Afroz Alam Sahil, TwoCircles.net
शेरवानी और टोपी पहनकर स्पष्ट मुस्लिम पहचान रखने वाले सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने एक बयान दिया और भारत के सारे मुसलानों और देश के प्रति उनकी मुहब्बत को कठघरे में खड़ा कर दिया गया. बिना यह जाने-समझे कि इसका एक आम भारतीय मुसलमान पर असर क्या होगा? उसके बारे में देश के अन्य समुदाय के लोगों में राय क्या बनेगी? या कैसे उसकी सुरक्षा को ख़तरा पैदा हो सकता है और उसके संवैधानिक अधिकारों के हनन की संभावना पैदा हो सकती है?
सवाल यह भी है कि इस देश का मुसलमान किस ‘भारत माता की जय’ कहे? आख़िर पहले यह तो तय हो ‘भारत माता’ हैं कौन? क्या ‘भारत माता’ का जो स्वरूप देश के सामने आरएसएस पेश करती आ रही है, क्या वही असली ‘भारत माता’ हैं? क्या वही ‘भारत माता’ हैं, जिनके हाथों में तिरंगे की जगह भगवा झंडा है?
देश में साम्प्रदायिकता की सियासत करने वाले लोग दूसरों की देशभक्ति पर सवाल उठाने और अपनी ‘देशभक्ति’ दिखाने के लिए जिस ‘भारत माता’ का नारा लगवा रहे हैं, वो ‘भारत माता’ है ही नहीं.
देश की जनता को इनसे पूछना चाहिए कि आख़िर क्यों ‘भारत माता’ के हाथ से तिरंगा को छीन कर भगवा झंडा थमा दिया गया है? आख़िर क्यों ‘भारत माता’ का भगवाकरण किया जा रहा है? कहीं इसके पीछे कोई साज़िश तो नहीं? अगर ‘भारत माता’ जिसके हाथ में तिरंगे की जगह भगवा झंडा हो, जो सिर्फ़ हिन्दुत्व की बात करने वालों की मां हो, वो ‘भारत माता’ इस देश के सेकूलर लोगों को क़तई स्वीकार नहीं है. और न ही मुसलमानों को ‘भारत माता’ की जय के नारे लगाने के लिए हमारे मुल्क का संविधान बाध्य करता है.
ज़रा सोचिए! अगर देश के मुसलमान मिलकर अपनी ‘भारत अम्मी’ की छवि गढ़ लें. जिसके हाथों में तिरंगा हो. और वो इन तथाकथित देशभक्तों से कहने लगें कि आओ ‘भारत अम्मी’ की जय या ज़िन्दाबाद के नारे लगाओ तो क्या मोहन भागवत या पीएम नरेन्द्र मोदी इसे स्वीकार करेंगे? अगर आप मुसलमानों द्वारा गढ़े गए ‘भारत अम्मी’ के ज़िन्दाबाद के नारे नहीं लगा सकते तो फिर आपको अपनी ‘भारत माता’ की जय के नारे लगवाने का अधिकार किसने दे दिया?
हैरानी की बात यह है कि लोग इन सवालों पर सोचने के बजाए आरएसएस द्वारा गढ़ी गई ‘भारत माता’ को अपनी ‘भारत मां’ मान रहे हैं.
दरअसल, सच तो यह है कि ‘भारत माता’ के बहाने इस मुल्क के आपसी सौहार्द बिगाड़ने की कोशिश में सिर्फ़ साम्प्रदायिक ताक़ते ही नहीं, बल्कि तथाकथित सेकूलरिज़्म के वो बड़े-बड़े चेहरे भी शामिल भी शामिल हो गए हैं, जो अपने बाहरी पहनावे में एकदम अलग-थलग दिखने की कोशिश करते हैं.
इसमें कोई शक नहीं है कि अससुद्दीन ओवैसी एक मुस्लिम चेहरा हैं. मुस्लिम पोशाक पहनते हैं. दीन-नमाज़ की बात करते हैं. इसलिए उनको निशाना बनाना मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाना है. ठीक इसी तरह से जब भी मुल्क में आतंकी की बात होती है, तो अफ़ज़ल गुरू का चेहरा पेश किया जाता है. लेकिन साध्वी प्रज्ञा, कर्नल पुरोहित या असीमानंद आदि का नाम नहीं लिया जाता है. क्यों यह सवाल नहीं उठता है कि भारत के कितने मुसलमान भ्रष्टाचार के आरोप में बंद हैं? माल्या की तरह कितने भारतीय मुसलमान देश का पैसा हड़प कर मुल्क से भागे हैं? क्या किसी भारतीय मुसलमान ने देश की सम्पत्ति के साथ करोड़ों का घोटाला किया? क्या कभी भारत के मुसलमानों ने हज़ारों-करोड़ों की सम्पत्ति को आग लगाया है? लेकिन हरियाणा के जाट हज़ारों-करोड़ की सम्पत्ति फूंकने के बाद भी ‘देशभक्त’ बने हुए हैं.
