बादल सरोज,
उनके साथ ग्वालियर की जेल में न जाने कितनी-कितनी बार गहरी बातें करने की स्मृतियाँ हैं.
वे अंदर फाटक के पास बनी जेल अदालत के बाहर यूं ही बैठी रहती थीं. हम हमसे मिलने आये मुलाक़ातियों से मिलने के बाद लौटते में या जेल अस्पताल के डॉक्टर से गपिया कर अपनी बैरक की तरफ जाते समय उनके सामने से गुजरते थे तो बुलाकर चाय पिलाने के बहाने बिठाकर खूब देर तक बात करती थी. अपनी ठेठ जुबान में अपनी हौलनाक कहानियां सुनाती थी. कई बार जब हम मजमें में होते थे तो जोर से दूर से चिल्लाकर हौसलाफज़ाई करती थीं कि हमने सरकार को अच्छा परेशान कर रखा है.
फूलन देवी (इन्डियन एक्सप्रेस से साभार)
फूलन का कामरेड शैली के प्रति खासा नेह था. कई बार कहने पर थोड़ा सकुचाते हुए लोकगीत भी सुनाया करती थीं. जब पूरा होने पर हम तालियां बजाते थे बेहद शर्म से लाल पड़ जाता था उनका चेहरा. उस खाँटी देसी और भरपूर गंवई महिला को कई बार जेल की महिला वार्डन के सिर से जुएं बीनते या बिनवाते भी देखा है.
एक बार कुछ ज्यादा ही बड़ा दमन हुआ था. मेरी माँ गायत्री सरोज और मोहनिया देवी कुशवाह सहित अनेक महिला कामरेड भी जेल गयीं. दो-तीन दिन इन्ही की बैरक में रही. फूलन देवी ने उनकी न सिर्फ ख़ातिर की और ख्याल रखा बल्कि बाहर निकल कर महिला समिति में काम करने का वादा भी किया, जो उन्होंने निभाया नहीं.
अपने दिल्ली प्रवास में उन दिनों हम पार्थो दा के यहां 42 या 44 नंबर अशोक रोड पर ठहरते थे. ठीक बगल की कोठी सांसद फूलन देवी की थी. एक दिन हम बिना बुलावे के घुस गए. वे बाहर ही बैठी थी...’अरे बाबू साब को चाय पिलाओ’ कहकर दमक उठी. हमने कहा कि क्या हुआ महिला समिति में काम करने का वादा? हमारे प्रश्न को वे उदास हंसी के साथ टाल गयीं.
इतने मन से और प्यार भरे सम्मान से आज उनकी याद इसलिए कर रहे हैं कि टूटपूंजिये और कायर बतोलेबाज जो कहें, लेकिन यह जानना ज़रूरी है कि फूलन एक उत्पीड़ित और खुद्दार महिला थी. उन पर बनी एक अच्छी फ़िल्म भी वह सब नहीं दिखा सकी जो उनके साथ हुआ और जो उन्होंने हमें सुनाया था. उनकी बातें सुनकर सुनने वालों को रोते हुए देखा है.
फूलन भारत के गांवों की गरीब और खासकर दलित महिलाओं के शोषण की वीभत्सता का जीता जागता दस्तावेज थी. उनके प्रतिरोध की दबी हुई कामना को साकार करने वाली थी.
आप फूलन के प्रतिकार से असहमत हो सकते हैं, हमारा समाज सभ्य समाज के सभ्रांत व्यक्तियों से भरा हुआ है, लिहाजा होना भी चाहिये. हम गुजरात के हत्याकांड को हत्याकांड नहीं कह सकते, महाराष्ट्र, बिहार, यूपी में धो डाले गए दलितों की ह्त्या के दोषियों के मूंछों पर हाथ फेरते और बाइज्ज़त बरी होने पर हम कुछ नहीं बोले तो बेहमई को ही क्या कहना चाहिए. मगर उसके पहले बस थोड़ी देर के लिए आँख मूंदकर खुद को फूलन की स्थिति में देखकर सोचना भी चाहिए.
अपने दीर्घ राजनीतिक जीवन में अर्जुन सिंह ने फूलन देवी का सरेंडर कराने से अधिक कोई नेक काम शायद ही किया हो.
जयपुर में हुए दलित शोषण मुक्ति मंच के सम्मेलन में बोलते हुए उदयपुर के एक युवा ने जब जोर से कहा कि ‘ये जमीन और रोजगार की बात बाद में देख लेंगे. सबसे पहले तो हमें आत्मसम्मान चाहिये. इज्जत चाहिए. अपने लिये भी और अपनी बहू-बेटियों के लिए भी.’
तो मेरे ज़ेहन में फूलन देवी का यह ज़िक्र आना लाजमी था.
(बादल सरोज मध्यप्रदेश सीपीआई(एम) के सचिव हैं. यह पोस्ट उनकी फेसबुक वाल से साभार. यह पोस्ट फूलन देवी की पुण्यतिथि के मौके पर.)