By राजन झा
नवगठित बिहार विधानसभा में अध्यक्ष के पद को लेकर महागठबंधन में आम सहमति बनाना कठिन होगा. महागठबंधन के तीनों घटक दलों कांग्रेस, जनता दल यूनाइटेड और राष्ट्रीय जनता दल द्वारा इस पद के लिए अघोषित तौर पर अपनी दावेदारी पेश की गई है.
गठबंधन के सभी दल अध्यक्ष पद पर अपने पसंदीदा व्यक्ति को ही बैठाने की कोशिश में है. राजद की तरफ से अब्दुल बारी सिद्दीक़ी, कांग्रेस की तरफ से सदानंद सिंह और जनता दल यूनाइटेड की ओर से श्रवण कुमार का नाम प्रमुखता से लिया जा रहा है. ये तीनों नेता अपने अपने दलों के शीर्ष नेतृत्व के काफी विश्वस्त माने जाते हैं.
विधानसभा में अध्यक्ष की भूमिका सत्ता-पक्ष और विपक्ष के बीच एक तटस्थ अंपायर की होती है. विपक्ष सरकार की सकारात्मक आलोचना करे, इसकी पर्याप्त गुंजाइश हो, इसकी जिम्मेदारी भी विधासभा के अध्यक्ष पर होती है. परन्तु अब तक के बिहार विधानसभा के इतिहास में अध्यक्ष की तटस्थ भूमिका पर समय-समय पर प्रश्न खड़े किये जाते रहे हैं. सन् 1980 में अजीबोगरीब स्थिति उत्पन्न हुई जब तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष शिवचन्द्र झा ने मुख्यमंत्री भगवत झा आज़ाद को विधानसभा के नेता के रूप में मान्यता प्रदान नहीं की क्योंकि भगवत झा आज़ाद विधानसभा के सदस्य न होकर विधानपरिषद के सदस्य थे. लालू यादव के प्रथम कार्यकाल के दौरान तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष ने अपने ही दल के मंत्रियों की आलोचना कर सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया. हाल ही में विधानसभा अध्यक्ष उदय नारायण चौधरी द्वारा कुछ जदयू विधायकों की सदस्यता समाप्त करना और बाद में माननीय न्यायालय द्वारा इनकी सदस्यता को पुनः बहाल करने वाले ऐसे अनेकों उदहारण हैं जिससे अध्यक्ष की निष्पक्ष भूमिका संदेह के घेरे में आई.
संवैधानिक व्यवस्था के अंतर्गत विधानसभा के अन्दर अध्यक्ष का निर्णय अन्तिम होता है. हां, यह बात ज़रूर है कि अध्यक्ष के निर्णयों की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है. परन्तु, अक्सर ऐसा देखा जाता है कि अध्यक्ष द्वारा लिए गए निर्णय का राजनीतिक प्रभाव पड़ता है जिसकी भरपाई आमतौर पर न्यायिक समीक्षा से नहीं हो पाती है.
उपरोक्त तथ्यों के मद्देनजर अध्यक्ष पद का सभी राजनीतिक दलों के लिए बढ़ता महत्व लाजमी है. जरूरत इस बात की है कि अध्यक्ष पद की गरिमा और इसकी निष्पक्षता को कैसे वापस लाया जाए? गठबन्धनों के दौर में जहां आए दिन विधायकों के पाला बदल कर दुसरे दलों का दामन थामना आम बात है. ऐसे में क्या यह कार्य राजनीतिक दल आपस में सहमति बना कर पाएंगे? या इसके लिए सिविल सोसाइटी और बुद्धिजीवी वर्गों को आगे आना होगा?
[लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में शोध छात्र हैं. यह उनके अपने विचार हैं.]