Afroz Alam Sahil, TwoCircles.net
राम प्रसाद बिस्मिल ने गाया तो ये ग़ज़ल अमर हो गई. लेकिन बहुत कम लोगों को पता है कि ‘सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है...’ को गाने वाले बिस्मिल थे, लेकिन इसके लिखने वाले बिस्मिल नहीं, बिस्मिल अज़ीमाबादी थे.
राम प्रसाद बिस्मिल और अशफ़ाक़ुल्लाह ख़ान पर शोध व पुस्तक लिख चुके उत्तर प्रदेश में रहने वाले सुधीर विद्यार्थी का कहना है –‘सरफ़रोशी की तमन्ना को राम प्रसाद बिस्मिल ने गाया ज़रूर था, पर ये रचना बिस्मिल अज़ीमाबादी की है. यह बात खुद राम प्रसाद बिस्मिल के दोस्त, भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के एक प्रमुख क्रान्तिकारी तथा सिद्धहस्त लेखक मन्मथनाथ गुप्त कई बार लिख चुके हैं. काफी साल पहले रविवार नामक पत्रिका में उनका ये लेख छप भी चुका है.’
पटना स्थित जाने माने इतिहासकार प्रोफ़ेसर इम्तियाज़ भी बताते हैं कि यह ग़ज़ल बिस्मिल अज़ीमाबादी की ही है. वो बताते हैं कि उनके एक दोस्त स्व. रिज़वान अहमद इस ग़ज़ल पर रिसर्च कर चुके हैं, जिसे कई क़िस्तों में उन्होंने अपने अपने अख़बार अज़ीमाबाद एक्सप्रेस में प्रकाशित किया था.
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, सेन्टर फॉर अडवांस स्टडी इन हिस्ट्री के एसोशिएट प्रोफेसर मुहम्मद सज्जाद का भी कहना है कि उनके नज़र से आज तक कोई भी ऐसा सरकारी दस्तावेज़ नहीं गुज़रा जिसमें यह कहा गया हो कि यह ग़ज़ल राम प्रसाद बिस्मिल ने लिखा है.
बिस्मिल अज़ीमाबादी के पोते मनव्वर हसन बताते हैं कि ये ग़ज़ल आज़ादी के लड़ाई के वक़्त काज़ी अब्दुल गफ़्फ़ार की पत्रिका ‘सबाह’ में 1922 में छपी, तो अंग्रेज़ी हुकूमत तिलमिला गई. एडिटर ने दादा क ख़त लिखा कि ब्रिटिश हुकूमत ने प्रकाशन को ज़ब्त कर लिया है.
हसन बात-बात में अनगिनत सबूत गिनाने लगते हैं कि कैसे यह ग़ज़ल उनके दादा बिस्मिल अज़ीमाबादी की है.
उनके मुताबिक इस ग़ज़ल को बिस्मिल अज़ीमाबादी ने 1921 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में पढ़ा था, जब वो सिर्फ 20 साल के थे.
वो बताते हैं कि जब उन्होंने यह ग़ज़ल लिखा था, तो अपने उस्ताद शाद अज़ीमाबादी से सुधार भी करवाया था. जिस कागज़ पर उन्होंने यह नज़्म लिखी, आज भी उसकी नक़ल उनके पास मौजूद है. और उसकी मूल कॉपी पटना के ख़ुदाबख्श लाईब्रेरी में शाद अज़ीमाबादी के सुधार के साथ आज भी मौजूद है.
हसन बताते हैं कि ‘बिस्मिल अज़ीमाबादी के साथ एक शाम’ नाम से एक रिकॉर्डिंग (टेप नम्बर -80) आज भी ख़ुदाबख्स लाईब्रेरी में है. इसमें लाईब्रेरी के पूर्व निदेशक आबिद रज़ा बेदार का बिस्मिल अज़ीमाबादी से लिया गया इंटरव्यू है. बातचीत में न केवल बिस्मिल अज़ीमाबादी ने अपनी ग़ज़ल का खुलासा किया है, बल्कि उसे गाया भी है.
वो यह भी बताते हैं कि बिस्मिल अज़ीमाबादी का ग़ज़ल संग्रह ‘हिकायत-ए-हस्ती’ भी ख़ुदाबख्श लाईब्रेरी में मौजूद है. उसमें 11 मिसरे की यह नज़्म छपी है. बिहार उर्दू अकादमी के आर्थिक सहयोग से इसका प्रथम संस्करण 1980 में छपा था.
