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तो क्या बिहार चुनाव ओवैसी की ‘नेशनल’ महत्वाकांक्षा का हिस्सा भर था?

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अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net,

बिहार चुनाव में ओवैसी को सीटों के मद्देनज़र सफलता नहीं मिली, मगर ओवैसी का ‘मिशन नेशनल पार्टी’ एक क़दम ज़रूर आगे बढ़ गया है. हालांकि बिहार चुनाव में ओवैसी की पार्टी को 6 सीटों पर कुल 80248 वोट मिलें, जो इन 6 सीटों पर पड़े मतदान का लगभग 8 फीसदी है और पूरे बिहार में पड़े वोटों का सिर्फ़ 0.2% ही है.

चुनाव आयोग की नियमावली के मुताबिक़ वोटों के लिहाज़ से ज़रूरी शर्तों को पूरा करने के साथ ही ओवैसी की पार्टी एक नेशनल पार्टी में तब्दील हो सकती है. इसी मक़सद से ओवैसी ने बिहार चुनाव लड़ा था. सूत्रों की मानें तो आगे आने वाले कुछ चुनाव में भी इसी एजेंडे को ओवैसी की पार्टी आगे बढ़ाएगी. अगर आने वाले वक़्त में ऐसा करने में ओवैसी कामयाब होते हैं तो देश की मुस्लिम राजनीति में ये मील का पत्थर सरीखा बदलाव साबित हो सकता है.

स्पष्ट रहे कि चुनाव आयोग के नियम बताते हैं कि किसी भी राजनीतिक पार्टी के नेशनल पार्टी बनने के लिए उस पार्टी को लोकसभा या विधानसभा के चुनाव में किन्हीं चार या अधिक राज्यों में डाले गए कुल वैध मतदान का 6 फ़ीसदी वोट हासिल हुआ हो. इसके अलावा किसी एक राज्य अथवा अधिक राज्यों से विधानसभा की कम से कम चार सीटें जीतनी ज़रूरी होती है या लोकसभा में कम से कम दो फीसदी सीटें हों और कम से कम तीन राज्यों में प्राप्त की गई हों.

दरअसल, ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (मजलिस) की स्थापना 1927 में ही हो चुकी थी. लेकिन पहली बार 1984 में हैदराबाद लोकसभा सीट से मजलिस चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंची. तब से ये सीट मजलिस के कब्ज़े में ही है. इसके अलावा 2014 के तेलंगाना विधानसभा चुनाव में मजलिस को 7 सीटों पर कामयाबी मिली और साथ ही ‘स्टेट पार्टी’ होने का दर्जा भी. इतना ही नहीं, मजलिस को महाराष्ट्र में भी दो सीटों पर कामयाबी मिली. मजलिस ने यहां 24 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए थे. यहां मजलिस को कुल 5.13 लाख वोट मिलें, बल्कि 12 सीटों पर मजलिस के उम्मीदवारों ने कड़ी टक्कर भी दी थी.


Asaduddin Owaisi campaigning in Aurangabad

बिहार में मजलिस ने अपने 6 उम्मीदवार खड़े किए थे, लेकिन एक भी सीट इसकी झोली में नहीं आ सकी. लेकिन राजनीतिक जानकार बताते हैं कि ओवैसी की मौजूदगी ने बिहार के चुनाव नतीजों का चेहरा ज़रूर बदल कर रख दिया है. जातीय समीकरण को साधने में इस बार महागठबंधन अल्पसंख्यकों को उतनी तरजीह देने के मूड में नहीं था, मगर ओवैसी ने उन्हें ऐसा करने पर मजबूर कर दिया. ओवैसी के जवाब में महागठबंधन को 33 मुसलमानों को टिकट देना पड़ा और उनमें से 23 जीतकर भी आए. ऐसे में बिहार विधानसभा में मुसलमानों के बढ़े हिस्सेदारी के लिए ओवैसी को क्रेडिट देना ग़लत नहीं होगा.

अब मजलिस के निशाने पर पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश जैसे राज्य आ गए हैं. पश्चिम बंगाल में तक़रीबन 25 फीसदी मुसलमान हैं, जो तृणमूल कांग्रेस के पाले में जाते रहे हैं, लेकिन मजलिस इन राज्यों में मुस्लिम वोट बैंक में सेंध लगाना चाहती है और कम से कम कुछ सीटें जीतकर अपने ‘मिशन नेशनल पार्टी’ को भी पूरा कर लेना चाहती है. इतना ही नहीं, मजलिस अपने ‘मिशन-2019’ के लिए एक तरह से इन राज्यों में विधानसभा चुनाव के बहाने एक संगठन भी खड़ा कर रही है ताकि लोकसभा चुनाव में भी अपने कुछ चुनिंदा सीटों पर उम्मीदवार खड़े कर अपने लक्ष्य को पूरा किया जा सके.

हालांकि बिहार चुनाव में ओवैसी की दोनों तरफ़ आलोचना की गई. अन्य सेकुलर पार्टियों ने उन्हें ‘वोट-कटवा’ क़रार दिया तो वहीं धर्म के एजेंडे को आगे रखकर चुनाव लड़ रही पार्टियां ओवैसी को टारगेट कर ध्रुवीकरण का खेल खेलती रहीं. मगर इन सबसे बेपरवाह ओवैसी अपनी रणनीति को अमली-जामा पहनाने में लगे रहे. बल्कि आगे आने वाले कुछ चुनाव इस रणनीत के असली परीक्षा साबित होंगे. तब तक ओवैसी की पार्टी को सीरियसली लेने वाले नेताओं की जमात में और इज़ाफ़ा हो चुका होगा.


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