अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
बिहार की राजनीति अब काफी दूर पहुंच गई है. अब चर्चा ‘चाय’ व ‘बिहारिस्तान’ पर नहीं, बल्कि ‘गाय’ से चल कर ‘पाकिस्तान’ पहुंच चुकी है और अब फिर वापस ‘गाय’ पर लौट गई है. यह भी कितना अजीब है कि जो पार्टी अब तक विकास के नाम पर वोट मांग रही थी, अब वही पार्टी अपने इस मुद्दे से भटकते हुए गाय, आरक्षण, आतंकवाद और अब पाकिस्तान पहुंच गई है.
शायद भाजपा को यह समझ में आ गया है कि बिहार की जनता उनके विकास के मुद्दे को गंभीरता से नहीं ले रही थी, बल्कि लोग कालाधन की तरह इसे भी महज़ ‘चुनावी जुमला’ समझ रहे हैं. ख़ास तौर पर बिहार के पिछड़े-दलित वोटर तो इनको बिल्कुल भी सीरियसली नहीं ले रहे हैं.
ऐसे में अब आख़िरी बचे एक चरण में इस पार्टी के पास एक ही मुद्दा बच गया है कि किसी तरह से हिन्दू व दलितों को लामबंद किया जाए और उनका वोट किसी भी तरह से हासिल करके सत्ता की फ़सल काटने की कोशिश की जाए. क्योंकि अगले इस आख़िरी चरण में जहां मतदान होने हैं, वहां अधिकतर विधानसभा सीटों पर दलितों-पिछड़ों और मुसलमानों की ही जनसंख्या अधिक है, बल्कि अधिकांश सीट मुस्लिम बहुल हैं. इस पार्टी को यह पता है कि मुसलमान उनके हाथ बेहद मुश्किल से आएगा. ऐसे में बस एक ही चारा बचता है कि किसी भी तरह से दलितों-पिछड़ों को अपने साथ किया जाए. और इनको साथ लाने का बस यही मुद्दा बचता है - आरक्षण, आतंकवाद, पाकिस्तान और गाय.
बस फिर क्या था. आनन-फानन में आरक्षण के मसले पर सारे अख़बारों को विज्ञापन दे दिए गए. विज्ञापन के ज़रिए बिहार के दलितों-पिछड़ों को यह बताने की कोशिश की गई कि लालू-नीतिश दलितों-पिछड़ों की थाली खींचकर अल्पसंख्यकों को आरक्षण परोसने का षड़यंत्र कर रहे हैं. विज्ञापन में नीतीश कुमार के सामने यह भी सवाल खड़ा किया गया कि ‘मुख्यमंत्री जी, ज़रा बताइये. दलितों-पिछड़ों का हक़ काटकर, अल्पसंख्यकों को बांटने का कपट कब तक करते रहेंगे?’
लेकिन आरक्षण का यह मुद्दा ज़मीन पर असर करता नहीं दिखा तो अगले दिन आतंकवाद को एक ख़ास मज़हब के साथ जोड़ते हुए विज्ञापन के ज़रिए कहा गया कि लालू-नीतीश वोटों के खेती के लिए आतंक की फ़सल सींच रहे हैं. इस विज्ञापन में यह भी सवाल खड़ा किया गया - ‘मुख्यमंत्री जी, ज़रा बताइये... कब तक समाज विशेष के वोटों की ख़ातिर देश की सुरक्षा से समझौता करते रहेंगे?’
और अब ताज़ा विज्ञापन में भाजपा ने फिर से गौमाता का सहारा लिया है. संभवतः उनको पता है कि बस गौमाता ही अब बिहार चुनाव में हमारी डूबती नैय्या को पार लगा सकती हैं. विज्ञापन में मतदाताओं को यह बताने की कोशिश की गई है कि मुख्यमंत्री के साथी हर भारतीय की पूज्य गाय का अपमान बार-बार करते रहे और आप चुप रहे! साथ ही यह सवाल खड़ा किया गया - 'वोट बैंक की राजनीति बंद कीजिए और जवाब दीजिए, क्या आप अपने साथियों के इन बयानों से सहमत हैं?’
