By उमंग कुमार,
विशाल भारद्वाज की फिल्म ‘हैदर’ के मामले में दर्शकों की प्रधानता दो रायें उभर के आ रही हैं - एक यह कि हिंदी सिनेमा या फिर बॉलीवुड-जगत में हैदर जैसी बहादुरी का चित्रण सचमुच अद्वितीय है और दूसरा, जो प्रायः पहले का विपरीत मत है कि हैदर ने कश्मीर मसले में बस एक ऊपरी कोशिश मात्र की है. उसका प्रयास भले ही सराहनीय ज़रूर कहा जा सकता है लेकिन उसमें गहरायी नहीं है. आखिर तौर पर एक सुनहरा मौका गंवाया गया है. हैदर के दांत खाने के और व दिखाने के कुछ और हैं, यानी कि हैदर का हस्तक्षेप निमित्तमात्र है.
पहली राय रखने वालों का कहना है कि हैदर ने कई ऐसे मुद्दे उठाए हैं जो काफी जटिल, नाज़ुक और राजनीतिक दृष्टि से जोखिम से भरे भी हैं. कश्मीर में सेना द्वारा वहाँ की आम जनता के उत्पीड़न - जिनमें विशेषतः जेलों में क्रूर टार्चर, संदिग्ध-असंदिग्ध व्यक्तियों को लापता करना या फिर खत्म करना शामिल था - का जो ब्यौरा हैदर में हमारे सामने आता है, उसे पहले कभी बॉलीवुड सिनेमा ने प्रदर्शित नहीं किया है. अफ्स्पा (‘आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट’) कानून की चर्चा ही नहीं बल्कि उसकी भरे चौक में निंदा दीगर क़दम है. लापता लोगों की कहानियाँ, उनकी बीवियों या ‘हाफ़ विडोज़’ की कहानी और समूचे समाज की पीड़ा को बड़े परदे पर लेकर आना एक अपूर्व और बेमिसाल वाक़या है. इस हौसले और सरासर ज़ुर्रत से लबरेज़ क़दम की सराहना होनी ही चाहिए.
दूसरी राय वालों का यह मानना है कि मुद्दे तो कई सारे उछाले गए हैं, लेकिन उन मुद्दों से कोई गहरा संघर्ष नहीं है, कोई सार्थक सम्वाद या विश्लेषण नहीं है. ऐसा लगता है कि मानो मुद्दों की गिनती करा दी गयी हो. इस मत को समर्थन देता ठोस सबूत तब सामने आता है जब फ़िल्म में मध्यांतर के बाद कहानी से सेना तो लगभग हट जाती है. उसके उपरांत कहानी शेक्सपियर के नाटक हैमलेट के अनुरूप आगे बढती है. फिर अफ्स्पा जैसे मसले उतने प्रधान नहीं रहते. नाटक के अनुसार कहानी एक इन्तक़ाम की हो जाती है. उस इन्तेकाम तक कैसे पहुंचा जायेगा और अंत तक क्या हल होगा, दर्शक इसी गुत्थी में फंसा रहता है.
शेक्सपियर की नाट्यकृति हैमलेट मूलतः यूरोप के देश डेनमार्क के एक राजपरिवार में षड़यंत्र की कहानी है. कहानी मुख्य पात्रों व उनके कारनामों पर काफी संकीर्ण एवं तीव्र रूप से केंद्रित है, वहां किसी बड़ी राजनीतिक छवि की आवाजाही नही है.
विशाल भारद्वाज एक मंजे हुए निर्देशक हैं. जिन्होंने उनकी शेक्सपियर की कृति ‘मैकबेथ’ पर बनी ‘मक़बूल’ और ‘ओथेलो’ पर बनी ‘ओमकारा’ जैसी फ़िल्में देखी हैं, ज़रूर प्रभावित हुए होंगे. शेक्सपियर की कहानियों का भारत के मंच पर रूपांतरण कौशल के साथ हुआ है, ऐसा साफ़ प्रतीत होता है. दर्शकों की प्रतिक्रियाएं अक्सर किरदारों की भूमिका पर, उनके बीच के ताल-मेल और एक यूरोपीय कहानी के अत्यंत रचनात्मक देशात्मक अनुवाद पर लुटी हुई आती हैं कि किस तरह मैकबेथ को मुंबई के गैंग्स के विभिन्न समीकरणों के बीच लाया गया या फिर कैसे उत्तर-भारतीय देहात की पृष्ट-भूमि पर ओथेलो की नींव रखी गयी?
