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जानिए! किसकी वजह से हुई भगत सिंह को फांसी और उसका क्या हुआ हश्र?

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Afroz Alam Sahil, TwoCircles.net

आज ‘शहीद-ए-आज़म’ भगत सिंह का 85वां शहादत दिवस है. 1931 में आज ही के दिन भगत सिंह को फांसी दी गई थी. लेकिन क्या आप जानते हैं कि उन्हें फांसी के तख़्ते तक पहुंचाने की सबसे अहम भूमिका किसकी थी? और बाद में उस शख्स का क्या हश्र हुआ?

यह तथ्य दरअसल चम्पारण के बेतिया शहर से जुड़ा हुआ है. बेतिया के ‘क्रांतिकारी’ फणीन्द्र नाथ घोष ‘अखिल भारतीय क्रांतिकारी दल’ की कार्यकारिणी के प्रमुख सदस्य थे. इसी बेतिया में कमलनाथ तिवारी, केदार मणी शुक्ल, गुलाब चन्द्र गुलाली जैसे दर्जनों क्रांतिकारियों ने अंग्रेज़ी हुकूमत का जीना दुश्वार कर रखा था.

काकोरी लूट-कांड के बाद देश में जगह-जगह छापे पड़े. बचते-बचाते 1925 के अंतिम दिनों में चंद्रशेखर आज़ाद बेतिया पहुंचे. घोष ने उन्हें बेतिया के जोड़ा इनार स्थित शिक्षक हरिवंश सहाय के घर पर ठहराया. हरिवंश, पीर मुहम्मद मूनिस के दोस्त थे और ये भी राज हाई स्कूल में पढ़ाने के साथ-साथ कानपुर से निकलने वाले ‘प्रताप’ अख़बार के लिए लिखते थे. सहाय को आज़ाद की मदद करने के जुर्म में इन्हें शिक्षक के पद से बर्खास्त कर दिया गया.

चन्द्रशेखर आज़ाद क़रीब एक महीने हरिवंश सहाय के घर ही रहें. उसके बाद वो 17 दिनों तक केदार मणि शुक्ल के घर रूके. कुछ दिनों नन्हकू सिंह के घर भी रहें. बाद में क्रांतिकारी गुलाब चन्द्र गुलाली ने इन्हें दो दिनों तक एक मंदिर में छिपाकर रखा.

इस काकोरी कांड के बाद, ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन’ पूरी तरह से बिखड़ चुका था. भगत सिंह ने इसे पुनः जीवित करने का बीड़ा उठाया. इसी क्रम में 1927 में भगत सिंह बेतिया फणीन्द्र नाथ घोष के घर पहुंचे. बेतिया में अलग-अलग क्रांतिकारियों के घर कई दिन रहें. तत्पश्चात भगत सिंह, योगेन्द्र शुक्ल से मिलने वैशाली चले गए.

धन-प्रबंधन के लिए समस्तीपुर ज़िला स्थित शाहपुर पटोरी गांव के एक ज़मीनदार के घर (जिसके तिजोरी में तीन लाख रूपये थे) डकैती डालने की असफल कोशिश की गई. इस डकैती की सबसे खास बात यह थी कि इस राजनीतिक डकैती में खुद भगत सिंह व राजगुरू शामिल थे.

8-9 सितंबर, 1928 को दिल्ली के फिरोज़ शाह कोटला के खंडहरों में क्रांतिकारियों की एक अखिल भारतीय बैठक बुलाई गई. इस बैठक में बिहार की ओर से दो बेतिया-वासी यानी फणीन्द्र नाथ घोष और मनमोहन बनर्जी ने हिस्सा लिया. इस बैठक की अध्यक्षता भगत सिंह कर रहे थे.

दरअसल इसी बैठक में ‘हिन्दुस्तानी समाजवादी प्रजातांत्रिक सेना’ की स्थापना की गई. बिहार का कमान फणीन्द्र नाथ घोष को सौंपा गया.

1928 में ही संगठन ने धन-प्रबंध के लिए बेतिया से कुछ दूरी पर स्थित मौलनिया गांव में हरगुन महतो के घर डाका डालने की योजना बनाई गई. क़िस्मत ने यहां भी क्रांतिकारियों का साथ नहीं दिया. डकैती के क्रम में क्रांतिकारी कमलनाथ तिवारी की कुहनी कट गई. खून रूकने का नाम नहीं ले रहा था. इस क्रम में हंगामा भी ज़्यादा मच गया. मजबूरन न चाहते हुए भी एक खून करके भागना पड़ा.

कमलनाथ तिवारी को बेतिया अस्पताल में भर्ती कराया गया. लेकिन यहां एक खुफिया अधिकारी पहुंच गया और तिवारी जी को पकड़ लिया. इस गिरफ्तारी के बाद से बाकी क्रांतिकारी भी पकड़े गए. हालांकि इनमें से कई फ़रार हो गए. लेकिन बाद में उनकी भी गिरफ़्तारी कहीं न कहीं से हो ही गई.

इस क्रम में फणीन्द्र नाथ घोष माणिकतल्ला स्थित अपने ननिहाल में गिरफ़्तार कर लिए गए. अब वो सरकारी गवाह बन गए थे. अपने ही लोगों के साथ घोष गद्दारी कर चुके थे. उन्हें लाहौर षड़यंत्र के आरोपियों यानी भगत सिंह, राजगुरू, शुखदेव सहित कमलनाथ तिवारी के ख़िलाफ़ गवाही देने के लिए लाहौर ले जाया गया था. यहीं नहीं, मनमोहन बनर्जी भी अब सरकारी गवाह थे.

