रघुनाथ शिव गांवकर ने सरकार की बेवजह दखलंदाजी के कारण त्यागपत्र दे दिया. मार्च में भारत के शीर्षस्थ परमाणु वैज्ञानिक डॉ. अनिल काकोदर को आईआईटी मुंबई की गवर्निंग बॉडी से त्यागपत्र देना पड़ा. फ़रवरी में सरकार ने प्रख्यात लेखक सेतु माधवन को नेशनल बुक ट्रस्ट के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देने को कहा. उनकी जगह 'पाञ्चजन्य'के पूर्व सम्पादक बलदेव शर्मा को लाया गया. भारतीय इतिहास शोध परिषद में निदेशक के रूप में संघ के चहेते सुदर्शन राव की नियुक्ति संभवतः उनके हिन्दुत्ववादी नज़रिये की वजह से किया गया है. फिल्म एंड टेलीविज़न इंस्टिट्यूट में गजेन्द्र चौहान की नियुक्ति उनकी भाजपा से नज़दीकी के कारण की गयी जिसको लेकर छात्रों ने लम्बा विरोध प्रदर्शन किया.

न्यूयॉर्क टाइम्स रिव्यू में छपे एक लेख में अमर्त्य सेन ने वर्तमान मोदी सरकार के शिक्षा और शैक्षणिक संस्थानों के स्वायत्ता को लेकर कई गंभीर सवाल खड़े किये. उन्हें नालंदा अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के कुलाधिपति पद से हटने पर मज़बूर कर दिया गया क्योंकि उन्होंने मोदी की साम्प्रदायिक राजनीतिक नेतृत्व, उनके एजेंडे और गुजरात में उनकी भूमिका आदि पर सवाल खड़े किये थे.

यदि बीता साल खराब बीता तो यह नहीं कह सकते कि मौजूदा साल कुछ कुछ अच्छा होगा. इस साल की शुरुआत भी ऐसी ही गतिविधियों से हुई है. ताज़ा मामला है मैग्सेसे पुरस्कार प्राप्त संदीप पाण्डेय का, जिन्हें सरकार और संस्थानविरोधी गतिविधियों के आरोप में आईआईटी बीएचयू से निष्कासित कर दिया गया है.

ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है कि सत्ताधारी सरकार देश की शिक्षा और शिक्षण संस्थानों में सरकार की अकादमिक मामलों में दखल दे रही है. दखलंदाज़ी के मामले में पिछली कांग्रेस सरकार का रिकॉर्ड भी कोई खास अच्छा नहीं रहा है. मगर मौजूदा सरकार ने तो हस्तक्षेप को अभूतपूर्व ऊंचाइयों और राजनीतिक अतिरेक तक पहुंचा दिया है.

[शारिक़ नई दिल्ली में रहते हैं. पत्रकार हैं. उनसे shariqansar2@gmail.comपर संपर्क किया जा सकता है.]


Viewing all articles
Browse latest Browse all 597

Latest Images





Latest Images