भाजपा सिर्फ़ इस बयान तक ही महदूद नहीं रही. पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने दो क़दम और आगे बढ़ते हुए यह भी कह डाला कि अगर गलती से भाजपा हारती तो शहाबुद्दीन जैसे लोग खुश होंगे. और जीत की खुशी में पटाखें पाकिस्तान में चलेंगे. सिर्फ़ अमित शाह ही नहीं, बल्कि सुशील कुमार मोदी भी खुलकर आरक्षण, आतंकवाद और पाकिस्तान वाले मुद्दे पर अमित शाह का समर्थन करते हुए अपने बयान में नीतीश कुमार को कोस रहे हैं. हद तो यह है कि सुशील मोदी बयान देते हुए यह भी भूल जा रहे हैं कि वो भी लगभग 8 साल बिहार के उप-मुख्यमंत्री और वित्त मंत्री रहे हैं. कई अहम मंत्रालय उनके पार्टी के नेताओं के हाथ में रहे हैं.
शायद बयान या विज्ञापन देते समय भाजपा के नेता या फिर बक्सर में प्रधानमंत्री मोदी धार्मिक आधार पर आरक्षण दिए जाने का विरोध करते समय या कहते समय कि भाजपा की सरकारों ने आरक्षण नीति में कभी बदलाव का प्रयास नहीं किया, यह भूल गए कि खुद गुजरात में अपने शासनकाल में दलितों-पिछड़ों का हक़ काटकर मुसलमानों व ईसाईयों को इस आरक्षण का लाभ दिया था.
यह भी याद दिलाना चाहिए कि राजनाथ सिंह ने 2001 में उत्तर प्रदेश की तत्कालीन भाजपा सरकार में बतौर मुख्यमंत्री मौजूदा आरक्षण नीति में बदलाव का प्रयास किया था. सुप्रीम कोर्ट ने राजनाथ सरकार की कोशिशों पर पानी फेर उनके प्रस्ताव को रद्द कर दिया था. आज भी राजनाथ सिंह की निजी वेबसाइट पर ये मामला एक उपलब्धि के रूप में दर्ज है. और शायद देश के मौजूदा हुक्मरान यह भूल रहे हैं कि उनकी सरकार में गौ-मांस का निर्यात पहले के मुक़ाबले काफी तेज़ी के साथ बढ़ा है.
सबसे बड़ा सवाल तो इस देश के आम नागरिकों व अख़बार के सम्पादकों से पूछना चाहिए कि क्या विज्ञापन देकर दो धर्मों के बीच दीवार खड़ी की जा सकती है? अगर ऐसा है तो इसमें अख़बार के सम्पादकों की क्या भूमिका है? क्या उनके पास कोई सम्पादकीय अधिकार इस बात को लेकर नहीं है कि अख़बार में क्या विज्ञापन छपना चाहिए और क्या नहीं? भाजपा तो राजनीतिक पार्टी है, वह तो हर हाल में राजनीति करेगी, भले ही वह लोगों को धर्म के आधार पर बांटना ही क्यों न हो. लेकिन यह सवाल उन सम्पादकों से क्यों नहीं किया जाना चाहिए, जिन्होंने यह विज्ञापन जाने दिया? जबकि पहले ही झलक में यह विज्ञापन साफ़ तौर पर आरक्षण के नाम पर दो समुदाय के लोगों को बांटने वाला है. धर्म के आधार पर एक दूसरे के ख़िलाफ़ करने वाला है. तो सवाल है कि क्या अख़बार में कुछ भी विज्ञापन के रूप में छपवाया जा सकता है? क्या देश के सम्पादकों ने भी नेताओं की तरह धर्म के नाम पर लोगों को बांटने की क़सम खा ली है. अगर ऐसा नहीं है तो फिर हर सम्पादक को इस बात पर ज़रूर सोचना चाहिए कि ये विज्ञापन कैसे छप गया, वह भी उस दिन जब बिहार के 6 ज़िले के लोग मतदान कर रहे थे.
सवाल आम नागरिकों से भी है कि क्या एक राष्ट्र के रूप में हमारी समझदारी ख़त्म हो चुकी है? क्या हमें कोई भी पार्टी बरगला सकती है? कोई भी जब चाहे विज्ञापन देकर लोगों को आपस में लड़वा सकता है? इतिहास में ऐसा उदाहरण शायद ही मिले कि जब राजनीतिक लाभ के लिए खुलेआम इतना नीचे आकर लोगों को बांटा जा रहा था.