डॉक्टर नदीम ज़फर जिलानी, मेनचेस्टर, इंग्लैंड
तंग-दिल लोग हैं ज़मीं पे बहुत
चल सु-ए-आसमाँ करें हिजरत!
कब समुन्दर उबूर कर पाती
नाऊ काग़ज़ की हो गई ग़ारत,
हमको सौदा न था भटकने का
बेबसी ने बनाई है दुर्गत!
मौत करती है रक़्स आज जहाँ
कल वही सरज़मीं थी जन्नत
हम भी घर बार रखने वाले थे
दर-बदर हो गए ये है क़िस्मत!
लुट के, बर्बाद हो के जाना है,
क्या मुहब्बत है और क्या नफ़रत!
यूँ तो हमदर्द है मगर उसने,
पुर्सिश-ए-हाल की न की ज़हमत!
फ़िक्र सरहद की है ज़मीनों की
आदमियत हुई कहाँ रुख़सत?
सब के हिस्से में है यही दो गज़,
क़ब्र मेरी हो या तेरी तुर्बत!