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‘IMRC की ‘ग्रेन्स फॉर ग्रैनीज़’ कार्यक्रम : ताकि कोई भी ग़रीब व बुजुर्ग महिला भूखी न सोए...

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TwoCircles.net Staff Reporter

हैदराबाद : 70 की उम्र पार कर चुकी क़ासिम बी अब बिस्तर से उठ नहीं सकती हैं, बल्कि वे अपने हाथ पैर भी नहीं हिला सकतीं. उनके शौहर और बेटे का इंतक़ाल कुछ सालों पहले हो गया. वे अब अपने पोते के परिवार के साथ नम्पाली के एक छोटे से घर में रहती हैं. पेशे से उनका पोता ऑटो-रिक्शा चलाता है.

बहादुरपुर की 35 साला विधवा साजिदा बेगम की कहानी भी परेशान करने वाली है. लकवाग्रस्त साजिदा अपने भाई के परिवार के साथ रहती हैं. वहीं दूसरी ओर 65 साला खैरुन्निसा के पास अब कोई नहीं है. वे अपनी ज़िन्दगी के बाक़ी बचे दिन अकेले ही काट रही हैं.

IMRC

इस देश में क़ासिम बी, साजिदा और खैरुन्निसा जैसी कई औरतें हैं, जिनके पास कमाई का कोई रास्ता नहीं है. उनके लिए दो वक़्त की रोटी भी जुटा पाना किसी जंग से कम नहीं. ऐसे में ‘इन्डियन मुस्लिम रिलीफ़ एंड चैरिटीज़’ यानी IMRC इन ग़रीब, बूढ़ी और बेसहारा महिलाओं के लिए किसी सूरज के किरण से कम नहीं है.

अमेरिका स्थित इस सामाजिक संस्था ने हैदराबाद के ‘सहायता ट्रस्ट’ के साथ मिलकर ‘ग्रेन्स फॉर ग्रैनीज़’ नाम से एक कार्यक्रम की शुरूआत की है. जिसके तहत समाज के ऐसे गरीब, बूढ़ी और बेसहारा औरतों को रसद दिए जाते हैं, जिनके पास आजीविका और दो वक़्त की रोटी के साधन या तो बेहद कम हैं या नहीं हैं.

IMRC

हैदराबाद के बेहद ग़रीब आबादी वाले मुहल्लों जैसे हफ़ीज़ बाबा नगर, नम्पाली, बहादुरपुर, नया आगापुर, अफ़ज़ल सागर, मूसा नगर, नटराज नगर और अन्य कई क्षेत्रों में स्थानीय सहायकों और कार्यकर्ताओं के सहयोग से ‘सहायता ट्रस्ट’ और IMRC लगभग 1500 परिवार चिन्हित कर उनमें राशन का आवंटन किया है.

इस कार्यक्रम की सबसे ख़ास बात यह नहीं है कि इन बेसहारा महिलाओं को हर माह राशन दिया जा रहा है. बल्कि यह है कि अनाज, मसाले, खाने का तेल और ज़रूरत के अन्य सामान खरीदे जाने के बाद इन महिलाओं को 33 किलो के भार में बराबर-बराबर दे दिए जाते हैं.

IMRC

सहयता ट्रस्ट के मैनेजर वाहिद कुरैशी कहते हैं कि -‘हमने कई बार देखा है कि राशन और कपड़ों के लिए बांटे गए पैसे या तो लोग बर्बाद कर देते हैं या उनके दूसरे बेमक़सद के ज़रूरत में खर्च हो जाते हैं. ऐसे में हमने सोचा कि परिवार की सबसे बड़ी महिला को राशन का सामान दे दिया जाए ताकि वे परिवार के अन्य सदस्यों को किसी भार की तरह न लगें.’

क़ासिम बी की पोती बी पाशा बेगम इन दोनों संस्थाओं का शुक्रिया अदा करते हुए बताती हैं -‘पहले सारा बचाया पैसा महीने के राशन में ही खर्च हो जाता था, लेकिन अब राशन मिल जाने के बाद अन्य कामों के लिए भी पैसा बच जाता है. इस तरह से यह कार्यक्रम हम लोगों के लिए एक वरदान है.’

IMRC के निदेशक मंज़ूर घोरी बताते हैं कि -‘इस कार्यक्रम को हम लोगों ने 2015 के मार्च महीने में इस उद्देश्य के साथ शुरू किया था कि कोई भी अशक्त और बूढ़ी महिला भूखी न सोए और न ही अपने परिवार पर किसी भी तरह से बोझ बने.’

कार्यक्रम के भविष्य के बारे में बताते हुए मंज़ूर साहब कहते हैं, -‘हमने शुरुआत बेहद छोटे स्तर पर की थी, लेकिन अब इसे देश के अन्य इलाक़ों में भी पहुंचाने की योजना है.’

स्पष्ट रहे कि ‘इन्डियन मुस्लिम रिलीफ़ एंड चैरिटीज़’ यानी IMRC की नींव साल 1981 में रखी गयी थी. तब से लेकर आज तक अमरीका की यह चैरिटेबल संस्था अन्य लगभग 100 संस्थाओं के साथ मिलकर देश के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में कई किस्म के कार्यक्रम चला रही है.
संस्था का उद्देश्य ज़रूरतमंद तबके को शिक्षा, आपातकालीन सेवाएं, स्वास्थ्य व न्यायसम्बंधी ज़रूरतें, खाना और छत की ज़रूरतें मुहैया कराना है. असम दंगे 2012, मुज़फ्फ़रनगर दंगे 2013, 2014 की कश्मीर बाढ़ और 2015 की चेन्नई बाढ़ के वक़्त संस्था ने घरों-घरों तक जाकर लोगों को ज़रूरी सेवाएं प्रदान की हैं.

यदि आप भी IMRC केए इस मुहिम का हिस्सा बनना चाहते हैं तो imrcusa.org पर संस्था से जुड़ सकते हैं.


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