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मोदी सरकार के ‘वार’ पर ‘पलटवार’ की तैयारी में AMU

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Afroz Alam Sahil, TwoCircles.net

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) के अल्पसंख्यक दर्जा के मामले में मोदी सरकार के ‘यू-टर्न’ के बाद एएमयू बिरादरी ने अपनी क़मर अब कस ली है. एएमयू के वाईस-चांसलर लेफ्टिनेंट जनरल ज़मीरूद्दीन शाह ने आज एएमयू कोर्ट के सभी सदस्यों, एक्जीक्यूटिव काउंसिल, अकादमिक काउंसिल समेत सभी कमिटियों व शैक्षणिक परिषद के सदस्यों और पदाधिकारियों की एक संयुक्त बैठक बुलाकर इस बारे में मज़बूत रणनीति तैयार करने की क़वायद शुरू कर दी है.

देश की न्यायपालिका में पूरा विश्वास जताते हुए प्रो वाईस-चांसलर ब्रिगेडियर एस. अहमद अली ने इस बैठक में कहा कि –‘एएमयू पहले से ही इस मामले में पर्याप्त तैयारी कर चुकी है. हमें उम्मीद है कि इस मामले की 4 अप्रैल की अगली सुनावई में हम अपने स्टैंड को पूरे आत्मविश्वास के साथ सुप्रीम कोर्ट के समक्ष रखेंगे.’

इस बैठक में उपस्थित सभी सदस्यों ने विश्वविद्यालय प्रशासन के साथ पूरी एकजुटता व्यक्त की और अल्पसंख्यक दर्जा के मामले के संबंध में उचित सुझाव दिए.

दूसरी तरफ़ एएमयू के छात्रों में भी सरकार के इस स्टैंड पर काफी रोष है. इनमें वो छात्र भी शामिल हैं, जो एएमयू के पूर्व छात्र हैं और जो मुल्क के अलग-अलग क्षेत्रों में उच्च पदों पर बैठे हैं.

एएमयू स्टूडेन्ट यूनियन के पूर्व अध्यक्ष व क़ानून के जानकार अब्दुल हफ़ीज़ गांधी कहते हैं कि –‘सरकार बदलने से सरकार का स्टैण्ड नहीं बदलना चाहिए. जब यूपीए ने एएमयू को अल्पसंख्यक संस्था माना है तो एनडीए सरकार को मानने में क्या समस्या है?’

वो आगे बताते हैं कि –‘एनडीए सरकार के इस स्टैण्ड से पता लगता है कि यह सरकार एक ख़ास संस्था व धर्म के कुछ कट्टर लोगों के तुष्टिकरण के काम कर रही है. लेकिन यह मामला धर्म का नहीं है, बल्कि इस देश के पिछड़े हुए अल्पसंख्यक तबक़े के शैक्षिक विकास का है. हम सब भूतपूर्व छात्र एएमयू के साथ हैं.

एएमयू लॉयर फोरम के पूर्व अध्यक्ष और छात्र संघ के पूर्व जनरल सेक्रेटी एडवोकेट असलम खान का कहना है कि –‘सरकार के इस स्टैण्ड के बाद यह लगता है कि उसने यह तय कर लिया है कि मुसलमानों के जो भी हक़ व अधिकार हैं, उसे समाप्त कर देना है.’

वो बताते हैं कि –‘यह पूर्ण रूप से सियासी क़दम है. 2017 चुनाव की तैयारी है. सरकार की दोगली पॉलिसी सामने आ चुकी है. ‘सबका साथ –सबका विकास’ का नारा महज़ एक ढोंग है.’

एएमयू के लॉ फैकल्टी से जुड़े प्रोफ़ेसर शकील सम्दानी पूरे विश्वास के साथ कहते हैं कि –‘सरकार का स्टैण्ड ग़लत है. उन्हें मूंह की खानी पड़ेगी. सुप्रीम कोर्ट एएमयू के साथ ज़रूर इंसाफ़ करेगा.’

वो आगे बताते हैं कि –‘टेक्निकल ग्राउंड पर भले ही इससे पहले की अदालत ने कह दिया हो कि एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है, लेकिन एएमयू का पूरा इतिहास उठाकर आप देख लीजिए. इसके क़ायम करने के मक़सद को उठाकर देख लीजिए. सबकुछ साफ़ हो जाएगा.’

ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस-ए-मुशावरत के अध्यक्ष नवेद हामिद ने मोदी सरकार के इस स्टैण्ड की निंदा की है और कहा है कि –‘सुप्रीम कोर्ट में अटॉर्नी जनरल का स्टैण्ड दर्शाता है कि वर्तमान केन्द्र सरकार देश के अल्पसंख्यकों के खिलाफ़ काम कर रही है. प्रधानमंत्री का दिया हुआ नारा ‘सबका साथ –सबका विकास’ एक खोखला वादा है.’

उन्होंने बताया है कि ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस-ए-मुशावरत जल्द ही क़ौम के रहनुमाओं और अन्य सम्मानित लोगों की बैठक बुलाकर एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जा को लेकर अपनी रणनीति तैयार करेगी.

एएमयू की ओर से सुप्रीम कोर्ट में सलाहकार सीनियर एडवोकेट पी.पी. राव कहते हैं कि –‘सरकार ने स्टैंड बदल लिया है. वो पिछले एफिडेविट को वापस लेना चाहती है, जिसमें उसने एएमयू को माइनॉरिटी इंस्टिट्यूशन कहा था.’

