By सिद्धांत मोहन, TwoCircles.net,
वाराणसी: इस शहर के प्रचलित होने के अपने ही निराले कारण हैं. पिछले साल देखते-देखते यह शहर लोकसभा चुनाव की सबसे हाई-प्रोफाइल सीट में तब्दील हो गया. मोदी और केजरीवाल में टक्कर हुई. उसके पहले कई सारे आयोजन और कई सारे फसानों ने शहर को चर्चा के केंद्र में रखा ही है. शहर के बीचोबीच मुस्लिम बहुल इलाके में मौजूद मोहल्ले बेनियाबाग में एक शख़्स से मिलने का वक़्त रात को साढ़े ग्यारह के बाद का है. जब शहर सो जाता है तो यह शख़्स न्यौता देता है कि आइये, यहीं चाय पिएंगे और बात भी करेंगे. शख़्स का नाम है ‘अशफाक़ मेमन’. चौराहे पर एक एक छोटा-सा मंदिर है, उसके चबूतरे पर चाय की दूकान लगती है और मंदिर की दीवार से पीठ टिकाकर अशफाक़ मेमन आपसे रातभर बात कर सकते हैं. पुलिसवाले उन्हें ‘नेताजी सलाम’ कहकर संबोधित करते हैं तो अशफाक़ मेमन कहते हैं कि नेताजी मत कहा करो यार.
अशफाक़ मेमन कोई नया नाम नहीं है. भारत-पाकिस्तान मैत्री, हिन्दू-मुस्लिम एकता और गंगा-जमुनी तहज़ीब के साथ-साथ पूर्वाञ्चल की सेकुलर राजनीति के एक स्तम्भ के रूप में काम कर चुके शख़्स हैं अशफाक़ साहब. मोहल्ला बेनियाबाग भी कहीं कम प्रसिद्ध नहीं है. राजनारायण स्मृति पार्क के नाम से मौजूद मैदान में हर साल तिब्बती शरणार्थी गरम कपड़ों का बाज़ार लगाते हैं. बनारस के मुस्लिम वोटरों को रिझाने के लिए अरविंद केजरीवाल और राहुल गांधी इसी मैदान में रैलियां और जनसभाएं कर चुके हैं. लेकिन जब नरेंद्र मोदी ने इस मैदान में रैली की इजाज़त मांगी तो उन्हें यह इजाज़त नहीं दी गयी थी. अक्टूबर के महीने में हर साल इसी मैदान में इंडो-पाक मुशायरे का आयोजन होता है. भारत के साथ-साथ पाकिस्तान के भी कई बड़े शाइर और फनकार इस मुशायरे में शिरकत कर चुके हैं. इस इंडो-पाक मुशायरे की योजना और उसकी नींव रखने के साथ-साथ इसे जनता से एक पैसा लिए बिना चलता बनाए रखने के पीछे अशफाक़ मेमन और उनकी टीम हर साल लगी रहती है.
अशफाक़ मेमन
अपनी बीती ज़िंदगी के बारे में बताते हुए अशफाक़ साहब कहते हैं, ‘8 दिसंबर 1962 को इलाहाबाद में मेरी पैदाइश हुई थी. उसके बाद से लेकर एमए तक की पढ़ाई इलाहाबाद में ही विश्वविद्यालय से ही हुई. एमए के वक़्त ही मैं छात्र राजनीति में सक्रिय हो गया था, उसके बाद एकाध साल भटकने के बाद मैं बनारस आ गया और यहीं पर दवाइयों का धंधा शुरू कर दिया.‘ अशफाक़ मेमन ने आधुनिक इतिहास में एमए की डिग्री हासिल की थी, साथ ही साथ वे तमाम सभ्यताओं का अध्ययन करते रहे. अशफाक़ मेमन से बात करते वक़्त भी यह बात ज़ाहिर होती है. किसी एक तथ्य या बात को उर्दू ज़ुबान के मिसरे के साथ रखते तो हैं ही साथ ही साथ उसके लिए रामचरितमानस और श्रीमदभागवदगीता के चौपाई और श्लोक भी तैयार रखते हैं.
अशफाक़ मेमन आगे बताते हैं कि राजनीति में आने से बहुत सारी चीज़ें बदलीं. वे कहते हैं, ‘देखिये, कभी कोई चुनाव नहीं लड़ा और न ही कभी किसी पद का लालच रहा. साल 1985 में उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अल्पसंख्यक सेल का प्रमुख बना दिया गया, जिसके बाद से 1996 तक मैं वहां इन मामलों को देखता रहा. इसके बाद 1996 से 2004 तक मैंने यूथ कांग्रेस का कार्यभार सम्हाला. अब राजनीति से उतना जुड़ाव तो नहीं है, लेकिन अपने समाज को और लोगों को भी इसी तरीके से देखता हूं.’
मुशायरे के बारे में कई शायर और शहर के कई सारे नागरिक बताते हैं कि कम से कम हिन्दुस्तान का कोई भी बड़ा शायर नहीं होगा, जिसने इस मुशायरे में अपने फन को पेश न किया हो. शहर के पुरनिये बताते हैं कि शायरों को यहां बुलाकर और उनकी नज़्मों से संस्कृति और सभ्यता का अध्याय रचने में अशफाक मेमन की ही मेहनत और लगन लगती है. इस मुशायरे में रात भर उर्दू शायरी के कद्रदान बैठे रहते हैं. न कोई टिकट है न पास है. जिसकी जहां मर्जी हो बैठ सकता है. जनता से एक भी रुपया नहीं लिया जाता है, सारा पैसा मुशायरे का ट्रस्ट अपने स्तर पर इकठ्ठा करता है.
सद्भावना के इस बड़े आयोजन की शुरुआत के बाबत अशफाक साहब कहते हैं, ‘साल 1992 में देश की स्थिति बेहद खराब थी. हर तरफ कट्टरपंथ अपनी जड़ें जमाता जा रहा था. केंद्र की सरकार की बात जानें ही दें फिर भी उस दौरान उत्तर प्रदेश की तत्कालीन कल्याण सिंह सरकार किस कदर हिन्दू कट्टरपंथियों की हरेक कार्य में मदद कर रही थी? अयोध्या में संघ और विहिप के मूवमेंट में खासी तेज़ी आ गयी थी. इसी को ध्यान में रखते हुए मैंने फिरकापरस्ती ताकतों के खिलाफ़ उसी साल ‘ऑल इण्डिया मुशायरा’ नाम से इस आयोजन की शुरूआत की.’
अशफाक मेमन बताते हैं कि जिस वक़्त आयोजन शुरू हुआ था, उस समय वह अपने शैशवकाल में था. बाबरी मस्ज़िद के गिराए जाने के बाद पूरे उत्तर प्रदेश में मुस्लिम समुदाय को लेकर आक्रोश भर चुका था. ऐसे में लोगों को लग रहा था कि आने वाले सालों में मुशायरा किस कदर आगे बढ़ेगा? लेकिन सारी संभावनाओं और अटकलों को धता बताते हुए अशफाक मेमन ने इस मुशायरे को फिरकापरस्ती के खिलाफ़ और सामाजिक एकता के बरअक्स बनाए रखा और इस आयोजन को उसके मक़ाम तक भी पहुंचाया.
सालाना मुशायरे की तस्वीर (साभार - जागरण)
कार्यक्रम की परेशानियों के बारे में पूछने पर अशफाक़ साहब बताते हैं, ‘शुरू करते वक़्त न पैसा था, न सही प्लानिंग थी. उस समय मैं सक्रीय राजनीति से बहुत गहरे तौर पर जुड़ा था तो दिवंगत प्रधानमंत्री राजीव गांधी की याद में इस मुशायरे को शुरू करने का बीड़ा उठाया. राजीव गांधी कहते थे कि यदि देश में साम्प्रदायिक सौहार्द्र नहीं रहेगा तो देश टूट जाएगा. इन्हीं गांधीवादी मूल्यों को ध्यान में रखते हुए हमने यहां इस आयोजन की शुरुआत की. अब सक्रीय राजनीति से उतना गहरा रिश्ता तो नहीं है, लेकिन समाज को उसी तबीयत से संबोधित करता हूं. उस समय से लेकर अभी तक हमने एक ही एजेंडे पर इस मुशायरे को बढ़ाया है,
गूंजे कहीं पर शंख, कहीं पर अजान हो
जब ज़िक्र-ए-एकता हो, तो हिन्दोस्तान हो
यह रेयाज़ बनारसी का शेर है. इसी एजेंडे और इसी सन्देश के साथ हम मुशायरा करते हैं.’ वे आगे कहते हैं, ‘निदा फाज़ली, राहत इन्दौरी या किसी भी बड़े शायरका नाम लीजिए, मेरा दावा है कि कोई भी नाम नहीं छूटेगा जिसने यहां अपनी उपस्थिति नहीं दर्ज कराई है.’ अशफाक़ आगे बताते हैं, ‘अब शायर आते हैं तो उनके सारे इन्तिज़ाम करने पड़ते हैं. कुछ शायर तो इतने पैसे मांग लेते हैं कि सिर चकरा जाता है. उनके आने-जाने, रुकने, खाने का सारा इन्तिज़ाम देखना पड़ता है. पैसे को लेकर चिंता हर साल बनी रहती है लेकिन भोलेबाबा और अल्लाह के आशीर्वाद से कभी पैसे की कमी नहीं पड़ी.’
