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जीवनगढ़: जहां दो विधवा बहनें ‘डेथ-सर्टीफिकेट’ के लिए तरस रही हैं...

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Asma Ansari for TwoCircles.net

अलीगढ़ शहर का एक छोर… लेकिन यहां मामला शहर से बिल्कुल उल्टा है. पतली गलियां... बजबजाती नालियां... फटे-पुराने झुग्गी-झोंपड़ियां... ग़ुरबत... मुसीबतों का पहाड़... लोगों की ज़िन्दगी बदहाल... लेकिन इलाक़े का नाम –जीवनगढ़...

जीवनगढ़ का यह इलाक़ा आज भी विकास नाम की चीज़ से कोसो दूर है. बदहाली का आलम यह है कि यहां रहने वाले लोगों को वो मूलभूत सुविधाएं भी नहीं मिल पाती हैं, जिनका वादा सरकार यहां के चुनाव के समय लोगों का वोट लेने के लिए करती हैं. बल्कि सच तो यह है कि जीवनगढ़ में लोगों की ज़िन्दगी नरक से भी बदतर है.

आप सोच रहे होंगे कि मैं इन गैर-ज़रुरी बातों का ज़िक्र यहां क्यों कर रही हूं? यक़ीक़न किसी की भी दिलचस्पी उस ‘जीवनगढ़’ में क्यों होगा, जहां लोग हर पल घूट-घूट कर मर रहे हों. लेकिन फिर भी मैं सोचती हूं कि आपको जीवनगढ़ से ज़रूर रूबरू कराना चाहिए, ताकि देश में होने वाले विकास की सच्चाई को समझने में आपको आसानी हो. बल्कि इस जीवनगढ़ का नब्ज़ टटोल कर पूरे इलाक़े की सेहत का अंदाज़ा लगा सकते हैं कि ज़मीनी सतह पर लाचार और बेसहारा लोगों के लिए सरकारी योजनाओं और उसके पैरोकारों की क्या मंशा है?

जीवनगढ़ की गली नंबर -5... सबसे आखिर में एक खंडहरनुमा घर... छत पूरी तरह से गायब... यह घर है मरहूम मुन्ना का... जिनका 23 अप्रैल 2009 को इन्तेक़ाल हो चुका है. अब इसी घर में उनकी दो बदनसीब बहने रहती हैं. दोनों दिल की मरीज़ हैं और उनका लगातार इलाज़ चल रहा है.

Jeevangarh

दरअसल, बड़ी बहन मुन्नी के पति नासिर अली भी लंबे समय से गंभीर रूप से बीमार रहे. इलाज के लिए पैसे की दरकार थी. लिहाज़ा जीवनगढ़ के 7 नंबर गली में जो उनका घर था, न चाहते हुए भी बिक गया. लेकिन सारे उपाय बेअसर रहे. नासिर अली इस दुनिया को छोड़कर चल बसे.

दूसरी बहन हसीना बेगम की भी जिन्दगी का सफ़र अपनी बहन से जुदा नहीं है. दरअसल, हसीना बेगम के पति ईदे खां ने दूसरी शादी की थी. हसीना से कोई औलाद नहीं हुई तो हसीना ने एक बच्ची को गोद ले लिया. जिसका नाम इमराना है. 17 साल की इमराना भी बड़ी मुश्किल से 5वीं क्लास तक ही पढ़ पाई. क्योंकि ईदे खां भी 2006 में इस दुनिया को छोड़ चलें.

अब इमराना के जिम्मे घर का सारा दारोमदार आ पड़ा है. किसी तरह थोड़ा-बहुत सिलाई, केयर टेकर या घरों में हाड़-तोड़ मेहनत के बाद 1500 रूपये महीने का इंतज़ाम कर पाती है. इमराना की मां हसीना बेगम काम नहीं कर पाती हैं, क्योंकि वो दिल की मरीज़ हैं और उनका इलाज लगातार चल रहा है.

लेकिन ज़रा सोचिए कि मौजूदा महंगाई के दौर में इमाराना अपना परिवार कितने दिनों तक चला पाएगी? महंगाई का दंश झेलते हुए यह परिवार अब पूरी तरह से बेदम चुका है. सरकार की कोई भी कल्याणकारी स्कीम इन खंडहरनुमा घर के चौखट तक नहीं पहुंच पाई है.

इमराना कहती है कि –‘मैंने हर विधायक, नेता सबके घर का चक्कर काट लिया, पर किसी ने मेरी एक न सुनी.’

हद तो यह है कि दोनों विधवा बहनें अपने अपने शौहर के ‘डेथ-सर्टीफिकेट’ के लिए तरस रही हैं. सरकारी दफ्तरों का चक्कर काटते-काटते अब थक चुकी हैं. लेकिन एड़ियां गिसने के बाद भी आज तक न सर्टिफिकेट बना और न ही उनका कोई पुरसाहाल है. ऐसे में यह आज तक विधवा पेंशन से भी महरूम हैं.

इमराना कहती है कि –‘एक तरफ़ तो देश में गरीबों के लिए न जाने कितने स्कीम चल रहे हैं, लेकिन सच यह है कि गरीबों को शायद इसका लाभ मिल पा रहा है. मेरी मां विधवा होकर भी विधवा पेंशन से महरूम है. खैर, अल्लाह ही बेहतर जानता है कि हमारे ‘अच्छे-दिन’ कब आएंगे.’

(लेखिक असमा अंसारी रिक्शा चालक की इकलौती बेटी हैं. मां–बाप का लगातार इलाज के बावजूद असमा ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से पीजी तक की पढाई की. हमेशा सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय रहीं. इन दिनों सामाजिक संस्था ‘मिसाल’ से जुड़ी हुई हैं.)


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