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भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खां की बरसी पर उनकी एक याद

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व्योमेश शुक्ल

[आज की बहस का सबसे बड़ा सच यही है कि मुसलमान को बारम्बार यह साबित करना होता है कि वह इस वतनपरस्त है. आज भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खां की बरसी है. उन्हें और लता मंगेशकर को एक साथ भारत रत्न दिया गया था. आज से तकरीबन दस साल पहले. अब यह बदहाली का ही आलम है कि मदन मोहन मालवीय को पिछले साल भारत रत्न दिए जाने के बाद उस्ताद के शहर बनारस में ही यह हल्ला होने लगा कि बनारस को मिला यह पहला भारत रत्न है. उस्ताद अब अपने शहर में ही अनजान हैं. वे मुस्लिम समुदाय में भी मुहर्रम हैं. साल में एक दफ़ा ही याद आते हैं. इस थोड़े लम्बे आलेख के लिए पाठकों का धैर्य ज़रूरी है. उस्ताद के जीवन से सीखने में भलाई है.]

उस्ताद ने अपना बाजा शहर में खो दिया था। किसी शहर में खो जाने की पर्याप्त वजहें होती हैं। अनेक तरीक़ों से गुम होकर उतने ही नवीन नतीजों में पाया जाना होता है। यह सिर्फ़ खेल नहीं है, संस्थापन की विपदाएँ हैं। एक ही जगह रहने का मूल्य। बड़ी बहसों और साहित्य वग़ैरह में विस्थापन के विभिन्न आयामों पर ख़ूब बात हुई और संस्थापन को, आदिवास को कम मान लिया गया। संस्थापन जबकि विस्थापन का आधार है या उसका प्रास्ताविक। विस्थापन नामक इति का अथ है संस्थापन। वह पहला अध्याय है, हालाँकि अनेक पटाक्षेप उसमें निहित हैं। इसे नज़रंदाज़ करना ख़ुद विस्थापन को अधूरा बना देना है और ऐसा होता रहा है।

जैसे पेड़ की तरह रहना कुछ कम रहना हो। जैसे खड़े-खड़े या बैठे-बैठे या लेटे-लेटे मर जाना कुछ कम जीवन हो। जैसे रोज़मर्रा के मरण में कुछ कम अमरत्व हो। इस उपेक्षा के कारण स्थान के साथ कलाकार के संबंधों की अभिनव पद्धतियों का आविष्कार और प्रचार-प्रसार नहीं हो सका, बल्कि दोनों को अलग-अलग कर दिया गया। कुछ लोग सनक में या फ़ैशन में मातृभूमियों को गाली देने लगे। ज़्यादा चालाक लोगों ने बहिर्गमन कर लिया और दूर जाकर अपनी-अपनी ज़मीन के लिए हाहाकार करने लगे। ये सब ओढ़े हुए विस्थापन थे और नकली अफ़सोस। भीतर से प्रसन्न आत्माएँ शोक का मुकुट लगाकर घूम रही थीं। यशस्वी लोग परदेस में रहकर नियमन करना चाहते लोग थे।

लेकिन उस्ताद ने इबारत को उल्टी तरफ़ से पढ़ा। उन्होंने जगह में रहते हुए भूमण्डल तक का सफ़र किया। वे ख़ूब-ख़ूब घूमे किन्तु भटके नहीं और भटके तो घर आकर। वे अपनी आत्मा से निकली गलियों में भटके और दूसरों में प्रवेश कर गये। वे जीवन से निकली नदी के तट पर भटके और मंदिरों के नौबतख़ानों में बैठे मिले। भटकते हुए उनका बाजा शहर में खो गया जिसे हम आज तक ढूँढते हैं। और अब यह जाने बग़ैर काम नहीं चलता कि बनारस में उनसे जुड़ी हरेक जगह उनकी शहनाई के निर्माण की तरह नज़र आती है।


उस्ताद बिस्मिल्लाह खां
उस्ताद

हम शहर में क्या खोजते? हमने हमेशा उसे छिपने के लिए इस्तेमाल किया। वह एक गाढ़ा पर्दा था हमारे लिए। लोगों की आदतों, लिप्तताओं, विकलताओं, ज़िदों, सुलहों और कलहों, निराशाओं, नींदों और स्वप्नों के तत्वों से बना हुआ। उस्ताद ने इन्हीं तत्वों में से तत्व चुने और कला के शरीर का निर्माण कर लिया। उनकी शहनाई हमेशा लोगों के तत्वों से बनी और बढ़ी है। वह, मसलन, हिन्दुओं की प्रसन्नता और मुसलमानों के शोक से बनी है। आख़िरी बरस को छोड़कर वह आजीवन बनारस में मुहर्रम की पांचवीं और आठवीं तारीख को कर्बला के वीरों की शहादत की याद में आँसुओं का नज़राना पेश करते रहे। हुसैन का ग़म बजाते रहे। यह मातम के जुलूस में आगे-आगे बजती हुई शहनाई और शोक का नेतृत्व करती हुई धुन थी।