और सबसे महत्वपूर्ण सवाल कि भारत का मुसलमान अपनी देशभक्ति का सबूत क्यों दे? यह देश न तो गीता से चलता है, न कुरआन से चलता है और न ही इसे गुरू-ग्रंथ साहिब या बाईबिल चलाते हैं. हमारा यह देश संविधान से चलता है, वही संविधान जिसके रक्षा की क़सम हमारे देश के राष्ट्रपति खाते हैं.
इस देश का मुसलमान भारत को अपना ‘मादरे-वतन’ मानते हैं. यानी मुल्क को मां का तमाम दर्जा देता है. और इस्लाम में बताया गया है कि ‘मां के क़दमों के नीचे जन्नत है.’ ऐसे में इस्लाम को मानने वाला हर मुसलमान मुल्क की खिदमत उसी तरह से करता है, जिस तरीक़े से एक फ़रमा-बरदार बच्चा अपनी मां की करता है. अब इससे ज़्यादा और इससे बड़ी मुहब्बत की निशानी और क्या हो सकती है? लेकिन इसके बावजूद एक नारे की आड़ में एक विचारधारा को थोप कर मुल्क का माहौल बिगाड़ने की कोशिश की जा रही है.
सवाल ये उठता है कि क्या मुल्क में कोई क़ानून बनाकर ज़ोर ज़बरदस्ती करके किसी को अपनी मां से प्यार करने के लिए मजबूर नहीं कर सकता? शायद नहीं! लेकिन हां! इस्लाम अपने मानने वालों में यह भावना ज़रूर जगाता है कि अगर अपनी मां की खिदमत करेगा तो उसे जन्नत अता की जाएगी. यही भावना मुसलमानों को अपने मां या अपने ‘मादरे-वतन’ की ख़िदमत करने के लिए प्रेरित ज़रूर करती है.
ऐसे में यह कितना अजीब है कि ओवैसी ने ‘भारत माता की जय’ कहने से इंकार क्या किया. मुल्क के सियासतदानों का एक बड़ा तबक़ा तुरंत ही राजनीति के सारे हथियार इकट्ठा कर उन पर टूट पड़ा. कोई ओवैसी को कपूत बता रहा है तो कोई उनकी ज़ुबान काट कर लाने वाले को एक करोड़ का ईनाम देने की बात कर रहा है. तो किसी का कहना है कि ओवैसी की भारतीय नागरिकता छीन ली जाए...
ओवैसी के इस बयान के सियासी मायने ज़रूर हैं, क्योंकि ओवैसी बग़ैर फ़ायदे वाली बात पर टेंशन मोल लेने का काम नहीं करते. वो बहुत अच्छे से यह बात जानते हैं कि उनके इस तरह के बयान से उनका एक खास वोटर वर्ग खुश होता है. मगर इसे इस बार सियासी रंग देने में कोताही किसी ने भी नहीं की. महाराष्ट्र में जिस तरह से ओवैसी के पार्टी के एक विधायक को निलंबित करने में सभी पार्टियां एकजूट हो गई हैं, वो बताता है कि पॉलोराईज़ेशन का लेबल कितना गहरा और कितना व्यापक है.
यह बात भी सच है कि इस मुल्क में ओवैसी से पहले भी यह विवाद का विषय रहा है. संघ प्रमुख मोहन भागवत के बयान के तुरंत बाद ही इस पर कई हल्क़ों से तीख़ी प्रतिक्रियाएं आई थीं. जेएनयू छात्र-संघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार ने भी अपने एक भाषण में एक बड़ा वाजिब सवाल किया था कि अगर आरएसएस के ‘भारत माता’ के कांसेप्ट में उसकी मां, करोड़ो दलितों-आदिवासियों की मां शामिल नहीं है, तो वे इस नारे को नहीं मानते.
यह बयान एक छात्र-संघ नेता का नहीं, बल्कि देश के उस तबक़े की सोच को दर्शाता है, जो देशभक्ति को दिल से महसूस करते हैं और जिसे किसी भी तरह के सर्टिफिकेट की ज़रूरत नहीं होती है.
इन सबके बीच ओवैसी के इस बयान की गुंज जारी है. जिस तरह से देश के कई प्रमुख राज्यों में चुनाव की तारीख़ नज़दीक आ रहे हैं, ऐसे में यह मुद्दा और भी भुनाया जाए तो कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए.