By राजीव यादव,
चुनाव आए और गए, पर सवाल उन विवादास्पद बयानों का है जिनसे ‘हेट स्पीच’ के नाम से हम परिचित होते हैं. ऐसा नहीं है कि हेट स्पीच से हमारा वास्ता सिर्फ चुनावों में होता है पर यह ज़रूर है कि चुनावों के दरम्यान ही उनका मापन होता है कि वो हेट स्पीच के दायरे में हैं. हम यहां इस पर कतई बात नहीं करेंगे कि ऐसे मामलों में क्या कार्रवाई हुई? पर इस पर ज़रूर बात करेंगे कि उस हेट स्पीच का हम पर क्या असर हुआ, वहीं उनके बोलने वालों की प्रवृत्ति में क्या कोई बदलाव आया?
अगर हम हेट स्पीच की शिकायतों का अध्ययन करें तो वे ज़्यादातर अल्यपसंख्यक विरोधी या फिर मुस्लिम विरोधी होती हैं. पिछले दिनों का जो भी मसला उठा लें, चाहे वह ‘लव जिहाद’ का हो या फिर धर्मांतरण का, चुनाव के अंत तक पहुंचते-पहुंचते ऐसे मुद्दों की जो बाढ़-सी आ गई थी. अब उनके समाचारों में भी काफी कमी आई है जो लगभग न के बराबर हो गई है. ऐसे में सवाल उठता है कि समाज में जिन ‘जिहादियों’ की बात की जा रही थी, वो एकाएक कहां चले गए?
योगी आदित्यनाथ
मिसाल के तौर पर मुजफ्फरनगर को ही लें जहां अगस्त-सितंबर 2013 में इसी मुद्दे के इर्द-गिर्द सांप्रदायिक तनाव का पूरा खाका रचा गया. बीते 2014 उपचुनाव के पहले भी एक बार फिर धर्मांतरण और ‘लव जिहाद’ का माहौल बनाया गया. दरअसल, हमारे समाज का पूरा ढांचा सामंती, पुरुषवादी सत्ता के सांचे पर गढ़ा गया है. उसमें वो सभी चीज़ें शामिल हैं, जो आज किसी भी फासीवादी राजनीति की ज़रूरत होती है. इसका मतलब कि हमारे समाज की पूरी बनावट और उसको उद्वेलित करने वाली राजनीति एक दूसरे का इस्तेमाल करती है, न कि राजनीति ही सिर्फ समाज का इस्तेमाल करती है.
समाज और उसमें पल-बढ़ रहे प्रेम संबन्धों पर अगर गौर किया जाए तो जो लोग इन दिनों इस बात का आरोप लगा रहे थे कि मुस्लिम समाज के लड़के हिंदू समाज की लड़की को प्रेम में फंसाकर धर्मांतरण और विवाह करते हैं, उनकी प्रेम और विवाहो पर स्थिति का भी आकलन किया जाना चाहिए कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि समाज का सामंती ढांचा एक तीर से दो निशाने कर रहा है और बड़ी खूबसूरती से यह कह भी दे रहा है कि हमारी तो मेल-जोल की संस्कृति थी?
अगर मेल-जोल की संस्कृति थी तो वह संस्कृति किसी एक चुनाव या फिर किसी हिन्दुत्वादी संगठन के प्रभाव में बदल जाती है तो इतनी आसानी से बदलने वाली ऐसी ‘संस्कृति’ भी संदेह के घेरे में आ जाती है. इसका आकलन सिर्फ़ हिंदू-मुस्लिम लड़की और लड़के के मामले से हटकर अगर किया जाए तो देखने को मिलता है कि महिला हिंसा की वारदातों के बाद समाज उद्वेलित होता है, पर जैसे ही सवाल लड़की-लड़के के प्रेम संबन्धों पर आकर टिकता है, समाज उससे पीछे भागने लगता है या फिर अन्य जाति या समुदाय की उस लड़की के चरित्र पर ही सवाल उठाने लगता है.