कश्मीर घाटी में तो बॉलीवुड की मौजूदगी बरसों से रही है और फिर शम्मी कपूर ने तो अपने अनोखे अंदाज़ से कश्मीर का अक्स बहुत पहले ही ओकर दिया था. तो फिर हैदर में ऐसा क्या विचित्र है जिसने लोगों को इतना व्यापक रूप से प्रतिक्रिया देने को बाध्य किया?
जिस समय यह घोषणा हुई थी कि हैदर की शूटिंग कश्मीर में होगी और कहानी कश्मीर की पृष्टभूमि पर और कश्मीर के हालातों को दर्ज करते हुए आगे बढ़ेगी, तभी से यह फ़िल्म जिज्ञासा का आधार बन गयी. शेक्सपियर की कहानियां खुद में ही काफी पेंचदार, घुमावदार और जज़्बाती होती हैं. इसके साथ हैदर के मामले में यह लग रहा था कि सहलेखक बशरत पीर के माध्यम से कश्मीर की आवाज़ या कहिए कश्मीर की सचाई शेक्सपियर और विशाल भारद्वाज के कहानी-कथन में शामिल हो रही थी.
कश्मीरी पत्रकार और लेखक बशरत पीर ने अपने उपन्यास ‘करफ्यूड नाइट्स’ में कश्मीर के हालातों का अत्यंत मार्मिक व सजीव चित्रण किया है. इस उपन्यास ने सेना द्वारा रोज़मर्रा की जिंदगी का कठोर नियंत्रण (रोज कर्फ्यू, जगह-जगह चुन्गियां, जहां पहचान-पत्रों की जांच की जाती थी) और संदिग्ध उग्रवादियों को पकड़ने के बहाने से आम लोगों का उत्पीडन व उन्हें दी जा रही यातना, ऐसे गंभीर मुद्दों को अपने उपन्यास के माध्यम से जनता के बीच पहुंचाया है. इस वर्णन से प्रभावित होकर विशाल ने नाट्यकृति ‘हैमलेट’ को कश्मीर में शूट करना तय किया था. इस स्थिति में लगता है कि विशाल ने एक समझौता-सा कर लिया था कि हैमलेट की त्रासदी कश्मीर घाटी में ही अभिनीत होगी और इसके फलस्वरूप जितने कश्मीरी मुद्दे लपेट में आते हैं, उतना अच्छा.
हैमलेट, जो कि मुख्यपात्र हैमलेट के निजी मसलों की कहानी है, की पटकथा से अधिक पृथकता संभव नहीं है. आजतक विशाल ने अपनी फिल्म की कहानी को प्रायः पूरी तरह से मूल कहानी के करीब ही रखा है, तो इस मर्तबा कोई अपवाद ज़ाहिर करने का उनका इरादा नहीं था, ऐसा हम मान सकते हैं. कहीं न कहीं फिल्म निर्देशक कहानी को उसके प्रमुख मार्ग की दिशा में मोड़ता, और लगभग ऐसा विशाल भारद्वाज ने इंटरवल के बाद कर दिया.
इससे एक असर यह ज़रूर होता है कि जैसे-जैसे कहानी बढती है, वैसे वैसे कश्मीर के अहम मुद्दे, कश्मीर के वर्तमान की कहानी दूर होती जाती है. बस कश्मीर का परिवेश ओझल नहीं होता लेकिन यह बात साफ़ हो जाती है कि अब संघर्ष एक निजी मामले में इन्तक़ाम के लिए है. पात्र, माहौल, मसाला सब वही हैं, कुछ आतंकवाद और सरहद-पार उग्रवाद के संकेत भी हैं पर यह लड़ाई अब कश्मीर की नहीं, यह हैमलेट-रुपी-हैदर की निजी लड़ाई है.
इतना तो दर्शकों को मालूम ही है कि यह बॉलीवुड के दायरे में बनी हुई एक फिल्म है, कोई डाक्युमेंट्री तो है नहीं लेकिन इसी कारण जो फार्मुला है, जो एक रीती है वह आखिरकार लागू तो होगा ही. इन सबके साथ सेंसर बोर्ड भी बैठा है, जिसके सन्दर्भ में यह सुनने में आया कि इस फ़िल्म को ६० से ऊपर कट्स झेलने पड़े. इस लिहाज़ से देखा जाए तो फ़िल्मकार को फ़िल्म की कहानी के अंतिम आकार व रूप में समझौता तो करना ही पड़ा होगा.
लेकिन प्रश्न यह भी उठता है कि बशरत पीर को भी किस प्रकार का समझौता करना पड़ा होगा, आखिरकार पटकथा लेखकों में उनका नाम विशाल के नाम के साथ है. क्या उन्होंने भी एक तरह के टोकेनिज्म से सुलह कर ली?