By काशिफ़ युनूस
ओवैसी के लिये बिहार चुनाव एक दुखद हादसे की तरह था. ओवैसी इस हादसे को टालना चाहते थे. वह उन नेताओं में हैं जो बहुत नपी-तुली चाल चलना चाहते हैं. कर्णाटक में मिली शर्मनाक पराजय से सबक सीखते हुए ओवैसी उत्तर प्रदेश पर ही अपनी पूरी तवज्जो रखना चाहते थे लेकिन अख्तरुल ईमान द्वारा किए जा रहे बारहा आग्रह को ओवैसी ठुकरा न सके. अख्तरुल ईमान की मदद करने मैदान में उतरे ओवैसी ने ज़बरदस्त हार का सामना किया और अब बिहार चुनाव के नतीजों के उत्तर प्रदेश में पड़ने वाले असर से ओवैसी खासे चिंतित हैं.
वैसे जब ओवैसी बिहार चुनाओ में उतरे तो उन्हें कुछ लोगों ने सलाह दी कि उन्हें अपनी राजनीति का अंदाज़ थोड़ा बदल देना चाहिए. कुछ छोटी सेक्युलर पार्टियों को मिलाकर एक सेक्युलर गठबंधन के लिए भी बात चली लेकिन ओवैसी को लगा कि सीमांचल में वह अपने धुआंधार भाषणो के बल पर खुद ही अपनी नाव पार लगा लेंगे.
ओवैसी यह अच्छी तरह जानते हैं कि उनके शोला बरसाने वाले भाषणो को दिखलाकर कैसे न्यूज़ चैनल वाले अपनी टीआरपी बढ़ाने के चक्कर में रहते हैं. बस क्या था, उन्होंने इसे ही अभीष्ट सच मानते हुए अपना बिहार कैम्पेन शुरू कर दिया.
लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त कुछ और थी. बिहार की धर्मनिरपेक्ष समीकरणों को ओवैसी सही तरीके से भांप नहीं सके. लोकसभा चुनाओ में बिहार में पिछड़ा वर्ग के प्रधानमंत्री के नाम पर जो वोट भाजपा ले गयी, उन्हीं वोटों को ओवैसी ने साम्प्रदायिकता का वोट समंझने की भूल कर दी. भाजपा ने भी वही भूल की. लेकिन बिहार के लोगों ने ये साबित कर दिया की लोकसभा में मिला वोट पिछड़ा और दबा-कुचला को प्रधानमंत्री बनाने के लिए था ना कि भाजपा या किसी अन्य दल के सांप्रदायिक एजेंडे के लिए.
किशनगंज में तो फिर भी ओवैसी का पहला भाषण सुनने के लिये भारी भीड़ उमड़ पड़ी थी लेकिन उत्तर प्रदेश में ओवैसी की किसी भी रैली में अभी तक किशनगंज की तरह भारी भीड़ नहीं उमड़ी है. वहीँ उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपनी अच्छी पकड़ बना चुकी पीस पार्टी की रैलियों में मुस्लिमों और गैर-मुस्लिमों दोनों की भारी भीड़ उमड़ रही है. ज्ञात हो की पीस पार्टी पिछ्ले विधानसभा चुनाओ में वोट शेयर के मामले में सपा, बसपा , कांग्रेस , भाजपा और लोकदल के बाद छठे नंबर की पार्टी के रूप में उभरी थी. पसमांदा मुसलमानो और अत्यंत पिछड़ा वर्ग में पीस पार्टी की पैठ दिन-ब-दिन बढ़ रही है. ओवैसी के पास उत्तर प्रदेश में दूसरा चैलेंज है. उन्हें ज़रुरत है अख्तरुल ईमान जैसे परिपक्व नेतृत्व की. उन्हें अभी एक ऐसे चेहरे की ज़रूरत है जिसे प्रदेश में वोटर आसानी से पहचानता हो. बिना किसी ऐसे चेहरे के प्रदेश स्तर पर नेतृत्व का भारी अभाव दीखता है.
ओवैसी को पीस पार्टी के अनुभव से सीखने की ज़रूरत है. उन्हें यह समझना होगा कि उनके गरमागरम भाषण न्यूज़ चैनल पर टाइम पास का ज़रिया तो बन सकते हैं लेकिन वोट के लिए उन्हें धरातल पर उतर कर मेहनत करनी पड़ेगी और धर्मनिरपेक्षता को अपने राजनीतिक एजेंडे में महत्वपूर्ण स्थान देना पड़ेगा. जिस तरह भाजपा की हिन्दू सांप्रदायिक राजनीति एक स्तर तक जाकर दम तोड़ देती है उसी तरह ओवैसी की मुस्लिम सांप्रदायिक राजनीति भी एक स्तर तक ही रास्ता तय करती है.
बिहार में अख्तरुल ईमान पार्टी को मज़बूत करने का दम भर रहे हैं. लेकिन उनका ये दम भी उर्दू अखबारों में ही दम तोड़ दे रहा है. जहां चुनावों से पहले हिंदी मीडिया ओवैसी को खूब लिख रहा था वहीँ अब चुनाओ के बाद हिंदी मीडिया का एजेंडा बदला-बदला सा है. ऐसे में अख्तरुल ईमान अपनी पार्टी के मीडिया सेल को ही पहले चरण में मज़बूत कर लें तो उनके लिए बेहतर होगा.
[यह लेखक के अपने विचार हैं. उनसे yunuskashif@gmail.comपर संपर्क किया जा सकता है.]