उनके मुताबिक़ बिहार बोर्ड के बीटीसी की नवीं क्लास में पढ़ाई जाने वाली उर्दू की पुस्तक ‘दरख्शां’ में भी लिखा गया है कि इस ग़ज़ल के लिखने वाले बिस्मिल अज़ीमाबादी हैं.
बिस्मिल अज़ीमाबादी के नाती आदिल हसन आज़ाद का कहना है कि वो सिर्फ एक शायर नहीं, बल्कि स्वतंत्रता सेनानी भी थे, लेकिन सरकार ने उनकी ओर कभी भी कोई ध्यान नहीं दिया. आज उनके नाम से बिहार में एक सड़क तक नहीं है. जल्द ही वो इसके लिए एक मुहिम का आगाज़ करेंगे.
दरअसल, इस ग़ज़ल का देश की आज़ादी की लड़ाई में एक अहम योगदान रहा है. बल्कि यह ग़ज़ल देशभक्त राम प्रसाद बिस्मिल की ज़ुबान पर हर वक़्त रहता था. 1927 में सूली पर चढ़ते समय भी यह ग़ज़ल उनकी ज़ुबान पर था. बिस्मिल के इंक़लाबी साथी जेल से पुलिस की लारी में जाते हुए, कोर्ट में मजिस्ट्रेट को चिढ़ाते हुए और लौटकर जेल आते हुए कोरस के रूप में इस ग़ज़ल को गाया करते थे.
कौन थे बिस्मिल अज़ीमाबादी
बिस्मिल अज़ीमाबादी का असल नाम सैय्यद शाह मोहम्मद हसन था. वो 1901 में पटना से 30 किमी दूर हरदास बिगहा गांव में पैदा हुए थे. लेकिन एक-दो साल के अंदर ही अपने पिता सैय्यद शाह आले हसन की मौत के बाद वो अपने नाना के घर पटना सिटी आ गए, जिसे लोग उस समय अज़ीमबाद के नाम से जानते थे. जब उन्होंने शायरी शुरू की तो अपना नाम बिस्मिल अज़ीमाबादी रख लिया, और उसी नाम से उन्हें पूरी दुनिया जानती है.
बिस्मिल अज़ीमाबादी की लिखी असल ग़ज़ल :
देखना है ज़ोर कितना बाजू-ए-क़ातिल में है
ऐ शहीदे मुल्क व मिल्लत मैं तेरे उपर निसार
ले तेरी हिम्मत का चर्चा ग़ैर की महफ़िल में है
वाए क़िस्मत पांव की ऐ ज़ुअफ़े कुछ चलती नहीं
कारवां अपना अभी तक पहली ही मंज़िल में है
रह रवे राह-ए-मुहब्बत! रह न जाना राह में
लज़्ज़त-ए-सहरा नूर दी दूरी मंज़िल में है
शौक़ से राह-ए-मुहब्बत की मुसीबत झेल ले
इक ख़ुशी का राज़ पनहा जादा-ए-मंज़िल में है
आज फिर मक़तल में क़ातिल कह रहा है बार-बार
आएं वो शौक़-ए-शहादत जिन जिन के दिल में है
मरने वालो आओ, अब गर्दन कटाओ शौक़ से
ये ग़नीमत वक़्त है ख़ंजर कफ़-ए-क़ातिल में है
मानए इज़हार तुम को है हया, हम को अदब
कुछ तुम्हारे दिल के अंदर कुछ हमारे दिल में है
मैकदा सुनसान, खम उल्टे पड़े हैं, जाम चूर
सरंगूं बैठा है साक़ी जो तेरी महफ़िल में है
वक़्त आने दे दिखा देंगे तुझको ऐ आसमां
हम अभी से क्या बताएं क्या हमारे दिल में है
अब न अगले वलवले हैं और न अरमानों की भीड़
सिर्फ़ मिट जाने की इक हसरत दिले बिस्मलमें है.
बिस्मिल अज़ीमाबादी के ग़ज़लों के कुछ शेर, जिन्हें उन्होंने मुल्क के बंटवारे के समय लिखा था
मुझे रह रह कर ऐ सुबह वतन तू याद आया की
ऐ ताक़त-ए-परवाज़ तुझे लाए कहां से
जो थी ख़िज़ां में वही कैफ़ियत बहार में है
चमन रहा न रहे वो चमन के अफ़साने
देखा भी है कभी आके मुहब्बत की नज़र से
किस हाल में हो, कैसे हो, क्या करते हो बिस्मिल
मरते हो कि जीते हो ज़माने के असर से...
बहुत सी बात तो कहने को रह गई ऐ दोस्त”