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क्या आबिदा की ज़िन्दगी में सुकून लौट पाएगा?

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Saleem Ansari for TwoCircles.net

मुज़फ़्फ़रनगर : 40 साल की आबिदा ने अपनी पूरी ज़िन्दगी में स्कूल का कभी मुंह तक नहीं देखा. अनपढ़ मोमिन से शादी हुई. जैसे-तैसे मोमिन ईंट भट्टे पर मजदूरी करके अपनी ज़िन्दगी को खींच रहे थे.

लगातार मेहनत से सेहत ख़राब हो गई. इस दौरान मोमिन 5 बच्चों के पिता बने. बीमारी बढ़ती गयी. इलाज़ चलता रहा. डॉक्टर ने बताया कि दोनों फेफड़े ख़राब हो गए हैं. आख़िरकार अपनी पत्नी और बच्चों को क़र्ज़ में छोड़ कर 4 साल पहले मोमिन अल्लाह को प्यारे हो चलें.

Muzaffarnagar

हेवा गांव, बागपत में छोटा सा घर था उनका. 8 सितंबर 2013 को इस क्षेत्र में नफ़रत का ज़लज़ला आया. जिसने इस इलाक़े की तहज़ीब को तहस-नहस कर दिया.

ज़हरीली हवा की लपटें गांव हेवा तक पहुंची. दहशतज़दा आबिदा अपने बच्चों को लेकर लगातार भटकती रही. किसी तरह से जोला कालोनी, इमदाद नगर, मुज़फ्फर नगर में इनके-उनके घर रहकर अब अपने ज़िन्दगी के बाक़ी बचे दिन काट रही हैं. उनकी बदनसीब ज़िन्दगी उनको और ज्यादा रुला रही है.

ये कितना दिलचस्प है कि मुज़फ्फ़रनगर सांप्रदायिक हिंसा पर खूब सियासत हुई. पक्ष-विपक्ष के कोरे आश्वासन हवा में तैरते रहे. देश-विदेश के अख़बारों ने सुर्खी बटोरी. टीवी से लेकर प्रिंट व ऑनलाईन मीडिया, सभी मुज़फ्फ़रनगर के अखाड़ा बने थे.

उससे गंभीर व चिंतनीय बात यह है कि सामाजिक संगठनों ने रिपोर्ट लिखकर दुबारा यहां आना मुनासिब नहीं समझा. मुद्दों की तपिश कम हुई, कैमरे का आकर्षण ठप हो गया. तो सियासतदानों से लेकर सामाजिक संगठनों तक अब कहाँ किसे फुर्सत है?

अब कौन विधवा आबिदा का दुःख दर्द बांटे. तीन बेटियों और दो बेटों की मां आबिदा का कोई सहारा नही है. न घर है न राशन कार्ड. छोटा बेटा अरस डेढ़ महीने पहले बिजली की चपेट में आकर झुलस गया है.

बुढ़ाना जाकर किसी तरह इलाज हो रहा है. आबिदा को कभी-कभार किसी के घर 40-50 रूपये की मजदूरी मिल जाती है. सभी बच्चे मदरसे पढ़ने तो जाते हैं. शाम को घर आते हैं, लेकिन उन्हें यह नहीं पता की माँ खाना क्या बनाएगी? या पकाएगी खुद को? क्या आबिदा की ज़िन्दगी में सुकून लौट पाएगा? सभ्य समाज के सामने बड़ा सवाल है.

ज़रा आप एक बार सोचिएगा कि क्या हक़ीक़त में आपको अभी भी मुज़फ़्फ़रनगर के दंगे व कैम्पों में रहने वाले लोग याद हैं? कभी नफ़रत की इस आंधी में बर्बाद हुए बेघर लोगों के बारे में कभी सोचा? या आपने भी उर्दू अख़बारों के उन ख़बरों यक़ीन करके चैन की नींद सो रहे हैं, जिनमें हमारे विभिन्न मिल्ली व समाजी तंज़ीमों ने हज़ारों घर बांटने की ख़बर दी थी....

(लेखक सलीम अंसारी, खेडा मस्तान, मुज़फ्फ़रनगर में जन्मे हैं. इंटरमीडीएट के बाद जिला आईटीआई से एलेक्ट्रेशियन में डिप्लोमा हैं. इन दिनों हाशिए के समाज को अधिकार दिलाने में जी जान से जुटे हैं और मिसाल नेटवर्क का हिस्सा हैं. उनसे 09761197617, saleemansari9761@gmail.comपर संपर्क कर सकते हैं.)


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