27 फरवरी, 1931 का वो दिन भी काफी दुर्भाग्यपूर्ण था. किसी भेदिये ने चन्द्रशेखर आज़ाद के बारे में गोरों को जानकारी दे दी कि वे इलाहाबाद स्थित अल्फ्रेड पार्क से गुज़र रहे हैं. खुफिया अधिकारी नॉट बाबर ने वहां मोर्चा संभाल लिया. आज़ाद ने कुछ देर तक अपने माउजर पिस्टल से नॉट बाबर का मुक़ाबला किया, लेकिन जब उन्हें लगा कि वो गिरफ़्तार कर लिए जाएंगे तो उन्होंने आख़िरी गोली अपने सीने में उतार ली और ‘आज़ाद’ हमेशा के लिए आज़ाद होकर इस दुनिया से कूच कर गए.

हालांकि अंग्रेज़ अभी भी कंफ्यूज़न में थे कि कहीं ये आज़ाद न हुआ तो… तब फणीन्द्र नाथ घोष ने सरकारी गवाह के तौर पर आज़ाद के शव की शिनाख्त की थी.

आगे चलकर फणीन्द्र नाथ घोष ने सरकारी गवाह के तौर पर सैण्डर्स-वध कांड और असेम्बली बम कांड मंं भी अपनी गवाही दी और इसी गवाही के आधार पर भगत सिंह, राजगुरू एवं सुखदेव को आरोपी बनाकर उन्हें फांसी की सज़ा सुनाई गई.

इधर मौलनिया डाका कांड के बाकी आरोपियों को भी सज़ा सुनाया गया. लेकिन 1932 में योगेन्द्र शुक्ल व गुलाब चन्द्र गुलाली दीवाली की रात खुफिया तरीक़े से भाग निकले. जेल से निकलते ही उन्होंने गद्दार फणीन्द्र नाथ घोष को सज़ा देने की क़सम खा ली.

इस क़सम को पूरा करने की ज़िम्मेदारी योगेन्द्र शुक्ल के भतीजे बैकुंठ शुक्ल ने अपने कंधों पर ले ली. इनका साथ देने को चन्द्रमा सिंह तैयार हुए. 1932 में ही शीत ऋतु में हत्याकांड को अंतिम रूप देने का निर्णय लिया गया. 9 नवम्बर, 1932 को बेतिया के मीना बाज़ार के पश्चिमी द्वार पर पहुंच कर बैकुंठ शुक्ल और चन्द्रमा सिंह साईकिल से उतरे. एक पान गुमटी पर अपनी साईकिल खड़ी करके फणीन्द्र नाथ घोष की दुकान की ओर बढ़ गए.

घोष के दुकान के आस-पास से भीड़ को हटाने के मक़सद से शुक्ल ने पटाखेनुमा हथगोला ज़मीन पर दे मारा. कर्णभेदी धमाका हुआ. धुंए के गुबार में कुछ भी देख पाना असंभव हो गया. इसी मौक़े का फायदा उठाते हुए शुक्ल ने खुखरी निकाल ली. उधर धमाका होते ही फणीन्द्र नाथ घोष भी सतर्क हो गया कि कहीं उसकी जान के दुश्मन बने इंक़लाबी तो नहीं पहुंच गए.

उसने भी पिस्तौल निकाली, मगर उसे संभलने का मौक़ा दिए बग़ैर शुक्ल जी ने अपनी खुखरी से अंधाधुंध कई वार कर दिए. वार इतने जानलेवा थे कि घोष चीखें मारता ज़मीन पर लोट गया. बेतिया अस्पताल में क़रीब सप्ताह भर ज़िन्दगी व मौत के बीच जूझते हुए फणीन्द्र नाथ घोष की कहानी अब ख़त्म हो चुकी थी.

क्योंकि मामला घोष जैसे सरकारी गवाह का था. पुलिस ने अपनी तफ़्तीश में ज़मीन-आसमान एक कर दिया. आख़िकार 5 जनवरी 1933 को चन्द्रमा सिंह कानपुर से जबकि बैकुंठ शुक्ल 6 जुलाई, 1933 को हाजीपुर पुल के सोनपुर वाले छोर से गिरफ़्तार कर लिए गए. मोतिहारी कोर्ट में मुक़दमा चला. सत्र न्यायाधीश ने 23 फरवरी 1934 को अपना फैसला सुनाया. चन्द्रमा सिंह को 10 साल का कारावास मिला और बैकुंठ शुक्ल को फांसी की सज़ा सुनाई गई.

हालांकि इस फैसले के ख़िलाफ़ पटना हाईकोर्ट में अपील भी की गई, लेकिन यहां भी सज़ा को बरक़रार रखा गया. इस प्रकार बैकुंठ शुक्ल को गया सेन्ट्रल जेल में 14 मई 1934 को फांसी के तख्ते पर चढ़ा पर दिया गया. लेकिन अफ़सोस आज देश की कौन कहे बल्कि चम्पारण के युवा भी शायद बैकुंठ शुक्ल को जानते हों...

लेखक इन दिनों चम्पारण सत्याग्रह व चम्पारण के इतिहास पर शोध कर रहे हैं. उनसे afroz@twocircles.netपर सम्पर्क किया जा सकता है.


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