अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.Net
बिहार में मुस्लिम वोटों पर सबकी नज़र है. वोटबैंक की इस पॉलिटिक्स ने इन्हें और भी ज़्यादा अलग-अलग तबकों में बांट दिया है (हालांकि इसके लिए अलग-अलग फिरके के मौलाना भी काफी हद तक ज़िम्मेदार हैं). शायद यह वोटबैंक की पॉलिटिक्स ही है कि कोई पशमांदा मुसलमानों की बात कर रहा है, कोई अशराफ़ व अज़लाफ़ की... मगर मुस्लिमों में शिक्षा, रोज़गार, उनकी तरक़्क़ी जैसे मुद्दे किसी भी पार्टी के सियासी मक़सद का हिस्सा नहीं है. यही हाल बिहार के किसानों का भी है. किसानों की ज़मीन दरक रही है. उनके बच्चे दाने-दाने को मोहताज हैं... ऐसे में इस वक़्त जब बिहार में चुनाव सिर पर है, बहुत ज़रूरी है बिहार के पहले ‘प्रधानमंत्री (प्रीमियर)’ मोहम्मद यूनुस की राजनीति से आज के सियासतदानों को रूबरू कराई जाए.
दरअसल, 1935 में ब्रिटिश पार्लियामेंट ने ‘गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट’ पारित किया था. एक्ट में प्रधानमंत्री का पदनाम प्रांतीय सरकार के प्रधान के लिए था लेकिन व्यवहार में वो पद वही था जो आज मुख्यमंत्री का है. उस वक़्त मोहम्मद यूनुस बिहार के पहले प्रधानमंत्री बने थे.
Muhammad Yunus, first CM of Bihar
मोहम्मद यूनुस के बारे में TwoCircles.net से विशेष बातचीत में राजनीति से संन्यास ले चुके सीनियर समाजवादी नेता व पूर्व राज्यसभा सांसद शिवानंद तिवारी बताते हैं, ‘उन्होंने बिहार विधानमंडल और पटना हाईकोर्ट जैसी इमारतों की नींव रखी. वो सांप्रदायिक सौहार्द्र के प्रतीक थे. जब औरंगाबाद में दंगा हुआ था तो वो वहां अकेले ही पहुंच गए. उन्होंने वहां शांति जुलूस निकाला. अपने चार महीने के कार्यकाल में जनता की तमाम समस्याओं का समाधान निकालने की कोशिश की. वैसा नेता अब किसी को कहां मिलेगा.’
उनकी उपलब्धियों को बताते-बताते शिवानंद तिवारी उदाहरण के तौर पर कहते हैं, ‘महात्मा गांधी के ज़माने को राहुल गांधी के साथ जोड़कर नहीं देखा जा सकता. वो दौर अलग था, ये समय अलग है.’
‘बैरिस्टर मोहम्मद यूनुस मेमोरियल कमिटी’ के चेयरमैन और यूनुस के पड़पोते क़ासिफ़ यूनुस बताते हैं, ‘यूनुस साहब ने बिहार के विकास के बारे में खूब काम किया. राजनीति व वकालत के अलावा बिजनेस व बिहार के डेपलपमेंट पर काम किया. सरकार बनाने से पहले ही उन्होंने बिहार में बैंक खुलवाया, इंश्योरेंस कम्पनी लाए. पटना में उनका बनाया हुआ ग्रैंड होटल तब के बिहार का पहला आधुनिक होटल था.’
क़ासिफ़ बताते हैं, ‘यूनुस साहब ने किसानों और मुस्लिमों पर विशेष ध्यान दिया, जिन्हें आज तमाम पार्टियों ने नज़रंदाज़ कर दिया है. अगर यूनुस साहब होते तो बिहार में किसानों व मुसलमानों की ऐसी हालत न होती.’
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में इतिहास के एसोसिएट प्रोफेसर मुहम्मद सज्जाद का कहना है, ‘बिहार चुनावों में किसानों के लिए सैद्धांतिक मंसूबे व वादे बहुत होते हैं. जब आप व्यवहारिक रूप से देखेंगे तो यहां का किसान मर रहा है लेकिन बिचौलिए मालामाल हो रहे हैं. सोचने की बात है कि जब देश में दलहन, तेलहन व अनाजों की क़ीमत आसमान छू रही है, तो किसानों की हालत बद से बदतर क्यों हो रही है. क्यों उन्हें आत्महत्या करनी पड़ रही है.’
प्रो. सज्जाद आगे बताते हैं, ‘यूनुस की चार महीने की सरकार में किसानों के लिए कई क़दम उठाए गए लेकिन आज की सरकार सत्ता में पहुंचते ही किसानों को पूरी तरह से भूल जाती है. यह विडंबना ही है कि आज तक कोई भी राज्य सरकार शीशम में लगे ‘वायरस’ पर कोई शोध नहीं करवा सकी. बिहार में पहले किसानों के लिए शीशम बहुत फ़ायदे की चीज़ हुआ करती थी लेकिन खुदा जाने कौन-सा वायरस लगा कि शीशम उगता है और थोड़ा बड़ा होकर सूख जाता है.’
मोहम्मद यूनुस स्वतंत्रता सेनानी व राष्ट्र-प्रेमी मुस्लिम नेता थे. स्वतंत्रता प्राप्ति के मामले में वह शुरू से ही कांग्रेस के साथ जुड़े हुए थे लेकिन जब कांग्रेस सबों को साथ लेकर चलने में विफल हुई तो 1937 में होने वाले विधानसभा चुनाव में बैरिस्टर मोहम्मद यूनुस ने मौलाना मो. सज्जाद की मदद से ‘मुस्लिम इंडीपेंडेंट पार्टी’ की स्थापना की. 1937 में राज्य चुनाव में 152 के सदन में 40 सीटें मुस्लिमों के लिए आरक्षित थीं जिनमें 20 सीटों पर ‘मुस्लिम इंडीपेंडेंट पार्टी’ और पांच सीटों पर कांग्रेस ने जीत हासिल की. शुरू में कांग्रेस पार्टी ने मंत्रिमंडल के गठन से इंकार कर दिया तो राज्यपाल ने दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के नेता के रूप में बैरिस्टर मो. यूनुस को प्रधानमंत्री (प्रीमियर) पद का शपथ दिलाया. लेकिन चार महीने बाद जब कांग्रेस मंत्रिमंडल के गठन पर सहमत हो गई तो यूनुस ने अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया.
तब से लेकर अपनी मौत के वक़्त तक यूनुस अपने सिद्धांत पर अडिग रहे और राष्ट्रीय एकजुटता व देश की आज़ादी के सवाल पर हमेशा कांग्रेस का साथ देते रहे.
मोहम्मद यूनुस की पूरी ज़िन्दगी किसानों, दलितों व मुसलमानों के उन्नति व प्रगति व बिहार के विकास के इर्द-गिर्द घूमती रही, जो उनकी चुनावी राजनीति का भी मुख्य एजेंडा था. मगर ये एजेंडा उनकी ज़िन्दगी में बदलाव लाने को लेकर था न कि उन्हें वोट की फ़सल की तरह इस्तेमाल करके काट कर फेंक देने का था, जैसा इन दिनों तमाम सियासी दल बिहार में कर रहे हैं.
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Bihar election 2015