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क्यों मुस्लिम रहनुमाओं की अक्ल पर भरोसा नहीं करना चाहिए?

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अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
एक सिरफिरे ने धार्मिक नफ़रत फैलाने की नीयत से मुसलमानों के पैग़म्बर के बारे में कुछ नागवार बातें कहीं. मुसलमानों ने इस बेहद बेहूदा बयान को रसूल की शान में गुस्ताख़ी माना और उसे ‘गुस्ताख़-ए-रसूल’ कह दिया. जिसे शायद अपने ही संगठन के लोग न जानते हों, वह ‘गुस्ताख़-ए-रसूल’ बनते ही मक़बूल हो गया.

मुस्लिम रहनुमाओं ने एक भद्दी और नज़रंदाज़ कर देने वाली टिप्पणी को हाथों-हाथ लिया और इस बारे में बयानबाज़ियां करके उसे अख़बारों की सुर्खी बना दिया. जो घटिया बयान क़ाबिले ज़िक्र भी नहीं है, उसे धर्म गुरूओं की तवज्जों ने घर-घर तक पहुंचा दिया.

इस्लाम सब्र का संदेश देता है, लेकिन जब बात रसूल की शान में गुस्ताख़ी की आई तो हज़ारों-हज़ार मुसलमान सड़कों पर उतर आए. ऐसा लगा कि मुस्लिम धर्म-गुरूओं की अक़्ल घुटनों में आ गई है जो सड़कों पर आने के लिए उतारू है.

जगह-जगह प्रदर्शन हुए. नारे लगाए गए. कुछ ने तो ‘गुस्ताख़-ए-रसूल’ के क़त्ल का ऐलान तक कर दिया. यह सब उसी धर्म के लोग कर रहे थे, जो सब्र का संदेश देता है. उन पैग़म्बर के आशिक़ कर रहे थे, जिन्होंने खुद पर रोज़ कूड़ा फेंकने वाली बूढ़ी औरत का भी हाल-चाल पूछा था.


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इन प्रदर्शनों पर लाखों रूपये और दसियों हज़ार कामकाजी घंटे बर्बाद हो गए. यहां यह बात करनी भी ज़रूरी है कि खुदा-नाख़ास्ता किसी ऐतजाज में कोई ऊंच-नीच होती तो उसकी क़ीमत भी मुसलमानों को ही चुकानी पड़ती.

जितना पैसा और सामूहिक वक़्त इन प्रदर्शनों पर खर्च हुआ, उससे कहीं कम में क़ानूनी तौर पर ‘गुस्ताख़-ए-रसूल’ को सबक़ सिखाया जा सकता था. और हुआ भी यही. आख़िर में क़ानून ने अपना काम किया और ‘गुस्ताख़-ए-रसूल’ गिरफ़्तार हुआ.

चिंतनीय विषय है कि हम देश के क़ानून पर यक़ीन करने के बजाए क़ानून खुद हाथ में ले लेते हैं. कभी केरल में एक लेक्चरर के ज़रिए रसूल की शान में गुस्ताख़ी करने पर हाथ काट दिया जाता है. तो कभी अख़बार में मुसलमानों को ही मुबारकबाद देने के मक़सद से पैग़म्बर की तस्वीर छाप दी जाती है तो अख़बार के दफ्तर को आग के हवाले कर दिया जाता है.

अभी पिछले दिनों महाराष्ट्र में एक अख़बार के दफ्तर में इसलिए तोड़-फोड़ की गई, क्योंकि उस अख़बार ने आइएसआइएस के फंडिंग पर एक लेख में एक कार्टून प्रकाशित किया था, जिसमें पैसे को दिखाने के लिए पिगी बैंक यानी बच्चों के इस्तेमाल का गुल्लक दिखाया गया. इस गुल्लक पर आइएसआइएस का लोगो था, जिस पर अरबी में अल्लाह, रसूल और मुहम्मद लिखा हुआ था.

हालांकि यह कहानी सिर्फ अपने ही देश की नहीं है, बल्कि ऐसी घटनाएं पूरे विश्व में लगातार सामने आते रहे हैं. यानी ऐसी कोशिशें लगातार होती रहीं और हम अपने सारे मसले-मसायल भूलकर इनका विरोध करते रहें. हमने कभी भी यह समझने की कोशिश नहीं की कि आखिर यह सब क्यों हो रहा है? किसने यह आग धधकाई है, जो मासूम जिंदगियों को जाया कर रही है? कौन हैं वह लोग जो इन घटनाओं की कीमत चुका रहे हैं और वह कौन हैं जो इनसे भी फायदा उठाने की कोशिश कर रहे हैं? लेकिन कभी भी हमने इन सवालों पर विचार नहीं किया. इन सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश तक भी नहीं की. बस हर बार की घटना में हम कठपुतली की तरह इस्तेमाल होते रहे जिस मक़सद से उस घटना को अंजाम दिया गया था.

देश के मौजूदा माहौल में मुसलमानों को सब्र से काम लेकर इल्म हासिल करने की ज़रूरत है और क़ानून पर विश्वास कर उसका इस्तेमाल करने की ज़रूरत है. ग़ुस्से का इज़हार, उग्र विरोध-प्रदर्शन या सर क़लम करने जैसे बेहूदा गैर-ज़रूरी ऐलान किसी और के बजाय मुसलमानों को ही ज़्यादा नुक़सान पहुंचाएंगे. मुसलमानों को ठहर कर सोचने की ज़रूरत है कि किसी सिरफ़िरे के बयान पर उन्हें सड़कों पर उतरना क्यों पड़ रहा है. इसके अलावा ऐसे लोगों से निपटने के जो और आसान और ज़्यादा प्रभावकारी तरीक़े हैं, वह इस्तेमाल क्यों नहीं किए जा रहे हैं.

कल फिर कोई और मुसलमानों को भड़काने के नाम पर सोची-समझी साज़िश के तहत पैग़म्बर पर टिप्पणी कर देगा और मुसलमान फिर सड़कों पर उतर आएंगे. किसी कठपुतली की तरह जिसकी डोर किसी और के हाथ में होती है.

वक़्त की ज़रूरत यह है कि सड़कों पर आने को उतारू रहने वाले रहनुमा या धर्म-गुरू ठहरें, सोचें और भविष्य में आने वाले ऐसे बयानों से निपटने का ऐसा तरीक़ा इजाद करें कि आम मुसलमानों को अपने पैग़म्बर की लाज बचाने के लिए सड़कों पर न उतरना पड़े.

आख़िर में सवाल यह है कि जब पैग़म्बर-ए-इस्लाम ने उनके ऊपर कीचड़ उछलने वाली बुढ़िया को जवाब नहीं दिया, उसके प्रति हिंसा या गर्म शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया, तो फिर अब उनकी तौहीन किए जाने पर हिंसक प्रतिक्रिया करने का अधिकार मुसलमानों को किसने दे दिया? वह प्रतिक्रियाएं अपने तौर-तरीक़े से क्यों दे रहे हैं. जब पूरी घटना के साथ पैग़म्बर-ए इस्लाम का नाम जुड़ा है तो फिर इसका जवाब उनके लहजे में क्यों नहीं दिया जा रहा है?

अगर आप यह लेख पढ़ रहे हैं या फिर पैग़म्बर के अपमान या कुरान के अपमान की कोई भी ख़बर पढ़ रहे हैं तो कुछ भी सोचने से पहले यह ज़रूर सोच लीजिएगा कि यदि पैग़म्बर के सामने ऐसे हालात आए होते तो उन्होंने क्या किया होता? अगर आपने एक बार भी ऐसा सोच लिया तो तमाम बातों का जवाब मिल जाएगा.


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