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तो क्या आरटीआई को ख़त्म कर देना चाहती है ये सरकार?

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Afroz Alam Sahil, TwoCircles.net

दस साल पहले बड़ी उम्मीदों के साथ देश में आए सूचना का अधिकार क़ानून (आरटीआई) से अब लोगों का भरोसा टूट रहा है. क्योंकि जानकारों का मानना है कि नई सरकार में पारदर्शिता के बजाए गोपनियता पर अधिक ज़ोर है. सरकार का यह रवैया आरटीआई के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनकर सामने आ रही है.

खुद आरटीआई से हासिल जानकारी यह बताती है कि तत्कालीन मोदी सरकार ने आरटीआई के प्रचार-प्रसार के बजट में 80 फ़ीसदी राशि की कटौती की है.

पुणे के आरटीआई कार्यकर्ता विहार धुर्वे को आरटीआई के ज़रिए केन्द्र सरकार के कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग द्वारा मिले अहम दस्तावेज़ बताते हैं कि आरटीआई के प्रचार-प्रसार में चालू वित्तीय वर्ष में सिर्फ़ 1.67 करोड़ रुपए खर्च किए गए हैं, जबकि पिछले वित्तीय वर्ष यानी 2014-15 में इस मद में 8.75 करोड़ रुपए खर्च किए गए थे.

अगर यूपीए के शासनकाल की बात करें तो साल 2011-12 में आरटीआई के प्रचार-प्रचार के लिए मनमोहन सरकार ने 16.72 करोड़ रुपए, 2012-13 में 11.64 करोड़ रुपए और 2013-14 में 12.99 करोड़ रुपए खर्च किए थे.

इतना ही नहीं, आरटीआई डालने वाले कार्यकर्ताओं की शिकायत है कि अब अधिकतर आरटीआई में सरकार द्वारा कोई जवाब नहीं दिया जाता. पारदर्शिता का अंदाज़ा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि पिछले दिनों खुद केन्द्रीय सरकार ने अपने अफ़सरों व कर्मचारियों को ऑफिस मेमोरेंडम के रूप में जारी एक निर्देश में स्पष्ट तौर पर कहा है कि संवेदनशील सूचनाएं लीक नहीं होनी चाहिए.

कहानी यहीं ख़त्म नहीं होती. केन्द्रीय सूचना आयोग में भारी बैकलॉक नज़र आ रहा है. आरटीआई से जुड़े देश की इस सबसे सर्वोच्च संस्थान यानी केन्द्रीय सूचना आयोग के पास आज की तारीख़ तक 33,807 द्वितीय अपील व शिकायतों के मामले पेंडिंग हैं और जिस रफ़्तार से इस आयोग में केसों का निपटारा हो रहा है, उससे यह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि इन तमाम मामलों के निपटारे में दो साल से अधिक का समय लग सकता है.

अगर मामला राष्ट्रपति कार्यालय, उप-राष्ट्रपति कार्यालय, प्रधानमंत्री कार्यालय, गृह मंत्रालय या रक्षा मंत्रालय जैसे अहम दफ़्तरों से संबंधित है तो यह इंतज़ार और भी लंबा हो सकता है.

पूर्व सूचना आयुक्त शैलेष गांधी सरकार की मंशा पर सवाल उठाते हुए बताते हैं कि जिस रफ़्तार से केन्द्रीय सूचना आयोग में मामलों का निपटारा किया जा रहा है, अगर उसी रफ़्तार में काम होता रहा तो सिर्फ इन्हीं मामलों में दो साल से अधिक का समय लगना तय है. इस तरह से देखा जाए तो सरकार आरटीआई को ख़त्म कर देने के पूरी तैयारी में है. ये आयोग भी कोर्ट की तरह हो जाएगा.

कॉमनवेल्थ ह्यूमन राईट्स इनीसिएटिव से जुड़े वेंकटेश नायक का कहना है –‘मेरे खुद के अपील आयोग में एक साल से पड़े हुए हैं. एक तरफ़ तो हमारे प्रधानमंत्री देश-दुनिया में घूम-घूम कर पारदर्शिता की बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हैं, लेकिन उनकी बातों का पालन ख़ुद उनके अपने दफ़्तर के अधिकारी नहीं कर रहे हैं. ये प्रधानमंत्री के इज़्ज़त पर एक बहुत बड़ा सवाल है.’

नेशनल कैंपेन फॉर राईट टू इंफोर्मेशन से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता निखिल डे कहते हैं कि इससे पहले भी आरटीआई का हाल बहुत ज़्यादा अच्छा नहीं था, पर इस सरकार ने इसे और बुरा कर दिया. हमने इस मसले पर सब करके देख लिया. धरना-प्रदर्शन भी हो गया. अदालत भी चले गए. अब इस समस्या का समाधान एक दिन में तो संभव है नहीं. सरकार का जो मक़सद था, उसे उसने पूरा कर लिया.

इससे पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी भी केन्द्र सरकार की आलोचना कर चुकी हैं. उन्होंने कहा था –‘सरकार बेरहमी से आरटीआई अधिनियम को कमजोर करने तथा खुद को बचाने की कोशिश कर रही है.’

इन सबके बीच सोमवार को पूर्व रक्षा सचिव आर.के. माथुर मुख्य सूचना आयुक्त (सीआईसी) के रूप में शपथ ले चुके हैं. लेकिन इनका भी कार्यकाल सिर्फ तीन साल का ही होगा. माथुर अभी 62 साल के हैं. और वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी बताती है कि इनके पास निपटारे के लिए 10 हज़ार से अधिक मामले (शिकायत व अपील दोनों) मौजूद हैं. तीन सालों में पहले इनका निपटारा कर देना ही उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी.

स्पष्ट रहे कि मुख्य सूचना आयुक्त का पद 22 अगस्त, 2014 से रिक्त था. पिछले साल 8 जून, 2015 को इस पद पर आयोग के वरिष्ठ सूचना आयोग विजय शर्मा को नियुक्त किया गया. लेकिन गत 1 दिसम्बर को विजय शर्मा रिटायर हो गए.


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