उस्ताद ने अपनी जीवन-साधारणता को कला के नक्शों में ढाल लिया था। उनकी ज़िन्दगी के सादा, ग़रीब और निरलंकृत शिल्प को उनकी शहनाई के अप्रत्याशित से जोड़े बग़ैर मूल्यांकन के काम अपर्याप्त और हवाई बने रहेंगे। एक दुनिया थी जो उस्ताद को दे दी गयी थी। वह उसके साथ सपनों की दुनिया की तरह पेश आते थे और कला के स्वप्नमय संसार को अपनी अभिव्यक्ति से आमफ़हम बना देते थे। उनकी कला का गन्तव्य दी हुई दुनिया को सपनों की दुनिया से जोड़ने में है। हिन्दुओं के यहाँ ख़ुशी के अवसरों पर बजने वाली धुनों को उन्होंने एक असंभव प्राकृत सरलता के साथ बजाया है। उनके जटिल कलात्मक अंतःकरण में दाख़िल होकर उन पारम्परिक धुनों का ‘मूल’ तनिक भी बदला नहीं है। प्रायः यह होता है कि लोक रूप किसी कलाकार की अभ्यास और अनुभवसिद्ध चेतना के हवाले होकर परिपक्व और स्वीकार्य होते जाते हैं। वन्य परिवेश एक साफ़ सुथरा बागीचा बनता जाता है। उस्ताद का रास्ता उल्टा था। और अब हालत यह है कि उनकी शहनाई से निकले रूप ही असल और अविकल हैं।

उस्ताद को एक लम्बा जीवन और विचित्र संक्रमणशील ऐतिहासिक समय सीखने के लिए मिला। इस तथ्य में उनकी कला के ज़रूरी रहस्य निहित हैं। 18 मार्च, 1916 को डुमराव (बिहार) में जन्म के कुछ समय बाद वह मामू के पास 22 में बनारस आ गये। मामू ही उनके गुरु हुए। बाद में उस्ताद उनकी सम्पत्ति के भी वारिस हो गये। 40 में मामू और 57 में बड़े पिताजी के इन्तकाल के बाद एक बड़े कुटुम्ब की सारी ज़िम्मेदारी उनके कंधों पर थी। यह आन्दोलनकारी अग्रगामिता का युग था; हालाँकि राजाओं, महाराजाओं के यहाँ झूले भी पड़ रहे थे। दोनों जगहों का संगीत था। उस्ताद ने दोनों में अकुंठ हिस्सेदारी की। उन्होंने दम तोड़ती सामंती महफ़िलों में प्राण फूँके और लोकतंत्र के नये दरबार में भी रोशनी बिखेरी।

यह बात आज कुछ शर्मिन्दा करती है कि बनारस और इर्दगिर्द के छोटे-बड़े कई कथित राजाओं और लोकतंत्र के नये दिग्गजों के वह लगभग अन्त तक, समय-समय पर दरबारी रहे। कमलापति त्रिपाठी, सम्पूर्णानन्द और सुधाकर पाण्डेय जैसे प्रभावशाली कांग्रेसी नेताओं के सम्मुख उनके क्षुद्र घरेलू आयोजनों में उस्ताद ने एक दर्जा नीचे रहकर, ज़मीन पर बैठकर लेकिन उतनी ही निष्ठा के साथ बार-बार अपना बाजा बजाया। लेकिन वक़्त का इंसाफ़ देखिये - आज वे आयोजन और उनके प्रचंड आयोजक ज़्यादा से ज़्यादा इसलिए याद किये जाते हैं कि उनमें उस्ताद की शहनाई भी थी। इन विविध आयोजनों से उस्ताद ने बहुत कुछ सीखा। राजाओं की महफ़िल में उन्हें अपने शाश्वत संगीत-सहचर मिले। सिद्धेश्वरी और गिरिजा, बैजनाथ प्रसाद सारंगिये मिले, विलायत खाँ और अनोखेलाल से मुलाक़ात हुई। ये सभी जुगलबंदियाँ जीवनपर्यन्त और मृत्योपरान्त चलीं। वे अब भी जारी हैं और उनकी गूँज कभी भी सुनी जा सकती है।

वे सरकारी टेलीविजन के सामने निर्वस्त्र होने से बचने के दिन थे। हम धीरे-धीरे शर्माना सीख रहे थे और डरते थे कि कहीं सलमा सुल्तान, शम्मी नारंग, मंजरी जोशी, वेद प्रकाश, जे.वी. रमण या निथि रविन्द्रन नंगा न देख लें। ‘द वर्ल्ड दिस वीक’ में डिजिटल तरीक़े से रिकॉर्ड किये गये तबले ने बस अभी ही तड़तडाना शुरू किया था। उसी समय वहीं पहली बार उस्ताद से सामना हुआ। वे अपने विनोद से विनोद दुआ को निरुत्तर कर रहे थे। बातचीत के विवरणों की बजाय स्थानीय बनारसी भोजपुरी में बोले गये उनके कुछ वाक्य बाक़ी रह गये, जिनमें से एक था - ''का रजा................. ? ''

उस्ताद को तकलीफ़ और उम्मीद की शर्तों पर ही ढूँढा जा सकता है, अन्यथा तो उन्हें गुज़रे चार बरस हो चुके हैं। अरसा बाद उनके मोहल्ले की एक ऐसी पीढ़ी सड़क पार करना और स्कूल ड्रेस पहनना सीख रही है जो उस्ताद का नाम और पता पूछने पर बस मुस्करा देती है। यह पीढ़ी बड़ी होकर पाठ्यक्रमों के ज़रिये उन्हें जानेगी, उनके घर की दीवार छूकर नहीं। उस्ताद के घर से कुछ दूर पर बेनियाबाग मैदान है जहाँ उनके शरीर को लाखों लोगों के दर्शन के लिए रखा गया था - उनकी प्रिय जगह - यहाँ बैठकर उन्होंने स्थानीय फुटबाल टीमों के अनगिनत मैच देखे और फुटबालरों का संरक्षण किया।

बरसात की एक सुबह इस कीचड़ भरे मैदान में निरुद्देश्य अतर्कित बैठे रहना उन्हें खोजना है, लेकिन मैदान की दूसरी विडम्बनाओं पर निगाह चली जाती है। कभी यही अपने युवजन लड़ाकों के साथ मिलकर राजनारायण ने विक्टोरिया की प्रस्तर-प्रतिमा का ध्वंस किया था। दशकों तक वह जगह खाली थी - उस्ताद की ग़ैरमौजूदगी की तरह। बाद में जब मुलायम सिंह यादव जैसे समाजवाद के स्वयंभू वारिस दृश्य में आये तो उन्होंने बिल्कुल विक्टोरिया वाली जगह पर राजनारायण की मूर्ति लगवा दी। प्रतिमा का विकल्प प्रतिमा। यह बरसात का ही असर होगा कि उस मूर्ति में राजनारायण मुलायम जैसे दिखते हैं।

एक और बनारसी दिग्गज उपन्यास-सम्राट प्रेमचन्द की तरह उस्ताद भी सिनेमा और मुंबई से भागते रहे। वह प्रेमचन्द की तरह असफल नहीं हुए फिर भी भागे। उन्हें यहाँ के अलावा कहीं नहीं टिकना था। 41 के आसपास उनका मुंबई आना-जाना शुरू हुआ। वहाँ नौशाद और वसंत देसाई उनके दोस्त हुए। ‘किनारा’ नामक फ़िल्म में वह साइड हीरो की भूमिका में उतरे। फ़िल्म की नायिका गीता बाली थीं। पुराने लोग बताते हैं कि फ़िल्म बनारस में खेली (चली) भी थी। इस बीच कपूर परिवार से उनकी दोस्ती हो गई और बदले में हमारी सभ्यता को एक विलक्षण म्यूज़िक पीस उपहार की तरह मिला जो 'आवारा'के प्रसिद्ध गीत ‘घर आया मेरा परदेसी’ में मुखड़े और अन्तरे के दरम्यान और दो अन्तरों के बीच बजता है।

वह धुन कालजयी उम्मीद और प्रेम की सिग्नेचर ट्यून के तौर पर जीवित रहेगी। ‘बाबुल’ में शमशाद बेगम के एक गाने के साथ भी उनकी शहनाई ने संगत की। यह सारा काम खेल-खेल में, लीलाभाव से किया गया है। ज़ाहिर है कि उस दौर में पैसा मुद्दा नहीं था। कुछ समय बाद, 56 से कुछ पहले, निर्माता-निर्देशक-फाइनेंसर विजय भट्ट का भट्ठा बैठा हुआ था और वह संगीत को केन्द्र में रखकर फ़िल्म बनाना चाहते थे। वसंत देसाई के ज़रिये उन्होंने उस्ताद को पुकारा। उस्ताद को फिर लगभग मुफ़्त में बजाना था। उन्होंने वसंत को भरोसा दिया कि खरमास (वह महीना जिसमें शादी-ब्याह आदि मंगल कार्य नहीं होते) और इसलिए उस्ताद और उन जैसे दूसरे शहनाई वादक इस समय खाली रहते हैं।) बाद वह मुंबई पहुँच जाएंगे।

इस फ़िल्म में उस्ताद ने बहुत कुछ बजाया। वह सब जो शादी में बजता है, जो दृश्य के कुछ और हरे हो जाने पर बजता है, जो दिल के टूट जाने पर बजता है। जब एक स्थानीय धुन उस्ताद की साँस में अनूदित होकर ‘गूँज उठी शहनाई’ का प्रसिद्ध गीत बनी तो उसके शब्द ‘दिल का खिलौना हाय टूट गया’ और उन्हें स्वर देने वाली लता मंगेशकर की आवाज़ इतिहास बन गयी। यह इस फ़िल्म की एक क्षुद्र ख़ासियत थी कि इसने उस्ताद के मित्र हो गये विजय भट्ट को फिर से समृद्ध और स्थापित कर दिया।

बाद में बजती शहनाईयों में उस्ताद को ढूँढ़ने के प्रयत्न में गुम हो जाने का जोख़िम है। उनके स्वाभाविक वारिस और बेटे नैयर हुसैन भी अब दुनिया में नहीं हैं। नैयर के अलावा बेटे ज़ामिन और भांजे मुमताज हुसैन बेहतरीन शहनाई बजाते हैं। शिष्यों - शैलेष भागवत और कादिर दरवेश का देश-विदेश में बड़ा जलवा है। लेकिन जिस चीज़ को ये सभी शिष्य गुरु का आशीर्वाद और अपनी सबसे बड़ी ताक़त मानते हैं, दुर्भाग्य से वही उनकी सीमा है। इनमें से किसी को बजाते हुए अलग-अलग पहचाना नहीं जा सकता। अगर सुनने वाला आँख बन्द कर ले और चेले अपना सर्वोत्तम बजा रहे हों तो ये बिस्मिल्लाह खाँ से भिन्न कुछ भी नहीं है। उस्ताद की परछाई भीतर तक घुस गई है और कोई निदान नहीं है।

दरअसल शहनाई साँस का बाजा है और मंच पर एक शहनाई एक साँस कम पड़ जाती है। उस्ताद अपने लगभग दर्जन पर शागिर्दों के साथ प्रस्तुति करते थे। इन सभी लोगों ने लम्बे दौर तक उनके साथ संगत की है। उनकी अधूरी और स्थगित साँस को पूरा किया है। इसका फ़ायदा बहुत हुआ होगा लेकिन नुक़सान यह हुआ कि इनकी छोटी-छोटी साँसें उस्ताद की बड़ी केन्द्रीय साँस में विलीन हो गयी। ये सभी लोग उस्ताद की खण्ड-खण्ड अभिव्यक्ति या उपस्थिति हैं। इनकी कला उस्ताद के न होने का प्रमाण है।

तकरीबन दो सौ लोगों का उस्ताद का कुनबा अपनी भौतिक स्थिति से संतुष्ट है लेकिन भीतर कहीं न कहीं दूसरे बिस्मिल्लाह का बेसब्र इन्तज़ार भी चल रहा है। घर के कई पुरूष सदस्य शहनाई के साथ मेहनत कर रहे हैं तो ज़ाहिर है कि उनके लिए वह जीविकोपार्जन-मात्र नहीं है। इस संतोष और इस बेसब्र इंतज़ार में बिस्मिल्लाह खाँ जीवित हैं। जब तक शहनाई बज रही है और ख़ुद को इस मुल्क की जनता के सुख और दुःख के साथ जोड़ रही है, उस्ताद जीवित हैं। हड़हा सराय के अपने छोटे से पुश्तैनी मकान में वह बकरी को सानी-पानी दे रहे हैं या चारपाई पर अधलेटे होकर सिगरेट पी रहे हैं।

[लेखक व्योमेश शुक्ल हिन्दी के कवि, आलोचक और नाटककार हैं. उनसे vyomeshshukla@gmail.comपर संपर्क किया जा सकता है.]

(प्रस्तुति – सिद्धांत मोहन)


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