साल 1992 में बनारस भी दंगों की आग में झुलसा था. सामाजिक परिस्थितियों के बीच एक उर्दू तहज़ीब के बड़े आयोजन को अंजाम देना तब बड़ी बात थी. इसके बारे में पूछने पर अशफाक मेमन कहते हैं, ‘इस शहर के बारे में क्या कहूं? जितना कहूंगा उतना कम होगा. ये गलत नहीं है कि उस समय परिस्थितियां बेहद नासाज़ थीं, लेकिन भगवान शिव के त्रिशूल पर टिकी काशी में कोई कितने वक़्त तक भ्रमित रह सकता है? अल्लाह का करम हुआ और हम आज तक यह आयोजन पूरे जुनून और जोश के साथ कर रहे हैं.’
साल 2004 में इस ऑल इण्डिया मुशायरा को इंडो-पाक मुशायरे में तब्दील कर दिया गया. तब से लेकर आज तक हर साल हर किस्म की ताकत को इस मंच ने खुले आम चुनौती दी है. इस आयोजन ने समय और संसाधनों से कुछ ज्यादा ही अशफाक़ मेमन से ले लिया है. अशफाक़ मेमन की पत्नी आज से आठ साल पहले स्तन कैंसर से जूझते हुए चली गयीं. अशफाक़ साहब इस बारे में कुछ बात करने से बचते हैं. पूछते हैं कि क्या फायदा होगा, लेकिन फ़िर हमारी ज़िद पर बताने लगते हैं तो आखिर में आंसुओं से बुरी तरह से भींग जाते हैं. ‘बम्बई में मेरी पत्नी की कीमोथेरैपी चल रही थी. अक्टूबर भी चल रहा था. उन्हें तीन कीमो लग चुके थे और चौथे के लिए वापिस बीस दिनों बाद बम्बई जाना था. 16 अक्टूबर मुशायरे के लिए मुक़र्रर हो गयी थी और 22 अक्टूबर को उन्हें चौथा कीमो लगना था. मुशायरे के लिए कुल डेढ़ लाख रुपये की राशि कम पड़ रही थी. टीम के कुछ सदस्य ज़रूरी काम से बाहर गए हुए थे तो पैसे के लिए संपर्क भी नहीं हो पा रहा था. मेरी पत्नी ने मुझे परेशान होते देखकर कहा कि मेरे पास एक लाख चालीस हज़ार रूपए हैं, आप ले लीजिए. मैंने न चाहते हुए पैसे लिए लेकिन उन्हें भरोसा दिलाया कि 22 के पहले टीम के सदस्य लौट आएंगे और कीमो के लिए पैसों की कमी नहीं होगी.’ अशफाक़ साहब आगे बताते हैं, ‘मुशायरा भी हो गया, 22 तारीख भी बीत गयी. मुझे पैसे 25 को मिले और मैं भागा-भागा बम्बई पहुंचा तो डॉक्टर ने कहा कि पिछली सारी मेहनत बर्बाद हो गयी. कीमो नहीं लग सका. मेरी पत्नी ने बीस-पच्चीस दिनों बाद बीएचयू में दम तोड़ दिया.’ कहते-कहते अशफाक़ मेमन आंसुओं में भींग जाते हैं. वे आगे बताते हैं, ‘बीमार होने के बावजूद हर साल वे एकदम आगे बैठकर पूरा मुशायरा सुनती थीं.’
मुशायरे में राहत इन्दौरी
अशफाक़ मेमन की सिर्फ एक शिक़ायत है कि इस देश में अम्न का राग अलापने का तमगा उन्हीं लोगों को दिया जा रहा है, जो गाहे-बगाहे तौर पर अम्न और सद्भावना के खिलाफ़ खड़े होते हैं. उनकी दरखास्त है कि इसे चिन्हित और रोका जाना चाहिए.
कामयाबी की एक कीमत होती है. अशफाक़ मेमन ने और बनारस की तहज़ीब ने अपना वजूद खड़ा करने के लिए एक बड़ी कीमत चुकाई है. बनारस ने सैकड़ों मुस्लिम परिवारों के क़त्ले-आम के बाद गंगा-जमुनी तहज़ीब का तमगा पाया है और अशफाक़ मेमन जैसे लोगों की कहानी सामने है. यह ज़ाहिर है कि सभ्यता में अम्न-चैन की बात तभी की जाती है जब एक समुदाय खूंरेजी आन्दोलनों की भेंट चढ़ चुका होता है. ऐसे में यह संतोषजनक ही है कि इंडो-पाक मुशायरा के ज़रिए बनारस वैश्विक पटल पर अपनी मज़हबी एकता की छाप छोड़ रहा है.
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