उत्तर प्रदेश का बदायूं प्रकरण ख़ासी चर्चा में रहा, जहां दो लड़कियों के शव पेड़ पर टंगे मिले. इस मामले की राष्ट्रीय ही नहीं अन्र्तराष्ट्रीय स्तर पर भी दलित संगठनों ने भर्त्सना की, पर जैसे ही मामला सामने आया कि लड़कियां पिछड़ी जाति की थीं तो विरोध की ‘दलित आवाजें’ गायब होने लगी. दरअसल, समाज में लड़की के साथ हुई हिंसा को लड़की के साथ हुई हिंसा न मानकर हमारे जाति या हमारे समुदाय के साथ हिंसा होना मानकर चला जाता है. अगर इसी बीच कहीं यह बात सामने आ जाए कि लड़की के प्रेम संबंध थे तो विरोध के स्वर और धीमे हो जाते हैं. वही समाज जो लड़की के मेधावी छात्रा होने जैसे गुणों पर समाज गर्व करता है, उससे किनारा करने लगता है. इसे पिछले दिनों अमानीगंज, फैजाबाद में हुई घटना में भी देख सकते हैं, जिसमे ‘लव जिहाद’ का वितंडावाद खड़ा किया गया, पर जैसे ही यह बात साफ हुई कि लड़की और लड़का बहुत दिनों से एक दूसरे को न सिर्फ़ जानते थे बल्कि उनके बीच प्रेम भी था और उनकी आपसी बातचीत के 1600 मोबाइल कॉल के रिकार्ड और ऐसी बातों के आने के बाद मामला शांत हो गया. ‘ये तो होना ही था’ मानने वाला समाज ‘ऐसी लड़की’ से कोई रिश्ता नहीं रखना चाहता है और ‘जो उसके साथ हुआ, ऐसा ही कुछ वो भी करता’ का भी साफ संकेत देता है।
मतलब साफ़ है कि समाज लड़की के साथ हुई हिंसा के खिलाफ़ नहीं खड़ा हुआ था, वह तो अमुक जाति और समुदाय के खिलाफ़/साथ खड़ा हुआ था. पर जैसे ही उसे पता चला कि उसके प्रेम संबंध थे, वह उससे रिश्ता तोड़ लेता है. इसका मतलब कि लड़के-लड़कियों को लेकर हो रहे तनाव के लिए सिर्फ फासीवादी राजनीति ही नहीं जिम्मेदार है बल्कि हमारा समाज भी बराबरी का दोषी है, जो अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए ऐसे अवसरों की तलाश करता है.
अब बात अगर हेट स्पीच से जुड़े लोगों की करें तो बीते दिन ख़ासी चर्चा में रहे जब भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ का आजमगढ़ जिले में 2008 उपचुनाव के दौरान दिए गए भाषण का वह वीडियो फुटेज के सामने आया, जिसमें वो एक हिंदू लड़की को मुसलमान बनाने के बदले के बदले सौ मुस्लिम लड़कियों को हिंदू बनाने की बात कर रहे हैं. डाक्यूमेंट्री फिल्म ‘सैफ्रन वार’ के इस वीडियो फुटेज, जिसको आजमगढ़ जिला प्रशासन ने नकार दिया था कि ऐसा कोई भाषण आदित्यनाथ ने दिया ही नहीं, उसे न सिर्फ आदित्यनाथ ने अपना माना बल्कि उससे बढ़कर उसे सही ठहराने की भी कोशिश की. यहां सवाल है कि अगर उस वीडियो फुटेज में ऐसा कुछ आपत्तिजनक नहीं था तो उस पर क्यों बहस हो रही थी? मतलब कुछ न कुछ था, जिससे आदित्यनाथ को बचाने के लिए प्रशासन ने झूठ बोला. वहीं आदित्यनाथ उससे एक कदम आगे बढ़कर सार्वजनिक रूप से और अधिक आक्रामक साबित हुए. आखिर यह हौसला उन्हें कहां से मिला, इसके लिए सिर्फ चुनाव आचार संहिता के दरम्यान उनको दी गई चुनावी छूट ही नहीं जिम्मेदार थी बल्कि आचार संहिता की छूट की भी आपराधिक भूमिका थी.
संभवतः यही कारण हैं कि आज यह कहा जाता है कि सांप्रदायिकता के सवाल को मत उठाइए क्योंकि इससे सांप्रदायिक ताकतों को ही लाभ मिल जाएगा. दरअसल ऐसा इसलिए है क्योंकि हमारे समाज में सांप्रदायिकता निहित है, जो बाहर आने के लिए बस एक चिंगारी की बाट जोहती है.