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क्या इस्लाम दहशतगर्दी की इज़ाज़त देता है?

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By Maulana Mufti Harun Rashid Naqshbandi

इस्लाम लफ्ज़ सलाम से बना है, जिसका अर्थ होता है अमन और सलामती. आज पूरी दुनिया में जिस तरह मज़हब-ए-इस्लाम के नाम पर मासूमों/बेगुनाहों का खून बहाया जा रहा है और खून बहाने वाले दहशतगर्द तंजीमों के लोग खुद को मुसलमान कहते हैं. क्या वाक़ई मज़हब-ए-इस्लाम इन सब बातों की इज़ाज़त देता है? इस्लाम और मुसलमान दहशतगर्दी के खिलाफ़ है. तो आखिर वो कौन लोग हैं, जो इस्लाम व मुसलमानों को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बदनाम कर रहे हैं?

अगर हम मज़हब-ए-इस्लाम की मुक़द्दस कि़ताब को पढ़े, तो हमें पता चलता है ‘किसी मासूम/बेगुनाह व्यक्ति का क़त्ल करना पूरी इंसानियत की हत्या के बराबर है’ तो भला ऐसा मज़हब हिंसा व दहशतगर्दी की इज़ाज़त कैसे दे सकता है.

आज पूरी दुनिया में जिस तरह दहशतगर्द तंज़ीमें जो मज़हब के आड़ में अत्याचार, हत्या, लूट-पाट, और औरतों के साथ बलात्कार कर रहे हैं, जो इंसानियत व इस्लाम दोनों के विरुद्ध हैं. साम (सीरिया) में दहशतगर्द तंजीमें जो मज़हब के नाम पर नौजवानों की ज़ेहनसाजी व सब्ज़बाग़, इस्लाम की ग़लत व्याख्या पेश करके अपनी ओर आकर्षित कर रहा है. इसकी गतिविधियों पर नज़र डालें, तो पता चलता है कि ये मासूमों का खून बहा रहा है, औरतों को गुलाम बना कर अपनी हवस मिटा रहा है, इसकी क्रूरता के कारण हजारों लोगों को अपना घर-बार छोड़कर दुसरे देशों में शरण लेने के लिए बाध्य कर दिया है, जिसमें इन लोगों को तरह-तरह की मुश्किलात से रूबरू होना पड़ रहा है.

हम अपने नबी (स0) की बात करें तो मक्का फ़तह करने के बाद जब लोग डरे हुए थे कि मुहम्मद (स0) उनसे बदला लेंगे, लेकिन आपने वहां पहुँच कर लोगों को आश्वस्त किया कि किसी से भी बदला नहीं लिया जाएगा. आपने उनके जान-माल की गारंटी दी. तो फिर दहशतगर्द तंजीमें अपने आपको कैसे इस्लामिक संगठन कह सकता है?

पूरी दुनिया के मुस्लिम धर्म गुरुओं ने, जिसमें मुफ़्ती-ए-आज़म अरब शामिल हैं. इसकी गतिविधियों को गैर-इस्लामिक क़रार दिया है. अतः मुस्लिम नौजवानों को ऐसी तंज़ीमों के बहकावे में नहीं आना चाहिये.

अफ़ग़ानिस्तान के हालात पर नज़र डालें, तो वहां पर मुसलमान आपस में ही एक-दुसरे को मार रहे हैं. फिदाईन हमले हो रहे हैं. जबकि इस्लाम में इसको सबसे बड़ा गुनाह बताया गया है. खुदकुशी इस्लाम में हराम है, क्योंकि वह जिंदगी जिसे तुम्हें खुदा ने दी है, उसे तुम खु़द ख़त्म नहीं कर सकते हो. इसे “गुनाह-ए-कबीरा” बताया गया है.

नबी (स0) के समय की बात है. एक सहाबा जंग लड़ते हुए बुरी तरह से ज़ख्मी हो गए थे. अपने ज़ख्मों के दर्द के कारण उन्होंने खुद को ख़त्म कर लिया. जब ये बात नबी (स0) को पता चली तो उन्होंने कहा कि सहाबा ने बहादुरी के साथ लड़ाई लड़ी, लेकिन खुदकुशी करने की वजह से इनका स्थान जहन्नम होगा.

इस्लाम खुदकुशी के सख्त खिलाफ़ है. पड़ोसी देश पाकिस्तान की हालात को देखें तो वहां पर शिया-सुन्नी आपस में एक-दुसरे का खून बहा रहे हैं. नमाज़ पढ़ते हुए मस्जिदों में बम से हमला कर लोगों को हलाक कर दिया जाता है. अभी हाल ही में पेशावर के एक स्कूल में आतंकवादियों ने हमला कर सैकड़ों मासूम बच्चों की जान ले ली थी. अब यूनिवर्सिटी में बच्चों का क़त्ल किया गया. ये कौन सा इस्लाम है जबकि हमारे नबी (स0) बच्चों से बेईनतेहा मुहब्बत करते थे.

अब हम अपने प्यारे वतन हिन्दोस्तान को देखें. जहाँ जम्हूरियत की जड़ें मज़बूती के साथ जमी हुई हैं. हर इंसान को आजादी है. यहाँ पर नमाज़ पढ़ते वक्त़ यह ख़तरा नहीं है कि कोई हमलावर आकर मस्जिद में बम फेकेंगा, जैसा की पाकिस्तान में आम बात है.

हिन्दुस्तान में दहशतगर्द तंजीमों के पैर न पसार पाने व हिन्दुस्तानी शहरी को न बहका पाने का सबसे बड़ा कारण यह है कि हिन्दुस्तानी जम्हूरियत की जड़ें गहराई के साथ जमी हुई हैं. जो दो-चार मुट्ठी भर मुल्क के शहरी ऐसे तंजीमों के झांसे में आये हैं. वे नासमझी की वजह से उनका समर्थन करते हैं. ऐसे लोगों को हमें खुलकर उन्हें इस तरह के दहशतगर्द तंजीमों की सच्चाई बतानी होगी. ताकि ऐसे नौजवानों का मुस्तक़बिल बर्बाद होने से बचाया जा सके.

इन्सान का इंसान के साथ दो तरह का रिश्ता होता है. एक खून का और दूसरा मज़हब का. हम यह मानते हैं कि हम सब एक आदम और हौव्वा की औलाद हैं, तो पुरे इंसान आपस में एक-दुसरे के रिश्तेदार हैं. इसलिए हमें किसी के खिलाफ़ बोलने का हक़ नहीं है.

अभी हाल ही में इस्लामिक मुल्क यूएई गैर-इत्तेहादी सुलूक क़ानून लागू किया है. जो क़ानून किसी भी व्यक्ति को किसी के खिलाफ़ उसके धर्म, जाति, रंग व नस्ल के आधार पर भला बुरा नहीं कह सकता है. अगर कोई व्यक्ति अपने बयानात से समाज में नफ़रत फैलाता है तो वैसे व्यक्ति को 6 महीने से लेकर 10 साल तक की सज़ा हो सकती है.

कुरआन की एक सूरह में कहा गया है कि किसी पर भी ज़बरजस्ती अपने दीन को थोपने की कोशिश न करो और न किसी के मज़हब को भला बुरा कहो. फितरी तौर पर इंसान अमन पसंद है. दशहतगर्दी इन्सानियत के उसूलों के खिलाफ़ है.

कोई भी व्यक्ति नफ़रतों, फ़सादों में जिंदगी नहीं जीना चाहता है. समाज के कुछ शरारती तत्व आपस में फूट डलवा कर लोगों को लड़ाते हैं. इसलिए हमें ऐसे लोगों की पहचान कर पूरे समाज के सामने उन्हें उनके बुरे कामों का एहसास कराना पड़ेगा.

सच तो यह है कि आपस में प्यार-मुहब्बत रखना ही इन्सानियत का तकाज़ा और उसका उसूल है. जब हम समाज में एक-दुसरे के साथ प्यार-मुहब्बत के साथ रहेंगे, तो समाज का मुस्तक़बिल सुनहरा होगा. इस्लाम भी इन्हीं शिक्षाओं में यकीन करता है.

आज दहशतगर्दी पूरी इंसानियत के लिए बहुत बड़ा ख़तरा है. लिहाज़ा हर जिम्मेदार शहरी ख़ासतौर पर मज़हबी शहरियों की ये जि़म्मेदारी बनती है कि दहशतगर्द तंजीमों और उनसे जुड़े लोगों को बेनकाब करें और नौजवानों के मुस्तक़बिल को स्याह होने से बचायें.


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