उन्होंने आगे बताया कि –‘इस मामले की सुनवाई तीन जजों की बेंच कर रही है. इसमें जस्टिस जे.एस. शेखर, जस्टिस एम.वाई. इकबाल और जस्टिस सी. नगप्पन के नाम शामिल हैं.’

वो बताते हैं कि सोमवार को सुनवाई के दौरान जस्टिस इकबाल में अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी से पूछा –‘क्या केन्द्र में सरकार बदलने की वजह से स्टैंड बदला जा रहा है?’ तो रोहतगी का जवाब था –‘पिछला स्टैंड गलत था.’

इस मामले पर सत्तासीन पार्टी का पक्ष जानने के लिए TwoCircles.net ने बीजेपी के कई प्रवक्ताओं से संबंध स्थापित करने की कोशिश की, लेकिन कहीं से कोई सफलता नहीं मिली.

स्पष्ट रहे कि 4 अक्टूबर 2005 को एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जा को ग़लत क़रार दिए जाने के बाद एएमयू, केंद्र सरकार और कुछ अन्य लोगों ने एक पुनर्विचार याचिका दायर की थी. इस पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई करते हुए मुख्य न्यायाधीश ए.एन. रे और न्यायमूर्ति अशोक भूषण के दो सदस्यीय पीठ ने कहा कि जिस तरह मुसलमानों को 50 प्रतिशत आरक्षण दिया जा रहा है वह असंवैधानिक और ग़लत है.

जबकि केंद्र सरकार ने वर्ष 2004 में 25 फ़रवरी को एक अधिसूचना जारी करके एएमयू में मुसलमानों को 50 प्रतिशत आरक्षण देने का फ़ैसला किया था. केंद्र सरकार की इसी अधिसूचना के ख़िलाफ़ एक याचिका दायर की गई थी.

उल्लेखनीय है कि यह मामला पहले भी अदालत में आया था. अज़ीज़ बाशा का यह मामला 1968 में सर्वोच्च न्यायालय तक भी पहुंचा था. तब सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फ़ैसले में कहा था कि विश्वविद्यालय केंद्रीय विधायिका द्वारा स्थापित किया गया है और इसे अल्पसंख्यक विश्वविद्यालय का दर्जा नहीं दिया जा सकता. लेकिन तब की सरकार ने इस फ़ैसले को प्रभावहीन करते हुए 1981 में संविधान संशोधन विधेयक लाकर एएमयू को मुस्लिम यूनिवर्सिटी का दर्जा दे दिया था.

लेकिन यह मामला यूं ही चलता रहा, लेकिन जब केंद्र सरकार ने 50 फ़ीसदी सीटें मुसलमानों के लिए आरक्षित करने की मांग की तो इसका विरोध शुरु हुआ और इसके ख़िलाफ़ याचिका दायर की गई. उस समय विरोध सबसे आगे बीजेपी व आरएसएस से जुड़ी अन्य संस्थाएं सबसे आगे थी.

इस मामले का दिलचस्प पहलू यह भी है कि केस सुप्रीम कोर्ट में जाने के बाद तत्कालीन यूपीए सरकार ने भी बहुत ज़्यादा दिलचस्पी नहीं लिया, बल्कि वो भी इस मामले को अपनी सियासत के ख़ातिर ज़िन्दा रखना चाहती थी. हालांकि अल्पसंख्यक दर्जा दिए जाने की मांग बराबर उठती रही. 2013 में जब राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने विभिन्न विषयों पर विचार करने के लिए संसद की संयुक्त बैठक बुलाई थी, तब भी यह मुद्दा संसद में भी उठा. उस समय बहुजन समाज पार्टी के सांसद शफीकुर रहमान बर्क ने यह मुद्दा उठाया था.

गौरतलब है कि इस देश में शैक्षिक संस्थानों को सियासत से दूर रखने की बात हमेशा ज़ोर-शोर से उठाई जाती रही है. मगर वर्तमान सरकार ने इस सोच की धज्जियां उड़ा दी हैं. शिक्षा के भगवाकरण के तमाम आरोपों के बीच एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जा पर सरकार का बदला हुआ रूख यह बताने की काफी है कि सरकार अल्पसंख्यकों के शैक्षिक विकास को लेकर गंभीर नहीं है.

दूसरी तरफ़ एएमयू वाईस-चांसलर के रूख से यह साफ़ है कि यह मामला ज़रूर तुल पकड़ेगा. इस बात की भी पूरी संभावना है कि आने वाले 2017 के यूपी चुनाव के मद्देनज़र सियासी पार्टियां इस पर जमकर सियासत करेंगी. मगर यहां सवाल उन लाखों मुस्लिम युवाओं के भविष्य का है, जो एएमयू को तालीम और मुस्तक़बिल दोनों के ही प्रमुख सेन्टर के तौर पर देखते आए हैं. यह सवाल आर्थिक रूप से पिछड़े उन मुस्लिम छात्रों के लिए है, जिनके लिए एएमयू में दाखिला किसी सपने से कम नहीं है. ऐसे में अगर एएमयू का अल्पसंख्यक दर्जा छिना तो 50 फ़ीसदी आरक्षण पर उनका हक़ ख़त्म हो जाएगा और ये उनके लिए किसी सदमे से कम नहीं है.


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