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बिहार की चुनाव डायरी : महागठबंधन का जिन्न, लालू और मीडिया

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नासिरूद्दीन हैदर

यह जिन्न है, जो महागठबंधन के वोटों के रूप में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों से निकला. महागठबंधन में शामिल पार्टियों का जिन्न आमतौर पर प्रबुद्ध समाज और मीडिया को नहीं दिखता. शायद वह देखना भी नहीं चाहते. याद है, ऐसा ही जिन्न 1995 में भी निकला था. उस वक्त भी प्रबुद्ध समाज और मीडिया को यह नहीं दिखा था. इस बार जिन्न जिन वजहों से निकला, वह थोड़ी-सी मेहनत से दिख जा रहा था.


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एक) अभी हम भले ही जदयू, राजद या कांग्रेस के सीटों की बात कर रहे हों लेकिन चुनाव मैदान में ये एक इकाई के रूप में महागठबंधन थे. यह उनकी सभाओं और प्रचार में साफ दिख रहा था. इनके नेता एक-दूसरे के इलाके में प्रचार कर रहे थे. महागठबंधन के तीनों घटकों के उम्मीदवारों की जीत इसका प्रमाण है. इसके बरअक्स एनडीए की पार्टियों में यह तालमेल नहीं दिख रहा था. सभी पार्टियों का रिश्ता भाजपा से था. जमीन पर इनका संवाद कम था. एनडीए की बाकि पार्टियां भाजपा की छाया में सिमटी दिख रही थीं.

दो) नीतीश कुमार इस चुनाव की धुरी थे. लगभग दस साल मुख्यमंत्री रहने के बाद भी उनके खिलाफ कोई मजबूत इलजाम कहीं नहीं दिखता था. लोग उनकी तुलना श्रीकृष्ण बाबू से करते मिलते हैं. आज राजद की सीटें भले ज्यादा दिख रही हैं मगर इसमें नीतीश की छवि का बहुत बड़ा योगदान है. राजद के खिलाफ ‘जंगलराज’ के प्रचार पर नीतीश की छवि काफी भारी पड़ी. ऐसा कहने का कतई अर्थ नहीं है कि लालू की मेहनत कम थी. इस चुनाव ने सालों बाद लालू को पुराने रंगत में लौटते देखा है.

तीन) इस जीत की अहमियत कम करने के लिए बार-बार अंकगणित की बात की जा रही है. शायद इस जीत को जाति-आधारित बनाने के लिए भी इस बात का सहारा लिया जा रहा है. अगर, अंकगणित से चुनाव जीते जाते तो सभी चुनाव जीत जाते. यह इससे आगे की जीत है. इसे सामाजिक न्याय या विकास का बिहारी मॉडल कहा जा सकता है. चुनाव प्रचार के दौरान लोगों के विमर्श में जाति भले ही मन के अंदर हो, लेकिन मुखर रूप में सडक, बिजली, स्कूल, अस्पताल ही आते थे. और जाहिर है जब तक जातियों के आधार पर समाज में विकास के फायदे और नुकसान तय होंगे, विकास के विमर्श में भी जाति रहेगी. नीतीश कुमार के पीछे लामबंदी, क्या इस जातीय राजनीति को तोड़ने की कोशिश नहीं है? बिल्कुल है.

चार) एनडीए के प्रचार की कमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के हाथों में थी. इन्होंने विकास के नाम पर प्रचार शुरू किया लेकिन जल्द ही वे आरक्षण के साम्प्रदायिकरण पर उतर आए, पाकिस्तान पहुंच गए, गाय और गोमांस का मुद्दा उठाया. हर चरण के बाद उनके मुद्दे बदलते रहे. विकास गुम हो गया. इन मुद्दों ने माहौल को डरावना बनाया लेकिन इनका फायदा सीटों के रूप में नहीं मिल पाया. हालांकि एक अहम सवाल है कि क्या डर की राजनीति पर अब विराम लगेगा? इसके बरअक्स नीतीश ने अपने प्रचार की दिशा शुरू से लेकर आखिर तक एक जैसी रखी और इसका फायदा दिख रहा है.

पाँच) इस चुनाव पर पूरे मुल्क की नजर थी. इस रिजल्ट के साथ ही महागठबंधन और नीतीश कुमार देश की राजनीति का अहम हिस्सा बन गए हैं. मुमकिन है, आने वाले दिनों में इनके इर्दगिर्द एक मजबूत लामबंदी हो.

छः) एक बात और, इस चुनाव में ज्यादातर मीडिया ने एनडीए और खासकर भाजपा की पैरवी करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. उन्होंने क्या-क्या किया, यह वे बेहतर जानते हैं. महागठबंधन के हक में आया जनता का फैसला, उनके लिए आईना है. सवाल है, क्या वे इस आईने में अपनी शक्ल देखेंगे? या 1995, 2015 की तरह आगे भी जानबूझकर गलती करते रहेंगे.


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